________________
(वज्जि), 12. मौलि (मल्ल), 13. काशी, 14. कोसल, 15. अवाह, 16. सम्मुत्तर (सुम्भोत्तर?)। अनेक विद्वान् इस सूची को उत्तरकालीन मानते हैं, परन्तु यह सत्य है कि उपर्युक्त सोलह जनपदों में काशी, कोशल मगध, अवन्ति तथा वज्जि सर्वाधिक शक्तिशाली थे। वैशाली गणतन्त्र की रचनाः
‘वज्जि' नाम है एक महासंघ का, जिसके मुख्य अंग थे—ज्ञातृक, लिच्छिवि एवं वृजि। ज्ञातृकों से महावीर के पिता सिद्धार्थ का सम्बन्ध था (राजधानी-कुण्डग्राम) लिच्छवियों की राजधानी वैशाली की पहचान बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में स्थित बसाढ़'-ग्राम से की गई है। वृजि' को एक कुल माना गया है, जिसका सम्बन्ध वैशाली से था। इस महासंघ की राजधानी भी वैशाली' थी। लिच्छवियों के अधिक शक्तिशाली होने के कारण इस महासंघ का नाम लिच्छवि-संघ' पड़ा। बाद में, राजधानी वैशाली की लोकप्रियता से इसका भी नाम वैशाली-गणतन्त्र' हो गया। वज्जि एवं लिच्छवि:
बौद्ध-साहित्य से यह भी ज्ञात होता है कि वज्जि-महासंघ में अष्ट-कुल (विदेह, ज्ञातृक, लिच्छवि, वृजि, उग्र, भोग, कौरव तथा ऐक्ष्वाकु) थे। इनमें भी मुख्य थे—वृजि तथा लिच्छवि। बौद्धदर्शन तथा प्राचीन भारतीय भूगोल के अधिकारी विद्वान् श्री भरतसिंह उपाध्याय ने अपने ग्रंथ (बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 383-84 द्र. हिन्दी-साहित्य सम्मेलन प्रयाग, संवत् 2018) में निम्नलिखित मत प्रगट किया है— “वस्तुत: लिच्छवियों और वज्जियों में भेद करना कठिन है, क्योंकि वज्जि न केवल एक अलग जाति के थे, बल्कि लिच्छवि आदि गणतन्त्रों को मिलाकर उनका सामान्य-अभिधान वज्जि-संघ' की ही राजधानी वैशाली' थी; जो कि वज्जियों, लिच्छवियों तथा अन्य सदस्य-गणतन्त्रों की सामान्य-राजधानी भी थी। एक अलग- जाति के रूप में वज्जियों का उल्लेख पाणिनि ने किया है और कौटिल्य ने भी उन्हें लिच्छवियों से पृथक् बताया है। यूआन चूआइ ने भी वज्जि' (फु-लि-चिह) देश और
वैशाली' (फी-शे-ली) के बीच भेद किया है, परन्तु पालि-त्रिपिटक के आधार पर ऐसा विभेद करना सम्भव नहीं है। 'महापरिनिर्वाण-सूत्र' में बुद्ध कहते हैं, “जब तक वज्जि लोग सात अपरिहाणीय धर्मों का पालन करते रहेंगे, उनका पतन नहीं होगा।" परन्तु संयुत्त निकाय' के 'कलिंगर सुत्त' में कहते हैं, “जब तक लिच्छिवि लोग लकड़ी के बने तख्तों पर सोयेंगे और उद्योगी बने रहेंगे; तब तक अजातशत्रु उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। “इससे प्रगट होता है कि महात्मा बुद्ध वज्जि' और 'लिच्छवि' शब्दों का प्रयोग पर्यायवाची-अर्थ में ही करते थे। इसीप्रकार विनय-पिटक' के 'प्रथम पाराजिक' में पहले तो वज्जि-प्रदेश में दुर्भिक्ष पड़ने की बात कही गई है। (पाराजिक पालि, पृष्ठ 19,श्री नालन्दा-संस्करण) और आगे चलकर वहीं (पृष्ठ 22 में) एक पुत्रहीन व्यक्ति को यह चिंता करते दिखाया गया है कि कहीं लिच्छवि उनके धन को न ले लें। इससे भी वज्जियों और लिच्छवियों की अभिन्नता प्रतीत होती है।"
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
1073
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org