Book Title: Jayantsensuri Abhinandan Granth
Author(s): Surendra Lodha
Publisher: Jayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/012046/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयन्तसैनसरि अभिनन्दन খ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जस्तंसेनेसूरि अभिनंदन ग्रंथ । विमोचन समारोह महामहिर उपराष्ट्रीति डॉ.शंकरदयाल कोमा जावरील Bदितिवार'91 तसेजसरि अनि चनामा महामविकास विमोचनलय राष्ट्रसन्त जैनाचार्य श्रीमद् विजय जयंतसेनसूरिजी महाराज के पदचाप राष्ट्रीय मूल्यों के मार्ग पर ध्वनि बिखेरते रहे हैं। प्रारंभ से ही पहनावे में आपने खादी धारण कर रखी है। अपरिग्रह महाव्रत - उसमें भी सादगी का अस्तित्व स्वर्ण में सौरभ के समान है। भारत पाक युद्ध के गंभीर संकटपूर्ण समय आपने राष्ट्रीय रक्षा कोष में अच्छी रकम देने के लिए समाज को प्रेरित किया ही स्वयं भी रक्तदान कर राष्ट्रीय भावनाओं को सुदृढ़ किया । आपके साथ आपके शिष्य वर्ग ने भी रक्तदान में अपना योग दिया। वर्तमान में आपने अपना नैत्रदान घोषित कर रखा है। मरणोपरांत नैत्र ज्योति के लिए नेत्र दिए जाएँ, ऐसी घोषणा मानव कल्याण की राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत होकर ही की जा सकती है। आचार्यपद की शास्त्रोक्त क्रिया सम्पन्न होने के पश्चात अपने प्रवचन में आपने व्यक्ति के राष्ट्रीय कर्तव्य पर प्रमुखता से बल दिया एवं कहा कि राष्ट्रीय कर्तव्यों के परिपालन में जैन समाज ने अग्रपीय भूमिका निर्वहित की है। आपके प्रवचनो में पिछड़े तथा कमजोर वर्ग के लोगों के प्रति आपके मुखारविंद से विशिष्ट अनुभव भाव टपकता है। उनके जीवन उद्धार के लिए आप प्रयत्नशील रहकर वास्तव में राष्ट्र सेवा से जुड़ गये हैं। आपके उपदेशों से सैंकड़ों व्यक्तियों ने मांसाहार तथा कव्यसनों का त्याग किया है। श्री सम्मेतशिखर तीर्थ यात्रा संघ प्रयाण में आपने भारत के कम से कम बारह प्रांतो की भूमि पर चरण अंकित करते हुए कई मामों में छात्रों व अध्यापकों को संबोधित कर उन्हें राष्ट्रीय कर्तव्यों के ज्ञान से अवगत किया। मूलतः गुजराती भाषी होते हुए भी दक्षिण तथा उत्तर की कई भाषाओं का आपके ज्ञान ने 'एक हदय हो भारत जननी' की सूक्ति को यथार्थ में परिणत कर दिया है। आपके प्रवचनों में सभी वर्ग तथा वर्ण के श्रोता प्रांत-प्रांत का भेद भूलकर कृतकृत्य होते हैं। ६)व्यक्तिगत दर्शन में राष्ट्रसंतश्री से आर्शिवाद प्राप्त करते हुए। उपराष्ट्रपतिजी, उनकी धर्मपत्नी श्रीमती विमलाजी शर्मा सांसद श्री लक्ष्मीनारायणजी पांडे तथा श्री काश्यपजी पृष्ठभूमि में मुनिराज श्री नित्यानंदविजयजी महाराज | For Private & Personal use Umy Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचना ॥ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . ३९ . वाचना स्याद्वाद की लोक मंगल दृष्टि - जैनाचार्य श्री आनन्द ऋषिजी महाराज विकास का बीज-मंत्र : नम्रता और विनय 0 जैनाचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेनसूरीश्वरजी महाराज कर्मवाद...... 0 युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजी महाराज विचारशुद्धि की नींव आहारशुद्धि.... - आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी महाराज मैं कौन हूँ?... 0 मुनिराज श्री नित्यांनद विजयजी महाराज महावीर युग, देश का स्वर्ण युग... 0 युवाचार्य डॉ. श्री शिवमुनिजी महाराज - श्रावक के द्वादश व्रत..... 0 महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभसागरजी महाराज जैन कथा - साहित्य : एक चिन्तन 0 उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी महाराज नमो आयरियाणं 0 मुनिराज श्री जयानंदविजयजी महाराज तप तिराते हैं मुनिराज श्री पद्मरलविजयजी महाराज आगम साहित्य का अनुशीलन - डॉ. मुनिराज श्री सुव्रतमुनिजी शास्त्री नयवाद की महत्ता - साध्वी श्री स्नेहलताश्रीजी भारतीय दर्शनक - परम्परा और स्याद्वाद 0 श्रमण संघीय साध्वी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' 'मोक्ष' विवेचन 0 साध्वी श्री पुण्यदर्शनाश्रीजी जैनदर्शन में ध्यान पद्धति 0 साध्वी डॉ. श्री मुक्तिप्रभाजी धर्म की त्रिवेणी- अहिंसा, संयम और तप 0 साध्वी डॉ. श्री प्रभाकुमारीजी 'कुसुम' श्रीमद् उत्तराध्ययन - सूत्र में कथा शिल्प 0 साध्वी डॉ. श्री शुशीलाजी जैन शशि जैनदर्शन में अरिहंत का स्थान 0 साध्वी डॉ. दिव्यप्रभाजी जैन संस्कृति की विशेषताएँ 0 साध्वी श्री मंजुश्रीजी मुक्ति का मार्ग 0 साध्वी श्री शासनलताश्रीजी जैन दर्शन में कर्मवाद की अस्मिता - साध्वी श्री अनेकांतलताश्रीजी जैन दर्शन का कर्मविज्ञान - महासती डॉ. श्री सुप्रभाकुमारीजी सुधा स्याद्वाद की दृष्टि 0 साध्वी श्री संयमप्रभाजी भारतीय दर्शनों की तुलना में जैनदर्शन की प्राचीनता के निश्चायक संदर्भ - सूत्र 0 साध्वी डॉ. श्री दर्शनप्रभाजी सम्यक्त्व् की अद्भुत महिमा एवं सम्यक्त्व् मे स्थिरता 0 साध्वी श्री विज्ञानलताश्रीजी नास्तिकों वेदनिन्दक : कितना सार्थक? 0 साध्वी श्री चारित्रप्रभाजी जैन दर्शन में सप्तभंगी-एकविश्लेषणात्मक. ___अध्ययन 0 मुनिराज श्री रमेशमुनिजी शास्त्री धर्म जागरिका 0 मुनिराज श्री उमेशमुनिजी अणु' इन्द्रिय विज्ञान की भूमिका 0 प्रवर्तक श्री रमेशमुनिजी महाराज या तो भीतों से या गीतों से 0 आचार्य श्री सुशीलसूरिजी महाराज श्री श्रेयासनाथ नया जैनमंदिर नेल्लौर की प्रतिष्ठा का कार्यक्रम 0 २०. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सत्य क्या है?" यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर हजारों-लाखों वर्षों से विचार होता आया है। इस प्रश्न पर विचार करने वाला कौन है ? मनुष्य । मानव जाति निरंतर सत्य की खोज करती है, सत्य को जानने के लिए उत्सुक रही है। स्याद्वाद की लोकमंगल दृष्टि (जैनाचार्य श्री आनंदऋषिजी महाराज) आज भी सत्य का जिज्ञासु एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहाँ सभी प्रकार के आचार, विचार, बोली व देशवाले व्यक्तियों के आने जाने का तांता लगा हुआ है वहाँ आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से वह एक ही प्रश्न पूछता है - 'सत्य क्या है?' और हरेक आदमी अलगअलग उत्तर देता हुआ आगे बढ़ता जाता है। एक कहता है कि सत्य पूर्व में है, तो दूसरा कहता है कि नहीं, सत्य तो पश्चिम में है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति सत्य को अपनी दृष्टि से परखता है। और जिस दृष्टि से देखता है, जिस रूप में देखता है, उसे सत्य मानने लगता है। परिणामतः उसके लिए झगड़ने लग जाता है। वह कहता है - 'सत्य तो मेरे पास हैं, आओ मैं तुम्हें सत्य को दिखाता हूँ" मानो विश्व में उसके सिवाय सत्य किसीके पास है ही नहीं मानव की यह कितनी विचित्र मनोवृत्ति है कि वह जो कहता है, वही सत्य है। जो वह जानता है, वही सत्य है। वास्तव में मानव की इस मान्यता में सत्य दृष्टि नहीं, बल्कि उसका अहंकार छिपा हुआ है। किसी को धन का और किसी को प्रतिष्ठा का। परिणामतः उसने अपने अहंकार को ही सत्य का रूप दे दिया है और उसके लिए वाद-विवाद, संघर्ष करने तथा लड़ने और मरने-मारने पर भी आमादा हो जाता है। संसार में जितने भी संघर्ष, हुए हैं, युद्ध हुए हैं या हो रहे हैं, भाई-भाई में द्वेष और घृणा फैली, पिता-पुत्र में शत्रुता के भाव पैदा हुए या परिवार के परिवार उजड़ गये, तो इन सबका मूल कारण क्या है? मूल बीज बहुत छोटा-सा है जिसने विनाश के वट वृक्ष का रूप ले लिया और यह है 'जो मेरा है वही सत्य है।' जब भी इस आग्रह का भूत सिर पर सवार हुआ तो विग्रह पैदा हो गया। हजारों-लाखों मनुष्यों को विचारान्ध सत्ताधारियों ने अपने दुराग्रह, कदाग्रह पर अड़कर मौत के घाट उतार दिया इससे संत-महात्मा भी अछूते नहीं रहे और उन्हें भी शूली पर लटका दिया गया। इतिहास इसका साक्षी है। ल शांति का मार्ग संसार अपनी जलती देह को क्षीरोदक से शीतल करने के लिए बेचैन है, लेकिन तन को शीतल करने से पहले उसे मन को भी शीतल बनाना पड़ेगा और मन को शीतल करने का अमोघ उपाय दुराग्रह के त्याग में है, दूसरों को झुलसाने की क्रूरता से बचने में है, सत्य की राह पाने में है। सत्य की राह पर आए हुए व्यक्ति की श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह किसी भी स्थिति में दुराग्रह या हठ नहीं करता है। श्री आनंदऋषिजी महाराज इसके लिए श्रमण भगवान महावीर ने एक दृष्टि दी विचार दिया कि सत्य शाश्वत है, लेकिन यह मत कहो कि मेरा ही सत्य, सत्य है। एकान्त आग्रह सत्य नहीं है और न वह सत्य का जनक है। जबतक यह दृष्टि नहीं हो जाएगी कि 'यत्सत्यं तन्मदीयम्', तब तक सत्य की खोज नहीं कर सकोगे और न सत्य के दर्शन कर पाओगे। यदि सत्य को पाना है, शांति प्राप्त करनी है और समाधिस्थ होना है, तो सर्वप्रथम सत्य को देखने का चश्मा बदलो अनाग्रह दृष्टि अपनाओ। अनाग्रह दृष्टि किसी पक्ष विशेष से आबद्ध न होने का नाम है। जब अनामह दृष्टि होगी तो सत्य स्वयं प्रतिभासित हो जाएगा, उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास, परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। इस अनाग्रह दृष्टि का नाम ही स्यादवाद अनेकान्तवाद है। यह सत्य को अनंत मानकर चलता है। फलत: जहाँ भी, जिस किसी से भी सत्य मिलता है, अनाग्रह एवं विनम्र भाव से उसे अपना लेता है। अब प्रश्न है कि भगवान महावीर ने सत्य प्राप्ति के लिए स्याद्वाद अनेकान्तवाद का संकेत क्यों किया? सामान्यतः इसका उत्तर है कि सत्य अनंत है. अतः उसकी न तो शब्दों से हो अभिव्यक्ति हो सकती है और न शब्द-प्रधान विचारों से ही वह तो एकमात्र विशुद्ध ज्ञानालोक में ही प्रतिभासित होता है फिर भी जो उस सत्य को एकांत आग्रह एवं मतान्धता से आबद्ध करते हैं, वे स्वयं अपनी भी हानि करते हैं और दूसरों को भी हानि पहुँचाते हैं। आग्रहशीलता आदि के बारे में भगवान महावीर के कथन का निष्कर्ष यह है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरों की निन्दा में तत्पर हैं, ऐसा करने में ही पांडित्य समझते हैं, वे इस संसार में चक्कर लगाते रहते हैं। सर्थ सर्थ पसंसंता गरÈता परं वयं । जे उ तत्व विउस्सन्ति संसारे ते विठस्सिया । सूत्रकृतांग ९/९/२/२३॥ लोकव्यवहार अनेकान्तात्मक है भगवान महावीर के ऐसा कहने का कारण यह है कि विश्व के मौलिक तत्त्वों और उनके आधार पर प्रचलित व्यवहार में एकान्त चलित चक्र संसार का कायम रहता कौन ? जयन्तसेन सरल बनो, रह तन मन से मौन ॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखने में नहीं आता है। मौलिक तत्त्वों के बारे में उन्होंने सूत्र दिया इस प्रकार व्यावहारिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक आधारों से यह - उप्पनेइ वा, विगमेइ वा, धुवइ वा - तत्त्व उत्पत्ति, विनाश और स्पष्ट हो जाता है कि विश्व की संरचना विविध विरोधों का समन्वित धौव्य युक्त है। पदार्थ रूप से रूपांतरित होते हुए भी अपने अस्तित्व, रूप है और वे सब उसके धर्म हैं, स्वभाव हैं। उनके अतिरिक्त विश्व स्थायित्व से विहीन नहीं हो जाता है। हमारे जीवन और लोकव्यवहार का अन्य कोई रूप नहीं है। ये विरोध प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं, किंतु परस्पर का ताना-बाना भी इन त्रिपदों से गूंथा हुआ है। म सापेक्ष हैं। उनका आधार एक है और वे आधार के प्रति एकनिष्ठ लोकव्यवहार में एक व्यक्ति के साथ अनेक संबंधों का जुड़ना हैं। इस तथ्य को स्वीकार करने पर वैचारिक संघर्ष और विवाद के काल्पनिक नहीं है। जैन साहित्य में कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता का लिए अवकाश ही नहीं रह जाता है। आख्यान प्रसिद्ध है, जन्मतः भाई-बहन थे लेकिन भाग्य दुर्भाग्य से लोकजीवन में स्यादवाद का योगदान अठारह संबंध, नाते वाले बन गए। वे सभी संबंध अपेक्षादृष्टि से लोकजीवन में अनेकान्तवाद-स्याद्वाद का क्या योगदान हो घटित हुए। जब इन प्रतीतिसिद्ध नातों का अपलाप नहीं किया जा सकता है? मोटे तौर पर योगदान के रूप होंगे - - सकता, तब अनन्तधर्मात्मक वस्तु में विद्यमान धर्मों के कथन के लिए (2) विवाद पराडमखता स्याद्वाद - अनेकान्तवाद का विरोध कैसे सम्भव है? अपनी एकान्तिक दृष्टि से हम कुछ भी मान लें, लेकिन सत्य को समझने के लिए (३) वैचारिक समन्वय और सह-अस्तित्व की स्थापना। वस्तु में अनन्त धर्मों की स्थिति को मानकर चलना ही पड़ेगा - लोक विभिन्न रुचि वाला है। जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति में इसके यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम्। (प्रमाणवार्तिक २/२९०) दर्शन होते हैं। एक परिवार के ही सदस्यों में देखें तो सभी में रुचि आंशिक सत्य को ही जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है, तब वैभिन्य दिखाई देता है। खानपान से लेकर आध्यात्मिक दृष्टिकोण तक संघर्ष पैदा होना अवश्यम्भावी है। सत्य न केवल उतना है, जितना किसी भी बात में पूर्ण रूप से एकरूपता नहीं है। सभी को अपने हम जानते हैं अपितु वह तो अपनी पूर्ण व्यापकता लिए हुए है। वैयक्तिक विचार पहलू पर आसक्ति है लेकिन उन पहलुओं में भिन्नता इसीलिए मनीषी चिन्तकों को कहना पड़ा कि उसे तर्क, विचार, बुद्धि होने पर भी वे विवाद का कारण नहीं बनते हैं। क्योंकि वे सभी और वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता है। (नैषातर्केण मतिरापनेया। सदस्य मिल-जुलकर रहना चाहते हैं और अपनी विचार-विभिन्नता को - कठोपनिषद्) (नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन एक उच्च सीमा में आबद्ध रखते हैं जिससे उनकी पारिवारिक अस्मिता - मुण्डकोपनिषद्) सव्वे सरा निपत्तंते तक्का तत्थ न विज्जइ) - प्रभावित नहीं होती। आचारांगसूत्र) मानव बुद्धि सत्य को जानने में समर्थ अवश्य है, किन्तु परिवार में तो हम विवाद पराङ्मुखता के लिए वैचारिक दृष्टि पूर्णता प्राप्त किये बिना उसे पूर्ण रूप से नहीं जान सकती है। स्थिति को संयमित रखते हैं, लेकिन धार्मिक क्षेत्र में उसे स्वच्छन्द विहार के में जब तक हम अपूर्ण हैं, हमारा ज्ञान अपूर्ण है, तब तक अपूर्ण लिए छोड़ देते हैं। फलस्वरूप विभिन्न सम्प्रदाय बनते हैं। जैन धर्म ज्ञान से प्राप्त उपलब्धि को पूर्ण नहीं कहा जा सकता। उसे आंशिक स्याद्वाद का मुखर प्रवक्ता होकर भी उसके अनुयायी कई संप्रदायों सत्य कहा जाएगा और सत्य का आंशिक ज्ञान दूसरों के द्वारा प्राप्त में विभाजित हुए। इन संप्रदायों ने धर्म को विवाद का केन्द्रबिंदु बना ज्ञान का निषेध नहीं कर सकेगा। इसलिए यह दावा करना मिथ्या दिया। इस विवाद को दूर करने का एक ही उपाय है कि आग्रह से होगा कि मेरी दृष्टि ही सत्य है, मेरे पास ही सत्य है। एक कदम नीचे आ जायें। जब एकांगिक दृष्टिकोण, विवाद और ऐसी स्थिति में संघर्ष को समाधान व समन्वय में परिणत करने आग्रह नहीं होगा तभी भित्रता में समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकते का एक ही मार्ग है कि सत्य को खण्ड-खण्ड न करके अखण्ड रहने हैं। दें और वस्तुगत अनंत धर्मों को जानने के लिए अपनी क्षमता के स्याद्वाद ने यही काम किया है। उसने आग्रह को एक कदम अनुसार विभेद भी कर लें लेकिन उनका विभाजन न कर दें, जिससे नीचे ला दिया। उसने विभिन्न संप्रदायों की समाप्ति का प्रयास नहीं वस्तु का यथार्थ स्वरूप बना रहे। तब दो भिन्न दृष्टियों के पारस्परिक किया किंतु समन्वय के सूत्र में बांधकर सुंदर बना दिया। साधना विरोधी तथ्य भी एक साथ सत्य हो जाएंगे। वे तथ्य सत्य के प्ररूपक पद्धतियों में यह अच्छी है या यह बुरी का निर्णय न देकर वैयक्तिक रुचि, क्षमता, देशकाल की विभिन्नता को ध्यान में रखकर यही कहा ___आधुनिक विज्ञान ने भी अपने अनुसंधान से ही सिद्ध किया है कि - कि वस्तु अनेकांतात्मक है। प्रत्येक वैज्ञानिक सत्य का शोधक है। पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । इसीलिए यह दावा नहीं करता है कि मैंने सृष्टि के रहस्य का और युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः॥ वस्तु तत्व का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है। वैज्ञानिक सापेक्षवाद का (षड्दर्शन समुच्चय टीका) सिद्धान्त यही तो कहता है कि हम केवल सापेक्षित सत्यों को जान मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि मुनिगणों सकते हैं, निरपेक्ष सत्य तो पूर्ण दृष्टागम्य है। अत: दूसरों के ज्ञात के प्रति द्वेष लेकिन यह आकांक्षा है कि जो भी वचन युक्ति-युक्त हो सत्यों को असत्य नहीं कहा जा सकता है और सापेक्षित सत्य अपेक्षाभेद उसे ग्रहण करूँ। स्याद्वाद के उक्त सूत्र का प्रयोग जीवन के प्रत्येक से सत्य हो सकते हैं। स्याद्वाद की भी यही दृष्टि है। क्षेत्र में किया जा सकता है। होंगे। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना अंजलि जल ज्यों जा रहा, क्षण क्षण जीवन काल । जयन्तसेन सुपथ चलो, पग पग पर सम्भाल ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद का दूसरा उपयोग वैचारिक सहिष्णुता के लिए हो को कबीर के शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है - सकता है। एक ही प्रकार की जीवन प्रणाली, एक ही प्रकार की लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल। आचार-विचार की साधना-पद्धति न तो व्यवहार्य है और न संभव लाली देखन जो गई मैं भी हो गई लाल॥ ही। यह तो संघर्ष का कारण बनेगी। जन-जीवन पीड़ित होता रहेगा। इसी कारण स्याद्वाद का उपासक जिस दृष्टिकोण को देखता यही स्थिति मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में देखी जा सकती है। है या विचार को सुनता है, या चिन्तन की शैली को परखता है, मानवीय वृत्तियों की विभिन्नता का उन्मूलन नहीं किया जा सकता उसमें अपने ही किसी अंश को पाता है। विभिन्न दिखने वाले अंश है, केवल उन वृत्तियों का मार्गान्तरीकरण हो सकता है। इसके लिए भी स्वयं उसके चिंतन के किसी न किसी आयाम से मेल खाते हैं। आवश्यक होती है वैचारिक सहिष्णुता। विश्व का महान शक्तिशाली अत: वह उनका विरोध करे तो कैसे करे? वे विभिन्न प्रतीत होने अन्यतम व्यक्ति भी सभी प्राणियों की रुचि को शक्ति, भय और वाले विचार भी तो उसकी समग्र चिंतन काया के ही तो अंश हैं। प्रलोभन से एक नहीं कर सकता है, न ही सभी को एक ही मार्ग अगर उनको तिरस्कृत कर दिया तो वह स्वयं समत्वयोगी न होकर का अनुगामी बना सकता है और न अधार्मिकजनों को धार्मिक बना विषमता का विश्वामित्र हो जाएगा। इसीलिए स्यावादी सहिष्णु होता सकता है। ऐसी स्थिति में तो यही संभव है - है। वह रागद्वेष रूप आत्मा के विकारों पर विजय प्राप्त करने के लिए योऽपि न सहते हितमुपदेशं तदुपरि मा कुलं को रे। सतत प्रयत्नशील रहता है। दूसरों के विचारों को सुनता है, सिद्धांतों निष्कलया किं परजनतप्त्या कुरुषे निज सुखलोपं रे॥ का सम्मान करता है और अपने विचारों के साथ सामंजस्य के आधार -शान्तसुधारस भावना का अन्वेषण करता है एवं माध्यस्थभाव से संपूर्ण विरोधों का समन्वय जो तुम्हारी हितकारी शिक्षा को नहीं सुनता, उस पर कोप मत करता है। करो, उसे भला-बुरा मत कहो। व्यर्थ में दूसरे पर कोप करने से स्वयं जैनाचार्यों ने उक्त कथन को अपने कृतित्व द्वारा भी अभिव्यक्त अपना सुख और शांति को भंग करोगे। सदाचरण से तो करने वाले किया है। जैनाचार्यों की अमीदृष्टि में 'अयं निजः परोवा' की विकृत को ही लाभ मिलेगा। यह वृत्ति तभी उत्पन्न हो सकती है जब मन भावना नहीं थी। वे तो गुणग्राही, समन्वयशील एवं उदारहृदय के में माध्यस्थ वृत्ति उत्पन्न हो जाये और माध्यस्थ वृत्ति की जननी है साकाररूप थे। इसीलिए वे अपने बौद्धिक प्रागल्भ्य को विशेषणरूप वैचारिक सहिष्णुता। वैचारिक सहिष्णुता तभी संभव है जब अन्य दर्शनों को भी विकासोन्मुखी बनाने हेतु विनियोजन करने में अनेकान्तदृष्टि, स्याद्वाद वृत्ति का आश्रय लिया जाएगा। इसीलिए सक्षम हो सके। उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने वैचारिक सहिष्णुता के लिए स्याद्वाद पर के प्रति माध्यस्थ भाव रखने, सहिष्णुता प्रदर्शित करने के के अवलंबन की ओर संकेत करते हुए कहा है - लिए स्याद्वाद का अवलंबन आवश्यक है। विचारों की अभिव्यक्ति यस्य सर्वत्र समतानयेषु तनयेष्विव।। एक श्लाघनीय कला है लेकिन 'ही' के साथ वह आग्रह, वितंडा का तस्यानेकान्तवादस्य क्वन्यूनाधिकशेमुषी॥ रूप ले लेती है और 'भी' के रहने पर माध्यस्थरूपता। इस 'भी' का तेन स्याद्वादमालंब्य सर्वदर्शनतुल्यतां। नाम अनेकांत दृष्टि - स्याद्वाद है, जो सत्य के किसी न किसी अंश मोक्षोद्देशविशेषण यः पश्यति स शास्ववित्॥ को उद्घाटित करता है। माध्यस्थमेव शास्त्रार्थो येन तच्चारु सिद्धयति। परिवार के अन्य-अन्य सदस्यों के अपने-अपने दृष्टिकोण होते स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिशवल्गनम्॥ हैं जो विवाद का कारण बन जाते हैं। इन विचारों के समाधान का माध्यस्थसहितं होकपद्ज्ञानमपिप्रभा। एक ही उपाय है कि जब तक सहिष्णु दृष्टि से एक दूसरे की स्थिति शास्त्रकोटिर्वथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना। को समझने का प्रयास नहीं किया जाये, तब तक संघर्ष समाप्त नहीं - अध्यात्मवाद ६९-७२ हो सकता है। हम दूसरे के संबंध में कोई विचार करें और निर्णय सच्चा अनेकान्तवादी किसी दर्शन पर द्वेष नहीं करता है। वह लें. उससे पहले स्वयं उस स्थिति में खड़े हों। दूसरे की भूमिका में संपूर्ण नय रूप दर्शनों को इस प्रकार की वात्सल्यदृष्टि से देखता है स्वयं को खड़ा करने से ही उसके बारे में सम्यक प्रकार से जाना जा जिस प्रकार कोई पिता अपने पुत्र को देखता है। क्योंकि अनेकान्तवादी सकता है। सह-अस्तित्व का यही आधार है। अनेकांतवाद यही तो की न्यूनाधिक बुद्धि नहीं होती है। वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने कहता है कि दो अंतों के बीच एक ऐसा सेतु बनाओ जिससे परस्पर का वही अधिकारी है जो स्याद्वाद का अवलंबन लेकर संपूर्ण दर्शनों विरुद्ध एक दूसरे से भिन्न दिखने वाले भी अपना-अपना अस्तित्व में समानता का भाव रखता है। माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ रहस्य पृथक्-पृथक् रखकर परस्पर सहयोगी बन जाएँ। है, यही धर्मवाद है। माध्यस्थभाव रहने पर शास्त्र के एक पद का उक्त आध्यात्मिक स्थिति की तरह पारिवारिक क्षेत्र भी है। ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों के पढ़ जाने से भी कोई स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा विविध दृष्टियों का समन्वय होता है। विविध लाभ नहीं है। दृष्टियों की भिन्नता शाब्दिक प्रक्रिया के कारण है, वह भावात्मक स्यादवाद आत्मा में समत्वयोग का इतना व्यापक विस्तार कर मिलता है। देता है कि स्व-पर का भेद ही नहीं रहता है। समत्वयोगी के स्वरूप श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन थ/वाचनालय द्वार प्रगति का है खुला, कर लो दूर कषाय । जयन्तसेन विपुल विभव, जीवन भर सुख पाय linelibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजातंत्र तभी सफल हो सकेगा जब स्याद्वादी दृष्टिकोण को सहयोग आवश्यक है। हितमित पर-पक्ष को सुनो, उसकी बात में भी स्वीकार किया जाएगा। विरोधी पक्ष की बात इसलिए अग्राह्य नहीं सत्य समाया हुआ है। जीवन सबके लिए समान रूप से इष्ट है। मानी जानी चाहिए कि वह अल्पमत में है। विरोधी पक्ष को उतनाही यदि इसको न माना जाएगा, तो विश्व में निर्बलों को जीने का अधिकार मान देना चाहिए जितना अपने पक्ष को सम्माननीय माना जाता है। ही नहीं रहेगा। इसलिए जीवन-विकास के लिए इन तीनों में ही विपक्ष विरोधी ही नहीं है, किन्तु उसकी धारणाओं में भी किसी रूप स्याद्वाद की जीवनस्पर्शी व्याख्या समाई हुई है। स्याद्वाद सिर्फ से सत्य का अंश है। इससे अपने दोषों के निराकरण का अवसर विचार नहीं है, किन्तु आचार-व्यवहार भी है, जो अहिंसा और अपरिग्रह मिलता है। यह तभी संभव है जब वैचारिक सहिष्णुता और समन्वय के रूप में विकसित हुआ है। के द्वारा ही प्रजातंत्र का भविष्य उज्ज्वल बन सकता है। उनके लिए विश्व मंगलकारी स्याटवाट तात स्याद्वाद-अनेकांतवाद के सिवाय अन्य कोई आधार नहीं हो सकता जा भगवान महावीर ने स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा यही सूत्र दिया है। कि एक पक्ष की सत्ता स्वीकार करते हुए दूसरे पक्ष को भी उसका व्यक्तिगत जीवन में स्याद्वाद सत्य कहने दो और सत्य को स्वीकार करो। स्याद्वाद दर्शन और चिंतन के क्षेत्र तक सीमित नहीं है अपितु पर स्याद्वाद संकुचित एवं अनुदार दृष्टि को विशाल बनाता है। आचरण व प्रयोग का भी माध्यम है। व्यक्ति और समष्टि सभी के यह विशालता, उदारता ही पारस्परिक सौहार्द, सहयोग, सद्भावना लिए उपादेय है। शिष्ट और सामान्य नागरिक आचरण के तीन सूत्र एवं समन्वयका मूल प्राण है। उदारता, और सहयोग की भावना तभी हैं - सम्मान, सुरक्षा और संयम। बलवती बनेगी जब हमारा चिन्तन, कथन अनेकांतवादी होगा। विश्व स्याद्वाद द्वारा यही संकेत किया जाता है, आचार के लिए को अपने विकास के लिए स्याद्वाद का सरल मार्ग स्वीकार करना और विचार के लिए कि सद्विचार, सहिष्णुता एवं सत्प्रवृत्ति का पड़ेगा यही विश्व मंगल की आद्य इकाई है। है। (पृष्ठ १८ का शेष भाग) उपलब्धि तक पहुंचनेतक नहीं देती। इससे विपरीत वह मानव का मन उसके आत्मिक विकास का उपकरण बन सकता है। आध्यात्मिक मूल्यों का उपहास कर रहा है। भौतिक विकास के उपहार अतएव मानव के लिए पहली आवश्यकता यह है कि वह ने मानव को उपहास की ओर धकेल दिया है। मानव की यह चेतना अपने बारे में चिन्तन करना प्रारंभ करे, परचिन्तन को अनुत्साहित करे। शून्यता उसे अनन्त शक्तिवान आत्मा के प्रति अनास्था से ग्रस्त किए प्रात:काल उठकर स्वस्थ मस्तिष्क से विचार करे एवं निरंतर गुत्थी है। मानव, भौतिक सुखों में इतना लिप्त होता जा रहा है कि आत्मिक सुलझाने की कोशिश करे कि - 'मैं कौन हूँ?' 'मैं शरीर नहीं, सुखों के प्रयल के लिए उसे सोचने की फुर्सत ही नहीं है। पहली इन्द्रियां नहीं, भौतिक सुखों की ओर भटकनेवाला शरीर नहीं, मैं जरूरत यह है कि व्यक्ति का विवेक उसे जीवन की सही दिशा पर अनन्त शक्तिवाला आत्मा हूं। आत्मा का मूलस्थान दु:खों से भरा अग्रसर होने के लिए अन्तरित करे। मानव के हृदय के धरातल पर हुआ यह संसार नहीं बल्कि अनंत ज्ञान-दर्शन-सुखों आदि से युक्त अन्तप्रेरणा के बीज अकुंरित होने चाहिए। वैसी अन्तर्रेरणा की जाग्रति शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वरूप की प्राप्ति है। “मैं क्षणिक नहीं, अक्षय हूं।" जो शालीभद्र को असीम समृद्धि के मध्य 'मेरे नाथ' सुनकर हुई, जो "मैं भेड़ों की रेवड़का सदस्य नहीं अनंत शक्तियों से गर्जना करने इलाचीपुत्र को नट की तरह नृत्य करते हुए एवं भरत चक्रवर्ती को वाला सिंह हूं। मैं आत्मा हूं, मैं आत्मा हूं, मैं आत्मा हूं।" आरिसा भवन में दर्पण के सन्मुख अपने शरीर की ओर निहारते हुई। मधुकर मौक्तिक मोक्ष का द्वार बन्द नहीं है, बल्कि हमारे मन के द्वार बन्द हैं। मोक्ष पाने के लिए मन के द्वार खोलकर पंच परमेष्ठी भगवंतों को उसमें प्रवेश कराना है। यदि आप कहीं जाना चाहते हैं, तो वहाँ के रास्ते बन्द नहीं है; हाँ इतना अवश्य है कि आप सीधे वहाँ न पहुँच सकेंगे। आपको अपने गन्तव्य तक जाने के लिए कुछ 'जंक्शनों पर गाड़ियाँ बदलनी पड़ेंगी; तभी आप वहाँ तक पहुँच जाएँगे। हमारा लक्ष्य घर जाने का होना चाहिये। मोक्ष हमारा घर है। वहाँ जाने के लिए हम परमेष्ठी भगवंतों का अवलंबन लें और तदनुरूप साधना करते जाएँ। इस जन्म में न सही, किसी अन्य जन्म में; भरत क्षेत्र से न सही; महाविदेही क्षेत्र से; मोक्ष अवश्य प्राप्त हो सकता है। साधना/धर्माराधना कभी निष्फल नहीं होती। वह कभी-न-कभी तो हमें अपने मूल स्वरूप को प्रकट करने का अपूर्व अवसर प्रदान करती है। - जैनाचार्य श्रीमद् जयन्तसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद्जयतसनसूरिभिनदनमथावाचनामा कषाय, बुरी बला समझ, इससे इज्जत हान । जयन्तसेन निर्मल मति, सद्गति का पंथान ॥ Jain Education Intemational Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकास के बीज-मन्त्र : नम्रता और विनय (जैनाचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज) जयवन्त जैन शासन विश्व में जैन शासन जयवन्त है। यह शाश्वत सत्य है। जैन शासन की गहराई में जाकर यदि देखें तो इसमें सबसे बड़ी बात आत्मज्ञान की ही मिलेगी क्योंकि जैनधर्म आत्मधर्म है। आत्मधर्म सदा जयवन्त है। आत्मा अमर है, इसलिये आत्मज्ञान भी अमर है। और जयवन्त है। किसी ने कहा है: 'जब तक आत्मा है, तब तक ज्ञान भी है। आत्मज्ञान की बात करने वाला जैन शासन सदा से विश्व का प्रेरक और उद्धारक रहा है। भौतिक विशेषताओं के कारण ही जैन शासन सब धर्मों में प्रधान और श्रेष्ठ नहीं है, वरन् अपने आध्यात्मिक ज्ञान और विशेषताओं के कारण ही वह सब धर्मों में प्रधान और श्रेष्ठ है। जो आध्यात्मिक विमर्श जैनधर्म ने किया है, वैसा किसी अन्य धर्म ने नहीं: इसीलिए कहा गया है सर्व मंगल मांगल्यं, सर्व कल्याण कारणम् । प्रधानं सर्व धर्माणां जैनं जयति शासनम् ॥ हमारी अपनी स्थिति आत्मा के स्वभाव को द्रव्य-गुण- पर्याय को केवल जैन शासन ने ही विस्तारपूर्वक समझाया है। उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा- इस त्रिपदी को ग्रहण कर गणधर भगवन्तों ने द्वादशांगी की रचना की है। द्रव्य की उत्पत्ति विनाश और धौव्य का विशद विवेचन करके पूर्व महर्षियों ने आपस में टकराने वाले अन्य दर्शनों में समझौता कराया है। ऐसा समन्वयवादी शासन हमें प्राप्त हुआ है, यह हमारा अहोभाग्य है। अब हमें अपनी स्थिति पर गौर करना है। इस शासन की छत्रछाया में बैठ कर हमें अपना जीवन-लक्ष्य निर्धारित करना है, अपनी वर्तमान स्थिति पर विचार करना है। जीवन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आवश्यकता है। पंच परमेष्ठी तो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के रत्नत्रय के मूर्तरूप है; इसलिए यदि हम पंच परमेष्ठियों की शरण में जाएँगे तो हमें रत्नत्रय की प्राप्ति के साथ-साथ मंजिल भी प्राप्त हो जाएगी। हमारी स्थिति सुधर जाएगी। भक्तिभावमय आराधना हम रोज नवकार मन्त्र जाप करते हैं, फिर हम उनके दर्शन से कोरे क्यों रह गये? हमें अब तक सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की उपलब्धि क्यों नहीं हुई? हम अब तक अंधेरे में क्यों भटक रहे है? कारण स्पष्ट है, हम केवल राम-राम बोल रहे हैं, परमेष्ठियों के साथ तन्मय नहीं हुए हैं। यदि हमें अपने जीवन में प्रकाश लाना है, तो परमेष्ठि भगवन्तों को भक्ति भावपूर्वक भजना होगा। केवल तोता - रटन्त से काम नहीं चलेगा। कथनी और करनी में एकरूपता लानी होगी। परमेष्ठियों को पाने के लिए हमें गहराई में जाना होगा। हम अब तक श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना T भीतर न पहुँच सके इसीलिए शब्द- केवल शब्द बनकर ही रह गये। अब हमें अपनी यात्रा की दिशा बदलनी होगी। THE TE नवकार मन्त्र हम जिसकी आराधना कर रहे है, वह नवकार मन्त्र है। उसमें पंच परमेष्ठि भगवन्तों को नमस्कार किया गया है, अतः इसे नमस्कार मन्त्र भी कहते हैं। शास्त्रीय भाषा में इसे पंच मंगल महाश्रुतस्कंध भी कहते हैं। सरल भाषा में इसे नवकार मन्त्र कहते हैं। यह चौदह पूर्वो का समस्त जैनशास्त्रों का सार है। आचार्य श्री जयंतसेनसूरिजी नवकार मन्त्र में रही हुई परमेष्ठियों के प्रति नमनपूर्वक संपूर्ण समर्पण की भावना को यदि हम ध्यान में लें, तो हमें यह प्रतीत होगा कि 'नवकार' के समान मंगलकारक अन्य कोई है ही नहीं यह सब प्रकार के पाप कर्मों का नाश करने वाला, सब अमंगलों को दूर करने वाला प्रथम मंगल है। एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पडर्म हवड़ मंगलं ॥ जब ऐसा है, तब फिर आज तक हम इसे क्यों नहीं पा सके? नवकार अब तक हम से दूर क्यों रहा? कारण स्पष्ट है, हम नवकार के इर्द-गिर्द ही चक्कर लगाते रहे। नवकार के भीतर कभी हमने प्रवेश ही नहीं किया। जो कुछ है सो नवकार के भीतर है, बाहर कुछ भी नहीं है और हम है, जो केवल बाहर ही ढूँढ़ते हैं, भीतर प्रवेश ही नहीं करते। फिर हम पायें कैसे? नवकार को पाने के लिए हमें भीतर तक जाना होगा। जितनी गहराई तक हम जाएँगे, उपलब्धि उतनी ही हमारे नजदीक होगी। मन्त्र- शिरोमणि नवकार मन्त्र मन्त्र- शिरोमणि है मन्त्राधिराज है। मन्त्र जीवन में आने वाले संकट दूर करता है; पर यह मन्त्राधिराज तो संकट के मूल कारण पाप को ही समूल नष्ट कर देता है। यह सव्वपावप्पणासणो है। यह नवपदात्मक या अड़सठ अक्षरात्मक होते हुए भी - छोटा-सा होते हुए भी, महान् है। जीवन के समस्त अभाव दूर करने वाला है। आत्मतत्त्व और परमात्मत्व का ज्ञान कराने वाला है। संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो इसकी शक्ति से परे हो ऐसा कोई रोग नहीं है, जो इससे दूर न हो नवकार मन्त्र आधि-व्याधि और उपाधिजन्य समस्त संतापों का नाश करता है। यह भवरोग-विनाशक है। अविरति अरु मिथ्यात्व है, कषाय योग प्रमाद । जयन्तसेन तजे बिना, जीवन हो बरबाद Binelibrary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार हमें जीवन-बोध कराता है, परमात्मा तक पहुँचने की स्थान मिल जाए, तो फिर गमनागमन और आवागमन रुक सकता दूरी कम करके हमारा सम्बन्ध परमात्मा तक जोड़ता है। जगत्भाव है, पर हम हैं कि बिना पते के आगे बढ़ रहे हैं। गन्तव्य की जानकारी से दूर ले जाकर वह हमें आत्मभाव से जोड़ता है। नवकार मन्त्र ही नहीं है, न पता है और न मुकाम। लक्ष्य-बोध द्वारा हमें लक्ष्य तक पहुँचाता है। यह हमें भटकने से अपना पता लगाने के लिए और अपना मुकाम पाने के लिए बचाता है। हमारे चाल-चलन में सुधार लाता है और हमारे जीवन हमें इन परमेष्ठि भगवन्तों के निकट पहुँच कर इनका आलंबन लेना का स्पष्ट लेखा-जोखा हमारे सामने रख देता है। ये पाँचों परम इष्ट होगा, क्योंकि परमेष्ठियों का स्थान निश्चित है। स्थान तो उसका अनिश्चित है, जो इनके निकट नहीं आ पाया। यदि हमें अपने सही परम इष्ट की प्राप्ति और स्थायी स्थान पर पहुँचना है, तो इन परमेष्ठियों को पहचानना इष्ट और परम इष्ट में फर्क है। हमारे अन्य इष्ट अत्यन्त आवश्यक है। जन-संसारी/सम्बन्धी हमें धोखा दे सकते हैं, पर ये परम इष्ट पंच परमेष्ठी भगवंतों के निकट जाना अपने सही और स्थायी स्थान परमेष्ठी कभी धोखा नहीं देते। ये तो हमारे आत्मविश्वास को जाग्रत को पाना है। उनके निकट जाते ही हमारे भटकाव का अन्त हो करके हमारा आत्मबल बढ़ाते हैं। पंचपरमेष्ठी भगवान् हमारे पूरे जीवन जाएगा। जो परमेष्ठियों से दूर रहे, वे संसार में भटक गये और जो को बदल सकते हैं; हमारा कायाकल्प कर सकते हैं; किन्तु यह तभी परमेष्ठियों के निकट आ गये, वे अपना भटकाव भूल गये। हो सकता है, जब नवकार को अपने हृदय में उतार लें। इससे पहले चक्की : एक पाट पाप, एक पाट पुण्य हमें इसके स्वरूप को अच्छी तरह समझ लेना होगा और यह जो संसार एक चक्की है। पण्य और पाप उस चक्की के पाट हैं। कहता है, उसे मानना होगा। इसे पाने के लिए जगत्-भाव का त्याग परमेष्ठियों से जो दर हआ, वह पाप-पुण्य के इन दो पाटों के बीच करना होगा और 'नवकार-भावों को पकड़ना होगा। पिस जाएगा। उसका संसार-भ्रमण जारी रह जाएगा। परमेष्ठियों के नवकार-भाव अपने में आते ही सभी प्रकार के दुर्भाव हमें छोड़ सानिध्य में रहने वाला संसार भ्रमण से बच जाएगा; क्योंकि वह जाएंगे। दुर्भावों की डकैती का डर फिर हमें नहीं होगा। हम में पुण्य और पाप के परे हो जाएगा। नवकार-भाव का अभाव है, इसीलिए दुर्भावना हमारे भीतर समायी परमेष्ठी : बीच की कील हुई है। हमारे जीवन में सद्विचारों की गंगा प्रवाहित होनी चाहिये; आटे की चक्की आपने देखी है। उसमें दो पाट होते हैं। बीच यह तभी संभव होगा, जब हम नवकार को अपने भीतर प्रतिष्ठित कर में एक कील होती है। ऊपर से अनाज डाला जाता है। चक्की घूमती लेंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो नवकार के अभाव में हमारे जीवन है और अनाज पिस जाता है। आपको मालूम होगा कि चक्की में में केवल कुविचारों की अस्वच्छ नाली प्रवाहित रहेगी और हमारा डाले जाने के बावजूद भी कुछ दाने सुरक्षित रह जाते हैं। ऐसा क्यों सारा जीवन विकृत हो जाएगा। हुआ? ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि वे दाने कील के बिलकुल निकट इसलिए नवकार के हर अक्षर, हर पद और हर भाव को हम रहे। कील के निकट रहने वाले दाने पिसने से बच गये। तो जो विचारपूर्वक समझें और उसके निकट जाएँ। यदि ऐसा हुआ, तो कील के निकट रहता है, उसकी रक्षा होती है और जो कील से दूर अवश्य ही परम इष्ट की प्राप्ति हुए बिना नहीं रहेगी। हमें अपना रहता है वह पीसा जाता है। कील के पास रहने वाला चक्कर में अधिकृत स्थान अवश्य प्राप्त होगा। नहीं आता। गन्तव्य कहाँ है? मातो, जो परमेष्ठी भगवंतों की शरण में जाता है, वह इस आज हमारा स्थान ही कहाँ है? हम जहाँ हैं, अस्थिर हैं। हम भव-भ्रमण-रूप संसार-चक्की में नहीं पीसा जाता। परमेष्ठी भगवन्त मान लेते हैं कि हमें स्थान मिल गया; पर है हमारा यह प्रम। हमारा इस जगत् के बीच कील-तुल्य है। हम भी यदि उनकी शरण ले लें. स्थान स्थायी नहीं है। इस संसार में किसी का भी स्थान स्थायी नहीं तो फिर संसार की चक्की चाहे जितनी चले, हम उसमें अधिक समय है। सभी अस्थिर है। भले ही घर का मालिक या देश का मालिक तक पीसे नहीं जाएंगे। जल्दी ही हमारे भव-भ्रमण का अन्त हो कोई बन गया हो; पर वह वहाँ स्थायी रूप से दिखायी नहीं देता। जाएगा। किसी का भी स्थान स्थायी नहीं है घर में रहने वाला घर जप : आत्म-परिणमन छोड़ता है भागा-भागा बाजार जाता है। बाजार में गया हुआ भागा-भागा पंचपरमेष्ठी नमस्कार-मन्त्र परम मंगलमय है। हमें नवकार के घर लौटता है। उसका सही स्थान कहाँ है? दूकान है या घर है? भीतर भावात्मक रूप से प्रवेश करना चाहिये। जो भावात्मक रूप से कोई घर से परदेस जाता है तो कोई परदेस से घर आता है। है कहाँ मानवकार नहीं जपता, उसका कर्म भी नहीं खपता। खपेंगे उसी के, ठिकाना? जरा इन सब से पूछो तो सही! जो जपेगा। जो सावधान होकर काम करेगा, उसी का काम होगा। भटकाव कैसा? हमारा जपना कैसा है? केवल ओठ हिलते हैं, पर हृदय इस संसार में जहाँ देखो वहाँ सब प्राणी भटकते नजर आ रहे आन्दोलित नहीं होता। उसमें आत्मा के परिणाम नहीं मिलते। आत्मा हैं; क्योंकि उन्हें अभी तक अपना अधिकृत स्थान नहीं मिला। अपना के परिणाम तो उसमें तब मिलेंगे, जब हम नवकार को सम्यक् रूप श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना लोभ मोह मद वासना, सभी नरक के द्वार । जयन्तसेन तजो सदा, बढ़े नहीं संसार । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से समझ लेंगे। नवकार में प्रवेश करना है, तो नवकार का शुद्धोच्चार नमना चाहिये। जो नम नहीं सका, उसने 'नमो' सीखा ही नहीं। 'नमो' करें। शब्द हमें विनम्र बनने का संदेश देता है, विनम्र बनने की प्रक्रिया 'नमो अरिहंताणं' में 'नमो' प्रारंभ में है और 'अरिहंताणं' अन्त समझाता हैं। यदि अरिहन्त को पाना है, प्रकाश को पाना है, सत्य में है। पहले 'नमो' है। ऐसा क्यों है? कारण अरिहंत तक पहुँचने को और अमरत्व को पाना है; तो विनीत बनना होगा। विनम्रता से के लिए 'नमो' आवश्यक है। बिना 'नमे' अरिहन्त प्राप्त नहीं होंगे। ही अरिहन्त परमात्मा का सामीप्य प्राप्त होगा। किसी भी चीज को पाने के लिए झुकना पड़ेगा। जमीन पर यदि कुछ न' अर्थात् नहीं और 'मो' अर्थात् मोह। जिसमें मोह-ममत्व गिर गया है, तो उसे लेने के लिए झुकना पड़ता है; फिर अरिहन्त मान नहीं है वही नम सकता है, झुक सकता हैं। उसी के जीवन में परमात्मा जैसे परम इष्ट झुके बिना कैसे प्राप्त होगे? कभी प्राप्त नहीं परमेष्ठी आलम्बन बन जाते है। यदि ममता-भाव नहीं हटा, राग-भाव होंगे। 'नमो अरिहंताणं' इसीलिए कहा गया है। नहीं हटा तो चाहे जितना 'नमो, नमो' रटते जाओ, वह कोरा शब्दोच्चार अरिहंत : सर्वबन्धन-मुक्त होगा। 'नमो' बोलते हैं, तब तक 'अरिहंताणं' नहीं; पर 'नमो' के बाद केवल पर्ची नहीं 'अरिहंताणं' बोलिये। ऐसी आदत डालिये, फिर आपको स्थान मिल र मान लीजिये, आप बीमार हो गये और डॉक्टर के पास गये। जाएगा। यदि 'नमो' को छोड़ दिया और केवल 'अरिहंताणं' रटते डॉक्टर ने आपकी जाँच की और नुस्खा दे दिया। आप घर आये रहे तो काम नहीं चलेगा। 'अरिहंताणं' के पहले 'नमो' चाहिये ही। और रोज उसे पढ़ते रहे। आप बहुत प्रसन्न हो रहे हैं, नुस्खे को पढ़ अरिहन्त भगवान् जो हैं, वे समस्त बन्धनों से मुक्त हो चुके कर। आपने नुस्खे को सम्हाल कर तिजोरी में रख दिया है। क्या हैं। उन्होंने चारों घाती कर्मों का क्षय कर लिया है। आत्मा के मूल उस नुस्खे को केवल पढ़ कर आपका रोग दूर हो जाएगा? नहीं, गुणों -अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख ऐसा कभी नहीं होगा। रोग दूर करने के लिए नुस्खे में लिखी दवाई का जो घात करे, वह घाती कर्म है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, आपको लेनी ही पड़ेगी और पथ्य-पालन करना पड़ेगा. तब कहीं मोहनीय, और अन्तराय ये चारों आत्मा के मूल गुणों का घात करते आपका रोग दूर होगा। परचा पढ़ने मात्र से बीमारी थोड़े ही दूर हो हैं इसलिए इन्हें घाती कर्म कहते हैं। अरिहन्त परमात्मा ने इन चारों जाती है। डॉक्टर कितना भी अच्छा क्यों न हो, नुस्खा कितना भी घाती कर्मों का नाश कर दिया है। इसलिए वे अनन्त चतुष्टय से युक्त रामबाण क्यों न हो, पर जब तक दवाई का सेवन नहीं किया जाएगा, रोग दूर नहीं होगा। इन घाती कर्मों का नाश उन्होंने कैसे किया? तीर्थंकर पद प्राप्त आप कहते हैं हमें भी 'नमो अरिहंताणं' बोलते-बोलते बहुत करने के पहले विगत जन्म में उन्होंने दर्शन-विशुद्धि, विनय-संपन्नता समय हो गया। आप मानते हैं कि हममें नवकार मन्त्र के प्रति श्रद्धा आदि सोलह कारणों की साधना की थी। उन्होंने स्वयं अपने जीवन है, आस्था है। पर भाई! तुम्हारा यह विश्वास तभी सही माना जाएगा, में 'नमो' पद की साधना की थी। भगवान् भी जब गृहस्थ धर्म को जब 'नमो' को सीख लेंगे और जीवन में उतार लेंगे। हमें अहंकार त्याग कर साधु धर्म को स्वीकार करते हैं और महाव्रत ग्रहण करते के शिखर से नीचे उतरना है। परमेष्ठी भगवन्त हम से महान् हैं। उन हैं, तब नमो सिद्धाणं बोलते हैं। यह 'नमो' शब्द बड़ा जानदार है। परमेष्ठियों के आगे हम अहंकार के पहाड़ पर बैठ कर अपनी ऊँचाई 'नमो' के बिना कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। 'नमो' का भाव जब तक कम नहीं कर सकते। उनके चरणों में शरणागति पाने के बाद ही जीवन में नहीं आता; तब तक संसार का चक्कर अटल है। ऊँचाई कम होगी, जीवन धन्य होगा। 'नमो' : जीवन की नींव 'नमो बदले 'ममोसीया _ जीवन में यदि नमन का भाव नहीं आया, तो जीवन निरर्थक मोह घटेगा तो 'नमो' अवश्य ही जीवन में सार्थक हो जाएगा। हो जाएगा। 'नमो' तो हमें जीवन में हर जगह 'नमना' सिखाता है। यदि ऐसा नहीं हुआ और 'नमो' का विस्मरण हो गया तो नमो तो 'महाबल देखा जरा सीस के झुकाने में। यह सच है, जिसने सिर छूट जाएगा और 'ममो' जीवन में आ जाएगा। यह ममो क्या है? झुका लिया, उसने सब कुछ जीत लिया। झुकने वाला बच गया और 'म' यानी ममता और 'मो' याने मोह; अर्थात मेरी ममता और मेरा अकडने वाला टट गया। आपको मालम होगा. जब आँधी आती है. मोह। बस ममता और मोह ही शेष रह जाएगा। और तब आत्म-स्वभाव तब बड़े-बड़े पेड़ चरमरा कर टूट जाते हैं, पर घास के तिनके बच तिरोहित हो जाएगा। ऐसा न हो, इसलिए 'नमो' सिखाया गया है। जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? इसलिए कि पेड़ अकड़े रहते हैं, टूट । बस, आप नमो को अपने जीवन में उतार लो, झुकते जाओ, नमते जाते हैं; तिनके झुक जाते हैं, बच जाते हैं। झुकने से रक्षा हो सकती जाओ; आप अपने-आप अरिहन्त की शरण में स्थान पा जाओगे। है; इसलिए 'नमो' व्यवहार में भी जीवन का आधार है। यदि नमे नहीं, अकड़े ही रहे, तो फिर ऊँचे उठने का प्रसंग नहीं नमो = नम्र बनो आयेगा। हम रोज 'नमो' 'नमो' रटते हैं, पर जब नमने का मौका आता छोटे बनो, बड़े झकेंगे है. तब अकड़ जाते हैं। जीवन में हम नमते नहीं हैं। यथावसर अवश्य आपको मालूम है, कई बार जब, मकान का द्वार छोटा होता श्रीमद् जयंतसेनसूरिस अभिनंदन ग्रंथावाचना कपट मित्रता संग में, रहे नहीं संसार । जयन्तसेन कपट रहित, सन्मति सार्थक सार । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, तब अन्दर प्रवेश करने वाले उसमें झुक कर प्रवेश करते हैं। दरवाजा तो पहले से ही झुका हुआ है, इसीलिए यदि कोई भी बड़ा आदमी घर में प्रवेश करेगा, तो वह भी झुक कर ही प्रवेश करेगा; अतः जो पहले से ही छोटा हो जाता है, उसके सामने बड़े से बड़ा भी छोटा हो जाता है। आपके सामने आने वाला व्यक्ति आईना है। उसमें आपका ही प्रतिबिम्ब झलकेगा। आप सगे, वह भी रानेगा; तनेंगे, आप झुकेंगे, वह भी झुकेगा-झुके बिना नहीं रहेगा। अतः यदि हम नम्र बनेंगे, तो हमारा आत्मिक विकास अवश्य ही होगा और हमारी नम्रता हमें परमेष्ठी भगवन्तों तक ले जाएगी, जो हमारी मंजिल है। नमो अर्थात् केवल नमस्कार नहीं हम 'नमो अरिहंताणं' बोलते हैं। इसका मतलब केवल अरिहन्त परमात्मा को नमस्कार मात्र नहीं है। इसमें अरिहन्त परमात्मा को नमस्कार तो है ही; साथ में अहंकार का त्याग भी है। इसमें समता का भी समावेश है। समता आये बिना नमन कैसे होगा? समता में अहंकार का त्याग तो होता ही है, साथ ही सब जीवों के प्रति समान भाव भी होता है न किसी के प्रति राग और न किसी के प्रति द्वेष समता में तो मित्ति में सव्वभूएस प्राणिमात्र के प्रति मैत्री का भाव समाया हुआ है। 'नमो' का उल्टा महामन्त्र नवकार का संदेश झुकने का संदेश है। यदि आप नहीं झुक सकते हैं, तो कोई बात नहीं; पर सामने वाले की बात सुन तो लीजिये। किसी की पूरी बात सुन लेना भी एक शिष्टाचार है। आप यदि 'नमो' को आचरण में नहीं ला सकते तो कम-से-कम नमो का उल्टा रूप ही आचरण में लाइये जानते हैं; नमो का उल्टा क्या होता है? नमो का उल्टा होता है 'मोन' अर्थात् 'मौन' बस आप मौन रह जाइये। यदि नमो याद नहीं रहे, तो मौन रह जाइये। पर अन्त में परमेष्ठी भगवन्तों की निकटता पाने के लिए 'नमो' को तो सीखना ही पड़ेगा। उसे सीखे बिना काम चलेगा ही नहीं। नम्रता और विनय जीवन विकास के मन्त्र हैं। ज्ञानी कहते हैं, झुको, ज्यादा-से-ज्यादा झुको; इतने झुको कि सामने वाले का दिल पसीज जाए। हमें ज्ञानियों की बातों पर विश्वास करना चाहिये। जगत् की बात पर भरोसा करेंगे, तो जगत् में ही उलझे रहेंगे और यदि ज्ञानी की बात पर भरोसा करेंगे तो ज्ञानवन्त हो जाएँगे; क्योंकि ज्ञानी परम आप्त है; वह वीतराग, सर्वज्ञ और केवल हितोपदेशी हैं। उनकी वाणी संसार सागर से बेड़ा पार कर देगी। जगत् जीव को उलझाता है; ज्ञानी जीव को पार लगाता है। ज्ञानी गुरु परम करुणामय होते हैं। वे जीव के भले की ही बात बोलते हैं। कहा गया है जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहँ दुखतें भयवन्त । ता दुखहारी सुखकारी, कई सीख गुरु करुणा धारि ॥ ज्ञानी गुरु ही हमें मंजिल तक पंच परमेष्ठियों तक ले जाएँगे। परदेशी और स्वदेशी इस संसार में सभी परदेशी हैं, स्वदेशी कोई नहीं। भारतीय भारत छोड़ कर अन्यत्र जाता है तो वह परदेशी माना जाता है और श्री अभिनंदन मंगाना 20 अन्य देश से कोई भारत में आता है तो वह भी परदेशी माना जाता हैं. तो यहाँ सब परदेशी हैं, स्वदेशी कोई नहीं। स्वदेश हमारा छूट गया है। उसे पाने के लिए ही तो यह सारा प्रयत्न है। स्वदेश इसलिए पाना है; क्योंकि स्वदेशियों में भिन्नता नहीं होती। वे सब समान होते हैं। स्वदेश में मोक्ष में असमानता होती ही नहीं संसार पराया देश है अतः इसमें असमानता ही है; इसीलिए संसार में दुःख है और मोक्ष में सुख स्वदेश चलें परमेष्ठी भगवान् तो स्वदेश पहुँच चुके हैं; इसलिए उनमें किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं है परदेश अपना नहीं है; हमारा यहाँ रहना उचित नहीं हैं। हमें स्वदेश की ओर चलना चाहिये चलो, हम स्वदेश की ओर चलें। यह तो परदेश है, यहाँ कभी भी तूफान आ सकता है यदि तूफान आ गया, तो उसमें हमारा बलिदान हो जाएगा; क्योंकि यहाँ हम परदेशी है। यहाँ खतरा ही खतरा है; दुःख-ही-दुःख है और केवल मात्र चतुर्गति में भटकना है; अतः यहाँ रहना इष्ट नहीं है। स्वदेश चलो। वहाँ कोई खतरा नहीं है कोई भटकाव नहीं है। दृढ़ संकल्प : मुश्किल भी आसान स्वदेश गमन का मार्ग कठिन जरूर है; पर यदि संकल्प दृढ़ हो, तो कठिन मार्ग भी सरल बन जाता है। स्वदेश के मार्ग में संकल्पपूर्वक प्रयाण करो; कठिनाइयाँ दूर होती जाएँगी। दृढ़ संकल्प करने वाला व्यक्ति आधी मंजिल तो पहले ही तय कर लेता है। यहाँ से अपने घर जाना हो, मारवाड़ जाना हो, तो रास्ते में कितनी तकलीफें है। लोग घर जाकर कहते हैं गाड़ी में इतनी भीड़ थी कि खड़े रहने को भी मुश्किल से जगह मिली। गाड़ी में लोगों के धक्के खा-खा कर बड़ी मुश्किल से किसी तरह घर पहुँचे हैं और राहत की साँस ली है। घर जाना था, तो धक्के भी खा लिये और अनेक मुसीबतें भी सहन कर लीं; पर यहाँ धक्का दें, तो फिर वापिस कभी अन्दर ही नहीं आयें। गाड़ी में बार-बार धक्के खाने पर भी अंदर घुसने का प्रयत्न करेंगे पर यहाँ धक्का खायेंगे तो बाहर ही रह जाएँगे। अन्दर नहीं आयेंगे। गाड़ी की तकलीफ महसूस क्यों नहीं होती? इसलिए कि हममें घर जाने की उमंग है। अपने गाँव जाने का सुदृढ़ संकल्प है। यह उमंग, यह दृढ़ संकल्प गाड़ी की भीड़-भाड़ तकलीफ़ महसूस नहीं होने देती। हम अपने गाँव अवश्य पहुँच जाते हैं। जहाँ परमेष्ठी, वहाँ स्वदेश पंच परमेष्ठी भगवान् स्वदेश पहुँच चुके हैं। हमें भी उन परमेष्ठियों के पास पहुँचना है। हमारा भी स्वदेश वही है उस देश की ओर जाने में कठिनाइयाँ तो आयेंगी ही। इतना ही नहीं, हमें त्याग भी करना होगा और साथ में आत्म विश्वास भी जगाना होगा। मार्ग की बाधाओं से डर कर बीच में ही रुक जाने का मन हो सकता है, पर हमें रुकना नहीं हैं। जब तक मंजिल प्राप्त नहीं होती, हमें चलते रहना है, किसी भी तरह अपनी मंजिल को पाना है। काम क्रोध मद लोभ की, दिल में लगी दुकान । जयन्तसेन हुआ सदा, नष्ट भ्रष्ट ईमान ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहीं रह जाएगा सब परमेष्ठी भगवान अब, जब तक चित्रकार / विचित्रकार तो कहते हैं, परमेष्ठी भगवान् स्वदेश प्राप्त कर स्वदेशी हो एक बार राजा कपिल के सामने दो कलाकार उपस्थित हुए। गये, पर हम अभी तक परदेशी ही हैं। अब, जब तक अपना उनसे एक था चित्रकार, दूसरा विचित्रकार। राजा ने चित्रकार से अपने महल संबन्ध नहीं जुड़ता, तब तक तो परदेश में ही भटकना है। परदेश की एक दीवार पर चित्र बनाने के लिए कहा। उसके ठीक सामने में तो केवल भटकना ही पड़ता है; वहाँ कोई ठौर-ठिकाना थोड़े ही वाली दीवार विचित्रकार को दी गयी और कहा गया कि तुम भी इस होता है। पराये देश में आप अपना निवास स्थान भले ही बना लें दीवार पर अपनी विचित्र कारीगरी दिखाओ। पर आखिर आप हैं तो परदेशी ही। जब कभी वहाँ से भागना पड़ेगा दोनों का काम शुरू हुआ। दोनों कलाकारों के बीच पर्दा था। तो सब कुछ वहीं धरा रह जाएगा. अफ्रीका में क्या हुआ; आप जानते दोनों ने अपना काम शुरू किया। चित्रकार ने सबसे पहले अपनी ही होंगे। सभी विदेशियों को वहाँ से खाली हाथ भागना पड़ा। जो दीवार साफ की और फिर उसे चित्रांकित करना शुरू किया; पर जमा किया था; सब वहीं रह गया। पाकिस्तान निर्मित होते ही वहाँ विचित्रकार बड़ा विचित्र था। वह तो उस दीवार को घिसता रहा। के हिन्दुओं के लिए वह विदेश हो गया। बेचारे हिन्दुओं को वहाँ लगातार घिसे जाने के कारण वह दीवार इतनी चिकनी हो गयी मानो से जान बचाने के लिए सब धन-दौलत वहीं छोड़ कर भारत की दर्पण ही हो। फिर उस विचित्रकार ने उस पर कोई ऐसा रसायन ओर भागना पड़ा। तो यह हाल है स्वदेशियों का परदेश में। लगाया, जिससे वह दीवार बिल्कुल दर्पण का काम देने लगी। दोनों बुरे दोनों का काम पूरा हुआ। राजा उनका काम देखने गया। बेचारे परदेश में रहने वाले आँसू लेकर स्वदेश लौटे, खुशी चित्रकार ने अपनी कला से उस दीवार पर बड़े सुन्दर दृश्य प्रस्तुत लेकर नहीं। आदमी परदेश ले भी क्या जा सकता है अपने साथ! किये थे। चित्रकार की कारीगरी देख कर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ। वे लोग अपनी सम्पत्ति दूसरे देश में क्यों जाने देंगे? परदेश में फिर राजा विचित्रकार के पास गया। दीवार देखकर राजा ने परदेशियों के लिए हम कुछ भी करें, पर अन्त में जब देश छोड़ने उससे पूछा, तेरी दीवार कोरी कैसे रह गयी? तूने अभी तक इस पर का समय आता है, सब निरर्थक हो जाता है; अत: जहाँ तक हो कोई दृश्य प्रस्तुत नहीं किया। सके, हमेशा स्वदेश का ही ध्यान रखना चाहिये, स्वदेश की ही सेवा तब विचित्रकार बोला - 'महाराज! मैंने अपना दिमाग लड़ा कर करनी चाहिये। बड़ी बुद्धिमानी से काम किया है, पर आप देख ही नहीं रहे हैं।' पर हम तो परदेश में हैं और यहाँ से कभी-न-कभी तो स्वदेश राजा बोला- 'क्या बकता है? दीवार पर तो कुछ भी दिखायी जाना ही है; इसलिए हमारा जो धर्म-धन है, उसे पूरी तरह सम्हाल नहीं देता।' लेना है। धर्म-धन अर्जित संपत्ति है। उस पर केवल हमारा ही अधिकार स इस पर विचित्रकार बोला - 'महाराज! इस दीवार पर कुछ है। है, इसलिए उसकी पूरी तरह से रक्षा करनी चाहिये। यह धर्म-धन यह दीवार बिल्कुल सामने वाली दीवार जैसी ही है।' बड़ा कीमती है। यह कहकर उसने दोनों दीवारों के बीच का पर्दा हटा दिया। 'नवकार' क्या सिखाता है? राजा ने आश्चर्य से देखा, सामने वाली पूरी दीवार अपने समस्त दृश्यों तो, स्वदेश लौटते वक्त हमें हमारा कीमती माल सम्हाल लेना समेत विचित्रकार के हिस्से की दीवार में प्रतिबिम्बित हो रही थी। चाहिये। 'आत्मज्ञान और महामन्त्र की आराधना' बड़ा कीमती माल राजा तो बस देखता ही रहा गया। कितनी सुन्दर बन गयी थी वह है। यह साथ में ही चलेगा। छूटेगा नहीं। ऐसी कोई ताक़त नहीं है, जो इसे हमसे छीन सके। यह महामन्त्र नवकार आत्म-धन का दर्शन राजा ने दोनों कलाकारों को उचित पारितोषिक से सम्मानित कर कराने वाला है, जीवन को वैभव-संपन्न बनाने वाला है और आत्मिक बिदा किया। वैभव को प्राप्त करने का मार्ग बताने वाला है। ऐसा यह महामन्त्र तो पंचपरमेष्ठी भगवान् सामने वाली दीवार पर है। हमें उस नवकार जब जीवन में प्राप्त हुआ है, तो इसकी गहराई में जाकर हमें विचित्रकार की तरह अपने मन को परमेष्ठी भगवन्तों के स्मरण द्वारा सोचना चाहिये कि नवकार क्या सिखाता है? इतना घिस लेना है कि वे स्वयं इसमें प्रतिबिम्बित हो उठें; यही हम हमेशा सांसारिक विचारों में उलझे रहते हैं। हमारा चिन्तन सर्वोत्तम कारीगरी होगी। संसार-सम्बन्धी बातों का ही होता है। हम इस महामन्त्र का चिन्तन नहीं करते। यदि हम इस महामन्त्र का जरा-सा भी चिन्तन करें और यदि परमेष्ठी भगवन्त अपने मानस-पटल पर प्रतिबिम्बित नहीं इसके मुख्य द्वार 'नमो' से इसके भीतर प्रवेश करें, तो हमें उसमें हुए हैं, तो समझ लेना कि अभी तक न तो हम चित्रकार बन सके अवश्य ही अपने मन के परिणामों का दर्शन होगा। हम यह जान हैं और न विचित्रकार। हम अपना जीवन यूँ ही खोये जा रहे हैं। जाएँगे कि हमारी अपनी स्थिति कैसी है? यदि हम नवकार मन्त्र को किसी ने बिल्कुल ठीक कहा है - शुद्ध हृदय से जपना शुरू करेंगे, तो अवश्य ही अल्प समय में हमें इस महामन्त्र की शक्ति का अचूक अनुभव हो जाएगा। यह नवकार रात गॅवाई सोय कर, दिवस गँवाया खाय। हमारे हृदय-पटल पर अंकित हो जाएगा। हीरा ज्यों मानव जनम, कौड़ी बदले जाय॥ ही दीवार!! श्रीमदजयंतसेनसार अभिनंदनाथ/वाचना ईर्ष्या आग प्रचंड है, करे सदा बेचैन । जयन्तसेन तजो इसे, पावो सुख अरु चैन Library.org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए अपने जीवन को व्यर्थ ही नष्ट मत करो। महामन्त्र की आराधना करके अपने जीवन को सौभाग्य से भर दो। जीवन का कोई भरोसा नहीं है। यह तो पानी के बुलबुले के समान है, जो फूटते ही नष्ट हो जाता है। कोई भाग्यशाली जीव ही इस महामन्त्र की आराधना कर सकता है। श्वासोच्छ्वास में जिन भजो, वृथा श्वास मत खोय। ना जाने फिर श्वास का, आना होय न होय॥ इस संसार में नवकार मन्त्र को छोड़कर अन्य कुछ भी सारभूत नहीं है। कोई भी मन्त्र आप लीजिये, उसके प्रारम्भ में आपको ओम् ही दिखायी देगा। और यह ओमकार तो संपूर्ण नवकार मन्त्र का संक्षिप्ततम रूप है। तो ओम् के अभाव में किसी भी मन्त्र की गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकती, इसीलिए ओमकार उस मन्त्रगाड़ी के लिए इंजिन स्वरूप है। गाड़ी का सब से महत्त्वपूर्ण भाग इंजिन ही होता है। उसके अभाव में गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं सकती। इंजिन चलेगा तो गाड़ी भी चलने लगेगी। ओम्कार होगा-नवकार होगा तो ही अन्य मन्त्र सफल होंगे। हम इस इंजिन की देख-भाल करें तो हमारी जीवन-गाड़ी भी मंजिल तक चलती रहेगी। ओमकार बना कैसे मैंने पहले ही बता दिया है कि 'ओम्कार' नवकार का सारांश है अर्थात् ओमकार मूल है और पंच परमेष्ठी उसका विस्तार। ओमकार बिन्दु है और पंच परमेष्ठी सिन्धु। यहाँ बिन्दु में सिन्धु समाया हुआ है। अरिहंत, अशरीरी (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय और मुनि (साधु) ये पाँच परमेष्ठी हैं। इन पाँचों के आद्य अक्षर इस प्रकार हैं - अ + अ + आ + उ + म्। इन पाँचों की संधि होने पर ओम् बनता है। - अ + अ + आ = आ; आ + उ = ओ; और ओ + म् = ओम् अर्थात् ओम्। यह ओम् हर मन्त्र का प्रारम्भ है। लोग सोचते हैं कि अन्य मन्त्रों से भी काम सिद्ध हो सकता है। अन्य मन्त्रों से भी काम होगा क्योंकि उनके प्रारम्भ में ओम् है। यदि इस ओम् को हटा दिया जाए तो फिर वह मन्त्र मन्त्र नहीं रहेगा; केवल शब्द-समुच्चय रह जाएगा। तो भाई! इस महामन्त्र ओम् को समझ लेना है और सिद्ध करना है। ओम् प्राप्त हो गया कि सभी मन्त्र प्राप्त हो गये। जनम-जनम का साथी यह नवकार मन्त्र तो जनम-जनम का साथी है. बेसहारों का सहारा है। यह निर्बलों को बल प्रदान करता है, निराशा में आशा की प्रकाश किरण फैलाता है, शरीर को रोग-मुक्त करता है और तो क्या, यह इस जीव को भव-रोग से मुक्त भी करता है ये पंच परमेष्ठी भव-रोग के वैद्य हैं। इनका इलाज रामबाण इलाज है - एकदम अचूक इलाज है; इसलिए नवकार से घड़ी-भर का नहीं जन्म-भर का सम्बध बना लो। मधुकर मौक्तिक हे देव! आप महागोप हैं। राग द्वेषादि की प्रत्येक विपरिणति का आपने संपूर्ण दमन किया है। चतुर्गति में भ्रमण करनेवाले जीवों को आप कुशल गोपालक के समान स्व स्थान की तरफ ले जानेवाले हैं। गोपालक पशुओं को हरेभरे जंगल में ले जाता है और वहाँ भी हिंसक जानवरों से उसकी रक्षा करता है, इसी प्रकार आप भी षटकाय के जीवों को आत्मविकास की हरियाली की ओर ले जाते हैं और कषायादि हिंसक जन्तुओं से उनकी रक्षा करते हैं। हे देव! आप महामाहण भी हैं। इस संसार में सब जीव दु:खी हो रहे हैं। प्रत्येक जीव सुखमय जीवन जीने की इच्छा रखता है। दुःख कोई नहीं चाहता। ऐसी स्थिति में 'मा हण'-'मत मारो' का उद्घोष करनेवाले मात्र आप ही है। आप निराधार के आधार हैं। वीतराग होते हुए भी जीवमात्र को जीने का अधिकार प्रदान करने वाले आप हैं। आप तो बस आप ही हैं। आपसा अन्य कोई नहीं हैं। आप स्वयंभू है। हे देव! महानिर्यामक भी आप ही हैं। जिसका किनारा अदृश्य है और जिसकी गहराई अथाह है, ऐसा है यह भयंकर संसार समुद्र! जीवन जहाज में आसीन होकर हम इस संसार में आगे बढ़ रहे हैं। चारों गतियों के जीव हमारे साथ हैं। कुशल निर्यामक-नाविक ही इस जीवन नैया को पार लगा सकता है। वही हमें उस पार पहुंचा सकता है। आप ही तो हैं, इन चतुति के जीवों के जीवन जहाज को पार लगाने वाले महानिर्यामक, समर्थ और दक्ष नाविक! हे देव! आप सचमुच महासार्थवाह भी हैं। इष्ट स्थान के अभिलाषी असहाय जीवों को साथ दे कर निस्वार्थ भाव से गन्तव्य की तरफ गतिमान होने की प्रेरणा देनेवाले आप ही तो हैं। जिसने आपका आश्रय ले लिया, वह सचमुच अभिष्ट पा गया और उसने उससे अपना साध्य भी सिद्ध कर लिया। - जैनाचार्य श्रीमद् जयन्तसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद जयंतसेनसरि अभिनंदन पंथ/वाचना क्रोध मानसिक रोग का, उदित करे विज्ञान । जयन्तसेन रहे नहीं, मर्यादा का ज्ञान । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद (युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजी महाराज) कर्मवाद की पृष्ठभूमि कुछ प्राणी संवेदन करते हैं, जानते नहीं; कुछ प्राणी जानते हैं, संवेदन नहीं करते। कुछ प्राणी जानते भी हैं और संवेदन भी करते हैं। अचेतन न जानता है और न संवेदन करता है। ये चार विकल्प पहले विकल्प में संवेदन है, ज्ञान नहीं। यह चेतना का निम्नस्तर है। यह वृत्ति का स्तर है। इसके आधार पर जीवन जीया जा सकता है, पर चैतन्य का विकास नहीं किया जा सकता। दूसरा विकल्प शुद्ध ज्ञान का है। इसमें संवेदन नहीं है, कोरा ज्ञान है। संवेदन का माध्यम शरीर है। मुक्त आत्मा के शरीर नहीं होता. जिसके शरीर नहीं होता, वह प्रिय और अप्रिय - दोनों का स्पर्श नहीं करता। तीसरे विकल्प में ज्ञान और संवेदन - दोनों हैं। यह मानसिक और बौद्धिक विकास का स्तर है। इस स्तर में चैतन्य के विकास की पर्याप्त संभावना होती है। जैसे-जैसे हमारा ज्ञान विकसित होता चला जाता है, वैसे-वैसे हम संवेदन के धरातल से उठकर ज्ञान की भूमिका को विकसित करते चले जाते हैं। जैसे-जैसे हमारी ज्ञान की भूमिका विकसित होती है, वैसे-वैसे हम आत्मा के अस्तित्व में प्रवेश पाते हैं। हम अपने अस्तित्व में तब तक प्रवेश नहीं पाते, जब तक संवेदन का धरातल नीचे नहीं रह जाता है। आचार्य अमितगति के शब्दों में - “अज्ञानी संवेदन के धरातल पर जीते हैं। ज्ञानी मनुष्य जानते हैं किन्तु संवेदन नहीं करते। जो घटना घटित होती है, उसे जानते - देखते हैं, किन्तु उसका संवेदन नहीं करते, भार नहीं ढोते। अज्ञानी मनुष्य जानते नहीं, संवेदन करते हैं। वे स्थिति का भार ढोते हैं। वेदान्त का साधना-सूत्र है कि साधक द्रष्टा होकर जीये. वह घटना के प्रति साक्षी रहे, उसे देखे, किन्तु उससे प्रभावित न हो, उसमें लिप्त न हो। ज्ञान होना और संवेदन न होना - यह द्रष्टा का जीवन है। मेरे हाथ में कपड़ा है। मैं इस कपड़े को जानता हूं, देखता हूं। मैं इस कपड़े को कपड़ा मानता हूं। इससे अधिक कुछ नहीं मानता। यह ज्ञान का जीवन है, यह आत्म-दर्शन है। प्रश्न हो सकता है - “यह आत्म-दर्शन कैसे? यह तो वस्त्र-दर्शन है। वस्त्र-दर्शन को हम आत्म-दर्शन कैसे मान सकते हैं? इसका उत्तर बहुत साफ है। मैं वस्त्र को जानता हूं। मैं केवल जानता हूं, उसके साथ कोई संवेदनात्मक सम्बन्ध स्थापित नहीं करता। इसका अर्थ है मैं ज्ञान को जानता हूं और ज्ञान को जानने का अर्थ है, मैं अपने आपको जानता हूं। ज्ञान और संवेदन सर्वथा अभिन्न नहीं और सर्वथा भिन्न भी नहीं हैं। बहत सारे लोग आत्म-दर्शन करना चाहते हैं। आत्म-दर्शन का उपाय बहुत जटिल माना जाता है; मैं आपको बहुत सरल उपाय बता रहा हूं। आप इस वस्त्र को देखें। यह आपका आत्म-दर्शन है। आप वस्त्र को देख रहे हैं, तब केवल वस्त्र को नहीं देख रहे हैं। जिससे वस्त्र को देख रहे हैं, उसे भी देख रहे हैं, अपने ज्ञान को भी देख रहे हैं। जहाँ केवल ज्ञान का प्रयोग होता है वहां अपने अस्तित्व का अनुभव होता है। अपने अस्तित्व का अर्थ है - केवल ज्ञान का अनुभव। ज्ञानमें किसी दूसरी भावना का मिश्रण हुआ कि वह संवेदन बन गया। ज्ञान श्री महाप्रज्ञजी महाराज का धरातल छूट गया। केवल ज्ञान का अनुभव करना, अपने अस्तित्व का अनुभव करना है। अपना अस्तित्व उससे पृथक् नहीं है। मैं ज्ञान का अनुभव कर रहा हूं, इसका अर्थ है कि जहां से ज्ञान की रश्मियां आ रही हैं उस आत्म-सत्ता का अनुभव कर रहा हूं। क्योंकि आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं हैं। केवल ज्ञान का प्रयोग करने का अर्थ है - अपने आपको जानना और अपने आपको अपनाने का अर्थ है - केवल ज्ञान का प्रयोग करना। इस अर्थ में केवल ज्ञान का प्रयोग और आत्म-दर्शन एक ही बात है। ज्ञान की निर्मल धारा में जब राग और द्वेष का कीचड़ मिलता है, अहं और मोह की कलुषता मिलती है, तब वह केवल ज्ञान या शुद्ध ज्ञान की धारा संवेदन की धारा बन जाती है। इस धारा में न शद्ध चैतन्य का अनुभव होता है और न आत्म-दर्शन होता है। ज्ञान और संवेदन-यह कर्मवाद की पृष्ठभूमि है। अविभक्त बंगाल में चौबीस परगना जिला था। उस जिले में एक गांव है - कोल्हू। वहां एक व्यक्ति रहता था। उसका नाम था भूपेश सेन। वह बंगाली गृहस्थ था बहुत बड़ा भक्त । इतना बड़ा भक्त कि जब वह भक्ति में बैठता तब तन्मय हो जाता। बाहरी दुनिया से उसका सम्बन्ध टूट जाता। एक दिन वह भक्ति में बैठा और तन्मय हो गया। बाहर का मान समाप्त हो गया। अन्तर में पूरा जाग्रत, किन्तु बाहर से सुप्त एक व्यक्ति आया और चिल्लाया, “भूपेश! क्या कर रहे हो? उठो और संभलो।" वह बहुत जोर से चिल्लाया, किन्तु भूपेश को कोई पता नहीं चला। उसने भूपेश का हाथ पकड़ झकझोरा, तब भूपेश ने आंखें खोली और कहा, “कहिए, क्या बात है?" आगन्तुक बोला, "मुझे पूछते हो क्या बात है? यहां आंखें मूंदे बैठे हो। तुम्हें पता नहीं, तुम्हारे इकलौते बेटे को सांप काट गया और वह तत्काल ही मर गया।" भूपेश ने कहा “जो होना था सो हुआ।"आगन्तुक बोला, “अरे! तुम कैसे पिता हो? मैंने तो दुःख का संवाद सुनाया और तुम वैसे ही बैठे हो? लगता है कि पुत्र से तुम्हें प्यार नहीं है। तुम्हें शोक क्यों नहीं हुआ? तुम्हें चिन्ता क्यों नहीं श्रीमद् जयंतसेनहरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना ११ ईर्ष्या द्वेष बढ़ा जहाँ, बात -बात में क्लेश । जयन्तसेन मिले नहीं, वहाँ आत्म सुखक्लेश Abrary.org Jain Education Intemational Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई? तुम्हें दुःख क्यों नहीं हुआ? तुम्हारी आंखों से दो आंसू क्यों नहीं छलक पड़े?" भूपेश ने कहा, "जिस दिन बेटा आया था तो मुझे पूछकर नहीं आया था और आज वह लौट गया तो मुझे पूछकर नहीं लौटा। उस दिन मैंने कुछ नहीं किया था, आज भी मुझे कुछ नहीं करना है। यह जन्म और मरण की अनिवार्य श्रृंखला है, जिसमें मेरा हाथ नहीं है। मनुष्य आता है, चला जाता है। तुम्हें इतनी क्या चिन्ता है?' आगन्तुक चुप हो गया उसके पास बोलने के लिए कुछ नहीं बचा। कुछ क्षण रुक कर वह बोला, अब उसकी चिता जलानी है, साथ चलो। भूपेश उसके साथ गया। पुत्र की अर्थी श्मशान में पहुंची चिता में पुत्र को सुलाकर, आग लगाकर कहा, "बेटे, तुम जिस घर से आए थे, उसी घर में जा रहे हो। आज से हमारा सम्बन्ध विछिन्न हो गया।" यह घटना का केवल ज्ञान है। इसके साथ संवेदना का कोई तार जुड़ा हुआ नहीं है। जो घटित हुआ, उसी रूप में स्वीकार किया गया है। मनुष्य जब इस स्थिति में पहुंच जाता है, तब ज्ञान की भूमिका प्रशस्त हो जाती है। भगवान् महावीर की वाणी में इसी का नाम संवर है। जहां केवल ज्ञान रहता है, केवल आत्मा की अनुभूति रहती है, वहां विजातीय तत्त्व का आकर्षण बन्द हो जाता है। कर्म का वर्तुल आत्मा की दो स्थितियां हैं- एक अस्वीकार की और दूसरी स्वीकार की। केवल ज्ञान का अनुभव होना अस्वीकार की स्थिति है। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव की अवस्था में विजातीय तत्त्व का कोई प्रवेश, संक्रमण या प्रभाव नहीं होता। संवेदन स्वीकार की स्थिति है। संवेदन के द्वारा हमारा बाह्य जगत के साथ सम्पर्क होता है। हम बाहर से कुछ लेते हैं और उसे अपने साथ जोड़ते हैं। जोड़ने की भावधारा का नाम “आश्रव" और विजातीय तत्त्व के जुड़ने का नाम "बंध" है। आत्मा के साथ जुड़ा हुआ विजातीय तत्त्व परिपक्व होकर अपना प्रभाव डालता है, तब उसका नाम “कर्म” हो जाता है। वह अपना प्रभाव दिखाकर विसर्जित हो जाता है। कोई भी विजातीय तत्त्व आत्मा के साथ निरन्तर चिपका नहीं रह सकता। या तो वह अवधि का परिपाक होने पर अपना प्रभाव दिखलाकर स्वयं चला जाता है या प्रयत्न के द्वारा उसे विलग कर दिया जाता है। यह विलग करने का प्रयत्न " निर्जरा" है। तपस्या से कर्म निर्जीर्ण होते हैं, इसलिए उसका (तपस्या का) नाम निर्जरा है। निर्जरा का चरमबिन्दु मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है - केवल आत्मा । आत्मा व पुद्गल का योग है, वह बन्धन है, संसार है केवल आत्मा के अस्तित्व का होना, पुद्गल का योग न होना ही मोक्ष है। इसकी अनुभूति धर्म के हर क्षण में की जा सकती है। आश्रव और संवर, बंध और निर्जरा इन चारों तत्त्वों के समझने पर ही कर्म की वास्तविकता को समझा जा सकता है। केवल चैतन्य का अनुभव होना संवर है। चैतन्य के साथ राग-द्वेष का मिश्रण होना आश्रव है। उसके द्वारा कर्म परमाणु आकर्षित होते हैं। वे चैतन्य को आवृत्त करते हैं ज्ञान और दर्शन की क्षमता पर आवरण डालते हैं। वे आत्मा के सहज आनन्द को विकृत कर, उसके दृष्टिकोण और श्रीमद जयंतसेनरि अभिनंदनाचा Her वे आत्मा की शक्ति को स्खलित निर्माण और पौद्गलिक उपलब्धि के हेतु बनते हैं इस प्रकार आश्रव बंध का निर्माण करता है और बंध पुण्य कर्म और पाप कर्म के द्वारा आत्मा को प्रभावित करता है। जब तक आत्मा केवल ज्ञान के अनुभव की अवस्था को प्राप्त नहीं होता तब तक वह वर्तुल चलता ही रहता है। जीव में भी अनन्त शक्ति है और पुद्गल में भी अनन्त शक्ति है। जीव में दो प्रकार की शक्तियाँ होती हैं - चरित्र में विकार उत्पन्न करते हैं। करते हैं। कुछ कर्म-परमाणु शरीर (१) लब्धिवीर्य (२) करणवीर्य योग्यतारूप शक्ति | क्रियात्मक शक्ति । गौतम ने भगवान महावीर से पूछा, "भंते जीव क्या मोहनीय कर्म का बंध करता है? " भगवान “करता है।" "भंते! कैसे?" " प्रमाद से।" "भंते! प्रमाद किससे होता है?" “योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) से।" "भंते योग किससे होता है?" "वीर्य (प्राण) से।" "भंते! वीर्य किससे होता है?" "शरीर से।" "भंते! शरीर किससे होता है?" “कर्म शरीर से।" "भंते! कर्म "जीव से।" शरीर किससे होता है?" आप उल्टे चलिए। जीव से शरीर, शरीर से क्रियात्मक शक्ति, क्रियात्मक शक्ति से योग, योग से प्रमाद और प्रमाद से कर्म-बंध यह वर्तुल है। कर्म का कर्ता आत्मा है या कर्म? इस प्रश्न पर दो अभिमत हैं सूत्रकार की भाषा में कर्म का कर्ता आत्मा है। आचार्य कुन्दकुन्द । की भाषा में कर्म का कर्ता कर्म है। ये दोनों सापेक्ष दृष्टिकोण है। इनमें तात्पर्य-भेद नहीं है। मूल आत्मा (चिन्मय अस्तित्व) और आत्मपर्याय (मूल आत्मा के निमित्त से निष्पन्न विभिन्न अवस्थाएं ) ये दो वस्तुएं हैं। इनमें हम अभेद और भेद दोनों दृष्टियों से देखते हैं। जब हम अभेद की दृष्टि से देखते हैं, तब कहा जाता है आत्मा कर्म का कर्ता है और जब भेद की दृष्टि से देखते हैं, तब कहते हैं - कर्म कर्म का कर्ता है। कर्म का कर्ता काय आत्मा है वह मूल आत्मा का एक पर्याय है। यदि मूल आत्मा कर्म का कर्ता हो तो वह कभी भी कर्म का अकर्ता नहीं हो सकता। उसका स्वभाव चैतन्य है, इसलिए वह चैतन्य का ही कर्ता हो सकता है। कर्म पौद्गलिक अचेतन है। वह उसका कर्ता नहीं हो सकता। मूल आत्मा के आयतन में कषाय- आत्मा (राग और द्वेष) का वलय है। उससे कर्म - पुद्गलों का आकर्षण होता है। वे कवाय को पुष्ट करते हैं। इस प्रकार कवाय से कर्म और कर्म से कषाय चलता रहता है। मिथ्या दृष्टिकोण, १२ भेदभाव को छोड़कर, संप सूत्र दिल धार । जयन्तसेन रहो सदा, हिल मिल कर संसार ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकांक्षा और आत्मविस्मृति ये तीनों आत्म-पर्याय भी कर्म के कर्ता हैं किन्तु वास्तव में ये सब कषाय के उपजीवी हैं मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति भी कर्म की कर्ता है किन्तु उसमें कर्म-पुद्गलों को बांधकर रखने की क्षमता नहीं है। कषाय के क्षीण हो जाने पर केवल प्रवृत्ति के द्वारा जो कर्म-पुद्गल का प्रवाह आता है, वह पहले क्षण में कर्म शरीर से जुड़ता है, दूसरे क्षण में मुक्त होकर तीसरे क्षण में निर्जीर्ण हो जाता है ठीक इसी तरह जैसे सूखी रेत भीत पर डाली गई, भींत का स्पर्श किया और नीचे गिर गई। कर्म की तीन अवस्थाएं होती हैं स्पृष्ट, बद्ध और बद्ध-स्पृष्ट कषाय का वलय टूट जाता है तब कोरी प्रवृत्ति से कर्म आत्मा से स्पृष्ट होते हैं। कर्म का दीर्घकालीन या प्रगाढ़ बंध कषाय के होने पर ही होता है। हमारी बहुत सारी अनुभूतियां कषाय-चेतना की अनुभूतियां हैं। आवेश, अहंकार, प्रवंचना, लालसा ये सब कषाय की उर्मियां हैं। भव, शोक, घृणा, वासना ये सब कषाय की उपजीवी उर्मियां हैं। इन उर्मियों की अनुभूति के क्षण क्षुब्ध और उत्तेजनापूर्ण होते हैं। जिस क्षण हम केवल चेतना की अनुभूति करते हैं, वह शांत-कषाय का क्षण होता है। जिन क्षणों में हम संवेदन करते हैं, उनमें प्रत्यक्षतः या परोक्षत: चेतना कषाय मिश्रित होती है। सन्त रविया के घर एक फकीर आया। उसने मेज के पास पड़ी पुस्तक को देखा। उसके पत्रे उलटने शुरू किए। एक पत्रे में लिखा था "शैतान से नफरत करो" रविया ने उसे काट दिया। फकीर बोला, "यह क्या?” सन्त रबिया ने कहा, "यह मैंने काटा। " फकीर ने पूछा, 'क्यों?' रबिया ने कहा, “अच्छा नहीं लगा।" "यह कैसे हो सकता है कि पवित्र पुस्तक की बात अच्छी न लगे? क्या यह सही नहीं है?" फकीर ने पूछा। सन्त रबिया ने कहा, “एक दिन मुझे भी सही लगता था, किन्तु आज लगता है कि सही नहीं है। " "वह कैसे?" फकीर ने पूछा सन्त रबिया ने कहा, जब तक मेरा प्रेम जाग्रत नहीं था, मेरी प्रेम की आंख खुली नहीं थी, मुझे भी लगता था कि शैतान से नफरत करो, प्यार नहीं यह वाक्य बहुत सही है। किन्तु अब मैं क्या करूँ? मेरी प्रेम की आंख खुल गई है। अब घृणा करने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं बचा है। मैं घृणा कर नहीं सकता। प्रेम की आंख यह भेद करना नहीं जानती कि इसके साथ प्रेम करो और इसके साथ घृणा।” हम जब कषाय-चेतना में होते हैं तब किसी को प्रिय मानते हैं और किसी को अप्रिय । किसी को अनुकूल मानते हैं और किसी को प्रतिकूल । हमारी कषाय-चेतना शान्त होती है, तब ये सब विकल्प समाप्त हो जाते हैं। फिर कोरा ज्ञान ही हमारे सामने शेष रहता है। उसमें न कोई प्रिय होता है और न कोई अप्रिय । न कोई इष्ट होता है और न कोई अनिष्ट। न कोई अनुकूल होता है और न कोई प्रतिकूल इस स्थिति में कर्म का बंध नहीं होता। कषाय चेतना पर पहला प्रहार तब होता है, जब भेद-ज्ञान का विवेक जाग्रत होता है। आत्मा मित्र है और शरीर भिन्न है यह विवेक जब अपने वलय - श्रीमद अभिनंदनाचा - का निर्माण करता है तब कर्म शरीर से लेकर कषाय तक के सारे वलय टूटने लग जाते हैं आचार्य अमृतचन्द्र ने बहुत ही सत्य कहा है " भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा थे किल केचन । तस्यैवाभावतो बद्धाः, बद्धा ये किल केचन ॥ - इस संसार में वे ही लोग कर्म से बद्ध हैं, जिनमें भेद-विज्ञान का अभाव है। आत्मा की उपलब्धि उन्हीं व्यक्तियों को हुई है, जिनका भेद विज्ञान सिद्ध हो गया, अचेतन से चेतन की सत्ता अनुभव में आ गई। ऐसा करते ही कर्म का मूल हिल उठता है। जिसने अचेतन और चेतन का भेद समझ लिया उसने कर्म और कषाय को आत्मा से भिन्न समझ लिया। समझ कर्म के मूल स्रोत पर प्रहार करती है। जिस कषाय से कर्म आ रहे हैं, उसके मूल पर कुठाराघात करती है। कर्म-बंधन को तोड़ने का मूल हेतु भेद का विज्ञान है, तो कर्म-बंध का मूल हेतु भेद का अविज्ञान है। आचार्य अमृतचन्द्र की भाषा को उलटकर कहा जा सकता है। - भेदाविज्ञानतो बद्धाः, बड़ा ये किल केचन । तस्यैवाभावतः सिद्धाः, सिद्धा ये किल केचन ॥ इस संसार में वे ही लोग कर्म से बद्ध हैं जिनमें भेद-विज्ञान का अभाव है। आत्मा की उपलब्धि उन्हीं व्यक्तियों को हुई है जिनका भेद - विज्ञान सिद्ध हो गया, अचेतन से चेतन की सत्ता अनुभव में आ गई। मूल आत्मा और उसके परिपार्श्व में होने वाले वलयों का भेद ज्ञान जैसे-जैसे स्पष्ट होता चला जाता है, वैसे-वैसे कर्मबंधन शिथिल होता चला जाता है जिन्हें भेद-ज्ञान नहीं होता, मूल चेतना और चेतना के वलयों की एकता की अनुभूति होती है, उनका बंधन तीव्र होता चला जाता है। कर्म पुद्गल है और अचेतन है अचेतन चेतन के साथ एक रस नहीं हो सकता। हमारी कषाय- आत्मा ही कर्म-शरीर के माध्यम से उसे एक रस करती है। मुक्त आत्मा के साथ-साथ पुद्गल एक रस नहीं होता, क्योंकि उसमें केवल शुद्ध चैतन्य की अनुभूति होती है। शुद्ध चैतन्य की अनुभूति का क्षण कर्म शरीर की विद्यमानता में "संवर" कर्म-पुद्गलों के सम्बन्ध को रोकने वाला और उसके (कर्म शरीर के अभाव में आत्मा का स्वरूप होता है। कषाय मिश्रित चैतन्य की अनुभूति का क्षण आश्रव है। वह कर्म- पुद्गलों को आकर्षित करता है। यहां जातीय सूत्र कार्य करता है सजातीय सजातीय को खींचता है। कषाय-चेतना की परिणतियां पुद्गल - मिश्रित हैं। पद्गल पुद्गल को टानता है। यह तथ्य हमारी समझ में आ जाए तो हमारी आत्म-साधना की भूमिका बहुत सशक्त हो जाती है। हम अधिक से अधिक शुद्ध चैतन्य के क्षणों में रहने का अभ्यास करें जहां कोरा ज्ञान हो संवेदन न हो। यह साधना की सर्वोच्च भूमिका है। इसीलिए जैन आचार्यों ने ध्यान के लिए "शुद्ध उपयोग" शब्द का प्रयोग किया है। “शुद्ध उपयोग" अर्थात् केवल चैतन्य की अनुभूति साधना के अभाव में कर्म का प्रगाढ़ बंध होता है और साधना के द्वारा उसकी ग्रन्थि का भेदन होता है। इस दृष्टि १३ पर के छिद्र न देख तू, अपनी कमियां देख । जयन्तसेन विमल सदा, लगे लेख पर मेख ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से कहा जा सकता है कि साधना के रहस्य को समझे बिना कर्म के रहस्य को नहीं समझा जा सकता और कर्म के रहस्यको समझे बिना साधना के रहस्य को नहीं समझा जा सकता। हम कर्म-पुद्गल की जिन धाराओं को ग्रहण करते हैं, उन्हें अपनी क्रियात्मक शक्ति के द्वारा ही ग्रहण करते हैं उस समय हमारी चेतना की परिणति भी उसके अनुकूल होती है। आन्तरिक और बाह्य परिणतियों में सामंजस्य हुए बिना दोनों में सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता। जैन दर्शन ने कर्मवाद की मीमांसा की है, उनका मनोवैज्ञानिक अध्ययन अभी नहीं हुआ है। यदि वह हो तो मनोविज्ञान और योग के नये उन्मेष हमारे सामने आ सकते हैं तथा जैन साधना पद्धति का नया रूप भी प्रस्तुत हो सकता है। हम जैसी भावना करते हैं, वैसी ही हमारी परणति होती है। जैसी परणति होती है, वैसे ही पुद्गलों को हम ग्रहण करते है। उन पुद्गलों का अपने आप में परिपाक होता है। परिणाम के बाद उसकी जो परणति होती है, वह हमारी आन्तरिक परणति हो जाती है। यह एक श्रृंखला है। एक व्यक्ति ने ज्ञान के प्रति अवहेलना का भाव प्रदर्शित किया, ज्ञान की निन्दा की, ज्ञानी की निन्दा की, उस समय उसकी परिणति ज्ञान-विमुख हो गई उस परिणति काल में वह कर्म- पुद्गलों को ग्रहण करता है। वे कर्म पुद्गल आत्मा की सारी शक्तियों को प्रभावित करते हैं। किन्तु ज्ञान-विरोधी परिणति में गृहीत पुद्गल मुख्यतया ज्ञान को आवृत्त करेंगे। उनका परिपाक ज्ञानावरण के रूप में होगा। इस प्रकार हम सारे कर्मों की मीमांसा करते चलें। (पृष्ठ ३८ का शेष) ५. काय क्लेश : शास्त्रानुसार केश लोच करना, शरीर का ममत्व छोड़ना शरीर सेवा त्याग, आतापना लेना, धर्मध्यान, शुक्ल ध्यान ध्याना। यह तप निर्वेदका कारण है। ६. :संलीनता - कषाय भावों को रोकना, वर्जित स्थानों में नहीं रहना, इंद्रियों को दमन करना उनके विषयों को जीतना संलीनतातप कहलाता है। ७. ८. प्रायश्चित:- मानव मात्र भूल का पात्र है की हुई मूल का अवांछनीय कर्म का समर्थ गीतार्थ गुरु के सामने पाप को प्रकट कर उचित दण्ड लेना व मन में पुनः ऐसी भूल न हो ऐसी कोशिश करना प्रायश्चित्त तप कहलाता है। विनय तप अपने से बड़े पूज्य आचार्य भगवंत, साधु साध्वी ज्ञानवान तपवान को उचित आदर सन्मान देना विनय तप है, विनय ही धर्म का मूल है। ९. वैयावच्च तप :- गुरु, अपने से बड़े, साधु महाराज, बाल, म्लान रोगी साधु, साधर्मिक, कुल, गण संघ आदि की सेवा श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना जिसकी चेतना की परिणति यदि उगने की होती है तो उस समय ग्रहण किए जाने वाले कर्म-पुद्गल अनुभव दशा में उसके चरित्र को विकृत बनाते हैं। उसकी परिणति यदि दूसरे को कष्ट देने की होती है तो उस समय ग्रहण किए जाने वाले कर्म-पुद्गल अनुभव दशा में उसके सुख में बाधा डालते हैं यह परिणति का सिद्धान्त है। हम किस रूप में परिणत होते हैं, किस प्रकार की क्रियात्मक शक्ति के द्वारा पुद्गल धारा को स्वीकार करते हैं, इसका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। इसके आधार पर ही वह जीवन की सफलता का निर्धारण कर सकता है, जीवन-संघर्ष में आनेवाली बाधाओं को पार कर सकता है। जिस व्यक्ति को यह लगे कि मुझे ज्ञानावरण अधिक सता रहा है, उसको ज्ञानावरण को क्षीण करने की साधना का मार्ग चुनना चाहिए किसी को मोह अधिक सताता है, किसी की क्षमताओं का अवरोध पैदा होता है ये भिन्न-भिन्न समस्याएं हैं। साधना के द्वारा इनका समाधान पाया जा सकता है। क्रोध पर विजय प्राप्त करनी हो तो एक प्रकार की साधना करनी होगी और यदि मान पर चोट करनी हो तो दूसरे प्रकार की साधना करनी होगी। जिस समस्या से जूझना है, उसी के मूल पर प्रहार करने वाली साधना चुननी होगी। यह बहुत सूक्ष्म पद्धति है। रहस्य हमारी समझ में आ जाए तो जीवन की समस्याओं को सुलझाने में हम बहुत सफल हो सकते हैं। भक्ति करना वैयावच्च तप है। यह तप दस प्रकार के योग्य पात्र की सेवा करना है। १०. स्वाध्याय :- नित्यप्रति धार्मिक शास्त्रों का वाचन, सुनना पढ़ाना, शंका समाधान करना, सूत्र व अर्थ का चिंतन करना, अनुशीलन करना और शास्त्रोपदेश देना यह पांच प्रकार का स्वाध्याय तप है। ११. ध्यान तप :- आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान का त्याग करना आत्मा को धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान का विचार करना, शुध्यान करना ध्यान तप है। १२. कायोत्सर्ग तप: शरीर की ममता छोड़ अनशन करना, दीक्षा लेना कर्म बंध के हेतुओं को छोड़ना 'कायोत्सर्ग तप है। ऐसे केवली प्ररूपित तप धर्म को जो कोई प्राणी अपनाता दूसरे को तप करने को उत्साहित करता है व तप करने वाले की अनुमोदना करता है वह कर्मों की निर्जराकर भविष्य में पुण्यानुबन्धीपुण्य का भी भागीदार होता है। अतः त्रिकरण त्रियोग से तप कराना व अनुमोदनकर जीवन का श्रेय प्राप्त करना चाहिये। १४ खुद कुछ कर सकते नहीं, करे उसी पर द्वेष । जयन्तसेन दुर्गुण यह, देत सदा हि क्लेश ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में विचार शुद्धि व आचार शुद्धि का बड़ा महत्व है, विचार शुद्धि के लिये आहार शुद्धि अत्यावश्यक है। जिससे तन-मन का आरोग्य सुरक्षित रहता है, आत्म साधना सुन्दर बनती है। फलतः अणाहारी पद की प्राप्ति सुलभ बनती है। सर्वज्ञ भगवान ने २२ प्रकार के अभक्ष्यों के निषेध का आदेश दिया है। वस्तुतः वह युक्तियुक्त है। जिन दोषों के कारण इन पदार्थों को अभक्ष्य कहा गया है वे निम्नानुसार हैं: १. कन्दमूलादि बहुत से पदार्थों में अनंत जीवों का नाश होता है। मांस मदिरा आदि पदार्थों में द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के असंख्य त्रस जीवोंका नाश होता है। इस प्रकार यह भोजन महा हिंसा वाला होता है, इसलिए ज्ञानी पुरुषों ने इसे अभक्ष्य माना है। २. ३. ४. ५. ६. विचार शुद्धि की नींव आहार शुद्धि (आचार्य श्रीराजेन्द्रसूरिजी महाराज) (जैनाचार्य श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य) ७. ८. ९. अभक्ष्य पदार्थों के खानपानसे आत्माका स्वभाव कठोर और निष्ठुर बन जाता है। आत्मा के हितपर आघात होता है। आत्मा तामसी बनती है। हिंसक वृत्ति भड़कती है। अनंत जीवोको पीड़ा देने से अशाता वेदनीयादि अशुभ कर्मों का बंध होता है। धर्म विरुद्ध भोजन है। जीवन स्थिरता हेतु अनावश्यक है। शरीर, मन, आत्मा के स्वास्थ्य की हानि करता है। १०. जीवन में जड़ता लाता है। धर्म में रुचि उत्पन्न नहीं करता है। ११. दुर्गति की आयु के बंधका निमित्त है। १२. आत्मा के अध्यवसायको दूषित करता है। १३. काम व क्रोध की वृद्धि करता है। १४. रसवृद्धि के कारण भयंकर रोगों को उत्पन्न करता है। १५. अकाल असमाधिमय मृत्यु होती है। १६. अनंत ज्ञानी के वचनपर विश्वास समाप्त हो जाता है। इन समस्त हेतुओं को दृष्टिमें रखते हुए अभक्ष्यता को भली भाँति समझकर अभक्ष्य पदार्थों का त्याग करना उचित है। अभक्ष्य अनंतकाय आहार का सम्बन्ध जितना शरीर के साथ है ठीक उतना ही मन एवम् जीवन के साथ भी है जैसा अन्न वैसा मन और जैसा मन-वैसा ही जीवन साथ ही जैसा जीवन वैसा ही मरण (मृत्यु)। आहारशुध्दि से विचारशुद्धि और विचारशुद्धि से व्यवहारशुद्धि आती है दूषित अभक्ष्य आहार ग्रहण करने से मन और विचार दूषित होते श्रीमद जसे अभिनंदन हैं, साथ ही समय की मर्यादा टूट जाती है, खण्ड-खण्ड हो जाती है शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। मन विकारों का गुलाम और तामसी बन जाता है। अतः सात्विक गुणमय जीवन व्यतीत करनेके लिए एवम् अनेकाविध दोषों से बच जाने हेतु भक्ष्य-अभक्ष्य आहार के गुण-दोषों का परिशीलन करना अवश्यक है। अभक्ष्य आहार के दोष कंदमूलादि में अनंत जीवों का नाश होता है मक्खन, मदिरा, मांस, शहद और चलित रस आदि में अगणित त्रस जंतुओं का नाश होता है। फलतः उनके भक्षण से मनुष्य अत्यंत क्रूर-कठोर और घातकी होता है। मन विकारग्रस्त और तामसी बनता है। शरीर रोग का केन्द्र स्थान बन जाता है। क्रोध, काम, उन्माद की अग्नि अनायास ही भड़क उठती है। आशाता वेदनीय कर्मों का बंधन होता है। नरकगति, तिर्यंच गति, दुर्गतिमय आयुष्य का बंधन होता है, मन कलुषित बन जाता है और जीवन अनाचार का धाम। साथ ही अभक्ष्य आहार के कारण उपार्जित पाप जीव को असंख्य अनंत भवयोनि में भटकाते रहते हैं। शुद्ध- सात्विक भक्ष्य आहार इसके भक्षण से जीव अनंत जीव एवम् त्रस जंतुओं के नाश से बाल-बाल बच जाता है शरीर निरोगी सुन्दर और स्वस्थ बनता है मन निर्मल, प्रसन्न, सात्विक बनता है। फलस्वरूप जीव कोमल एवम् दयालु बनता है। सद्विचार और सदाचार का विकास होता है। सद्गति सुलभ हो जाती है। त्याग तपादि संस्कारों का बीजारोपण होता है। जीवन-मरण समाधिमय बन जाता है। उत्तरोत्तर मनशुद्धि के कारण जीवनशुद्धि और उसके कारण शुभध्यान के बलपर परमशुद्धिरूप... मोक्ष... अणाहारी पद सुलभ बन जाता है। परिणामतः पुनः पुनः अधःपतन से आत्मा की सुरक्षा, बचाव के लिए बावीस अभक्ष्यों का परित्याग करना परमावश्यक अभक्ष्य के बावीस प्रकार १ से ५ पंचुवरि (पाँच प्रकार के फल) ६ से ९ चठविगई १० हिम (बर्फ) ११ विष १२ करगेअ (ओला) १३ १४ १५ १६ १७ १८ सव्वमट्टीअ (मिट्टी) राइ भोअणगं चिय (रात्रि भोजन) बहुबीअ (बहुबीज) अनंत (अनंतकाय जमीकंद) संघाणा (अचारादि) घोलवड़ा (द्विदल) १५ राग द्वेष हो चित्त में, उपजे निशदिन पाप । जयन्तसेन अनुचित यह देता नित सत्तापallelibrary.org Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ वायंगण (बैगन) वनस्पतिजन्य भी नहीं होता। वह मुर्गी के गर्भ में रक्त व वीर्यरससे २० अमुणिअ नामईं पुप्फ फलाई (अनजाने फल-पुष्प) बढ़ता है। अत: वह शाकाहार नहीं है। मांस भक्षण में अत्यन्त जीव २१ तुच्छ फलं हिंसा जानकर उसका त्याग करना हितावह है। २२ चलिअरसं (चलितरस) वज्जे बावीसं॥ (मक्खन) - मक्खनको मही (छाछ) मेंसे बाहर निकालने के बाद (१ से ५) उदुंबर-गूलर आदि फल - (१) वटवृक्ष (२) पीपल (३) उसमें उसी रंगके त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। मक्खन खानेसे जीव पिलंखण (४) काला उदुंबर और (५) गूलर। इन पाँचों के फल विकार वासनासे उत्तेजित होता है। चारित्र्यकी हानि होती है। बासी अभक्ष्य हैं। इनमें अनगिनत बीज होते हैं। असंख्य सूक्ष्म त्रस जीव मक्खन में हर पल रसज जीवोंकी उत्पत्ति होती रहती है। इसे खानेसे भी होते हैं। इन्हें खानेसे न तृप्ति मिलती है न शक्ति और यदि इन अनेक बीमारियाँ भी हो जाती हैं। अत: मक्खन खानेका त्याग करना फलोंमें के सूक्ष्म जीव मस्तिष्क में प्रवेश कर जाएं तो मृत्यु भी हो ही श्रेयस्कर है। सकती है। जीव तंतुओके कारण रोगोत्पत्ति की तो शतप्रतिशत आशंका इसतरह शहद, मदिरा, मांस और मक्खन ये चारों विकार भावों होती है। अत: इन पाँचोंका त्याग करना चाहिए। के वर्धक और आत्मगुणों के घातक हैं। अतः इन का हमेशा के लिए (६) शहद - कुंता, मक्खियाँ, भवरे आदिकी लार एवं वमनसे शहद त्याग करना चाहिए। तैयार होता है। मधुमक्खी फूलसे रस चूसकर उसका छत्ते में वमन (१०) बर्फ (हिम) - छाने अनछाने पानीको जमाकर या फ्रीज में करती है। छत्तेके नीचे धुंआ करके वहाँ से मधुमक्खियोंको उड़ाया रखकर बर्फ बनाया जाता है। जिसके कणकणमें असंख्य जीव हैं। जाता है। तत्पश्चात् उस छत्तेको निचोड़कर शहद निकाला जाता है। बर्फ जीवन निर्वाह के लिए भी आवश्यक नहीं है। अत: बर्फ से निचोड़नेकी इस क्रिया में कई अशक्त मधुमक्खियाँ एवं उनके अंडे बननेवाले शर्बत, आइसक्रीम, आइसफुट आदि सभी पदार्थ अभक्ष्य नष्ट हो जाते हैं और सभीकी अशुचि शहद में मिल जाती है तथा हैं। इनके भक्षण से मंदाग्नि, अजीर्ण आदि रोगों की उत्पत्ति होती उसमें अनेक प्रकार के रसज जीवों की भी उत्पत्ति होती है। इस तरह है। बर्फ आरोग्य का दुश्मन है। फ्रीज का पेय पदार्थ भी हानिकारक शहद अनेक जीव के हिंसाका कारण होनेसे खाने में इसका त्याग करना होता है। अतः इनका त्याग भी उपयोगी होता है। ही श्रेयस्कर है। दवाई के प्रयोग में घी, दूध, शक्कर, मुरब्बा आदि (११) जहर (विष) - जहर खनिज, प्राणिज, वनस्पतिज और मिश्र से काम चल सकता है, अतः शहद का उपयोग दवा लेने तक में ऐसे चार प्रकार का होता है। संखिया, बच्छनाग, तालपुर, अफीम, न करना हितावह है। हरताल धतूरा आदि सभी विषयुक्त रसायन हैं, जिन्हें खानेसे मनुष्य (७) शराम (मदिरा)- मदिरा शराब, सुरा, द्राक्षासव, ब्रांडी, भांग, की तत्काल मृत्यु भी हो सकती है। ये अन्य जीवोंका भी नाश करते वाईन आदिके नामसे पहचानी जाती है। शराब बनाने के लिए गुड़, हैं। श्रम, दाह, कंठशोध इत्यादि रोगों को उत्पन्न करते हैं। बीड़ी, अंगूर, महुआ आदिको सड़ाया जाता है, उबाला जाता है। इसतरह तम्बाकू, गांजा, चरस, सिगरेट आदि में जो विष है वह मनुष्य के उसमें उत्पन्न अनगिनत त्रस जीवों की हिंसा होती है तथा शराब तैयार शरीर में प्रवेश करके अल्सर, केन्सर, टी.बी. आदि रोगोंको उत्पन्न होनेके बाद भी उसमें अनेक त्रस जीव उत्पन्न होते हैं और उसीमें करता है। विष स्व और पर का घातक है। अत: त्याज्य है। मरते हैं। शराब पीने के बाद मनुष्य अपनी सुध-बुध भी खो बैठता (१२) ओला - ओले में कोमल और कच्चा जमा हुआ पानी है, है। धनकी हानि होती है और काम, क्रोध की वृद्धि होती है। पागलपन जो वर्षाऋतु में गिरता है। उसके खानेका कोई प्रयोजन नहीं है। बर्फ प्रगट होता है। आरोग्य का विनाश होता है। अविचार, अनाचार, में जितने दोष होते हैं, उतनेही इसमें भी होते हैं, ऐसा जानकर इसका व्यभिचार का प्रादुर्भाव होता है। आयुष्यको धक्का लगता है। विवेक, त्याग करना चाहिए। संयम, ज्ञानादि गुणोंका नाश होता है। फलतः जीवन बरबाद होता (१३) मिट्टी - मिट्टी के कणकणमें असंख्य पृथ्वीकाय के जीव होते है। अत: इसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। हैं। इसके भक्षणसे पथरी, पांडुरोग, सेप्टिक, पेचिश जैसी भयंकर (८) मांस - यह पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसासे प्राप्त होता है। मांसमें बीमारियाँ होती हैं। किसी मिट्टी में मेंढक उत्पन्न करने की शक्यता अनंतकाय के जीव, त्रस जीव एवं समुर्छिम जीवों की उत्पत्ति होती होती है। अत: उससे पेट में मेंढक उत्पन्न हो जाएँ तो मरणान्त वेदना है। इसके भक्षण से मनुष्य की प्रवृत्ति तामसी बनती है और वह क्रूर सहन करनी पड़ती है। एवं आततायी बनता है। केन्सर आदि भयंकर रोग भी होने की (१४) रात्रि-भोजन - यह नरकका प्रथम द्वार है। रातको अनेक संभावना रहती है। कोमलता एवं करुणा का नाश होता है। पंचेन्द्रिय सूक्ष्म जंतु उत्पन्न होते हैं तथा अनेक जीव अपनी खूराक लेने के जीवों के वधसे नरक गतिका आयुष्य बंधता है, जिससे नरकमें असंख्य लिए भी उड़ते हैं। रात्रि भोजन के समय उन जीवों की हिंसा होती वर्षोंतक अपार वेदना भोगनी पड़ती है। अनेक धर्मशास्त्र दया और है। विशेष यह है कि यदि रात्रि भोजन करते समय खाने में आ जाएँ अहिंसा धर्मका विधान करते हैं, उनका उल्लंघन होता है। तो जूं से जलोदर, मर्खी से उल्टी, चींटीसे मति मंदता, मकड़ीसे मांस खानेके त्यागकी तरह अंडे खानेकाभी त्याग करना चाहिए, कुष्ठ रोग, बिच्छुके काटेसे तालुवेध, छिपकली की लारसे गंभीर क्योंकि अंडे में पंचेन्द्रिय जीवों का गर्भ रस-रूप में रहता है, अत: बीमारी, मच्छर से बुखार, सर्पक जहरसे मृत्यु बालसे स्वरभंग आदि उसके खाने में भी मांस जितना दोष लगाता है। अंडे में कोलेस्टेरोल बीमारियाँ होती हैं तथा मरण तक आ सकता है। रात्रि-भोजन के से हृदयकी बीमारी होती है, किडनी के रोग होते हैं, कफ बढ़ता है समय नरक व तिर्यंच गतिका आयुष्य बंधता है। आरोग्य की हानि तथा टी.बी., संग्रहणी आदि रोगों का शिकार बनकर जीवन भर होती है। अजीर्ण होता है। काम वासना जागृत होती है। प्रमाद बढ़ता भुगतना पड़ता है। यह तर्कसिद्ध है कि अंडा निर्जीव नहीं होता तथा है। इसतरह इहलोक परलोक के अनेक दोषोंको ध्यान में रखकर श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना लोभ मोह अरु राग ही, उत्पादक हैं द्वेष । जयन्तसेन अनुचित यह, करना त्याग हमेश ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनभर के लिए रात्रि-भोजन का त्याग लाभदायी है। त्याग रखना योग्य है। (१५) बहुबीज - जिन सब्जियों और फलोंमें दो बीजोके बीच अंतर (१९) बैंगन - बैंगन में असंख्य छोटे छोटे बीज होते हैं। उसके टोप न हो, वे एक दूसरेसे सटे हुए हों, गूदा थोड़ा और बीज बहुत हों, से डंठल में सूक्ष्म त्रस जीवभी होते हैं। बैंगन खानेसे तामसभाव खानेयोग्य थोड़ा और फेंकनेयोग्य अधिक हो, जैसे कवठका फल, जास्त होता है। वासना-उन्माद बढ़ता है। मन ढीठ बनता है। निद्रा खसखस टिंबरू, पंपोटा आदि। इनको खानेसे पित्त-प्रकोप होता है व प्रमाद भी बढ़ते हैं, बुखार व क्षयरोग होने की भी संभावना रहती और आरोग्य की हानि होती है। है। ईश्वर स्मरण में बाधक बनता है। पुराणों में भी इसके भक्षण का (१६) अनंतकाय - जमीनकंद - जिसके एक शरीर में अनंत शरीर निषेध किया गया। हों उसे साधारण वनस्पति कहते हैं, जिसकी नसें, सांधे गाँठ, तंतु (२०) अनजाना फल पुष्प- हम जिसका नाम और गुणदोष नहीं आदि न दिखते हों, काटने पर समान भाग होते हों, काटकर बोनेपर जानते वे पुष्प और फल अभक्ष्य कहलाते हैं, जिनके खाने से अनेक भी पुनः उग जाने से उसे अनंतकाय कहते हैं। जिसे खाने से अनंत रोग उत्पन्न होते हैं तथा प्राणनाश भी हो सकता है। अत: अनजानी जीवों का नाश होता है जैसे आलू, प्याज, लहसुन, गीली, हल्दी वस्तुएँ नहीं खानी चाहिए। अनजाना फल नहीं खाना इस नियमसे अदरख, मूली, शकरकंद, गाजर, सूरन कंद, कुँआरपाठा आदि ३२ कचूल बचा और उसके सभी साथी किंपाक के जहरीले फल खानेसे अनंतकाय त्याज्य हैं। जिन्हें खानेसे बुद्धि विकारी, तामसी और जड़ मृत्युका शिकार बन गये। बनती है। धर्म विरुद्ध विचार आते हैं। (२१) तुच्छ फल - जिसमें खाने योग्य पदार्थ कम और फेंकने योग्य (१७) अचार - कोई अचार दूसरे दिन तो कोई तीसरे दिन और पदार्थ ज्यादा हो, जिसके खानेसे न तृप्ति होती है न शक्ति प्राप्त होती कोई चौथे दिन अभक्ष्य हो जाता है अचार में अनेक त्रस जंतु उत्पन्न है ऐसे चणिया बेर, पीलु, गोंदनी, जामुन, सीताफल इत्यादि पदार्थ होते हैं और अनेक मरते हैं। तुच्छ फल कहलाते हैं। इनके बीज या कूचे फेंकनेसे उनपर चीटियाँ जिन फलोंमें खट्टापन हो अथवा जो वैसी वस्तु में मिलाया गया आदि अनेक जीवजंतु आते हैं और झूठे होने के कारण समूर्छिम हो ऐसे अचारमें तीन दिनकि बाद त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। परंतु जीवभी उत्पन्न होते हैं। पैरोके नीचे आनेसे उन जीवों की हिंसाभी आम, नींबू आदि वस्तुओं के साथ न मिलाया हुआ गूदा, ककड़ी होती है। अत: इनके भक्षणका निषेध किया गया है। पपीता, मिर्च आदिका अचार दूसरे दिन अभक्ष्य हो जाता है। जिस (२२) चलित रस - जिन पदार्थोंका रूप, रस, गंध, स्पर्श बदल अचार में सिकी हुई मेथी डाली गयी हो, वह भी दूसरे दिन अभक्ष्य गया हो या बिगड़ गया हो, वे चलित रस कहलाते हैं। उनमें बस हो जाता है। मेथी डाला हुआ अचार कच्चे दूध या दही के साथ जीवोंकी उत्पत्ति होती है। जैसे - सड़े हुए पदार्थ, बासी पदार्थ, नहीं खाना चाहिए। चटनी के लिए भी इसीतरह समझना चाहिए। कालातीत पदाथ, फूलन आइ हुइ हा एस चालत रसक पदार्थ अभक्ष्य अच्छी तरह से धूप में न सुखाया हुआ आम, गदा, नींबू और मिर्ची हैं, जिन्हें खानेसे आरोग्यकी हानि होती है। असमय बीमारी आ सकती का अचार भी तीन दिनों के बाद अभक्ष्य हो जाता है। अच्छी तरहसे है और मृत्युभी हो सकती है। इस तरहके अभक्ष्य पदार्थों को खानेका धूपमें सुखाने के बाद तेल, गुड़ आदि डालकर बनाया हआ अचार त्याग अवश्यही करना हितावह है। भी वर्ण, गंध रस और स्पर्श न बदले तबतक भक्ष्य होता है, बादमें मिठाई, खाखरे, आटा, चने, दलिया आदि पदार्थोंका काल अभक्ष्य हो जाता है। फूलन आने के बाद अचार अभक्ष्य माना गया । कार्तिक सुदी १५ से फागुन सुदी १५ दरमियान ठंडमें ३० दिनोंका, है। गीले हाथ या गीला चम्मच डालनेसे अचार में फूलन आजाने के फागुन सुदी १५ से आषाढ़ सुदी १५ के दरमियान ग्रीष्म ऋतुमे २० कारण वह अभक्ष्य हो जाता है। अत: अनेक त्रस जंतुओंकी हिंसासे दिनोंका और अषाढ़ सुदी १५ से कार्तिक सुदी १५ के दरमियान १५ बचने के लिए अचार का त्याग करना लाभदायी है। दिनोंका होता है। तत्पश्चात ये सब अभक्ष्य माने जाते हैं। आर्द्रा नक्षत्र (१८) द्विदल - जिसमें से तेल न निकलता हो, दो समान भाग होते के बाद आम, खिरनी अभक्ष्य हो जाते हैं। फागुन सुदी १५ से कार्तिक हों और जो पेड़ के फलरूप न हो ऐसे दो दलवाले पदार्थों को दही सुदि १५ तक आठ महिने खजर, खारक, तिल, मेथी आदि भाजी, या कच्चे दूध में साथ एकत्र मिलाने से तुरन्त द्वीन्द्रिय जीवों की धनिया पत्ती आदि अभक्ष्य माने जाते हैं। उत्पत्ति हो जाती है। जीवहिंसा के साथ आरोग्य भी बिगड़ता है। कबासी पदार्थ दूसरे दिन और दही दो रातके बाद अभक्ष्य माना जाता है। अत: अभक्ष्य है। जैसे - मूंग, मोठ, उड़द, चना, अरहर, वाल, उपरोक्त २२ अभक्ष्य पदार्थों के अतिरिक्त पानीपूरी, भेल, खोमचोंपर चँवला, कुलथी, मटर, मेथी, गँवार तथा इनके हरे पत्ते, सब्जी, आटा मिलनेवाले पदार्थ, बाजारू आटे के पदार्थ, बाजारू मावेसे बने पदार्थ, व दाल और इनकी बनी हुई चीजें, जैसे मेथीका मसाला, अचार, सोड़ा, लेमन, कोकाकोला, औरैन्ज जैसे बोतलोंमें भरे पेय तथा जिन कढ़ी, सेव, गाँठिये, खमणढोकला पापड़, बूंदी, बड़े, भजिए आदि पदार्थों में जिलेटीन आता हो ऐसे सब पदार्थ अभक्ष्य हैं। पदार्थों के साथ दही या कच्चा दूध मिश्रित हो जानेपर अभक्ष्य हो एखानेसे पहले चिंतन कर लेना चाहिए कि अमुक पदार्थ के जाते हैं। श्रीखंड, दही, मठी के साथ दो दल वाली चीजें नहीं खाना खानेसे आत्मा एवं शरीर की कोई हानि तो नहीं हो रही है? हानिकारक चाहिए। दूध या दहीको अच्छी तरहसे गरम करने के बाद उसके साथ १ पदार्थों को त्यागना शुद्ध और ऊँचे जीवन के लिए अत्यंत हितावह दो दलवाले खाने में कोई दोष नहीं है। भोजनके समय ऐसे खाद्य पदार्थों का विशेष ध्यान रखना जरूरी है। होटल के दहीबड़े आदि अभक्ष्य पदार्थों का और विशेषवर्णन गुरुगम से तथा अभक्ष्य कच्चे दहाक बनते है अत: व अभक्ष्य कहलात है। इसतरह इनका अनंतकाय विचारा 'आहार शद्धि प्रकाश आदि ग्रंथों से जानना चाहिये। १७ श्रीमद जयंतसेनसूरि अभिनंदन संथ/वाचना बाहर से अनुनय करे, भीतर राखे देव । जयन्तसेन कुटिल की, इसी नीति से क्लेश । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ मैं कौन हूँ? ] (मनिराज श्री नित्यानंद विजयजी महाराज)। वादों तथा विवादों से घिरा मानव अपने जीवन की कई सफलता नहीं है। शरीर का बनना गुत्थियां हल करने के लिए प्रयत्नशील है। उसका स्वयं के बारे या मिटना सिर्फ पुद्गल का परिवर्तन में भी भ्रमपूर्ण चिन्तन है। वह आसमान में बादल के छोटे से है। जो उसका अपना नहीं है, उसके टुकड़े को देख कर पूरे आसमान का विशिष्ट ज्ञान हो जाने का प्रति आसक्ति जाग्रत हो जाने के कारण भ्रम पाले हुए है। अनन्त आकाश गंगा की असीम क्षमताओं को यह भ्रमपूर्ण स्थिति है। अपनी मुट्ठी में बंद कर लेने की भ्रामक स्थिति में वह जी रहा है। प्रश्न यह उठता है कि यह वह स्वयं के साथ धोखा कर रहा है। स्वयं के प्रति ही विश्वासघात जानते बूझते हुए भी कि मानव अपनी की कृत्रिम स्थिति उसने उत्पन्न कर रखी है। वह कुए के मेंढक धरोहर के रूप में जिसे मान रहा है, की तरह उछलता है तथा पूरे महासागर की सीमाएं नापने का दावा श्री नित्यानंदविजयजी म. वह उसकी अपनी वास्तविक धरोहर नहीं है, वह एक दिन धोखा देने वाली है, मानव क्यों उसके प्रति स्वयंकी दिशा क्या है? उसकी आत्मिक स्थिति क्या है? बावला है? स्पष्ट है कि अनादिकाल से चली आ रही हमारी व्यक्ति का अपने आपके प्रति प्रमित रहना ही सर्वाधिक विस्फोटक आत्मा जिन कुसंस्कारों में रुचि बनाए रखने की आदी बन गई है, स्थिति है। व्यक्ति समझ ही नहीं पाता कि वह क्यों जी रहा है? क्या वे कुसंस्कार ही उसे अच्छे लगने लगे हैं। इन्द्रियां क्षणिक सुखों जन्म लेना और मृत्यु को प्राप्त करना, उसके लिए कोई बाध्यता है? क्या ऐसा करना उसके लिए किसी विजातीय शक्ति के कारण के प्रति मोहित है। ऐसे क्षणिक सुख जिनकी परम्परा दुःखों से अनिवार्यता है? क्या वह अपने आपको इस दुष्चक्र से उबार नहीं पूर्ण है तथा जिनका परिणाम दुःख है। विष्ठा का कीड़ा विष्ठा की सकता? क्या मानव जानता है कि उसकी अपनी शक्ति इन सभी गंदगी में ही आनंद मनाता रहता है। यही स्थिति हमारी है, कुसंस्कारों प्रमजालों को तोड़कर आत्माको उच्च स्थिति तक पहुंचा पाने में सक्षम की हमारी पूर्व प्रवृत्तियां कुसंस्कारों से हमें अलग नहीं होने देती। है? उत्तर सकारात्मक प्राप्त होंगे। वह भेड़ोंकी रेवड़ में भरती हो जब हमरे पूर्व में बंधे कर्मों का उदय होता है और उससे हमें फल जाने के कारण अपने शक्तिमान सिंह स्वरूप को विस्मृत कर गया मिलता है, तब हम अपने पुरुषार्थ का सम्बल देकर उस फल का है। उसे आभास ही नहीं होता कि भेड़ों के साथ रहना, उसकी मूल स्वाद लेते हुए प्रसन्न होते हैं। हमारी यह प्रसन्नता ही हमारे अपने स्थिति नहीं है। अपने आपको भूला होने के कारण वह अपने अस्तित्व स्वयं के प्रति किया गया धोखा है। इसी प्रेम के कारण हम सही को संकटों में फंसाए हुए है। दिशा को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। सुख तथा दुःख की भेद रेखा जीवन के जिन मूल्यों के प्रति मानव को आत्मार्पित होना का स्पष्ट अन्तर कर पाने में हम विवेकहीन बनते जा रहे हैं। इन्द्रियां चाहिए, वे मूल्य स्पष्ट नहीं हैं। आज का मानव न जाने क्यों हमारी मित्र नहीं हैं, अपना आत्म पुरुषार्थ कर हम उन्हें अपना मित्र भौतिकता की अंधी आंधी में भटकता जा रहा है। उसका आकर्षण बना सकते हैं लेकिन बनाने की इच्छा तक का हममें अभाव है। आत्मिक सुख नहीं, भौतिक आशंसाएं बन गया है। इन्द्रियों के इन्द्रियों को मनमाना व्यवहार करते रहने देने के कारण इन्द्रियजन्य सुखों के लिए नित नए आविष्कारों में जुटा हुआ है। भौतिक सुखों की विस्फोटक परिणति समझ पाने में हम विफल हैं। फिर समृद्धि को उसने जीवन का रहस्य मान लिया है। भौतिकता में अनादिकाल से बुरी प्रवृत्तियों में सुख की अनुभूति करने की हमारी उसे क्षणिक सुख की अनुभूति होती है। वह नहीं समझ रहा कि आदत ही हमारे विकास के मार्ग में आड़े आ रही है। जो नाशवान है, उसमें रुचि बनाना व्यर्थ है। शरीर उसका अपना मानव घिरा हआ है। वह कुप्रवृत्तिवें में नजरबंद सा है। नहीं है, इन्द्रियां उसकी सहायक मित्र नहीं हैं। जिस दिन शरीर मिटनेवाला है, वही उसकी यात्रा का अन्तिम पड़ाव नहीं है। वह वह स्वस्थ श्वास लेने तक में अपने आपको अक्षम पा रहा है। भौतिक साधनों की, बहुलता उसकी दृष्टि को आध्यात्मिक तो नए भव का प्रारंभ है। एक भव का अन्त दूसरे भवके श्रीगणेश (शेष पृष्ठ ४ पर) का संकेत है। एक भव की समाप्ति के बाद उसे दूसरे भवकी ओर बढ़ना ही है। भवों-भवों का परिभ्रमण उसकी यात्रा की श्रीमद जयंतसेनसूरि अभिनंदन मंच/वाचना १८ राग द्वेष हो चित्त में, अन्तर भरा अज्ञान । जयन्तसेन दूषित मन, पाता कब सदज्ञान- Abrary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग, देश का स्वर्णयुग 9 (युवाचार्य श्री शिवमुनिजी महाराज) अमावस्या की काली-अंधेरी रात कार्तिक की अमावस्या के दिन अमीरी-गरीबी का वर्चस्व भी था। पूर्णिमा की रात्रि की तरह जग-मगा उठती है। सर्वत्र, ज्योति, दीपमालाएँ महावीर की प्रबुद्ध चेतना ने इन अपनी सौन्दर्य सृष्टि से नवआलोक का सृजन करती हैं? दीपों की विषमताओं और सामाजिक अत्याचारों कतारों की ज्योति के मध्य - “लक्ष्मी-पूजन" होता है। और एक नूतन के विरुद्ध सिंहनाद किया। उन्होंने - वर्ष का आशाओं और आकांक्षाओं के साथ आलिंगन किया जाता "ज्ञान-शक्ति तप-शक्ति, संघ शक्ति" है? इस महापर्व दीपावली का महत्व आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी तीनों ही शक्तियों द्वारा इन विषमताओं बहुत अद्भुत है क्योंकि यह जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर को मिटाने का अथक प्रयास किया। स्वामी का “निर्वाण दिवस” है। ईस्वी पूर्व ५२८ नवम्बर में कार्तिक पशुहिंसा के विरोध में महावीर ने बड़े अमावस्या के दिन भगवान् का पावापुरी (बिहार) में परिनिर्वाण हुआ मार्मिक प्रवचन दिये। उनके प्रवचनों से युवाचार्यश्री शिवमुनिजी था! ही प्रभावित होकर भारत के “दिग्गज भगवान् महावीर जैन धर्म के २४ वें एवं अन्तिम तीर्थंकर थे। कर्मकाण्डी ब्राह्मण विद्वान्, यज्ञमण्डपों के यज्ञ की आहुति प्रज्ज्वलित महावीर का जन्म ई.पू. ५९९ चैत्र सुदी त्रयोदशी को वैशाली के किये बिना ही उठ गये और महावीर के शिष्य बन कर समता और कुण्डलपुर में हुआ। आप जाति के क्षत्रिय थे। आपके पिता का नाम अहिंसा के प्रबल प्रचारक बन गये। इन विद्वानों में सबसे श्रेष्ठ विद्वान सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला था! “वर्धमान" महावीर के बचपन इन्द्रभूति गौतम थे। ये महावीर के प्रथम गणधर थे। जिन्होंने ४४०० का नाम था। परन्तु उनके अदम्य साहस, निर्भयता एवं कष्ट सहिष्णुता शिष्यों के साथ एक ही दिन में दीक्षा ली। नारी उत्थान एवं स्त्रियों के कारण उनका नाम “महावीर" रखा गया। र को पुरुषों के समान ही अध्ययन, स्वाध्याय तथा धार्मिक अनुष्ठानों जीवन के तीसवें वर्ष में महावीर ने राग से विराग की ओर का अधिकार प्रदान करने में महावीर ने बड़ा साहसिक कदम उठाया। अपने जीवन को बढ़ाया। साम्राज्य, राजमहल, सुन्दर पत्नी एवं पुत्री स्त्रियों को दीक्षित करके तो उन्होंने वैदिक विद्वानों को चकित कर आदि को त्याग कर जीवन के महामार्ग अर्थात “साधना" की ओर दिया। उनके धर्म संघ में ३६ हजार साध्वियां और लगभग ३ लाख कदम बढ़ाये! उपासिकाएँ थी। साधक जीवन में महावीर ने बहुत ही कष्ट, दुःख, परिषहों को भगवान् महावीर ने शूद्रों के धार्मिक अधिकारों का केवल समर्थन सहा, इस जीवन में उग्रतम एवं भयंकर तप करके आपने मोक्ष की ही नहीं किया, किन्तु अपने कथन को क्रियात्मक रूप भी दिया। प्राप्ति की। अज्ञात लोगों द्वारा आपको अनेक प्रकार के भयंकर त्रास उनका कहना था, जो व्रत का आचरण करेगा, सदाचार के नियमों दिये गये! आपके कानों में लोहे की तीक्ष्ण कीलें ठोक दी गई। का पालन करेगा उसकी सद्गति अवश्य होगी। चाहे वह शूद्र हो या भयंकरतम पीड़ा दी गई। परन्तु महावीर ने इन भीषणतम वेदनाओं ब्राह्मण। शुद्र में भी वही आत्म चेतना है, जो ब्राह्मण में है। मनुष्य को, पीड़ाओं को समता से सहन किया। उनका अन्त:करण स्वयं के कर्म से ऊँचा उठता है, जन्म या जाति से नहीं। भगवान महावीर ने कष्टों में वज्र-सा कठोर था, तो पर पीड़ा देखकर नवनीत (मक्खन) अनेक शद्रों को अपना शिष्य बनाया उनमें से कई तो बड़े ही तपस्वी की भांति पिघलने वाला भी था। गौशालक जैसे कष्ट देने वाले हए, जैसे हत्यारा अर्जुन माली, तस्कर रोहिणेय, श्वपाक जाति में व्यक्तियों पर भी उन्होंने करुणा की वृष्टि की! उनकी अन्तश्चेतना में जन्मे हरिकेशी आदि। समता का अखण्ड दीप सदा प्रज्ज्वलित था! महावीर के सिद्धान्त महान् थे। अहिंसा और अपरिग्रह की पावन महावीर ने केवलज्ञान प्राप्त किया और अरिहंत बने। भगवान विचारधारा के साथ ही जगत के वैचारिक कलहों का शमन करने के महावीर का तीर्थकर काल भारत वर्ष में लोक शक्ति के अभ्युदय का लिये भगवान महावीर ने 'अनेकान्तवाट' का सिद्धान्त बताया। उन्होंने. काल है। जनता में आध्यात्मिक विकास का स्वर्णिम युग है। भगवान् कहा - "सत्य के जिज्ञासु के लिये पहला नियम है, कि वह अनाग्रही महावीर के युग में यज्ञों में पशुओं की निर्मम आहुतियां दी जाती बने।” किसी भी धर्म व विचार पर आक्षेप न करे, उनका अनादर न थी। स्त्रियाँ धार्मिक अध्ययन व अनुष्ठानों में भाग लेने से वंचित थीं। करे। किन्तु विवेक तथा धैर्य के साथ वस्तु के सभी पहलुओं का शूद्रों की स्थिति बहुत दयनीय थी, उनको समाज में नीची एवं हेय चिन्तनकर सत्य का निर्णय करे। दृष्टि से देखा जाता था। शूद्रों के साथ अमानवीय कृत्य होते थे। इस सामाजिक विषमता के जहर के साथ ही शोषण, संग्रहखोरी एवं (शेष भाग पृष्ठ ३३ पर) भीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन मंथ/वाचना १९ ऐसी वृत्ति नहीं भली, होत स्वयं को क्लेश । जयन्तसेन अवर मनुज, करे कभी ना द्वेष ॥ainelibrary, Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक के द्वादश व्रत (महोपाध्याय श्रीचन्द्रप्रभसागरजी महाराज) व्रत श्रावकाचार का आधारभूत तत्व है। अनैतिक आचार से से विरत होना चाहिए। चूंकि श्रावक गृही-जीवन-यापन करता है। विरति ही व्रत है। तत्वार्थसूत्र में लिखा है कि हिंसानृतास्त्येया अत: वह हिंसा से सर्वथा अलग नहीं हो सकता। इसलिए अहिंसाणुव्रत ब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्वतम्। अर्थात हिंसा, असत्य, अचौर्य मैथुन व के परिपालन के लिए यह कहा गया है कि श्रावक स्थूल हिंसा कभी परिग्रह से विरति व्रत है। व्रत वस्तुत: वह धार्मिक कृत्य या प्रतिज्ञा न करे, सूक्ष्म हिंसा भी उससे न हो, इसका भी उसे ध्यान रखना है, जिसके पालन से व्यक्ति अशुभ से मुक्त होता है एवं शुभ तथा चाहिए। यतनाचार/विवेक पूर्वक अपने गार्हस्थ्य जीवन को बिताये। शुद्धत्व की यात्रा करता है। शास्त्र में अहिंसा - अणुव्रत पालन करने के लिए कुछेक आज्ञाएं जैनागमों में श्रावक के १२ व्रतों का वर्णन किया गया है, दी गयी हैं। - जिनका विभाजन इस प्रकार है - १. पाँच अणुव्रत, २..तीन १. क्रोध आदि कषायों से मन को दूषित करके पशु तथा मनुष्य गुणव्रत और ३. चार शिक्षा व्रत। गुणवतों और शिक्षाव्रतों को समवेत आदि का बन्धन नहीं करना चाहिए। रूप में शीलव्रत भी कहा जाता हैं। तत्वार्थसूत्र में अणुव्रतों को ही डण्डे आदि से ताड़न-पीटन नहीं करना चाहिए। श्रावक का व्रत कहा है। शीलव्रत को मूल व्रत न कहकर अणुव्रतों पशुओं के नाक आदि अंगों का छेदन नहीं करना चाहिए। के पालन में सहायक बताया गया है। जबकि श्रावकधर्म प्रज्ञप्ति में शक्ति से अधिक भार लादना नहीं चाहिए। लिखा है - खान-पान आदि जीवन-साधक वस्तुओं का निरोध नहीं करना पंचेव अणुव्वयाई गुणव्वयाई च हृति तिन्नेव। चाहिये। सिक्खावयाई चउरो, सावगधम्मो दुवालसहा। उक्त कर्म हिंसा रूप है। अत: इनका त्याग अहिंसा-अणुव्रत अर्थात श्रावक-धर्म पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षा का पालन है। व्रत - यों बारह प्रकार का है। योगशास्त्र में भी यही वर्णित है : सावयपण्णति में इसी का उल्लेख मिलता है - बंध्वहछविच्छेए, अइभारे भूत्तपाणवुच्छेए। सम्यक्त्वमूलानि, पन्चाणुव्रतानि गुणास्यः। को हा इदूसियमणो, गोमणयाईण नो कुज्जा। शिक्षापदानि चत्वारि, व्रतानि गृहमेधिनाम्॥ तत्त्वार्थ सूत्र में भी उक्त पाचों अतिचारों का उल्लेख हुआ है। अणुव्रत पाक्षिक अतिचार सूत्र में इस तथ्य का कुछ विस्तार से विवेचन जिनेन्द्र देव ने दो करण, तीन योग, आदि से स्थूल हिंसा और हुआ है। दोषों के त्याग की अहिंसा आदि को पांच अणुव्रत कहा है - आचार्य हेमचन्द्र का अभिमत है कि पंगुपन, कोढ़ीपन और विरतिं स्थूलहिंसादेर्द्विविधत्रिविधादिना। कुणित्व आदि हिंसा के फलों को देखकर विवेकवान् पुरुष निरपराध अहिंसादीनि पन्चाणुव्रतानि जगदुर्जिनाः॥ त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करे। अहिंसा-धर्म का ज्ञाता आतुरप्रत्याख्यान में अणुव्रतों के संबंध में लिखा है - और मुक्ति की अभिलाषा रखनेवाला श्रावक स्थावर जीवों की भी पाणिवहमुसावाए, अदत्तपरदारनियमणेहिं च। निरर्थक हिंसा न करे। अपरिमिइच्छाओ वि य, अणुव्वयाई विरमणांई पंगुकुष्ठिकुणित्वादि, दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । अर्थात प्राणि-वध (हिंसा), मृषावाद (असत्य वचन), अदत्त निरागस्त्रसजन्तूनांक, हिंसा संकल्पतस्त्यजेत् ॥ वस्तु का ग्रहण (चोरी) परस्त्री सेवन (कुशील) तथा अपरिमित कामना (परिग्रह) इन पांचों पापों से विरति अणुव्रत है। निरर्थिकां न कुर्वीत, जीवेषु स्थावरेष्वपि । अब हम उक्त पांचों अणुव्रतों पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का हिंसामहिंसाधर्मज्ञः, काक्षन्मोक्षमुपासकः ॥ प्रयत्न करेंगे। इन्हीं आचार्य के द्वारा हिंसा की निन्दा करते हुए कहा गया है कि हिंसा से विरक्त व्यक्ति अपंग एवं रोगी होते हुए भी हिंसारत १. अहिंसाणुव्रत सर्वांग सम्पन्न व्यक्ति से श्रेष्ठ है। विघ्नों को शान्त करने के प्रयोजन न केवल अणुव्रतों का अपितु समस्त जैन आचार का मूल से की हुई हिंसा भी विघ्नों को ही उत्पन्न करती है और कुल के अहिंसा है। अहिंसा परमो धर्मः। श्रावकाचार के अन्तर्गत अहिंसा के आचार का पालन करने की बुद्धि से भी की हुई हिंसा कुल का सम्बन्ध में इतना ही लिखना अपेक्षित है कि गृहस्थ को स्थूल हिंसा विनाश कर देती है। यदि कोई मनष्य हिंसा का परित्याग नहीं करता श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना चिन्ता आग समान है, करे बुद्धि बल नाश । जयन्तसेन चिन्तन कर, फैले आत्मप्रकाश ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है तो उसका इन्द्रिय-दमन, देवोपासना, गुरुसेवा, दान, अध्ययन और तप ये सब निष्फल हैं। कुर्णिवरं वरं पंगुरशरीरी वरं पुमान् । अपि सम्पूर्णसर्वाङ्गो, न तु हिंसापरायणाः ॥ हिंसा विघ्नाय जायेत, विघ्नशान्त्यै कृता पि हि । कुलाचारविधा प्येषा, कृता कुलविनाशिनी । दमो देव-गुरूपास्तिर्दानमध्ययनं तपः । सर्वमप्येतदफलं, हिंसा चेन्न परित्यजेत् ॥ इस अणुव्रत को स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत भी कहा जाता २. सत्वात्यमेव जयतेजान और "सत्यमेव जयते" - सत्य की विजय होती है और असत्य की पराजय। जो सत्पुरुष ज्ञान और चारित्र के कारणभूत सत्य वचन ही बोलते हैं, उनके चरणों की रज पृथ्वी को पावन बनाती है - ज्ञान-चारित्रयोर्मलं, सत्यमेव वदन्ति ये । धात्री पवित्रीक्रियते, तेषां चरणरेणुभिः । स्थूल असत्य से विरत होना सत्याणुव्रत है। मृषावाद विरमण व्रत इसी का अपर नाम है। सत्याणुव्रती गृहस्थ को कतिपय दोषों से बचने का निर्देश दिया गया है। तत्वार्थसूत्र के अनुसार सत्याणुव्रती को मिथ्या उपदेश, असत्य दोषारोपण, कूटलेखक्रिया, न्यास-अपहार और मन्त्र भेद अर्थात् गुप्त बात प्रकट करना + इन पांच अतिचारों से बचना चाहिए मिथ्योपदेश - रहस्याख्यानकूट लेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः। “सावयपण्णति” में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार कन्या-अलीक, गो-अलीक व भू-अलीक अर्थात् कन्या, गो (पशु) तथा भूमि के विषय में झूठ बोलना, किसी की धरोहर को दबा लेना और झूठी गवाही देना - इनका त्याग स्थूल असत्य विरति हैं। साथ ही साथ सत्य-अणुव्रती बिना सोचे-समझे न तो कोई बात करता है, न किसी का रहस्योद्घाटन करना है, न अपनी पली की कोई गुप्त बात मित्रों आदि में प्रगट करता है. न मिथ्या अहितकारी उपदेश करता है और न कूटलेख क्रिया जाली हस्ताक्षर या जाली दस्तावेज आदि करता है। मूल सूत्र ये हैं : थूल मुसावायास्स उ, विरई दुत्वं स पंचहा होई । नारी कन्नामोभू आल्लिय, नासहरणकडसविखज्जे । सहसा अब्भक्खाणं रहस्सा य सहारमंत मोयं च । मोसोवए सयं कूडलेह करणं च वज्जिजज्जा ॥१ योगशास्त्र में भी कन्यालीक आदि पूर्व संकेतित स्थूल असत्य स्थानांगसूत्रानुसार सत्याणुव्रती को असत्य वचन, तिरस्कार युक्त वचन, झिड़कते हुए वचन, कठोर वचन, अविचारपूर्ण वचन और शान्त कलह को पुन: भड़काने वाले वचन नहीं बोलने चाहिए। इमाई छ अवयणाई वदित्तए - अलियवयणे, हीलियवयणे खिसितवयणे फरसवयणे । । गारत्थियवयणे, विउसविंत वा पुणाउदीरित्तए ।१४ वस्तुतः जो वचन तथ्य होने पर भी पीड़ाकारी हो, वह भी असत्य में ही परिगणित है। हेमचन्द्राचार्य ने स्पष्ट कहा है “न सत्यमपि भाषेत, परपीड़ाकरं वचः" अर्थात् जो वचन भले ही सत्य कहलाता हो, किन्तु दूसरे को पीड़ा उत्पन्न करने वाला हो, तो वह भी नहीं बोलना चाहिए। व्यक्ति निम्न चौदह कारणों से असत्य का सेवन करता है - १. क्रोध २. अभिमान ३. कपट ४. लोभ ५. राग ६. द्वेष ७. हास्य ८. भय ९. लज्जा १०. क्रीड़ा ११. हर्ष १२. शोक १३. दाक्षिण्य तथा १४. बहुभाषण। कार श्रावकाचार का पालन करने वाला उक्त दोषों से बचने का प्रयास करे। दिक ३. अदत्तादानविरमणव्रत जिस वस्तु का जो स्वामी है, उसके द्वारा प्रदत्त वस्तु को ग्रहण करना दत्तादान है और उसके बिना दिये उसकी वस्तु को लेना अदत्तादान है। यह श्रावक का तृतीय अणुव्रत हैं। इसे अस्तेयाणुव्रत या अचौर्याणुव्रत भी कहा जाता हैं। इसके अन्तर्गत गृहस्थ को स्थूल चौर्यकर्म से विरत होना है। लोकनिन्द्य और राज्य द्वारा दंडनीय चोरी का श्रावक त्याग करता हैं। चोरी करने से व्यक्ति “चोर" कहलाता है, राजदण्ड और निन्दा पाता है, अत: चोरी/अदत्तादान श्रावक के लिए त्याज्य है। चौर्यकर्म की निन्दा करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि जो पराये धन का अपहरण करता है, वह अपने इस लोक को, परलोक को, धैर्य, स्वास्थ्य और हिताहित के विवेक को, हरण करता है। दूसरे के धन को चुराने से इस लोक में निन्दा होती है, परलोक में दुःख का संवेदन करना पड़ता है, धर्म का धीरज का और सन्मति का नाश होता है। चौर्य-कर्म करने के कारण मनुष्य कहीं भी स्वस्थ - निश्चिन्त नहीं रह पाता दिन में रात में, सोते समय और जागते समय, सदा सर्वदा वह सशल्य बना रहता है। चोरी का द्विफल बताते हुए आचार्य कहते है कि चोरी से इस लोक में वध, बन्धन आदि फल प्राप्त होते हैं और परलोक में नरक की भीषण वेदना का संवेदन प्राप्त होता है। मूल सूत्र इस प्रकार है : अयं लोक: परलोको, धर्मो धैर्यधृतिर्मतिः । मुष्णता परकीयं स्वं, मुषितं सर्वमप्यदः ॥ दिवसे वा रजन्यां, वा स्वप्ने वा जागरे पि वा । सशल्य इव चौर्येण, नैति स्वास्थ्यं नरः, क्वचित् । चौर्यपाप-द्रुमस्येह, वध-बन्धादिक फलम् । जायते परलोके तु, फलं नरक - वेदना ॥१५ कहे हैं।१२ इस शास्त्र में यह भी वर्णित है कि इन पाँच स्थूल असत्यों का उपयोग क्यों वर्जित है। इसके अनुसार कन्यालीक, गो-अलीक और भूमि अलीक-लोक विरुद्ध हैं। न्यासापहार विश्वासघात का जनक है और कूटसाक्षी पुण्य का नाश करने वाली है। अत: श्रावक को स्थूल मृषावाद नहीं बोलना चाहिए। सर्वलोकविरुद्धं यद्यद्विश्वसितघातकम् । यद्विपक्षश्च पुण्यस्य, न वदेत्तदसूनृतम् ॥१२। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन अंथ/वाचना पर निंदा तुम ना करो, निंदा से गुण नाश । जयन्तसेन इसे तजे, पायें आत्मप्रकाश Library.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 अचौर्याणुव्रती को निम्नांकित दोषों से बचना चाहिए - तत्वार्थ- ब्रह्मचर्याणुव्रती को निम्न अतिचारों / दोषों का सेवन नहीं करना सूत्रानुसार स्तेनप्रयोगतदाहदतादानविरुद्ध राज्याति- चाहिए - क्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपक व्यवहाराः।११ परस्त्री, कुमारी, वेश्या के साथ समागम करना, हस्तमैथुन करना, भावार्थ यह है कि चोरी की गयी वस्तु का क्रय करना, चोरों समलिंगी या पशु से मैथुन करना, स्वसन्तान तथा परिजनों के अतिरिक्त को चोरी करने में सहयोग देना, राजकीय नियमों के विरुद्ध कार्य परविवाह सम्बन्ध करना, तीव्र कामभोग की इच्छा करना या मादक करना, मापतौल में बेईमानी करना, वस्तुओं में मिलावट करना - इन पदार्थों का सेवन करना - इन दोषों से ब्रह्मचर्याणुव्रती गृहस्थ को परे पाँच चौर्य-दूषणों से बचना अचौर्याणुव्रत है। सावयपण्णति में भी रहना चाहिए। उक्त तथ्य का उल्लेख शास्त्रों में संक्षेप में इस प्रकार लगभग यही निर्देश मिलता है - मिलता है :वज्जिज्जा तेना हड, तक्कर जोगं विरुद्धरज्जं च । इत्तरिय परिग्गहिया परिगहियागमणाणं गकीडं च ।। कूड तुल कूडमाणं, तप्प डि रूप च ववहारं ॥ पर विवाहक्करणे, कामे तिव्वाभिलासं च ॥१ अदत्तादान - विरमणव्रत का सुफल बताते हुए कहा गया है परविवाहकरणेत्वरपरिगृहीता परिगृहीतागमना कि शुद्ध चित्त से जिन पुरुषों ने पराये धन को ग्रहण करना त्याग कि नङ क्रीडातीव्रकामाभिनिवेशाः ॥२२ दिया है, उनके सामने स्वयं लक्ष्मी स्वयंवरा की भांति चली आती ५. परिग्रह - परिमाणाणवत सी हैं। उनके समस्त अनर्थ दूर हो जाते हैं। सर्वत्र उनकी प्रशंसा होती इसे अपरिग्रहाणुव्रत भी कहा गया है। इसके अन्तर्गत श्रावक है और उन्हें स्वर्गिक सुख प्राप्त होते हैं: को अपने संग्रह या परिग्रह की एक सीमा निर्धारित करनी होती है। परार्थग्रहणे येषां, नियमः शुद्धचेतसाम् । अधिक परिग्रह अधिक इच्छा/तृष्णा का कारण है। मूर्छा आसक्ति अभ्यायान्ति श्रियस्तेषां, स्वयमेव स्वयंवराः ॥ इच्छाओं की बढ़ोतरी को रोकने के लिए एवं सन्तोष धारण करने के अनर्था दूरतो यान्ति, साधुवादः प्रवर्तते । लिए ही इस व्रत का विधान है। इसीलिए इसे इच्छा-परिमाण-व्रत स्वर्गसौख्यानि ढौकन्ते, स्फुटमस्तेयचारिणाम् ॥१८ भी कहा गया है। उपदेशमाला में लिखा है कि अपरिमित परिग्रह ब्रह्मचर्याणुव्रत अनन्त तृष्णा का कारण है। वह बहुत दोषयुक्त है तथा नरकगति का स्वपत्नी में ही सन्तोष करना तथा काम-सेवन की मर्यादा बांधना मार्ग है। ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इसीलिए इसे स्वदार सन्तोषव्रत भी कहा जाता है। विरया परिग्गहाओं अपरिमिआओ अणंत तण्हाओ। यद्यपि कुछ आचार्यों के अनुसार यह व्रत दो प्रकार का है - बहु दोसंकुलाओ, नरयगइगमण पंथाओं । २३ १. स्वस्त्री-सन्तोषव्रत तथा परस्त्री त्यागवत। "भक्त-परीक्षा" ग्रन्थानुसार जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा करता इनमें प्रथम व्रत का पालन करने वाला श्रावक अपनी पत्नी के है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है, अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों के साथ भोग करने का परित्याग करता और अत्यधिक मूर्छा करता है। इस प्रकार परिग्रह पांचों पापों की है। जबकि परस्त्री, त्यागवती श्रावक दूसरों की विवाहित स्त्रियों का जड़ है - ही त्याग करता है। इसलिए यह कहना अधिक युक्तिसंगत है कि संगनिमितं मारईं, भणइ अलीणं करेइ चोरिक्कं । श्रावक स्वस्त्री - सन्तोषी बनकर परस्त्री गमनका त्याग करें। इस व्रत या सेवई मेहुणं मुच्छं, अप्परिमाणं कुणई जीवों । का विधान व्यक्ति की काम वासना को सीमिततर करने के लिए है। हेमचन्द्राचार्य ने भी परिग्रह के दोष बताए है। उनके आचार्य हेमचन्द्र ने परस्त्रीगमन का कुफल बताते हुए कहा है कि अभिवचनानुसार जो राग-द्वेषादि दोष उदय में नहीं होते, वे भी परिग्रह अपने प्रचण्ड पराक्रम से अखिल विश्व को आक्रान्त कर देनेवाला की बदौलत प्रकट हो जाते हैं। जनसाधारण की तो बात ही क्या है, रावण भी, परस्त्री-रमण की इच्छा के कारण अपने कुल का विनाश परिग्रह के प्रलोभन से मुनियों का चित्त भी चलायमान हो जाता है। करके नरक गया - उन्होंने परिग्रह को हिंसा का मूल बताते हुए यह भी कहा है कि विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि, परस्त्रीष रिरंसया । जीवहिंसा आदि आरम्भ जन्म-मरण के मूल हैं और उन आरम्भों का कृत्वा कुलक्षयं प्राप, नरकं दशकन्धरः ॥१९ कारण परिग्रह है। अर्थात परिग्रह के लिए ही आरम्भसमारम्भ किये जिस प्रकार से परस्त्रीगमन त्याज्य है, वैसे ही पर-पुरुष सेवन जाते हैं। अतः श्रावक को चाहिए कि वह परिग्रह को क्रमश: घटाता भी त्याज्य है। योगशास्त्र में लिखा है - जाए। द्रष्टव्य है उनके स्वयं के पद - ऐश्वर्यराजराजोपि, रूपमीनध्वजोपि च ।। सद्भवन्त्यसन्तोपि, राग-द्वेषोदये द्विषं । सीतया रावण इव, त्याज्यो नार्या नरः परः ॥२० मुनेरपि चलेच्चेतो, यत्तेनान्दोलितात्मनः ॥ अर्थात, ऐश्वर्य से कुबेर के समान, रूप से कामदेव के समान, संसारमूलमारम्भास्तं हेतुः परिग्रहः । सुन्दर होने पर भी स्त्री को परपुरुष का उसी प्रकार त्याग कर देना तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्प परिग्रहम् ॥ चाहिए, जैसे सीता ने रावण का त्याग किया था। परिग्रह से मनुष्यों की तृप्ति अशक्य है। यह सर्व प्रसिद्ध है। श्रीमद् जयंतसेन सूरि अभिनंदन मंथ/वाचना इच्छाओं का जगत में, कभी न होता अन्त । जयन्तसेन अनादि से, कहते ज्ञानी सन्त ॥ : Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PINणात कारण दूर-दूर देशों में अधिकाधिक व्यापार करने के लिये जाने से रुक जाता है और परिणामस्वरूप लोभ पर अकुंश लग जाता है। हेमचन्द्राचार्य के शब्दों में - जगदाक्रममाणस्य, प्रसरल्लोभवारिधेः ।। स्खलनं विदधे तेनं. येन दिग्विरतिः कृता ॥२२ सामायिक पाठ में कहा गया है कि व्यवसाय क्षेत्र को सीमित करने के आशय से उर्ध्वदिशा, अधोदिशा, तथा तिर्यकदिशा में गमना-गमन की सीमा बांधना प्रथम गुणव्रत हैं। उड्ढ महे तिरियं पि य, दिसा नु परिमाणकरमणमिह पढमं । भणियं गुणव्वयं खलुं, सावग धम्मम्मि वीरेण १२५ तत्त्वार्थ सूत्र में लिखा है कि उर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिकम क्षेत्रवृद्धि कि द्वितीय चक्रवर्ती सगर साठ हजार पुत्र पाकर भी सन्तोष न पा सका। कुचिकर्ण बहुत से गोधन से तृप्ति का अनुभव न कर सका। तिलक श्रेष्ठी धान्य से तृप्त नहीं हुआ और नन्द नामक नृपति स्वर्ण के ढेरों से भी सन्तोष नहीं पा सका। सचमुच, जैसे ईंधन बढ़ाते जाने से अग्नि शांत नहीं होती, उसी प्रकार परिग्रह से लोगों की तृप्ति नहीं होती। जब कि जिस व्यक्ति का भूषण सन्तोष बन जाता है. समृद्धि उसी के पास रहती है, उसी के पीछे कामधेनु चलती है और देवता दास की तरह उसकी आज्ञा मानते हैं। योगशास्त्र इसी का समर्थन करता हुआ कहता है :सन्निधौ निधयस्तस्य कामगव्यनुगामिनी । अमराः किंकरायन्ते, संतोषो यस्य भूषणम् ॥२५ परिग्रह - परिमाण - अणुव्रती विशुद्ध चित्त श्रावक को क्षेत्र मकान, सोना-चादी, धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद तथा भण्डार-संग्रह आदि परिग्रह के अंगीकृत परिमाण का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। खिताई हिरण्णाई, धणाइ दुपयाई-कुवियगस्स तहा । सम्म विसुद्धचितो, न पमाणमाइक्कम कुज्जा ॥ भगवती आराधना में निम्न दस परिग्रह बताये हैं - खेत, मकान, धन-धान्य, वस्त्र भाण्ड, दास-दासी, पशुयान, शय्या और आसन। श्रावक इनकी सीमारेखा निर्धारित करता है। तत्वार्थसूत्र में भी लगभग इन्हीं का पिष्टपेषण है : क्षेत्रपास्तुहिरण्यसुवर्णधन-धान्यदासी दासकुप्यप्रमाणितिक्रमाः।२९ गुणवत श्रावक के अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच अणुव्रतों के गुणों में अभिवृद्धि करने वाले दिक् देश तथा अनर्थदण्ड नामक तीन व्रतों को गुणव्रत कहते हैं। “आतुर प्रत्याख्यान" में इन्हीं तीन गुणव्रतों का उल्लेख किया गया है - जं च दिसावेरमणं, अणत्थदंडाउ जं च वेरमणं । देसावगासिंयं पि य, गुणव्वयाईं भवे ताई ॥ अर्थात श्रावक के तीन गुणवत होते हैं: दिविरति, अनर्थदण्ड विरति तथा देशावकाशिक। तत्वार्थ सूत्र में भी यही नाम एवं क्रम दिया गया है।२१ किन्तु योगशास्त्र में कुछ भिन्नता है। उसके अनुसार दिग्वत, भोगोपभोग व्रत और अनर्थदण्ड व्रत - ये तीन गुणव्रत हैं। दिग्व्रत के साथ देशावकासिक व्रत का सीधा सम्बन्ध है। अत: हम गुणवतों में भोगोपभोग व्रत को स्वीकार न करके दिगवत को ही स्वीकार कर दिग्वत के पांच अतिचार इस प्रकार हैं १. विभिन्न दिशाओं में जाने की, की हुई मर्यादा को भूल जाना, २-४ ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिर्यग् तिरछी दिशा में भूल से, परिमाण से आगे चला जाना और क्षेत्र की वृद्धि करना अर्थात एक दिशा के परिमाण को घटाकर दूसरी दिशा का बढ़ा लेना जिससे परिमाण से आगे जाने का काम पड़ने पर आगे भी जा सके - स्मृत्यन्तमुधिस्तिर्यग्भागब्यतिक्रमः । क्षेत्रवृद्धिश्च पति स्मृता दिग्विरतिव्रते ॥ देशव्रत या देशावकासिक व्रत र इच्छाओं को सीमित करने के लिये इस व्रत का विधान है। देश-देशान्तर में गमनागमन से व्यापार संबंधी दिशा मर्यादा व्रत में या जिस देश में जाने से परिगृहीत व्रत के भंग होने का भय हो वहाँ जाने का त्याग करना ही देशावकासिक व्रत है। योगशास्त्रानुसार :दिग्वते परिमाणं, यत्तस्य संक्षेपणं पुनः । दिने रात्रौ च देशावकासिक - व्रतमुच्यते ॥३॥ मा अर्थात दिग्व्रत में गमनामगन के लिये जो परिमाण नियत किया गया है उसे दिन तथा रात्रि में संक्षिप्त कर लेना देशावकासिक व्रत दिग्वत परिग्रह - परिणाम व्रत के रक्षार्थ व्यापार आदि के क्षेत्र को सीमित रखने में सहायक गुणव्रत को दिग्व्रत कहते हैं। इसे दिशाविरति तथा दिशापरिमाण व्रत भी कहा जाता है। जिस व्यक्ति ने दिग्व्रत अंगीकार कर लिया है, उसने जगत् पर आक्रमण करने के लिए अभिवृद्ध लोभरूपी समुद्र को आगे बढ़ने से रोक दिया है। इस व्रत को धारण करने के पश्चात् मनुष्य लोभ के वसुनन्दी श्रावकाचार में यही बात कही गयी है कि जिस देश में जाने से किसी भी व्रत का भंग होता हो या उसमें दोष लगता हो उस देश में जाने की नियमपूर्वक प्रवृत्ति देशावकासिक नामक द्वितीय गणव्रत है। वयभंगकारण होइ, जीम्म देसम्मि तत्थ णियमेण । कीरइ गमणणियत्तो, तं जाण गुणव्वयं विदियं ॥२५ इस व्रत के पाँच अतिचार है :- आनयन-प्रेष्य-प्रयोग शब्दरूपानुपात पुद्गलक्षेपाः। अर्थात् निर्धारित क्षेत्र के बाहर से वस्तु लाना या मंगवाना, निर्धारित क्षेत्र के बाहर वस्तु लाना या मंगवाना, निर्धारित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना, निर्धारित क्षेत्र के बाहर आवाज देना, निर्धारित क्षेत्र के बाहर खड़े व्यक्ति को बुलाने के अभिप्राय से हाथ आँख आदि अंगों से संकेत करना और कंकड़ आदि फेंकना। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना, २३ इच्छा पूरी कब हुई, इच्छा करो निरोध । जयन्तसेन कहाँ गया, कर्मों का अवरोध ॥ . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनर्थदण्ड व्रत प्रयोजन - विहीन कार्यों का त्याग ही अनर्थदण्डव्रत/विरति है। प्रयोजनवश कार्य करने से अल्प कर्मबन्ध होता है। और बिना प्रयोजन कार्य करने से अधिक कर्मबन्ध होता है। क्योंकि प्रयोजनपूर्वक कार्य में तो देश-काल आदि परिस्थितियों की सापेक्षता रहती है, लेकिन निष्षयोजन प्रवृत्ति तो नित्य ही अमर्यादित रूप से की जा सकती है।३८ सावय पण्णति में अनर्थदण्ड के चार भेद बताये हैं :-मा १. अपध्यान २. प्रमादपूर्णचर्या ३. हिंसा के उपकरण आदि देना और ४. पाप का उपदेश। इन चारों अनर्थदण्डों का परित्याग अनर्थदण्डविरति नामक तृतीय गुणव्रत है। योगशास्त्र में उल्लिखित है कि शरीर आदि के निमित्त होने वाली हिंसा अर्थ-दण्ड है। और निर्रथक-निष्पयोजन की जानेवाली हिंसा अनर्थदण्ड है। इस अनर्थदण्ड का त्याग करना गृहस्थ का तीसरा गुणव्रत है। मूल शब्दानुसार : शरीराधर्थदण्डस्य, प्रतिपक्षतया स्थितः । योऽ नर्थदण्डस्तत्यागस्तृतीयस्तत गुणवतम् ॥३९ विरई अण्ग्तथदंडे, तच्चं चउव्विहो अवज्झाणों पमाययरिय, हिंसप्पयाण पावोवएसे य॥४० अनर्थदण्ड विरतश्रावक को निम्न मर्यादाओं का अतिरेक नहीं करना चाहिए। कन्दकौत्कुच्यमौखर्या समीक्ष्याधिकरणोपभोगाधिकत्वानि। १ अर्थात् कन्दर्प - हास्यपूर्ण अशिष्ट वचनों का प्रयोग, कौत्कुच्चशारीरिक कुचेष्टा, मौखर्य-व्यर्थ बकवास, समीक्ष्याधिकरण हिंसा के अधिकरणों का संयोजन तथा उपभोगाधिकत्व भोग्य सामग्री का आवश्यकता से ज्यादा संचय। शिक्षावत श्रावक का लक्ष्य है श्रमणधर्म की ओर बढ़ना। श्रमणधर्म की शिक्षा या अभ्यास हेतु इन व्रतों को शिक्षाव्रत कहते हैं। आतुर प्रत्याख्यान में निम्न चार शिक्षाव्रत बताएँ हैं- १. भोगों का परिमाण २. सामायिक ३. अतिथि संविभाग ४. पौषधोपवास - भोगाणं परि संख्या सामाइय - अतिहि संविभागो य । पोसह विहीयसव्वो, चउरो सिक्खाउ बुताओं ॥४२ तत्त्वार्थ सूत्र में शिक्षाव्रत तो यही उल्लेखित है, किन्तु क्रम में भेद है, जो कि तुलनात्मक अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण है। तत्वार्थ सूत्र के शिक्षाव्रतों का क्रम इस प्रकार है :- १.सामायिक व्रत २. पौषधोपवास व्रत ३. उपभोग - परिभोग व्रत ४. अतिथि संवित व्रत ३. धर्मबिन्दु में भोगोपभोग परिमाण व्रत के स्थान पर देशावकासिक व्रत को स्वीकार किया गया है ५ उक्त चारों शिक्षाव्रतों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है - ९/१ भोगोपभोग परिमाण - व्रत भोगलिप्सा को नियन्त्रित करने के लिए इस व्रत को श्रावकाचार के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है। यह व्रत ब्रह्मचर्याणुव्रत के पालन में विशेष सहयोगी है। भोग तथा परिभोग की वस्तुओं के ग्रहण को सीमित करना ही भोग परिभोग परिणाम व्रत कहलाता है। भोगपरिभोग परिमाण व्रत दो प्रकार का है। भोजन रूप तथा कार्य या व्यापार रूप। कन्दमूल आदि अनन्तकायिक वनस्पति, औदुम्बर फल और मद्य मांसादि का त्याग या परिमाण भोजन विषयक भोगोपभोग परिमाण व्रत है और हिंसापरक आजीविका आदि का त्याग व्यापार विषयक भोगोपभोग परिमाण व्रत है। ४५ हेमचन्द्राचार्य ने भोगोपभोग व्रत की व्याख्या करते हुए जो लिखा है उसका आशय यह है: भोगोपभोगयोः संख्याश्क्त्यायत्र विधीयते। भोगोपभोगमानं तद् द्वेतीयीक गुणवतम् ॥ सकृदेव भुज्यते यः स भोग स्त्रादिकः । पुनः पुनः पुनर्नोग्य, उपभोगो नादिकः ॥ शक्ति के अनुसार जिस व्रत में भोगोपभोग के योग्य पदार्थों की संख्या का नियम किया जाता है, वह भोगोपभोग परिमाण व्रत है। जो वस्तु एक बार भोग के काम में आती है उसे भोग कहते हैं और जो वस्तु पुनः पुन: उपभोग में ली जाती है वह उपभोग कहलाती है। आचार्य हेमचन्द्र ने श्रावक के लिये निम्न वस्तुओं का सर्वथा अथवा यथाशक्य त्याग करने का निर्देश दिया है - मद्यं मासं नवनीतं मधूदुंबरपन्चकम् । अनन्तकायमज्ञातफलं रात्रौ च भोजनम् ॥ आम गोरस संपृक्तं, द्विदलं पुष्पितौदनम् ।। दध्यहर्द्वितीयातीतं क्वथितान्नं विवर्जयेत् ॥ शराब, मांस मक्खन शहद, पंच उदम्बर फल, अनन्तकाय, अज्ञात फल रात्रि भोजन कच्चे दूध, दही तथा छाछ के साथ द्विदल खाना, बासी अनाज, दो दिन के बाद का दही तथा सड़े अन्न का त्याग करना चाहिए। १०/२ सामायिक पापारम्भ वाले सम्पूर्ण कार्यों से निवृत्ति सामायिक है। सामायिक श्रमण जीवन का प्राथमिक रूप है और गृहस्थ जीवन का अनिवार्य कर्तव्य है। विशेषावश्यक भाष्य में स्पष्ट कहा गया है कि सामाइयम्मि उकए, समणो इव समावो हवई अर्थात सामायिक करने से सामायिक काल में श्रावक श्रमण के समान हो जाता है। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं कि सावद्ययोग अर्थात हिंसारम्भ से बचने के लिए केवल सामायिक ही प्रशस्त है। उसे श्रेष्ठ गृहस्थ धर्म जानकर बुद्धिमान लोगों को आत्महित तथा मोक्षप्राप्ति के लिए सामायिक करनी चाहिये। सावज्जजोगपरिरक्खणट्ट, सामाइयं केवलियं पसत्थं । गिहत्त धम्मा पुरमं ति नच्चा, कुज्जा बुहो आयहियं परत्थो वस्तुतः समभाव ही सामायिक है। निन्दा और प्रशंसा, मान और अपमान, स्वजन और परजन सभी में जिसका मन समान है, उसी जीव को सामायिक होती है, समभाव की साधना होती है। निदपसंसासु समो, समो य माणावमाणं कारीसु ।। समसयण परयण मणो सामाइयं संगओ जीओ । जो त्रस और स्थावर सभी जीवों के प्रति समत्वयुक्त है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा परमज्ञानी केवली ने परिभाषित ओम जयतसनमरि अभिनंदन मथावाचना. सोता तो खोता सदा, जागे वह कुछ पाय । जयन्तसेन प्रमाद तज, जीवन ज्योत जगाय ॥ : Jain Education Intemational Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया है। जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य । - तस्स सामाइयं होई, इह केवली भासियं । १क) इसी प्रकार जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में तल्लीन है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा आहार, पानी कक्ष आदि का संविभाग करना अतिथि संविभाग व्रत है। शास्त्र इस व्रत को दान के अन्तर्गत भी लेते हैं। दान अनुग्रह का परिचायक है, किन्तु संविभाग सेवा का द्योतक है। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में कहा गया है कि यथाजात रूप के धारक व्यक्ति के लिये विधिपूर्वक नवधा भक्ति के साथ आहारादि द्रव्य विशेष का स्व और पर के अनुग्रह - निमित्त अवश्य ही विभाग करें इसे अतिथि संविभाग नामक शिक्षाव्रत कहते हैं। विधिना दातृगुणवता, द्रव्यविशेषस्य जा तरपाया । स्वपरानुग्रहहेतोः, कर्तव्योऽवश्यमतिथये भागः ॥पर उद्गम आदि दोषों से रहित देशकालानुकाल, शुद्ध अन्नादिक का उचित रीति से दान देना गृहस्थों का अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत जस्स समाणिओ अप्पा, संजमें णिअमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इह केवली भासियं ॥ ९ख) इस सामायिक की साधना दुर्लभ है। कहा जाता है कि देवता लोग भी अपने हृदय में यह विचार करते हैं कि यदि एक मुहूर्त मात्र भी हमें सामायिक की सामग्री मिल जाये तो हमारा देवत्व सफल हो जाये। सामाइयसामग्गि देवावि चितंति हियय मज्झमि । जइ होइ मुहूत्तमेगें, तो अह् देवतणं सहलं ॥१० सामायिक करने वाले दो प्रकार के होते हैं : १. ऋद्धिमन्त और ऋद्धि रहित। अऋद्धिवान लोग तो मुनियों के पास जिन मन्दिर में पोषधशाला उपाश्रय स्थानक में अपने घर पर अथवा कोई भी निर्विघ्न स्थान पर सामायिक करे और जो ऋद्धिमन्त पुरुष हैं वे साडम्बर उपाश्रय आकर सामायिक करे, ताकि जिन शासन की प्रभावना भी हो। यद्यपि सामायिक समता की साधना है, किन्तु गृहस्थ जीवन में पूर्वतया समभाव होना दुष्कर है। अत: उसके लिये समय की सीमा निर्धारित कर दी गयी। एक सामायिक का काल ४८ मिनिट है। श्रावक को एकाधिक सामायिक करनी चाहिए। यदि अधिक न कर सके तो एक दिन में एक सामायिक तो अवश्यमेव करनी चाहिए। सामायिक करने के लिए प्रात:काल एवं सायंकाल विशेष उचित है। श्रावक जहां सामायिक करे, वह स्थान एकान्त, पवित्र शान्त एवं अनुकूल होना चाहिए। सामायिक या पोषध करते समय आसन, मुखवस्त्रिका, चरवला/मोरपीछी स्थापनाचार्य आदि सामग्री का सामान्यतः उपयोग होता है। सामायिक के अन्य नाम भी हैं :१. सामायिक समभाव २. सामयिक समग्र जीवों पर दयापूर्वक वर्तन। सम्यग्वाद राग-द्वेष रहित सत्य कथन। ४. समास अल्प अक्षरों में कर्म विनाशक तत्वावबोध। संक्षेप अल्प अक्षरों में गम्भीर द्वादशांगी। अनवद्य पापरहित आचरण। ७. परिज्ञा-पाप परिहार से वस्तु - बोध। ८. प्रत्याख्यान- त्याज्य वस्तुओं का त्याग। उक्त अष्ट सामायिकों पर आठ दृष्टांत भी हैं जिनके लिये द्वादश पर्व-व्याख्यानमाला आदि ग्रन्थ अवलोकनीय हैं। ५१ ११/३ अतिथि संविभाग व्रत अतिथये - विभजनम् - अतिथिसंविभाग - अतिथि के लिए अन्नाईणं सुद्धाणं कप्पणिज्जाण देसकालजुतं ।। दाणं जईणेमुचियं गिहीण सिक्खावयं भणियं ॥५३ योगशास्त्र में भी यही कहा गया है कि अतिथियों को चार प्रकार का आहार अर्थात अशन, पान खादिम स्वादिम भोजन, पात्र वस्त्र और मकान देना अतिथि-संविभाग व्रत कहलाते हैं : दानं चतुर्विधाहारपात्राच्छादनसद्मनाम् । अतिथिभ्यो तिथिसंविभागव्रतमुदीरितम् ॥ पोषधोपवास- व्रत पोष + ध = पोषध, पोष यानी गुण की दृष्टि को धारण करने वाला “पोषध" कहलाता है। अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों में द्वेष - निवृत्ति पूर्वक आहार - त्यागादि गुणों सहित निवास करना उपवास कहलाता है। पूर्वाचार्यों के अनुसार दोष से निवृत्त होकर गुणों सहित सम्यक् प्रकार से रहना - उपवास है, गुणरहित करने को पौषधोपवास कहते है : उपावृत्तस्य दोषेभ्यः सम्यग्वासो गुणै सह । उपवास: स विज्ञेयो न शरीरविशोषणम् ॥१५ आहार शरीर - सुश्रुषा, गृह व्यापार एवं मैथुन इन चार बातों का पौषधोपवास व्रत में परित्याग किया जाता है। पंचास्तिकाय के अनुसार - आहारदेहसक्कार-बंभा वावार पोसहो य णं । देसे सव्वे य इम, चरमे सामाइयं णियमा ॥१५ अर्थात आहार, शरीर संस्कार अब्रह्म तथा आरम्भ त्याग ये चार बातें पौषधोपवास व्रत में आती है। इन चारों का त्याग एकदेश भी होता है और सर्वदेश भी जो सम्पूर्णत: पौषध करता है, उसे नियमत: सामायिक करनी चाहिए। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में यह विधान है कि प्रत्येक मास की दो अष्टमी और दो चतुर्दशी इन चारों ही पर्यों में अपनी शक्ति न छिपाकर सावधानी पूर्वक पौषधोपवास करने वाला पौषधनियम - विधायी श्रावक कहलाता है। पर्वदिनेषु चतुर्वपि, मासे-मासे स्वशक्तिमनिबह । प्रोषधनियमाविधायी, प्रणधिपर: प्रोषधानशनः ॥५७ श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना २५ 'य' का भेद विष विषय में, विष मारे इक बार । जयन्तसेन विषय सदा, हनन को हरबार Morary.org Jain Education Intemational Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौषध शब्द प्रोषध के रूप में भी प्रयुक्त है जिसका अर्थ है प्रकृष्ट औषध एक बार भोजन करना प्रोषध और बिल्कुल भोजन न करना उपवास। पर्व से पहले दिन सुबह के समय और उसके अगले दिन सन्ध्या के समय केवल एक-एक बार भोजन करना और पर्व वाले दिन दोनों समय भोजन न करना। इस प्रकार सोलह प्रहर तक सर्व आरम्भ का तथा भोजन का इसमें त्याग होता है। पोषध व्रत का फल प्रतिपादित करते हए कहा गया है:- पोसहों य सुहे भावे, असुहाइ खवेइ णत्थि संदेहो । छिंदेइ नरयतिरियगई, पोसह विहिअप्पमत्तेणं ॥५८ अर्थात यह बात निःसन्देह सही है कि पौषध करने वाला अप्रमत रहकर जो शुभ भाव से विधिपूर्वक पोषध करे तो उसके सकल दुःख नष्ट हो जाते हैं और नरक और तिर्यंच गतियों का विच्छेद हो जाता है अर्थात् सद्गति का भोजन बन जाता है। __यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि श्रावक जब तक प्रोषधोपवास में अपना सारा समय व्यतीत करता है, तब तक वह श्रावक होते हुए भी महाव्रतधारी श्रमण की भूमिका के तुल्य है। ऊपर हमने श्रावकाचार के बारह व्रतों का उल्लेख किया है। किन्तु व्रत बारह ही हों, ऐसी बात नहीं है। बारह से अधिक भी हो सकते हैं। यथा बारह व्रतों में उल्लिखित सामायिक व्रत षडावश्यक कर्म का एक अंग है। श्रावक यदि चाहे तो सामायिक के साथ साथ स्तवन, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान को भी अपने व्रत में समाविष्ट कर सकता है। प्रस्तुत प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि श्रावक के लिए आवश्यक नहीं है कि वह उक्त बारह व्रतों को एक साथ पूर्णतया अंगीकार करे वह चाहे तो अपनी सुविधानुसार एक-दो या चार-पाँच व्रत भी स्वीकार कर सकता है या बारह के बारह व्रत भी। जैसे कुछेक लोग ब्रह्मचर्याणुव्रत ही स्वीकार करते हैं। जैसी जिस व्यक्ति की शक्ति और क्षमता होती है, वह तदनुरूप व्रतों का वरण करता १ तत्वार्थ सूत्र ७. १ श्रावक धर्म प्रज्ञप्ति ६ ३ । योग शास्त्र २.१ ४ आतुर प्रत्याख्यान (३) ५ सावय पण्णति (२५८) बन्धवधच्धविच्छेदातिरोपणात्र पाननिरोधा:- तत्वार्थ सूत्र (७-२१) ७ योगशास्त्र २. १९, २१ योगशास्त्र २. २८-२९, २१ वही २.६३ १० तत्वार्थ सूत्र ७. २२ ११ सावय पण्णति २६०-२६२ १२ कन्यागो भूम्यलीकानि, न्यासापहरणं तथा कृटसाक्ष्यन्व पंचेति, स्थूलासत्यान्यकीर्तनय॥ योगशास्त्र २.५४ १३ योगशास्त्र २-५५ १४ स्थानांग ६. ३ १५ योगशास्त्र २.८४-७५ १ ६ तत्वार्थ सूत्र ६.२३ १७ सावय पण्णति २६८ १८ योगशास्त्र २. १०९-१० १९ योगशास्त्र २.९९ २० वही २. १०२ २१ सावय पण्णति २७३ २२ तत्वार्थ सूत्र ७. २४ २३ उपदेशमाला २४३ २४ भक्त-परिक्षा १३२ २५ योगशास्त्र २. १०९-१० २६ वही २. ११५ २७ उपदेशमाला २४४ २८ बाहिरसंगा, खेतं वत्थु घणधनकुष्प भांडाणि। दुपयचउप्पय, केव सयणासणे य तहा॥ -भगवती आराधना १९ २९ तत्वार्थ सूत्र ७ ३० आतुर प्रत्याख्यान ४ ३१ तत्वार्थ सूत्र ७. १७ ३२ योगशास्त्र २.३ ३३ सामायिक पाठ २८० ३४ तत्वार्थ सूत्र ७. २६ ३५ योगशास्त्र ३. ९६ ३६ वसुनन्दी श्रावकाचार २१५ ३७ तत्वार्थ सूत्र ७. २७ ३८ द्रष्टव्य :- अठण तं न बंधइ, जमणटेण तु थोवबहु भावा। अट्टे कालाईया, नियागमा न उ अणट्टाए॥ सावयपण्णति २९० ३९ योगशास्त्र ३.७४ ४० सावय पण्णति २८९ तत्वार्थ सूत्र ७.२८ ४२ आतुर-प्रत्याख्यान १५ तत्वार्थ सूत्र ७-१७ ४४ सामायिक देशावकासिक पौषधोपवासातिथि संविभागश्चत्वारि शिक्षा पदानीति धर्मबिंदु २. १८ वजणंमणंत गुंवरि, अच्चंगापं च भोगओ माणं। कम्मयओ खरकम्मा, इयाण अवरं इमं भपियं॥ पंचास्तिकाय १. २१ ४६ योगशास्त्र ३. ४-५ ४७ योगशास्त्र ३.६-७ ४८ संबोध सत्तरि २५ ४९ क विशेषावश्यक भाष्य २६९० ख नियमसार १२६ ५० अनुयोगद्वार सूत्र २७ ५१ सामाइयं समइयं, समवाओ समास संखेओ । अणवज्जं च परिण्णा पच्चक्खाणे य ते अट्ठम॥ ५२ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय १०९ ५३ पंचास्तिकाय १. ३१ योगशास्त्र ३. ८७ रत्नकरण्ड श्रावकाचार १४०५६ पंचास्तिकाय १. ३० ५७ द्रष्टव्य - समणसुतं पृ. २७० ५८ पुरुषार्थसिद्धयुपाय १५७ ४१ ४३ नियमपूर्वक श्रावकाचार का पालन करने वाला व्यक्ति पहले से बारहवें देवलोक तक जा सकता है। भविष्य में वह पुनः मनुष्य-जन्म प्राप्त कर श्रमण धर्म का वरण करता है और निर्वाण पा सकता है। उपासक-दशांग सूत्र के अनुसार उसमें सूचित दस श्रावक अब मात्र तीन जन्म और लेंगे तथा तीसरे जन्म में निर्वाण पद प्राप्त करेंगे। उत्तराध्ययन सूत्र (५-२४) में लिखा है कि गृही-जीवन में सुव्रतों का पालन करके श्रावक देवलोक में जाता है - एवं सिक्खा - समावन्ने, गिहि वासेवि सुव्वए । मुच्चई छविपव्वाओ, गच्छे जक्खनलोगयं ॥ श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदनामंथा वाचना २६ काम विषय आसक्ति में, मिले नहीं आराम । जयन्तसेन इसे तजे, जीवन सुख का घाम ॥ : Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | जैनकथा-साहित्य : एक चिन्तन । (उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज) विश्व के सर्वोत्कृष्ट काव्य की जननी कहानी है। कथा के प्रति संकीर्णता-उदारता के अपरिमित मानव का आरम्भ से ही सहज आकर्षण रहा है। फलतः जीवन का मन्तव्यों को पहिचाना है, विरामहीन कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें कहानी की मधुरिमा अभिव्यञ्जत यात्रा के कटुअनुभवों को परखा है एवं न हुई हो। सत्य तो यह है कि मानव अपने जन्म के साथ साथ जो दो विभिन्न युगों के अलगाव को भी लाया है वह अपनी जिन्दगी की कहानी कहते हुए समाप्त करता समझा है। इस जैन-कथा-तटिनी की आया है। कहने और सुनने की उत्कण्ठा सार्वभौम है। कथा के गाथा बड़ी सुहावनी है। वस्तुत: जैन आकर्षण को सबल बनाने के लिए प्राकृतिक सुषमा कहानी साहित्य कथाओं की व्यापकता में विश्व की में एक विशिष्ट उपकरण के रूप में स्वीकृत है। हमारे प्राचीनतम विभिन्न कथा वार्ताओं को प्रश्रय मिला साहित्य में कथा के तत्त्व जीवित हैं। ऋग्वेद में जो संसार का उपलब्ध है। फलत: जगत की कहानियों में जैन सर्वप्रथम ग्रंथ है, स्तुतियों के रूप में कहानी के मूलतत्त्व पाये जाते श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज कथाओं की साँसें किसी न किसी रूप हैं। अप्पला-आमेयी के आदर्श नारी चरित्र ऋग्वेद में आए हैं। में संचरित होती रहती हैं। एक ओर इनमें विरक्ति और संचय सदाचार ब्राह्मणग्रंथों में ही हमें अनेक कथाएँ उपलब्ध होती हैं। शतपथ ब्राह्मण की प्रतिध्वनियाँ हैं तो दूसरी ओर जीवन के शाश्वत सुख स्वर-भी की पुरुरवा और उर्वशी की कथा किस को ज्ञात नहीं है? ये कहानियाँ गहरी आस्था को लिए हुए यहाँ मुखर हैं। संस्कृति, जितनी अधिक उपनिषदकाल के पूर्व की हैं। उपनिषद् के समय में इनका अभिनवतमरूप कथाओं के अन्तराल में सन्निहित है, उतनी अधिक साहित्य की अन्य देखने को मिलता है। गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद तथा सत्यकाम-जाबाल विधाओं में परिलक्षित नहीं हो पाई है। मानव जीवन के जिस सार्वजनिक आदि कथाएँ उपनिषद् काल की विख्यात कथाएँ हैं। छान्दोग्य उपनिषद् सत्य की माटी में संस्कृति के चिरंतन तत्त्वों की प्रतिष्ठा मानी गई है। में जनश्रुति के पुत्र राजा जानश्रुति की कथा का चित्रण मिलता है। उसका प्रथम उन्मेष इन्ही जैन कथाओं में सुलभ है। इन कहानियों पुराणों में कहानी के खुले रूप के अभिदर्शन होते हैं। पुराण वेदाध्ययन की गरिमा एवं उपयोगिता को न काल-भेद क्षीणकर सके हैं और न की कुञ्जी हैं। वेदों की मूलभूत कहानियाँ पुराणों की कथाओं में व्यक्तिगत हठीला गुमान धूमिल बना सका है। प्रत्युत काल खंडों की पल्लवित-प्रस्फुटित हुई हैं। पुराण कथाओं का आगार है। रामायण प्राचीनता ने इन कथाओं को अधिक सफल बनाया है एवं वैयक्तिक और महाभारत में भी बहुत से प्राख्यान संश्लिष्ट हैं। रामायण की. अवरोधों ने उनकी व्यापकता को विशेषतः अपरिहार्य प्रमाणित कर अपेक्षा महाभारत में यह वृत्ति अधिक है। एक प्रकार से देखा जाय तो महाभारत कहानियों का कोष है। इस प्रकार कथा साहित्य की जैन परम्परा को मूल आगमों में द्वादशांगी प्रधान और प्रख्यात एक प्राचीन परम्परा है जिसमें वसुदेव हिंदी पंचतंत्र, हितोपदेश, बैताल है। उनमें नायाधम्मकहा, उवासगदसाओ, अन्तगडसा अनुत्तरोपपातिक, पंचविंशतिका, सिंहासन द्वात्रिंशिका, शुकसन्नति, बृहत्कथामंजरी, तथा विपाक सूत्र आदि समग्र रूप में कथात्मक हैं। इनके अतिरिक्त कथासरित्साजर, आख्यानयामिनी, जातक कथाएँ आदि विशेषतः उत्तराध्ययन सूयगडांग, भगवती ठाणांग आदि में भी अनेक रूपक उल्लेख्य हैं। एवं कथाएँ है जो अतीव भावपूर्ण एवं प्रभावना पूर्ण हैं। तरंगवती, कथा साहित्य-सरिता की बहुमुखी धारा के वेग को क्षिप्रगामी समराच्चकहा तथा कुवलयमाला आदि अनेकानेक स्वतंत्र कथाग्रंथ विश्व और प्रवहमान बनाने में जैन कथाओं का योगदान महनीय है। जैन की सर्वोत्तम कथा विभूति हैं। इस साहित्य का सविधि कथा उस पुनीत स्रोतस्विनी के समान है जो कई युगों से अपने मधुर अध्ययन-अनुशीलन किया जाए तो अनेक अभिनव एवं तथ्यपूर्ण सलिल से जाने-अनजाने धरती के अनन्तकणों को सिंचित कर रही उद्भावनाएँ तथा स्रोत दृष्टिपथ पर दृष्टिगत होंगे। जिससे जैन कथा है। इस कथा-सरिता में सर्वत्र मानवता की ललित लोल लहरें वाङ्मय की प्राचीनता वैदिक कथाओं से भी अधिक प्राचीनतम परिलक्षित शैली-शिल्प के मनोरम सामंजस्य से परिवेष्ठित है। यह इतनी विशद होगी। जैनों का पुरातन साहित्य तो कथाओं से पूर्णत: परिवेष्ठित है। है कि इसके 'अथ' तथा 'इति' की परिकल्पना करना कठिन है। इसके प्रासद्ध श प्रसिद्ध शोध मनीषी डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल 'लोककथाएँ और 'जीवन' में आदर्शों के प्रति निष्ठा है और चिरपोषित संशयों एवं उनका संग्रहकार्य' शीर्षक निबन्ध में लिखते हैं - "बौद्धों ने प्राचीन अविश्वासों के प्रति कभी मौन और कभी सन्तप्त विद्रोह है। इसके दो जातकों की शैली के अतिरिक्त अवदान नामक नये कथा-साहित्य की मनोरम तट हैं - भाव एवं कर्म। इन दोनों भव्य किनारों के सहारे रचना की जिसके कई संग्रह (अवदानशतक दिव्यावदान आदि) उपलब्ध इस प्रवाहिनी ने लोक जीवन की दूरी को नापा है, हर्ष-विषाद एवं हैं। किन्तु इस क्षेत्र में जैसा निर्माण जैन लेखकों ने किया वह विस्तार, दिया है। ६ २७ श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन मंथावाचना Jain Education Interational विषय वासना दिल बसी, काम भोग की दौड़ । जयन्तसेन पतंगवत, आखिर जीवन छोड़ velibrary.org Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधता और बहुभाषाओं के माध्यम की दृष्टि से भारतीय साहित्य जैन कथाओं का वर्गीकरण में अद्वितीय है। विक्रम संवत् के आरम्भ से लेकर उन्नीसवीं शती जैन कथा वाङ्मय एक विशाल आगार है जिसे किसी निश्चित तक जैन साहित्य में कथा ग्रंथों की अविच्छिन्नधारा पायी जाती है। परिधि में निबद्ध करना सहज नहीं है तथापि कथा साहित्य के विशारदों यह कथा साहित्य इतना विशाल है कि इसके समुचित सम्पादन और ने अपने भगीरथ यत्न-प्रयल किए हैं। दीर्घ निकाय के ब्रह्मजाल सुत्र प्रकाशन के लिए पचास वर्षों से कम समय की अपेक्षा नहीं होगी। में एक स्थान पर कथाओं के अनेक भेद किए हैं - (१) राजकथा जैन साहित्य में लोक-कथाओं का खुलकर स्वागत हुआ। भारतीय (२) चोरकथा (३) महामात्यकथा (४) सेन कथा (५) भयकथा लोक-मानस पर मध्यकालीन साहित्य की जो छाप आज अभी तक (६) युद्धकथा (७) अन्नकथा (८) पानकथा (९) वस्त्रकथा सुरक्षित है उसमें जैन कहानी साहित्य का पर्याप्त अंश है। सदयवच्छ (१०) शयनकथा (११) मालाकथा (१२) गंधकथा (१३) ज्ञातिकथा सावलिंग की कहानी का जायसी ने 'पद्मावत' में और उससे भी पहले (१४) यान कथा (१५) ग्रामकथा (१६) निगमकथा (१७) नगरकथा अब्दुल रहमान ने संदेशरासक में उल्लेख किया है। यह कहानी बिहार (१८) जनपदकथा (१९) स्त्रीकथा (२०) पुरुषकथा (२१) शूरकथा से राजस्थान और विंध्य प्रदेश के गाँव-गाँव में जनता के कंठ-कंठ (२२) विशिखा कथा (बाजारू गणे) (२३) कुंभस्थान कथा (पनघट में बसी है। कितने ही ग्रंथों के रूप में भी वह जैन साहित्य का अंग की कहानियाँ) (२४) पूर्वप्रतकथा (गूजरों की कहानियाँ) (२५) निरर्थक कथा (२६) लोकाख्यायिका (२७) समुद्राख्यायिका। कथा के भेदों जैन कथा को कथाकारों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि कई का निरूपण करते हुए आगमों में अकथा, विकथा, कथा तीन भेद भाषाओं में प्रणयन कर एक ओर भाषा को समृद्ध किया है तो दूसरी किए गए हैं। उनमें कथा तो उपादेय हैं, शेष त्याज्य! उपादेयकथा ओर जनता की भावना को परिष्कृत-प्रतिष्ठित किया है। जनपदीय के विभिन्न रूपों का वर्गीकरण विषय, शैली, पात्र, एवं भाषा के बोलियों में भी जैन लेखकों ने कथासाहित्य को पर्याप्त मात्रा में आधार पर किया गया है। रचा-लिखा है। जैनाचार्यों ने इन कथाओं के माध्यम से गहन सैद्धान्तिक साधारणतया जैन कथाओं को अग्रांकित चार भागों में विभक्त तत्त्वों को सुगम बनाया है तथा श्रावकों एवं साधारण जनता ने इनके किया जा सकता है१२- (१) धर्म सम्बन्धी कथाएँ (२) अर्थ सम्बन्धी द्वारा अपनी सहज प्रवृत्तियों को विशुद्ध बनाने का सतत् प्रयल किया कथाएँ (३) काम सम्बन्धी कथाएँ (४) मोक्ष सम्बन्धी कथाएँ। इस है। जैन विद्वानों ने इन आख्यानों में मानवजीवन के कृष्ण और शुक्ल वर्गीकरण में भी मोक्षविषयक भावना सर्वत्र विद्यमान है। इसके अन्तर्गत पक्षों को उजागर किया है लेकिन आख्यान का समापन शुक्ल पक्ष विरक्ति, त्याग, तपस्या, पूजा, आदि धार्मिक चिंतन एवं कृत्य स्वयं की प्रधानता दिग्दर्शित कर आदर्शवाद को प्रतिष्ठित किया है। कथा ही सन्निहित हैं क्योंकि जैन कथाओं का लक्ष्य धर्म की महिमा को साहित्य की दृष्टि से जैन साहित्य बौद्ध साहित्य की अपेक्षा अधिक बताना तथा धर्मानुमोदित आचार का प्रचार करना है। प्रकारान्तर से सफल और समृद्ध है जैन कथाओं में भूत, वर्तमान दुःख सुख की जैनकथाओं को इस प्रकार से भी वर्गीकृत किया जा सकता है। व्याख्या या कारण निर्देश के रूप में आता है। वह गौण है। मुख्य यथा - (१) धार्मिक (२) ऐतिहासिक (३) सामाजिक (४) उपदेशात्मक है वर्तमान। जबकि बौद्ध जातकों में वर्तमान अमुख्य है। वहाँ बौधिसत्व (4) मनोरंजनात्मक (६) अलौकिक (७) नैतिक (८) पशु-पक्षी सम्बन्धी की स्थिति विगत काल में ही रहती है। इसमें अनेक रूपक कहानियाँ (९) गाथाएँ (१०) शाप-वरदान विषयक (११) व्यवसाय सम्बन्धी भी हैं। एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा। एक तालाब है। उसमें खिले (१२) विविध (१३) यात्रा सम्बन्धी (१४) गुरु शिष्य सम्बन्धी (१५) हुए कमल भरे हैं। मध्य में एक बड़ा कमल है। चार ओर से चार देवीदेवता सम्बन्धी (१६) शकुनापशकुन सम्बन्धी (१७) मंत्र-तंत्रादि मनुष्य आते हैं और वे उस बड़े कमल को हथियाना चाहते हैं। प्रयल सम्बन्धी (१८) बुद्धि परीक्षण सम्बन्धी (१९) विविध जातिवर्ग सम्बन्धी करते हैं परन्तु सफल नहीं होते। एक भिक्षु तालाब के किनारे से कुछ (२०) विशिष्ट न्याय विषयक (२१) काल्पनिक कथाएँ (२२) प्रकीर्णक। शब्द बोलकर उस बड़े कमल को प्राप्त कर लेता है। यह सूयगड (सूत्रकृतांग) आगम की रूपक-कहानी है। इस रूपक के द्वारा यह मा लेकिन मेरी दृष्टि से सम्पूर्ण भारतीय कथा साहित्य को चार समझाया गया है कि विषयभोग का त्यागी-साधु राजा-महाराजा आदि प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है. अनुर का संसार से उद्धार कर देता है। इस प्राचीन कथा साहित्य से. (१) नीतिकथा (Didatic tales) जिसका ऊपर वर्णन हुआ है, तत्त्वग्रहण कर आगे के लेखकों ने (२) धर्मकथा (Religious tales) संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में अनेक कहानियाँ रची हैं। अपभ्रंश (३) लोककथा (Folk or Popular tales) के 'पउमचरिउ' एवं 'भविसयत्तकहा' नामक ग्रंथ कहानी साहित्य की (४) रूपक कथा (Allegorical tales) अमूल्य निधि है। इनमें अनेक उपदेश प्रद कहानियाँ उपलब्ध होती स्थानांग सूत्र में कथा के तीन भेद बताए गए हैं - तिविहाकहा हैं। अधिक क्या कहा जाए, कथाओं के समूह के समूह जैन आचार्यों - अत्थकहा, कामकहा, धम्मकहा। - सूत्र १८९। इन भेदों के पश्चात् ने रच डाले हैं जिनके द्वारा जैनधर्म का प्रचार भी हुआ है और धार्मिक स्थानांग सूत्र २९२ में धर्मकथा के उपभेद भी बताए गए हैं। इसका सिद्धान्तों को बल भी मिला है। इन कथाओं में जीवन के उदात्त प्रमुख कारण यह है कि अर्थ-कथा और कामकथा संसार विवर्द्धक एवं शाश्वत सत्यों का निरूपण हुआ है। सांसारिक वैभव-विलास से होने के कारण जैन आचार्यों को उसका वर्ण अभिप्रेत ही नहीं था। विरक्ति में जैन कथाएँ प्रयोजनासद्ध हेतु का काम करती हैं। उनकी प्रमुख रुचि धर्मकथा की ओर ही थी। इसलिए उन्होंने स्थानाग सून श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन अंथ/वाचना भोगी बन कर मानवी, पाता कष्ट महान । जयन्तसेन तन बल धन, तीनों खोवत जान । : Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) आक्षेपिणी (२) विक्षेपणी (३) संवेगिनी (४) निर्वेदिनी - धर्मकथा अभीप्सा मानव में आदिकाल से रही। है। वेद, उपनिषद् महाभारत के ये चार भेद बताए हैं। आगम और त्रिपिटक की हजारों लाखों कहानियाँ इस बात की साक्षी औपदेशिक कथा संग्रह हैं कि मानव कितने चाव से कहानी को कहता व सुनता आया है चरणकरणानुयोग विषयक साहित्य धर्मोपदेश या औपदेशिक और उसके माध्यम से धर्म और दर्शन, नीति और सदाचार, प्रकरणों के रूप में उद्भूत एवं विकसित हुआ है। धर्मोपदेश में संयम, बौद्धिक-चतुराई और प्रबल पराक्रम, परिवार और समाज सम्बन्धी शील, तप, त्याग और वैराग्य आदि भावनाओं को प्रमुखता दी गई गहन समस्याओं को सुन्दर रीति से सुलझाता रहा है। है। जैन साधु प्रवचनारम्भ में कुछ शब्दों या श्लोकों में अपनी धर्मदेशना काश्रमण भगवान महावीर जहाँ धर्म-दर्शन व अध्यात्म के गम्भीर का प्रसंग बता देता है और फिर एक लम्बीसी मनोरंजक कहानी कहने प्ररूपक थे, वहाँ एक सफल कथाकार भी थे। वे अपने प्रवचनों में लगता है जिसमें अनेक रोमांचक घटनाएँ होती है और अनेक बार जहाँ दार्शनिक विषयों की गम्भीर चर्चा-वार्ता करते थे वहाँ लघु रूपकों कथा के भीतर कथा निकलती जाती है। इस प्रकार ये औपदेशिक एवं कथाओं का भी प्रयोग करते थे। प्राचीन निर्देशिका से परिज्ञात प्रकरण अत्यन्त महनीय कथा साहित्य से आपूर्ण हैं जिसमें उपन्यास, होता है कि नायाधम्म कहा में किसी समय भगवान महावीर द्वारा दृष्टान्तकथा, प्राणिनीतिकथा, पुराण कथा, परिकथा नानाविध कौतुक कथित हजारों रूपक व कथाओं का संकलन था। और अद्भुत कथाएँ उपलब्ध होती हैं। जैन मनीषियों ने इस प्रकार स आर्यरक्षित ने अनुयोगों के आधार पर आगमों को चार भागों के विशाल औपदेशिक कथा साहित्य का सृजन किया है। धर्मोपदेश में विभक्त किया था। उसमें धर्मकथानुयोग भी एक विभाग था। प्रकरण के अन्तर्गत जो उपदेश माला, उपदेश प्रकरण, उपदेश दिगम्बर साहित्य में धर्मकथानुयोग को ही प्रथमानुयोग कहा है। रसायन, उपदेश चिन्तामणि, उपदेश कन्दली, उपदेशतरंगिणी, प्रथमानयोग में क्या-क्या वर्णन है,उसका भी उन्होंने निर्देश किया भावनासागर आदि अर्धशतक रचनाओं का विवरण 'जैन साहित्य के बृहद् इतिहास' चतुर्थमाग में संकलित है। दिगम्बर साहित्य में यद्यपि बताया जा चुका है कि तीर्थंकर महावीर एक उच्च कोटिके ऐसे औपदेशिक प्रकरणों की कमी है जिनपर कथा-साहित्य रचा गया सफल कथाकार भी थे। उनके द्वारा कही गई कथाएँ आज भी हो फिर भी कुन्दकुन्द के षटप्राभृत की टीका में, वट्टकेर के 'मूलाचार' आगम-साहित्य में उपलब्ध होती हैं। कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जो मे, शिवार्य की भगवती आराधना तथा रत्नकरण्डश्रावकाचारादि की भिन्न नामों से या रूपान्तर से वैदिक व बौद्ध साहित्य में ही उपलब्ध टीकाओं में औपदेशिक कथाओं के संग्रह सुलभ होते हैं। नहीं होती अपितु विदेशी साहित्य में भी मिलती हैं। उदाहरणार्थ - कतिपय कथाकोशों का विवरण ज्ञाताधर्म कथा की ७ वीं चावल के पाँच दाने वाली कथा कुछ रूपान्तर औपदेशिक कथा साहित्य के अनुकरण पर अनेक कथाकोशों के साथ बौद्धों के सर्वास्तिवाद के विनयवस्तु तथा बाइबिल में भी का सृजन हुआ है। इनमें कतिपय कथाकोशों का संक्षिप्त नाम देना प्राप्त होती है। इसी प्रकार जिनपाल और जिनरक्षित की कहानी यहाँ समीचीन होगा। वलाहस्सजातकर व दिव्यावदान में नामों के हेर फेर के साथ कही (१) बृहत्कथा कोष (२) आराधना सत्कथा प्रबंध (३) कथाकोष गई है। उत्तराध्ययन के बारह वें अध्ययन हरि केशबल की कथावस्तु (४) कथा कोष प्रकरण (५) कथारत्न कोश (६) कथामणि कोश मातंग जातकच में मिलती है। तेरहवें अध्ययन चित्र संभूत की (७) कथा महोदधि (८) भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति (९) कल्पमंजरी कथावस्तु चित्तसंभूत जातक' में प्राप्तहोती है। चौदहवें अध्ययन (१०) ब्रतकथा कोश (११) कथावली (१२) कथा समास इषुकार की कथा हत्थिपाल जातक व महाभारत के शांतिपर्व में (१३) कथार्णव (१४) कथा रत्नाकर (१५) कथानक कोश उपलब्ध होती है। उत्तराध्ययन के नौवें अध्ययन 'नमिप्रवज्या' की (१६) कथा संग्रह (१७) पुण्याश्रव कथा कोश (१८) कुमारपाल आंशिक तुलना महाजन जातक' तथा महाभारत के शान्तिपर्व से प्रतिबंध (१९) धर्माभ्युदय (२०) सम्यक्त्व कौमुदी (२१) धर्मकल्पद्रुम होती है। इस प्रकार महावीर के कथा साहित्य का अनुशीलन परिशीलन (२२) दान प्रकाश (२३) उपदेश प्रासाद (२४) धर्मकथा। करने से स्पष्ट परिज्ञात होता है कि ये कथा कहानियाँ आदिकाल से प्राकृत जैन कथा साहित्य १६ ही एक सम्प्रदाय से दूसरे सम्प्रदाय में एक देश से दूसरे देश में कथा-कहानी साहित्य की एक प्रमुख विधा है जो सबसे अधिक यात्रा करती रही हैं। कहानियों की यह विश्वयात्रा उनके शाश्वत और लोकप्रिय और मनमोहक है। कला के क्षेत्र में कहानी से बढ़कर सुन्दर रूप की साक्षी दे रही है; जिसपर सदा ही जनमानस मुग्ध होता अभिव्यक्ति का इतना सुन्दर एवं सरस साधन अन्य नहीं है। कहानी रहा है। विश्व की सर्वोत्कृष्ट काव्य की जननी है और संसार का सर्वश्रेष्ठ मूल आगम साहित्य में कथा-साहित्य का वर्गीकरण अर्थकथा, सरस साहित्य है। कहानी के प्रति मानव का सहज व स्वाभाविक धर्मकथा और कामकथा के रूप में किया गया है। परवर्ती साहित्य आकर्षण है। फलतया जीवन का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं जिसमें में विषय, पात्र, शैली और भाषा की दृष्टि से भेद-प्रभेद किए गए कहानी की मधुरिमा अभिव्यञ्जित न हुई हो। सच तो यह है कि हैं। आचार्य हरिभद्र ने विषय की दृष्टि से अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा मानव का जीवन भी एक कहानी है जिसका प्रारम्भ जन्म के साथ और मिश्रकथा ये चार भेद किए हैं। विद्यादि द्वारा अर्थ प्राप्त करने और मृत्यु के साथ अवसान होता है। कहानी कहने और सुनने की की जो कथा है वह अर्थकथा है जिस श्रृंगारपूर्ण वर्णन को श्रवणकर श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथावाचना अज्ञानी बन कर फंसा, किया बहुत संभोग । जयन्तसेन बिना दमन, उदित हो कई रोग ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय में विकार भावनाएँ उद्बुद्ध हों वह कामकथा है। और जिससे आ जाने से मनोरंजन व कुतूहल का प्रायः अभाव था किन्तु व्याख्या अर्थ व काम दोनों भावनाएँ जाग्रत हों, वह मिश्रकथा है। ये तीनों साहित्य की कथाओं में यह बात नहीं है। आगमयुग की कथाएँ चरित्र प्रकार की कथाएँ आध्यात्मिक अर्थात् संयमी जीवन को दूषित करने प्रधान होने से विशेषविस्तार वाली होती थीं पर व्याख्या साहित्य की वाली होने से विकथा है। विकथा के स्त्रीकथा. भक्तकथा, देशकथा कथाएँ संक्षिप्त, ऐतिहासिक, अर्द्ध ऐतिहासिक, पौराणिक सभी प्रकार और राजकथा ये चार भेद और भी मिलते हैं। जैनश्रमण के लिए की हैं। विकथा करने का निषेध किया गया है। जैसा कि मैं ऊपर बता आया विमलसूरि का पउमचरिय और हरिवंसचरिय, शीलांकाचार्य का हूँ। उसे वही कथा कहनी चाहिए जिसको श्रवण कर श्रोता के अन्तर्मानस चउप्पण महापुरिसचरियं, गुणपालमुनि का जम्बूचरियं, धनेश्वर का में वैराग्य का पयोधि उछालें मारने लगे, विकार भावनाएँ नष्ट हों एवं सुरसुन्दरी चरियं, नेमिचन्द्र का रयणचूडरायचरियं, गुणचन्द्रगणि का संयम की भावनाएँ जाग्रत हों। तप संयमरूपी सद्गुणों को धारण पासनाहचरियं और महावीर चरिय, देवेन्द्र सूरि का सुंदसणचरिय और करने वाले, परमार्थी महापुरुषों की कथा, जो सम्पूर्ण जीवों का हितकरने कहाचरिय, मानतुंग सुरि का जयन्ती प्रकरण, चन्द्रप्रभमहत्तरि का वाली है, वह धर्मकथा कहलाती है। २५ पात्रों के आधार से दिव्य, चन्दकेवली चरिय, देवचन्द्रसूरि का संतिनाहचरिय, शान्तिसूरि का मानुष और दिव्यमानुष, ये तीनभेद कथा के किए गए हैं। जिन कथाओं पुहबीचन्दचरिय, मलधारी हेमचन्द्र का नेमिनाहचरिय, श्रीचन्द्र का में दिव्यलोक में रहनेवाले देवों के क्रिया कलापों का चित्रण हो और मुणिसुव्वयसामिचरिय, देवेन्द्रसूरि के शिष्य श्री चन्द्रसूरि का सणंकुमार उसी के आधार से कथावस्तु का निर्माण हो, वे दिव्य कथाएँ हैं। चरिय, सोमप्रभसूरि का सुमतिनाहचरिय, नेमचन्द्रसूरि का अनन्तग्राह मानुष कथा के पात्र मानव लोक में रहते हैं। उनके चारित्र में मानवता चरिय एवं रत्नप्रभ का नेमिनाहचरिय प्रसिद्ध चरितात्मक काव्यग्रंथ हैं।" के प्रतिनिधि होते हैं। किसी-किसी मानुष कथा में ऐसे मनुष्यों का इनमें कथा और आख्यानिका का अपूर्व संमिश्रण हुआ है। इनमें बुद्धि चित्रण भी होता है जिनका चरित्र उपादेय नहीं होता। दिव्य मानुषी माहात्म्य, लौकिक आचार-विचार, सामाजिक परिस्थिति और राजनैतिक कथा अत्यन्त सुन्दर कथा होती है। कथानक का गुंफन कलात्मक होता वातावरण का सुन्दर चित्रण हुआ है। इन चरित ग्रंथों में “कथारस" है। चारित्र और घटना परिस्थियों का विशद् व मार्मिक चित्रण, की अपेक्षा "चरित” की ही प्रधानता है। हास्य-व्यंग्य आदि मनोविनोद, सौन्दर्य के विभन्न रूप, इस कथा में मा प्राकृत साहित्य में विशुद्ध कथा साहित्य का प्रारम्भ तरंगवती एक साथ रहते हैं। इसमें देव और मनुष्य के चरित्र का मिश्रित से होता है। विक्रम की तीसरी शती में पादलिप्त सरि ने प्रस्तत कथा वर्णन होता है। शैली की दृष्टि से सकलकथा, खण्डकथा, उल्लापकथा, का प्रणयन किया। करुण, श्रृंगार और शांतरस की त्रिवेणी इसमें एक परिहासकथा और संकीर्णकथा ये पाँच भेद किय गए हैं। सकलकथा साथ प्रवाहित हुई है। इसी प्रकार की दूसरी कृति आचार्य हरिभद्र की में चारों पुरुषार्थ, नौ रस, आदर्श चरित्र और जन्म जन्मान्तरों के समराइच्च कहा है। इस कथा में प्रतिशोध भावना का बड़ा ही हृदयग्राही संस्कारों का वर्णन रहता है। जैनकथा साहित्य गुण और परिणाम चित्रण किया गया है। धाख्यान भी इरिभदसरि की एक महत्त्वपर्ण दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। जन जीवन का पूर्णतया चित्रण कृति है। भारतीय कथा साहित्य में लाक्षणिक शैली में लिखी गई उसमें किया गया है। इस वृति का स्थान मूर्धन्य है। इसप्रकार की व्यंग्यप्रधान अन्य रचनाएँ आगम साहित्य में बीजरूप से कथाएँ मिलती हैं तो नियुक्ति दृष्टिगोचर नहीं होती। भाष्य, चूर्णि और टीका साहित्य में उसका पूर्ण निखार दृष्टिगोचर कवलयमाला हरिभदसर के शिष्य उद्योतन सरि के द्वारा रचित होता है। हजारो लघु व वृहत् कथाए उनम आया ह। आगमकालान है। क्रोध, मान, माया लोभ और मोह इन विकारों का दुष्परिणाम कथाओं की यह महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि उसमें उपमाओं और बतलाने के लिए अनेक अवान्तर कथाओं के द्वारा विषय का निरूपण दृष्टान्तों का अवलंबन लेकर जन-जीवन को धर्म सिद्धान्तों की ओर अधिकाधिक आकर्षित किया गया है। उन कथाओं की उत्पत्ति, उपमान, 7 समराइच्च कहा और कुवलयमाला की परम्परा को आगे बढ़ाते रूपक और प्रतीकों के आधार से हुई है। यह सत्य है कि आगमकालीन हुए शीलांकाचार्य ने चउपन्न महापुरिसचरिय की रचना की है। इसमें कथाओं में संक्षेप करने के लिए यत्र-तत्र 'वण्णओ' के रूप में संकेत जैनधर्म के चौवन महापुरुषों के जन्मजन्मान्तर की कथाएँ गुम्फित की किया गया है जिससे कथा को पढ़ते समय उसके वर्णन की समग्रता गई हैं। जैनधर्म में महापुरुषों की संख्या तिरसठ कही गई है। लेकिन का जो आनंद आना चाहिए, उसमें कमी रह जाती है। व्याख्या साहित्य शीलांकाचार्य ने उस परम्परा से अलग यह संख्या चौवन मानी है। में यह प्रवृत्ति नहीं अपनाई गई। कथाओं में जहाँ आगम साहित्य में सुरसुन्दरीचरित्र के रचयिता धनेश्वरसूरि ने लीलावई कहा के केवल धार्मिक भावना की प्रधानता थी, वहाँ व्याख्या साहित्य में रचयिता कौतूहल के मार्ग का अनुसरण किया है। ग्रंथ की चार साहित्यिकता भी अपनायी गई। एकरूपता के स्थान पर विविधता और हजार गाथाओं में जैनधर्म के सिद्धान्तों के निरूपण की आधार शिला नवीनता का प्रयोग किया जाने लगा। पात्र, विषय, प्रवृत्ति, वातावरण, पर प्रेमकथा का प्रस्तुतिकरण विशेष महत्त्व रखता है। उद्देश्य, रूपगठन, एवं नीति संश्लेष प्रवृति सभी दृष्टियों से आगमिक कथाओं की अपेक्षा व्याख्या साहित्य की कथाओं में विशेषता व संवेग रंगशाला जिनचन्द्र रचित रूपक कथा है। संवेग भाव के नवीनता आयी है। आगमकालीन कथाओं में धार्मिकता का पुट अधिक निरूपण हेतु अनेक कथाएँ इसमें गुम्फित की गई हैं। जिनदत्ताख्यान श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथावाचना भोगी मत बन मनुज तू, मत कर जीवन नाश । जयन्तसेन समझ बिना, मानवता की लाश ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की कथा का प्रणयन आचार्य सुमतिसूरि ने किया है। कथा अत्यन्त रसद है। ४२ महेश्वसूरि ने ज्ञानपंचमी कथा में श्रुतपंचमीव्रत का माहात्म्य बताने के लिए रस कथाओं का सृजन किया है। इन कथाओं में प्रथम जयसेन कहा और अन्तिम भविसयत्त कहा महत्त्वपूर्ण है नर्मदा सुन्दरी के रचयिता महेन्द्रसूरि हैं। 'प्राकृत कथा संग्रह' में बारह कथाओं का सुंदर संकलन हुआ है। लेखक का नाम अज्ञात है सिरिवालका का संकलन रत्नशेखर सूरि ने किया है। संकलन समय से. १४२८ है । आधुनिक ४३ उपन्यास के सभी गुण प्रस्तुत कथानक में विद्यमान हैं। जिनहरि ने विक्रम संवत् १४८७ में 'रक्णसेहर निवकहा' अर्थात् रत्नशेखर नृपति कथा का प्रणयन किया। जायसी के 'पद्मावत' की कथा का मूल प्रस्तुत कथा है। डॉ. नेमीचन्द्र जैन शास्त्री इस कथा को 'पद्मावत' का पूर्वरूप स्वीकारते हैं। ४४ महिवाल कथा के रचयिता वीरदेव गणि हैं। इस ग्रंथ की प्रशस्ति से अवगत होता है कि देवभद्रसूरि चन्द्रगुच्छ में हुए थे। इनके शिष्य सिद्धसेनसूरि और सिद्धसेनसूरि के शिष्य मुनिचन्द्रसूरि थे। वीरदेवगणि मुनिचन्द्र के शिष्य थे । ४५ विण्टरनित्स ने एक संस्कृत 'महिपालचरित' का भी उल्लेख किया है जिसके रचयिता चरित्र सुन्दर बतलाये हैं। उक्त प्रमुख कथा रचनाओं के अतिरिक्त संघ तिलक सूरि द्वारा विरचित आरामसोहा कथा, पंडिअघणवाल कहा, पुण्यचूल कहा, आरोग्यदुजकहा, रोहगुत्तकहा, वज्जकण्णनिवकहा, सुहजकहा और मल्लवादी कहा, भदवाहुकहा, पादलिप्ताचार्य कहा, सिद्धसेन दिवाकर कहा, नागयत्र कहा, बाह्याभ्यन्तर कामिनी कथा, मेतार्य मुनिकथा, द्रवदंत कथा, पद्मशेखर कथा, संग्रामशूर कथा, चन्द्रलेखा कथा एवं नरसुन्दर कथा आदि बीस कथाएँ उपलब्ध हैं। देवचन्द्रसूरिका कालिकाचार्य कथानक एवं अज्ञातनामक कवि की मलया सुन्दरी कथा विस्तृत कथाएँ हैं। प्राकृत कथा साहित्य में कुछ ऐसी कथा कृतियाँ उपलब्ध होती हैं जिनका लक्ष्य कथा को मनोरंजक रूप में प्रस्तुत करना न होकर जैन मुनियों द्वारा पाठकों को उपदेश प्रदान करना रहा है। इस प्रकार की उपदेशप्रद कथाओं में धर्मदास गणि की उपदेशमाला, जयसिंह सूरि की धर्मोपदेशमाला, जयकीर्ति की शीलोपदेशमाला, विजयसिंहसूरि की मुक्त सुन्दरी, मलधारी हेमचन्द्रसूरि की उपदेशमाला, साहड की विवेक मञ्जरी, मुनिसुन्दर सूरि का उपदेशरत्नाकर, शुभवर्धन गणि की वर्धमान देशना एवं सोमविपल की दशद्दष्टान्त गीता आदि रचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। उपदेश कथाओं में उपदेश की प्रधानता है। अन्य विषय गौण हैं। ४६ अपभ्रंश जैन कथा साहित्य अपभ्रंश कथाकाव्य के वस्तुतत्त्व के विकास और अलंकरण की कुछ अपनी विशेषताएँ है ये सभी कथा काव्यों में समानरूप से उपलब्ध हैं। अपभ्रंश कथा- काव्य के निर्माता एक विशेष युग और दृष्टि से प्रभावित थे। कथा कहकर कुतूहल जगाना या मात्र मनोविनोद करना इनका लक्ष्य नहीं था। वे ऐसे कथा साहित्य की रचना करना चाहते थे, जिससे काव्यकला के विधान और उद्देश्य की पूर्ति के साथ नैतिकता और धार्मिक उद्देश्य भी प्रतिफलित हो जाएं। कोरे साहित्यकारों या धर्मवादियों की अपेक्षा इनका दृष्टिकोण कुछ उदार और लोककल्याणकारी था। कथा साहित्य की यह विरासत इन्हें परम्परा ४७ श्रीमद् जयंतसेनमरि अभिनंदन ग्रंथ / वाचना हमा से तो प्राप्त थी। इसमें प्रयुक्त कथाओं के सूत्र भारतीय पुराणों से मिलते-जुलते हैं अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य को कथा काल कहना अधिक उपयुक्त है क्योंकि इसमें कथा की मुख्यता रहती है चाहे कथा पौराणिक हो या काल्पनिक । जैन अपभ्रंश की प्रायः समस्त प्रबन्धात्मक कथाकृतियाँ पद्यबद्ध हैं और प्रायः सबके चरित नायक या तो पौराणिक है या जैनधर्म के निष्ठापूर्ण अनुयायी भाषा, छंद, कवित्व, सभी दृष्टियों से कथा कृतियाँ अपभ्रंश साहित्य का उत्कृष्ट और महनीय रूप प्रदर्शित करती है । अप्रभंश कथा साहित्य का सूत्रपात स्वयंभू से होता है उनका 'पउमचरिउ' रामकथा का जैनरूप दर्शाता है। यह संस्कृत के 'पद्मपुराण' (रविषेणकृत) और प्राकृत के विमलसूरिकृत 'पठमचरित' से उत्प्रेरित है। स्वयंभू ने इसमें अपनी मौलिक घटनाओं को भी निबद्ध किया है। पुष्पदंत प्रणीत 'तिसट्ठि महापुरिसगुणालंकारु' अर्थात् त्रिषष्टि शलाका पुरुष गुणालंकार 'महापुराण' ही संज्ञा से विख्यात है। आदि पुराण और उत्तरपुराण इन दो खण्डों में त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित शब्दित हैं। इसका श्लोक परिमाण बीस हजार है। पुष्पदंत की दूसरी कृति 'णायकुमारचरित' में नौ सन्धियाँ हैं। 'जसरहचरिउ' पुष्पदंत की चार संधियों की रचना है जो मुनि यशोधर की जीवन कथा को प्रस्तुत करती है। तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चरित्र को पद्मकीर्ति ने अपनीकृति 'पासचरित' में उनके पूर्वभवों (जन्मों) की कथा के साथ चित्रित किया है। ४९ धवल की विशाल अपभ्रंशकृति 'रिट्ठणेमिचरिउ' अर्थात् 'हरिवंशपुराण' में एक सो बाइस संधियाँ है। ५० अपभ्रंश के मध्यकालीन अर्थात् दसवीं शती के धनपाल विरचित कथाकाव्य 'भविसयत्तकहा' आध्यात्मिक चरितकाव्य है। डॉ. आदित्य प्रचंडिया 'दीति' इस कथा काव्य में धार्मिक बोझिलता न मानते हुए लैकिक जीवन के एक नहीं अनेक चित्र गुम्फित होना स्वीकारते हैं। इस कृति को 'सुयपंचमीकहा' अर्थात् श्रुतपंचमी कथा भी कहते हैं। इसमें ज्ञानपंचमी के फल-वर्णन स्वरूप भविसयत्त की कथा बाइस संधियों में है। कथा का मूलस्वर व्रतरूप होते हुए भी जिनेन्द्रभक्ति से अनुप्राणित है । ५२ वीर कवि की अपभ्रंश कृति 'जंबूसामिचरिउ' में जैनधर्म के अंतिम केवली जंबूस्वामी का चरित ग्यारह सन्धियों में कहा गया है। इसका रचनाकाल विक्रम संवत् १०७६ है । वीर कवि की इस कृति में ऐतिहासिक महापुरुष जंबूस्वामी के पूर्वभवों तथा उनके विचारों और युद्धों का वर्णन अभिव्यज्जित है। इसमें समाविष्ट अन्तर्कथाएँ मुख्यकथावस्तु के विकास में सहायक बन पड़ी हैं । ५३ पंचपरमेष्ठि नमस्कार महामंत्र के महत्त्व को दर्शाया है विक्रम संवत ११०० के प्रणेता नयनंदी ने अपनी बारह संधियों वाली रचना 'मुदंसणचरिउ' में। सुदर्शन का चरित शीलमाहात्म्य के लिए जैनजगत में विख्यात है । ५४ ग्यारहवीं शती के दिगम्बर मुनि कनकामर की कृति ‘करकण्डचरिउ’ दस संधियों की रचना है। जिसमें करकंडु की मुख्य कथा के साथ साथ नौ अवांतर कथाएँ हैं जो जैनधर्म के सदाचारमय जीवन को तथा राजा को नीति की शिक्षा देने के लिए वर्णित हैं। कथा के प्रसार और वर्णन में व्यापकता है। इस कृति की कथा में लोक कथाओं की झलक द्रष्टव्य है ।" ५५ ३१ विषय विलासी जीव को, नहीं धर्म का राग जयन्तसेन पतंग को, दीपक से अनुराग ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाहिल की चार संधियों की रचना 'पउमसिरी चरिउ' में पंचाणुव्रत कथाओं में सहजरूप में प्राप्त हो जाती है। हिन्दी जैन साहित्य में का माहात्म्य बताया गया है। संस्कृत और प्राकृत की कथाओं का अनेक लेखकों और कवियों ने अपभ्रंश जैन कथा साहित्य में श्रीचन्द का महनीयस्थान है। अनुवाद किया है। एकाध लेखक ने पौराणिक कथाओं का आधार उनका तिरपन संधियों का उपदेश प्रधान कथा संग्रह 'कथाकोश' लेकर अपनी स्वतंत्र कल्पना के मिश्रण द्वारा अद्भुत कथा साहित्य अपभ्रंश कथा साहित्य में मील का पत्थर सिद्ध होता है। बारहवीं का सृजन किया है। इन हिन्दी कथाओं की शैली बड़ी ही प्रांजल, शती के उत्तरार्ध और तेरहवीं के प्रारम्भ के रचयिता श्रीधर की तीन सुबोध और मुहावरेदार है। ललित लोकोक्तियाँ, दिव्य दृष्टान्त और रचनाएँ-सुकुमाल चरिउ, पासणाह चरिउ, और भविसयत्तचरिउ भाषा, सरस मुहावरों का प्रयोग किसी भी पाठक को अपनी ओर आकृष्ट शैली और कथा की दृष्टि से परम्परा का अनुमोदन करती हैं। देवसेनगणि करने के लिए पर्याप्त है.” की अट्ठाइस संधियों की 'सुलोचनाचरिउ' कृति, सिंह की पन्द्रह सन्धियों वा अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी द्वारा प्रणीत १११ भागों की 'पज्जुण्णचरिउ' कृति, हरिभद्र की 'णेमिणाहचरिउ', जिसमें संगृहीत में संकलित कहानियाँ अनेक दृष्टिकोण से महनीय हैं। एक सौ ग्यारह 'सनत्कुमारचरित' दृष्टि पथ पर आता हैं जो कथानक की दृष्टि से पूर्ण भागों में विभक्त उपाध्यायश्री की ये जैन कथाएँ कथा साहित्य की स्वतंत्र रचना प्रतीत होती है तथा धनपाल द्वितीय की 'बाहुबलिचरिउ' महत्ता में चार चाँद लगाती हैं। व्यावहारिक जगत में वस्तु के सहीरूप आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त पन्द्रहवीं शती के उत्तरार्ध को जानना, उस पर विश्वास करना और फिर उस पर दृढ़ता पूर्वक तथा सोलहवीं शती के पूर्वार्ध के रचनाकार रइधू की कथात्मक रचनाएँ आचरण करना-जीवन निर्माण, सुधार और उन्नत बनाने का राजमार्ग - पासणाहचरिउ, सुकोसलचरिउ, धण्णकुमारचरिउ, सम्मितनाहचरिउ प्रशस्त करती है। यदि ठाणं की शैली में कहूँ तो - दर्शन एक है। - महत्त्वपूर्ण हैं। नरसेन की 'सिखिलचरिठ', हरिदेव की - सम्यग्दर्शन - १, ज्ञान एक है - सम्यग्ज्ञान - १, और चारित्र एक मयणपराजयचरिउ; यशकीर्ति की चंदप्पहचरिउ, माणिक्यराज की है - सम्यक् चारित्र - १। इस प्रकार तीनों मिलकर बने १११ और 'णायकुमार चरिउ और अमरसेनचरिउ' कृतियाँ परम्परा से चली आ सम्यग्दर्शन ज्ञान-चरित्र की त्रिपुटी सीधा मुक्ति का सर्वकर्मक्षय का रही कथाओं पर आधृत हैं सिवाय 'मयणपराजयचरिठ' के ये प्रतीकात्मक मार्ग है, धार्मिक जगत में। इस दृष्टि से जैन कथाओं के समस्त भागों और रूपकात्मक कथाकाव्य हैं। में संकलित कथाएँ धार्मिक तो हैं ही, साथ ही जीवन निर्माण में भी अपभ्रंश का कथा साहित्य प्राकृत की ही भांति प्रचुर तथा समृद्ध भरपूर सहायक हैं। है।"" अनेक छोटी-छोटी कथाएँ व्रत सम्बन्धी आख्यानों को लेकर उपसंहार या धार्मिक प्रभाव बताने के लिए लोकाख्यानों को लेकर रची गई हैं। विश्व के वाङ्मय में कथा साहित्य अपनी सरसता और सरलता अकेली रविव्रत कथा के सम्बन्ध में अलग-अलग विद्वानों की लगभग के कारण प्रभावक और लोकप्रिय रहा है। भारतीय साहित्य में भी एक दर्जन रचनाएँ मिलती हैं। केवल भट्टारक गुणभद्र रचित सत्रह कथाओं का विशालतम साहित्य एक विशिष्ट निधि है। भारतीय कथा कथाएँ उपलब्ध हैं। इसी प्रकार पंडित साधारण की आठ कथाएँ तथा साहित्य में जैन एवं बौद्ध कथा साहित्य अपना विशिष्ट महत्त्व रखते मुनि बालचन्द्र की तीन एवं मुनि विनयचन्द्र की तीन कथाएँ मिलती हैं। श्रमण परम्परा ने भारतीय कथा साहित्य की न केवल श्रीवृद्धि की हैं। अपभ्रंश की इन जैन कथाओं के अनुशीलन से मध्यकालीन है अपित उसको एक नई दिशा दी है। जैन कथा साहित्य का तो भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का परिज्ञान होता है। मूललक्ष्य ही रहा है कि 'कथा के माध्यम से त्याग, सदाचार, नैतिकता हिन्दी जैन कथाओं के दो रूप हमें प्राप्त होते हैं। प्रथम रूप आदि की कोई सत्प्रेरणा देना।' आगमों से लेकर पुराण, चरित्र, काव्य, है विभिन्न भाषाओं से अनूदित कथाएँ और दूसरा रूप है मौलिकता, रास एवं लोककथाओं के रूप में जैन धर्म की हजारों-हजार कथाएँ जो पौराणिक कथाओं के माध्यम से अभिव्यञ्जित हुआ है। आज विख्यात हैं। अधिकतर कथा साहित्य प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, बहुत से सुविज्ञों ने जैन पुराणों की कथाओं को अभिनव शैली में गुजराती एवं राजस्थानी भाषा में होने के कारण और वह भी गद्य-बद्ध प्रस्तुत किया है और इस दिशा में सतत निमग्न हैं। डॉ. नेमिचन्द्र होने से बहुसंख्यक पाठक उससे लाभ नहीं उठा सकता। जैनकथा जैन के कथनानुसार “जैन आख्यानों में मानव जीवन के प्रत्येक साहित्य की इस अमूल्य निधि को आज की लोक भाषा - राष्ट्रभाषा रूप का सरस और विशद् विवेचन है तथा सम्पूर्ण जीवन चित्र विविध हिन्दी के परिवेश में प्रस्तुत करना अत्यन्त आवश्यक है। इस दिशा परिस्थिति-रंगों से अनुरंजित होकर अंकित है। कहीं इन कथाओं में में एक नहीं कई सुन्दर प्रयास भी प्रारम्भ हुए हैं पर अपार अथाह ऐहिक समस्याओं का समाधान किया गया है तो कहीं पारलौकिक कथा-सागर का आलोड़न किसी एक व्यक्ति द्वारा सम्भव नहीं है। जैसे समस्याओं का। अर्थ नीति, राजनीति, सामाजिक और धार्मिक जगन्नाथ के रथ को हजारों हाथ मिलकर खींचते हैं, उसी प्रकार प्राचीन परिस्थितियों कला कौशल के चित्र, उत्तुंगिनी अगाध नद-नदी आदि कथा-साहित्य के पुनरुद्धार के लिए अनेक मनस्वी चिन्तकों के भूवृत्तों का लेखा, अतीत के जल-स्थल मार्गों के संकेत भी जैन दीर्घकालीन प्रयत्नों की अपेक्षा है। लेकिन इसी आवश्यकता की पूर्ति कथाओं में पूर्णतया विद्यमान हैं। ये कथाएँ जीवन को गतिशील, हेतु पूज्य गुरुदेव श्री पुष्करमुनि जी महाराज ने वर्षोंतक इस दिशा में हृदय को उदार और विशुद्ध एवं बुद्धि को कल्याण के लिए उत्प्रेरित महनीय प्रयास किया है। करती हैं। मानव को मनोरंजन के साथ जीवनोत्थान की प्रेरणा इन। श्रीमद जयंतसेनसूरि अभिनंदन पंच/वाचना Jain Education intomational क्रोध भयंकर आग है, समझो जयन्तसेन । हिंसा ताण्डव यह करे, तन मन सब बेचैन । Iww.jainelibrary.org Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ऋग्वेद के मंत्र १ सूक्त २४/२५, मंत्र ३०॥ २ छान्दोग्य उपनिषद ४/१/३ ३ हरियाना प्रदेश का लोकसाहित्य, डॉ. शंकरलाल यादव, पृष्ठ ३३९ तथा ३४०। जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, श्रीचन्द्र जैन, पृष्ठ २८॥ वही, पृष्ठ ११॥ अभ्यर्थना, जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन श्रीचन्द्रजैन, पृष्ठ ११॥ आजकल, लोककथा अंक, पृष्ठ ११॥ हरियाना प्रदेश का लोकसाहित्य, डॉ. शंकरलाल यादव, पृष्ठ ३४६ । दीर्घ निकाय १८ (क) लोक कथाएँ और उनका संग्रहकार्य, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, आजकल, लोककथा अंक, पृष्ठ ९। (ख) जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, श्री चन्द्रजैन, पृष्ठ ३३। ११ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ६, डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी, पृष्ठ २३१॥ १२ जैनकथाओं का सास्कृतिक अध्ययन, श्री चन्द्रजैन, पृष्ठ ३३॥ १३ जैनकथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, श्री चन्द्रजैन, पृष्ठ ३४॥ १४ नौका और नाविक, देवेन्द्र मुनिशास्त्री, पृष्ठ ८-९। १५ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ६, डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी, पृष्ठ२३३-२३४। १६ साहित्य और संस्कृति, देवेन्द्र मुनिशास्त्री, पृष्ठ ७६-८८। १७ नन्दीसुत्र ५, पृष्ठ १२८, पू. हस्तीमलजी महाराज १८ दोविये आगम साहित्य : रणू वयवेक्षण का ५१ वा टिप्पण। १९ (अ) पदम मिच्छादिडिढ अव्वदिकं आसिदूण पडिवज्ज। अणुयोगो अहियारो युत्तो पढमाणुयोगो सो॥ चउबीसं तित्थयरा पइणो बारह छखंडमरहस्स। णव बलदेवा किण्हा णव पडिसूत्र पुराणाई। तेसि वणंति पियामाई णयाणि तिण्ह पुत्वभवे। पंचसहस्सपयाणि य जत्थ हु सो होदि आहियाये। -अंगपण्णती - द्वितीय अधिकार गाथा ३५-३७ दिगम्बर आचार्य शभचन्द्र प्रणीत। (ब) तित्थयर चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेव पडिसत्तू। पचसहस्सपयाण एस कहा पढम अणिओगो। - श्रुतस्कंध गा. ३१ आचार्य ब्रह्महेमचन्द्र। २० सेंट मेंथ्यू की सुवार्ता २५, सेंट ल्यूक की सुवार्ता १९॥ २१ ज्ञाता धर्मकथा ९ २२ वलाहस्स जातक पृष्ठ १९६॥ २३ जातक (चतुर्थखण्ड) ४९७ मातंगजातक पृष्ठ ५८३-९७। २४ जातक (चतुर्थखण्ड) ४९८ चित्रसंभूतजातक, पृष्ठ ५९८-६०८। २५ हस्थिपाल जातक ५०९। २६ शान्तिपर्व अध्याय १७५ एवं २७७। २७ महाजन जातक, ५३९ तथा सोतक जातक सं. ५२९॥ २८ महाभारत, शान्तिपूर्व अध्याय १७९ एवं २७६। २९ तिविहा कहा पणता तं जहा - अत्थकहा - धम्मकहा कामकहा। -ठाणांगठाणासुत्र १८९।। ३० (क) अत्थकहा कामकहा धम्मकहा चेव मीसिया य कहा। एतो एक्केक्कवि य योगविहा होइ नायव्या॥ - दशवैकालिक हारिभद्रीय वृत्ति गा १८८ पृ. २१२। (ख) एत्थ सामनओ चत्तारि कहाओ हवंति। तं जहा - अत्थकहा, कामकहा, धम्म कहा, संकिग्णकहा। - समराइच्चकहा, याकोबी संस्करण, पृष्ठ २। ३१ विद्यादिभिरर्थस्तप्रधाना कथा अर्यकथा। - अभिधान राजेन्द्रकोश भाग-३, पृष्ठ ४०२। ३२ सिंगारसुतुइया, मोहकुविय फुफुगाहसहसिं ति। जं सुणमाणस्स कहं, समणेण ना सा कहेयव्वा ॥२१८॥ - अभिधान राजेन्द्रकोष ३३ (i) जो संजओ पमत्तो, रागद्दोसवसगओ परिकहेइ। साउ विकहापवयणे, पणता धीरपूरीसेहि।२१७ अभिधान रा.को. (ii) विरूद्धा विलष्टा वा कथा विकथा। आचार्य हरिभद्रा ३४ पडिक्कमामि चउहि विकहाहि - इत्थी कहाए, भत्तकहाएं, देश कहाए रायकहाए। -आवश्यक सूत्र ३५ समणेण कहेयव्वा, तव नियम कहा विरागसंजुत्ता। जं सोऊण मणूसो, वच्चइ संवेगाणिव्वेयं॥ - अभिधान राजेन्द्रकोष भा.३ पृष्ठ ४०२. गा. २१९ ३६ तव संजमगुणधारी, चरणरया कहिंति सम्भाव। सव्वजगजीवहियं सा उ कहा देसिया समए॥ -अभिधान राजेन्द्रकोष गा. २१६, पृष्ठ ४०२। भाग ३ ( दिव्य, दिव्बमाणुस, माणुस च। तत्थ दिव्य नाम जत्व केवलमेव देवचरिअं वणिज्जई समराइच्चकहा याकोवी संस्करण पृ. २१ (ii) तं जहा दिव्य - माणसी तहच्चेय। लीलावई गा. ३५॥ (iii) एमेय मुद्ध जुबई भणोहरं पय्ययाए भासाए। पविरलदेसिसुलक्खं कहसु कह दिव्व माणुसियं॥ - लीलावई गा. ४१, पृष्ठ ११।। ३८ ताओ पुण पंचकहाओ। तं जहा - सयलकहा खंडकहा, उल्लावकहा, परिहासकहा, तहावरा कहिय त्रि संकिगण कहति। - कुवलयमाला पृष्ठ ४, अनुच्छेद ७॥ ३९ समस्तफलान्तेति वृत्तवर्णाना समादित्यवत् सरलकथा। - हेमकाव्यशब्दानुशासन ५/९| पृष्ठ ४६५। ४० मरुकेसरी अभिनन्दन ग्रंथ, खण्ड ४ पृष्ठ १९४ ४१ प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. नेमिचन्द्रशास्त्री पृष्ठ ४८६-४८८ नम्मया सुन्दरी कहा, सिंधी ग्रंथमाला से ग्रंथांक ४८ में प्रकाशित। ४३ सिरिवज्जसेण गणहरपट्टपरहेम तिलय सूरिण। सीसेहिं रयणसेहर सूरीहिं इमाहु संकलिया। चउदस अट्टाठीसो....... सिरिवाल कहा प्रशस्ति। ४४ इतिहास. डॉ. नेमिचन्द्रशासी, पृष्ठ ५१०-५१३। प्राकृत कथा साहित्य, प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. नमिचन्द्र जैनशास्त्री, ५१३-५१५ ४६ प्राकृत कथा साहित्य, प्राकृत भाषा और साहित्य २४ आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. नेमिचन्द्र जैन शास्त्री, पृष्ठ ५१७। ४७ अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ ८५-८६। ४८ अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, आगरा विश्वविद्यालय की डी. लिटू,, उपाधि का शोधप्रबन्ध, सन १९८८, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' पृष्ठ ४२-४४॥ अपभ्रंश वाङ्मय में भगवान पार्श्वनाथ डॉ. आदित्य प्रचंडिया 'दीति' तुलसी प्रज्ञा, जैन विश्वभारती लाडनू, खण्ड १२ अंक २ सितम्बर ८६ पृष्ठ ४५।। केटेलोग आव संस्कृत एण्ड प्राकृत मेन्युस्क्रिप्टस्, ईन द सी. पी. एण्ड बरार, सम्पा. डॉ. हीरालाल जैन, पृष्ठ ७१६, ७६२, ७६७ तथा भूमिका, पृष्ठ ४८-४९। जैन साहित्य और इतिहास, नाथुराम प्रेमी, पृष्ठ ४२३।। अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, पृष्ठ ४७-४८॥ भविसयत्त कहा का साहित्यिक महत्त्व, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, जैनविद्या, अंक ४, १९८६, पृष्ठ ३० अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, पृष्ट ४८। जंबू सामिचरिउ का साहित्यिक मूल्यांकन, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, जैन विद्या, अप्रेल १९८७, पृष्ठ ३३-४०॥ सुंदरणचरिउ का साहित्यिक मूल्यांकन, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, जैन विद्या, अक्टूबर १९८७, पृष्ठ १-११॥ ५५ मुनि कनकामर व्यक्तित्त्व और कृतित्व, डॉ. (श्रीमती) अलका प्रचण्डिया दीति; जैनविद्या, मार्च १९८८, पृष्ठ १-७। अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति; पृष्ठ ५२-५३।। ५७ वही, पृष्ठ ५५ से ५६ तक। ५८ भविसयत्त कहा तथा अपभ्रंश कथा काव्य, डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री ५९ अपभ्रंश और साहित्य की शोधप्रवृत्तियाँ, डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, पृष्ठ ३४॥ ६० हिन्दी जैन साहित्य - परिशीलन, भाग २, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ ७७। (पृष्ठ १९ का शेष भाग) अहिंसा के महान् व्रत और असाधारण सिद्धांत का मानव जीवन के लिये व्यवहारिक तथा क्रियात्मक रूप देने के लिये दैनिक क्रियाओं संबंधी और जीवन संबंधी अनेकानेक नियमों तथा विविध विधानों का भी जैन धर्म ने संस्थापन एवं समर्थन किया है, जो महावीर की देन है। जिन्हें बारह व्रत एंव पंच महाव्रत भी कहते हैं। जिनका तात्पर्य यही है कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति में इस प्रकार मानव शांति बनी रहे और सभी को अपना विकास करने का सुन्दर एवं समुचित संयोग प्राप्त हो। उन्होंने साध धर्म व गृहस्थ धर्म का अलग-अलग निरूपण किया। जाति भेद व लिंग, रंग, भाषा, वेश, नस्ल, वंश और काल का कृत्रिम भेद होते हुए भी मूल में मानव-मात्र एक ही है, यह है महावीर की अप्रतिम और अमर घोषणा, जो कि जैन धर्म की महानता को सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा देती है। भगवान् महावीर के ये सिद्धान्त भारत के लिए ही नहीं, किन्तु समस्त विश्व के लिए एक अनोखी देन हैं। इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर मनुष्य जाति के सुखी भविष्य की आशा की जा सकती है। सामाजिक विषमताओं का उन्मूलन, धार्मिक कदाग्रहों व संघर्षों का शमन एवं राजनैतिक तनावों की कमी केवल इन्हीं आदर्श सिद्धान्तों के सहारे की जा सकती है। इन सिद्धान्तों का प्रचार भगवान् महावीर ने भारत भूमि पर किया। इसलिये हम उस युग को - महावीर युग को - भारतीय जीवन दर्शन का स्वर्णयुग कह सकते हैं। आज महावीर के उपदेशों पर चलें तो विश्व में शांति हो सकती है। * श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना ३३ क्रोध अग्नि को दूर कर, बनो सदा तुम धीर । जयन्तसेन सुखद जीवन, पूर्ण तया गंभीर ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो आयरियाणं । (श्री अभिधानराजेन्द्रकोषस्य आयरिय शब्दस्य व्याख्यानुसारेण) संकलनकर्ता - मुनिराज जयानंदविजयजी जिणाण आणम्मि मणं हिजस्स, णमो णमो सूरि दिवायरस्स। छत्तीसबग्गेण गुणायरस्स, आयारमग्गं सुपसायस्स॥