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________________ अथ देशोऽस्ति विस्तारी जम्बूद्वीपस्य भारते। विदेह इति विख्यात: स्वर्गखण्डसम: श्रियः ।। 2/1 तत्राखण्डलनेत्रालीपद्मिनीखण्डमण्डलम् । सुखाम्भ: कुण्डमाभाति नाम्ना कुण्डपुरं पुरम् ।। 2/5 -(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, 2/1 एवं 5, पृ. 12) - अर्थ :--- अथानन्तर इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में लक्ष्मी से स्वर्ग-खण्ड की तुलना करनेवाला, विदेह इस नाम से प्रसिद्ध एक बड़ा विस्तृत देश है। उस विदेह देश में कुण्डपुर नाम का एक ऐसा सुन्दर नगर है, जो इन्द्र के नेत्रों की पंक्तिरूपी कमलिनियों के समूह से सुशोभित है तथा सुखरूपी जल का मानो कुण्ड की है। । तस्मिन्षण्मासशेषायुष्यानाकादागमिष्यति। भरतेऽस्मिन्विदेहाख्ये विषये भवनांगणे।। राज्ञ: कुण्डपुरेशस्य वसुधारापतत्प्रथु। सप्तकोटिर्मणि: सार्धा सिद्धार्थस्य दिनम्प्रति।। -(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, 74/251-52, पृ. 460) अर्थ:- जब उसकी आयु छह माह की बाकी रह गई और वह स्वर्ग से आने को उद्यत हुआ, तब इसी भरतक्षेत्र के विदेह' नामक देश-सम्बन्धी कुण्डपुर' नगर के राजा सिद्धार्थ के भवन के आँगन में प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्नों की बड़ी मोटी धारा बरसने लगी। विदेहविषये कुण्डसंज्ञायां पुरि भूपतिः ।। नाथो नाथकुलस्यैक: सिद्धार्थाख्यस्त्रिसिद्धिभाक् । तस्य पुण्यानुभावेन प्रियासीप्रियकारिणी।।-(वही, 75/7-8) अर्थ :--- विदेह देश के 'कण्ड' नगर में नाथवंश के शिरोमणि एवं तीनों सिद्धियों से सम्पन्न राजा सिद्धार्थ राज्य करते थे। पुण्य के प्रभाव से प्रियकारिणी उन्हीं की स्त्री हुई थी। 4. श्रीमानथेह भरते स्वयमस्ति धात्र्या पुंजीकृतो निज इवाखिलकान्तिसारः । नाम्ना विदेह इति दिग्वलये समस्ते ख्यात: परं जनपद: पदमुन्नतानाम् ।। तत्रास्त्यधो निखिलवस्त्ववगाहयुक्तं भास्वत्कलाधरबुधैः संवृष सतारम् । अध्यासितं वियदिव स्वसमानशोभं ख्यातं पुरं जगति कुण्डपुराभिधानम् ।। उन्मीलितावधिदृशा सहसा विदित्वा तज्जन्म भक्तिभरत: प्रणतोत्तमांगाः। घण्टा-निनाद-समवेतनिकायमुख्या दिष्ट्या ययुस्तदिति कुण्डपुरं सुरेन्द्राः ।। -(महाकवि असग, वर्द्धमानचरित, 17/1, 7, 61) अर्थ :– अथानन्तर इसी भरतक्षेत्र में एक ऐसा लक्ष्मी सम्पन्न देश है जो पृथिवी की स्वयं इकट्ठी हुई अपनी समस्त कान्तियों का मानों सार ही है, जो समस्त दिशाओं में विदेह इस नाम से प्रसिद्ध है, तथा उत्तम मनुष्यों के रहने का उत्कृष्ट स्थान है। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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