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________________ का वचन मिथ्या नहीं होता । अजातशत्रु के मंत्री के वचन सुनकर बुद्ध ने मंत्री को उत्तर नहीं दिया, बल्कि अपने शिष्य आनन्द से कुछ प्रश्न पूछे और तब निम्नलिखित 'सत्त अपरिहानि धम्मा' का वर्णन किया' 4__ अभिहं सन्निपाता सन्निपाता बहुला भविस्संति । हे आनन्द ! जब तक वज्जि पूर्णरूप से निरन्तर परिषदों के आयोजन करते अर्थ : रहेंगे । समग्गा सन्निपातिस्संति समग्गा वुट्ठ- हिस्संति समग्गा संघकरणीयानि करिस्संति । अर्थ :जब तक वज्जि संगठित होकर मिलते रहेंगे, संगठित होकर उन्नति करते रहेंगे तथा संगठित होकर कर्तव्य कर्म करते रहेंगें । अप्पज्ञंत न पज्जापेस्संति, पज्ञतं न समुच्छिन्दिस्संति - यथा, पज्ञतेषु सिक्खापदेसु समादाय वत्तस्संति । अर्थ : जब तक वे अप्रज्ञप्त (अस्थापित) विधाओं को स्थापित न करेंगे । स्थापित विधानों का उल्लंघन नहीं करेंगे तथा पूर्वकाल में स्थापित प्राचीन वज्जि-विधानों का अनुसरण करते रहेंगे । ये ते संघपितरो संघपरिणायका ते सक्करिस्संति गरु करिस्संति मानेस्संति पूजेस्संति सञ्च सोत्तब्नं मज्ञिस्संति । अर्थ :- जब तक वे वज्जि - पूर्वजों तथा नायकों का सत्कार, सम्मान, पूजा तथा समर्थन करते रहेंगे तथा उनके वचनों को ध्यान से सुनकर मानते रहेंगे । ये ते वज्जीनं वज्जिमहल्लका ते सक्करिस्संति, गुरु करिस्सन्ति मानेस्संति, पूजेस्संति, या ता कुलित्थियो कुलकुवारियों ता न आक्कस्स पसह्य वास्सेनित । अर्थ :• जब तक वे वज्जि - कुल की महिलाओं का सम्मान करते रहेंगे और कोई भी कुलस्त्री या कुल-कुमारी उनके द्वारा बलपूर्वक अपहृत या निरुद्ध नहीं की जायेंगी । वज्जि तियानि इमंतरानि चेव बाहिरानि च तानि सक्करिस्संति, गरु करिस्संति, मानेस्संति, पूजेस्संति, तेसञ्च दिन्नपुब्बं कतपुव्वं धाम्मिकं बलि नो परिहास्संति नो परिहापेस्संति । अर्थ जब तक वे नगर या नगर से बाहर स्थित - चैत्यों (पूजा-स्थलों) का आदर एवं सम्मान करते रहेंगे और पहले दी गई धार्मिक पूजा तथा पहले किये गये धार्मिक अनुष्ठानों की अवमानना न करेंगे। तथा वज्जीनं अरहंतेसु धम्मिका रक्खावरण-गुत्ति सुसंविहिता भविस्संति । जब तक वज्जियों द्वारा अरहन्तों को रक्षा, सुरक्षा एवं समर्थन प्रदान किया जायेगा; तब तक वज्जियों का पतन नहीं होगा, अपितु उत्थान होना रहेगा । " 076 Jain Education International प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर विशेषांक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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