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एवं गहन निष्ठा के साथ किया, उसका प्रमाण विपुल-परिमाण में मिलनेवाली जैन पाण्डुलिपियाँ हैं। जैनसमाज में प्राय: इनको प्रणाम करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती थी, किन्तु विदेशी विद्वानों ने सर्वप्रथम भारतीय लोगों को और जैनसमाज को अपनी इस बहुमूल्य-विरासत के प्रति सावधान किया, और उसीके परिणामस्वरूप हमारे कुछ ग्रन्थ आज पाण्डुलिपियों के रूप में सुरक्षित रह पाये हैं। प्राचीन श्रेष्ठियों एवं धर्मानुरागियों ने अतीव निष्ठापूर्वक जैनग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ बनवाई थीं, किन्तु पिछले दो-तीन सौ सालों में जैनसमाज के पूर्णत: व्यापार-केन्द्रित हो जाने के कारण उसके द्वारा अपनी इस अमूल्य विरासत की व्यापक उपेक्षा हुई, और इसीकारण अनेकों महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपियाँ नष्ट भी हो गयीं। ____सामाजिक जनजागृति के इस युग में 'अनेकांत ज्ञान-मंदिर शोध संस्थान', बीना (म.प्र.) के ब्र. संदीप सरल जी के द्वारा जैन पाण्डुलिपियों के संरक्षण एवं अनुसंधान के लिये जो यह नैष्ठिक प्रयत्न किया जा रहा है, वह प्रशंसनीय है। उनके द्वारा प्रकाशित यह कृति जैन-साहित्य पर अनुसंधान करनेवाले शोधार्थियों को व्यापक उपयोगी सिद्ध होगी --ऐसा विश्वास है।
___–सम्पादक ** लोकभाषा और शब्द-प्रकृति 'शब्दप्रकृतिरपभ्रंश, इति संग्रहकार:।'
-(वाक्यपदीय 1/148, हरिवृत्ति, पृ० 134) अर्थ :- अपभ्रंश शब्दप्रकृतिवाला है, अर्थात् साधारण-जनता की भाषा से ही अपभ्रंश-भाषा का निर्माण हुआ है।
- व्याकरण केवल उन्हीं भाषाओं का होता है, जिनका रूप कुछ स्थिर हो चुका है, तथा जो शिष्टसम्मत हैं। किन्तु भाषाविज्ञान संसार की समस्त भाषाओं एवं बोलियों से यहाँ तक कि बहुत शीघ्र परिवर्तित होने वाली जंगली या असभ्य-जातियों की बोलियों से भी न केवल संबंध रखता है, बल्कि इन बोलियों एवं जनता में प्रचलित भाषाओं से ही भाषा के जीवन्त-स्वरूप का पता, साहित्यिक भाषा की अपेक्षा, कहीं अधिक चलता है। उदाहरणार्थ- हिन्दी प्रदेश में 'थम्भ' और 'खम्भ' (या खंभा) दोनों शब्द चलते हैं। पहले विद्वान् समझते थे कि दोनों शब्दों का विकास संस्कृत' के स्तम्भ शब्द से हुआ है, किन्तु 'खंभ' शब्द का विकास स्तम्भ' से होना बड़ा असंगत लगता था। अस्तु, खोज करने से पता चला कि वैदिक भाषा में एक शब्द 'स्कम्भ' (ऋक् 4/2/14/5, सायण स्तम्भ) भी है, और 'खंभा' शब्द इसी से विकसित हुआ है। इसप्रकार जनता में प्रचलित भाषा के सहारे हम मूल तक पहुँच सके, भाषाविज्ञान इसलिए जनता की बोलियों को विशेष महत्त्व देता है, जबकि व्याकरण इनकी ओर दृष्टि उठाकर भी नहीं देखता।
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प्राकृतविद्या+जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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