१॥ सूरिवरा तित्थयरा सरीसा, जिणिन्द मग्गं मिणयंति सिस्सा। सुत्तत्थ भावाण समं पयासी. ममं मंणसि वसिओ णिरासी॥२॥ ॥ श्रीमद् राजेन्द्रसूरीणांकृतः श्री नवपदपूजायां॥ ॥ आचार्याणां नमस्कारः॥ “आयार देसणाओ पुज्जा परमोवगारिणो गुरवो" पूज्या: परमोपकारिणो गुरवः स्वयमाचारपरत्वात्, परेभ्यश्चाऽऽचारदेशनादिति। । “अ. रा. कोष. तृतीय भाग पृ. १८३९॥ "नमस्यता चैषामाचारोपदेशकतयोपकारित्वादिति" "भगवतीसूत्र शतक १ उद्देश १" - "आचार्य नमस्कारे फलं यथा" आयरिय नमोक्कारो, जीवं मोएइ भवसहस्सातो। भावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए॥ १॥ आयरिय नमोक्कारो, धन्नाणभवक्खयं करेंताणं। हिययं अणुमोयंतो, विसोत्तिया वारतो होई॥ २॥ आयरिय नमोक्कारो, एवं खलुवणित्तोमहत्थोत्ति। जो मरणं मिउवग्गे, अभिक्खणं कारए बहुसो॥ ३॥ आयरिय नमोक्कारो, सव्व पावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, तइयं हवइ मंगलं॥ ४॥ "आचार्यशब्दस्य व्याख्या आचर्यते असावाचार्यः सूत्रार्थावगमार्थ मुमुक्षुभिरासेव्यते इत्यर्थः। आ-मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चर्य्यन्ते-सेव्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशकतया तदाकांक्षिभिरित्याचार्याः। उक्तं च सुत्तत्थविऊ लक्खण-जुत्तो गच्छस्स मेढि भूओ य। गणतत्तिविप्पमुक्को अत्यं वाइए आयरिओ॥ १॥ अथवा आचारो-ज्ञानाचारादिः पञ्चधा, आ-मर्यादया वाऽऽ चारो-विहार: आचारस्तत्र साधवः स्वयंकरणात्प्रभाषणात्प्र दर्शनाच्चेत्याचार्याः। आह च (आवश्यक - निर्युक्तौ) पंचविहं आयारं, आयरमाणा तहा पयासंता। आयारं देसंता आयरिया तेणकच्चंति॥ ९९४॥ अथवा आ-ईषद् अपरिपूर्णा इत्यर्थः चाराः हेरिका ये ते आचारा: चारकल्पा इत्यर्थः युक्ताऽयुक्त विभाग निरूपणनिपुणा विनेया अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतयेत्याचार्याः। "भगवतीसूत्रस्यप्रथमशतकस्य प्रथमोद्देशे" "चर्" गतिभक्षणयोः आङ् पूर्वः। आचर्यते कार्यार्थिभिः सेव्यते इत्याचार्य:। आ.नि. आङ् मर्यादाभिविध्योः चरिर्गत्यर्थः मर्यादयाचरन्तीत्याचार्याः आचारेण वाचरन्तीत्याचार्याः। आ. चूर्णि। "आचार्य पदस्य निक्षेपः" नाम ठवणा दविए भावे चउविहोय आयरिओ। दव्वंमि एग भविआइ, लोइए सिप्पसत्थाई। इह नाम स्थापने सुगमे। द्रव्यविचारे पुनराह आगम दव्वायरिओ, आयार वियाणओ अणुवउत्तो। नो आगमओ जाणय-भव्वसरीराइरित्तोऽयं॥ ३१९१॥ भविओबद्धाऊ अभि-मुहो मूलाइ निम्मिओवाऽवि। अहवा दव्वबभूओ दव्व निमित्तायरणओवा॥ ३१९२॥ शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तस्त्वाचार्योऽयंकः इत्याह - एक : भविको, बद्धायुष्क: अभिमुखनामगोत्रश्चेत्यर्थः। तथा मूलगुण निर्मित: उत्तरगुणनिर्मितश्च तद्व्यतिरिक्तोद्रव्याचार्यो मन्तव्यः। तत्र मूलगुणनिर्मित आचार्यशरीरनिवर्तनयोग्यानि द्रव्याणि उत्तरगुणनिर्मितस्तु तान्येव तदाऽऽकारपरिणतानीति। अथवा द्रव्यभूतोऽप्रधान आचार्य्यस्तद्व्यतिरिक्तो द्रव्याचार्यः प्रतिपाद्यते। यो वा द्रव्यनिमित्तेनाचरतिम चेष्टतेस द्रव्यनिमित्तातरणाद् द्रव्यनिमित्तेनाचरणाद्रव्याचार्यः। स च लौकिकोलौकिकमार्गेण शिल्पशास्त्रादि विज्ञेयः। य: शिल्पानि निमित्तादिशास्त्राणि च ग्राहयति स इहोपचारात: शिल्पशास्त्रादिरुक्तः। अन्ये त्विमं शिल्पशास्त्राचार्य्य लौकिकं भावाचार्य व्याचक्षते। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन अंथ/वाचनाना ३४ क्रोध आगमें जो गया, उस के सद्गुण नाश । जयन्तसेन दूर रहो, होगा स्वतः विकास ॥ For Private & Personal use only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यत्वयोग्यताया अभावादप्रधानाऽऽचार्यः॥ पञ्चाशक: ६ वि. कुमत्यादिनिवारकत्वेन परमहितकर्तृत्वात् मोक्षप्राप्तिहेतु"भावायरियस्य व्याख्या" ज्ञानादिरत्नत्रयलंभकत्वेनमोक्षदायक इति। लोउत्तरिओ - जो पंचविधंणाणादियं आयारं आयरति, प्रभासति स एव भव्वसत्ताणं चक्खुभूए वियाहिए। य अण्णेसिं आयरियाणं आचरितव्यानि दर्शयति। तेण ते भावयरिया। दंसेइ जो जिणुदिट्ठि अणुट्ठाणं जह ट्ठि॥ पञ्चविधस्याचारस्य स्वयमाचरणतः परेषांच प्रभाषणतः तथा स एवाचार्यों भव्यसत्त्वानां मोक्षगमनयोग्य-जंतूनांचक्षुर्भूतो विनेयानां वस्तु प्रत्यूप्रेक्षणादि क्रियाविधेर्दर्शनतो ये परात्मनो मोक्षार्थं नयनतुल्यो व्याहृतः कथितो जिनादिभिः। सःको यो देशितारस्ते भावाचारोपयुक्तत्वाद्भावाचार्य्यामा इति। अथवा जिनोद्दिष्टमाप्तोक्तमनुष्ठानं मोक्षपथप्रापकरलत्रयाराधनमित्यर्थः यथा स्वयंयस्मादाचरन्ति सदनुष्ठानम्, आचरयन्तिचान्यैः। अथवा स्थितमवितथं दर्शयति कुमतिनिराकरणेन प्रकटीकरोतीति। आचर्य्यन्तेमर्यादया अभिगम्यन्ते यतो मुमुक्षुभिरिति यदुक्तमेतत्तात्पर्य- "भावायरियस्य लक्षणानि = (गुणानि)" मित्यर्थः तेनाऽऽचार्याः। किंचि आयरियं आयारि कुसलं एवं संजम पवयण संगह "भावयरिया तित्थयरसमा" उवग्गह कप्पववहार पन्नत्तिदिठ्ठिवायससमयपरसमयकुसलं ओयंसिं तेयंसिं तित्थयरसमोसूरी संमं जो जिणमयं पयासेई। वच्चंसिं जसंसिं दुद्धरिसं अलहुगचित्तं जितक्कोहं पयारं जितिंदियं सः सूरिस्तीर्थंकरतुल्यसमः सर्वाचार्यत्गुणयुक्ततया जीवितासं समरणभयविप्पमुक्कं जियपरिस्सहं पुक्खर पत्तमिव णिरुव सुधर्मादिवत्तीर्थकंरकल्पोविज्ञेयः। न च वाच्यं चतुस्त्रिंशदतिशयादिगुण लेवं, वायुमिव, अप्पडिबद्धं पव्वयमिव, णिप्पकंपं, सागरमिव, विराजमानस्यतीर्थंकरस्योपमा सूरेस्तद्विकलस्यानुचिता। यथा तीर्थकरोऽर्थं अक्खोभ, कुम्मोइव गुतिंदियं, जव्वकणगमिव जायतेयं, चन्दमिव सोम्म, भाषते एवमाचार्योऽप्यर्थमेव भाषते तथा। यथा तीर्थंकर सूरमिव दित्ततेयं, सलिलमिव सव्व जगणिव्वुइकरं, गगणमिव उत्पत्रकेवलज्ञानोऽभिक्षार्थं न हिंडते एवमाचार्योऽपि भिक्षार्थं न हिंडते। अपरिमितणाणं एवमाइगुणा आवश्यक चूर्णी। एवं यः सम्यग् यथास्थितं जिनमत-जगत्प्रभुदर्शनं नयसप्तकात्मकं भव्यानां "गणि (आचार्य) संपया" । दर्शयति। इत्याद्यनेकप्रकारैस्तीर्थंकरानुकारित्वस्य सर्वातिशयत्वस्य दामा यस्याचार्यस्य साधूनां समुदायाऽस्ति स आचार्यः तस्याचार्यस्य परमोपकारित्वादेश्च ख्यापनार्थं तस्य न्याय्यतरत्वात्। किंच श्रीमहानिशीथे सम्पत् समृद्धिभावरूपा सा गणिसम्पद् शास्त्रो स्थानांगसूत्रेऽष्टम पंचमाध्ययनेऽपि भावाचार्यस्य तीर्थंकर साम्यमुक्तं - ठाणायामष्टप्रकारेण वर्णितम् तस्य विवरणम्। (अ. राजेन्द्रकोषस्य तृतीय गोयमा! चउव्विहा आयरिया भवंति, तं जहा - १ नामायरिया, भागे ८२६ पृष्ठे अस्ति।) २ ठवणायरिया ३ दव्वायरिया ४ भावायरिया तत्थणं जे ते भावायरियादी गणिसंपया अट्ठविहापणत्ता - तं जहा आयारसंपया', ते तित्थयरसमा चेव दट्ठव्वा तेसिं संतियाणं णाइक्कमेज्जा, से भयवं सुयसंपया, सरीरसंपया, वयणसंपया, वायणासंपया', मइसंपया', कमरे णं ते भावायरिया भन्नति गोयमा! जे अज्जपव्वइए वि आगमविहीए योगसंपया, संगह परिणा अट्ठमा। एवं पए पए आणाणुसंवरंति ते भावायरिया। अशा गण: समुदायो भूयानतिशयवान् वा गणानां साधूनां यस्यास्ति स जे समं समुवसियसुगुरु हिंतो संपत्तं अंगोवंगाई सुत्तत्थेसु गणी आचार्यस्तस्य सम्पद् समृद्धि भावरूपी गणीसम्पत्. तत्राचरण परिच्छियच्छेय गंथा ससमय परसमयणिच्छया माचारोऽनुष्ठानं स एवं संपद्दिभूतितस्य वा सम्पत् सम्पत्ति: परोवयारकरणिक्कभल्लिच्छया। जणजोगविहीए अणुओगं करिति ते प्राप्तिराचारसम्पत्। सा च चतुः -संयमधुवयुक्तताचरणे नित्य गाहावइकरंडसमा। समाध्युपयुक्ततेत्यर्थः। असम्पग्रह आत्मनो जे गणहरा चउदसपुव्विणो वाघडाओ घडसयं, पडाओ पडसयं, जात्याधुत्सेकरूपग्राहवर्जनमितिभावः । अनियतवृत्तिनियतविहार इच्वाइंविहाई सययंमणिया ते रायकरंडसमा। गाहावइकरंडसमाणे इत्यर्थः । वृद्धशीलता वपुर्मनसोर्निर्विकारतेति यावत् । एवं श्रुत संपत् रायकरंडसमाणे दो वि आयरिए तित्थपरसमाणे। अंगचूलिकायां साऽपि चतुर्द्धा तद्यथा = बहुश्रुतता युगप्रधानागमतेत्यर्थः । परिचित विहिणा जो उ चोएइ सुत्थं अत्यं च गाहइ। सूत्रता। विचित्रसूत्रता स्वसमयपरसमयादिभेदात् । सो धनो सो अपुणो अ सबन्धुमुक्खदायगो॥ घोषविशुद्धिकरत्वाच्चता च उद्दात्तादिविज्ञानादिति । शरीर सम्पत् यः आचार्य: आगमोक्तप्रकारेण शिष्यगणं कृत्यकरणादौ प्रेरयति, चतुर्द्धा आरोहपरिणाहयुक्तता उचितदैर्ध्यविस्तारता इत्यर्थः । तथासूत्रमाचारांगादि - श्रुतविधिनेत्यस्यात्रापि सम्बन्धनात् व्यवहार - अनवत्राप्यता अलज्जनीयाऽङ्गतेत्यर्थः। परिपूर्णेन्द्रियता। दशमोद्देशकाद्युक्तेन विधिना ग्राहयति पाठयति सूत्रापाठान्तरं तस्य नियुक्ति स्थिरसंहनताचेति । वचनसम्पच्चतुर्द्धा आदेयवचनता'। मधुरवचनता। - भाष्यचूर्णि - संग्रहणीवृत्ति टिप्पनकादिपरंपरोपलब्धमर्थं च विधिनेत्यस्या अनिश्रितवचनता। मध्यस्थवचनेत्यर्थः । वाचना संपच्चतुर्द्धा तद्यथा = त्राप्यभिसम्बंधनात् “सुत्तत्थो खलु पढमोबिओ" इत्यादिना श्रीभगवती विदित्वोद्देशनं विदित्वा समुद्देशनं परिणामिकादिकं शिष्यं सूत्र पञ्चविंशतितमशतक तृतीयोद्देशक नंदीसूत्रावश्यक नियुक्त्याधुक्तेन ज्ञात्वेत्यर्थःरापरिनिर्वाप्यवाचनापूर्वदत्तालापकानधिगमय्य शिष्यं - पुनः विधिनैव ग्राहयति बोधयति अथवा सूत्रमर्थं च विधिना गाहते निरंतरं सूत्रदानमित्यर्थः। अर्थनिर्यापणा अर्थस्यपूर्वापरसाङ्गत्येन स्वयमभ्यस्यतीत्यर्थः। स आचार्योधन्यः पुण्यवान् पवित्रात्मैव बंधुरिवबन्धुः गमनिकेत्यर्थः। । मतिसंपच्चतुर्की अवहाऽपायधारणा - भेदादिति। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथावाचना क्रोध परस्पर में करे, प्रीति भक्ति का नाश । जयन्तसेन छोड़े यदि, सगुण देत प्रकाश ॥ Jain Education Interational Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोगसम्पच्चतुर्द्धा इह च प्रयोगो वादविषयसूत्रात्मपरिज्ञानंवादादि सामर्थ्य "भावाचार्यस्यबहुमानस्य फलम्" विषये पुरुष परिज्ञानं किं नयोऽयं वाद्यादि।। क्षेत्रपरिज्ञानं । वस्तु गुरुः बहुमान: साद्यपर्यवसितत्वेन दीर्घत्वादायतो मोक्षः स गुरुपरिज्ञानम् वस्त्विह वादकाले राजामात्यादि।। संग्रहस्वीकरणं तत्र बहुमान: गुरुभावप्रतिबंध एव मोक्ष इत्यर्थः। कथमित्याह - अवंध्य परिज्ञाज्ञानं नामाभि धानमष्टमीसम्पत् साच चतुर्विधा तद्यथा बालादियोग्य कारणत्वेन मोक्षं प्रति अप्रतिबद्ध सामग्री हेतुत्वेन। क्षेत्रविषया। पीठ फलकादि विषया। यथा समय स्वाध्याय भिक्षादि गुरुबहुमानात्तीर्थकरसंयोगः। ततः संयोगादुदिततत्संबंधत्वात् विषया । यथोचित विनय विषया चेति । सिद्धिरसंशय- मुक्तिरेकांतेन यतश्चैवमत एषोऽत्र शुभोदयो गुरु-बहुमान: "भावाचार्यः श्रमणसंघस्य नियोजयंति" कारणेकार्योपचारात्। यथाऽऽयुघृतमिति। अयमेवविशेष्यते प्रकृष्ट जो जाएलडीए, उववेओ तत्थ तं निजोएंति।। तदनुबंधः प्रधान शुभोदयानुबंधस्तथातथा - राधनोत्कर्षेण तथाभव व्याधि उवकरणे सुत्तत्थे, वादे कहणे गिलाणे य॥ चिकित्सक गुरु बहुमान एव हेतुफलभावात् न इतः सुंदरं परं यो यथा लब्या उपपेतो युक्तो वर्तते। तत्र तं नियोजयंति गुरुबहुमानात्। उपमाऽत्र न विद्यते गुरु-बहुमाने सुंदरत्वेन सूरयस्तद्यथा उपकरणे इति उपकरणोत्पादने, सत्रपाठलब्ध्यपेतं सत्रपाठे भगवद्बहुमानादित्यभिप्रायः। “पंचमसूत्रटीकायां" अर्थग्रहणे लब्धिसमन्वितं परवादिमथने धर्मकथनलब्धिपरिकलितं "भावाचार्येण आचार्यपदे स्थापना कर्तव्यम्" धर्मकथने ऽ ग्लानमितिचरणपटीयांसं ग्लानं प्रति जागरणे। पुव्वं गावेतिगणे जीवंतो गणहरं जहा राया। जह जह वावायरते जहा य वावारिया न हायंति। म कुमरेउ परिच्छित्ता रज्जरिहं ठावए रज्जे॥ तह तह गण परिवड्डी निझरवड्डी वि एमेव। पूर्वमेव जीवनाचार्योयः शक्तिमान् तं गणधरं ठाणे स्थापयति। यथा राजा यथायथा तत्तल्लब्ध्युपेतान् तत्कर्मणि व्यापारयति यथा यथा च कुमारान् परीक्ष्य यः शक्तिमत्तया राज्याहस्तं राज्ये स्थापयति। व्यापारा न हीयते। देशकाल स्वभावौचित्येन व्यापारणात् तथा तथा व्यवहारसूत्रेचतुर्थोद्दशे" गणस्य गच्छस्य परिवृद्धिर्भवति। निर्जरावृद्धिरप्यमेव निर्जराऽपि तथा "केरिसो आयरियो आराहियो" परिवद्धत इति भावः। एवम् या मा यो वस्त्रपात्रभक्तपानादिकं समस्तमपि-साधूनांपूरयति, संयम योगेषु दशविधेवैयावृत्ये उद्यतानामुद्यतमतीनां मध्ये यो यत्र कुशलस्तस्य च सीदतस्सारयति (सारणावारणाचोयणा पडिचोयणा करणेन) स तत्र नियोगं करोति तं तत्र नियोजयंति। यस्तं शक्तिमंतं गणधरं स्थापयति इहलोके हितकर्ता परलोके च हितकर्ता। अशक्तिमंतं तु स्थाप्यमाने बहवे दोषाः। के ते इतिचेदुच्यते। यस्तु स्वरपरुषभणनेनाऽपि संयमयोगेषु सारयति स: सोऽशक्तिमत्वेन साधून यथायोगम् नियोक्तुम् न शक्नोति। तत आहारोपधि संसारनिस्तारकत्वादेकान्तेनाऽऽश्रयणीयः॥ परिहारिनिर्निर्जरातश्च ते परिभ्रश्यति। "मूलगुणयुक्तो गुरुः न मोक्तव्यः" गच्छाधिपतिः केन कर्मविपाकेन भवति? गुरुगुणरहिओवि इह दट्ठव्वो मुलगुण विउत्तो। ....उग्गभिग्गहविहारताए घोर परिसहोवसग्गहियासणेणं, रागद्दोस जो ण उ गुणमेत विहिणोत्ति चंडरुद्दो उदाहरणं॥ कसायविवज्जेणेणं आगमाणुसारेणं सुविहिए गणं परिचालणेणं आजम्म गुरुगुणरहितोऽपि शब्दोऽत्र पुनः शब्दार्थस्ततश्च गुरुगुण समणाकप्प परिभोगवज्जणेणं, छक्कायसमारंभविवज्जणेणं दिव्वोरालिय रहितोगुरुर्नभवति। गुरुगुणरहित पुनरिह गुरुकुलवासप्रक्रमे स एव द्रष्टव्यो मेहुणपरिणामविप्पमुक्केणं णीसल्लालोयण निंदणगरहणेणं, ज्ञातव्यो मूलगुणवियुक्तो महाव्रतरहितः सम्यग्ज्ञानक्रिया विरहितोवा यो इहपरलोगासंसाइणियाणमायाइ सलिविप्पमुक्केणं, न तु पुनर्गुणमात्रविहीनो मूलगुणव्यतिरिक्त प्रतिरूपता विशिष्टोपशमादि जहोववइट्ठपायछित्तकरणेणं... इत्यादि आचरणेन गच्छाधिपति र्भवति। गुणविकल इति हेतो गुरुगुणरहितो द्रष्टव्य इति प्रक्रम: उपप्रदर्शनार्थोवा इति महानिशीथसूत्रस्य द्वितीय चूलिकायाम् विस्तृत वर्णनं कथितमस्ति। इति शब्दः उक्तं वेहार्थे काल परिहाणिदोसा एतो इक्काइ गुण विणेण जिज्ञासुभि:तत्र, द्रष्टव्यं। अ. राजेन्द्रकोषस्य द्वितीयभाग पृ. ३४० मध्ये। अणेण विप्पवज्जा दायव्यासीलवंतेणं॥ अत्रार्थे किंज्ञापकमित्याह "भावाचार्यस्य विनय स्वरूपम्" । चंडरुद्रश्चंद्ररुद्राभिधानाचार्य उदाहरणं तत्प्रयोगश्चैवं गुणमात्र विहीनोऽपि अभिमुखगमनाऽऽसनप्रदानपर्युपास्त्यञलिबद्धाऽनुव्रजनादि गुरुरेव मूलगुणयुक्तत्वात् चंडरुद्राचार्यवत् तथाहासौ प्रकृतिरोषेणोऽपिबहूनां लक्षणः, अनुवृत्तिस्त्विङ्गितादिना गुरुचित्तं विज्ञाय तदाऽनुकूल्ये प्रवृत्तिः संविग्न-गीतार्थ-शिष्याणाममोचनीयः विशिष्ट बहुमानविषयश्चाभूत्। आकारेङ्गित कुशलं शिष्यं प्रति यदिश्वेतं वायसं पूज्या गुरवो वदेयुस्तथापि पनि तेषां संबंधि वचो न विकुट्टमेन्न प्रतिहन्यात्, विरहे च तद्विषयं कारणं गणिनमाचार्य शिष्याः सर्वे सदा प्रयताः प्रयत्नपराः पूजयंति या पृच्छेदिति। नृपपृष्टेण गुरुणा भणितो “गङ्गा केन मुखेन वहति?" ततो शुश्रूषते च। यस्मात्तत्पूजने आचार्य पूजने इहलोके परलोके च गुणा यथा सर्वमपि गुरुभणितं शिष्य: संपादितवांस्तथासर्वत्र सर्वप्रयोजनेषु भवंति। इहलोके सूत्रार्थ तदुभय प्राप्तिः परलोके सूत्रार्थाभ्यामधीताभ्यां कार्यम्। यथा गुरुचित्तं सुप्रसन्नं भवति तथा कार्यमिति। अ. राजेन्द्र ज्ञानादि मोक्ष मार्ग प्रसाधनं अथवा पारलौकिकागुणा- आयरिए वेयावच्चं कोषस्य तृतीय भागे ९३६ पत्रे करेमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवति। श्रीमद् जसंतसेनसहि अभिनंदन मंथ/वाचना ३६ कर्तव्य अकर्तव्य का, जिसको होता बोध । जयन्तसेन समझे यदि, कभी न आता क्रोध ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुर्वायत्ता यस्मात् शास्त्रारम्भा भवति सर्वेऽपि। तस्माग्दुर्वाराधनपरेण तथा वध्याश्चौरपारिकादयः अवध्या वा, तत्कर्मानुमति-प्रसंगात् हितकांक्षिणा भाव्यं॥ अ.रा. को. ३/९३४ स: शिष्य एव सुशिष्यः इत्येवंभूतांवाचं स्वानुष्ठान परायणः साधुः पर व्यापारनिरपेक्षो न निसृजेत्। यो गुरुकुलवासे सदा वसति एवं गुर्वाज्ञानुसारेणैव स्वाचरणमाचरति। तथाहि सिंह व्याघ्र मार्जारादीन् परसत्व व्यापादन परायणान् दृष्टवा गुर्वाज्ञाभङ्गे धर्माचार्यादेशविराधने सर्वे समस्ताः अनर्था अपाया माध्यस्थमवलम्बयेत् तथा चोक्तम् मैत्री प्रमोदकारुण्यमाध्यस्थादीनि भवन्ति यस्मात् कारणात् नित्यं गुर्वाज्ञापरिपालनीयम्। “णमो आयरियाणं" सत्वगुणाधिक क्लिशमानविनयेषु। इति। एवमन्योऽपि वाक्संयमो द्रष्टव्यः पदं वक्तारस्य भावाचार्याणां णा नमस्कारस्य नमस्कारस्य तद्यथा अमीगवादयो वाह्या न वाह्या, तथा अमीवृक्षादयश्छेद्यमान छेद्या फलस्य प्राप्तिर्भावाचार्यदर्शितमार्गेणानुसारेणवर्तनद्वारेणैव भविष्यति। वेत्त्यादिकं वचो न वाच्यं साधुनेति। अतः वयं सर्वेऽपि भावाचार्यस्य स्वरूपं विज्ञाय तत्दर्शितमार्गे अभि. राजेन्द्रकोष भा. १ पृ. ५२३ विहरिष्याम इति शुभ भावना। यथा मोक्षमार्गाभिवृद्धिर्भवति तथा ब्रूयादित्यर्थः इत्यलं विस्तरेण। अ. राजेन्द्रकोष भा. १ पृ. ५२४ अइहिसंविभाग "अपमाय" अणण परमंनाणी णो पमाएकयाइ वि। "अतिथिसंविभागः" आयगुत्ते सयाधीरे जायमायाए जावए॥ नामशब्द पूर्ववत् न्यायागतानामिति न्यायोद्विज क्षत्रियविट न विद्यते अन्यः परमः प्रधानोऽस्मादित्यनन्य परमः संयमः तं शूद्राणांस्ववृत्यनुष्ठानं स्ववृत्तिश्च प्रसिद्धैव प्रायो लोकव्यवहार्या तेन ताद्दशा ज्ञानी परमार्थ वित् नो प्रमादयेत्, तस्य प्रमादं न कुर्यात्कदाचिदपि। न्यायेनागतानां प्राप्तानामनेनान्यायेनागतानां प्रतिषेधमाह। यथाचाप्रमादवता भवति तथा दर्शयितुमाह इन्द्रिय नोइन्द्रियात्मना गुप्त कल्पनीयानामित्युद्गमादिदोषवर्जितानामनेनाकल्पनीयानां निषेध-माह। आत्मगुप्तः। सदा सर्वकालम् यात्रा संयमयात्रा तस्यां मात्रा यात्रामात्रा। अन्नपानादीनां द्रव्याणामादिग्रहणाद्वस्पात्रौषधभेषजादिपरिग्रहः अनेनापि मात्रा च अव्वाहारोण सहे इत्यादि आत्मानं यापयेद् यथा विषयानुदीरणेन हिरण्यादि व्यवच्छेदमाह। देशकालश्रद्धा सत्कारक्रमयुक्तं तत्र नाना व्रीहि दीर्घकालं संयमाधारदेहप्रतिपालनं भवति तथा कुर्यात्। पृ. ५९८ कोद्रवकङगुगोधूमादि निष्पत्तिभागदेश: सुभिक्षदुर्भिक्षादिः कालः प्रमादवतः साधकस्य विद्या फलदा न भवति, ग्रहसंक्रमादिकममर्थ विशुद्धचित्तपरिणामः श्रद्धा, अभ्युत्थानासनदानवन्दनानुव्रजनादिः सत्कारः च संपादयति तथा शीतल विहारिणो जिनदीक्षाऽपि केवलं सुगति संपत्तये पाकस्य पेयादि परिपाट्या, प्रदानं क्रमः एभिर्देशादिभिः युक्तं समन्वितमनेनापिविपक्षव्यवच्छेदमाह। परया प्रधानया भक्त्योत्पन्नेन न भवति, किन्तु दुर्गति - दीर्घभव भ्रमणापायच विदधाति, आर्यमङ्गोरिव फलप्राप्तौ भक्तिकृतमतिशयमाह। आत्मानुग्रह बुद्ध्येति न पुनर्यत्यनुग्रह सीयल विहारिओ खलु भगवंतासायणा निओएण। बुद्ध्येति तथा ह्यात्मपरानुग्रहपरा एव यतयः संयता मूलगुणोत्तर तत्तो भवो सुदीहो, किलेस बहुलोज ओ भणियं॥ गुणसंपन्नाः साधवः तेभ्यो दानमिति। तित्थयर पवयण सुअं आयरियं गणहरं महिड्ढियं। अभि. राजेन्द्र को. भा. १ पृ. ३३ आसायंतो बहुसो अणंत संसारिओ भणिओ॥ "तस्माद् साधुना अप्रमादिना भवितव्यमिति" "अन्तराय" अ. राजेन्द्रकोष भा. १ पृ. ५९९ तत्र यदुदयवशात् सतिविभवेसमागते च गुणवति पात्रदत्तमस्मै "अविराधितसंयमः" महाफलमिति जाननपि दातुं नोत्सहते तद्दानान्तरायं, यथा यदुदयवशात् दानगुणेन प्रसिद्धादपि दानुगृह विद्यमानमपिदीयमानमर्थजातं प्रवज्याकालादारभ्याऽभग्न चारित्रपरिणामे संज्वलन कषायसामर्थ्यात् प्रमत्तगुणस्थानक सामर्थ्याद्वास्वल्पमायाऽऽदिदोष - याञ्चाकुशलोऽपि गुणवानपि याचको न लभते तल्लाभान्तरायं, तथा सम्भवेऽपि अनाचरित चरणोपघाते। भगवती १ श. २ उ. तदुदयवशात् सत्यपि विशिष्टाहारादि संभवे असति च प्रत्याख्यान अ. राजेन्द्रकोष भा. १ पृ. ८०९ परिणामे वैराग्ये वा प्रबल-कार्पण्यानोत्सहते भोक्तुं तद् भोगान्तरायमेवमुपभोगान्तरायमपिभावनीयम् तथा तयात् सत्यपि "नाणस्स सारं" निरुजिशरीरे यौवनिकायामपि वर्तमानेऽल्पप्राणो भवति एवं खु नाणिणोसारं जं न हिंसति कंचण। यद्बलवत्यपिशरीरे साध्येपि प्रयोजनेपि हीनसत्त्वतया प्रवर्तते अहिंसा समयं चेव एतावंतं विजणिया॥ तद्वीर्यान्तरायमिति। तदेवमहिंसा, प्रधान: समय आगमः संकेतोवाऽपदेशरूप:तदेवमभूतमहिंसा अ. राजेन्द्र को. भा. १ पृ. ९८ समयमेतावन्तमेवविज्ञाय, किमन्येन बहुना परिज्ञानेनैतावत्तैव परिज्ञानेन मुमुक्षो विवक्षित - कार्यपरिसमाप्तेरतो न हिंस्यात्कञ्चनोति वाक्संयम: अहिंसैषा मता मुख्या स्वर्गमोक्षप्रसाधनी। सर्वं जगद् दुःखात्मकमित्येवमपि न ब्रूयात्, सुखात्मकस्यापि सम्यग्दर्शनादिभावेन दर्शनात् तथा चोक्तम् = तणसंथारनिस्सणो वि एतत् संरक्षणार्थच न्याय्यं सत्यादिपालनम्॥ मुणिवरो भट्टारागमय मोहो। जं पावइ मुत्ति सुहं कत्तो तं चक्कवट्टीवि। अ. राजेन्द्रकोष भा. १ पृ.८७९ श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन अंथ/वाचना ३७ अधर्म हिंसा क्रोध है, आने मत दो पास । जयन्तसेन अडिग रहो, फैले दिव्य प्रकाश ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप तिराते हैं (मुनि श्री पद्मरलविजयजी महाराज) (सुशिष्य जैनाचार्य श्रीमदृविजयजयंतसेनसरिजी) जन है। अनादि से चले आ रहे इस संसार में कभी क्षण मात्र भी किसी भी भगवान महावीर ने स्वयं धन्ना -जीव को शांति नहीं है। शांति को प्राप्त करने के लिये तीर्थकर अणगार के तप की प्रशंसा की। धन्ना परमात्मा ने तप बताया है। तप से बढ़कर तेज किसी का नहीं है, अणगार ने अपने तप द्वारा पूरे शरीर तप से आत्मा का तेज बढ़ता है, जैसे आग में डाले गये सोने को को ऐसा जीर्ण बना दिया था कि चलते ज्यों ज्यों तपाया जाता है, त्यों-त्यों उसका तेज बढ़ता जाता है, वैसे समय उसके शरीर की अस्थियों से ही तपरूपी आग में जो अपने तनमन को तपाता है उसका भी तेज ध्वनि उत्पन्न होती थी। बढ़ता जाता है। तप शील और संयम का परम मित्र है। तप करने तपस्वी को अहंकार से दूर रहना से विषय वासना का दमन होता है। तप से तन, मन और आत्मा चाहिये, अहंकार आत्मा के लिये रोग के रोगों का निवारण होता है और तीनों निर्मल बनते हैं। आरोग्यता है। इससे सदा बचना चाहिये। अहंकारी प्राप्त होती है। तप याने कर्म रोगों की अचूक रामबाण दवा। तप से मुनिश्री पद्यरत्नविजयजी म. विनय से वंचित रहता है। अहंकार के जीवों को भी अभयदान मिलता है, कारण तप करने से अनेक त्यागपूर्वक जो तपता है वही अपना विकास कर पाता है। बीस स्थानक अनावश्यक आरंभ समारंभ से निवृत्ति मिलती है। तप से इंद्रियों का तप की आराधना से तीर्थकर नाम का कर्म निकाचित हो सकता है। दमन, कषायों का वमन, वासनाओं का शमन होता है, तप से एकाग्रता बहुत बड़ी महिमा है तप की। तपस्वी केवलज्ञान तक प्राप्त कर सकता आती है- यह मन स्थिर करने का अमोघ साधन है। तप और भोजन के बारहवाँ चन्द्रमा है, तप किया व अनेक मान्यता में फलाहार की अनशन, अनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और छूट रखते हैं व फिर रोज के आहार से भी ज्यादा उदर पूर्ति कर संलीनता बाह्य तप हैं, इसी प्रकार प्रायश्चित, विनय, वैयावच्च स्वाध्याय, लेते हैं ऐसा तप कैसा? तप याने आत्मानुभूति की ओर अग्रसर होना। ध्यान और कायोत्सर्ग आभ्यंतर तप है। बाह्यतप आभ्यंतरतप पूर्वक तप क्षमायुक्त शल्य रहित होना चाहिये। तप के बिना आत्मा उज्ज्वल ही करना चाहिये। इसी में उसकी सार्थकता है। आभ्यंतर तप सहित नहीं हो सकती। तपस्या से देवता भी वश में हो जाते हैं व अनेक बाह्यतप सुगंधित स्वर्ण सा है। आभ्यंतर तप बाह्यतप का मूल बढ़ावा सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। तप से अनेकों आधि व्याधि उपाधियां है। केवल बाह्यतप से जितने कर्मों की निर्जरा होती है उससे अनंत दूर होती हैं। तप से इह लौकिक व पारलौकिक अनेक जन्मों के पापों गुना अधिक कर्मों की निर्जरा आभ्यंतर तप सहित किये गये बाह्यतप का प्रक्षालन हो अनिष्ट दूर होते हैं। समभावपूर्वक जो तप किया जाता से होती है। अत: अपना विवेक जाग्रत रखकर आभ्यंतर तपपूर्वक है, वह महान फलदायी होता है। उपवास याने “उप समीपे वसति बाहा तप करना आराधकों के लिये उचित है। आत्मनः इति उपवास" याने आत्मा के पास रहना उपवास है अर्थात् जैन दर्शन में बारह प्रकार का तप धर्म बताया है:- छह बाह्य केवल आत्मा परमात्मा का ही चिन्तन करना और उसमें ही मन व छह आभ्यंतर:लगाना। उपवास के दिन यदि आहारादि में मन लग गया तो परमात्मा १. अनशन - उपवासादि करना, जिससे क्षुधापर काबू पाया जा की ओर से मन अवश्य ही हट जाएगा और उपवास टूट जाएगा, क्योंकि एक समय में मन एक जगह ही स्थिर होता है-अधिक जगह २. उणोदरी- नित्य के आहार से कम करना। क्रोधादि को दूर नहीं। करने का उपाय करना भाव उणोदरी है। शद्ध तप की आचरणा द्वारा देवताओं को भी वश में किया ३. वत्ति संक्षेप दिनभर में उपयोगी खाने पीने की वस्त की जा सकता है। तप से अनेक प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हो सकती हैं धारणा करना जैसे दिन भर में ५, १० आदि द्रव्य रखना और जन्म-जन्म के पापों का नाश होता है। द्रव्यवृत्ति संक्षेप, अमुक समय तक रखना, समय वृत्ति संक्षेप, कोई भी तप पच्चक्खाण लेकर किया जाता है, पच्चक्खाण इतने क्षेत्र, स्थान पर खाना क्षेत्र वृत्ति संक्षेप रागद्वेष को छोड़ने का अर्थ है प्रतिज्ञापूर्वक किया गया त्याग। मात्र नोकारसी के पच्चक्खाण हेतु धारणा करना भाव वृत्ति संक्षेप है। से भी नरक गति के सौ साल का बंध टूट जाता है। पच्चक्खाण ___४. रस त्याग :- महाविगई (मांस, मदिरा, शहद आदि) का पूर्वक किये गये बड़े तप का तो कहना ही क्या? भगवान महावीर पूर्णत: त्याग व दूध, दही, घी, तेल, गुड़, कढ़ाई (मिठाई) ने दीक्षा के बाद स्वयं साढ़े बारह वर्ष तक घोर तप किया था, फिर इन चीजों में से अमुक अमुक त्याग करना रसत्याग है। (शेष पृष्ठ १४ पर) सके। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन अंथ/वाचना वैर भाव मन में बसा, उदित हुआ जब क्रोध । जयन्तसेन मूर्ख बना, लेता वह प्रतिशोध । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-साहित्य का अनुशीलन (डा. श्री सुव्रतमुनिजी शास्त्री) आगम शब्द की निष्पत्ति :- आ उपसर्ग पूर्वक 'गम्' धातु से आने के अर्थ में 'घ' प्रत्यय लगाने पर 'आगम' शब्द बनता है। जिसके अनेक अर्थ बनते हैं। जैसा-जैसा प्रसंग होता है वैसा-वैसा अर्थ आगम से ग्रहण कर लिया जाता है। उदाहरणार्थ लताओं पर नये पत्तों का निकलना भी आगम कहलाता है। जैसे - “लतायां पूर्वलूनायां प्रसूनस्य आगम:” कृतः- उत्तर ०५/२०/ ऐसे ही व्याकरण में इडागमः आदि में शब्दरूपों में अक्षरों का आना भी आगम कहलाता है। परंतु प्रस्तुत प्रसंग में आगम का अर्थ है- परम्परागत धार्मिक सिद्धांत ग्रंथ। पुरातन जैन आचार्यों ने आगम शब्द की अनेक विध व्याख्याएं की है। जैसे आगम्यन्ते मर्यादयाऽवबुद्धयन्तेऽर्थाः अनेनेत्यागमः। अर्थात् जिससे वस्तु तत्त्व का परिपूर्ण ज्ञान हो, वह आगम है। इसी प्रकार आप्त वचन से उत्पन्न अर्थ (पदार्थ) ज्ञान आगम कहा जाता है। जिससे उचित दिशा व विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है, उसे आगम या श्रुतज्ञान कहते हैं। आगमों के कर्ताः- तीर्थंकर केवल अर्थरूप में उपदेश करते हैं और गणधर उसे ग्रंथबद्ध या सूत्रबद्ध करते हैं।' अर्थात्मक ग्रंथ के प्रणेता तीर्थंकर होते हैं। एतद् अर्थ ही आगमों में यत्रतत्र (तस्सण अयमढे पण्णत्ते) ऐसा पाठ प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार जैन आगमों को तीर्थकर प्रणीत कहा जाता है। यह भी ज्ञातव्य है कि जैन-आगमों की प्रामाणिकता केवल गणधर कृत होने से ही नहीं है अपितु उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर की वीतरागता एवं सर्वार्थ साक्षात्कारित्व के कारण है। जैन अनुश्रुति के अनुसार गणधर के समान ही अन्य प्रत्येक बुद्ध निरूपित आगम भी प्रमाण रूप होते हैं। गणधर केवल द्वादशांगी की ही रचना करते हैं। अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं। आगमों का विभाजन :- आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने आगमों को अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य इन दो भागों में विभक्त किया है। अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य का विश्लेषण करते हुए जिन भद्रगणी क्षमाश्रमण ने तीन हेतु बतलाए हैं। अंग-प्रविष्ट वह श्रुत है(१) जो गणधरों के द्वारा सूत्र रूप से बनाया हुआ होता है। (२) जो गणधरों के द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थकर के द्वारा प्रतिपादित होता है। (३) जो शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होने के कारण ध्रुव एवं सुदीर्घ कालीन होता है। एतदर्थ ही समवायांग में स्पष्ट कहा है - द्वादशांग भूत गणिपिटक भी नहीं था, ऐसा नहीं है, नहीं है, नहीं होगा ऐसा भी नहीं है। वह था, है, और होगा। वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, और नित्य है। अंगबाह्य श्रुत : - अंगबाह्य श्रुत वह होता है :१ - जो स्थविर कृत होता है। २ - जो बिना प्रश्न किए तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित होता है। _आचार्य अकलंक ने कहा है कि आरातीय आचार्यों के द्वारा निर्मित आगम अंग प्रतिपादित अर्थ के निकट डा. श्री सुव्रतमुनिजी शास्त्री या अनुकूल होने के कारण अंगबाह्य कहलाते हैं। स्थानकवासी परंपरा में ११ अंग, १२ उपांग और ४ मूल तथा १४ छेद अवं १ आवश्यक इस प्रकार कुल ३२ आगमों को प्रामाणिक माना जाता है। आग ३ अंग-११ उपांग-१२ आचारांग औपपातिक सूत्र कृतांग राजप्रश्नीय स्थानांग जीवाभिगम समवायांग प्रज्ञापना भगवती जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथांग चन्द्र-प्रज्ञप्ति उपासकदशांग सूर्य-प्रज्ञप्ति अंतकृतदशांग कल्पिका अनुत्तरोपपातिक दशांग कल्पावतंसिका प्रश्नव्याकरण पुष्पिका पुष्पचूलिका विपाकसूत्र वृष्णिदशा १. आवश्यक चार मूल, १ - दशवैकालिक, २ - उत्तराध्ययन, ३ - अनुयोगद्वार, ४ - नन्दीसूत्र। चार छेद १ निशीथ, २ व्यवहार, ३ बृहक्कल्प, ४ दशाश्रुतस्कन्द। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में ४५ आगमों की प्रामाणिकता है। जिनमें पूर्वोक्त ३२ आगमों के अतिरिक्त १० प्रकीर्णक, महानिशीथ, जीतकल्प, और श्रावक आवश्यक। ये कुल मिलाकर ४५ आगम माने जाते हैं। इनके क्रम में विद्वान एक मत नहीं हैं। कछ विद्वान इनकी संख्या अधिक भी आंकते हैं। अंगों में १२ वां अंग दृष्टिवाद को माना जाता है परन्तु वर्तमान में ऐसी धारणा पाई जाती है कि दृष्टिवाद मूलरूप में अनुपलब्ध है। श्राम जयतसनसूरि आभनंदन यथावाचना शिखा चढ़े अभिमान की, करे और उपहास । जयन्तसेन रहे सदा, उस जीवन में त्रास ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर मान्यतानुसार भी आगमों का यही वर्गीकरण लगभग ज्ञान हेतु कतिपय साधुओं को उनके पास भेजा, इनमें केवल स्थूलभद्र माना जाता है। अंगबाह्य इससे भिन्न है। साथ में दिगम्बर मान्यता ही प्राप्त कर सके। उन्हें पाटलीपुत्र के सम्मेलन में संकलित कर लिया यह भी है कि कालदोष से ये आगम नष्ट हो गए हैं। दिगम्बरों गया। इसे पाटलित वाचना के नाम से कहा जाता है। के अनुसार दृष्टिवाद के ५ भेद माने गए हैं, उनमें परिकर्म के कुछ समय पश्चात्, महावीर-निर्वाण के लगभग ८२७ या ८४० चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति और वर्षबाद (ईसवी सन् ३००-३१३) आगमों को पुन: व्यवस्थित रूप व्याख्या प्रज्ञप्ति तथा चूलिका के जलगतचूलिका, स्थलगतचूलिका, देने के लिए, आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में मथुरा में दूसरा सम्मेलन मायागतचूलिका रूपगत चूलिका और आकाशगतचूलिका नामक हैं। हुआ। दुष्काल के कारण इस समय भी आगमों को क्षति पहुंची। कुछ लोगों की मान्यता (५ आगमों को प्रामाणिक मानने की दुष्काल समाप्त होने पर, इस सम्मेलन में जिसे जो कुछ स्मरण था, भी है। उनमें ११ अंग, १२ उपांग, ५ मूल, ५ छेद, ३० पइण्णा, उसे कालिक श्रुत के रूप में संकलित कर लिया गया। जैन आगमों पक्खियसुत्त खमणासुत्त, वंदित्तुसुत्त, इसिभासिय, पज्जोसणकप्प, की यह दूसरी वाचना थी जिसे माथुरी वाचना के नाम से कहा जाता जीयकप्प, जइजीयकप्प, सद्धजीयकप्प १२ नियुक्ति, है। विशेसावरस्सयभास लगभग इसी समय नागार्जुनसूरि के नेतृत्व में बल्लभी (सौराष्ट्र) जैन आगमों का एक वर्गीकरण अनुयोगों के आधार पर भी में एक और सम्मेलन भरा। इसमें जो सूत्र विस्मृत हो गए थे उनका किया गया है। इसके कर्ता आर्यरक्षित माने जाते हैं जो कि नौ पूर्वो संघटनापूर्वक सिद्धान्तों का उद्धार किया गया। के धारक और दसवें पूर्व के २४ यविक के ज्ञाता थे। इन्होंने सभी तत्पश्चात् महावीर निर्वाण के लगभग ९८० या ९९३ वर्षबाद आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त किया (ई. सन् ४५३-४६६) बल्लभी में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में १- चरण-करणानुयोग-महाकल्प, छेदश्रुत आदि। अन्तिम सम्मेलन हुआ, जिसमें विविध पाठान्तर और वाचना भेद २- धर्मकथानुयोग - ज्ञाता धर्म कथांग, उत्तराध्ययन सूत्र आदि। आदिको व्यवस्थित कर, माथुरी वाचना के आधार से आगमों को ३- गणितानुयोग - सूर्यप्रज्ञप्ति आदि। संकलित करके उन्हें लिपिबद्ध किया गया। दृष्टिवाद फिर भी उपलब्ध ४ - द्रव्यानुयोग - दृष्टिवाद आदि । न हो सका, अतएव उसे व्युछिन घोषित कर दिया गया। श्वेताम्बर विषय सादृश्य की दृष्टि से प्रस्तुत वर्गीकरण किया गया है। सम्प्रदाय द्वारा मान्य वर्तमान आगम इसी अन्तिम संकलना का परिणाम व्याख्या क्रम की दृष्टि से आगमों के दो रूप होते हैं:(१) अपृथक्त्वानुयोग दिगम्बर जैन आगम :-दिगम्बर दृष्टि से द्वादशांग का विच्छेद (२) पृथक्त्वानुयोग हो गया केवल दृष्टिवाद का कुछ अंश अवशेष रहा है, जो षदखण्डागम सूत्र कृतांग चूर्णि के अभिमतानुसार अपृथक्त्वानुयोग के समय के रूप में आज भी प्रसिद्ध है। षट्खण्डागम = यह आचार्य भूतबलि प्रत्येक सूत्र की व्याख्या चरण-करण, धर्म गणित, और द्रव्य आदि व पुष्पदन्त की महत्वपूर्ण रचना है। दिगम्बर विद्वान् इसका रचनाकाल अनुयोग की दृष्टि से व सप्त नय की दृष्टि से की जाती थी, परन्तु विक्रम प्रथम सदी मानते हैं। यह ग्रन्थ छह खण्डों में विभक्त होने से पृथक्त्वानुयोग के समय चारों अनुयोगों की व्याख्याएं अलग-अलग ही इसका नाम षट्खण्डागम नाम से विख्यात है। इसके अतिरिक्त की जाने लगी । दिगम्बर आगम हैं-कषाय पाहुड, तिलोय पण्णत्ती, प्रवचनसार, यह वर्गीकरण होने पर भी यह भेदरेखा नहीं खींची जा सकती समयसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, दर्शनप्राभृत, चारित्र-प्राभृत, कि अन्य आगमों में अन्य वर्णन नहीं है। उत्तराध्ययन में धर्म कथाओं बोधप्राभृत, भावप्राभूत, मोक्षप्राभूत आदि। के अतिरिक्त दार्शनिक तत्त्व भी पर्याप्त रूप में है। भगवती आचारांग आगमों की भाषा :आदि में भी यही बात है। सारांश यह है कि कुछ आगमों को छोड़कर भाषा-शास्त्र की दृष्टि से भी आगम साहित्य अत्यन्त उपयोगी शेष आगमों में चारों अनुयोगों का संमिश्रण है। है। जैन सूत्रों के अनुसार महावीर भगवान ने अर्धमागधी में अपना _आगमों की वाचनाएं :- महावीर निर्वाण (ई. सन् के पूर्व उपदेश दिया, इस उपदेश के आधार पर उनके गणधरों ने आगमों ५२७) के लगभग १६० वर्ष पश्चात् (ई. सन् के पूर्व ३६७) चन्द्रगुप्त की रचना की। प्राचीन मान्यतानुसार अर्धमागधी भाषा को आर्य अनार्य मौर्य के काल में, मगध देश में भयंकर दुष्काल पड़ने से अनेक जैन और पशु पक्षियों द्वारा समझी जा सकता थी। आंबाल वृद्ध, स्त्री, मुनि भद्रबाहु के नेतृत्व में समुद्रतट की ओर प्रस्थान कर गए, शेष अनपढ़ आदि सभी लोगों को यह बोधगम्य थी। स्थूलभद्र (महावीर निर्वाण के २१९ वर्ष पश्चात् स्वर्गगमन) के नेतृत्व आचार्य हेमचन्द्र ने आगमों की भाषा को आर्षप्राकृत कहकर में वहीं रहे। दुष्काल समाप्ति पर स्थूलभद्र ने श्रमणों का एक सम्मेलन व्याकरण के नियमों से बाह्य बताया है। त्रिविक्रम ने भी अपने प्राकृत बुलाया, जिसमें श्रुतज्ञान का ११ अंगों में संकलन किया गया। दृष्टिवाद शब्दानुशासन में देश्य भाषाओं की भांति आर्षप्राकृत की स्वतन्त्र उत्पत्ति विस्मृति के कारण संकलित नहीं हो सका। चौदह पूर्वज्ञ केवल भद्रबाहु मानते हुए उसके लिए व्याकरण के नियमों की आवश्यकता नहीं थे, जो उस समय नेपाल में महाप्राणव्रत साधना कर रहे थे। पूर्वो के बतायी। तात्पर्य यह है कि आर्ष भाषा का आधार संस्कृत न होने से श्रामदजयतसनसरि अभिनंदन अंथ/वाचना अहंकार से बढ़ते तरु, फल आवत झुक जाय । जयन्तसेन नम बनो, जीवन भर सुख पाय ॥ . Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वह अपने स्वतंत्र नियमों का पालन करती है। इसे प्राचीन प्राकृत कहा गया है। कुछ स्थलों पर नियुक्ति और भाष्य की गाथाएं परस्पर मिश्रित हो गई हैं। इसलिए उनका अलग अध्ययन करना कठिन पड़ता है। साधारणतया मगध के आधे हिस्से में बोली जाने वाली भाषा नियुक्तियों की भाषा के समान भाष्यों की भाषा भी मुख्य रूप से को अर्धमागधी कहा गया है। अभयदेवसूरि के अनुसार इस भाषा में प्राचीन प्राकृत अथवा अर्धमागधी है। सामान्यतया भाष्यों का समय ई. कुछ लक्षण मागधी के और कुछ प्राकृत के पाए जाते हैं अतएव इसे सन् की-1 वीं शताब्दी माना जाता है। निशीथ, व्यवहार, कल्प, अर्धमागधी कहा है। मार्कण्डेय ने शौरसेनी के समीप होने के कारण, पंचकल्प, जीतकल्प, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक मागधी को ही अर्धमागधी कहा है। क्रमदीश्वर ने अपने संक्षिप्तसार पिण्डनियुक्ति इन सूत्रों पर भाष्य लिखे गए हैं। इनमें निशीथ, व्यवहार में इसे महाराष्ट्री और मागधी का मिश्रण बताया है। इनसे यही सिद्ध और कल्पभाष्य विशेष कर जैनसंघ का प्राचीन इतिहास जानने के होता है कि आजकल की हिन्दी भाषा की भांति अर्धमागधी जन-सामान्य लिए अतीव उपयोगी है। इन तीनों भाष्यों के कर्ता संघदास ठाणि की भाषा थी जिसमें महावीर ने सर्वसाधारण को प्रवचन सुनाया था। क्षमा-श्रमण है जो हरिभद्रसूरि के समकालीन थे। ये वसुदेवहिण्डी के आगमों की टीकाएं कर्ता संघदास गणिवाचक से भिन्न है। __आगम साहित्य पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णीटीका, विवरण-विवृत्ति, आगमों पर लिखे गए व्याख्या साहित्य में चूर्णियों का स्थान वृत्ति दीपिका, अवचूरि, अवचूर्णीव्याख्या, व्याख्यान पञ्जिका, आदि महत्वपूर्ण ह। यह साहित्य गद्यशला म लिखा गया है। सभवत: जन विपुल व्याख्यात्मक साहित्य लिखा गया है। आगमों का विषय अनेक तत्त्वज्ञान और उससे सम्बन्ध रखने वाले कथा-साहित्य का विस्तार स्थलों पर इतना सूक्ष्म और गंभीर है कि बिना व्याख्याओं के उसे पूर्वक विवेचन करने के लिए पद्य-साहित्य पर्याप्त न समझा गया। समझना कठिन है। इस व्याख्यापूर्ण साहित्य में 'पर्वप्रबन्ध' वद्ध इसके अतिरिक्त यह भी जान पड़ता है कि संस्कृत की प्रतिष्ठा बढ़ सम्प्रदाय, वद्ध व्याख्या. केवलिगम्य आदि के उल्लेख व्याख्याकारों जाने से शुद्ध प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत मिश्रित प्राक़त में साहित्य ने पूर्व प्रचलित परम्पराओं में प्रतिपादित किया है। निर्यक्ति. भाष्य लिखना आवश्यक समझा जाने लगा। इस कारण इस साहित्य की चूर्णी और कतिपय टीकाएं प्राकृत में लिखी गयी हैं जिससे प्राकृत भाषा को मिश्र प्राकृत भाषा कहा जा सकता है। आचारांग, सूत्रकृतांग, भाषा और साहित्य के विकास पर प्रकाश पडता है। इन चारों व्याख्याप्रज्ञप्ति-कल्प, व्यवहार, निशीथ, पंचकल्प, दशाश्रत स्कन्ध, व्याख्याओं के साथ मूल आगमों को मिला देने से यह साहित्य पश्चाङ्गी जीतकल्प, जीवाभिगम, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन, आवश्यक साहित्य कहा जाता है। दशवैकालिक, नन्दी और अनुयोगद्वार इन सोलह आगमों पर चूर्णियां व्याख्यात्मक साहित्य में नियुक्तियों (निश्चिता उक्तिः नियुक्तिः) लिखी गयी हैं। इनमें पुरातत्त्व के अध्ययन की दृष्टि से निशीथ चूर्णी का स्थान सर्वोपरि है। सूत्र में निश्चय किया हुआ अर्थ जिसमें निबद्ध और आवश्यक चूर्णी का विशेष महत्त्व है। इस साहित्य में तत्कालीन हो उसे नियुक्ति कहते हैं। नियुक्ति आगमों पर आर्या छन्द में प्राकृत रीति रिवाज, देश, काल, सामाजिक, व्यवस्था, व्यापार आदि का गाथाओं में लिखा हुआ संक्षिप्त विवेचन है। आगमों का प्रतिपादन रोचक वर्णन मिलता है। वाणिज्य कुलीन कोटिकगणीय वज्रशाखीय करने के लिए इसमें अनेक कथानक, उदाहरण और दृष्टांतों का उल्लेख जिनदास-गणि-महत्तर अधिकांश चूर्णियों के कर्ता के रूप में प्रसिद्ध किया गया है। इस साहित्य पर टीकाएं भी लिखी गयी हैं। संक्षिप्त हैं। इनका समय ई. सन् की छठी शताब्दी माना जाता है। और पद्यबद्ध होने के कारण इसे आसानी से कंठस्थ किया जा सकता आगमों पर अन्य अनेक विस्तृत टीकाएं और व्याख्याएं भी है। आचारांग, सूत्रकृतांग, सूर्यप्रज्ञप्ति, व्यवहारकल्प, दशाश्रुतस्कन्ध, लिखी गयी हैं। अधिकांश टीकाएं संस्कृत में हैं, यद्यपि कतिपय उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक और ऋषिभाषित इन दस सूत्रों टीकाओं का कथा सम्बन्धी अंश प्राकृत में उद्धृत किया गया है। पर नियुक्तियां लिखी गयी हैं। आगमों के प्रमुख टीकाकारों में याकिनीसून, हरिभद्रसूरि और मलयगिरि इनमें विषयवस्तु की दृष्टि से आवश्यक नियुक्ति का स्थान विशेष आदि आचार्यों के नाम उल्लेखनीय हैं। टीकाओं में आवश्यक टीका महत्त्व का है। पिंडनियुक्ति और ओघनियुक्ति मूल सूत्रों में गिनी गयी और उत्तराध्ययन की पाइय (प्राकृत) टीका आदि मुख्य है। है। इससे नियुक्ति साहित्य की प्राचीनता का पता चलता है कि वल्लभी इसके अतिरिक्त वर्तमान शताब्दी में हिन्दी भाषा में भी अनेक वाचना के समय ई. सन् की पांचवी-छठी शताब्दी के पूर्व ही संभवतः विद्वान् आचार्यों ने अच्छा व्याख्यात्मक साहित्य लिखा है। यह साहित्य लिखा जाने लगा था। अन्य स्वतन्त्र नियुक्तियों में पंचमंगलश्रुत स्कन्धनियुक्ति, संसक्तनियुक्ति, गोविन्दनियुक्ति और संस्कृत हिन्दी कोश, ले. वामन शिवराम आपटे, पृ. १३९-१० आराधनानियुक्ति मुख्य हैं। नियुक्तियों के लेखक परंपरा के अनुसार रत्नाकरावतारिकावृत्ति आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः । उपचारादाप्तवचनंदप। भद्रबाहु माने जाते हैं, जो छेद-सूत्रों के कर्ता अंतिम श्रुत-केवलि से स्याद्वादमंजरी श्लो. टीका भिन्न है। सासिज्जइ जेण तयं सत्यं तं वा विसेसियं नाणं। नियुक्तियों की भांति, भाष्य साहित्य भी आगमों पर लिखा गया आगम एव य सत्थं तु सुयनाणं । विशेषावश्यकभाष्य गा. ५५९ है, जो कि प्राकृत गाथाओं, संक्षिप्त शैली और आर्या छन्द में लिखा ५ अंत्थं भासइ अरहा, सुत्रं गन्थन्ति गणहरानिधण/सासणस्स हि श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथावाचना न्यायनीति रख नम्रता, छोड़ सकल अभिमान । जयन्तसेन अवश्य हो, जीवन का उत्थान ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E ८ यछाएतओसुत्तं पवत्तइ ॥ आव. नि. गा. १९२ नंदीसूत्र गा. ४० सुत्र गणहरकपिदै तहेव पत्रेय बुद्धकथिदं च। सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्ण दस पुव्वकथिदंच ॥ मूलाचार गा. ५-८० तथा जयधवला, पृ. १५३ विशेषावश्यक भाष्य गा. ५५० वृहत कल्प भाष्य गा. १४४ ९ अहवा तं समासओ दविहं पण्णतं, तं जहा-अंग पविट्ठ अंगबाहिरं च नंदी सूत्र ४३ गणहर थेरकयं ना आएसा मुक्क वागरणओ वा। धुव चल विशेषओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं॥ विशेषावश्य. भा. गा. ५५२ दुवालसंगे णं गणिपिडगे ण कयावि णत्थि, ण कयाइ णासी, ण कयाइ, ण भविस्सइ मुर्वि च भवति य भविस्सति य, अयले, धुवे, णितिए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्टिए, णिच्चे । समवायांग, समवाय १४८। आरातीयाचार्य कृतांगार्थ प्रत्यासत्ररूपमंगबाह्यम् । अकलंक, तत्त्वार्थराजवार्त्तिक, १/२० दे. जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग २, पृ. ६८८ तथा विस्तृत अध्ययन के लिए देखिए, नंदीसूत्र १४ जैन आगम साहित्य, पृ. १४, लेखक, देवेन्द्रमुनि शास्त्री, वही, पृ. १५, तथा मिलाइए, जैन आगम साहित्य में भा. पृ. २८ १६ डा. जगदीश जैन, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ. २८ १७ वही, पृ. २८ का फुटनोट १८ वही, पृ. २८ तथा विस्तार के लिए दे. जैन आगम साहित्य, पृ. ३१-३२. १९ प्रभावक चरित्र आर्यरक्षित, श्लोक ८२-८४ २० (क) आवश्यकनियुक्ति गा. ३६३-३७७ (ख) विशेषावश्यक भाष्य २२८४-२२९५ (ग) दशवैकालिक नियुक्ति, ३ टी. जत्थ एते चात्तारि अणुओगा विहप्पिहि, वक्खाणिज्जंति पुहुत्ताणुयोगे अपुहुत्ताणुजोगो, पुण जं रएक्केक्कं सुत्तं एतेहिं चउहिं वि अणुयोगेहि सत्ताहिं णयसत्तेहिं वक्खाणिज्जाति । म सूत्रकृत चूर्णि पत्र ४।१.१२०४ २२ आवश्यक चूर्णि २, पृ. १८७ २३ नन्दी चूर्णी, पृ.८ । ३४ कहावली, २९८, मुति कल्याण विजय वीर निर्वाण और, जैन काल गणना, पृ. १२, आदि से। संभवत: इस समय आगम साहित्य को पुस्तक बद्ध करने के सम्बन्ध में ही विचार किया गया। परंतु हेमचंद्र ने योगशास्त्र में लिखा है कि नागार्जुन और स्कंदिल आदि आचार्यों ने आगमों को पुस्तक रूप में निबद्ध । किया। फिर भी साधारणतया देवर्धिगणि ही 'पुत्थे आगमलिहिओ' के रूप में प्रसिद्ध हैं। मुनि पुण्यविजय, भारतीय जैन प्रमण, पृ. १७। २६ जैसे पात्र, विशेष के आधार से वर्षा के जल में परिवर्तन हो जाता है। वैसे ही जिन भगवान की भाषा भी पात्रों के अनुरूप हो जाती है। बृहत्कल्प भाष्य जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ. ३३, ले. डॉ. जगदीशचंद्र जैन २८ आवश्यक चूर्णी पृ. ४९१। १२ मधुकर मौक्तिक जो आत्मा की साधना करते हैं, उन्हें संसार से कोई मतलब नहीं होता। उन्हें तो आत्मा को साधना है। जगत् के क्रिया-कलापों से उन्हें कोई मतलब नहीं होता। जगत् के समस्त पदार्थ अ-शाश्वत हैं। वे बनते और बिगड़ते हैं, इसलिए हमें ऐसे जीवन का निर्माण करना चाहिये जो बनने के बाद फिर कभी बिगड़े नहीं। साधक यदि विनश्वर पदार्थों में उलझ जाएगा तो उसकी सारी साधना निरर्थक हो जाएगी। विनश्वर पदार्थों में उलझने से बचाते हैं-साधु-मुनिराज। हमें उनका बार-बार अवलम्बन लेना चाहिये और अपनी आराधना को आगे बढ़ाते रहना चाहिये। वे स्वयं साधना के मार्ग पर चलते हैं और आराधक आत्माओं को साधना के मार्ग पर चलाते हैं। भाव आत्म परिणामों में निर्मलता लाता है, जबकि भव मलिनता बढ़ाता है। भाव से निर्वेद, निलेप और निराग स्थिति प्राप्त होती है, जबकि भव ठीक इसके विपरीत स्थिति में रखता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के स्वामी आत्मा को स्व-पर कल्याणकारी पावन पथ पर अग्रसर होने के लिए और अनुशासन बद्ध रहकर भावसंशुद्धि/विशुद्धि का मार्गक्रमण करने के लिए जैनशासन प्रबल प्रेरणा देता है। जैनशासन की यह प्रेरणा आत्मा में नयी चेतना जगाती है। यह चेतना उसे अशुभ से शुभ, शुभ से शुद्ध और शुद्ध से विशुद्ध की ओर ले जाती है। अशुभ और शुभ की परिभाषा सरल और सीधी है। दानवी कुविचार वाणी और व्यवहार जीव को अशुभ की ओर घसीट ले जाते हैं अर्थात् ये मलिनता को बढ़ावा देते हैं। परिणाम यह होता है कि इनके कारण मनुष्य पथभ्रष्ट हो कर हैवान/शैतान बन जाता है। उसकी मनुष्यता खत्म हो जाती है। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसरि 'मधुकर' श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना क्रोध हनन करता सदा, विजय कीर्ति सन्मान । जयन्तसेन इसे तजो, हित अहित पहचान । