SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य, दशलक्षणों से युक्त जो अखण्ड है, वही धर्म है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में आचार्य उमास्वामी ने भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए कहा है कि "उत्तमक्षमा-मार्दवार्जाव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागाकिंचन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्म: ।” इसमें उत्तमक्षमा आदि के अन्त में 'ब्रह्मचर्याणि' बहुवचनान्त-प्रयोग किया है तथा 'धर्म:' एकवचनान्त-प्रयोग है। इससे स्पष्ट है कि धर्म के लक्षण उत्तमक्षमा आदि दस हैं, किन्तु धर्म दसप्रकार का नहीं है, वह तो एक ही है। यह धर्म चर्चा का विषय न होकर 'चर्या' अर्थात् आचरण का विषय है; क्योंकि राजवार्तिककार के अनुसार “धारणसामर्थ्याद् धर्म इत्येषा संज्ञा अन्वर्थेति” – (राजवार्तिक, 9/6/24) ___ इसके अनुसार धारण करने की सामर्थ्य या विशेषता के कारण ही इनकी 'धर्म' संज्ञा सार्थक होती है। अहिंसा अशोक ने अपने अभिलेखों में जहाँ 'धम्म' की चर्चा की है, वहीं उसने अहिंसा-सम्बन्धी कुछ वाक्यों का प्रयोग किया है :-- (i) अनारम्भो पाणानं (शिलालेख 3, 4, 9, स्तम्भलेख 7) अर्थात् प्राणियों की हिंसा न करना। (ii) अविहिंसा भूतानां (शिलालेख 4, स्तम्भलेख 7) सभी जीवधारियों के प्रति अहिंसा। (iii) पाणानां संयमो (शिलालेख 9) प्राणियों की हिंसा में संयम। (iv) सर्वाभूतानं अक्षतिसंयम समचरिअं रभसिये। (शिलालेख 13) सभी जीवधारियों की रक्षा, संयम एवं समताचार प्रारंभ किया। इसमें व केवल मनुष्यों के प्रति अहिंसा अथवा हिंसा के प्रति संयम की बात न कहकर सम्पूर्ण जीवधारियों के अक्षति-संयम की बात करता है, तथा स्तम्भलेख-क्र. पाँच में ऐसे प्राणियों की एक लम्बी सूची दी गई है, जिनकी रक्षा का विधान है। __ अशोक का अहिंसा के प्रति यह दृष्टिकोण जैनधर्म के अहिंसा के विस्तृत-दृष्टिकोण का परिचायक है, जहाँ केवल प्राणियों की अहिंसा का ही नहीं, वरन् त्रस एवं स्थावर —दोनों के प्रति अहिंसा धारण करने को कहा गया है। त्रस एवं स्थावर-जीवों के सम्बन्ध में जैनों का विस्तृत-चिन्तन 'द्रव्यसंग्रह' में इसप्रकार वर्णित है “पुढवि-जल-तेऊ-वाऊ-वणप्फदी विविह थावरेइंदी। विग-तिग-चदु-पंचक्खा, तसजीवा होंति संखादी ।।" - (द्रव्यसंग्रह 11) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति ये नानाप्रकार के स्थावरजीव हैं और ये एक-इन्द्रिय के धारक हैं। दो-तीन-चार और पाँच इन्द्रियों के धारक शंख आदि त्रस जीव' कहलाते इन त्रस एवं स्थावर ---दोनों प्रकार के जीवों के प्राणातिपात से विरमण को अहिंसाव्रत तथा इनकी रक्षा को ही 'अहिंसाधर्म' कहा गया है-- 00 122 प्राकृतविद्या जनवरी-जून "2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy