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________________ 2. भगवान् का जन्म जैन-साहित्य के प्रमाणानुसार विदेहदेश' के 'कण्डपुर' नामक स्थान पर हुआ था। (अब तक किसी जैन-ग्रन्थ ने उनके 'अंगदेश' या 'मोदगिरि' या 'मुद्गलगिरिक्षेत्र' या 'मगध' में जन्म लेने की बात नहीं लिखी)। 3. भगवान् को वैदेह, विदेहदत्त, विदेहजात्य और विदेहसुकुमार' कहा गया है ---(कल्पसूत्र', 'आचारांगसूत्र')। (उनका कोई नाम अंगदेशोत्पन्नता-सूचक या मगधदेशोत्पन्नतासूचक नहीं है।) भगवान् के जीवन के प्रथम तीस वर्ष 'विदेह' में व्यतीत हुए। —(कल्पसूत्र', 'आचारांगसूत्र') ज्ञातृकुल (नायकुल, नातकुल) में जन्म लेने और उसे उजागर करने के कारण भगवान् को 'ज्ञात, ज्ञातृपुत्र और ज्ञातृकुलचन्द्र' कहा गया है – (कल्पसूत्र', 'आचारांगसूत्र')। बौद्ध-साहित्य भी उन्हें 'ज्ञातपुत्र' (नाटपुत्र) के रूप में ही जानता है। 'वैशाली' में जन्म-धारण करने के कारण भगवान् को वेसालिए' (सं० वैशालिक, वैशालीय) कहा गया है --(सूत्रकृतांग', उत्तराध्ययनसूत्र')। 7. भगवान के जीवनकाल में ही वैशाली में उनके यथेष्ट-अनुयायी हो गये थे। यह बात जैन-साहित्य और बौद्ध-साहित्य (सिंह सेनापति की कथा) से सिद्ध होती है। जब पावा में भगवान् परिनिर्वाण को प्राप्त हुए, तब वहाँ नौ मल्लि गणराज, नौ लिच्छवि गणराज और अट्ठारह काशी-कोसल के गणराज उपस्थित हुए, जिन्होंने इस निर्वाण की स्मृति में दीपोत्सव की प्रथा प्रारम्भ की। (इस दीपोत्सव में मगध और अंग का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था।) भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद भी निर्ग्रन्थ या जैन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनकी जन्मभूमि के साथ जुड़े रहे : (i) वैशाली में जैनों और बौद्धों की अधिकता के कारण 'मनुस्मृति' (10.20) ने वहाँ के लिच्छवियों को 'व्रात्य' (संस्कारच्युत) करार दिया। (ii) वैशाली की एक गुप्तकालीन मुहर (सील) पर लिखा है- "वेसाली-नामकण्डे कमारामात्याधिकरण (स्य)"। इससे सिद्ध है कि 'वैशालीकुण्ड'= वैशाली' (स्थित 'क्षत्रियकुण्ड') की स्मृति अभी (चौथी-पाँचवीं सदी में) शेष थी। आज का 'बासोकुण्ड' उसी की याद दिला रहा है। (ii) प्रसिद्ध चीनी बौद्ध-यात्री ह्वेनसांग (621-645 ई.) ने, जो 637 ई. में वैशाली पहुंचा था, निर्ग्रन्थों को वहाँ अच्छी संख्या में पाया था। (iv) वैशाली में जैन-तीर्थंकरों की पालयुग (770-1191 ई.) की बनी मूर्तियाँ प्राप्त हैं, जिनमें एक वहाँ 'बौना पोखर' पर निर्मित जैन-मन्दिर में रखी जाकर वर्षों से पूजित हो रही है। (v) सन् 1332 ई. में लिखित विविधतीर्थकल्प' नामक अपनी पुस्तक में जिनप्रभसूरि ने 'कुण्डग्राम' को जैनतीर्थ दिखलाया है, वहाँ वीर की मूर्ति की स्थापना की बात लिखी है, तथा वहीं 'खत्तिअ-कुण्डग्गामणयर' एवं 'वेसाली-वाणिअग्गाम' के होने की स्पष्ट- चर्चा की है। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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