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स्वीकारोक्ति और प्रतिक्रमण अर्थात् पापों के परिशोधन का नित्यकर्म उल्लेखनीय हैं।
जैन-साधुत्व का एक और अद्वितीय-आचार है, कायोत्सर्ग-मुद्रा में तपश्चरण—जिसमें साधु इसप्रकार खड़ा रहता है कि उसके हाथ या भुजायें शारीरिक अनुभूति से असंपृक्त हो जाते हैं। यह मुद्रा, कुछ विद्वानों के अनुसार, हड़प्पा से प्राप्त एक मुद्रा पर अंकित है, जिस पर ऊपर की पंक्ति में एक साधु वन में कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़ा है औरएक बैल के पास बैठा एक गृहस्थ-श्रावक उनकी पूजा कर रहा है, और नीचे की पंक्ति में सात आकतियाँ, तथोक्त कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़ी है। इस समीकरण से हड़प्पाकाल में जैनधर्म के अस्तित्व का संकेत मिलता है। अन्य विद्वानों ने तथाकथित पशुपतिवाली प्रसिद्ध मुद्रा का एक तीर्थंकर (कदाचित् ऋषभनाथ) से समीकरण होने का संकेत किया है। - (साभार उद्धृत – महाभिषेक स्मरणिका, पृष्ठ 11-13, प्रकाशक—भारतीय ज्ञानपीठ)**
जैनत्व का प्रभाव
अब प्रश्न यह है कि जैनधर्म की देशना क्या है? अथवा श्रवणबेल्गोल और अन्य स्थानों की बाहुबली की विशाल मूर्तियाँ एवं अन्य चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमायें संसार को क्या सन्देश देती हैं? 'जिन' शब्द का अर्थ 'विकारों को जीतना' है। जैनधर्म के प्रवर्तकों ने मनुष्य को सम्यक श्रद्धा, सम्यक बोध, सम्यक ज्ञान और निर्दोष चारित्र के द्वारा परमात्मा बनने का आदर्श उपस्थित किया है। जैनधर्म का ईश्वर में पूर्ण विश्वास है। जैनधर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के धर्म का 2500 वर्षों का एक लम्बा इतिहास है। यह धर्म भारत में एक कोने से दूसरे कोने तक रहा है। आज भी गुजरात, मथुरा, राजस्थान, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, दक्षिण मैसूर और दक्षिण भारत इसके प्रचार के केन्द्र हैं। इस धर्म के साधु और विद्वानों ने इस धर्म को समुज्ज्वल किया और जैन-व्यापारियों ने भारत में सर्वत्र सहस्रों मंदिर बनवाये, जो आज भारत की धार्मिक पुरातत्त्व एवं कला की अनुपम शोभा हैं।
भगवान् महावीर और उनसे पूर्व के तीर्थंकरों ने बुद्ध की तरह भारत में बताया कि मोक्ष का मार्ग कोरे क्रियाकाण्ड में नहीं है, बल्कि वह प्रेम और विवेक पर निर्धारित है। महावीर और बुद्ध का अवतार एक ऐसे समय में हुआ है, जब भारत में भारी राजनैतिक उथल-पुथल हो रही थी। महावीर ने एक ऐसी साधु-संस्था का निर्माण किया, जिसकी भित्ति पूर्ण-अहिंसा पर निर्धारित थी। उनका ‘अहिंसा परमो धर्म:' का सिद्धान्त सारे संसार में 2500 वर्षों तक अग्नि की तरह व्याप्त हो गया। अन्त में इसने नवभारत के पिता महात्मा गांधी को अपनी ओर आकर्षित किया। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि अहिंसा के सिद्धांत पर ही महात्मा गांधी ने नवीन भारत का निर्माण किया।
-(श्रवणबेल्गोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ', टी.एन. रामचन्द्रन्, डाइरेक्टर-जनरल, पुरातत्त्व विभाग, पृष्ठ 24-25)..
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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