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'वर्धमान महावीर स्मृति-ग्रन्थ-लोकार्पण' एवं 'आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य उमास्वामी पुरस्कारों' के समर्पण-समारोह के सुअवसर पर पूर्व लोकसभाध्यक्ष एवं वर्तमान विपक्ष के उपनेता माननीय श्री शिवराज पाटिल ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रस्तुत किये।
__ जैन-परम्परा के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् वर्धमान महावीर के 2600वें जन्म-कल्याणकवर्ष की पुण्यबेला में 260 x 2 = 520 की शुभ- संख्या को दृष्टिगत रखते हुए शास्त्राकार 520 पृष्ठों का यह विशालकाय-ग्रन्थ मूलत: चार खण्डों में वर्गीकृत है। परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज की पावन-प्रेरणा एवं मंगल-आशीर्वाद से निर्मित इस ग्रन्थ के प्रथम खंड में भगवान् महावीर के जीवन और व्यक्तित्व-कृतित्व का, द्वितीय खंड में उनके दार्शनिक अवदान का, तृतीय खंड में उनकी परम्परा का अद्यावधि संक्षिप्त-इतिवृत्त तथा चतुर्थ खंड में उनके उपदेशों एवं आगम-साहित्य की माध्यम-भाषा प्राकृत' का संक्षिप्त परिचय समाहित है। अन्त में परिशिष्ट-एक में मनीषी लेखक-लेखिकाओं का तथा परिशिष्ट-दो में स्मृतिग्रन्थ में प्रस्तुत-आलेखों की आधार-सामग्री का संक्षिप्त-उल्लेख है।
निर्विवाद, गहन-अध्येता, प्रामाणिक मनीषियों की सारस्वत-लेखनियों से प्रसूत उपर्युक्त विषयोंवाले बहुआयामी आलेखों का प्रभूत श्रम, समीक्षा एवं वैज्ञानिक सम्पादनपूर्वक प्रस्तुतीकरण इस स्मृतिग्रन्थ की मौलिक-विशेषता है। अत्यन्त अल्प-अवधि में निर्मित होते हुए भी इसमें प्रस्तुत सामग्री विषय-वस्तु, वर्णनशैली एवं तथ्यात्मकता की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है।
यद्यपि भगवान् महावीर का व्यक्तित्व एवं जीवन आधुनिक-विचारकों की कल्पना एवं चिंतन-परिधि से कहीं ज्यादा विशाल एवं व्यापक था, फिर भी प्राचीन आचार्यों एवं मनीषियों के द्वारा प्रस्तुत-विवरणों को आधार बनाकर उनके निर्विवाद प्रामाणिक-स्वरूप का आधुनिक-परिप्रेक्ष्य में शब्दांकन अत्यन्त आवश्यक था।
इसके साथ ही भगवान् महावीर के दार्शनिक-अवदान आज पौराणिक-आदर्शो की वस्तु माने जाने लगे हैं, वर्तमान-सन्दर्भो में उनकी उपादेयता क्या है? उनका आधुनिक-शब्दावली में वास्तविक-स्वरूप कैसे प्रतिपादित किया जा सकता है? ---यह एक अतिसामयिक एवं ज्वलंत प्रश्न है; विशेषत: नयी पीढ़ी के लिए। अत: इसका रूढ़िगत-शैली से हटकर परम्परित-प्रमाणों की साक्षीपूर्वक आधुनिक-शब्दावली में प्रस्तुतीकरण अपेक्षित था।
भगवान् महावीर की परम्परा में आज बहुरूपिता दृष्टिगत होती है। उनकी वास्तविक-परम्परा में कहे जाने योग्य कौन हैं? तथा उनकी परम्परा का वास्तविक-स्वरूप क्या है? —यह भी निर्विवाद एवं पक्षव्यामोहरहित तथ्यपरक-रीति से प्रस्तुत किया जाना अपेक्षित था। साथ ही महावीर की वाणी के रूप कहे जानेवाले जैन आगम-ग्रन्थ प्राकृतभाषा में निबद्ध हैं। महावीर और उनकी परम्परा ने प्राकृतभाषा को क्यों अपनाया? प्राकृतभाषा के मूलस्वरूप को हम कैसे निर्धारित करें? तथा प्राकृतभाषा और उनके साहित्य का ज्ञान महावीर के अनुयायियों को क्यों अपेक्षित है? -- इन सबका परिचय आवश्यक था। . इन सब बिन्दुओं का संक्षिप्त, किन्तु सशक्त-निदर्शन है यह 'वर्धमान महावीर स्मृति-ग्रन्थ'।
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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