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________________ हैं महत् या बुद्धि, अहंकार, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रायें व पाँच भूत । 4. सत्त्व, रज: व तम: तीन गुण हैं। सत्त्व, प्रकाशस्वरूप 'रज:' क्रियाशील. और तम:' अन्धकार व अवरोधक-स्वरूप है। यह तीनों गुण अपनी साम्यावस्था में सदृश-परिणामी होने से अव्यक्त रहते हैं और वैसादृश्य होने पर व्यक्त हैं, क्योंकि तब कभी तो सत्त्वगुण-प्रधान हो जाता है और कभी रज या तमोगुण। उस समय अन्यगुणों की शक्तिहीन रहने से वे अप्रधान होते हैं। 5. रजोगुण के कारण व्यक्त व अव्यक्त—दोनों ही प्रकृति नित्य परिणमन करती रहती हैं। वह परिणमन तीन प्रकार का है—धर्म, लक्षण व अवस्था। धर्मों का आविर्भाव व तिरोभाव होना 'धर्मपरिणाम' है, जैसे मनुष्य से देव होना। प्रतिक्षण होनेवाली सूक्ष्म-विलक्षणता-लक्षण परिणाम' है और एक ही रूप से टिके हुए अवस्था बदलना 'अवस्था-परिणाम' है, जैसे बच्चे से बूढ़ा होना। इन तीन गुणों की प्रधानता होने से बुद्धि आदि 33 तत्त्व भी तीन प्रकार हो जाते हैं—सात्त्विक, राजसिक व तामसिक । जैसेज्ञान-वैराग्य-पूर्ण बुद्धि सात्त्विक है, विषय-विलासी राजसिक है और अधर्म (हिंसा आदि) में प्रवृत्त तामसिक है—इत्यादि। 6. चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हाथ, पाँव, वचन, गुदा व जननेन्द्रिय कर्मेन्द्रियाँ हैं, ज्ञानेन्द्रियों के विषयभूतरूप आदि पाँच तन्मात्रायें है और उनके स्थूल-विषयभूत पृथ्वी आदि 'भूत' कहलाते हैं।' ईश्वर व सुख-दुःख-विचार 1.ये लोग ईश्वर तथा यज्ञ-ज्ञान आदि क्रियाकाण्ड को स्वीकार नहीं करते। 2. इनके अनुसार सत्त्वादि गुणों की विषमता के कारण ही सुख-दु:ख उत्पन्न होते हैं। वे तीन प्रकार के हैं—आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक । आध्यात्मिक दो प्रकार के हैं—कायिक व मानसिक। मनुष्य, पशु आदि-कृत 'आधिभौतिक' और यक्ष, राक्षस आदि-कृत या अतिवृष्टि आदि ‘आधिदैविक' हैं। सृष्टि, प्रलय व मोक्ष-विचार ___ 1. यद्यपि पुरुष-तत्त्व रूप से एक है। प्रकृति की विकृति से चेतन-प्रतिबिम्ब रूप जो बुद्धियाँ उत्पन्न होती हैं—वे अनेक हैं। जड़ होते हुए भी यह बुद्धि चेतनवत् दीखती है। इसे ही 'बद्ध-पुरुष' या 'जीवात्मा' कहते हैं । त्रिगुणधारी होने के कारण यह परिणामी है। 2. महत्, अहंकार, ग्यारह इन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रायें, प्राण व अपान —इन सत्रह तत्त्वों से मिलकर सूक्ष्म-शरीर बनता है, जिसे 'लिंग-शरीर' भी कहते हैं। वह इस स्थूल-शरीर के भीतर रहता है, सूक्ष्म है और इसका मूलकारण है। यह स्वयं निरूपण-योग्य है, पर नट की भाँति नाना शरीरों को धारण करता है। 3. जीवात्मा अपने अदृष्ट के साथ परा-प्रकृति में लय रहता है। जब उसका अदृष्ट पाकोन्मुख होता है, तब तमोगुण का प्रभाव हट जाता है। पुरुष का प्रतिबिम्ब उस प्रकृति पर पड़ता है, जिससे उसमें क्षोभ या चंचलता उत्पन्न होती है और स्वत: परिणमन करती हुई महत् आदि 23 विकारों को उत्पन्न करती है। उससे प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 155 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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