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________________ डुलाते हैं। असंख्य प्राणियों के नेत्र भगवान् को देखने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। __'नन्दन-वन' की सान्द्र, सुरभित वीथियों से अलंकृत एवं शीतल अमृत-सरोवरों से आप्लावित पाण्डुक-वन' में प्रविष्ट हो देव-देवांगनाओं के रथ स्थिर हो जाते हैं। अन्तरिक्ष में भाँति-भाँति के नृत्य होने लगते हैं। विद्याधर, खेचर, नरदेव आदि प्रभु के यथाजातरूप देखने को लालायित हो उठते हैं। सौधर्मेन्द्र अत्यन्त सावधानी के साथ अपने सुकुमार-करों से शिशु को अर्द्धचन्द्राकार-शिला पर अवस्थित रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान करता है। इतने में ही लौकान्तिक-देव क्षीरसमुद्र जाकर एक हजार आठ कलशों में निर्मल तथा पवित्र जल भर लाते हैं। सर्वप्रथम सौधर्मेन्द्र रत्नकाय स्वर्णाभ-कलश को थामकर शिशु पर जलधारा करने के लिए उद्यत होता है, किन्तु किसलय को भी तिरस्कृत करनेवाली सुकुमारता को लक्षित कर मन विचलित हो उठता है। परन्तु शिशु-प्रभु के अपरिमित बल को देखकर इन्द्र का संशय दूर हो जाता है। काल की अखण्ड-गति की भाँति एक हजार आठ सौ कलशों की जलधारा सतत प्रभु के ऊपर प्रवहमान रहती है। जय-जयकार के साथ शत-सहस्र इन्द्र-माहेन्द्र तथा लौकान्तिकदेव प्रभु का अभिषेक करते हैं। उस समय केवल पृथ्वीतल पर ही नहीं, गगन में और तिर्यक दिशाओं में भी जय-जय ध्वनि का निर्घोष अनुगंजित हो जाता है। जड़-चेतन सभी लोकाकाश में किसी अनोखी समाधि में लीन होने लगते हैं। केवल एक अव्यक्त सत्, चिदाकाश चेतना का सहज उल्लास अपार्थिवता का दिव्य सौन्दर्य लक्षित होने लगता है। इन्द्र-माहेन्द्र भी क्षणभर के लिए किसी गहन ध्यान-समाधि में लीन हो जाते हैं। कुछ क्षणों के पश्चात् सौधर्मेन्द्र शिशु-प्रभु की स्तुति करता है-“हे भगवन् ! आपकी आत्मा निर्मल है। आपका यह शरीर विशुद्ध शान्ति के परमाणुओं से निर्मित है। अतएव संसार के अशुद्ध-जल से हम लोग आपकी क्या शुद्धि कर सकते हैं? हे त्रिभुवन के सौन्दर्य सार ! आपके समान विशुद्ध लावण्य कहाँ है? आपकी इस काया से वीतरागता झाँक रही है। ____ शची प्रभु के पारदर्शी अंगों पर स्थित जल-बिन्दुओं को बार-बार पोंछती है। किन्तु वह ज्यों-ज्यों कपाल-स्थित जल-बिन्दुओं को पोंछने की चेष्टता करती है, त्यों-त्यों अपने को निराश पाती है। अन्त में वह जान जाती है कि उसके आभूषणों का प्रतिबिम्ब जल-बिन्दुओं की भ्रान्ति उत्पन्न कर रहा है। इतने में ही सौधर्मेन्द्र की दृष्टि शिशु के पग के दाहिने अंगुष्ठ पर पड़ती है। उसमें मृगेन्द्र का लांछन देखकर वह शिशु का नाम वर्द्धमान' और उनका परिचय-चिह्न 'सिंह' घोषित करता है। महोत्सव का विशाल-समूह एक बार पुनः जय-जयकार से तीनों लोकों को गुंजा देता है। शची सुरुचि के साथ यथायोग्य प्रसाधनों से तथा वस्त्र-भूषा से शिशु को अलंकृत कर माता को सौंपने के लिए ले जाती है। अपनी माया से महारानी को सचेत कर उनकी स्तुति करती है :- “हे जगन्माता ! तुम धन्य हो। तुम्हारा यह पुत्र विश्व का कल्याण करेगा। संसार में संख्यात मातायें बालक को जन्म देती हैं, किन्तु जिस प्रकार प्राची-दिशा ही 0069 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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