________________
भगवान् महावीर के अहिंसक - दर्शन में 'करुणा'
-अजय कुमार झा
जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित पञ्च - महाव्रतों में ‘अहिंसा का महत्त्वपूर्ण-स - स्थान है। तदनुसार क्रोध, मान, माया तथा लोभादि से रहित पवित्रविचार और संकल्प ही अहिंसा है। इसके विपरीत वे समस्त चिंतन, विचार, इच्छायें अथवा क्रियायें जिनसे दूसरों को कष्ट हो, हिंसा है। इसी आधार पर जैनाचार्यों ने हिंसा को 'भावहिंसा' तथा 'द्रव्य-हिंसा' कहा है। किसी भी जीव को पीड़ा पहुँचाने या उसके अहित का विचार करना 'भाव - हिंसा' है । तथा प्राणियों को प्रत्यक्षतः अहित करना 'द्रव्य - हिंसा' है I इन दोनों प्रकार की हिंसाओं से मुक्त होना ही 'अहिंसा' है । अहिंसा निषेधात्मक-आचरण नहीं है, बल्कि यह विधिरूप है
भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित यह अहिंसा जैनधर्म और दर्शन की आधारशिला है । इतना ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में मानवता की रक्षा और विकास के लिए यह अनिवार्य - मानदण्ड है ।
भगवान् महावीर द्वारा पल्लवित इस अहिंसारूपी चन्दनवृक्ष की सुगन्धि से सम्पूर्ण भारतीय-संस्कृति सुवासित है । महामुनि व्यास ने अहिंसा को परमधर्म, कठोर तप, महान् सत्य, सर्वोत्कृष्ट धर्म, अद्वितीय संयम, सर्वोत्तम दान, सर्वश्रेष्ठ ज्ञान, परम मित्र तथा अनन्य सुख कहा है
1
अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परं तपः । अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते । । अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः । । अहिंसा परमो यज्ञस्तथाऽहिंसा परं फलम् । अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ।।'
'महाभारत' में ही अन्यत्र कहा गया है कि अहिंसाव्रत के पालन में अनन्त-गुण हैं। सैकड़ों वर्षों तक के परिश्रम से भी अहिंसा के गुणों का बखान नहीं किया जा सकता
है ।
प्राकृतविद्या + जनवरी - जून 2002 वैशालिक महावीर विशेषांक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
129
www.jainelibrary.org