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________________ प्राचीन-गौरव से पूरी तरह परिचित न हो, किन्तु हमारा अतीत हमारे वर्तमान से कहीं अधिक शानदार और गरिमापूर्ण रहा है। उसका एक निदर्शन यह भी है कि हमारे देश का नाम जैन-संस्कृति के महापुरुषों के नाम पर आधारित रहा है। इसका सबसे प्राचीन नामकरण 'अजनाभवर्ष' मिलता है, जो कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पिताश्री महाराज नाभिराय के नाम पर आधारित है। कृषियुग में जैनों का कितना व्यापक प्रभाव था, यह बात इससे स्पष्ट है, किन्तु इस महत्त्व से आज का जैनसमाज प्राय: अपरिचित है। 'अजनाभवर्ष' नामकरण के बारे में प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता एवं भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञ विद्वान् डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं— स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत, प्रियव्रत के पुत्र अग्नीध्र, अग्नीध्र के पुत्र नाभि, नाभि के पुत्र ऋषभ और ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए, जिनमें 'भरत' ज्येष्ठ थे। यही नाभि 'अजनाभ' भी कहलाते थे, जो अत्यन्त-प्रतापी थे और जिनके नाम पर यह देश 'अजनाभवर्ष' कहलाया।" __इस तथ्य की पुष्टि वैदिक-परम्परा के पुराण-ग्रन्थ भी करते हैं “हिमाह्वयं तु वै वर्षं नाभेरासीत् महात्मन:।" अर्थात् 'हिम' नामक यह क्षेत्र (हिमालय से लेकर समुद्रपर्यन्त की भूमि) महापुरुष नाभिराय के नाम से (अजनाभवर्ष) प्रसिद्ध था। “हिमादि-जलधेरन्त भिखंडमिति स्मृतम् ।" अर्थ :- हिमालय पर्वत से लेकर समुद्रपर्यन्त यह देश 'नाभिखण्ड' (अजनाभवर्ष) के नाम से जाना जाता था। बाद में इन्हीं नाभिराज के पौत्र एवं ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम पर इस देश का नामकरण 'भारतवर्ष' हुआ। इतना ही नहीं, ऋषभदेव के पुत्रों के नाम पर इस देश के विभिन्न प्रदेशों के नामकरण हुए थे, जिनमें से कुछ का उल्लेख आगे किया जा रहा है। विशेष-अनुसंधान से इस बारे में पूरा विवरण मिल सकता है। __ जैनपुराणों में वर्णित अनेकों पर्वतों के बारे में श्री एस. मुजफ्फरअली ने अपनी पुस्तक 'The Geography of the Puranas' में विस्तार से वर्णन करते हुये रूस के अनेकों पर्वतों से उनका साम्य व्यापक अनुसंधानपूर्वक प्रतिपादित किया है। वस्तुत: भौगोलिक प्रमाणों की गहन-अनुसंधानपूर्वक की गई प्रस्तुति के क्षेत्र में जैनेतर विद्वानों ने गम्भीरतापूर्वक काम किया है, जबकि जैन विद्वान् इस क्षेत्र में अपना कोई विशेष प्रभाव नहीं छोड़ पाये हैं। . भारत के अनेकों प्रान्तों में जैनधर्म का इतना अधिक प्रभाव था कि ब्राह्मण उनमें यात्रा-निमित्त जाना भी उचित नहीं समझते थे। इस बारे में यह उल्लेख द्रष्ट व्य है— "अंग-बंग-कलिंगेषु सौराष्ट्र-मागधेषु च। तीर्थयात्रां विना गत्वा पुन: संस्कारमर्हति ।।" इसका अभिप्राय विश्व हिन्दी-कोश' में यह दिया गया है कि अंग, बंग, कलिंग, सौराष्ट्र 008 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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