________________
ललक जगाती हैं, वही 'समाचारदर्शन' नई जानकारी देता है। 'प्राकृतविद्या' में यत्र-तत्र जो दृष्टांत, सूझबूझ के अंश टीपरूप में दिए जाते है, वे बड़े बहुमूल्य होते हैं; उदाहरणार्थ व्यवहारनय, अभूतार्थ, कलियुग नेता के लक्षण आदि।
सुरेशचन्द्र सिन्हा का लेख 'रावण नहीं फूंका जायेगा अब दशहरे पर', आधुनिक वास्तविकता का दिग्दर्शन कराता है। मैं बताऊँ कि मध्य प्रदेश के विदिशा जिले की तहसील 'नटेरन' से 4 कि०मी० पर बसे ग्राम का नाम ही 'रावण' पड़ गया है। शादी-विवाह का अवसर हो या अन्य मांगलिक कार्य, हर शुभ काम से पहले रावण बाबा की पूजा की जाती है। यहाँ पर स्थित रावण की प्रतिमा 8-9 फुट लम्बी सड़क के किनारे लेटी है। इन सबसे सराबोर अंक आकर्षित करता है। बधाई स्वीकार करें।
-मदन मोहन वर्मा, ग्वालियर (म०प्र०) ** © 'प्राकृतविद्या', जुलाई-सितम्बर 2001 अंक प्राप्त हुआ। आद्योपांत पढ़ा। पूर्ववत् मननीय, संग्रहणीय है।
डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री का आलेख 'समयपाहुड बदलने का दुःसाहसपूर्ण उपक्रम' जैनदर्शन और संस्कृति में योजनाबद्ध सुप्त-परिवर्तन के खतरे का संकेत दे रहा है। जून 1993 में खुरई में 'अ०भा०दि० जैन विद्वत्परिषद' ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था कि सम्पादक-गण ग्रंथ की मूल-गाथाओं में परिवर्तन नहीं करेंगे। यदि कहीं विचार-भिन्नता है, तो उसे टिप्पणी में लिखेंगे। यह प्रस्ताव श्री पं० पद्मचंद जी के सान्निध्य/प्रेरणा से पारित हुआ था। यदि सम्मानीय विद्वान् पं० जी एवं विद्वत्-वर्ग इस प्रस्ताव का पालन करता, तो
जैनागम कम से कम जैनों से सुरक्षित बना रहता। विश्वास है कि आगम-अध्येता इस पर विचार करेंगे। रहा प्रश्न प्रतिपाद्य-विषय का, इस पर तो आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द जैसे निष्पही, निष्णात, नि:ग्रंथ ही अनुभवजन्य-शुद्धि कर सकते हैं; क्योंकि उन्होंने ही गाथा 144 में समयसार रूप आत्मा की प्राप्ति/अनुभव नयपक्षविहीन को दर्शायी
सर्वश्री आचार्य बलदेव उपाध्याय, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल, श्री राजकुमार जैन आदि के आलेख मननीय एवं दिशाबोधक हैं। आपका सम्पादकीय एवं दक्षिण भारत में चन्द्रगुप्त से पूर्व भी जैनधर्म था' श्रमसाध्य एवं तथ्यात्मक है। गवेषणा-हेतु बधाई। अन्य आलेख शोधपरक, स्तरीय एवं ज्ञानवर्द्धक हैं। ___आचार्यश्री के अनुभवप्राप्त आलेख का अभाव हमेशा खटका है। आपकी श्रमसाधना का प्रणाम।
-डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल, अमवाई (म०प्र०) ** 6 'प्राकृतविद्या', जुलाई-सितम्बर 2001 अंक का अवलोकन का सुअवसर प्राप्त हुआ। पढ़कर जैनधर्म की इस सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक-चेतना की संवाहक पत्रिका से अवगत हुआ। 'भारतीय दर्शन' की सूक्ष्मता में उच्चकोटि का अध्यात्म तथा
00 178
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org