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स्थापकों को नवागन्तुकों की अपेक्षा कुछ विशेषाधिकार प्राप्त किये। - 'मलाबार गजटियर' के आधार पर श्री अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी ने 'नय्यरों के एक संघ' की ओर ध्यान आकर्षित किया है, जिसमें 6000 प्रतिनिधि थे। वे केरल की संसद के समान थे। बौद्ध-साहित्य से ज्ञात होता है कि राजा बिम्बिसार श्रेणिक के अस्सी हजार गामिक (ग्रामिक) थे। इसी सादृश्य पर अनुमान किया जा सकता है कि 7707 राजा विभिन्न-क्षेत्रों (या निर्वाचन-क्षेत्रों) के उसी रूप में स्वतन्त्र-संचालक थे, जिसप्रकार देशी-रियासतों के जागीरदार राजा के आधीन होकर भी अपने निजी-पुलिस की तथा अन्य-व्यवस्थायें करते
थे।
वैदेशिक सम्बन्ध
लिच्छवियों के वैदेशिक-सम्बन्धों का नियन्त्रण नौ सदस्यों की परिषद् द्वारा होता था। इनका वर्णन बौद्ध एवं जैन-साहित्य में 'नव लिच्छवि' के रूप में किया गया है। अजातशत्र के आक्रमण के मुकाबले के लिए इन्हें पड़ोसी राज्यों नवमल्ल तथा अष्टादश काशी-कौशल के साथ मिलकर महासंघ बनाना पड़ा। उन्होंने अपने संदेश भेजने के लिए दूत नियुक्त किए (वैशालिकानां लिच्छिविनां वचनेन)। न्याय व्यवस्था :
न्याय-व्यवस्था अष्टकुल-सभा के हाथ में थी। श्री जायसवाल ने हिन्दू राजशास्त्र' (पृष्ठ 43-47) में इनकी न्याय-प्रक्रिया का निम्नलिखित वर्णन किया है— “विभिन्न प्रकरणों (पवे-पट्ठकान) पर गणराजा के निर्णयों का विवरण सावधानीपूर्वक रखा जाता था, जिनमें अपराधी नागरिकों के अपराधों तथा उनके दिये गये दण्डों का विवरण अंकित होता था। विनिश्चय महामात्र (न्यायालयों) द्वारा प्रारम्भिक जाँच की जाती थी। (ये साधारण अपराधों तथा दीवानी प्रकरणों के लिए नियमित न्यायालय थे)। अपील-न्यायालयों के अध्यक्ष थे वोहारिक (व्यवहारिक)। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 'सूत्रधार' कहलाते हैं। अन्तिम अपील के लिए 'अष्ट-कुलक' होते थे। इनमें से किसी भी न्यायालय द्वारा नागरिक को निरपराध घोषित करके मुक्त किया जा सकता था। यदि सभी न्यायालय किसी को अपराधी ठहराते, तो मन्त्रिमण्डल का निर्णय अन्तिम होता था। विधायिकाः ___ लिच्छवियों के संसदीय विचार-विमर्श का कोई प्रत्यक्ष-प्रमाण प्राप्त नहीं होता, परन्तु विद्वानों ने 'चुल्लवग्ग' एवं विनय-पिटक' के विवरणों से इस विषय में अनुमान लगाये हैं। जब कोसलराज ने शाक्य-राजधानी पर आक्रमण किया और उनसे आत्मसमर्पण के लिए कहा, तो शाक्यों द्वारा इस विषय पर मतदान किया गया। मत-पत्र को 'छन्दस्' एवं कोरम को 'गण-पूरक' तथा असनों के व्यवस्थापन को 'आसन-प्रज्ञापक' कहा जाता था। गण-पूरक के अभाव में अधिवेशन अनियमित समझा जाता था। विचारार्थ-प्रस्ताव की प्रस्तुति को 'ज्ञप्ति'
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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