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ नयवाद की महत्ता | (साध्वीश्री स्नेहलताश्रीजी) नयवाद जैन दर्शन का - जैन न्याय का महत्वपूर्ण अंग है। अनंत धर्म हैं, परंतु जब “यह गाय वह वस्तु को देखने की विविध दृष्टियाँ प्रस्तुत करता है, इतना ही लाल है" ऐसा जानते हैं, तब यह ज्ञान नहीं, परन्तु उनका समन्वय करने की भूमिका भी प्रदान करता है, अपना अभिमत एक विशिष्ट धर्म की और इस प्रकार मनुष्य को उदार, सहिष्णु एवं सत्पथगामी बनाने में ओर ले जाता है अत: वह नय है। बड़ा सहायक होता है। किसी भी एक अंश को ग्रहण नय क्या है? करना और शेष अंशों के प्रति जिनागमों में बताया है कि "द्रव्य के सभी भाव प्रमाण और उदासीनता रखना अर्थात् उनके संबंध नय द्वारा उपलब्ध होते हैं।" अर्थात् नय द्रव्य के सर्व भाव जानने में विरोधी या अनुकूल कुछ भी का - पदार्थ का यथार्थ स्वरूप समझने का एक साधन है। यह बात अभिप्राय न देना। तत्त्वार्थ सूत्र में "प्रमाणनयैरधिगमः" सूत्र द्वारा प्रकट की गई है। साध्वीश्री स्नेहलताश्री इस प्रकार वक्ता की ओर से जो यहाँ प्रश्न होने की संभावना है कि 'यदि पदार्थ का स्वरूप भी अभिप्राय प्रकट हो वह नय कहलाता है। प्रमाण के द्वारा जाना जा सकता है तो नय की क्या आवश्यकता है? उदाहरण से यह वस्तु स्पष्ट की जाएगी। ढाल के एक ओर इस का उत्तर यह है कि 'प्रमाण के द्वारा पदार्थ का समग्र रूप से चाँदी का झोल किया हुआ था और दूसरी ओर सोने का झोल था। बोध होता है और नय की सहायता से पदार्थ का अंश रूप से बोध यह ढाल गाँव के प्रवेश-स्थान में खड़े हुए एक पुतले के हाथ में होता है। थी। अब एक बार दो विभिन्न दिशाओं से दो यात्री उधर आ निकले ज्ञानप्राप्ति के लिये ये दोनों वस्तुएँ आवश्यक हैं। उदाहरण के और ढाल का निरीक्षण करके अपना अभिप्राय प्रकट करने लगे। एक लिये - गाय को देखने पर हमने यह जाना कि (१) यह गाय है। ने कहा कि 'यह ढाल चाँदी के झोल वाली है, अत: बहुत सुन्दर फिर उसके संबंध में विचार करने लगे कि (२) यह गाय रक्तवर्ण लगती है।' दूसरे ने कहा : 'यह ढाल चाँदी के नहीं परंत सोने के (३) शरीर से पुष्ट है (४) दो बछड़ोंवाली है (५) दूध अच्छा देती झोलवाली है, अतः सुन्दर लगती है।' प्रथम व्यक्ति ने कहा, 'तू अंधा है। और (६) स्वभाव से भी अच्छी है। तो इसमें प्रथम विषय का है इसी से चाँदी के झोलवाली ढाल को सोने के झोलवाली - बताता ज्ञान प्रमाण से हुआ और शेष पाँच विषयों का ज्ञान नय से हुआ। है।' दूसरे ने कहा, "तू मूर्ख है, इसीलिये सोने और चाँदी के बीच 'यह गाय है' ऐसा जाना, इसमें वस्तु का समग्ररूप से बोध है, अत: का अन्तर नहीं जान सकता। वह प्रमाण रूप है, और गाय रक्तवर्ण है शरीर से पुष्ट है, आदि जो इस प्रकार वाद-विवाद होते-होते बात बढ़ गई और वे लड़ने ज्ञान प्राप्त किया उसमें वस्तु का अंश रूप में बोध होता है- अत: को उद्यत हो गये। इतने में गांव के कई समझदार व्यक्ति उधर आ वह नय रूप है। पहुँचे और दोनों को शांत करते हुए बोले- “भाइयो! इस प्रकार जैन शास्त्रों में वस्त के समग्र रूप से बोध को सकलादेश और लड़न का क्या आवश्यकता है? तुम्हारे बीच जो मतभेद हो वह अंश रूप से बोध को विकलादेश कहते हैं, अतः प्रमाण सकलादेश हमसे कहो।” तब दोनों ने अपनी-अपनी बात कही। ग्रामवासियों ने है और नय विकलादेश है। कहा, 'यदि तुम्हारे लड़ने का कारण यही हो तो एक काम करो-एक दूसरे के स्थान पर आजाओ। उन दोनों ने वैसा ही किया तो अपनी "नय की व्याख्या" भूल समझ में आ गई और दोनों लज्जित हो गये। नय शब्द “नी" धातु से बना है। यह “नी" धातु प्राप्त करना, इस दृष्टांत का सार यह है कि वस्तु को हम जैसा देखते ल जाना आदि अथ प्रकट करता हा इसक आधार पर न्यायावतार हैं-मात्र वैसी ही वह नहीं है। वह अन्य स्वरूप की भी है। यह की टीका में श्रीसिद्धर्षि गणि ने नय की व्याख्या इस प्रकार की है अन्य स्वरूप हमारे ध्यान में न आए, मात्र इसीलिये हम उसका निषेध अनंतधर्माध्यासितं वस्तु स्वाभिप्रेतैकधर्मविशिष्टं = नहीं कर सकते। नयति-प्रापयति-संवेदनमारोहयतीति नयः ।। यदि निषेध करें तो यात्रियों जैसी स्थिति हो जाती है अर्थात् अनंत धर्मा के संबंधवाली वस्तु को अपने अभिमत एक विशिष्ट विचारों के संघर्ष में उतरना पड़ता है और ऐसा करने पर दोनों के धर्म की ओर ले जाय अर्थात् विशिष्ट धर्म को प्राप्त करवाए-बताये बीच देष पैदा होता है। वह नय कहलाता है। यदि यात्रियों ने इतना ही कहा होता कि 'यह ढाल रुपहरी है' एक वस्तु में भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से विभिन्न धर्मों का सम्बन्ध स विभिन्न धमा का सम्बन्ध 'यह ढाल सुनहरी है तो यह ज्ञान नयरूप होने से सच्चा होता और यह है और ऐसी अपेक्षाएं अनन्त हैं। जैसे-गाय में रक्तत्व, पुष्टता आदि श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना ४३ अहं भरा हो हृदय में, नम्र भाव को दूर । जयन्तसेन दु:खद यही, जीवन में भरपूर ॥ www.finelibrary.org Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उससे कलह उत्पन्न होने का प्रसंग ही नहीं आता, परंतु उन्होंने वस्तु या अकेला व्यवहार मिथ्या दृष्टि है। में रहे हुए अंशों का निषेध किया, अत: वह ज्ञान नयाभास बन गया, श्रीमल्लवादी कृत नयचक्र में नयके बारह प्रकार किये गए हैं। मिथ्या हो गया और उपद्रव का कारण बना। और उन पर अति गहन विचारणा की गई है, परंतु यहाँ विशेष इस जगत में अपनी स्थिति भी उक्त यात्रियों जैसी ही है। प्रचलित सात नयों का विचार करेंगे। अपनी अल्पमति से हम जो कुछ भी समझें, उसे ही पूर्ण सच्चा मान मि नय के मुख्य दो विभाग जिनमें एक द्रव्यार्थिक नय और दूसरा लेते हैं और अन्य व्यक्ति के ज्ञान को - अन्य की मान्यता को पर्यायार्थिक नय = "संभवनाथ के स्तवन में लिखा है।" असत्य घोषित कर देते हैं, परंतु दूसरे के कथन में भी अपेक्षा से चार द्रव्यार्थिकत्रण तथारे, पर्यायार्थिक धारा सत्य है, यह वस्तु हम भूल जाते हैं और इसी से झूठे विवाद, कलह जेहने नयमत मन वस्योरे, तेहिज जग आधार, प्रभुजी . अथवा युद्ध का आरंभ होता है। नैगम संग्रह व्यवहार छे रे, सूत्र ऋजु सुखकार। नयवाद कहता है कि दूसरे का कथन भी सत्य हो सकता है, शब्द समभिरूढ कहा रे, एवंभूत अधिकार, प्रभुजी....... परंतु उसकी अपेक्षा क्या है? यह जानना चाहिये। द्रव्यार्थिक नय के तीन प्रकार है: (१) नैगम (२) संग्रह और यदि आप इस अपेक्षा को जानेंगे तो उसे असत्य, झूठा अथवा (३) व्यवहार। पर्यायार्थिक नय के चार प्रकार है : (१) ऋजुसूत्र (२) बनावटी कहने का अवसर ही नहीं आएगा। शब्द (३) समभिरूढ और (४) एवंभूत। इन दोनों प्रकारों को साथ जो दूसरे के दृष्टिबिन्दु को समझने का इच्छुक है-वही सत्यप्रेमी गिनने पर नय की संख्या सात होती है और यही विशेष प्रसिद्ध है। इन सात नयों के विशेष प्रकार भी होते हैं। एक प्राचीन गाथा नय के प्रकार : में तो ऐसा भी कहा है कि सात नय में से प्रत्येक नय शतविध नय के मुख्य दो प्रकार हैं : द्रव्यार्थिक और दूसरा पर्यायार्थिक। अर्थात् सौ प्रकार का है, जिससे उसकी संख्या ७०० होती है। इनमें से द्रव्य को - मूल वस्तु को लक्ष्य में लेनेवाला “द्रव्यार्थिक" सातों नयों का सूक्ष्म अर्थ इस प्रकार बताते हैं । कहलाता है, और पर्याय को - रूपान्तरों को लक्ष्य में लेनेवाला सात नयों का संक्षिप्त अर्थ पर्यायार्थिक कहलाता है। नैगमनय- लोक व्यवहार में प्रसिद्ध अर्थ को ग्रहण करता है, यहाँ इतना स्पष्टीकरण कर दें कि जैन-दर्शन अनेकान्त को अर्थात् सामान्य विशेष उभय को स्वीकार करता है। माननेवाला होने से ज्ञानपूर्वक क्रिया और क्रियापूर्वक ज्ञान मानता है, संग्रहनय - विशेष को गौण मानकर सामान्य को ही प्रधान मानता निश्चय पूर्वक व्यवहार और व्यवहार पूर्वक निश्चय मानता है तथा शब्दपूर्वक अर्थ और अर्थपूर्वक शब्द मानता है, परंतु मात्र ज्ञान या मात्र क्रिया : मात्र निश्चय या व्यवहार, मात्र शब्द या मात्र अर्थ ऐसा व्यवहार नय- वस्तु के सामान्य धर्म को गौण करके जो विशेष है नहीं मानता। उसे ही प्रधानता देता है। वह प्रत्येक नय के प्रति न्यायदृष्टि रखता है और उसके समन्वय ऋजुसूत्र नय- वर्तमान कालीन अर्थ को ही ग्रहण करता है- जैसे में ही श्रेय स्वीकार करता है। एक मनुष्य भूतकाल में राजा था, परंतु आज भिखारी हो तो यह नय जैन शास्त्रों में निश्चय और व्यवहार का उल्लेख कई बार आता उसे राजा न कहकर भिखारी ही कहेगा, क्योंकि वर्तमान में उसकी है किसी भी वस्तु के दोनों दृष्टिकोण प्रस्तुत किये जाते हैं। 'भ्रमर का स्थिति भिखारी की है। रंग कैसा?' इस प्रश्न के उत्तर में निश्चय नय कहता है कि 'भ्रमर शब्दनय- पर्याय शब्दों का एक ही अर्थ ग्रहण करता है- जैसे पांचों वर्ण का है, क्योंकि उसका कोई भाग श्याम है उसी प्रकार अर्हत्-जिन-तीर्थंकर आदि। कोई भाग रक्त - नील, पीत, और श्वेत वर्ण का भी है। यहाँ व्यवहार समभिरूढ़ नय - पर्याय शब्द का भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करता है नय बताता है कि 'भ्रमर काले रंग का है' क्योंकि उसका अधिकांश अथवा रूढ़ अर्थ में भिन्न-भिन्न अर्थ की सम्मति दे। भाग काला है' अथवा उसका काला भाग व्यवहार में आता है। एवंभूतनय - एवं अर्थात् व्युत्पत्ति के अर्थानुसार, 'मूल' अर्थात् निश्चय की दृष्टि साध्य की ओर होती है, व्यवहार की दृष्टि एवंभूतनय कहलाता है। साधन की ओर होती है। इन दोनों दृष्टियों के मेल से कार्यसिद्धि इस नय की दृष्टि से अर्हत् शब्द का प्रयोग (तभी होगा) तभी होती है। जो मात्र निश्चय को ही आगे करके व्यवहार का लोप करते उचित माना जाये जब सुरासुरेन्द्र उनकी पूजा कर रहे हों, जिन शब्द हैं अथवा व्यवहार को आगे करके निश्चय का लोप करते हैं, वे जैन का प्रयोग तभी उचित गिना जाए, जब वे शुक्ल-ध्यान धारा में चढ़कर दृष्टि से सच्चे मार्ग पर नहीं। रागादि रिपुओं को जीतते हों और तीर्थंकर शब्द का प्रयोग तभी निश्चय को आगे करके व्यवहार लोप करने पर सभी धार्मिक उपयुक्त माना जाये जब वे समवसरण में विराजमान होकर चतुर्विध क्रियाएँ, धार्मिक अनुष्ठान- यावत् धर्मशासन और संघव्यवस्था निरर्थक संघ की और प्रथम गणधर की स्थापना करते हों। राजा तभी माना सिद्ध होती है। व्यवहार को आगे करके निश्चय का लोप करने पर जाये जब वे सिंहासन पर बैठे हों। शिक्षक तभी माने जायें जब छात्रों परमार्थ की प्राप्ति नहीं की जा सकती, और कार्य सिद्धि असंभव बन । को पढ़ाते हों, गुरु महाराज तभी माने जायें जब वे पाट पर विराजमान जाती है। हो, अनेक लोगों को धर्म का उपदेश देते हों, इस प्रकार एवंभूतनय निश्चय और व्यवहार का समन्वय जैन दृष्टि है, अकेला निश्चय अर्थ के अनुसार ही प्रवृत्ति ग्रहण करता है। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथावावना अहंकार करता सदा, तन धन मति का नाश । जयन्तसेन वइनय विभव, देता ज्ञान प्रकाश ॥ ___, Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दार्शनिक-परम्परा और स्याद्वाद (श्रमणसंघीय साध्वी श्रीउमरावकुंवरजी "अर्चना") विश्व का विचार एवं चिन्तन करनेवाली परस्पर दो धाराएँ हैं हो जाता है। यह एक माना हुआ सत्य सामान्य-गामिनी और विशेष-गामिनी। पहली धारा अथवा दृष्टि सारे है कि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, उसके संसार में विद्यमान वस्तुमात्र में समानता ही देखती है और दूसरी दृष्टि असंख्य पहलू हैं। ऐसी स्थिति में किसी सारे विश्व में असमानता ही असमानता देखती है। सामान्य-गामिनी एक शब्द द्वारा किसी एक धर्म के दृष्टि में एक मात्र जो विषय प्रतिभाषित होता है, वह एक है, अखंड कथन से वस्तु का समग्र स्वरूप है तथा सत् है। विशेष-गामिनी दृष्टि में एकता की तो बात ही क्या? प्रतिपादित नहीं होता। तब समग्र स्वरूप समानता भी कृत्रिम प्रतीत होती है। विश्व की प्रत्येक वस्तु एक दूसरे के प्रामाणिक प्रतिपादन के लिए एक से अत्यंत भिन्न परस्पर असंपृक्त, निरन्वय भेदों का पुंजमात्र है। इन ही चारा है कि वस्तु के किसी एक दोनों दृष्टियों के आधार पर निर्मित प्रत्येक भारतीय दर्शन ने अपनी- साध्वी श्रीउमरावकुंवरजी धर्म को मुख्य रूप से कहा जाय और अपनी चिन्तन प्रणाली निश्चित की है। सामान्य-गामिनी दृष्टि अद्वैतवाद 'अर्चना' शेष धर्मों को गौण रूप में स्वीकार के नाम से तथा विशेष-गामिनी दृष्टि शून्यवाद, क्षणिकवाद के नाम किया जाय। इस मुख्य और गौण भाव को अर्पणा और अनर्पणा से विख्यात हुई। कहते हैं। भारतीय-दर्शनों में जैन-दर्शन के अतिरिक्त श्रमण भगवान् महावीर मुख्य एवं गौण भाव से अथवा अपेक्षा या अनपेक्षा से वस्तु के समय जो दर्शन अति विख्यात थे तथा जो वर्तमान में अति तत्व की सिद्धि होती है। अनेकान्त दृष्टि विराट वस्तु तत्व को जानने विख्यात हैं, उनमें सांख्य-योग, वैशेषिक-न्याय, मीमांसक, वेदांत, का वह प्रकार है, जो विवक्षित धर्म को जानकर भी अन्य धर्मों का बौद्ध और शाब्दिक हैं-ये दर्शन मुख्य हैं। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शनों निषेध नहीं करता, उन्हें गौण या अविवक्षित कर देता है अर्थात् की परिगणना हो जाती है और अवैदिक दर्शनों में चार्वाक, जैन और अस्तित्व की प्रधान रूप से विवक्षा है और नास्तित्व आदि की गौण बौद्ध दर्शन आते हैं। इस प्रकार भारतीय-दर्शन परम्परा में मूल में रूप से। इस प्रकार स्याद्वाद, वस्तु तत्व के सम्यक् प्रतिपादन की नव दर्शन होते हैं-चार्वाक, जैन, बौद्ध, सांख्य, योग, वैशेषिक, निर्दोष शैली है। न्याय, मीमांसा और वेदांत। ये नव दर्शन भारत के मूल दर्शन हैं। अन्य दर्शनकारों ने अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक-एक धर्म को कछ विद्वानों ने यह भी कहा है कि अवैदिक दर्शन भी छह हैं- जैसे पकड़कर उसे ही समग्र वस्त मान लेने की भूल की है। जैसे बौद्ध चार्वाक, जैन, सौत्रान्तिक वैभार्षिक, योगाचार और माध्यमिक। इस दर्शन वस्तु के क्षणिक पर्याय को ही समग्र वस्तु मान लेता है और प्रकार भारत के मूल दर्शन द्वादश हो जाते हैं। शंकराचार्य अद्वैतवाद वस्त के द्रव्यात्मक नित्यपक्ष को सर्वथा अस्वीकार करता है। वेदान्त के प्रमुख प्रचारक तथा तथागत बुद्ध शून्यवाद के प्रवर्तक माने जाते एवं सांख्य-दर्शन वस्तु को सर्वथा नित्य-कूटस्थ नित्य मानकर उसे हैं। अद्वैतवाद और शून्यवाद के आधार पर निर्मित दर्शनों ने किसी क्षणिक पर्यायों का सर्वथा निषेध करता है। नैयायिक वैशेषिक दर्शन न किसी एक दृष्टि का आश्रय लेकर तत्त्व चिन्तन किया है। यद्यपि यद्यपि वस्तु में नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों को मानते हैं तथापि वे दोनों वाद ऐकांतिक हैं, फिर भी उन्हें अपने कथन को प्रमाणित करने किसी वस्तु को सर्वथा नित्य और किसी वस्तु को सर्वथा अनित्य भी के लिए जैन-दर्शन द्वारा प्ररूपित स्याद्वाद का आश्रय लेना पड़ा है। मानते हैं। साथ ही वे पदार्थ के नित्यत्व और अनित्यत्व को पदार्थ दार्शनिक विचार और वस्तु स्वरूप के कथन के लिए स्यावाद - से सर्वथा भिन्न मानते है. जबकि वह वस्त का तादात्म्य स्वरूप है। सापेक्षवाद ही एक मात्र मार्ग है, शैली है जिसके द्वारा यथार्थ चिन्तन ये दर्शनकार परस्पर विरोधी और एकांगी पक्ष को लेकर परस्पर में एवं यथार्थ कथन किया जा सकता है। विवाद करते हैं। उनका यह विवाद अन्धगज न्याय की तरह है। जैनदर्शन का अन्तर्नाद अनेकान्तवाद है। इसकी भित्तीपर ही योगदर्शन में स्यादवाद: सारा जैन सिद्धान्त आधारित है। 'उप्पने इवा, विगमे इवा, ध्रुवेइवा' योगदर्शन सांख्यदर्शन की एक शाखा है। योग और सांख्य के इस त्रिपदी को सुनकर महामति गणधर चतुर्दश पूर्वो की रचना कर लेते हैं। इस त्रिपदी में जो तत्त्व समाहित हैं, वह अनेकान्त है इस ' 'अर्पितानर्पित सिद्धे' : - आचार्य उमास्वाति दृष्टि से समस्त जैन वाङ्मय का आधार अनेकान्त है, यह प्रमाणित - तत्वार्थ सूत्र अ. ५ सु. ३२ श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना अहंकार में अंध हो, करे सदैव प्रपंच । जयन्तसेन मनुज वही, खोता सगुण संच .Melibrary org Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकांश सिद्धान्त समान हैं। इनमें मुख्य अन्तर यही है कि सांख्य योगसूत्र के उक्त सूत्रपाठों का आशय यह है कि पदार्थ सामान्य पुरुष को अकर्ता मानता है और योग परमेश्वर को मानकर उसकी विशेष उभयरूप हैं। भक्ति पर विशेष बल देता है इसलिए इसे ईश्वरवादी सांख्य भी कह इस प्रकार योगदर्शन में अनेकान्तवादात्मक आपेक्षिक कथनों के देते हैं तथा योग पर विशेष बल देने से योगदर्शन कहते हैं। योगदर्शन दर्शन होते हैं। में भी सांख्य-दर्शन की तरह प्रकृति, पुरुष आदि पच्चीस तत्त्व माने सांख्यदर्शन में स्याद्वादः गए है किन्तु वर्तमान में योग दर्शन की विधिवत् व्यवस्था करने सांख्य-दर्शन भी जैन और बौद्ध दर्शनों की तरह वेदों को प्रमाण वाले महर्षि पतंजलि हैं। नहीं मानता है। यह यज्ञयागादि हिंसा मूलक कर्मकांड का विरोधी है जगत् की नित्यानित्यता: और मुक्ति के तत्त्वज्ञान एवं अहिंसा को मुख्यता देता है। जैनदर्शन __योग-दर्शन (सेश्वरवादी सांख्य-दर्शन) के मान्य ग्रन्थ पातंजल के आत्म-बाहल्यवाद और बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद की तरह योगसत्र के भाष्य में महर्षि व्यास ने जगत की नित्यानित्यता के बारे परिणामवाद को मानता है। सांख्य-दर्शन के आद्य प्रणेता प्रवर्तक या में अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर निम्न प्रकार से कथन किया है - व्यवस्थापक महर्षि कपिल माने जाते हैं और इनका जन्म भी जैन और अपर' आह धर्मानभ्यधिको धर्मी पूर्वतत्वानतिक्रमात् । बौद्ध तीर्थंकरों की तरह क्षत्रियकुल में होना माना जाता है। कुछ लोग पूर्वापरावस्थाभेदमनुपतितः कौटस्थ्येन विपरिवर्तेत पद्यन्वयी स्यादिति। कपिल को ब्रह्मा का पुत्र बताते हैं और भागवत में इन्हें विष्णु का अयमदोषः कस्मात् एकान्तानभ्युपगमात्। तदेतत् त्रैलोक्यं व्यक्तरपंति अवतार कहा है। कस्मात् नित्यत्वप्रतिषेधात् । अपेतमप्यस्ति विनाशप्रतिषेधात्। सांख्य-दर्शन की दो धाराएँ हैं-सेश्वरसांख्य और निरीश्वरसांख्य। उपर्युक्त सूत्र में बौद्धदर्शन की शंका का समाधान करने के सेश्वर-सांख्य-योग-दर्शन और निरीश्वरसांख्य सिर्फ सांख्यदर्शन के नाम लिए अनेकान्तवाद का अनुसरण करते हुए भाष्यकार ने संकेत किया से अभिहित होता है। उक्त दोनों प्रकार के सांख्यों ने अपने-अपने चिन्तन में अनेकान्तवाद का आश्रय लिया है। जैन-दर्शन की तरह अयमदोषः कस्मात् एकांतानभ्युपगमात् । निरीश्वरवादी ने भी प्रकृति को उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक माना है या वाचस्पतिमिश्र ने अनेकान्तवाद की कथन-प्रणाली का आश्रय आचार्य वाचस्पति के अनुमान के उदाहरण में वह्नित्व को सामान्य लेकर योग-भाष्य की व्याख्या में आप लिखते हैं विशेषात्मक मानते हुए अनेकान्तवाद का समर्थन किया है। यथा"कटककुण्डलकेयूरादिम्यो भिन्नाभिन्नस्य सुवर्णस्य भेद विवक्षया “यथा धूमात् वह्नित्वसामान्यविशेषः पर्ततेऽनु मीयते ।" । सुवर्णस्य कुण्डलादन्यत्वम्। तथा च कटककारी सुवर्णकार: म जैसे धूम के ज्ञान से वह्नित्व रूप सामान्य विशेषका पर्वत में कुण्डलादभिन्नात्सुर्वात् अन्यत्कुर्वनन्यत्वकारणम्।” अनुमान होता है। यहाँ पर वह्नित्व को सामान्य एवं विशेष उभयरूप कुल मिलाकर इसका सारांश इतना ही है कि कटक कुण्डल से स्वीकार करने में ही अनेकान्तवाद की स्वीकृति है। अनेकान्तवाद आदि धर्मों से सुवर्ण रूप धर्मी भिन्न अथवा अभिन्न हैं। भेद विवक्षा भी तो यही कहता है कि वस्तु सामान्य विशेष, नित्य-अनित्य आदि से वह भिन्न है और अभेद विवक्षा से अभिन्न है इसके अलावा धर्मों से संयुक्त है, लेकिन उनका कथन-अभिव्यक्ति अपेक्षा से होती योगदर्शन की भोजदेव कृत राजमार्तण्ड नामकवृत्ति में भी अनेकांतवाद है। के अनुरूप ही धर्म-धर्मी के भेदाभेद को स्वीकार किया गया है। मीमांसा-दर्शन में स्यादवाद : पातंजल योग-भाष्य में जैनदर्शन के अनुरूप पदार्थ को र मीमांसा - दर्शन के प्रथम प्रस्तावक महर्षि जैमिनी माने जाते सामान्य-विशेष उभयात्मक माना गया है। उदाहरण के रूप में निम्न हैं। उनके द्वारा रचित मीमांसा-सूत्रों के कारण इसे जैमिनीय दर्शन भी सूत्र उद्धृत हैं कह दिया जाता है। जैमिनी कृत मीमांसा सूत्र पर कुमारिल भट्ट ने 'सामान्य-विशेषणात्मनोऽर्थस्य। ईसा की सातवीं सदी में श्लोक वार्तिक, तन्त्रवार्तिक और दुष्टी ये तीन टीकाएँ लिखीं। मीमांसादर्शन में सामान्यत: पाँच प्रमाण माने गये य एतेष्वभिव्यक्तानभिव्यक्तेसु धर्मेष्वनुपाती सामान्य हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, शब्द। कुमारिलभट्ट ने विशेषात्मासोऽन्वयी धर्मी। छठा अभाव प्रमाण भी माना है। सामान्य-विशेष समुदायोऽत्र द्रव्यम्। जैनदर्शन में जैसे द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्यय ध्रौव्यात्मक माना है तथा द्रव्य स्वरूप से धौव्यात्मक और अपनी पर्यायों से टीकाकार नालाराम उदासीन उत्पादव्ययात्मक है, द्रव्यनित्य है और पर्याय अनित्य। वैसे ही मीमांसा २ योगसूत्र - विभूतिपाद सूत्र १३ दर्शन में भी द्रव्य-पर्याय के नित्यानित्यत्व को इस प्रकार प्रकट किया ३ योगसूत्र, समाधिपाद सूत्र ७ ४ योगसूत्र, विभूतिपाद सूत्र १४ । योग सूत्र, विभूतिपाद सूत्र ४७ श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन मंथ/वाचना ४६ तन धन बल अरु बुद्धि का, उचित नहीं अभिमान । जयन्तसेन मिले सदा, कदम कदम अपमान ॥ | Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया हैअतो न द्रव्यस्यकदाचिदागामापायोवा उपर्युक्त सूत्रों में उपस्कार एवं भाष्य का आशय यह है कि घर घटपटगवाश्व शुक्लरक्ताद्यवस्थानामेवागमापायौ - आह च - अपने निजी स्वरूप से तो है और पररूप से नहीं है अश्व अपने अश्व आविर्भाव - तिरोभाव - धर्मकष्वनुयायिमत् ।। स्वरूप से सत् है और गौ रूप से असत् है। इसका अर्थ यह हुआ तद् धर्मी तत्रच ज्ञानं प्रारधर्मग्रहणात् भवेत् ॥ कि घरादि प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप की अपेक्षा सत् और परादि तथा च यादशमस्मामिरभिहितं द्रव्यं तादृश प्रत्येक पर-रूप की अपेक्षा से असत् है इस कथन से यह सिद्ध हुआ स्यैव हि सर्वस्य गुणएव भिद्यते न स्वरूपम् । कि प्रत्येक पदार्थ स्व पर रूप की अपेक्षा सत्-असत् दोनों रहते हैं। अर्थात् द्रव्य की कभी उत्पत्ति और विनाश नहीं होता है, किन्तु इसी बात को अनेकान्तवाद भी व्यक्त करता है कि प्रत्येक पदार्थ उसके रूप और आकारादि विशेष का ही उत्पत्ति-विनाश होता है। स्व-पर रूपापेक्षा सदसदात्मक है। कहा है- उत्पत्ति और विनाशशील धर्मों में अन्वय रूप से जिसकी न्यायदर्शन में स्याद्वाद: उपलब्धि होती है, वह धर्मी और उसका ज्ञान प्राग्धर्म के ग्रहण से प्रत्येक वस्तु को न्याय की कसौटी पर कसना न्याय दर्शन है। होता है अत: उत्पाद-विनाश स्वभावी धर्मों में मिट्टी रूप द्रव्य-धर्मी इस दर्शन के आद्य प्रवर्तक महर्षि गौतम हैं। नैयायिक दर्शन में प्रमाण, सर्वत्र अनुगत रहता है। अन्य विद्वानों की अपेक्षा कुमारिलभट्ट ने स्पष्ट प्रमेय, संशय, प्रयोजन आदि १६ तत्त्व माने जाते हैं। महर्षि गौतम शब्दों में अनेकान्तवाद का समर्थन किया है। कुमारिल भट्ट का पदार्थों के अनुसार सोलह तत्त्व का ठीक-ठीक ज्ञान होने से मुक्ति होती है। को उत्पाद, स्थितिरूप सिद्ध करना, अवयव को स्वरूप एवं पर-रूप महर्षि गौतम के न्यायसूत्र के भाष्यकार वात्स्यायन ने पदार्थ विवेचन से सत् असत् स्वीकार करना तथा सामान्य विशेष को सापेक्ष मानना में निम्न प्रकार से अनेकान्तवाद का आश्रय लिया हैअनेकान्तवाद का समर्थन करना ही माना जाता है। इस प्रकार आचार्य विमृश्य पक्ष प्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णय : कुमारिल भट्ट ने वस्तु विवेचन के लिए अनेकान्तवादात्मक शैली का एतच्च विरुद्धयोरेकधर्मिस्थयो बर्बोधव्यं, यत्र ...... अनुसरण किया है। दूसरे शब्दों में हम यों कह सकते हैं कि आचार्य अर्थात् पक्ष-प्रतिपक्ष द्वारा विचार करके पदार्थ को जो निश्चय कुमारिल भट्ट जैन दार्शनिक हैं। किया जाता है, उसे निर्णय कहते हैं। परंतु यह विचार करने का वैशेषिक - दर्शन में स्याद्वाद: अवसर तभी आता है जब एक धर्मी में विरुद्ध धर्मों की स्थिति हो। यह दर्शन विशेष (परमाणु) से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है अतः लेकिन जहाँ धर्मी सामान्य में धर्मों की सत्ता प्रामाणिक रूप से सिद्ध इसका नाम वैशेषिक दर्शन है। इस दर्शन के आद्यप्रवर्तक कणाद हो वहाँ पर समुच्चय ही मानना चाहिये, क्योंकि प्रामाणिक रूप से ऋषि माने जाते हैं। वैशेषिक दर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ऐसा ही सिद्ध है। वहाँ पर तो परस्पर विरुद्ध दोनों ही धर्मों को प्रमाण स्वीकार किये गये हैं। वैशेषिक सूत्र के अनुसार द्रव्यत्व, गुणत्व स्वीकार करना चाहिये। इस प्रकार न्याय दर्शन में यथा प्रसंग अनेकांतवाद और कर्मत्व ये सामान्य भी हैं और विशेष भी। का आश्रय लेकर ग्रंथकारों ने अपने सिद्धान्त का पोषण किया है। प्रशस्तपाद - भाष्य में उक्तसूत्र की व्याख्या करते हुए जैन-दर्शन वेदान्त - दर्शन में स्यादवाद : के मंतव्य की तरह सामान्य-विशेष उभय रूप में मानकर स्पष्ट रूप इस दर्शन का निर्माण वेदों के अन्तिम भाग उपनिषदों के आधार में कहा है से हुआ। इस कारण वह वेदान्त - दर्शन कहलाता है। सर्व प्रथम "सामान्यं द्विविध परमपरं सद्विशेषाख्यामपि लभते ।। वेदान्त दर्शन उपनिषदों में पाया जाता है। वेदान्त का प्रधान सिद्धान्त सारांश यह है कि सामान्य सिर्फ सामान्य है रूप ही नहीं है को ब्रह्म द्वितीयं नास्ति' है। वेदान्त के अनसार व्यक्ति को सदा किन्त विशेष रूप भी है। द्रव्यत्व, गुणत्व आदि यद्यपि सामान्य रूप तत्त्वमसि का ही ध्यान करना चाहिए। हैं लेकिन सत्ता की अपेक्षा उनमें विशेषत्व और पृथ्वीत्वादि की अपेक्षा आमा प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दोनों विरोधी धर्मों को प्रकृति में नहीं सामान्य रूपता यह दोनों ही धर्म रहते हैं। मानकर ईश्वर में स्वीकार करने के लिए शंकराचार्य ने अनेकान्तवाद _ इस प्रकार महर्षि कणाद ने स्पष्ट रूप से अनेकान्तवाद का का ही आश्रय लिया है। परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों को प्रतिपादन किया है। भाष्यकार लिखते हैं सापेक्ष रूप से एक वस्तु में स्वीकार करना ही तो अनेकान्तवाद है। तदेवं रूपान्तरेण सदप्यन्येन रूपेण सद् भवतीत्युक्तम्.... शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र के शंकर भाष्य में अनेक स्थलों पर अपेक्षावाद अश्वात्मना सन्नप्यश्वो न गवात्मनास्तीति । का आश्रय लेकर अपने मत को अभिव्यक्त किया है एवं उनका 'शास्त्रदीपिका पार्थसार मिश्र रचित पृ. १४६-१४७ अनिर्वचनीय शब्द तो अनेकान्तवाद के आशय को ही स्पष्ट करता २'द्रव्य व्वं गुणव्वकर्मत्वं च सामान्यानि विशेषाश्च ।' - वैशेषिक सूत्र १/२/५ ३ वैशेषिक भाष्य -पृ. ३१५ ५ न्याय सत्र ११४१ अचार श्रीमद् जयंतसेनहरि अभिनंदन ग्रंथावाचना X9 असभ्य बन कर मानवी, क्यों करता अभिमान । जयन्तसेन सभ्य बनो, जीवन बने महान Library.org Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार वेद, उपनिषद्, गीता आदि सभी में अनेकान्तवाद इस प्रकार स्याद्वाद में न तो निरपेक्ष काल्पनिक वस्तु है और का आश्रय लिया गया है, कारण कि स्वयं पदार्थ है जो अनन्त न प्रत्यक्षादि प्रमाण विरुद्ध काल्पनिक दृष्टिकोण । देशकाल की सीमाओं धर्मात्मक है और उन अनन्त धर्मों की अभिव्यक्ति के लिए कथन के बन्धन से भी परे उसकी दृष्टि है, उसके नियम सार्वदेशिक और प्रणाली तद्नुरूप ही होनी चाहिए। सार्वकालिक हैं। जिसके कारण कोई भी दर्शन उसका अंग बन सकता बौद्ध - दर्शन में स्याद्वाद: है। यदि सभी दर्शन अपने अन्तर्विरोधों को समाप्त कर परस्पर सहयोग बुद्ध की मान्यता बौद्धदर्शन कहलाता है। जैन - धर्म में वर्णित स्थापित करना चाहते हैं तो उनके लिये स्याद्वाद स्वीकार करने के १४ गुणस्थानों की भांति बौद्धधर्म में भी १० पारमिताएँ मानी गई हैं। अलावा अन्य कोई उपाय नहीं है। समन्वय के लिए स्यादवादात्मक जैनधर्म के अनुसार जैसे तेरहवें गणस्थान में पहँचने पर जीव जिन दृष्टि अपनाने की प्रक्रिया वर्तमान में चालू हो गई है। और उसकी बनता है, वैसे ही बौद्धधर्म के अनुसार दसवीं बोधिसत्व भूमि में जाने पूर्णता होने पर सम्पूर्ण विश्व सह-अस्तित्व की सुधा का पान कर के बाद जीव बुद्ध बनता है। बौद्ध दर्शन को सुगत दर्शन भी कहते सकेगा, ऐसी आशा है। भारतीय दार्शनिक परम्परा में स्याद्वाद का कहाँ किस रूप में अनेकान्तवाद को ध्वनित करने वाला दूसरा शब्द विभज्यवाद प्रयोग हुआ है उसका संक्षेप में दिग्दर्शन कराया गया है। जिससे यह भी आगमों में देखने को मिलता है। बौद्ध-ग्रन्थ मज्झिमनिकाय (सत्र स्पष्ट है कि अनेकान्तवाद यथार्थ रूप से वस्तुरूप का निर्णय करने ९९) में शभ माणवक के प्रश्न के उत्तर में बद्ध ने अपने को वाला सुनिश्चित सिद्धान्त है। अन्य दर्शनों ने किसी न किसी रूप से विभज्यवादी बताया है, एकांशवादी नहीं। मज्झिमनिकाय सूत्र (९९) इस अपनाया है, इसा कारण यह कहा गया है कि - से तथागत बुद्ध के एकान्तवाद और विभज्यवाद का परस्पर विरोध स्याद्वादं सार्वतांत्रिकम्। स्पष्ट सूचित हो जाता है और जैन टीकाकारों ने विभज्यवाद का अर्थ महान् आचार्यों ने स्याद्वाद की संस्तुति करते हुए कहा हैस्याद्वाद, अनेकान्तवाद किया है। भगवतीसूत्र में अनेक प्रश्नोत्तर हैं, जेणविणा लोगस्स-वि ववहारो सव्वहान निव्वडइ । जिनमें भगवान महावीर की विभज्यवादी शैली के दर्शन होते हैं। तस्सत भुवणेक्क-गुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ॥ मुक्ति का मार्ग ..... (पृष्ठ ५९ का शेष) (१) सामायिक (२) छेदोपस्थापनीय (३) परिहार विशुद्धि (४) सूक्ष्मसंपराय और (५) यथाख्यात चारित्र। मुख्य चारित्र के दो प्रकार हैं- द्रव्य चारित्र और भाव पात्र। आत्मा के उद्धार और मोक्ष सुख प्राप्ति का आधार भाव चारित्र है। मात्र द्रव्यचारित्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है, द्रव्य चारिख का पालन तो अभव्य जीव भी कर सकते हैं पर वे मोक्ष में नहीं जा सकते, किन्तु द्रव्य चारित्र के बिना भाव चारित्र प्राप्त करना कठिन है। संयम के सत्रह भेद भी है। पाँच आश्रवों का त्याग, पांच इन्द्रिय का निग्रह, चार कषाय पर विजय और तीन दंड से निवृत्ति ये १७ भेद हैं। संसार रूप अटवी में भटकते हुए भव्यात्माओं को मोक्षमार्ग की तरफ ले जाने वाला चारित्र मार्गदर्शक है, आत्मा के लिए जीवन के विकास के लिए और मोक्ष में जाने के लिए चारित्र सच्चा मार्ग है। समस्त सावध योग से रहित शुभ-अशुभ रूप कषाय भाव से विमुक्त जगत से उदासीनता रूप निर्मल आत्मलीनता ही सम्यग् चारित्र पहले सम्यग्दर्शन को पूर्व रूप से प्रत्यय करके प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि इसके होने पर ही ज्ञान सम्यक्ज्ञान रूप और चारित्र सम्यक्चारित्र रूप परिणत होता है। सम्यग् दर्शन के बिना समस्त ज्ञान अज्ञान और समस्त महाव्रतादि रूप शुभाचरण मिथ्याचारित्र ही रहता है। पप सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को रत्नत्रयी भी कहते हैं और यही मक्ति का मार्ग है। येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति येनांशेन चारित्रं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति इस आत्मा के जिस अंश में सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान और चारित्र है उस अंश में बंधन नहीं है और जिस अंश में राग है उस अंश में बंधन होता है। अत: यदि हमें बन्ध का अभाव करना है अर्थात् दुःख से छुटकारा पाना है तो रत्नत्रयी परिणमन करना चाहिए, एक मात्र सांसारिक दुःखों से छूटने के लिए यही सच्चा मुक्ति का मार्ग है। "तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयलेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च ॥" सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् चारित्र इन तीनों में सबसे श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन पंच/चाचना मैं मैं करना छोड़ दे, मत कर नर अभिमान । जयन्तसेन बड़े बड़े, छोड़ चले नीज प्राण ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मोक्ष' विवेचन (साध्वीश्री पुण्यदर्शनाश्रीजी महाराज) सम्पूर्ण ऐहिक एवं पारलौकिक मुक्ति के लिये श्री वीतराग सर्वज्ञ मोक्ष इच्छाओं की पूर्ण समाप्ति तीर्थंकर प्रभुने अपने अन्तिम पुरुषार्थ अर्थात् संपूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति है। जब हम इच्छाओं का त्याग करते का जो मार्ग बतलाया है उसे हमें जानना एवं उस पर आचरण कर हैं तब मोहनीय कर्म उग्र हो जाता है अपने जीवन को धन्य बनाना है। इन्द्रियाँ आत्मा को बाँधने का प्रयत्न मोक्षपथ का ज्ञान, उसे जीवन में अंगीकार करना और उसी का करती हैं अत: मोहनीय वस्तुओं का ध्यान करना सम्याज्ञान सम्यग्दर्शन एवं सम्यग् चारित्र कहा जाता है। त्याग ज्ञानपूर्वक करना मोक्ष मार्ग है। सत् ज्ञान सत् मान एवं सत्कार ही मोक्ष-मार्ग है। महान् आचार्य श्री “मुत्ताणं मोअगाणं" उमास्वाती के मोक्ष-शास्त्र का यही मंगल है। “सम्यग् दर्शन - देवेन्द्र का कहना है प्रभु मुक्त है ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गाणि" मोचक हैं, अत: मुक्ति दे सकते हैं। “ज्ञान - क्रियाभ्यां मोक्षः" साध्वीश्री पुण्यदर्शनाश्रीजी स्वतंत्र व्यक्ति ही स्वतंत्रता दे सकता हमें चिंतन करना है कि मोक्ष के विषय में क्या जानें, क्या माने? है। जो स्वयं वासनाओं के बंधन में जकड़ा है उससे दूसरे बंधन को क्या आचरण करें ! जिसमें हमारा साध्य सिद्ध हो जावे। निर्ग्रन्थ के छुड़ाने की इच्छा करें तो अरण्य में रोदन के समान है। प्रवचन ही आदरणीय हैं निम्रन्थ के प्रवचन ही ध्येय हैं। निर्ग्रन्थ के वस्त्रों की मलिनता साबुन पानी से दूर होती है उसी प्रकार चित्त प्रवचन ही ज्ञेय हैं। उन्हीं को जानें, मानें तथा उन्हीं पर जीवन को की मलिनता वीतराग पुरुषोत्तम के वचनों का ज्ञान, श्रद्धा और क्रिया आचरित करें। वचन बोलना मात्र है किन्तु प्रवचन प्रकृष्ट वचन है। से उपयोग करना मोक्ष प्रक्रिया है। हजारों पुस्तकों का ज्ञान वैसे ही मोक्ष-मार्ग में उत्कृष्ट वचनों का ही उपयोग है एवं ऐसे वचन निरर्थक है। जैसे पानी साबुन शब्द बोलने से उसकी क्रिया नहीं हो निर्मंथ के ही हो सकते हैं। जिनके मन में मनसा, वाचा एवं कर्मणा सकती वैसे ही जीवन में उसका आचरण नहीं करने पर ज्ञान भी राग द्वेष की ग्रंथियां हैं उनके वचनों का मोक्ष-पथ में कोई महत्त्व नहीं। निरर्थक हो जाता है। श्रद्धा से आचरण ही चित्त शुद्धि की प्रक्रिया गुणदोषों का ज्ञान करने के लिए वीतरागी हृदय होना आवश्यक है। है। निर्ग्रन्थ के प्रवचन चाहिये। और निष्पक्ष पुरुषोत्तम की आत्मासे मोक्ष क्या है? संसार की वासनाओं, इच्छाओं, धारणाओं से ही सत्य प्रकाश प्रकाशित हो सकता है। सुखेच्छा से मुक्त होना। वैसे आत्मा का स्वरूप शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त ज्ञाने मोक्षः । ज्ञानात् ऋते न मोक्षः । है किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से हम अपनी मिथ्यात्वमयी धारणा से जो आशाओं के दास हैं वे संसार को जीत नहीं सकते जिनकी अनादिकाल से बंधे हैं । उस मिथ्यात्वमयी धारणा से छूटना ही सम्यग् आशा दासी है वही जगत को जीत सकता है। ज्ञान के अभाव में हम दर्शन है। जो मोक्षपथ का प्रथम सोपान है। राग, द्वेष, क्रोध, मान, आशाओं के दास बन जाते हैं। माया, लोभ और काम के त्याग का अभ्यास प्रारंभ करना इसका दूसरा ज्ञान को एकत्रित करके हम आशाओं के जाल से मुक्ति पा सोपान है। परिग्रह, त्याग तीसरा सोपान है। अज्ञान-मिथ्यात्व का सकते हैं । इच्छा को समझने तथा समझाने से आत्म-कल्याण का मार्ग त्याग चतुर्थ सोपान है। मोह त्याग मोक्ष का पंचम सोपान है। सरल बन जाता है। जब हमें संपूर्ण अनुभव होगा कि कर्म की श्रृंखलाओं के साथ पांच इंद्रियों के विषय एवं कषायों का साम्राज्य इच्छा पर शासन जड़ तत्वों का जाल भी कट गया है। तब मन-वचन तथा काया की करता है । दूध में विष विषमता उत्पन्न करता है। उसी प्रकार संसार सारी प्रवृत्तियां आचरित शुद्धता के प्रकाश का आलोक करेगी। एक में विषय वासना चारित्र के शुद्ध दूध को विषमय बना देती है। हम असीम शान्ति की अनुभूति हृदय में होगी। जब यह ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तो संसार के प्रति विरक्ति हो जाती है हमारे मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय एवं योग रूप पांच आश्रवों विषय-वासना में डूबने से अनंतकाल समाप्त हो जाता है। का परित्याग स्वत: ही हो जायेगा। यही मोक्ष का प्रभा मंडल है। इसके विपरीत जब ज्ञान दशा जाग्रत हो जाती है तो संसार आत्मा शुद्ध प्रकाश में ज्योतिरूप होती हुई मोक्ष सुख की ओर प्रवृत्त सागर को पार करने का उपाय मिल जाता है। अत: अन्तर में यह होगी। ज्ञान सतत कहो, “तू तारामां डूबीश, तो तने तृप्ति थशे, तो ज तू संसार सेयंबरोय आसंबरोय, बुद्धोअ अहव अन्तोवा । ने तरी शकीश" म समभाव भावि अप्पा, लहेइ मुक्खं न संदेहो । अनुभव कहता है एक इच्छा समाप्त होती है तो हजार इच्छाओं श्वेताम्बर, दिगम्बर या बुद्ध हो कोई भी हो जिसकी आत्मा को उत्पन्न करती है। जब तक संसार है इच्छाओं को विराम नहीं है समभाव में भावित हो उसे मोक्षप्राप्ति में कोई संदेह नहीं। अत: मनमें संसार को नष्ट करो। अत: धर्म क्रियानुष्ठान इष्ट वस्तु की आशा बिना मोक्ष प्रगति प्राप्ति हेतु आगे बढ़े। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथावाचना धर्म बड़ा संसार में, दया क्षमा अरु दान । जयन्तसेन यही धरो, स्वपर होत कल्याण ॥ . Jain Education Interational Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में ध्यान ध्यान आत्मज्ञान का साधन है: ध्यान याने क्या ? साधक के प्रश्न का समाधान करते हुए कहा गया है कि - चित्त को एकाग्र करना, मन की गतियों को शान्त करना एवं चेतन, अचेतन, अवचेतन तक सभी गतियों का शान्त होना ध्यान है। कर्म-निर्जरा का मूल आधार ध्यान है। स्वानुभूति के लिए ध्यान साधना आवश्यक है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में कहा है. का साधन है आत्मज्ञान से कर्मों की निर्जरा होती ही मोक्ष है।" पद्धति (साध्वी डॉ. मुक्तिप्रभाजी एम.ए. पीएच.डी.) आत्मज्ञान को प्राप्त करने एवं मन चित्त को एकाग्र करने में बाधक तत्त्व को हटाना जरूरी है । तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है एकाग्र रूप से चित्त का निरोध अथवा पदार्थ पर विचार का केन्द्रीकरण ध्यान है। इस प्रकार का ध्यान अधिक से अधिक एक मुहूर्त (४८ मिनिट) तक हो सकता है। ". ध्यान आत्मज्ञान है और कर्म निर्जरा जैन दर्शन में ध्यान के दो भेद किये गए हैं १. अप्रशस्त और २. प्रशस्त । अप्रशस्त ध्यान के दो प्रकार हैं१. आर्तध्यान और २. रौद्रध्यान । प्रशस्त ध्यान के दो प्रकार हैं१. धर्मध्यान और २. शुक्लध्यान । ध्यान पद्धति चरण-कमल का ध्यान : श्री जिनेन्द्र भगवान के चरण की शरण ग्रहण करने वाला संसार को पार करने में समर्थ हो सकता है। अतः ये चरणकमल अनन्त शक्ति सम्पन्न हैं । इस चरण कमल के ध्यान से साधक लौकिक-अलौकिक सिद्धि का स्वामी बन सकता | श्रीमद् जयंतसेनरि अभिनंदन वाचना चरण-कमल की विशेषता : जैसे कमल में सुवास होती है, वैसे चरण-कमल में भी सुवास होती है। कमल पुष्प की सुवास समयानन्तर समाप्त होती है, परंतु चरण-कमल की सुवास सदा रहती है तथा यह चरण कमल की सुवास अनुपमेय, अव्याख्येय, अवर्णनीय एवं अगम है। कमल तो कीचड़ में पैदा होता है, इसीलिये वह कलंकित है. परंतु श्री जिनेन्द्र भगवान के चरण कमल इस कलंक से रहित होने के कारण पूर्णतः निष्कलंक हैं। कमल सूर्यास्त से खेद को प्राप्त होता है, पर भगवान के चरण कमल खेदादि दोष से रहित हैं। इतना ही नहीं ऐसे चरण कमल का ध्यान करने वाला अवंचक योगी भी ऐसी शुद्ध दशा को प्राप्त करने में सफल रहता है। - आपके चरण युगल के आश्रित व्यक्ति पर क्रमबद्ध ( तराप मारने के लिए तैयार ) सिंह भी आक्रमण नहीं करता ऐसे श्री जिनेन्द्र देव के चरण कमल की सेवा दुर्लभ है। आनन्दघनजी ने यहां तक कहा है कि तलवार की धार पर चलना सरल है, पर श्री जिनेन्द्र भगवान के चरण-कमल की सेवा दुर्लभ है। श्री हेमचन्द्राचार्यजी कहते हैं कि रात्रि में भटकते हुए व्यक्ति को दीप, समुद्र में डूबते हुए व्यक्ति को द्वीप, जेठ की दुपहरी में मरु में धूप से संतप्त व्यक्ति को वृक्ष और हिम में ठिठुरते हुए व्यक्ति को अग्नि की भांति दुष्करता से प्राप्य ऐसे आपके चरण रजकण इस कलिकाल में प्राप्त हुआ। कमल का चरण कमल के ध्यान के पूर्वः चरण-कमल के ध्यान के पूर्व ध्याता अपने ध्येय को ऐसा निवेदन प्रस्तुत करता है कि हे परमात्मा! मुझ पर कृपा कर आनन्द के समूह ऐसे आपके चरण-कमल की सेवा का मुझे अवसर प्रदान करो। मेरे मन रूपी भ्रमर को आपके चरण रूपी कमल के पास निवास प्राप्त होवे । ऐसे ध्यान में संपूर्ण तीव्र भावों से युक्त होकर भक्त कवि कहते हैं, हे नाथ! आपके चरण कमलों की भक्ति का यदि कुछ फल हो तो उससे हे शरणागत प्रतिपालक आप ही इस लोक में और परलोक में मेरे स्वामी होवें। ऐसे चरण-कमल का ध्यान करते समय साधक को सर्वप्रथम अन्य सर्व कार्यों को त्याग कर शरीर के प्रत्येक अवयव एवं भक्ति से प्रकट हुए रोमांचों से व्याप्त होकर विधिपूर्वक आराधना करनी चाहिए। चरण कमल में चित्त जोड़नेवाला साधक सदैव आत्मभाव में जाग्रत रहता है तथा दुर्दशा को दूर कर मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं मध्यस्थ इन चार भावनाओं में ही हमेशा चित्त को संलीन रखता है। चरण कमल के ध्यान का परिणामः अरिहन्त के चरण कमल के ध्यान से साधक लौकिक अलौकिक अनेक परिणामों को पाता है, क्योंकि श्री जिनेन्द्र देव के चरण कमल अनेक ऋद्धियों के भंडार हैं। अनन्त शक्ति के आगार हैं। अशरण की शरण के ये एक मात्र आधार हैं। श्री जिनेन्द्र भगवान के चरण कमल परम मंगल होने से भव्य आत्मा इनका ध्यान कर ५० वृत्ति विनय की है नहीं, घट में भरा गुमान । जयन्तसेन अशक्य है, मानवता का ज्ञान ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक लौकिकऋद्धियों को प्राप्त करने में सफल रहता है। अरिहन्त के चरण-कमल सदा प्रशंसनीय और स्वाभाविक सुन्दर होते हैं, इनका ध्यान करने वाले साधक लक्ष्मी, यश, कांति एवं धैर्य को प्राप्त करते है। आचार्य ने पूज्यपाद के चरण-कमल की संलीनता का महत्व दर्शाते हुए उसका उपाय भी बताया है, और कहा है तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पदद्वये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र, तावद्यावन्निर्वाणसंप्राप्तिः ॥ अर्थात् हे अरिहन्त जब तक मैं निर्वाण प्राप्त करूं तब तक आपके चरण युगल मेरे हृदय में और मेरा हृदय आपके दोनों चरणों में लीन बना रहे । हृदय कमल में तात्विक प्रतिष्ठा : सम्यक् प्रकार से परमात्मा में अपने विशुद्ध चित्त को स्थापित करना और बाद में अर्हत् स्वरूप का ध्यान करना। तीन गढ़ में स्फुरायमान प्रकाश वाले समवसरण के मध्य में रहे हुए चौंसठ इन्द्रों से जिनके चरण कमल पूजित हैं ऐसे तीन छत्र, पुष्पवृष्टि सिंहासन, चामर अशोक वृक्ष, दुंदुभि दिव्य ध्वनि और भा-मण्डल ऐसे आठ महाप्रातिहायों से अलंकृत सिंह के लांछन से युक्त सुवर्णवत् कांतिवाले पार्षदों में विराजमान श्रीवर्धमान जिनेश्वर को ध्याता अपने हृदय में साक्षात् देखें। ऐसे साधक नेत्र एवं मन को उनमें लीन कर दें। 1 प्रतिष्ठा के बाद साधक को अपनी साधना का पूर्ण विश्वास होना चाहिए, क्योंकि शंका, संशय या संदेह करने से साधना सफल नहीं होती है। साधना की सफलता का परम रहस्य यही है कि जिसने अपने हृदय कमल में ऐसे जिनेश्वर भगवन्त की प्रतिष्ठा कर ली है, उसके लिए विश्व में ऐसा कोई कल्याण नहीं है, जो उसके सामने न आता हो। वह उसकी प्राप्ति में अवश्य ही सफल रहता है। उसके दुःख प्रथम समाप्त हो जाते हैं उसकी देह सुवर्णवत् आभा संपन्न जाती है। एक बार अरिहंत परमात्मा को हृदय में धारण करने पर अन्यत्र कहीं उसका मन नहीं रमता। इस मन रूपी मंदिर में जिनेश्वर के स्फुरायमान होने से पापरूपी अन्धकार का विनाश हो जाता है। जिस प्रकार अन्य स्थानों को छोड़कर कमल जैसे सरोवर में विकसित होता है, उसी प्रकार एक बार अरिहन्त परमात्मा में संलीन हृदय कभी भी नहीं रुकता। हृदय कमल में तात्विक प्रतिष्ठा, यह ध्यान की एक उत्तम पद्धति है । वदन कमल का ध्यान : परमात्मा के शांत प्रशांत वदन, उनमें साधना की सिद्धि से युक्त दैदीप्यमान दिव्य दो नेत्र युगल न केवल वदन कमल ही अरिहन्त परमात्मा का संपूर्ण देह ही अद्भुत एवं रूप सम्पन्न होता है। जन्मकृत चार अतिशयों में अद्भुत रूप और गंध से युक्त देह का होना प्रथम अतिशय है । पिवंगु, स्फटिक, सुवर्ण, पद्मराग और अंजन जैसी श्रीमद् जयंतसेनरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना FIRST 5 Ca प्रभाकांति वाले जिनेश्वर स्वाभाविक पवित्र एवं सुन्दर होते हैं। अरिहन्त भगवान का देह वर्ण प्रियंगु जैसा हरा तो किसी का स्फटिकवत् श्वेत, किसी का सुवर्ण जैसा पीला, तो किसी का पद्मराग जैसा लाल एवं किसी का अंजन जैसा श्याम होता है। इन पांच वर्षों में से कोई भी वर्ण अरिहन्त को स्पर्श करता है। अरिहन्त भगवान के चक्षु युगल प्रशम रस से भरे हुए हैं। वदन- कमल अति प्रसन्न है श्रीमानतुंगाचार्य ने प्रभु के बदन कमल हैं। का स्वरूप दर्शाते हुए बहुत सुंदर कहा है कि सदैव उदय रहने वाला, मोह रूपी अन्धकार को नष्ट करने वाला, राहु के मुख द्वारा प्रसे जाने के अयोग्य मेघों के द्वारा छिपाने के अयोग्य, अधिक कांतिवाला और संसार को प्रकाशित करने वाला आपका मुख कमल रूपी अपूर्व चन्द्रमण्डल सुशोभित होता है। देव, मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों का हरण करने वाला एवं संपूर्ण रूप से जीत लिया है तीनों जगत की उपमाओं को जिसने ऐसा आप का मुख कहां और कहां कलंक से मलिन चन्द्रमा का मुख मंडल । प्रभु का वदन कमल परम मंगल स्वरूप है। प्रात:काल स्मरणीय है, ध्यान द्वारा दर्शनीय है। कल्याण करने वाला है। इस प्रकार वदनकमल के ध्यान के कई लौकिक लोकोत्तर परिणाम हैं। प्रभु का इस प्रकार ध्यान करने से अज्ञान दूर होता है और ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है, तथा भव्यजन सावधान बुद्धि से युक्त होकर प्रभु के निर्मल मुख कमल आदि पर लक्ष्य बांधने वाला देदीप्यमान स्वर्ग की सम्पत्तियों को भोग कर कर्म रूपी मल समूह से रहित होकर शीघ्र ही मुक्ति पा जाता है। . हर्ष के प्रकर्ष से युक्त परमात्मा को जो विधि पूर्वक ध्याता है, वह मोक्ष का सुख प्राप्त करता है। मधुकर मौक्तिक अशुभ से विपरीत है— शुभ यह मनुष्य को 'मनुष्यता 'के शृंगार रूप भावों से ओतप्रोत कर देता है.। जब मनुष्य शुभ की ओर प्रगति करता है, तब वह शुद्ध को पहचान सकता है। शुद्धिकरण और निशुद्धिकरण की प्रक्रिया के शुभारंभ के पश्चात् ज्ञातव्य के ज्ञान के पश्चात् शुभ से शुद्ध प्राप्त किया जा सकता है। इसे समझने के लिए गहन विचार मंथन की आवश्यकता है पर पहले इसे भावों की तरतमता से जान लेना आवश्यक है। जिनशासन में अशुभ से शुभ में प्रवेश पाने के लिए प्रार्थना का विधान किया गया है। प्रकृष्ट उत्कृष्ट भाव निर्मल होते है, उनकी नस नस में निर्माण समाया हुआ होता है। इसीलिए भावों की जाज्वल्यमान पुरस्कृति के लिए अचेत मन को जागृत करना बहुत आवश्यक है। आकर्षण की मदिरा से पथभ्रष्ट होकर जो भव के प्रेमपाश में जकड़े गये हैं उनके लिए बार-बार यह कहा गया है कि जब तक अन्तर्मन में सद्भावों की सरिता कल कल करती बहने नहीं लगेगी, तब तक पवित्रता की अभिव्यक्ति बिल्कुल असंभव है। ५१ बनी बिगड़ती जिंदगी, करे अहं नर कोय । जयन्तसेन विनम्रता, सुखदायक नित होय ॥ . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की त्रिवेणी - अहिंसा, संयम और तप 1 धर्म जीवन का मूल और प्राण वायु है धर्म इतना व्यापक विशाल और चैतन्य है कि हम इसे विश्व की एक नैतिक सुव्यवस्था मानते हैं। धर्म का आभूषण वैराग्य है वैभव नहीं। पुष्प और सुगन्ध की भाँति समाज और धर्म का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। धर्म संकुचित सम्प्रदाय नहीं है, वह केवल बाह्याचार भी नहीं, बल्कि जीवन को गति प्रदान कर लक्ष्य तक पहुंचाने में अर्थात् पुरुषार्थ प्राप्ति में धर्म सहायक बनता है। दयामय धर्म जीवन का साध्य है, धर्म की त्रिवेणी में अवगाहना करने के लिये हमें तीन सूत्रों से सम्बन्ध जोड़ना पड़ेगा। वे तीन सूत्र हैं- अहिंसा, संयम और तप । अहिंसा (जैनसाध्वी डॉ. प्रभाकुमारीजी 'कुसुम' एम.ए. पीएच.