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________________ (1) “पढमं महव्वदं पाणादिवावादो विरमणं" – (यति-प्रतिक्रमणसूत्र) (2) “जीवाणं रक्खणो धम्मो।" - (कार्तिकेयानुप्रेक्षा) (3) “प्रमत्तयोगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा।" - (तत्त्वार्थसूत्र, 13/7, आचार्य उमास्वामी) (4) “धर्ममहिंसारूपं संशृण्वन्तोऽपि ये परित्यक्तुम् । स्थावरहिंसामसहास्त्रसहिंसां तेऽपि मुञ्चन्तु ।। स्तौकैकेन्द्रियघाताद्गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ।।" -(अमृतचन्द्राचार्य, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय 4/40, 4/76-77) (5) त्रसहिंसा को त्यागि वृथा थावर न संहारै। ___पर-वधकार कठोर निन्द्य नहिं वचन उचारै ।। -(छहढाला, 4.10.59) उपरोक्त श्लोकों में त्रस' एवं 'स्थावर' दोनोंप्रकार के जीवों के घात को त्यागने के लिए कहा है। अशोक प्राणियों की हिंसा नहीं करने से ही सन्तुष्ट नहीं होता। वह अमुक पशुओं को निर्लक्षित करने तथा जीव-सहित भूसे को जलाने का भी निषेध करता है। डॉ. भंडारकर के अनुसार अशोक ने अन्यत्र भी जैन-कल्पना ग्रहण की है। उसके लेखों में जीव, प्राण, भूत और जात शब्द आचारांग सूत्र' के पाणा-भूया, जीव-सत्ता के ही पर्याय हैं।" तिथियों का विचार अहिंसा-सम्बन्धी विचारों को और प्रभावक बनाने के लिए उसने तीन तिथियों चावुदसं, पनदस, पटिपादये, " (चतुर्दशी, पूर्णिमा, प्रतिपदा) को उपवास का दिन बताकर मछलियों को मारने व बेचने से मना किया है। इसीप्रकार प्रत्येक पक्ष की पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, तीन चातुर्मासों के शुक्लपक्ष में गौ को नहीं दागने का आदेश दिया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जैन-परम्परा में भी तीनों चातुर्मासों शुक्लपक्ष, पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी एवं पूर्णिमा का विशेष महत्त्व है। वर्ष की तीनों अष्टाह्निका शुक्लपक्ष की अष्टमी से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा को समाप्त होती है। तथा वर्ष का सर्वप्रमुख 'दसलक्षण पर्व' भाद्रपदमास की पंचमी से प्रारम्भ होकर चतुर्दशी तक चलता है। जैनों में इससे पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी एवं शुक्लपक्ष आदि का महत्त्व परिलक्षित होता है। जैन-परम्परा में ही पंचमी, अष्टमी तथा चतुर्दशी को व्रत रखने का विधान है। धरि उर समताभाव सदा सामायिक करिये। पर्व-चतुष्टय-माँहि पाप तजि पोषध धरिये ।। -(छहढाला, 4.14.63) मन में समताभाव धारण करके नित्य सामायिक करनी चाहिए। यह ‘सामायिक व्रत' है। चारों पर्यों में दो 'अष्टमी' और दो चतुर्दशी' को व्यापार आदि पाप-कार्यों को छोड़कर प्रोषधोपवास करना चाहिए। यह प्रोषधोपवास' व्रत है। अत: इन तिथियों को व्रत का दिन कहकर मछलियों के मारने व बेचने का निषेध कर तथा गौ को दागने की मनाही करना; प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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