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'सम्यग्ज्ञानावबोधेन नित्यमेक समाधिना।
संख्ययैवावबुद्धा ये ते स्मता: सांख्ययोगिनः ।।12 सांख्यमत बुद्धियोग का विषय माना गया हैं। महर्षि बाल्मीकि कहते हैं— सांख्य-योगी वे हैं, जिन्हें सम्यग्ज्ञान से अवबोध प्राप्त हुआ है और जो नित्य समाधि में अवस्थित हैं, उनका ज्ञान अपने विचार-मन्थन का परिणाम है। वे ही सांख्य-योगी हैं।
“कपिल-प्रभृतीनामार्षं ज्ञानमप्रतिहतं श्रूयते । श्रुतिश्च भवति–ऋषिप्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्विभर्ति जायमानं च पश्येत् ।"13
. ...... या तु श्रुति: कपिलस्य ज्ञानातिशयं प्रदर्शयन्ती प्रदर्शिता न तया श्रुतिविरुद्धमपि कापिलं मतं श्रद्धातुं शक्यम् । कपिलमिति श्रुतिसामान्यमात्रत्वात् । ........... भवति चान्या मनोर्माहात्म्यं प्रख्यापयन्ती श्रुति:- 'यद् वै किं च मनुरवदत्तद्भेषजम् ।14
"मनुना च सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि सम्पश्यन्नात्मया जीवै स्वराज्यमधिगच्छति ।। इति सर्वात्मत्वदर्शनं प्रशंसता कांपिलं मतं निन्द्यते इति गम्यते। कपिलो हि न सर्वात्मत्वदर्शनं मन्यते, आत्मभेदाभ्युपगमात् ।"16
कपिल आदि ऋषियों का आर्षज्ञान अप्रतिहत (अबाधित) सुना जाता है। इस विषय में श्रुति है कि जो परमात्मा कपिल-ऋषि को ज्ञान से पूर्ण करता है तथा उसे देखता है । यहाँ 'श्वेताश्वतर उपनिषद्' के श्रुति-वाक्य से कपिल को विशिष्टज्ञानी बताया गया है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि कपिल-प्रतिपादित मत श्रद्धान-योग्य है।
'सांख्य-सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्त्व-विचार-निपुन भगवाना।। तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला।
प्रभु आयसु सब विधि प्रतिपाला।।" इसके प्रवर्तक महर्षि कपिल ने इसकी उत्पत्ति क्यों की? - इसका वर्णन भागवतकार मार्मिक शब्दों में करते हैं
'विदित्वार्थं कपिलो मनुरित्थं जातस्नेहो यत्र तन्वाभिजाना।
तत्त्वाम्नायं यत्प्रवदन्ति सांख्यं प्रोवाच वै भक्तिवित्तानयोगा।। जिसके शरीर से उन्होंने स्वयं जन्म लिया था, उसे अपनी माता का ऐसा अभिप्राय जानकर कपिल जी के हृदय में स्नेह उमड़ आया और उन्होंने प्रकृति आदि तत्त्व-निरूपण करनेवाले शास्ता, जिसे 'सांख्य' कहते हैं, का उपदेश किया। साथ ही भक्ति-विस्तार एवं योग का भी वर्णन किया।
तत्त्वज्ञान के प्ररूपण में सांख्य की तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती। इसीलिए 'नास्ति सांख्यसमं ज्ञानं' जैसी उक्तियाँ प्रचलित हुईं। फिर भी धर्माचरण के क्षेत्र में व्यावहारिक-उपादेयता सिद्ध न हो सकने के कारण सांख्य की उपयोगिता किसी ने भी स्वीकार
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प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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