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________________ रात्रि आदिकाल में, संकल्प - विकल्प रूप आदि भावों में किये गये अपराधों की निन्दा व गर्हा से युक्त होकर शुद्ध, मन, वचन, कर्म से आलोचन करना 'प्रतिक्रमण' है 1 इसीप्रकार श्रावक भी 'आलोचना-पाठ' के माध्यम से अपने द्वारा किये गये दोषों की निर्वृत्ति करना चाहता है । सुनिये जिन अरज हमारी, हम दोष किए अति भारी । तिनकी अब निवृति काजा, तुम सरन लही जिनराजा ।। - ( आलोचना-पाठ ) इसप्रकार आलोचना एवं प्रतिक्रमण के द्वारा जैन- परम्परा में आत्मनिरीक्षण का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है, ताकि आत्मनिरीक्षण के द्वारा आत्म-पराक्रम को बढ़ा सके I अशोक द्वारा आत्म-परीक्षण एवं आत्म-पराक्रम की चर्चा करना उसके जैनत्व के संस्कारों का ही परिणाम हैं । वचोगुप्ति अशोक ने एक ऐसे देश में जहाँ अनेक धर्म प्रचलित हो, सहिष्णुता को परमकर्त्तव्य माना। सहिष्णुता का मूल उसके अनुसार वचोगुप्ति है । “तस्य तु इदं मूलं वचोगुप्ति ।” “ अपने ही धर्म की प्रशंसा और दूसरे धर्मों की निंदा करने से बचना । इस आधार पर सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता के भाव की वृद्धि होगी । " यहाँ ध्यान देने का बिन्दु यह है कि 'वचोगुप्ति' जैनधर्म का पारिभाषिक शब्द है । अलियादि - णियत्तिं वा मोणं वा होदि वदिगुत्ती । " – (णियमसार, 69 ) झूठ आदि से निवृत्ति या मौन वचनगुप्ति है । त्रिगुप्तियों में मनगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कागुप्ति का विशद-विवेचन हमें जैनग्रन्थों में मिलता है । सम्यग्दण्डो वपुषः सम्यग्दण्डतस्तथा च वचनस्य । मनसः सम्यग्दण्डो गुप्तीनां त्रितयमवगम्यम् ।। - (पुरुषार्थसिद्धिउपाय, 7/6-202) शरीर को भली प्रकार शास्त्रोक्त विधि से वश करना तथा वचन का भलीप्रकार अवरोधन करना और मन का सम्यक् रूप से निरोध करना - इसप्रकार तीन गुप्तियों को जानना चाहिये । त्रिगुप्तियों को कर्मों की निर्जरा का साधन माना गया है। 'छहढाला' में स्पष्ट कहा गया है— कोटि जनम तप तपे, ज्ञान बिन कर्म झरें जे। ज्ञानी के छिनमाहिं, त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते । । - (छहढाला ) अत: वचोगुप्ति जैसे पारिभाषिक शब्द का प्रयोग अशोक के जैनत्व के संस्कारों की पुष्टि करता है 1 भावशुद्धि इसीप्रकार अपने दोषों को दूर करने के लिए भावशुद्धि पर अशोक ने जो बल दिया है, वह भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है । 126 Jain Education International प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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