SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म का प्रसार -शान्ताराम भालचन्द्र देव जैनधर्म और संस्कृति भारत की प्राचीनतम संस्कृति है, और पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे स्पष्ट विचारधारा वाले सभी मनीषियों ने जैनों को भारत का मूलनिवासी माना है। भारत में उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किस क्षेत्र में कब हुआ? और उसके सूत्रधार कौन थे?- इस विषय में सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता एवं भारतीय संस्कृति के निष्पक्ष प्रस्तोता श्री शान्ताराम भालचन्द्र देव का यह आलेख सभी पाठकों को उदार मन से पठनीय, मननीय एवं संग्रहणीय है। -सम्पादक तीर्थकर पार्श्वनाथ और महावीर के निर्वाण के मध्य ढाई सौ वर्ष लम्बे अन्तराल मे जैनधर्म के प्रसार अथवा उसकी स्थिति के विषय में प्राय: कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। 'सूत्रकृतांग' से यह प्रतीत होता है कि इस अवधि में 363 मत-मतांतरों का उदय हुआ था; परन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि इन विचारधाराओं का जैनधर्म के साथ कितना और क्या सम्बन्ध था। ऐसा प्रतीत होता है कि पार्श्वनाथ के निर्वाणोपरान्त उस काल में ऐसा कोई उल्लेखनीय व्यक्तित्व सामने नहीं आया, जो जैनधर्म को पुन:संगठित कर उसका प्रसार कर पाता। किन्तु महावीर ने इस परिस्थिति में परिवर्तन ला दिया और अपने चरित्र, दूरदर्शिता एवं क्रियाशीलता के बल पर जैनधर्म को संगठित कर उन्होंने उसका प्रसार किया। महावीर का जन्म वैशाली' के एक उपनगर कुण्डग्राम में हुआ था, जो अब 'बसुकुण्ड' कहलाता है। उनकी माता प्रसिद्ध वैशाली नगर (उत्तर बिहार के वैशाली जिले में आधुनिक बसाढ़) में जन्मी थीं। महावीर का निर्वाण पावा में हुआ, जिसकी पहिचान वर्तमान पटना-जिलान्तर्गत पावापुरी के साथ ही जाती है। इससे प्रतीत होता है कि महावीर बिहार से घनिष्ठतम रूप से सम्बद्ध रहे। ____ महावीर का जीवनवृत्त सुविदित है। उन्होंने तीस वर्ष की अवस्था में गृहत्याग किया था। उसके उपरान्त बारह वर्ष तक तपस्या की और तत्पश्चात् तीस वर्ष पर्यन्त विहार करके धर्म-प्रचार किया। उनके निर्वाण की परम्परामान्य तिथि ईसा-पूर्व 527 है। महावीर के कतिपय प्रतिद्वन्द्वी भी रहे प्रतीत होते हैं, जिनमें से एक प्रबल प्रतिद्वन्द्वी 00 138 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy