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नामवर सिंह के साम्यवादी होने पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिये। उन्होंने कहा कि 'साम्यं मे सर्वभूतेषु' का सन्देश जैनदर्शन ने हमें दिया है, अत: सामाजिक स्तर पर हमारी विचारधारा और दर्शन का आधार जैनदर्शन ही है। इसके पहले हमारे यहाँ यह विचार ही नहीं था। अपरिग्रह की विचारधारा हमें जैन-परम्परा से ही मिली है, किन्तु आज हम पुरानी भारतीय सामाजिक परम्परा को भूल गये हैं।
इस समारोह का आयोजन भगवान् महावीर के 2600वें जन्मकल्याणक-वर्ष के सुअवसर पर दिनांक 28 अप्रैल, 2002 रविवार को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के जवाहरलाल नेहरू सभागार' में गरिमापूर्वक किया गया। समारोह में स्वागत-भाषण श्रीमती सरयू दफ्तरी ने दिया, तथा समारोह का संयोजन एवं संचालन डॉ. सुदीप जैन ने किया। तथा कृतज्ञता-ज्ञापन भारतीय ज्ञानपीठ के प्रबन्ध-न्यासी साहू रमेश चन्द्र जैन ने किया। इस सुअवसर पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति प्रो. कपिल कपूर, पुरातत्त्ववेत्ता डॉ. मुनीश चन्द्र जोशी, प्रो. बी.आर. शर्मा, श्री सतीश चन्द्र जैन (S.C.J.), श्री चक्रेश जैन बिजलीवाले, कुन्दकुन्द भारती न्यास के मन्त्री श्री सुरेश चन्द्र जैन एवं कुन्दकुन्द भारती न्यास के न्यासीगण तथा अन्य अनेकों महानुभाव उपस्थित थे। इस समारोह में देशभर के ख्यातिप्राप्त विद्वान्, समाजसेवी एवं धर्मानुरागी भाई-बहिन भी बड़ी भारी संख्या में उपस्थित थे। **
वर्धमान महावीर स्मृति-ग्रन्थ का लोकार्पण "जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर के अहिंसावाद, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं अपरिग्रहवाद जैसे कालजयी सन्देश आज के भौतिकवादी वातावरण में भी पूरी तरह प्रासंगिक बने हुये हैं। उन्होंने आत्मिक विकास के लिये जो रास्ता बताया, वह व्यक्ति के चरित्र को उन्नत तो करता ही है, साथ ही सम्पूर्ण समाज और राष्ट्र के लिये भी सर्वतोमुखी उन्नति प्रदान करता है। जीवन में अहिंसा, विचारों में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद और समाज में अपरिग्रह की भावनायें यदि आ जायें, तो हिंसा आदि पापों को कोई स्थान इस देश में नहीं बचेगा, तथा आपस में प्रेम, मैत्री और सहयोग की भावना उस चरम शिखर पर होगी, जहाँ हमारे धर्मग्रन्थ सर्वोत्तम-लक्ष्य के रूप में व्यक्ति को पहुँचने की प्रेरणा देते हैं। लोकतंत्र का बाह्यरूप भले ही भारतीय न हो, लेकिन उसकी आत्मा भारतीय है। अनेकान्तवाद को लोकतन्त्र का बाह्यरूप भले ही भारतीय न हो, लेकिन अनेकान्तवाद न हो तो लोकतन्त्र नहीं होगा। आज के इस कार्यक्रम में भगवान महावीर के जीवन-दर्शन, परम्परा और प्राकृतभाषा के सम्बन्ध में जिस विशालकाय स्मृति-ग्रन्थ का लोकार्पण हुआ है, वह अपने आप में इस 2600वें जन्मकल्याणक-वर्ष की अतिविशिष्ट उपलब्धि है। साथ ही प्राकृतभाषा एवं संस्कृतभाषा के जिन विशिष्ट विद्वानों का यहाँ सम्मान किया गया है, वह सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति का सम्मान है। मैं स्वयं भगवान् महावीर के सिद्धान्तों में पूरी आस्था रखता हूँ, और मेरा दृढ़ विश्वास है कि पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द मुनिराज जैसे महान् सन्त ही आज के वातावरण में राष्ट्र को सही दिशाबोध दे सकते हैं।" -ये विचार
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प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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