SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के पूर्व ही यह गीत भारतीय स्वतंत्रता के दीवानों के सर्वाधिक बड़े संगठन 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' का प्रिय-गीत बनकर गाया जा चुका था। इसीलिए स्पष्ट है कि उक्त आरोप पूर्वाग्रह-प्रेरित ईर्ष्या से उत्पन्न था, उसमें रंचमात्र भी सत्य या तथ्य नहीं है । वस्तुत: वह ऐसा युग था कि सम्पूर्ण भारतवासी राष्ट्रीयता एवं स्वाधीन - भारत की भावना से ओतप्रोत थे। उसमें अनन्य - राष्ट्रवादी कविवर टैगोर जी, जिनसे मिलने स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जाते हों, एवं 'गुरुदेव' के संबोधन से ससम्मान उन्हें संबोधित करते हों; उन पर लांछन लगाना सूर्य पर धूल फेंकने समान है, जो वस्तुतः फेंकने वालों के मुख को ही मलिन करता है। यह 'राष्ट्रगान' सम्पूर्ण भारतवासियों के हृदय के भावों को भाषा के माध्यम से दिया गया मूर्तरूप था । यह किसी एक भाषा में लिखा जाकर भी सम्पूर्ण भाषाओं एवं सम्पूर्ण- भारतवासियों के हृदय की प्रतिध्वनि थी। राष्ट्रीयता यह भावना धर्म में अतिप्राचीनकाल से पायी गयी है । इसीलिये कविवर ने इसमें धार्मिक महापुरुषों के संकेत भी प्रदान किये हैं उनके प्रति आदर एवं आस्था के स्वर देकर भारतीय जनमानस की आस्तिकता के राष्ट्रवाद की मूलधारा के साथ अभिन्न स्वीकार किया है। महान् राष्ट्रवादी जैन संत-आचार्य सोमदेव सूरि लिखते हैं “समस्त-पक्षपातेषु स्वदेशपक्षपातो महान् ” – ( यशस्तिलकचम्पू' काव्य) अर्थात् यह सत्य है कि मनुष्य का हृदय अपने अभीष्ट एवं प्रिय विषय / वस्तु/व्यक्ति का पक्ष लेता है; किन्तु मनुष्य अपने जीवन में जितने भी पक्ष लेता है, उनमें अपने देश एवं अपने राष्ट्र का पक्षपाती होना ही सबसे महान् है, सर्वाधिक श्रेयस्कर है। उक्त वचन हमारे संतों की धर्ममय त्यागपरक जीवन जीते हुये भी अनन्य - राष्ट्रवादी होने का परिचायक है । इससे सिद्ध है कि धार्मिकता या आस्तिकता का राष्ट्रवादी होने से अविरोध है। ये दोनों भावनायें परस्पर पूरक हैं। संभवत: इसी भावना को मूर्तरूप में अभिव्यक्त करने के लिए जैन श्रावकगण नित्य देवपूजन के उपरान्त यह भावना भाते हैं। कि- “सम्पूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्र - सामान्य- - तपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांतिं भगवान् जिनेन्द्रः । । ” इसमें ‘प्रतिपालकों' का अर्थ राष्ट्र की सीमा पर तैनात सुरक्षा - प्रहरियों, सैन्य कर्मियों आदि से है 1 इसप्रकार राष्ट्रीयता की भावना जातिभेद, वर्गभेद, सम्प्रदायभेद, भाषाभेद, प्रान्तवेद आदि भेदभावों को मिटाकर एकता का सूत्रपात करनेवाली अनन्य भावना है तथा इसका धर्मभावना के साथ अनन्य- अविरोध है । इसी तथ्य को 'जन-गण-मन...' इस राष्ट्रगान में भारतीय आस्था के स्वरों के साथ अभिन्न रखते हुए कविवर टैगोर जी ने मूर्तरूप में प्रस्तुत किया था । किन्तु हमारे राष्ट्रगान के पूर्ण रूप को, उसके परिप्रेक्ष्य को, मूल अभिप्राय एवं उद्देश्य को आज भारतवासी कितना जानते हैं - यह बिन्दु गंभीरतापूर्वक मननीय है । 166 समस्त Jain Education International प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक महावीर - विशेषांक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy