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________________ संघ' में मिला दिया गया। इस संघ का नया नाम 'वज्जीसंघ' निश्चित हुआ। इस गणसंघ की राजधानी 'वैशाली' बनायी गयी। विदेह के गणराज्य चेटक को 'वज्जीसंघ' का गणराज या राजप्रमुख निर्वाचित किया गया। ___इस गणराज्य की सीमायें इसप्रकार थीं— पूर्व में वन्यप्रदेश, पश्चिम में कोशलदेश और कुसीनारा-पावा, जो मल्लों के गणराज्य थे। दक्षिण में गंगा और गंगा के उस पार मगध साम्राज्य था। उत्तर में हिमालय की तलहटी का वन्यप्रदेश। बौद्ध ग्रन्थों के आधार पर इस गणराज्य का विस्तार 2300 वर्गमील में था। सातवीं शताब्दी में युवानच्चांग' नाम का एक चीनी बौद्धयात्री भारत आया था। उसने लिखा है कि इस राज्य का क्षेत्रफल पाँच हजार मील है।' शासन-व्यवस्था - 'वज्जीसंघ' में 9 राजा मुख्य थे और उनके ऊपर एक गणपति या राजप्रमुख होता था। इस संघ में आठ कुलों के नौ गण थे। गणपरिषद् में सम्मिलित भोगवंशी, इक्ष्वाकुवंशीय, ज्ञातवंशीय, कौरववंशीय, लिच्छिविवंशीय, उग्रवंशीय और विदेह कुलों का वर्णन जैनागमों में मिलता है। किन्तु आठ कुलों में इनके अतिरिक्त और कौन-सा कुल था, यह कुछ भी पता नहीं चलता है। सम्भवत: आठवाँ कुल राजकुल' के नाम से प्रसिद्ध था। इस संघ को 'लिच्छवि संघ' भी कहा जाता था। इन अष्टकुलों को वज्जियों का अष्टकुल' कहा जाता था। वास्तव में ये सभी कुल 'लिच्छवि' थे। इनमें ज्ञातृवंशी' सर्वप्रमुख थे। गण-शासन वस्तुत: शासन नहीं, एक व्यवस्था होती है। उसमें दायित्व उसके प्रत्येक सदस्य पर होता है। गण का स्वामी गणपति होता है, और गण-परिषद् उसकी प्रतिनिधि होती है। 'वैशाली संघ' में भी यही बात थी। वैशाली का वैभव वैशाली अत्यन्त समृद्ध नगरी थी। उस समय वैशाली में एक-एक गव्यूति (1 गव्यूति-2 मील) की दूरी पर तीन प्राकार बने हुये थे। तीनों प्राकारों में गोपुर थे, अट्टालिकायें थीं तथा कोठे बने हुए थे। ___ 'विनयपिटक' के अनुसार वैशाली अत्यन्त समृद्धिशाली और धन-जन से परिपूर्ण थी। उसमें 7777 प्रासाद, 7777 कूटागार, 7777 आराम और 7777 पुष्करिणियाँ थी। - तिब्बत से प्राप्त कुछ ग्रन्थों के अनुसार वैशाली में 7000 सोने के कलशवाले महल, 14000 चाँदी के कलशवाले महल तथा 21000 ताँबे के कलशवाले महल थे। इन तीन प्रकार के महलों में क्रमश: उत्तम, मध्यम और जघन्य कुलों के लोग रहते थे। ___ नगर के मध्य में एक 'मंगल पुष्करिणी' थी। इसका जल अत्यन्त निर्मल था। समय-समय पर इसका जल बदला जाता रहता था। इसमें लिच्छिवियों के अतिरिक्त किसी अन्य को–अलिच्छवि को स्नान-मज्जन करने का निषेध था। इस पुष्करिणी में पशु और पक्षी तक प्रवेश नहीं कर सकते थे। इसके ऊपर लोहे की जाली रहती थी। इसके चारों ओर प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक .0063 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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