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________________ लिच्छवियों के स्वभाव, शील, रहन-सहन, उनके रीति-रिवाज आदि के सम्बन्ध में किसी एक ग्रन्थ में पूरा वर्णन नहीं मिलता है; बल्कि विभिन्न बौद्ध ग्रन्थों और जैनागमों में बिखरा हुआ विवरण प्राप्त होता है। उस सबको संकलित करने पर लिच्छवियों की कुछ स्पष्ट - तस्वीर बन सकती है । वैशाली के लिच्छवी युवक स्वतन्त्रताप्रिय, मनमौजी, सुन्दर और जीवनरस से लबालब भरे हुए थे । सुन्दर वस्त्र पहनते थे तथा अपने रथों को तेज चलाते थे । बुद्ध ने भी एक बार अपने भिक्षुओं से कहा था कि “जिन्होंने 'त्रायस्त्रिंश' के देवता न देखे हों, वे इन लिच्छवियों को देख लें। " लिच्छवियों की वेशभूषा के सम्बन्ध में बौद्धग्रन्थ 'ललितविस्तर' 'महावस्तु' में बड़ा रोचक - वर्णन मिलता है। उससे ज्ञात होता है कि लिच्छवी लोगों को नयनाभिराम और पंचरंगी वेशभूषा अधिक प्रिय थी। वे लोग अरुणाभ, पीताभ, श्वेताभ, हरिताभ और नीलाभ वस्त्र पहनकर जब बाहर निकलते थे, तो उनकी शान और शोभा देखते ही बनती थी । जो लोग अरुणाभ वस्त्र पहने थे, उनके घोड़े, लगाम, चाबुक, अलंकार, मुकुट, छत्र, तलवार की मूँठ पर लगी मणियाँ, पादुका और हाथ की पंखी तक लाल होती थीं। इससे लगता है कि लिच्छवी कितने शौकीन, रंगीन मिजाज़, फैशनपरस्त और अभिरुचि - सम्पन्न थे । उनका जीवन अत्यन्त सुरुचिपूर्ण और उल्लासमय था। लिच्छवी उत्सवप्रिय थे। उनके यहाँ सदा कोई न कोई उत्सव ही रहता था । 'शुभरात्रिका - उत्सव' में खूब गीत-नृत्य होते थे, वाद्य-यन्त्र बजाये जाते थे, पताकायें फहरायी जाती थीं । राजा, सेनापति, युवराज सभी इसमें सम्मिलित होते थे और सारी रात मनोरंजन करते थे। वे ललितकला के बड़े शौकीन थे । चैत्य और उद्यान बनवाने का उन्हें बहुत शौक था । लिच्छवियों में परस्पर बड़ा प्रेम और सहानुभूति थी । यदि एक लिच्छवी बीमार पड़ जाता था, तो दूसरे लिच्छवी उसे देखने आते थे । किसी लिच्छवी के घर में कोई उत्सव होता, तो सभी लिच्छवि उसमें सम्मिलित होते थे। अगर कोई विदेशी राजा लिच्छवीभूमि में आता, तो सारे लिच्छवी उसके स्वागत को जाते । युवक वृद्धजनों की विनय करते थे । स्त्रियों के साथ बलात्कार नहीं होता था । वे प्राचीन धार्मिक-परम्पराओं का निर्वाह करते थे। सभी लिच्छवियों की धार्मिक-निष्ठा निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैनधर्म के प्रति थी और वे उसका बराबर पालन करते थे । एक बार स्वयं बुद्ध ने वज्जीसंघ के सेनापति से कहा था--' - सिंह ! तुम्हारा कुल दीर्घ-काल से निग्गंठो (निर्ग्रन्थों) के लिए प्याऊ की तरह रहा है।' किन्तु वे लोग इतने उदार भी थे कि वैशाली में बुद्ध, मक्खलीपुत्त गोशाल, संजय वेलट्ठपुत्त आदि जो भी तीर्थिक आते थे, उनके प्रति भी वे सम्मान प्रकट करते थे, उनके भोजन - निवास की व्यवस्था करते थे; किन्तु उनकी धार्मिक - श्रद्धा तो केवल णिग्गंठणायपुत्त महावीर के प्रति ही थी । प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only ☐☐ 65 www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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