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________________ नगरव्यापी वास्तविकता पर ही प्रकाश डाला है। जिस नगर में लोकोत्तर महनीय-पुरुष तीर्थकर जन्म लेनेवाले हैं, वह नगर पवित्र होना चाहिए, धार्मिकजनों का केन्द्र होना चाहिए और वहाँ के जनों में आचार और विचार की शुद्धि होनी चाहिए। 'कुण्डपुर' उस काल में ऐसा ही पवित्र नगर था। वैशाली हिन्दू-पुराणों के अनुसार वैशाली' की स्थापना 'इक्ष्वाकु' और 'अलम्बुषा' के पुत्र 'विशाल' राजा ने की थी। बौद्धग्रन्थों में इस नगरी के नामकरण का कारण यह बताया गया है कि जनसंख्या बढ़ने से कई गाँवों को सम्मिलित करके तीन बार में इसे विशाल रूप दिया गया, इससे उसका नाम 'वैशाली' पड़ा। ___आजकल यह स्थान 'बसाढ़' नामक गाँव से पहचाना जाता है। इसके आसपास आज भी बसाढ़ के अतिरिक्त बनियागाँव, कूमल छपरागाछी, वासुकुण्ड और कोल्हुआ आदि गाँव आबाद हैं। समय के परिवर्तन के साथ यद्यपि प्राचीन नामों में थोड़ा-बहुत परिवर्तन अवश्य हो गया है; किन्तु इन नामों से प्राचीन नगरों की पहचान की जा सकती है, जैसे—वैशाली, वाणिज्यग्राम, कोल्लाग सन्निवेश, कर्मारग्राम और कुण्डपुर। बौद्ध-साहित्य के अनुसार वैशाली में प्राचीनकाल में 'कुण्डपुर' और 'वाणिज्यग्राम' भी मिले हुए थे । दक्षिण-पूर्व में 'वैशाली' थी, उत्तर-पूर्व में कुण्डपुर' था और पश्चिम में वाणिज्यग्राम' था। कुण्डपुर के आगे उत्तर-पूर्व में कोल्लाग' नामक एक सन्निवेश था, जिसमें प्रायः ज्ञातवंशीय क्षत्रिय रहते थे। इसी 'कोल्लाग सन्निवेश' के पास ज्ञातवंशीय क्षत्रियों का 'द्युतिपलाश' उद्यान और चैत्य था। इसीलिये इसे 'णायसंडवणे' अथवा 'णायसंडे उज्जाणे' कहा गया है। डॉ. होर्नले का मत है कि महावीर का जन्म वैशाली' के एक उपनगर कोल्लाग' में हुआ था, जहाँ द्युति-पलाश चैत्य' था। उनके मत से कोल्लाग सन्निवेश' में 'ज्ञात' या ‘णाय' क्षत्रियों का निवास था। राहुल सांकृत्यायन भगवान् महावीर को ज्ञातृवंशीय तथा वर्तमान जथरिया जाति को ज्ञातृवंश के वंशज बताते हैं। उनका मत है कि 'ज्ञात' शब्द का ही रूपान्तरित होकर 'जथरिया' बन गया है—ज्ञातृ (ज्ञातरजतरजथर) इका (इया)=जथरिया, जेथरिया। महावीर का गोत्र कश्यप' था तथा जथरियों का गोत्र भी काश्यप' है। 'रत्ती' परगना, जिसमें 'बसाढ़' (प्राचीन वैशाली) है, आजकल भी जथरियों का केन्द्र है। महावीर के काल में 'वज्जीदेश' में 'नादिक' नामक एक ग्राम था, जहाँ ज्ञातवंशी क्षत्रिय रहते थे। इस नादिका का ही संस्कृतरूप 'ज्ञात' का होता है। उसी 'नादिका' से 'रत्ती' शब्द बन गया--- रत्ती>लत्ती>नत्ती>नाती> नादि। (पाली) 'दीघ निकाय' की 'सुमंगल विलासिनी' टीका में एक स्थान पर इस नाम-भेद का स्पष्टीकरण किया गया है- 'नादिकाति एतं तलाकं निस्साय द्विण्णं चूल्लपितु महापितु पत्तानं द्वे गामा । नादिकेति एकस्सिं ज्ञातिगामे।' इसमें बताया है कि 'बातिक' (ज्ञातिक) और 'नादिक' दोनों नाम एक ही स्थान के हैं। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 1061 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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