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________________ पर शासनारूढ़ रहे प्रतीत होते हैं। सम्प्रति ने जैनधर्म के प्रसार में प्रभूत-योग दिया। साहित्यिक-साक्ष्यों के अनुसार वह आर्य सुहस्ति का शिष्य था और जैन-साधुओं को भोजन एवं वस्त्र प्रदान करता था। यदि यह सत्य है, तो इसका अर्थ है कि ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी के अन्त तक जैनधर्म मध्य-प्रदेश में प्रसार पा चुका था। सम्प्रति को उज्जैन प्रान्त में जैन-पर्वो के मानने तथा जिन-प्रतिमा-पूजोत्सव करने का श्रेय दिया जाता है। बृहत्-कल्पसूत्र-भाष्य, के अनुसार उसने अन्द (आंध्र), दमिल (द्रविड़), महरट्ट (महाराष्ट्र) और कुडुक्क (कोड़गु) प्रदेशों को जैन-साधुओं के विहार के लिए सुरक्षित बना दिया था। __मौर्यकाल में जैनधर्म का जन-साधारण पर प्रभाव था, इसका समर्थन पटना के निकटवर्ती लोहानीपुर से प्राप्त जिनबिम्ब के धड़ से भी होता है । यद्यपि सम्प्रति को अनेक जैन-मन्दिरों के निर्माण कराने का श्रेय दिया जाता है; परन्तु आज इन मन्दिरों का कोई भी अवशेष प्राप्त नहीं है, जो इस तथ्य की पुष्टि कर सके। प्रथम शताब्दी ईसा-पूर्व के कलिंग-नरेश चेतिवंशीय खारवेल का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं, जो उस कलिंग-जिनबिम्ब को पुन: अपनी राजधानी (कलिंग) में ले आया था, जिसे लूटकर नन्दराज मगध ले गया था। उड़ीसा में भुवनेश्वर की निकटवर्ती पहाड़ियों में स्थित हाथीगुम्फा में प्राप्त खारवेल का शिलालेख जैनधर्म के विषय में भी प्रसंगत: रोचक-विवरण प्रस्तुत करता है। यह शिलालेख अर्हतों एवं सिद्धों की वन्दना से प्रारम्भ होता है और यह भी सूचित करता है कि खारवेल ने चौंसठ-अक्षरी सप्तांगों (वास्तव में यह द्वादशांगी जिनवाणी या द्वादशांगी श्रुत है, इसका मूलवाक्य है—“चो-यठि-अंग-संतिकं तुरियं उपादयति।" - संपादक) को संकलित कराया था, जो मौर्यकाल में नष्ट हो गये थे। इससे स्पष्ट है कि खारवेल जैनधर्म के साथ सक्रियरूप से सम्बद्ध था। __ जैसा कि पहले कहा जा चुका है जैनधर्म के समस्त निनवों (भिन्न मत-सम्प्रदाय) में दिगम्बर-श्वेताम्बर मतभेद ही गम्भीरतम था; क्योंकि इसी के कारण जैनधर्म स्थायीरूप से दो आम्नायों में विभक्त हो गया। उक्त मतभेद के जन्म के विषय में दिगम्बर एवं श्वेताम्बरों द्वारा दिये गये कथानकों के विस्तार में जाना यहाँ अधिक समीचीन नहीं है, मात्र इतना कहना पर्याप्त होगा कि दिगम्बर-आम्नाय के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में द्वादशवर्षीय-दुर्भिक्ष ने जैन-मुनिसंघ के एक भाग को आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण-भारत की ओर विहार कर जाने के लिए विवश किया और जो मुनि मगध में ही रह गये थे, उन्हें खण्डवस्त्र धारण करने की छूट दे दी गयी। ये अर्द्धफालक मुनि ही श्वेताम्बरों के पूर्वरूप थे। इनके विपरीत श्वेताम्बरों का कहना है कि 'शिवभूति' नामक साधु ने क्रोध के आवेश में नग्नत्व स्वीकार किया था। अतएव इन साम्प्रदायिक-कथनों को स्वीकार करने की अपेक्षा यह कहना अधिक निरापद होगा कि उस काल में ऐसे दो वर्गों का अस्तित्व था, प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 141 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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