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अहंकार का भाव न रक्खू नहीं किसी पर क्रोध करूँ।
देख दूसरों की बढ़ती को कभी न ईर्ष्याभाव धरूँ।। इसीप्रकार सामायिक पाठ' में जैन-श्रावक प्रभु से प्रार्थना करता है :
सन्मुक्ति के सन्मार्ग से प्रतिकूल-पथ मैंने किया। पंचेन्द्रियों चारों कषायों में स्वमन मैंने किया।। इस हेतु शुद्ध-चारित्र का जो लोप मुझसे हो गया।
दुष्कर्म वह मिथ्यात्व को हो प्राप्त प्रभु ! करिए दया।। जैनाचार्यों के अनुसार मिथ्यादृष्टि-जीवों में क्रोध, मान, माया, लोभ यह चारों कषाय विशेषरूप में होते हैं। प्रत्येक कषाय के अनन्तानुबंधी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान एवं संज्वलन ___-इन चार भेदों के कारण, चारों कषायों के 16 भेद किये गये हैं। 'कसायपाहुड' नामक ग्रन्थ में इनका विस्तार से उल्लेख है, जिस पर आचार्य वीरसेन ने जयधवला टीका लिखी है। आत्मानुशासनकार ने कहा है कि—“जिस सरोवर में मगरमच्छ होंगे, उस सरोवर में मछलियाँ शांति से निर्द्वन्द होकर विचरण नहीं कर सकती है। इसीप्रकार जब तक हमारी आत्मा में कषायरूपी मगरमच्छ रहेंगे, तब तक आत्मा के क्षमादि धर्म विचरण नहीं कर सकते।"
हृदयसरसि यावन्निर्मलेऽप्यत्यगाधे वसति खलु कषायग्राहचक्रं समन्तात् । श्रयति गुणगणोऽयं तन्न तावद्विशंकं, संयम-शमविशेषैस्तान् विजेतुं यतस्व।।
--(आत्मानुशासन) आत्म-परीक्षण ___ अशोक धर्म की वृद्धि के लिए आत्म-निरीक्षण को अत्यन्त आवश्यक बताता है; क्योंकि इससे धर्म की ओर जागरुकता बढ़ती है। -(स्तम्भलेख 7) अशोक के अनुसार 'आत्मपराक्रम का एक तरीका 'आत्म-निरीक्षण' है, जिसका अर्थ है अपने बुरे और अच्छे कार्यों का परीक्षण (स्तम्भलेख 2)। स्तम्भलेख क्र. 1 में धार्मिक जीवन के लिए गहन-आत्मपरीक्षा और उत्साह पर जोर देता हैं
जैन-परम्परा में भी आत्म-परीक्षण का अत्यन्त महत्त्व है। आलोचना एवं प्रतिक्रमण करना प्रत्येक श्रावक एवं साधु के लिए आवश्यक है। यतियों की षड्आवश्यक-क्रियाओं में से प्रतिक्रमण एक है।
समदा थओ य वंदण-पडिक्कमणं तहेव णादव्वं ।
पच्चक्खाण-विसग्गो करणीयावासया छप्पि।। प्रतिक्रमण की विधि शास्त्रज्ञों ने इसप्रकार निरूपित की है
दव्वे खेत्ते काले भावे य कदावराह-सोहणयं ।
जिंदण-गरहण-जुतो, मण-वच-कायेण पडिक्कमणं ।। आहार, शरीर आदि द्रव्य में, वसतिका-मार्ग आदि क्षेत्र में, पूर्वाह्न, मध्याह्न, दिवस,
.. प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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