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सूक्ष्म-शरीर और उससे स्थूल शरीर बनता है, यही सृष्टि है। 4. अदृष्ट के विषय समाप्त हो जाने पर ये सब पुन: उलटे-क्रम से पूर्वोक्त में लय होकर साम्यावस्था में स्थित हो जाते हैं । यही प्रलय है। 5. अनादिकाल से इस जीवात्मा को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं है। 25 तत्त्वों के ज्ञान से उसे अपने स्वरूप का भान होता है, तब उसके राजसिक व तामसिक गुणों का अभाव हो जाता है। एक ज्ञानमात्र रह जाता है, वही कैवल्यरूप की प्राप्ति है । इसे ही 'मोक्ष' कहते हैं । 6. वह मुक्तात्मा जब तक शरीर में रहता है, तब तक 'जीवन्मुक्त' कहलाता है, और शरीर छूट जाने पर 'विदेहमुक्त' कहलाता है। 7. पुरुष व मुक्त जीव में यह अन्तर है कि पुरुष तो एक है और मुक्तात्मायें अपने-अपने सत्त्व - गुणों की पृथक्ता के कारण अनेक हैं । 'पुरुष' अनादि व नित्य है और 'मुक्तात्मा' सादि व नित्य । कारण-कार्य-विचार
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सांख्य ‘सत्कार्यवादी’ हैं। अर्थात् इनके अनुसार कार्य सदा अपने कारणभूत पदार्थ में विद्यमान रहता है। कार्य की उत्पत्ति-क्षण से पूर्व वह अव्यक्त रहता है । उसकी व्यक्ति ही कार्य है। वस्तुतः न कुछ उत्पन्न होता है, न नष्ट ।
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प्रमाण - विचार
सांख्य प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम – ये तीन प्रमाण मानता है । अनुमान व आगम नैयायिकवत् है। 'बुद्धि' अहंकार व मन को साथ लेकर बाहर निकल जाती है । और इन्द्रिय-विशेष के द्वारा उसके प्रतिनियत विषय को ग्रहण करके तदाकार हो जाती है । बुद्धि का विषयाकार होना ही प्रत्यक्ष है 1
जैन-बौद्ध व सांख्यदर्शन की तुलना
श्री जिनेन्द्र वर्णी जी जैनदर्शन एवं सांख्य दर्शन की तुलना करते हुए लिखते हैं1. जैन व बौद्ध की तरह सांख्य भी वेद, ईश्वर, याज्ञिक क्रियाकाण्ड व जाति-भेद को स्वीकार नहीं करता। जैनों की भाँति ही बहु-आत्मवाद तथा जीव का मोक्ष होना मानता है। जैन व बौद्ध की भाँति परिणामवाद को स्वीकार करता है । अपने तीर्थंकर कपिल को क्षत्रियों में उत्पन्न हुआ मानता है । वैदिक देवी-देवताओं पर विश्वास नहीं करता और वैदिक ऋचाओं पर कटाक्ष करता है । तत्त्वज्ञान, संन्यास व तपश्चरण को प्रधानता देता है। ब्रह्मचर्य को यथार्थ - यज्ञ मानता है। गृहस्थ-धर्म की अपेक्षा सन्यास-धर्म को अधिक महत्त्व देता है । 2. सांख्यों की भाँति जैन भी किसी न किसी रूप में 25 तत्त्वों को स्वीकार करते हैं । तथा 'परमभावग्राही द्रव्यार्थिक नय' से स्वीकार किया गया एक व्यापक, नित्य, चैतन्यमात्र, जीवतत्त्व ही 'पुरुष' है। 'संग्रहनय' से स्वीकार किया गया एक, व्यापक, नित्य, अजीवतत्त्व ही 'अव्यक्त - प्रकृति' है । द्रव्य व भावकर्म 'व्यक्त - प्रकृति' है। शुद्ध निश्चयनय से जिसे उपरोक्त प्रकृति का कार्य, विकार तथा जड़माया कहा गया है, ऐसा ज्ञान का क्षयोपशम सामान्य महत् या बुद्धि-तत्त्व है, मोहजनित सर्व भाव - अहंकार तत्त्व
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प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर विशेषांक
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