________________
प्राकृत-साहित्य में महावीर का धर्म-दर्शन
-डॉ. उदयचन्द्र जैन
प्राकृतभाषा भारत की ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व की एक अतिप्राचीन और प्रतिष्ठित भाषा है, तथा इसका वाङ्मय बहुआयामी होने से विश्वभर के मनीषियों के लिये आदर का केन्द्र बना हुआ है। ऐसे ही बहुमानित प्राकृत-वाङ्मय में से भगवान् महावीर के धर्म-दर्शन के तत्त्वों को चुनकर विद्वान् लेखक ने इस आलेख में श्रमपूर्वक संजोया है। –सम्पादक
भारतीय साहित्य-परम्परा में दो प्रकार के साहित्य का विशेष-उल्लेख किया जाता है(1) प्राकृत-साहित्य और (2) संस्कृत-साहित्य।
इस साहित्य-परम्परा में प्राकृत-साहित्य को महावीर और बुद्ध के साथ जोड़ा जाता है, परन्तु भाषा की दृष्टि से प्राकृत-साहित्य अक्षुण्णरूप में अब तक लिखा जा रहा है, इसका विशाल-क्षेत्र है, इसकी व्यापकता है और इसकी भाषा में सभी को जोड़ने की कला है। यह हर क्षेत्र के जन-जीवन की भाषा है, साधारणजनों की भाषा है और प्रकृति से जुड़ी ही जन-जन की भाषा है। इस भाषा में भी सभी विधायें विद्यमान हैं, प्रबन्ध से लेकर मुक्तक, पुराण से लेकर इतिहास, भूगोल से लेकर गणित और स्तुति से लेकर विशाल चरित्र आदि हैं। प्रारंभिक-चरण में इस भाषा के साहित्य का निम्न आकार-प्रकार का था(1) आगम-साहित्य – (क) शौरसेनी प्राकृत का आगम-साहित्य ।
(ख) अर्धमागधी प्राकृत का आगम साहित्य- अंग, उपांग आदि। (II) आगम का - (क) शौरसेनी प्राकृत का आगम-व्याख्या-साहित्य। ___व्याख्या-साहित्य (ख) अर्धमागधी प्राकृत का आगम-व्याख्या-साहित्य । (III) सिद्धान्त-साहित्य। (IV) भूगोल-गणित एवं ज्योतिष-साहित्य । (V) स्तुति-साहित्य। साहित्यिक विधा का साहित्य
(क) प्रबन्ध साहित्य - महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तक काव्य, छंद, व्याकरण, चम्पू, कथा, चरित्र, स्तुति, नाट्य आदि।
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
00 105
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org