डी.) अहिंसा धर्म की आत्मा और उसका मेरुदण्ड है अहिंसा प्रेम की पराकाष्ठा है। जहाँ अहिंसा है वहाँ अपार धीरज, विनय, आत्म-त्याग, आत्मिक शांति और हेय-ज्ञेय-उपादेय का ज्ञान है जो हमें निरन्तर प्रेरित करते हुए जीवन के दिव्य पथ में आगे बढ़ाते रहते हैं । इस दुःख जगत की पीड़ा या आधि-व्याधि दूर करने का एक ही सीधा और सच्चा मार्ग है और वह है- 'अहिंसा' अहिंसा के द्वारा ही मानव सत्य से साक्षात्कार कर सकता है अहिंसा निर्बल और कायरों का हथियार नहीं, वीरों का भूषण है, वीरों का धर्म है। संसार में सत्य के बाद अहिंसा ही बड़ी से बड़ी सक्रिय शक्ति सिद्ध हो चुकी है। जो सम्पूर्ण अहिंसा के साथ अनन्तकाल तक इस पर डटा रहा, वह अवश्य ही विजयी होकर गौरवशाली बना है। अहिंसा मुनिव्रत का सर्वप्रथम एक महावत है श्रावक धर्म का भी सबसे पहला व्रत है- 'अहिंसा' एक पूर्व स्थिति है अहिंसा की समाप्ति ही मानव जाति का पतन है। आज संसार में अज्ञान के अंधकार में भटकनेवाले लोगों की संख्या में वृद्धि का मूल कारण अहिंसा का अभाव है। जैन दर्शन की नींव इसी अहिंसा पर सुदृढ़ है, जो जीवन का पर्यायवाची बन गई है अहिंसा प्रचण्ड शास्त्र है। अहिंसा परम पुरुषार्थ है । संयम | यदि हम निरन्तर कर्मशील रहकर कर्म बन्धनों का क्षय करके मोक्ष पाना चाहते हैं तो हमें संयमी बनना होगा। बिना संयम के संसार में कोई भी साधना संभव नहीं है। अमर्यादित जीवन जीनेवालों की स्थिति कर्णधार हीन नाव के समान है। जो पहली ही चट्टान से टकराकर चूर-चूर हो जाती है। अतः संयमी बनकर साध्य की साधना में लीन हो जाना ही मानव का निज-गुण है। यदि मानवशक्ति संयमी सेवाभाव से अपने अपने कर्त्तव्य की पहचान करले तो विश्व की सभी समस्याएँ आज ही समाप्त हो जाये और यह धरती स्वर्ग बन जाए। श्रम से अभिनंदनाचा volent संयम हमारे जीवन का स्वर्णिम सूत्र है - यह सूत्र हमें जीवन के चार पुरुषार्थ, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होता जैन साध्वी डॉ. प्रभाकुमारी 'कुसुम' है। जो व्यक्ति संयमशील है, वही सच्चे अर्थों में धनिक माना जाता है, क्योंकि संयम ही हमारे धर्म का स्तम्भ है। आत्म-संयमी बनकर सतत प्रयत्न करते हुए अपरिग्रह के सिद्धान्त का अक्षरशः • पालन करना ही सच्चा जैन धर्म है, धर्म- साधना के लिये संयम प्रथम सोपान है। तप तपस्या जीवन की सबसे बड़ी कला और महत्वपूर्ण साधना है। जिसके बिना जीवन अधूरा ही बना रहता है। तप से ही हमारी काया कंचनमय बनकर निखरती है। तप आत्मा की शुद्धि का मूल साधन है । तप के द्वारा ही मुक्ति के इच्छुक साधक आत्मसंयम और आत्मशुद्धि की ओर बढ़ते हैं और अन्त में सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। तप के द्वारा विश्व की बड़ी से बड़ी सिद्धियाँ उपलब्ध हो जाती हैं। प्राचीन काल में तप का बड़ा महत्व था, इसी तप के प्रभाव से ऋषि-मुनि तपस्वियों ने सुखी और शान्त जीवन व्यतीत करके जगत में अनेकों चमत्कार दिखाये, परन्तु आज तप के अभाव में व्यक्ति जीवन पथ और धर्म पथ से भटक गये हैं। मानव तप से अभीष्ट सिद्धि प्राप्त कर सकता है किन्तु तपस्या करने वालों को अपनी साधना और चरित्र पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए। जैन दर्शन के नव-तत्व में तीन तत्त्व जो उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य हैं, वे हैं संवर, निर्जरा मोक्ष इसमें निर्जरा तत्व तप की ओर अग्रसर करता है। कर्म बंधनों का क्षय इसी निर्जरा या तपस्या से ही संभव है। तप से आत्मा की स्वाभाविक शांति का विकास होता है। ज्यों-ज्यों कर्मों का आवरण कमजोर होता जाता है, त्यों-त्यों आत्मिक ज्योति का प्रकाश विकसित होने लगता है, तप हमें गतिशील बनाता है। जैन धर्म में जिनकी आस्था, निष्ठा एवं श्रद्धा है, जैन सिद्धान्तों तथा आदशों में जिनका विश्वास है तथा जैन आगमों में जिनकी अविचल और अटूट मान्यता है उन्हें इस त्रिवेणी में स्नान करने का अलौकिक अद्भुत और अनुपम आनन्द प्राप्त होता है अहिंसा, तप और संयममय त्रिवेणी में संयम ही धर्म का मूल है अत: कभी मूल में भूल न हो, यह ध्यान प्रत्येक के मन में, मस्तिष्क में सदा तरोताजा बना रहना चाहिए। 1 जल ही हमारा जीवन है। जल भी त्रिवेणी का हो, और त्रिवेणी भी धर्म की हो। धर्म की त्रिवेणी में अहिंसा गंगा है, संयम यमुना है, तो तप सरस्वती है जो आत्मा इस अहिंसा-तप-संयम मय त्रिवेणी में स्नान करेगी वही सच्चे शाश्वत सुखों की अधिकारी होगी। तो आइए, इस त्रिवेणी में आत्म-आनन्द हेतु अवगाहन करें। | ५२ मान करे अपमान हो, मान हरे सम्मान । जयन्तसेन अहं तजे, वह नर देव समान ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्उत्तराध्ययन - सूत्र में कथा-शिल्प . (श्रमणसंघीय साध्वी डॉ. सुशीलाजी जैन “शशि) (शिष्या श्री ज्ञानवतीजी म.), भाषा-शास्त्रियों के मतानुसार “जिन-सूत्रों" में सर्वाधिक प्राचीन-भाषा के तीन सूत्र माने गए हैं। प्रथम - आचारांग द्वितीय सूत्रकृतांग एवं तृतीय-उत्तराध्ययन सूत्र । अन्य आगम सूत्रों में किसी विशिष्ट विषय का प्रतिपादन हुआ है, किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र मे विविध विषयों का समावेश है। (इसमें धर्मकथा, उपदेश, तत्त्वचर्चा का सुन्दर समीक्षण है।) इस पद्य-ग्रंथ के ३६ अध्याय हैं, जिनमें मुख्यत: यम-नियमों का सुन्दर निरूपण है, साथ ही आत्म-गुणों की ओर प्रेरित करने वाले प्रेरणाशील भावपूर्ण कथानकों का समावेश भी हुआ है। उत्तराध्ययन सूत्र का कथा-शिल्प स्वर्णजड़ित हीरकमणि की भाँति आलोकित है। इस सूत्र के ३६ अध्ययनों में चौदह अध्याय धर्म कथात्मक हैं। अत: इसे धर्मकथानुयोग में लिया गया है। इस सूत्र में वर्णित कथा-शिल्प को उभारने में मैने विस्तृत शैली न अपनाकर अति संक्षिप्त शैली अपनाई है; जो लघु-शोध-निबंध के लिए उपयोगी है। उत्तराध्ययन सूत्र के आठवें अध्ययन “काविलीयं” में लोभ की अभिवृद्धि का सजीव चित्रण हुआ है। द्रौपदी के चीर की भाँति वृद्धि पाने वाला यह लोभ सद्गणों का नाशक सिद्ध हुआ है, और कपिल केवली का कथानक इसी भूमिका पर उतरा है किन्तु लोभ से लिप्त कपिल के अन्तर्मानस में कुछ इस प्रकार परिवर्तन हुआ कि उसका मन विरक्त हो गया। विरक्त-मन गृहस्थ में निग्रंथ बन गया। इसी अध्ययन में कपिल केवली के द्वारा साधुओं के प्रति एक विशिष्ट उद्बोधन है। पूर्वजन्म के वृत्तान्त के साथ सूक्ष्म अहिंसा का भी सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। नवमाँ अध्ययन 'नमि राजर्षि' से सम्बन्धित है, जो कि रागी से वैरागी बन जाते हैं। संयम-साधना के पथ पर बढ़ते उन क्षणों में परीक्षा हेतु ब्राह्मणवेश में इन्द्र देव प्रस्तुत होते हैं। उनके मध्य होने वाले पारस्परिक संवाद यथार्थ के धरातल पर उतर आए हैं। इस अध्याय से 'नमिराजर्षि' के साथ तात्त्विक प्रश्नोत्तर और उनका सुंदर समाधान हुआ है। बारहवें अध्याय में 'हरिकेशबलऋषि' का कथानक है। उनका जन्म चाण्डाल कुल में हुआ था, किन्तु तप के दिव्य प्रभाव से वे सर्व वन्दनीय बन गए। इस अध्ययन से जातिवाद का खण्डन परिलक्षित होता है। तेरहवाँ अध्याय 'चित्त सम्भति' को लेकर चलता है। यह अध्याय त्याग-वैराग्य की प्रवाहित विमल-धारा के साथ पनर्जन्म को सिद्ध करता है। चौदहवें अध्याय में 'इक्षुकार नृप' की कथा है। इसके अन्तर्गत जीवन की नश्वरता, संसार की असारता, मृत्यु की अविकलता, काम-भोगों की मोहकता एवं मूलत: आत्मा की नित्यता का विश्लेषण हुआ है। अठारहवें अध्याय में 'राजा संयति' का वर्णन है, जो हिंसक से साध्वी डॉ. सुशीलाजी जैन अहिंसक बन गए, जिनका शिकारी रूप 'शशि' शिरोमणि में परिवर्तित हो गया। साथ ही इसमें चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर की अनुपम विभूति के धारक अनेक महापुरुषों का आत्मसिद्धि के लिये त्याग मार्ग पर अनुसरण का वृत्तांत एवं उनकी नामावली भी पाई जाती है। उन्नीसवाँ अध्याय 'मृगापुत्र' के कथानक से जुड़ा हुआ है। इसमें माता और पुत्र के संवाद में तात्त्विक चर्चा के साथ जीवन की कठोरता उभरी है । साथ ही पुत्र का कर्त्तव्य, माता-पिता का वात्सल्य, नरक-वेदना का वर्णन एवं आदर्श त्याग की समुज्ज्वलता प्रकट हुई है। बीसवें अध्याय में 'महानिर्ग्रन्थ अनाथी मुनि' का कथा वर्णन है। इसमें अनाथ और सनाथ की व्याख्या करते हुए चिन्तन गहन हो गया है। अशरण-भावना के साथ “कर्म का कर्ता और भोक्ता आत्मा ही है।” यह भी सुस्पष्ट होता है। इक्कीसवें अध्याय में समुद्रपाल का वर्णन है। तप-त्याग एवं विरक्ति की त्रिवेणी के साथ इस अध्याय में समुद्रयात्रा का विशेष वर्णन हुआ है। बावीसवाँ अध्याय नारी-शक्ति का ज्वलंत उदाहरण है। अंधक कुलगोत्रीय समुद्रविजय के पुत्र रथनेमि, प्रभु अरिष्टनेमि के लघु भ्राता थे। वे अपने भ्राता की होने वाली पत्नी राजमती के रूप लावण्य पर आसक्त होकर काम-याचना करते हैं, किन्तु साध्वी राजमती, मुनि रथनेमि को अनासक्ति का मार्ग समझाकर पुन: धर्म पर दृढ़ करती है। इस अध्याय की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह रही है कि 'पथ भ्रष्ट परुष को नारी ने सत्पथ दिखलाया है। इस अध्ययन में नारी का नारायणी रूप उजागर हुआ है। नारी मात्र वासना की दासी नहीं, उपासना की देवी भी है। वह प्रेयसी ही नहीं, पुरुष के लिए पवित्र प्रेरणा भी है। नमिनाथ की कथा प्रथम बार इस सूत्र में वर्णित हई है। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथावाचना माया दुःखदा है सदा, माया करे विकार । जयन्तसेन संयम रख, फानी यह संसार ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेइसवाँ अध्याय 'केशि-गौतम' की तात्त्विक-चर्चा पर आधारित है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के मुनि केशिश्रमण एवं भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम स्वामी के ऐतिहासिक आध्यात्मिक संवाद है । प्रस्तुत अध्ययन में आत्म-विजय और मन पर अनुशासन के जो उपाय प्रदर्शित किए हैं, वे आधुनिक तनाव के युग में परम उपयोगी हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णित चतुर्दश कथानक की प्रत्येक कथावस्तु 1 आसक्ति से अनासक्ति की ओर वृद्धिगत हुई है। मानव जीवन की श्रेष्ठता, श्रामण्य-जीवन की महत्ता, संसार की नश्वरता-अस्थिरता एवं आत्मस्वरूप के दृष्टिकोण पर ही समस्त कथावस्तु आधारित हुई है। जैसे: खणमेत्त सोक्खा, बहुकाल दुक्खा, पगाम दुक्खा, अणिगाम सोक्खा । संसार मोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ काम भोगा॥' (अ. १४ गा. १३) उत्तराध्ययन सूत्र की समस्त कथाएँ कथानक की दृष्टि से सुगठित एवं प्रभु महावीर के शिष्यों का संवाद-प्रसंग आकर्षक एवं महत्त्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ : २३ वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य महामुनि के श्रीश्रमण, २४ वें तीर्थंकर भगवान महावीर के प्रथम शिष्य प्रज्ञामुनि इन्द्रभूति गौतम से कहते हैं: अणेगाणं सहस्साणं, मज्झ चिट्ठसि गोयमा। ते य ते अहि गच्छन्ति, कहं ते निज्जिया तुमे? ५ (उ.सू.अ. २३ गा. ३५) गौतम ! अनेक सहस्र शत्रुओं के मध्य आप खड़े हैं। वे आपको जीतने के लिए तत्पर हैं, फिर आपने उनको कैसे जीत लिया?" प्रत्युत्तर में गौतम स्वामी कहते हैंएगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस। दसहा उ जिणिताणं, सव्व सत्रू जिणा महं ।। (उ.सू.अ. २३ गा. ३६) न “महामुने ! जो एक को जीतता है, वह पाँच को जीत लेता है, और जो पाँच को जीतता है, वह दस को जीत लेता है। दसों को जीतकर मैंने सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्ति की है।" - उत्तराध्ययन सूत्र की भाषा-शैली पद्यात्मक है एवं अर्धमागधी भाषा के धरातल पर अवतरित हुई है। देशकाल से इसे अंग-सूत्र का उत्तरावर्ती माना है। बिना उद्देश्य के कथानक का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है। इस दृष्टि से उत्तराध्ययन सूत्र में प्रस्तुत सभी कथानकों की मूल संवेदना भौतिकता के परिवेश में होती है, जिसका पर्यवसान अनासक्त भाव में होता है । समस्त कथाओं का केन्द्रीय विचार है- 'मनुष्य-जीवन दु:ख से ओत-प्रोत है। आत्मा राग-द्वेष, विषय-कषाय से लिप्त है।" इन सबसे मुक्त होने के लिये अपने जीवन एवं चरित्र को शद्ध तथा पवित्र बनाना ही एकमात्र चरम लक्ष्य है। हैं। प्राय: कथाओं के पात्रों का केन्द्र-बिन्द संसार की अनित्यता है। 'चारित्र का सौन्दर्य इसी अनित्यता पर जा टिका है। आत्मा ही सुखदु:ख का कर्ता एवं विकर्ता है। आत्मा ही अपना मित्र और शत्रु है। इन भावों को व्यक्त करते हुए मुनि अनाथी, नृप श्रेणिक को सम्बोधित करते हुए कहते हैं। अप्पा कत्ता विकत्ताय, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय-सुपट्ठिओ ॥ एकान्त के क्षणों में रथनेमिने राजमती के सौन्दर्य पर विमुग्ध होकर जब अपनी काम भावना को प्रस्तुत किया, तब ऐसे क्षणों में राजमती सम्भ्रान्त न होकर जाति, कुल एवं शील का रक्षण करते हए रथनेमि को, संयम में स्थिर रहने का सन्देश देती है: अहंच भोयरायस्स, तं च सि अन्धग वन्हिणो । मा कुले गन्धणा होमो, संजमं निहओ चरं ॥३ (उसूअ. २२, गा. ४४) राजमती के चरित्र का यह उज्ज्वलतम रूप है, इतना ही नहीं उसके उद्बोधन से रथनेमि का चरित्र भी विकास प्राप्त करता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कथानकों के साथ-२ संवादों की एक सुंदर श्रृंखला भी पाई जाती है। कथाओं के ये कथोपकथन सुन्दर एवं सात्त्विक भी हैं । नमिनाथ एवं राजमती का संवाद बुद्ध-ग्रंथ सूत्र-निपात की 'प्रत्येक बुद्ध' कथा के समानान्तर है। हरिकेषि व ब्राह्मण का संवाद धार्मिक-क्रिया एवं वृत्ति की ओर संकेत करता है। भृगु पुरोहित एवं उसके पुत्रों का संवाद श्रमण जीवन की महत्ता को उद्भाषित करता है । तेइसवें अध्ययन में भगवान पार्श्वनाथ सन्दर्भ - (१) उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय १४, गाथा १३ (२) उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय २०, गाथा ३७ (३) उत्तराध्ययन सूत्र, २२, गाथा ४४ (४) उत्तराध्ययन सूत्र -हिन्दी अनुवाद-परिचय पृष्ठ ३ (५) उत्तराध्ययन सूत्र अध्याय २३, गाथा ३६ मधुकर मौक्तिक भाव वृद्धि के साथ ही भवस्थिति घटने लगती है। सूरज की प्रखर किरणों के कारण सरोवर का पानी खत्म हो जाता है और वह सूख जाता है, वैसे ही भाव सूर्य की प्रखर उष्णता से जन्म-मरण अर्थात् भवरूप तालाब सूख जाता है। जब भव का अंधेरा घटने लगता है, तब अंधकार भरा मार्ग प्रकाशमान होने लगता है। श्रीमद जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना ५४ माया देखत फंस गया, देह रूप कंकाल । जयन्तसेन जग में वह, रहा सदा कंगाल ॥ Jain Education Indemnational Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - दर्शन में अरिहन्त का स्थान । (साध्वी डॉ. दिव्यप्रभाजी एम.ए., पीएच.डी.) इस वाक्य का सर्जन हुआ। भले ही वीतराग की इच्छा का अभाव हो जाने से देने दिलाने का कोई प्रयल न भी हो, फिर भी उनमें ऐसी शक्ति है जिसके निमित्त से बिना इच्छा के ही उस फल की प्राप्ति स्वत: हो जाती है। इसीलिये उनको पंचसूत्र शक्रस्तव आदि में “अचिंत्तसत्तिजुत्तहिं” “अचिंतचिंतामणि" कहते हैं। साध्य की शक्ति विशेष के प्रभाव से साधक को सिद्धि सहज मिल जाती है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। “ऐसी शक्ति अन्य में असम्भव है" क्योंकि इस शक्ति में उनकी साधना का अटल रहस्य है; जो दो कारणों से परिणमित है१. तीर्थंकर नाम कर्म का उदय एवं २. धन २. घनघाती कर्मों का क्षय। ललित विस्तार में कहा है कि तीर्थंकर नाम कर्म की यह विशेषता है कि इसके उदयकाल में अरिहन्त का ऐसा अचिन्त्य प्रभाव होता जैन-दर्शन में “अरिहंत" राग-द्वेष, काम, भय, हास्य, शोकादि दोष से रहित होने से वीतराग तथा अनन्तज्ञान एवं दर्शन से युक्त होने से सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, अष्ट महाप्रतिहार्य समवसरण सुवर्णकमल आदि द्वारा देवों से पूजनीय होने से “अरिहन्त” राग-द्वेष पर विजय पाने से जिन, अज्ञानसागर से तैरने के कारण तीर्ण, केवलज्ञान प्राप्त करने से बुद्ध तथा घातीकर्म से रहित होने से मुक्त माने गये हैं। अरिहन्त को जैन-दर्शन में भगवान भी कहते हैं क्योंकि १. समग्र ऐश्वर्य, २-रूप, ३-यश, ४-श्री, ५- धर्म एवं ६-प्रयल ये छ: अर्थ जो “भग” के हैं, इनमें पाये जाते हैं। ललित विस्तार के अनुसार “अयमेवंभूतो भगोविद्यते येषां ते भगवन्तः ॥” अर्थात् छ: प्रकारों का “भग" जिन्हें प्राप्त हैं वैसे अरिहन्त देव भगवान् कहलाते हैं। अरिहन्त को तीर्थ रचने के स्वभाव वाले होने से तीर्थंकर कहते हैं तथा राग-द्वेष विषय कषायादि मल से रहित होने से परमात्मा भी कहते हैं। इस प्रकार जैन-दर्शन में “अरिहन्त” का विशिष्ट स्थान है। पंचपरमेष्ठि पद में “नमो अरिहन्ताणं" पद के अधिष्ठाता ये ही अरिहन्त भगवन्त हैं। जैन-दर्शन की महती विशिष्टता यही है कि जैन-दर्शन में लाक्षणिकता से ही व्यक्ति परमात्मा होता है। सामान्य से सामान्य स्थिति में जीवन व्यतीत करने वाली आत्मा भी प्रयल के पश्चात् परमात्मा बनने में समर्थ हो सकती है। _ जैन दर्शन के अनुसार अनन्तानंत परमाणुओं के बने हुए भिन्न-भिन्न प्रकार के सजातीय स्कन्ध हैं। उनका समुदाय, विविध वर्गणाएं हैं। उनमें कार्मण-वर्गणा के नाम से पहचानी जाने वाली वर्गणा को संसारी जीव कषाय और योग द्वारा ग्रहण कर आत्मसात् करता है तब वह वर्गणा कर्मरूप से पहचानी जाती है। उसके मुख्य आठ प्रकार हैं: उनमें एक का नाम “नामकर्म" है। उसमें भी कुछ शुभ हैं और कछ अशुभ है । शुभ "नामकर्म" में विशुद्धता की दृष्टि से जो सर्वश्रेष्ठ है उसे “तीर्थंकर नाम कर्म" कहते हैं। यह “तीर्थकर नाम कर्म" आहारक नाम कर्म की तरह उदय के समय प्रमत्त नहीं होता, किन्तु आराधना प्रत्यनिक होता है। "अरिहन्त की शक्ति का अचिन्त्य प्रभाव वीतराग में रागमात्र का अभाव होने से किसी को कुछ देने दिलाने की इच्छादिक नहीं होती तब वह स्वर्ग मोक्षादि का दाता कैसे कहा जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में ही “शक्तिस्तस्य हि तादृशी" तीर्थंकर नाम कर्म (जिन नाम कर्म) नामक महापुण्य के कर्मविपाक-उदय से ऐसी शक्ति होती है जो उन्हीं में पाई जाती है, जिसमें तीर्थंकर नाम कर्म का उदय हो। दूसरा कारण है कर्म कलंक के विनाश द्वारा स्व-दोषों की शान्ति हो जाने से आत्मा में शान्ति की पूर्ण प्रतिष्ठा हो जाती है वह बिना इच्छा तथा किसी प्रयत्न के ही शरणागत की शान्ति का विधाता होता है। समन्त – भद्राचार्य ने स्वयंभूस्तोत्र में कहा है “स्वदोष शान्त्या विहितात्मशान्ति: शान्तेर्विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद् भव: क्लेश - भयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्यः । अर्हत्परमात्मा ने घाती कर्मों का क्षय किया है और अपने भवनों का किया उनका या कलेवाला या उनके ध्यान से स्वयं के भवबन्धनों के छेदन करने में समर्थ हो सकता है। प इस तीर्थंकर नाम-कर्म के पुण्य-कर्म का निकाचन पूर्व के तीसरे भव में होता है, किन्तु उपार्जन कई जन्म से होता है। इसे उपार्जित करने की मुख्य तीन साधनाएँ हैं१- शुद्ध सम्यक्त्व २- बीस स्थानकों में से एक अथवा अनेक स्थानक की उपासना एवं आराधना श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदनाथावाचना माया ममता से भरा, सारा यह संसार । जयन्तसेन केवट बिन, कैसे उतरे पार ॥ . Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३- विशिष्ट विश्वदया। , शुद्ध सम्यक्त्व - सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म इन तीन पर श्रद्धा एवं इनको इष्ट, परमइष्ट मानकर इसका उपार्जन किया जाता है। सुदेव पर इतना उत्कृष्ट अनुराग होता है कि साधक के रोम-रोम में अरिहन्त.... अरिहंत .... का गुंजार होता है । चलते, फिरते, उठते, बैठते निरंतर सतत स्मरण होना चाहिए। बीस स्थानक और उनकी आराधना : तीर्थंकर नाम कर्म के बीस कारणों के निर्देशन हेतु निम्नलिखित गाथाएं उपलब्ध हैं अरिहंत सिद्ध पवयण गुरु थेरे बहुस्सुए तवस्सीसुं वच्छलया एएसि अभिक्खनाणोवओगे ज्ज ॥ दंसण विणय आवस्मए य सीलवए निरइयारे । खणत्वव तव च्चियाए वेयावच्चे समाहीए ॥ अप्पुवनाण जहणे सुयभत्ति पवयणयभावणया ॥ एएहिं कारणेहिं तित्थस्तं लहइ जीवों ॥ अर्थात् अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत और तपस्वी इन सात का वात्सल्य तथा इन चार सम्बन्धी ज्ञानोपयोगी तथा सम्यक्त्व, विनय, आवश्यक (अनुष्ठान) तथा शील और व्रत इन चार का निरतिचार (अतिचार रहित) पालन क्षणलव तपश्चर्या, त्याग, वैयावृत्य, समाधि, अपूर्वज्ञानग्रहण, श्रुत-भक्ति और प्रभावना युक्त प्रवचन इन बीस कारणों से जीवन तीर्थंकरत्व प्राप्त करता है। तीर्थंकर नाम कर्म का निकाचित बंध (निकाचन) करने के लिए इन बीस कारणों में से एक या अधिक की आराधना आवश्यक हैअनिवार्य है। इस चौबीसी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान ने और श्रमण भगवान महावीर ने बीसों स्थानकों का सेवन किया है तथा शेष २२ तीर्थंकरों ने १, २, ३ तथा २० का आराधन भी किया है। कहा भी है “पढ़मेण पच्छिमेण य एए सव्वेवि फासिया । मज्झिमयएहि जिणेहिं एग दो तिण्णि सव्वेवा ॥ अभयदेवसूरि - कृत टीका के अनुसार मल्लिनाथ ने बीसों स्थानकों का आराधन किया था। विशिष्ट विश्वदया:- “सर्व जीव करूं शासन रसी" की भावना स्वान्त: में सतत ध्यान निष्ठ होती है। जगत के जीवों को कैसे सुखी करूं ऐसी नहीं, परंतु प्राणिमात्र को मैं कैसे दुःख मुक्त करूं इसकी उत्कृष्ट भावना अन्त:करण में सदा उदीयमान रहती है। कर्म के बंधन से युक्त आत्मा की सांसारिक दशा का निरीक्षण करते हए करुणा के अतल सागर में निमग्न होकर तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करते हैं। “अद्भुत कला के अधिकारी" अरिहन्त बनने की इस “अद्भुत कला के अधिकारी” के लिये निश्चित की हुई तीन स्थितियां हैं:१. सम्यक्त्वी २. श्रावक एवं श्राविकाएं ३. साधु एवं साध्वी भगवान ऋषभदेव और श्री पार्श्वनाथ स्वामी ने पूर्व से तीसरे भव में चक्रवर्तीत्व की समृद्धि एवं सुखशीलता को त्याग कर, अविचल आराधना, अटल साधना एवं निश्चल उपासना कर तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया था। भगवान महावीर ने राजनी वैभव का त्याग कर इस नामकर्म का उपार्जन किया था। राजा श्रेणिक ने सम्यक्त्व में स्थिर होकर और सुलसा, रेवती, अंबड सन्यासी आदि ने श्रावक धर्म को पालते हुए तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन एवं निकाचन किया था, तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन तो कई बार होता है परंतु निकाचन होने के बाद इसका उदय निश्चित से तीसरे भव में होता है। यह है अरिहंत बनने की अद्भुत कला जिसे अपना कर प्रत्येक अरिहन्त, अरिहन्त बने हैं और विश्व को उन्होंने इसे दर्शा कर ऐसे पद प्राप्ति की योग्यता का दिग्दर्शन करवाया है। यद्यपि तीर्थकर कर्म बन्धन का उपदेश नहीं करते हैं, फिर भी तीर्थंकर नामकर्म बांधने का उपदेश तो वे स्वयं करते हैं। मधुकर मौक्तिक - ज्ञान तो सीधा सिखाया गया, पर हम उसे सीधी तरह नहीं सीख सके । जो अर्थ सीखना चाहिए, वह तो हम नहीं सीखे, पर कुछ और ही अर्थ सीख गये। शुरू से ही सारी बातें समझा दी गयी हैं, पर हमने केवल ऊपरी अर्थ ही लिया, अर्थ की गहराइयों तक हम नहीं पहुँच सके । शब्द के अर्थ के भीतर हमने प्रवेश नहीं किया। एकड़े एक, बगड़े दो... इस प्रकार शब्द क्यों जोड़े गये? किसी अन्य तरह से क्यों नहीं जोड़े गये? यदि इस पर विचार करें, तो विदित होगा कि आत्मा को ज्ञान का प्रकाश मिले, इसीलिए इस प्रकार से शब्दों की योजना बनायी गयी है। ये सब आत्मा को समाझाने के लिए है। हम ज्ञानीजनों के शब्दों पर ध्यान नहीं देते, अज्ञानियों के शब्दों पर ही ध्यान देते हैं। उनके शब्दों को पकड़ कर उलझन में पड़ जाते हैं, पर ज्ञानियों के शब्दों को पकड़ कर उलझन से बाहर निकलने का प्रयल नहीं करते। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्राम जयतसनसूरिभिनंदनाथ/वाचना ५६ माया ममता में रहा, तज समता का हाथ । जयन्तसेन जग से वह, जाता खाली हाथ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति की विशेषताएँ। STERIES (साध्वी मंजश्रीजी एम.ए.) निकाला मानव समाज में संस्कृति और सभ्यता ये दो शब्द विशेष रूप आचार्य ह.प्र. द्विवेदी के इस से प्रचलित हैं। प्रायः प्रत्येक पढ़ा लिखा व्यक्ति और प्रत्येक धनवान कथन से कि 'संस्कृति उच्चतम चिन्तन व्यक्ति अपने को सभ्य और सुसंस्कृत मानता है। आधुनिकीकरण के का मूर्तरूप है। हमारे अभिमत की नाम पर पुरानी सही प्रथाओं को भी तिलांजलि देकर नए की अंधी पुष्टि होती है। होड़ में अपने को शामिल करते हुए व्यसन और फैशन का शिकार दो मुख्य संस्कृतियाँ बनने में गर्व महसूस करता है। इसीलिए चिन्तक लोग हमेशा से इस प्रश्न पर विचार करते रहे हैं कि सभ्यता और संस्कृति किसे कहा भारत में प्रागैतिहासिक काल से जाए? दोनों में क्या अन्तर है? ही दो संस्कृतियों का प्राधान्य रहा है-२ 'ब्रह्म' भाव का पोषण करनेवाली डॉ. राजबली पाण्डेय ने उक्त प्रश्न का समाधान करते हुए कहा साध्वी मंजुश्रीजी एम.ए. ब्राह्मण संस्कृति और सम, शम और है कि सभ्यता का अर्थ है Means of life तथा संस्कृत का अर्थ है श्रम का पोषण करने वाली श्रमण संस्कृति । दोनों ही अपनी-अपनी Values of life अर्थात हमारे भौतिक जीवन का संबंध सभ्यता से एक विशिष्ट पहचान के साथ चली आ रही संस्कृतियाँ हैं । इस लम्बी है और हमारे आध्यात्मिक जीवन का संबंध संस्कृति से है। भौतिक यात्रा में वे एक दूसरे को प्रभावित करती रही हैं। उदाहरण के रूप जीवन जीने योग्य समाज मान्य समुन्नत साधन एवं बाह्य तौर तरीके में संन्यास तथा जन्मान्तर के भवचक्र से निवृत्ति ब्राह्मण संस्कृति के 'सभ्यता' कहलाते हैं और आत्मिक सौन्दर्य के आधारभूत पारम्परिक लिए जैन संस्कृति की देन है और जैन संस्कृति के लिए देवी-देवताओं जीवन-मूल्यों को संस्कृति' कहा जा सकता है। की उपासना। आध्यात्मिक जीवन को संस्कारित करने में विचार और आचार का गहरा संबंध है। स्व-पर-हित साधन की भावना से जो विचार 'संस्कृति' शब्द का व्युत्पत्यर्थ और तदनुरूप आचार की निष्पत्ति होती है, संस्कृति उसी का दूसरा डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी के अनुसार 'संस्कृति' शब्द के तीन घटक नाम है । दूसरे शब्दों में, लोकमंगलकारी प्रयत्नों के मूल में निहित हैं- सम् + स् + कृति + । सम् का अर्थ है - सम्यक्, स का जीवन मूल्यों की समष्टि को 'संस्कृति' कहते हैं। अर्थ है- शोभादायक तथा कृति का अर्थ है- प्रयत्न, इच्छापूर्वक एक सभ्य कहलाने वाला डॉक्टर यदि अपनी पत्नी से नाखुश किया गया व्यापार । इस प्रकार संस्कृति का सम्पिण्डित रूप में होकर उसे नींद की गोलियाँ खिलाकर सला देता है, तो वह संस्कारवान शब्दार्थ हुआ शोभादायक विवेक सम्मत प्रयल।" नहीं कहला सकता। इसी प्रकार क्रोधावेश में यदि एक प्राध्यापक प्राणिमात्र में अनादिकाल से कर्म की विभावजन्य स्थितियों के दूसरे प्राध्यापक की उंगलियाँ चबा डालता है, तो वह भी असभ्य और कारण विकृति आई हुई है। आत्मा अपनी प्रकृति (स्वभाव) को भूलकर जंगलीपन का शिकार माना जाएगा। संस्कृति इस असभ्यता को दूर विकृतिग्रस्त बनी हुई है। उसे पुन: प्रकृतिस्थ करने के लिए जिस कर मानव मन को सबके हित की भावना से भर कर संस्कारवान विचार और आचार की जरूरत है, बस उसे ही 'संस्कृति' कहते हैं। बनाती है। अर्थात् मनुष्य के भीतर मनुष्यत्व का संचार करने का काम सभी प्राणियों में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो संस्कृति करती है। संस्कृति और सभ्यता ने मानव को संस्कारवान संस्कार-संपन्न बनने के लिये विशेष प्रयत्ल कर सकता है। वह समाज बनाने में अपना-अपना अमूल्य योगदान दिया है। इसीलिए मुनि बना कर रह सकता है, वह धर्म और दर्शन पर तात्विक चर्चाएँ कर विद्यानंदजी ने ठीक ही कहा है कि 'संस्कृति आत्मिक सौंदर्य की जननी सकता है, यहाँ तक कि वह अपने आत्मस्वरूप को संस्कारित कर है। इसी के अनुशासन में सुसंस्कार सम्पन्न मानवजाति का निर्माण परमात्मा भी बन सकता है। अत: आज संस्कृति के संबंध में जितनी होता है। भी चर्चा हुई है, वह सब मनुष्य संस्कृति से ही अधिकांशत: संबंधित प्रो. इन्द्रचन्द्र शास्त्री का अभिमत है कि विचारों की बहती हुई। धारा का नाम संस्कृति है। श्रमण, अंक २, वर्ष १, सन १९४९ पृ. ७ यहाँ हमारे अभिमत से विचारों की बहती हुई शुद्ध धारा को रक, श्री. के. म. सु. अ. पं. खंड ६ पृ. १४४ संस्कृति कहना चाहिए। विचार धारा यदि अशुद्ध हो गई तो वह क. श्री. के. म. सु, अभि. गं. खंड ६, पृ. १४४ समाज में संस्कृति के स्थान पर विकृति फैलाने वाली बन जाएगी। ४ क. श्री के म.सु. अभि. पं. खंड ६-१४४ श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना ५७ पांच तत्त्व का पुतला, माया मय जंजाल । जयन्तसेन अहं रखे, होवत नहीं निहाल ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति की परिभाषाएँ - कहा जाता है कि भारतीय संस्कृति अनेक संस्कृतियों के मेल से बनी हुई संस्कृति है । वैदिक संस्कृति, श्रमण संस्कृति, पाश्चात्य संस्कृति आदि अनेक संस्कृतियाँ इस देश में फली फूली हैं। इस देश की मिट्टी, तन्त्र-मंत्र की साधना, स्त्री और शूद्र का बहिष्कार, यज्ञोपवीत धारण आदि ब्राह्मण परंपरा की देन हैं। जैन संस्कृति श्रमण संस्कृति की एक विशिष्ट धारा जैन संस्कृति के नाम से भारतीय इतिहास में सुविश्रुत रही है। उसकी अपनी पहचान है जिनेश्वर वीतराग की उपासना और विचार एवं आचारगत कतिपय अनन्य साधारण विशेषताओं से वह मंडित है। जैन संस्कृतिकी कुछ प्रमुख विशेषताएँ (१) जैन संस्कृति गुणों की उपासक संस्कृति है, व्यक्ति की नहीं। इसी कारण इसका प्रमुख मंत्र 'नमस्कार मंत्र' अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु के रूप में विश्व की सभी महान आत्माओं के प्रति श्रद्धा एवं प्रणति ज्ञापित कराने वाला मंत्र है । (२) यह संस्कृति निवृत्तिप्रधान संस्कृति है। प्रवृत्ति प्रधान संस्कृति इच्छा के परिष्कार पर बल देती है, जबकि यह इच्छा मात्र के सर्वथा निरोध को ही मुक्ति का साधन मानती है। आत्मोपलब्धि और भवचक्र का उच्छेद इच्छा -निरोध से ही संभव है। (३) विचार और आचार दोनों ही पक्षों में जैनसंस्कृति अहिंसात्मक है । अनेकान्त उसका विचार पक्ष है और अहिंसा उसका आचार पक्ष है। विचार गत अहिंसा का अर्थ है-कदाग्रह अथवा मिथ्याआग्रह (एकान्त पक्ष का आग्रह का त्याग मेरा ही अभिमत सत्य है, इसके बदले 'सत्य है सो मेरा है' का स्वीकार अनेकान्तवाद है । इस दृष्टि का अभिव्यक्ति पक्ष है-स्याद्वाद । इसी के आधार पर जैन संस्कृति अन्य सब दर्शनों का, संस्कृतियों का सम्मान करती है श्रीमद् जयंतसेनरि अभिनंदनाचा me des 185TRE Gist और समुद्र को भरनेवाली नदियों के समान उनको पूरक और उपकारक मानती है। (४) आचार पक्ष की दृष्टि से अहिंसक वृत्तिवाले के लिए सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना स्वयंसिद्ध हो जाती है। यह साधना प्रवृत्ति निवृत्ति उभयरूपा है। जैसे हिंसा से निवृत्ति और दया, करुणा, अनुकंपा, परोपकार, प्रेम आदि में प्रवृत्ति से ही अहिंसावत की साधना में समग्रता आती है। असत्य से निवृत्ति और हित- मित-मधुर सत्य- संभाषण में प्रवृत्ति से सत्य व्रत का समग्रतः पालन किया जा सकता है। इत्यादि। (५) इन पांचों व्रतों की आराधना गृहस्थी और संयमी जीवन की दृष्टि से स्तर-भेद रखती है। गृहस्थ व्यक्ति इनका अंशत: पालन करता है, अतः उसके द्वारा पालित ये व्रत 'अणुव्रत' कहलाते हैं। जबकि एक संयमी साधक इनका पूर्णतः पालन करता है, तब ये ही व्रत 'महाव्रत' संज्ञा से अभिहित किए जाते हैं। 1 (६) वैराग्य और त्याग प्रधान इस संस्कृति में गृही श्रावक और मुनि बनने के लिए जाति-पाँति, धनी-निर्धन आदि का कोई भी बन्धन स्वीकृत नहीं है कोई भी गृहस्थ व्यक्ति श्रावक के १२ व्रतों को अंगीकार कर सकता है। अस्पृश्य समझी जानेवाली जातियों में उत्पन्न लोग श्रमण दीक्षा स्वीकार कर मैत्री, कारुण्य आदि का उपदेश देते हैं। सामान्य स्त्री-पुरुषों से लेकर विद्वत्ता, शूरवीरता और वैभव से सम्पन्न उच्चवर्णीय ब्राह्मण सेनापति, धनकुबेर, श्रेष्ठी और राजा-महाराजा भी अविनश्वर सुख की प्राप्ति के लिए इस मार्ग का अवलम्बन लेते हैं । इस प्रकार जगत के जीवों के प्रति वात्सल्यमयी असाम्प्रदायिक यह जैन संस्कृति भ ऋषभ देव से लेकर आज तक मानव को असद्गुणों से निवृत्त करके सगुणों में प्रवृत्ति का संदेश देते हुए व्यक्तिगत उत्कर्ष के साथ लोकमंगल का विधान करती आयी है। मधुकर मौक्तिक सम्यक्ज्ञान - सहित जो क्रिया होती है, वह रचनात्मक है। उस शुद्ध क्रिया से यदि हम तनिक भी दूर हुए तो असत्-क्रिया के चक्कर में पड़ जाएँगे, जो हमारा मानस विकृत कर डालेगी। इससे हमारे विचार, वाणी और व्यवहार सब दूषित, मलिन हो जाएँगे। ऐसा न हो, इसीलिए नवकार मंत्र आँखें खोल कर सावधान हो कर चलने का सन्देश देता है। हमारे जीवन-पथ में अनेक आँधियाँ और अनेक, तूफान हैं। परमेष्ठी भगवन्तों का आलम्बन ले कर ही उनका मुकाबला करते हुए हमें आगे बढ़ना है । - जैनाचार्य श्रीमद जयंतसेनसूरि 'मधुकर' FRE क ५८ माया ममता ना तजे, रखता चित्त कषाय । जयन्तसेन आत्म वही, जन्म जन्म दुःख पाय ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति का मार्ग (साध्वीश्री शासनलताश्री) विश्व में यह सर्वमान्य एवं सर्वान्भुत तथ्य है कि सभी प्राणी (५) अनुकंपा-किसी भी प्रकार दु:खी हैं और दुःख से मुक्ति चाहते हैं तदर्थ यत्न भी करते हैं, परंतु | का स्वार्थ के बिना दु:खीजीवों के ऊपर उस मुक्ति के सही मार्ग का पता न होने के कारण उनका किया गया करुणा भाव प्रकट करना।। सारा ही प्रयत्न व्यर्थ जाता है अत: मूलभूत प्रश्न यह है कि वास्तविक जा वीतराग परमात्मा ने जो कहा है मुक्ति का मार्ग क्या है? कि वही सत्य है ऐसी अटल श्रद्धा इस प्रश्न के पूर्व वास्तविक मुक्ति क्या है? इस समस्या का होना। समाधान अपेक्षित है । मुक्ति का आशय दुःखों की पूर्णत: मुक्ति से है सम्यग् दर्शन उत्पन्न कैसे होता दुःख आकुलता रूप है। अत: मुक्ति पर पूर्ण निराकुल होना चाहिए, जहाँ अंशमात्र भी आकुलता रहे वह परिपूर्ण सुख नहीं अर्थात् मुक्ति काम सम्यग् दर्शन उत्पन्न होने के नहीं है। मुख्य दो प्रकार उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में बताये:मुक्ति मार्ग क्या है इसका निरूपण करते हुए आचार्य "तन्निसर्गादधिगमाद्वा" अमृतचन्द्रजी लिखते हैं कि : पहला निसर्ग और दूसरा अधिगम । निसर्ग-जो सम्यग्दर्शन "एवं सम्यग्दर्शनबोध, चारित्रत्रयात्मको नित्यम् । जीव को बाह्य निमित्त बिना स्वाभाविकरूप से उत्पन्न होता है, और तस्यापि मोक्ष मागों भवति, निषेव्यो यथाशक्ति ॥” दूसरा अधिगम जो सम्यग्दर्शन गुरु उपदेश आदि बाह्य निमित्त द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इन तीनों की एकता प्राप्त होता है। ही मोक्षमार्ग है। प्रत्येक जीव को इसका सेवन यथाशक्ति करना सम्यग ज्ञान का विशेष स्वरूप:चाहिए। सम्यग् दर्शन को जानने के पश्चात् सम्यग् ज्ञान को जानना जरूरी अत: यह तो निश्चित हुआ कि सम्यग्दर्शन अर्थात् सच्ची श्रद्धा है। सम्यग्ज्ञान-भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय वस्तु को जानना, सुगुरु, सुदेव सम्यग्ज्ञान अर्थात् सच्चाज्ञान और सम्यग्चारित्र अर्थात् सच्चा चारित्र सुधर्म की पहचान करना। यह सभी सम्यग्ज्ञान द्वारा ही हो सकता तीनों की एकता ही सच्चा मुक्ति मार्ग है। सम्यग्दर्शन का विशेष है। सुदेव अठारह दोषों से रहित, बारहगुणों के सहित, वाणी के पैंतीस स्वरूप: गुणों से युक्त चौंतीस अतिशयों से सुशोभित ऐसे सुदेव को जानना। “तत्त्वार्थ- श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् " सुगुरु - गुरु यानी अंधकार को नाश करने वाले, पंच महाव्रत तत्त्वरूप जीवादि पदार्थों की श्रद्धा अर्थात् जीवादि पदार्थ जिस धारी, संसार में डूबते हुए प्राणी को पार करने में जहाज के समान ऐसे स्वरूप में है उस स्वरूप में मानना। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के सुगुरु को जानना। क्षयोपशम से प्रकट यह शुद्ध आत्म परिणाम मुख्य सम्यग्दर्शन है। सुधर्म - दुर्गति में पड़ते हुए प्राणियों को बचाकर सद्गति की तब कोई भव्यात्मा प्रश्न करती है कि जीव में सम्यक्त्व प्रकट ओर प्रेरित करना, जिससे आत्मा की शुद्धि हो अर्थात् आत्मा जिससे हुआ या नहीं यह कैसे जान सकते हैं? मूल स्वभाव को प्राप्त करे, उसका नाम सुधर्म है। सम्यग्दर्शन को जानने के लिए ज्ञानी भगवंतों ने पाँच लक्षण इस प्रकार संशय विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित एवं बताये हैं (१) शम (२) संवेग (३) निर्वेद (४) आस्तिक्य (५) अनुकंपा अनेकान्तात्मक प्रयोजन भूत तत्त्व की जानकारी ही सम्यग्ज्ञान है। (१) शम - क्रोध का निग्रह करना। सम्यग् चारित्र का विशेष स्वरूप :(२) संवेग- मोक्ष के प्रति राग होना। सम्यग् चारित्र यानी यथार्थ ज्ञान पूर्वक असत् क्रिया से निवृत्ति (३) निर्वेद - संसार के प्रति निर्वेद भाव प्रकट होना। और सक्रिया में प्रवृत्ति । सम्यक् चारित्र के पांच भेद है:(४) आस्तिक्य (शेष पृष्ठ ४८ पर) श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथावाचना धर्म बिन्दु को छोड़कर, चला तनिक जो दूर । जयन्तसेन रहे सदा, भाव भक्ति तस क्रूर Library.org Jain Education Interational Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्मवाद की अस्मिता भारतीय दर्शन में कर्म और उसके फल के सम्बन्ध में गंभीरता से विचार किया गया है। कर्म-सिद्धान्त की भारतीयदर्शन में एक अनूठी विशेषता है। कर्म क्या है ? और इसका फल कैसे मिलता है ? तथा किस कर्म का क्या फल मिलता है ? इस विषय पर भारतीय दर्शन और भारत के तत्वदर्शी चिंतको ने जो विचार किया हैं उतना और वैसा पाश्चात्य दर्शन में नहीं किया गया है। भारतीय दर्शन में भी जैनदर्शन ने कर्म के स्वरूप में जो गहन एवं विशाल चिन्तन प्रस्तुत किया है वह एक अनोखा ही हैं। (साध्वीश्री अनेकान्तलताश्रीजी) कर्म - "क्रियते धार्यते वा कर्मणा तत् कर्म" यह शब्द व्यापार क्रिया उद्यम या पुरुषार्थ अर्थ में प्रयोग में लिया जाता है। गीता का "कर्मयोग" भी उद्यम प्रवृत्ति के अर्थ का ही सूचक हैं। लेकिन यहाँ "कर्म" का अर्थ अलग ही है जो कर्मविज्ञान पर सुव्यवस्थित रूप से हैं । 1 संसार में शब्द मात्र सापेक्ष भाव से ही है, आप एक शब्द का उच्चारण करो कि दूसरा विरोधी शब्द उसके सामने ही खड़ा है आपने सुख शब्द का उच्चारण किया तो आपके सामने दुःख शब्द है ही अत: विश्व में सुख-दुःख, शुभ-अशुभ, सदाचार- दुराचार, दोनों प्रकार के भावों का शाश्वत अस्तित्व रहा हुआ है, धार्मिक परिभाषा में हम उसे पुण्य-पाप से पहचानते हैं। अतः विविध धर्म के स्थापकों को लगा कि इस विचित्रता के पीछे अवश्य कोई कारण तो होना ही चाहिए। कारण के बिना कार्य कैसे हो सकता है ? अतः कर्म शब्द के लिए विभिन्न दर्शनकारों ने भित्र-भित्र शब्द का प्रयोग किया बौद्धशास्त्रकारों ने इसके संस्कार, वासना, अविज्ञप्ति शब्द पसंद किये हैं। सांख्यशास्त्रों ने प्रकृति शब्द स्वीकार किया है। वेदान्तियों ने माया, अविद्या शब्द का प्रयोग किया है। वैशेषिकों ने अदृष्ट शब्द का और मीमांसकों ने अपूर्व शब्द का प्रयोग किया है तथा जैन शास्त्रकारों ने एक विशेष अर्थ ही इसके लिए प्रकाशित किया है। 1 अच्छे या बुरे भावों का जन्मदाता भोक्ता या मोक्ता जीव ही है। तब निर्विवाद प्रश्न उठता है कि जीवमात्र अच्छे काम ही क्यों न करे, जिससे उसे दुःखी होने का अवसर ही नहीं मिले लेकिन चेतना सदैव शुभमार्ग में प्रवृत्त नहीं हो सकती है। तब प्रश्न उठता है कि ऐसा होने का कारण क्या हैं ? श्रीमद जयंतसेनरि अभिनंदन वाचना तब अनंत करुणा के निधान समता के सागर श्री महावीर भगवान् ने अपने देदीप्यमान केवलज्ञान रूपी ज्योति में जो देखा है:- वह इस प्रकार है " वे कहते हैं कि कोई अदृष्ट सत्ता आत्मा को खींच रही होती है इससे निश्चित होता है कि विश्व में दो ही सत्ता का अस्तित्त्व है। मोक्ष में न जाय तब तक सनातन है आत्मसत्ता, जीवसत्ता या चैतन्यसत्ता और दूसरी... है कर्मसत्ता । इन दोनों के परस्पर मिलन से संसार में संघर्ष झगड़े आदि उत्पन्न होते हैं और उसके परिणाम से कर्म जिस प्रकार जीव को नचाता है उसी प्रकार नाचना पड़ता है । तब मानव मस्तिष्क में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कर्म वस्तु क्या है ? विश्व के किसी भी किसी धुरंधर तत्वज्ञानी ग्रन्थ में, जैनधर्म ने कर्म की जो व्याख्या की है उसका अंश मात्र भी नहीं है। स्थूल व्याख्या तो जरूर हो सकती है, लेकिन सूक्ष्म से सूक्ष्मतर व्याख्या नहीं हो सकती है। यह व्याख्या तो सर्वज्ञ भगवंत द्वारा कथित जैन शास्त्रों के द्वारा ही जानी जा सकती है। यह विज्ञान त्रिकालज्ञानी तीर्थंकर भगवंत ने अपने साक्षात् ज्ञान में देखकर ही बताया है। तब प्रश्न उठता है कि इसका प्रमाण क्या है ? तब तत्त्वज्ञानियों ने बताया कि कर्मशास्त्र के लिए जो शब्द प्रयुक्त है वह शब्द विश्व में कोई जगह कोई स्थान में सुनने में या देखने में नहीं आ सकता है। इन शब्दों की अभिनवता और अप्रतिद्वन्द्विता सर्वज्ञ द्वारा कथित सच्चाई को पूर्ण करने के लिए निष्पक्ष और तटस्थ विद्वानों के लिए प्रमाण पत्र रूप हैं। कर्म की परिभाषा :- कर्म की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि आत्म संबद्ध पुद्गल द्रव्य कर्म कहा जाता है और द्रव्य कर्म के बन्ध हेतु रागादि भाव, भाव कर्म माना गया है। आचार्य देवेन्द्रसूरि ने अपने स्वरचित ग्रंथ में कर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है कि - "कीरह जीएण हेउहि जेणं तो भण्णए कम्म" कर्म का यह लक्षण द्रव्य और भाव दोनों में घटित होता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पांचों के द्वारा आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता है, जिससे उसी आकाश प्रदेश में स्थित अनन्तानन्त कर्म योग्य पुद्गल जीव के साथ सम्बद्ध हो जाता है, वह आत्म-संबद्ध पुगल कर्म कहा जाता है। ये कर्म पुट्रल चौदह राजलोक में पूर्ण रूप से भरे हुए हैं। महावीर परमात्मा ने अपने ज्ञानद्वारा प्रत्यक्ष ६० धर्म सिखाता है यहाँ, मैत्री करुणा भाव । जयन्तसेन विमुक्ति पथ, मिलता धर्म प्रभाव ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं: कर्म के अनंत प्रदेशी द्रव्यों को देखा है और कहा कि, 'कर्म रूप पुद्गल एक परमाणु रूप होता है और अनेक परमाणु रूप भी परिणाम प्राप्त करने वाले पुद्गल स्कंध विश्व में सर्व जगह व्याप्त हैं। होता है और एक दूसरे के संपर्क से स्कंध के रूप में पहचाने जाते कर्म के भेदः श्री देवेन्द्रसूरि म. ने अपने स्वरचित कर्म विपाक हैं, आत्मा पुद्गल रूप स्कंधों को ग्रहण नहीं करती है, लेकिन स्कंध तप नाम के ग्रंथ में कर्म के मुख्य आठ प्रकार और उत्तर भेद १५८ बताये से रहे हुए पुद्गल स्कंधों को ग्रहण करती है। ये स्कंध सर्व जगह व्याप्त हैं। जीव के साथ कर्मों का बंध शास्त्रों में अनेक प्रकार से बताया मूलपगइट्ठ उत्तर पगइ, अडवनसयमे अं. हैं । (१) स्पष्ट (२) बंध (३) निघत (४) निकाचित । "इअ नाणदंसणावरण, वेउमोहाउनामगोआणि"॥ स्पष्ट बंध - यह कर्म तो कोई अन्य निमित्त मिलने पर भोगे इसमें मूल भेद (१) ज्ञानावरणीय (२) दर्शनावरणीय (३) वेदनीय बिना ही छूट जाता है। माल (४) मोहनीय (५) नामकर्म (६) आयुष्यकर्म (७) गोत्रकर्म और बंध बंध - यह कर्म थोड़ा फल देकर छूटा पड़ जाता है। (८) अंतराय कर्म ये मूल आठ प्रकार हैं। और इसके उत्तर भेद विभिन्न निघत बंध -यह कर्म अधिक फल देकर छूटा पड़ जाता है। प्रकार के हैं, इनके द्वारा आत्मा शुभाशुभ निमित्त मिलने पर कर्म का बंध करती है। निकाचित बंध- लेकिन यह कर्म तो ऐसा है कि उसे किसी भी प्रकार भुगतना ही पड़ता है भोगे बिना नहीं छूटता है। आत्मा जिस मूर्त का अमूर्त पर प्रभाव :- यदि कर्म मूर्त हैं जड़ हैं तो फिर परिणाम में कर्म का बंध करती है, उसी प्रकार उसे भुगतना पड़ता है, वह अमूर्त ऐसी चेतनावन्त आत्मा पर अपना प्रभाव कैसे डाल सकते हैं? इसका उत्तर इतना ही है कि जिन ज्ञानादि गुणों से युक्त आत्मा जैसे किपर मदिरा आदि का प्रभाव पड़ता है वैसे ही अमूर्त जीव पर मूर्त का कर्मणोहि प्रधानत्वं किं कुर्वन्ति शुभाग्रहाः । प्रभाव पड़ता है। दूसरा समाधान यह भी है कि कर्म के संबंध के वशिष्ठदत्तलग्नेऽपि, राम: प्रवजितो वने ॥ कारण आत्मा कथंचित् मूर्त भी है क्योंकि कर्म का आत्मा के साथ यह सब बताने पर भी मुख्य लक्ष्य यही है कि आत्मा जैसे कर्मों अनादिकाल से सम्बन्ध है इस अपेक्षा से आत्मा सर्वथा अमूर्त नहीं । को करता है उसी प्रकार के शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फल उसे है, अपितु कर्म संबंध होने के कारण अमूर्त होते हुए भी मूर्त है। इस मिलते हैं जिस प्रकार जैसे गुरु ने राम को राज्याभिषेक का लग्न दिया, दृष्टि से अमूर्त आत्मा पर मूर्त कर्म का उपघात, अनुग्रह, प्रभाव पड़ता लेकिन कर्म प्रधानता से सभी निष्फल है और उसी समय उन्हें वन में जाना पड़ा। महावीर परमात्मा जैसे महान पुरुषों को भी कर्म ने नहीं जीव का कर्म के साथ संबंध : जीव का कर्म के साथ मिथ्यात्व छोड़ा। अविरति और हेतुओं के द्वारा एकमेक होना जिस प्रकार कि जल और कर्म से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति:- भारतीय दर्शन में जिस दूध परस्पर एकमेक हो जाते हैं। वैसे ही कर्म प्रदेश के परमाणु प्रकार कर्मबंध के कारण माने गये हैं उसी प्रकार मोक्ष के उपाय भी आत्म प्रदेश के परमाणु आत्म प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हो जाते हैं माने गये हैं। बंधन से विपरीत दशा को मोक्ष एवं मुक्ति कहा जाता अथवा अग्निलौहपिण्डवत् जिस प्रकार लौह पिंड को अग्नि में डाल हैं, जीव का कर्म के साथ प्रतिक्षण संबंध होता हैं। पुरातन कर्म अपना देने से उसके कण-कण में अग्नि परिव्याप्त हो जाती है उसी प्रकार फल देकर आत्मा से अलग पड़ते और नये कर्म प्रतिसमय बंधाते हैं, आत्मा के असंख्यात प्रदेशों पर अनन्त-अनन्त कर्मवर्गणा के कर्मदलितों लेकिन इसका परिणाम यह नहीं हैं कि आत्मा कभी कर्मों से मुक्त बने का संबंध हो जाता है। जब जब अमूर्त ऐसी आत्मा शुभाशुभ विचार ही नहीं जैसे स्वर्ण और मिट्टी परस्पर मिलकर एक हो जाते है, किन्तु करती हैं तब तब मूर्त ऐसे कर्म कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को खेंचकर ताप आदि प्रक्रिया के द्वारा जिस प्रकार मिट्टी को अलग करके शुद्ध अपने आत्मप्रदेशों के साथ जोड़ती है जिस प्रकार दीपक वर्तिका द्वारा स्वर्ण को अलग कर लिया जाता है उसी प्रकार आत्मा अध्यात्म साधना तेल ग्रहण करता है उसी प्रकार, और इस प्रकार के संपर्क शुभाशुभ से कर्म विमुक्त हो जाती है। फिर कभी कर्मबंध नहीं होता है, क्योंकि विचार चलते हैं और पहले एकत्रित कार्मण पुद्गल के स्कंधों को कर्म कर्मबंध के साधनों का सर्वथा अभाव हो जाता है जैसे बीज के सर्वथा शब्द से पहचाने जाते हैं। इस प्रकार आत्मा कर्म को जिस प्रकार जल जाने पर अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है उसी प्रकार कर्म रूपी बांधती है उसी प्रकार का कर्म का स्वभाव वह कितने वर्ष तक आत्मा बीज जल जाने से संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है। इससे यह के साथ रहेगा? किस प्रकार उसे भुगतना पड़ेगा, इसका प्रमाण कितना, सिद्ध होता है कि आत्मा एक दिन कर्म से बद्ध हुआ है, वह आत्मा आदि निश्चित हो जाते हैं। एक दिन कर्मों से मुक्त हो सकती है। कर्म मल से विमुक्त आत्मा ही जैन दर्शन के अनुसार अन्त में परमात्मा हो जाती है। मधुकर मौक्तिक भाव की शक्ति जब प्रगाढ़ हो जाती है, तब भव की शंखला शिथिल हो जाती है। प्रगूढ़ भावों के अन्त:स्तल को स्पर्श करने के लिए पूर्व में कहा गया है कि प्रार्थना, जिसके आगे भवशक्ति का ह्रास हो जाता है, परम सहायक बन सकती है। श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथावाचना सच्ची रख आराधना, सच्चा मानव धर्म । जयन्तसेन सरल सुखद, करते रहो सुकर्म ॥ virww.jainelibrary.org Jain Education Interational Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन का कर्मविज्ञान (महासती डॉ. सुप्रभाकुमारी 'सुधा') जैनदर्शन में कर्म-विज्ञान के संबंध में पर्याप्त विश्लेषण किया जैसे कि संबंध यदि सादि है तो पहले गया है। जैनदर्शन में प्रतिपादित कर्म व्यवस्था का जैसा वैज्ञानिक कौन? आत्मा या कर्म या दोनों का रूप है, वैसा अन्य किसी भी भारतीय दर्शन में नहीं है । यद्यपि बौद्ध संबंध है? प्रथम तो पवित्र, निर्मल एवं वैदिक दर्शन में भी कर्म विज्ञान संबंधी विचार एवं विश्लेषण है आत्मा कर्म बन्ध नहीं करती तथा दूसरे किन्तु वह अत्यल्प है तथा उसका कोई विशिष्ट स्वतंत्र ग्रंथ उपलब्ध में कर्म कर्ता के अभाव में बनते नहीं नहीं है। इसके विपरीत जैनदर्शन में कर्म विज्ञान का अति सूक्ष्म हैं। तीसरे में युगपत् जन्म लेने वाले सुव्यवस्थित एवं विस्तृत वर्णन है। यदि कर्म विज्ञान को जैनदर्शन कोई भी पदार्थ परस्पर कर्ता, कर्म नहीं साहित्य का हृदय कह दिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। बन सकते । अत: कर्म और आत्मा का जैनदर्शन की भाँति अन्य दर्शनों में भी कर्म को स्वीकार किया ___महासती (डॉ.) सुप्रभाकुमारी अनादि सम्बन्ध का सिद्धान्त अकाट्य गया है । वेदान्त दर्शन में माया, अविद्या और प्रकृति शब्दों का प्रयोग किया गया है। सांख्यदर्शन कर्म को ही प्रकृति कहता है। मीमांसा इसी विषय को स्पष्ट करने हेतु प्रसिद्ध विद्वान् हरिभद्रसूरि का दर्शन में 'अपूर्व' शब्द प्रयुक्त हुआ है। बौद्ध दर्शन में 'वासना और एक सुन्दर उदाहरण हैअविज्ञप्ति' शब्दों से अभिहित करते हैं। न्याय और वैशेषिक दर्शन का वर्तमान समय का अनुभव होता है फिर भी वर्तमान अनादि है, में 'अदृष्ट' संस्कार और धर्माधर्म शब्द विशेष रूप में प्रचलित हैं। क्योंकि अतीत अनंत है। और कोई भी अतीत वर्तमान के बिना नहीं दैव, भाग्य, पुण्य पाप आदि ऐसे अनेक शब्द हैं जिनका प्रयोग सामान्य बना। फिर भी वर्तमान का प्रवाह कब से चला, इस प्रश्न के प्रत्युत्तर रूप से, सभी दर्शनों में हुआ है। में अनादित्व ही अभिव्यक्त होता है। इसी भाँति आत्मा और कर्म का जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक संसारी जीव कर्मों से आबद्ध है। संबंध वैयक्तिक दृष्ट्या सादि होते हुए भी प्रवाह की दृष्टि से अनादि भारतवर्ष दर्शनों की जन्म स्थली है, यहाँ पर अनेक दर्शनों ने जन्म है, कर्म और आत्मा का सम्बन्ध स्वर्ण मृत्तिका की तरह अनादि सान्त लिया, उन दर्शनों में से एक लोकायत दर्शन के सिवाय सभी दर्शनों है। अग्नि प्रयोग से स्वर्ण-मिट्टी को पृथक्-पृथक् किया जा सकता. ने कर्म-विज्ञान को स्वीकार किया है। इस विराट-विश्व में विषमता, है, इसी प्रकार शुभ अनुष्ठानों से कर्म के अनादि सम्बन्ध को खण्डित विचित्रता और विविधता जो दिखाई दे रही है, उसका मूल कर्म ही कर आत्मा को शुद्ध किया जा सकता है। है। कर्म विज्ञान को समझने के लिए आत्मा का स्वरूप समझना जैन मान्यतानुसार जो जैसा करता है, वही उसका फल भोगता आवश्यक है। है। एक प्राणी दूसरे प्राणी के कर्म का अधिकारी नहीं हो सकता, जैसा जैन दर्शन में आत्मा निर्मल तत्त्व है, शुद्ध सोना है। अपने मूल कि कहा हैस्वरूप से सभी आत्माएँ शुद्ध हैं, एक स्वरूप हैं। अशद्ध कोई “स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, नहीं है। जो अशुद्धता है, विरूपता है, भेद है, विभिन्नता है, वह सब _फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । विभाव से—पर्याय दृष्टि से है। जिस प्रकार जल में उष्णता बाहर के परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, तेजस् पदार्थों के संयोग से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार आत्मा में भी स्वयं कृतं कर्म निर्रथकं तदा ॥" काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, सुख-दु:ख आदि विरूपता-विभिन्नता बाहर उपर्युक्त तथ्य को ही उत्तराध्ययन सूत्र में इस प्रकार स्पष्ट किया से आती है। अन्दर में तो प्रत्येक आत्मा में चैतन्य का प्रकाश जगमगा . रहा है। अप्पा कत्ता विकत्ताय, दुहाण य सुहाण य । वैदिक दर्शन में ब्रह्मत्त्व विशद्ध है। कर्म के साहचर्य से वह अप्पामित्तममित्तं च, दुष्पट्ठिय सुपुट्ठिओ ॥ मलिन होता है। किन्तु कर्म और आत्मा का संयोग कब हुआ? संसारी आत्मा सदैव कर्मयुक्त ही होता है। जब आत्मा कर्म से क्योंकि आदि मानने पर अनेक विसंगतियाँ उपस्थित हो जाती हैं। मुक्त हो जाता है, तब वह मुक्त आत्मा कहलाता है। कर्म आत्मा से मुक्त हो जाता है तब वह कर्म नहीं पुद्गल कहलाता है। कर्म के कर्तृत्व सचे सुद्धा हु सुद्धणया-द्रव्य संग्रह । और भोक्तृत्व का संबंध आत्मा और पुद्गल की सम्मिश्रण की अवस्था एगे आया - स्थानांग सू.१। में है। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना धर्म अहिंसामय सदा, धर्म सत्य का धाम । जयन्तसेन अनादि से, चलता आया नाम ॥ Jain Education Interational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। आत्मा अपने आप में अनन्त शक्ति संपन्न है, जड़ भी शक्ति से 'कर्म' शब्द का लोक व्यवहार और शास्त्र में विभिन्न अर्थों में संयुक्त है, दोनों स्वतंत्र तत्त्व हैं। आत्मा अपने सत् प्रयत्न के द्वारा प्रयोग हुआ है । जन साधारण अपने-अपने काम-धन्धे व्यवसाय, कर्त्तव्य अपनी अनंत शक्ति को अनावृत्त कर सकता है। परंतु जड़ की शक्ति आदि के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग करते हैं, किन्तु जैन-दर्शन में को, पुद्गलों की ताकत को अपने रूप में कभी परिणत नहीं कर सकता, “कर्म" शब्द का विशेष अर्थ में प्रयोग किया गया है। उसके अनुसार उसे परिवर्तित करने की शक्ति किसी भी आत्मा में नहीं है। इसी तरह संसारी जीव जब राग-द्वेषयुक्त, मन, वचन, काया से जो भी क्रिया करता पुद्गल आवरण से आत्म-शक्ति को धूमिल बना सकता है । इससे स्पष्ट है। उससे वह सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है और उनके होता है कि आत्म शक्ति के समक्ष कर्म की ताकत नगण्य सी परिलक्षित द्वारा नाना प्रकार के आभ्यंतर संस्कारों को जन्म देता है। ये पुद्गल होती है। आत्मा की शक्ति अनादिकाल से आत्मा में निहित है, आज परमाणु भौतिक और जड़ होते हुए भी जीव की राग-द्वेषात्मक मानसिक, भी है और भविष्य में भी उसका अस्तित्व विलुप्त नहीं होगा। वाचिक, शारीरिक क्रियाओं के द्वारा अवकृष्ट होकर आत्मा के साथ कर्म एक विजातीय तत्त्व है। आत्मा के साथ उसका बन्ध तब अग्नि-लोह-पिण्ड की भाँति परस्पर एकमेक हो जाते हैं और आत्मा होता है, जब आत्मा स्वभाव से हटकर पर-भाव में रमण करता है, की अनन्त शक्ति को आच्छादित कर लेते हैं, जिससे उसका तेज विभाव में परिणमन करता है । यही जैनदर्शन में कर्मविज्ञान का रहस्य हतप्रभ-मन्द हो जाता है । जब विशिष्ट साधना के द्वारा इन कर्म पुद्गलों को नष्ट कर दिया जाता है तब आत्मा पूर्ण स्वतंत्र और आनन्दमय जब कोई आत्मा किसी तरह का संकल्प विकल्प करता है, तो बन जाती है। किन्तु कृत कर्मों का फल भोगे बिना आत्मा की मुक्ति उसी जाति की कार्मणवर्गणाएँ उस आत्मा के ऊपर एकत्रित हो जाती नहा हा सकता। हैं, उसी को जैन परिभाषा में आस्रव कहते हैं और जब ये आत्मा से जीव कर्मों का बंध करने में स्वतंत्र है, परंतु उस कर्म का उदय संबंधित हो जाती हैं तो इसी को जैन मान्यतानुसार बन्ध संज्ञा हो होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है। जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा जाती है। जैन कर्म विज्ञान के अनुसार कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ से वृक्ष पर तो चढ़ जाता है किन्तु प्रमाद वश नीचे गिरते समय परवश हैं, जो प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल फल प्रदान हो जाता है। कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- (१) ज्ञानावरण (२) दर्शनावरण हैं- (१) ज्ञानावरण (२) दर्शनावरण के अधीन होते हैं। (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु (६) नाम (७) गोत्र (८) और जैन दर्शन में कर्म शब्द क्रिया का वाचक नहीं रहा है। उसके अन्तराय। मतानुसार कर्म आत्मा पर लगे हुए सूक्ष्म पौद्गलिक पदार्थ का वाचक नाणस्सावरणिज्जं, दंसणावरणंतहा, है। जीव अपने मन वचन और काय की प्रवृत्तियों के द्वारा कर्म-वर्गणा वेयणिज्जं तहा मोहं, आउ कम्मं तहेवय । के पुद्गलों को आकर्षित करता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति नाम कम्मं च गोयं च अन्तरायं तहेव य । तभी होती है, जब जीव के साथ कर्म संबद्ध हो। जीव के साथ कर्म एवमेयाई कम्माइं अद्वैव उ समा से ओ ॥ तभी संबद्ध होता है जब मन, वचन, काय की प्रवृत्ति हो । कर्म और भारत के सुप्रसिद्ध जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों दर्शनों का प्रकृति के कार्य और कारण भाव को लक्ष्य में रखते हुए पुद्गल परमाणुओं समानरूप से यह सुनिश्चित सिद्धान्त है कि मानव जीवन का अंतिम के पिण्डरूप कर्म को द्रव्य कर्म कहा है और उसमें रहने वाली शक्ति साध्य उसके आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता और उससे प्राप्त होने या उनके निमित्त से होने वाले राग-द्वेष रूप विकार भाव कर्म हैं। वाला प्रतिभा-प्रकर्षजन्यपूर्णबोध अर्थात् परम कैवल्य या मोक्ष है। कर्मबन्ध वस्तु से नहीं, राग-द्वेष के अध्यवसाय से होता है। जो उसके प्राप्त करने में उक्त तीनो दर्शनों में जितने भी उपाय बतलाये। अन्दर में राग-द्वेष रूप भाव कर्म नहीं करता उसे नए कर्म का बन्ध गये हैं, उन सबका अन्तिम लक्ष्य सम्बन्ध समस्त कर्माणओं को क्षीण नहीं होता। जिस समय जीव जैसे भाव करता है, वह उस समय वैसे करना। आत्म सम्बन्ध समस्त कर्मों के नाश का नाम ही मोक्ष है।३ ही शुभ-अशुभ कर्मों का बंध करता है। दूसरे शब्दों में आत्म प्रदेशों के साथ कर्म पुद्गलों का जो संबंध कुल मिलाकर जैन-दर्शन का कर्म-विज्ञान बताता है कि संसार का प्रत्येक प्राणी परतन्त्र है। यह पौद्गलिक शरीर ही उसकी परतंत्रता है, उससे सर्वथा पृथक् हो जाना ही मोक्ष है। सम्पूर्ण कर्मों के क्षय का द्योतक है, और पराधीनता कारण कर्म है। का अर्थ है- पूर्व बद्ध कर्मों का विच्छेद और नवीन कर्मों के बन्ध का सर्वथा अभाव । कम्मं चिणंति सवसा - स परव्व सोतत्तो। "क्रियतेयत्तत्कर्म' अर्थात् मिथ्यात्व, राग, द्वेष आदि भावों के द्वारा - समणसूत्रं, ज्योतिर्मुख, श्लोकांक ६०, संसारी जीव जिसे उपार्जित करते हैं, वह कर्म कहलाता है । सामान्यतया कर्मायितं फलं पुंसा, बुद्धिः कर्मानुसारिणी । जीव जो क्रिया करता है, उसका नाम कर्म है। - चाणक्य नीति १३/१० कम्मत्त णेण एक्कं, दव्वं भावोन्ति होदि दुविहं तु । १ (क) स्थानाङ्ग ८।३५७६ पोगल पिंडो दव्वं, तस्सत्ती भावकम्मं तु ॥ (ख) प्रज्ञापना २३ ।१ समणसूत्रं, ज्योतिर्मुख श्लोक नं. ६५ २ कृत्स्न कर्म क्षमो मोक्षः (तत्त्वार्थ . अ. १० सू.इ.) छ ण यव त्थुदो-अज्भव साणेण बंधोत्मि । - समयसार २६५ श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन अंथ/वाचना धर्म जगाता है नहीं, आपस में विखवाद । जयन्तसेन करे सदा, जीवन को आबाद ॥ www.lainelibrary org Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादो वर्तते यस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यपीडनं किंचिद् जैन धर्मः स उच्यते ॥ स्याद्वाद क्या है ? जैन दर्शन की नींव है स्याद्वाद ! जैन तत्त्वज्ञान की भव्य अट्टालिका इस स्याद्वाद के सिद्धांत की नींव पर खड़ी है। जैन दर्शन का प्राण है- स्याद्वाद इसके बिना जैन दर्शन वैसा ही होगा जैसे आत्मा बिना शरीर! 'स्यात्' शब्द का अर्थ कोई-कोई शायद संभव इस प्रकार मानते हैं पर ये शब्द संशयात्मक है। कहा गया है - 'संशयात्मा विनश्यति।' लेकिन हमारा सिद्धांत सर्व-धर्म समन्वय की बात बताता है। स्याद्वाद की दृष्टि (साध्वीजी- संयमप्रभाजी सुशिष्या साध्वीजी चांदकुंवरजी) शंकराचार्य जैसे विद्वान भी स्याद्वाद को संशयवाद कहने लगे। किसी ने पूछा आप कौन हो ? शंकराचार्य कहते है - मैं संन्यासी हूं। प्रश्नकर्ता आप गृहस्थ नहीं हैं? शंकराचार्य नहीं मैं गृहस्थ नहीं हूं। प्रश्नकर्ता - आप हूं और नहीं हूं ऐसी दुहरी बात कैसे करते हो? उन्हें कहना पड़ा-संन्यासाश्रम की अपेक्षा से मैं हूं और गृहस्थाश्रम की अपेक्षा से नहीं हूं। अपेक्षा भेद के कारण मेरा कथन परस्पर विरोधी नहीं है। तो यही हमारा स्याद्वाद है। 'स्याद्' का अर्थ शायद संभवतः या कदाचित् नहीं है किन्तु उसका अर्थ है 'कथंचित्' किसी अपेक्षा से। एक वक्त भगवान महावीर बचपन में चौथी मंजिल पर बैठकर चिंतन रत थे । उनके बालसखा उन्हें ढूंढ़ते हुए आए। माता त्रिशला से पूछा- मां, भैया कहां है? मां ने कहा- ऊपर है। बच्चे ऊपर चढ़ते सातवीं मंजिल पर पहुंच गए, सिद्धार्थ ऊपर थे, पूछा- भैया कहां है? पिता सिद्धार्थ ने कहा- नीचे है। सारे बाल-सखा हैरत में पड़ गए। मां कहती है ऊपर है, दादा कह रहे हैं नीचे हैं। वे झूठ तो नहीं बोल सकते ? आखिर मामला क्या है ? आखिर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते चौथी मंजिल पर वर्धमान को पा लिया। वे ध्यान मुद्रा में चिंतन रत बैठे थे। बच्चे उनके समीप जाकर कहते हैं- भैया! हम तो परेशान हो गए। मां कहती आप ऊपर हो, दादा कहते नीचे हो। बालक वर्धमान ने कहा- दोनों की बात सही है। ऊपर की अपेक्षा से पिताश्री ने कहा- मैं नीचे हूं। माता जी नीचे थी, उस अपेक्षा से उन्होंने कहा- मैं ऊपर हूँ। सापेक्षता हमारी कई समस्याओं का समाधान है। स्याद्वाद की आवश्यकता - अनेक श्रेणियों का समन्वय/मेल करके सत्यकी कसौटी पर कसना व अनेक धर्मों को एवम् दार्शनिक सिद्धांतों को सत्सूत्रो में गूंथना स्याद्वाद का प्रमुख लक्ष्य रहा हुआ है। एक ही वस्तु में विभिन्न धर्मों को विभिन्न दृष्टिकोणों से निरीक्षण करने की पद्धति है- स्याद्वाद ! श्रीमद जयंतसेनसून अभिनंदन स्याद्वाद - अनेकांतवाद - यद्यपि जैन धर्म के मुख्य सिद्धांत हैं— स्याद्वाद / अनेकांतवाद जो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अनेकांतवाद वस्तु दर्शन की विचार पद्धति है तो स्याद्वाद भाषा पद्धति । जैसे चित्रकार मनमें संकल्प करता है, कल्पनाएँ बनाता है और संकल्पों को साकार रूप देने के लिए कल्पनाओं को चित्रित करने के लिए कागज पर चित्रांकन करता है। संकल्प युक्त विचार है- अनेकांत वाद और चित्रांकन है स्याद्वाद का स्वरूप । • स्याद्वाद की दृष्टि इस धर्म सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक पदार्थ चाहे वह अणु स्वरूप हो या विराट रूप में वह अनंत धर्मों का समूह है। पदार्थ को एक पहलू से /एक धर्म से जानना एकांतवाद है जो कभी कभी पतन की ओर भी ले जाता है पर स्याद्वाद हमारी दृष्टि को विस्तृत करके हमारी विचार धारा को पूर्णता की ओर ले जाता है। ६४ एक आम्र फल रखा है। हम कहते हैं कि इसमें रूप भी है/रस भी है / गंध भी है, स्पर्श भी है तब हम स्याद्वाद का उपयोग करते हैं। लेकिन जब हठाग्रह से कहते हैं- आम्रफल में रूप ही है / गंध ही है या रस ही है तब हम मिथ्या एकांतवाद का प्रयोग करते हैं। स्याद्वाद की दृष्टि कहती है- 'मेरा भी सच्चा' पर एकांतवादी दृष्टि कहती है 'मेरा ही सच्चा' इसमें दूसरे गुण धर्मों का स्पष्टतः निषेध किया जाता स्याद्वाद न्यायाधीश एक व्यक्ति ने एक चित्र बनाया अन्य तीन व्यक्ति उसे देखने के लिए आए। चित्र देखकर जब वे आपस में मिले एक कह रहा है-चित्र लक्ष्मीजी का था। दूसरा कहता है-क्या आंखें मूंदकर देख रहे थे? चित्र तो गणेशजी का था तीसरा वा भाई वा! तुमने आंखें खोलकर क्या देखा? चित्र तो सरस्वती का था। इस बात को लेकर वे आपस में झगड़ने लगे। इतने में कोई प्राज्ञ व्यक्ति उधर से निकला। इस झगड़े को सुनकर कुतूहल जाग्रत हुआ। स्थिति को जाना तीनों से कहा मुझे भी बताइए वह चित्र ! तीनों ने अलग अलग स्थानों से चित्र बताया। वास्तव में कलाकार ने इसी ढंग से चित्र बनाया था कि एक स्थान से वह लक्ष्मी का, दूसरे स्थान से गणेशजी का तीसरे स्थान से सरस्वती का नजर आ रहा था । सत्यार्थ को जानने के लिए स्याद्वाद को न्यायाधीश बनाना पड़ेगा । स्याद्वाद कहता है- एक ही चित्र में अनेक धर्म है परंतु भिन्न भिन्न अपेक्षा से यह अपेक्षावाद दर्शन की भाषा में स्याद्वाद के नाम से जाना जाता है। नेत्रयुक्त दर्शन- स्याद्वाद — एकांतवादी अंधे दर्शन को स्याद्वाद की ज्ञान दृष्टि देते हुए कहता है कि तुम्हारी मान्यता का एक पहलू ठीक हो सकता है, सभी नहीं। अपने एक अंश को सर्वथा सब अपेक्षा (शेष पृष्ठ ७० पर) दान शील तप भावना, कर आत्म को शुद्ध । जयन्तसेन धर्म यही, जो धारत वह बुद्ध ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शनों की तुलना में जैन दर्शन की प्राचीनता के निश्चायक सन्दर्भ - सूत्र - Am The Or # | आम आदमी, प्रायः यह मानता है कि जैन धर्म का शुभारंभ श्रमण भगवान महावीर ने ही किया है। वास्तविकता यह है कि जैन धर्म के शुभारंभ का एक विस्तृत और लम्बा, परम्परागत पुरातन इतिहास है। इस परम्परा के प्रवर्तकों में भगवान महावीर का नाम चौबीसवें क्रम पर आता है। जैन धर्म के तमाम शास्त्रों से तथा भारतीय वाङ्मय के भी अन्य प्राचीनतम ग्रंथों से, जैन धर्म के प्रवर्तकों की जो नामावली मिलती है, उसमें इस परम्परा के संस्थापक, आद्यप्रवर्तक के रूप में भगवान ऋषभदेव का नाम मिलता है। इसीलिये, उन्हें जैन परंपरा का प्रथम तीर्थंकर भी माना गया है महावीर से पूर्व के दो तीर्थंकरों - तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ और बाईसवें तीर्थंकर भगवान अरिष्टनेमि को भी इतिहासकारों ने ऐतिहासिक व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार कर लिया है इतिहासज्ञों की इस स्वीकृति से यह तथ्य पुष्ट हो जाता है कि भगवान महावीर जैनधर्म के संस्थापक न होकर एक 'पुनः प्रवर्तक' / तीर्थंकर थे इस ऐतिहासिक स्वीकृति के अतिरिक्त भी अन्य अनेकों ऐतिहासिक साक्ष्य, इस तरह के उपलब्ध होते हैं, जिनसे जैनधर्म की प्राचीनता का परिज्ञान परिपुष्ट होता है। इसी प्रकार के कतिपय साक्ष्यों का उल्लेख, यहां किया जाना उपयुक्त होगा । 1 श्रीमदार अभिनंदन मंचबाना f File (साध्वी डॉ. श्री दर्शनप्रभाजी म.सा.) ( दर्शनाचार्य, साहित्य रत्न. एम. ए., पी.एच.डी.) ईसा पूर्व की प्रथम शताब्दी में कलिङ्ग का शासक थाखारवेल । इसका विशाल साम्राज्य, उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक विस्तृत था इसने जैन धर्म की उन्नति के लिये अनेकों महत्वपूर्ण प्रयास किये थे। इस तथ्य के समर्थन में कई प्रमाण, इतिहासज्ञ प्रस्तुत करते हैं। मगध का शासक नन्द, अपने शासन काल में, एक जैन मूर्ति, कलिङ्ग से मगध ले गया था खारवेल ने सिंहासनारूढ़ होने के बारहवें वर्ष में, इस मूर्ति को वापिस कलिङ्ग में ले आकर इसकी पुनः स्थापना की थी पक्षात् तेरहवें वर्ष में जैन धर्मानुयायियों की एक विशाल सभा भी कलिङ्गनगर में आयोजित की थी, जिसमें जैन मुनियों को श्वेत वस्त्रों का दान भी इसने दिया था। इन तथ्यों से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि कलिङ्ग जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र था । २७२ ई.पू. से २३२ ई पूर्व तक कलिङ्ग युद्ध के समय ब्राह्मण, श्रमण और अन्य धर्मों के अनुयायी वहां रहते थे। इनमें जैन धर्म के अनुयायियों की बहुलता थी। अशोक के शासनकाल में भी पौण्ड्रवर्धन नामक नगर में जैनों की प्रधानता और बौद्धों के साथ संघर्ष का परिचय 'दिव्यावदात''अशोकावदात' 'सुमागधीवदात' आदि बौद्ध ग्रंथों से मिलता है। क ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में, मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त के शासनकाल (ई.पू. ३२२ से ई. पू. २९८ तक) में बौद्धधर्म की अपेक्षा जैन धर्म विशेष प्रबल था । चन्द्रगुप्त स्वयं भी जैनधर्मानुयायी था। जैन धर्म के अनुसार २४ वर्षों तक शासन करने के पश्चात् चन्द्रगुप्त जैन मुनि बन गया था और कर्नाटक के मैसूर प्रान्तान्तर्गत श्रवणबेलगोल नामक स्थान पर उसने 'संल्लेखना' का वरण किया था। मौर्यवंश से पूर्ववर्ती मगध का शासक 'नन्द' राजवंश भी जैन धर्म के प्रति विशेष अनुरागी था कलिङ्ग के शासक खारवेल की 'हरितगुफा' के शिलालेखों से यह ज्ञात हुआ है कि नंद वंश का कोई राजा एक जैन मूर्ति को मगध ले आया था । इतिहासज्ञों की धारणा है कि यह नन्द राजा महापद्म नन्द ही है। पुराणों में इसी का वर्णन 'सर्वक्षात्रांतक 'एकराट्' आदि नामों से मिलता है। सम्भवतः इसी ने कलिङ्ग विजय की थी। इस विवरण से यह निश्चय होता है कि ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी में मगध का नन्द वंश, जैनधर्मानुयायी था और उसके शासनकाल में जैनधर्म 'वैशाली', 'मगध' प्रदेश से लेकर सुदूर कलिङ्ग पर्यंत विस्तृत था । ६५ 1 नन्द वंश से भी पूर्ववर्ती मगध का हर्याङ्क राजवंश भी जैन धर्म का अनुयायी था। ई.पू. की छठी शताब्दी के शासक बिम्बसार और अजातशत्रु, भारतीय इतिहास में सुविख्यात हैं। इन्हीं के शासनकाल में वैशाली साम्राज्य की स्थापना हुई थी बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध, जैन धर्म के अंतिम प्रवर्तक, चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर तथा आजीवक धर्म के प्रवर्तक मंखली गौशाल ने अपने अपने धर्मों का, प्रचार-प्रसार भी इन्हीं दोनों के शासनकाल में किया था। ये दोनों शासक बुद्ध और महावीर के प्रति समानरूप से श्रद्धावान् थे तथा इनके धर्मों के प्रति अनुरागी रहे हैं। ये दोनों ही महावीर के साथ वैवाहिक सम्बन्धों से जुड़े हुए थे महावीर की माता 'त्रिशला', और बिम्बसार की महारानी 'चेलना' दोनों सहोदरा, चेटकराजा की पुत्रियां थीं। कालान्तर में, अजात शत्रु का आकर्षण जैन धर्म के प्रति विशेष हो गया था अजात शत्रु का पुत्र 'उदय' (या 'उदायी) भी सम्भवतः जैन धर्मानुयायी था। इन उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि अजातशत्रु 1 धर्मात्मा की देशना होती नित फलवान । जयन्तसेन फलित करे, जीवन का उद्यान ॥ www.janelibrary.org. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उसके बेटे के समय में ही बौद्धधर्म की अपेक्षा जैन धर्म अधिक प्रबल हो गया था जो कि, चन्द्रगुप्त के शासनकाल में अपना व्यापक प्रभाव भारत वर्ष में स्थापित कर सका । पूर्व भारत के बंगाल में 'सराक' जाति के लोग रहते हैं। ये सब हिन्दू हो गये हैं । किन्तु वे यह जानते हैं कि उनके पूर्वज जैन थे । पूर्णत: शाकाहारी और अहिंसा में विश्वास रखने वाले ये लोग 'काटना' अर्थ वाले शब्दों तक का प्रयोग नहीं करते हैं। क्योंकि ये हिंसा से बेहद घृणा करते हैं। सूर्योदय के पूर्व और पश्चात् भी भोजन करना निषिद्ध मानते हैं । जीवयुक्त फलों को भी ये सब नहीं खाते। ये पार्श्वनाथ के भक्त हैं। इन लोगों के गृहस्थाचार्य, रात्रि में चावल नहीं खाते। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा - भ्रमण के समय, जिन स्थानों पर, इस जाति के होने का उल्लेख किया है, वहां आज भी ये हैं। इनका मुख्य स्थान सम्मेत शिखर की पार्श्वभूमि (शिखर भूमि) और 'पांचेवा नगर' हैं, यह तथ्य जैन जगत् में स्वीकार किया जाता है। मानभूमि में इनके पूर्वजों द्वारा बनवाये गये, प्राचीन स्मारक आज भी मिलते हैं प्रतीत होता है, इनकी जाति का बोधक 'सराक' शब्द 'श्रावक' का अपभ्रंश है। श्रमण संस्कृति में 'निग्रंथों' और 'श्रावकों' को भी 'वात्य' (व्रतधारका: व्रात्याः) कहा जाता है, ये व्रात्य, वेदों को अप्रामाण्य मानते थे, यज्ञीय हिंसा का विरोध करते थे, और तप से आत्मशुद्धि करने में विश्वास रखते थे। इन कारणों से वैदिक आर्यों ने 'वर्ण-सङ्कर' के अर्थवाची व्यंग्य शब्द के रूप में 'व्रात्य क्षत्रिय' का प्रयोग, जैन धर्म के चौबीसों तीर्थङ्करों के लिये किया। जैन धर्मानुयायी चारों वर्णों के लोग, वैदिक यज्ञों में की जाने वाली पशु हिंसा का विरोध करते थे। इससे इनके लिये भी वैदिक आर्यों ने 'ब्राह्मण-बन्धु' 'क्षत्रिय-बन्धु' और 'अप-ब्राह्मण' 'अप-क्षत्रिय' 'अनार्य' 'व्रात्य' आदि शब्दों के सम्बोधन दिये। इन सम्बोधनों का वेदों में कई स्थानों पर प्रयोग हुआ है। जिसका अर्थ 'जैन-निर्ग्रन्थ' या 'जैन श्रावक' ही लिया जाना उपयुक्त होगा। क्यों कि, श्रमण-संस्कृति का अनुयायी बौद्ध धर्म, वेदों की रचना से काफी बाद में प्रारम्भ हुआ। बौद्ध पिटकों में, बौद्ध-धर्म का विरोध करने के प्रसंगों में तथा बौद्ध धर्म अंगीकार करनेवालों के प्रसंगों में भी 'निग्रंथों' का उल्लेख हुआ है। इससे भी यह तथ्य स्पष्ट होता है कि बौद्ध धर्म, जैन धर्म की तुलना में पर्याप्त अर्वाचीन है। भगवान पार्श्वनाथ ने जैनधर्म के तेईसवें तीर्थंकर के रूप में, जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया था पार्श्वनाथ को और इनसे पूर्व के बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि को भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व के रूप में, भारतीय एवं विदेशी, दोनों इतिहासकार स्वीकार कर चुके हैं। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन् भी इनमें एक हैं। पार्श्वनाथ का समय ई.पू. की आठवीं शताब्दी माना जा रहा है। इस मान्यता से भी यह प्रमाणित होता है कि बौद्ध धर्म, जैन धर्म की अपेक्षा अर्वाचीन है। जैन धर्म की परम्परा पर्याप्त प्राचीन है। इस परम्परा वस्तुतः, के संस्थापक/ आद्य प्रवर्तक के रूप में भगवान ऋषभदेव को प्रथम तीर्थंकर माना गया है। इस परम्परा में पार्श्वनाथ तेईसवें क्रम पर और श्रीमद जयंवर अभिनंदन पंचा महावीर चौवीसवें क्रम पर, अन्तिम तीर्थंकर हुए हैं। मथुरा से प्राप्त जैन शिलालेखों में यह उल्लेख मिलता है कि गृहस्थ व्यक्ति, ऋषभदेव को अर्ध्य प्रदान किया करते थे। यह अर्ध्य, यद्यपि एक से अधिक अर्हतों को समर्पित किया जाता था किन्तु भदेव को प्रधानता प्रदान की जाती थी ये शिलालेख ईसा की पहली / दूसरी शताब्दी के अनुमानित किये गये हैं। 1 उक्त ऐतिहासिक तथ्यों के अतिरिक्त हिन्दू धर्म के वेदों, पुराणों, धर्म शास्त्रों आदि प्राचीनतम ग्रंथों में भी जैन सिद्धान्तों का और जैन धर्म के ऐतिहासिक पुरुषों का अनेकशः उल्लेख किया गया है। आधुनिक इतिहासज्ञों ने वेद को ३५०० वर्ष प्राचीन स्वीकार कर लिया है। वेदों के द्रष्टा / कर्ता बाहर से भारत में आये 'आर्य' जाति के व्यक्ति हैं। इनके भारत आगमन से पूर्व भी यहां पर अति प्राचीनकाल से जैनधर्म प्रचलित था। जिसकी पवित्रता और आध्यात्मिकता से प्रभावित होकर उन्होंने वेदों में जैन धर्म के प्रवर्त्तकों का उल्लेख श्रद्धा भक्ति के साथ किया। इन उल्लेखों से भी यही प्रमाणित होता है कि जैन धर्म, अतिप्राचीन काल से समागत तीर्थंकर परम्पराओं की अनुसृति के प्रतिफलन का प्रतीक है। इन तथ्यों को, भारतीय दर्शनों की तुलना में जैन दर्शन की प्राचीनता के निश्चायक सन्दर्भ-सूत्र के रूप में माना जाना चाहिए। मधुकर मौक्तिक इप्सित सिद्धि के लिए द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव के साथ-साथ नाम स्थापना, द्रव्य और भाव की ओर क्रमश: ध्यान देना भी परम आवश्यक है। मात्र नाम स्मरण या चिन्तन से ही नहीं, उससे भी अधिक प्रोल्लसितता तदाकार या तत्स्वरूप स्थापना को दृष्टि के सन्मुख लाने से विकसित हो जाती है। सद्भावना के पीछे घूमनेवाली दुर्भावना रूपी दानवी/ पैशाचिनी का मर्दन करने के लिए परमश्रेष्ठों का प्रबल आलंबन ग्रहण कर तद्द्भाव से भावित प्रवृत्ति को श्रेयस्कर माना गया है । परम इष्ट के प्रति स्वात्म समर्पण की दिव्य भावना का प्रादुर्भाव और तज्जन्य निर्मल स्रोत ऐसा होता है कि उसमें आत्माभिमुख अन्तरात्मा पवित्र हो कर स्वभाव में रमण करने लगने लगती है। **** भव की शृंखला कितनी हानिकारक है और इसीलिए वह कितनी अप्रिय होनी चाहिए, इसका प्रत्यक्ष अनुभव दर्शन भाव विशुद्धि से होता है। 'वीतराग की जय' का उद्घोष करते करते ही भव से पीड़ित पुरुष आगे बढ़ता है। वह कहता है-हे देव ! आप जगत में देवाधिदेव हैं। सबके लिए आप ही शरणदाता है। 'सर्वं पदं हस्तिपदे निमग्नं भव परंपरा के महासागर के उच्छेक संग्राम में आपकी शरण जय/विजय प्रदायक है। हे देव ! भाव के महासागर में से स्वाभाविक सम्यग्दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रयी की मुझे उपलब्धि हो । ६६ सब धर्मों का सार है, मैत्रीय भाव प्रसार । जयन्तसेन समानता, रखना दिल में धार ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व की अद्भुत महिमा एवं सम्यक्त्व में स्थिरता (साध्वीश्री विज्ञानलताश्रीजी) -ॐ अर्हन्नम: दूसरा कोई भाई नहीं। सम्यक्त्व के "त्वमेव सच्चं नि:शंकं, जं जिणेहिं पईवेइयम् ।" मम लाभ के समान दूसरा कोई लाभ नहीं। श्री सर्वज्ञ कथित जीवजीवादि नव तत्त्वों तथा शुद्ध देव गुरु कनीनिकेव नेत्रस्य, कुसुमस्येव और धर्म, इन तीन तत्त्वों की श्रद्धा सम्यक् दर्शन है। सौरभम् । सम्यक्त्वमुच्यते सारं, सर्वेषां सम्यक्त्व क्या है ? सम्यक्त्व देव गुरु और धर्म के प्रति दृढ़ता धर्मकर्मणाम् ॥२॥ रखना सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व जीवन का अमूल्य रल है। सम्यक्त्व रल से रहित जीवन निरर्थक है। जीवन के लिए दीपक है, सम्यक्त्व, - अध्यात्मसार प्रबंध ४, श्लो. ५ । जो तीनों लोकों में प्रकाशवान् है। सम्यक्त्व दुर्गति से बचानेवाला है, साध्वीश्री विज्ञानलताश्रीजी जैसे आँखों का सार कीकी है सम्यक्त्व के बिना जीव को निश्चय ही सिद्धि नहीं हो सकती। और पुष्पों का सार सुगंधि है, वैसे ही किसी भी शास्त्र में देखिये कोई भी आत्मा सम्यक्त्व प्राप्त किये सर्व धर्म का सार समकित है। बिना सिद्धि को प्राप्त नहीं हुई। सिद्धि को प्राप्त करना है तो जीवन वरं नरकवासोऽपि सम्यक्त्वेन समायुतः । में सम्यक्त्व को लाना ही पड़ेगा। सम्यक्त्व को लाये बिना कभी भी न तु सम्यक्त्वहीनस्य, निवासो दिवि राजते ॥३॥ सिद्धि नहीं हो सकती। “न भूतो न भविष्यति” सम्यक्त्व बिना जीव को कभी भी कहीं - तत्त्वामृत, श्लो. ४। पर भी सिद्धि न हुई और न ही होगी। जीवन में सम्यक्त्व को धारण समकित सहित नरक में रहना अच्छा है परंतु समकित रहित करना ही श्रेष्ठ जीवन है । सम्यक्त्व को पाये बिना जीवन निस्सार है, होकर स्वर्ग में भी रहना अच्छा नहीं। सम्यक्त्व को धारण कर जीवन में दृढ़ श्रद्धा रखे। कितनेक लोग कोऽप्यन्य एव महिमा ननु शद्धदष्टेर्यच्छेणिको आत्मधर्म पर प्रीतिवाले होते हैं दृढ़तावाले नहीं होते हैं। प्रीति और ह्यविरतोऽपि जिनोऽत्र भावी । दृढ़ता दोनों ही आवश्यक है। मन की मलिनता-पापवृत्ति कम होने से पुण्यार्गल: किमितरोऽपि न सार्वभौमोरूपच्युतोऽप्यधिक धर्म के प्रति श्रद्धा होती है और मन निश्चल-स्थिर होने से धर्म के ऊपर गुणस्त्रिजगत्रतच ॥४॥ दृढ़ता-स्थिरता प्राप्त होती है। सम्यक्त्व को दृढ़ बनाने के लिए ३- कर्पूरप्रकरण, श्लो. ५ । सांसारिक इच्छाओं से दूर करना होगा। तीनों योगों को एकतामय वास्तव में सम्यग्दृष्टि प्राणी की महिमा अजब है किसी अलग बनाकर पवित्र करना होगा। मन की चंचलता को दूर करना होगा। ही प्रकार की है, विरति धर्म को प्राप्त किये बिना जो श्रेणिक महाराजा देवगुरु और धर्म आदि का आलम्बन लेने से मन की स्थिरता इस भरतक्षेत्र में तीर्थंकर होने वाले हैं- क्या सामान्य मनुष्य भी स्वयं प्राप्त होगी। मन की चंचलता दूर होने पर आत्मा का स्वरूप प्रकट पुण्यबल से समस्त पृथ्वी का स्वामी नहीं बनता है? क्या रूप के होगा और आत्म निश्चय में स्थिरता होगी। जब अपने भीतर स्थिरता बिना भी अत्यन्त गुणवान मनुष्य तीनों जगत् में नहीं पूजा जाता है। प्राप्त होगी तब दूसरों को भी सम्यक्त्व में विशुद्ध बनाने की दृढ़ श्रद्धा अर्थात् इस जग में गुण की पूजा होती है, रूप, धन, यश, तन की की ज्योति जगेगी। कदापि नहीं। सम्यक्त्वरलान्न परं हि रलं, (१) सम्यग्दर्शन का अचिन्त्य प्रभाव है, अनादिकालीन आत्मा की सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रम् । TS मलिनवृत्ति में सहसा परिवर्तन आता है । वृत्ति सहसा निर्मल सम्यक्त्वबंधोन परो हि बंधुः, बनती है- जैसे कतकवृक्ष के फल के चूर्ण से मलिन पानी सम्यक्त्वलाभान्न परो हि लाभ: ॥१॥ स्वच्छ बन जाता है- वैसे ही सम्यग्दर्शन के संग से आत्मा -सूक्तमुक्तावलि, अधिकार ५५ श्लोक ८ । मलिन वृत्ति से स्वच्छ बन जाता है। समकितरूपी रत्न से कोई श्रेष्ठ रल नहीं, और सम्यक्त्वरूपी (२) “भवे तन मोक्षे मन" मित्र से बढ़कर कोई उत्तम मित्र नहीं। समकितरूपी भाई से बढ़कर सम्यग्दर्शन का शरीर संसार में, मन मोक्ष में होता है। श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना तिरे नहीं बिन धर्म के कागज की यह नाव । जयन्तसेन विभ्रम मति, कैसे करे बचाव ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) करोड़ों रुपये का दान दो, जीवन भर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन (३) दीक्षा संयम मार्ग लेने से क्या फायदा? ऐसे वचन बोलने करो, लाखों पूर्व का तप करो, करोड़ोंबार नवकारमंत्र का जाप से। करो, साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान पढ़ो, दीक्षा स्वीकार करो, उपविहार जिन मंदिर जिनमूर्ति का विरोध करने से। करो, वीर आतापना लें, परिषह सहें तो भी एक सम्यग्दर्शन ५) त्यागी, वैरागी, पंच महाव्रतधारी साधुओं का अपमान, अवज्ञा, बिना मन का परिभ्रमण रुकता नहीं। जब सम्यग्दर्शनवासी निन्दा आदि करने से। महाराजा का पदार्पण हृदयमंदिर में होता है, तब ही भव का परिभ्रमण सहसा मर्यादित बनता है, एवं सहसा संसारचक्र का देव, द्रव्य एवं गुरुद्रव्य का भक्षण करने से। जोर रूकता है। (७) उन्मार्ग का उपदेश देने से, एवं सन्मार्ग को रोकने से। सम्यग्दर्शनी आत्मा त्यागी वैरागी तत्त्वज्ञानी गुरुओं के चरणों जिनवचन ऊपर अश्रद्धा एवं जिनागमों के असत्य कहने से। की सेवा करता है एवं साथ ही श्रद्धा और आचारभ्रष्ट कुगुरुओं (९) जिनागमों के विरुद्ध लिखने से, बोलने से या सन्मति देने से को त्याग करता है। एवं जिनपूजा का निषेध करने से, मिथ्या देव-देवियों की मान्यता सम्यग्दर्शनी आत्मा संसार को कैदखाना मानकर दु:खी हृदय पूजा-वगैरह करने से। से संसार में रहता है, दीन दुःखियों को देखकर करुणा से इन (१०) नि:संकोच अत्यंत कषाय करने से। का हृदय आर्द्र होता है, (पिघलता है)। (११) नि:संकोच अत्यंत विषयासक्ति रखने से। (६) सम्यग्दर्शन में मोक्ष देने की ताकत है, दूसरे गुणों में कदापि (१२) मिथ्यात्विओं के बहुत सहवास से। नहीं। भार (१३) मिथ्या पर्यों को मानने उसकी आराधना करने से। सम्यग्दर्शन के बिना साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान भी अज्ञान कहलाता (१४) मोक्ष का इन्कार करने से। है, चारित्र भी द्रव्य चारित्र कहलाता है, उग्र तप एवं दीर्घकालीन (१५) व्रत नियम क्रिया को न मानने से। तप भी कायकष्ट कहलाता है। (८) सम्यग्दर्शन बिना क्रियाएँ बेचारी वन्ध्या स्त्री के समान है, (१६) जिनागमों, जिनमूर्ति, जिनमंदिर की जान बूझकर आशातना करने से। मोक्षरूपी पुत्र को जन्म नहीं दे सकती। (१७) साधु संस्था का नाश करने से व नीचे गिराने के प्रयत्ल करने जैसे हाथी को एक अंकुश की जरूरत होती है। घोड़े को लगाम की, चालक को (ड्रायवर को) ब्रेक की ठीक इसी तरह इस प्रकार सम्यग्दर्शन पाने से लाभ और नहीं पाने से भव आत्मा को संसार के परिभ्रमण को अंकुश में लाने के लिए भ्रमण बढ़ता है। ऐसा जानकर सम्यक्दर्शन पाने के बाद अपने सम्यग्दर्शन की आवश्यकता है। सम्यक्त्व में दृढ़ रहनेवाली नाग सारथि की पत्नी सुलसा श्राविका (१०) सम्यग्दर्शन की उपस्थिति में जीवात्मा आयुष्य का बन्ध करे स्त्री होते हुए भी प्रभु महावीर के मुख से प्रशंसा को प्राप्त हुई। सुलसा तो अवश्य वैमानिक देवलोक का ही बन्ध करता है। चाहे श्राविका धर्मप्रिय और दृढ़धर्मी थी। स्वयं आत्ममार्ग में बहुत ही दृढ़ फिर एक व्रत भी क्यों न हो, सम्यग्दर्शन सहित चारित्र प्राप्त थी. और उसने अंबड परिव्राजक को भी प्रभु के मार्ग में आत्ममार्ग में करे तो जीवात्मा अधिक से अधिक आठ भव में अवश्य मोक्ष दृढ़ बनाया, उस सुलसा श्राविका का दृष्टान्त निम्नांकित है। प्राप्त करता है। सम्यग्दर्शनी आत्मा विरति धर्म का प्रेमी का राजगृही नगरी में श्रेणिक राजा के नाग नाम का एक सारथि बनता है। था। उसकी पत्नी पतिव्रता सती सुलसा नाम की थी, उसने भगवान् सम्यग्दर्शन पतन के कारण: महावीर के समीप धर्म श्रवण कर धर्म को अंगीकार किया। सुलसा धर्म में दृढ़ बनी। उसका आत्म निश्चय अलौकिक था, देवता भी उसको चैत्यद्रव्यहृति: साध्वी - शीलभङ्गर्षिघातिने । चलायमान करने में असमर्थ थे। वह आत्मा को ही परमात्म स्वरूप तथा प्रवचनोद्दाहो, मूलग्निबोंधिशाखिनः ॥ मानती थी, अज्ञान दूर करने हेतु स्वस्वरूप में स्थित रही। उत्तम गुरु -त्रिषष्ठी, पर्व ८, सर्ग १०, श्लो. २८ । की पर्ण आवश्यकता है ऐसा मानकर सद्रुओं के देवाधिदेव तीर्थंकर जिन मंदिर के द्रव्य का हरण करना, साध्वी के साथ शीलभंग अपने को सत्य मार्ग बतलाते हैं, उपदेश द्वारा जाग्रत करते हैं तथापि करना व साधु का घात करना, तथा प्रवचन की (आगम के अपने में योग्यता नहीं तो उनका कोई दबाव नहीं चलता। शास्त्रा का) निन्दा करना, य सब समाकतरूपा वृक्ष क मूल म जैसे रेत में तेल नहीं तो उसे हजारों मन एक साथ पीलने में अग्नि समान है। आये तो उनका एक बूंद भी तेल का नहीं निकलता है। (२) मिथ्यात्वी देव देवियों की मान्यता और मिथ्यात्वी पर्व मानना। (२) से। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना ६८ धर्म सहायक चलन में, धर्म विधायक जान । जयन्तसेन विदितवान्, करते निज उत्थान ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि तिलों में तेल है तो पीलने का साधन मिलने से तेल बाहर सभी नगर के पुरुष-स्त्रियाँ वहाँ देखने आये, परंतु सुलसा वहाँ आ जाता है दूसरे सब निमित्त कारण है। योग्यता स्वयं होनी चाहिये नहीं आयी। अंबड को ज्ञात हुआ कि कितनी बार पूरा नगर वहाँ आ - कहा भी गया है, गया पर सुलसा नहीं आयी। "यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा तस्य शास्त्रं करोति किम् ॥" मन में सोचा कि उसको जैन दर्शन में आग्रह ज्यादा है ऐसा विचार कर चौथे दिन तीर्थंकर का रूप धारण कर समवसरण में बैठकर अर्थात् जिसमें अपनी बुद्धि का स्वयं का कोई प्रकाश ही नहीं धर्मदेशना देने लगा। उस समय भी सुलसा नहीं आयी देखकर अपनी उसका शास्त्र भी क्या कर सकता है? लब्धि को शंकायुक्त मान, अंबड सुलसा के घर गया-सुलसा ने आदर अत: अगर बाती में तैल होगा तो दिया जलेगा-रोशनी जरूर सत्कार किया और उनके आने का कारण पूछा? अंबड ने महावीर होगी। आत्म सत्ता तो सिद्ध स्वरूप के समान है। देव की कथित-धर्मपृच्छादि बात बताई। सुलसा को बहुत ही यह दृढ़ मान्यता सुलसा सती की थी। हर्षोल्लास हुआ, अंबड ने सुलसा से कहा-आप के नगर के बाहर भगवान् महावीर देव के द्वारा वह जीवाजीव तत्त्वों को जानकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश पधारे थे-आप वहाँ क्यों नहीं गई थीं? निरंतर सत्पुरुषों का ही समागम करती थी। आत्मचिन्तन में निमग्न सुलसा ने उत्तर दिया-इसमें देखना क्या था? ये सभी पुद्गल थी, उसकी बराबरी कोई भाग्य से ही कर सके उसको अपने धर्म की की वाणी हैं। पद्गल के धर्म हैं। सुलसा ने कहा आत्म उपयोग को कठोर उपासना से विचलित करने में कोई भी समर्थ नहीं था। भूलकर अन्य पदार्थ में अशाश्वत होना क्या मिथ्यावाद नहीं है? भगवान् महावीर देव को भी उसकी आत्मा में लीन होने का सम्यग्दृष्टि पदार्थ को दूषित करने व मलीन करनेवाला वह कार्य नहीं पूर्ण विश्वास था। आत्म श्रद्धा में शिथिल होने वाले कई लोगों को है? नेक बनने हेतु अनेकों सूक्तियों द्वारा मजबूत बनाती थी। अंबड इस प्रकार सुलसा के शब्द सुनकर आश्चर्य युक्त बना। एक बार चंपानगरी के उद्यान में भगवान महावीर देव देशना सुलसा आत्मधर्म में पूर्णतया प्रवीण है, प्रीतिवाली है। दे रहे थे, उसी समय अंबड परिवाजक वहाँ आया, देशना सुनकर विशेष जानने हेतु अंबड ने फिर से प्रश्न किया सुलसा भले ही श्रावक बन गया। उस समय वह तापस के वेश में ही था। आप ब्रह्मा, विष्णु और महेश को देखने न जायं लेकिन तीर्थंकर के एकबार भगवान् की वन्दना करके कहने लगा कि मैं राजगृही. दर्शन करने भी नहीं आईं? यह आप की बड़ी भूल है। नगरी जा रहा हूँ, मेरे योग्य कुछ आज्ञा हो तो फरमाइये । भगवान् ने सुलसा ने उत्तर दिया-अंबड ! परम कृपालु देवाधिदेव, उनका उसे आत्मधर्म में दृढ़ करने निमित्त कहा- हे अंबड यदि तुम राजगृही ___आगमन होता तो मेरे रोम-रोम में आनन्द छा जाता, खुशी के कारण जा रहे हो तो वहाँ नाग नाम के सारथि की पत्नी सुलसा श्राविका है मरा राम-राम खिल उठता मगर मरा एक भा राम खुशा स नहा भरा। उन्हें मेरी ओर से धर्मशद्धि पुछना और धर्मलाभ कहना तथा धर्म में इससे मेरी आत्मा में यह आभास हुआ कि देवाधिदेव का आगमन सावधान रहने को कहना। नहीं हुआ है । देवाधिदेव तो यहाँ से काफी दूर चंपा नगरी में विराजमान है और अपने क्षेत्र में एक ही होते हैं, दो नहीं होते हैं। अत: मुझे अंबड नतमस्तक होकर बात अंगीकार कर चलता चलता पूर्णतया यह आभास हो गया कि हमारी नगरी के बाहर ज़रूर कोई राजगृही नगरी के समीप आया। अंबड को अनेकानेक सिद्धियाँ उत्पन्न मायावी ढोंगी ढोंग मचाकर बैठा है, इसलिये मैं वहाँ तुर्शन हेतु नहीं हुई थी, विविध प्रकार के स्वरूप बना सके ऐसी लब्धियाँ उसके पास गयी। थी, रास्ते में उसने विचार किया था कि सुलसा ऐसी कैसी दृढ़ अंबड ने पुन: समझाया कि हे सुलसा आपकी यह बड़ी भूल श्रद्धावाली है सो स्वयं भगवान् ने भी उसकी प्रशंसा की है, उसकी है? भले ही तीर्थंकर न हो लेकिन धर्म की शोभा तो बढ़ती है न? दृढ़ता की मुझे परीक्षा करनी पड़ेगी। सुलसा ने उत्तर दिया इस में तुम्हारी भी बड़ी भूल है, ऐसे झूठे इस प्रकार का विचार कर अंबड ने अपनी वैक्रियलब्धि के द्वारा आडम्बरों से क्या जीव धर्म के प्रति रुचिवाले होते हैं ? सत्य वस्तु ब्रह्मा का रूप बनाया और बड़े आडम्बर के साथ शहर के बाहर आकर को बताना ही अपना सच्चा धर्म है। आडम्बर व पाखण्ड रचाने से बैठ गया। इस प्रकार का नया चमत्कार देखकर हजारों की संख्या में बेहतर सादगी एवं सरलता बतानी उचित होती है। नगर वासियों ने दर्शन का लाभ लिया लेकिन सुलसा वहाँ नहीं गयी। अंबड ने सुलसा से कहा-आप का कहना यथार्थ है। ब्रह्मा, दूसरे दिन दूसरे दरवाजे भगवान् विष्णु का रूप धारण कर विष्णु और महेश एवं तीर्थंकर के रूप धारण किये तो पूरी नगरी के आडम्बर युक्त पड़ाव डाला, सभी नगर के पुरुष-स्त्रियाँ वहाँ देखने लोग दर्शनार्थ आये, यदि मैं अकेला ही साधारण आया होता तो कोई आये परंतु सुलसा वहाँ नहीं आयी। भी पहिचान सकते नहीं। फिर आने की बात ही कैसे बनती? धर्म तीसरे दिन तीसरे द्वार पर अंबड ने भगवान शंकर का रूप के प्रति लोग प्रभावित कैसे होते? धारण कर आडम्बर युक्त पड़ाव डाला। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना ६९ करो धर्म आराधना, छोड़ो विषय विकार । जयन्तसेन सतर्क रह, नैया सुख से पार ॥ Jain Education Interational Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगों को आकर्षित करने के लिए बाह्य आडंबर अत्यावश्यक सुलसा ने प्रत्युत्तर दिया बाल जीवों के लिए आपने कहा वह बाह्य आडम्बर जरूरी है, वे नवीनता से ललचाकर उस तरफ आकर्षित होते हैं, लेकिन आंतरिक इच्छा ही यथार्थ लाभ को प्राप्त करवाती है। है । जैसे आत्मज्ञान की तृष्णावाला मनुष्य किसी भी स्थान से महात्मा को प्राप्तकर आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है। कभी आपने सुना है कि तालाब कभी घर-घर जाकर कहता है कि मेरे पास पानी है, आओ ले लो, नहीं तालाब कभी नहीं पुकारता । पानी चाहने वाला स्वयं तालाब को खोजेगा और पानी ले जायेगा । प्यासा सदैव पानी के पास जाता है, पानी कभी चलकर आया नहीं । अन्तरात्मा की अत्यंत प्रेरणा बिना जीव आगे नहीं बढ़ता। हे अंबड ! परमात्मा महावीर देव का उपदेश आत्मा के शुद्ध स्वरूप को बताने वाला है। अंबड सुलसा की धर्म दृढ़ता स्थिरता सुनकर अत्यंत खुश हुआ और धर्म में दृढ़ बना । (पृष्ठ ६४ का शेष) से सत्य और दूसरे अंशों को असत्य कहना अनुचित है। इस प्रकार एकांतवादी दर्शनों की भूल बताकर पदार्थ के सत्य स्वरूप को दर्शनों का कार्य स्याद्वाद करता है। स्याद्वाद का अमर सिद्धांत दार्शनिक जगत में बहुत ऊँचा माना गया है। पाश्चात्य विद्वान डॉ. थामस आदिका भी कथन है कि स्याद्वाद सत्य ज्ञान की कुंजी है । म. गांधीजी कहते हैं- अनेकांतवाद मुझे अत्यंत प्रिय है। उसमें से मैंने मुस्लिम, ईसाई और अन्य धर्मियों के प्रति विचार करना सीखा। पहले मेरे विचारों को किसी के द्वारा गलत माने जाने पर मुझे क्रोध आता था। किंतु अब मैं उनका दृष्टि बिंदु उनकी आंखों से देख सकता हूँ अनेकांतवाद का मूल अहिसा और सत्य का युगल है। स्याद्वाद की उपयोगिता वैज्ञानिक क्षेत्र भी इस सिद्धांत से प्रभावित है। लोहा भारी होने से जल में डूब जाता है, ऐसी एकांत रूढ़ मान्यता है। पर अनेकांत ज्ञान से उसे अन्य दृष्टि से देखने का सुझाव दिया। प्रयास फलित हुआ, परिणामतः लोहे के भार भरकम जलयान समुद्र में चलने लगे। इसीलिए कबीर जी कहते हैं एक वस्तु के नाम बहु, लीजे नाम पिछान । नाम पच्छ न कीजिए, सार तत्त्व ले जान ॥ सब काहूं का कीजिए, सांचा शब्द निहार। पच्छपात न कीजिए, कहे कबीर विचार ॥ श्रीमद जयंतसेनरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना ७० अंबड ने सुलसा की परीक्षा लेने के लिए तीनों रूप ब्रह्मा विष्णु महेश और चौथा तीर्थंकर का रूप धारण किया लेकिन स्वयं अंबड की ही परीक्षा हो गयी। आये तो लूटने लेकिन स्वयं ही लुटकर चले गये । और अंबड ने अपना सब मायावी प्रपंच का रहस्य सुनाया से बारबार क्षमा याचना माँगी। सुलसा अंबड ने कहा- वास्तव में सत्संग की महिमा अथाह है। स्वयं आत्म धर्म में दृढ़ होना और दूसरों को भी दृढ़ बनाना, सम्यक्त्व का आभूषण है। सती सुलसा श्राविका ने अपने जीवन में अनेक जीवों को सत्यमार्ग पर लाने का भारी प्रयत्न किया- ऐसी श्राविका होना दुर्लभ है । अरे भव्यात्माओ ! आप भी सुलसा की तरह सम्यक्त्व में दृढ़ बनकर जीवन को सार्थक बनाइये। Ty few pl SUSUR FIREP FILE स्याद्वाद वह सम्राट है जो सामने आते ही कलह, ईर्ष्या, सांप्रदायिकता, संकीर्णता आदि शत्रु भाग जाते हैं। स्याद्वाद विश्व को यही शिक्षा देता है कि जगत के सभी धर्म और दर्शन किसी न किसी अपेक्षा सत्य के अंश हैं किंतु जब वे एक दूसरे से न मिलकर एक दूसरे का तिरस्कार करते हैं तब विकृत हो जाते हैं। उस स्थिति में धर्म या दर्शन अपने अनुयायियों के लिए पाषाण की नौका साबित हो जाते हैं। खुद डूबे व औरों को डुबाने का कार्य करते हैं। लेकिन जो मत-पंथ-दर्शन दूसरे के सत्य के अंशों को पचाने की क्षमता रखता है वह उदार और संगठित बनकर प्रगति करता चला जाता है। यह सिद्धांत ऐसा है जिसमें विभिन्न दर्शनों में स्थित सत्य को समझने की समन्वय की अद्भुत शक्ति रखता है। विश्व में मानव जाति को अपूर्व दिव्य ज्योति प्रदान करके सर्वधर्म समन्वय की सुंदर कला सिखाता है। जब कभी विश्व में शांति का सर्वतोभद्र सर्वोदय राज्य स्थापित होगा वह स्याद्वाद द्वारा ही। यह बात मेरु समान अटल है अचल है क्योंकि मनुष्य के विचारों में व्यापकता, सत्यता और निर्मलता लाने का एकमात्र शुद्धिकरण यंत्र है- स्याद्वाद ! विविधता में एकता / एकता में विविधता का दर्शन कराकर स्याद्वाद ने अपना स्थान सर्वोच्च बनाया है। सिद्धसेन दिवाकरजी की ज्ञान वाटिका से सुरभित पुष्प भी इसी की सौरभ को फैलाने में सहायक बने है उन्हीं के ज्ञान-गर्भित शब्दों में 1 जेण विणा लोगस्स वि ववहारो न निव्वडड़ तस्स भुवणेवक गुरुणो, णमो अणेमंत वायस्स । जीव मात्र से प्रेम हो, नहीं किसी से द्वेष । जयन्तसेन धर्म सरल, देता यह सन्देश ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 'नास्तिको वेदनिन्दकः' - कितना सार्थक? | - जैन साध्वी श्री चारित्रप्रभाजी महाराज (दर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न, जैन सिद्धान्ताचार्य) भारत में कितने दर्शन 'भारतीय' हैं, यह निश्चय करते समय, जो उल्लेख है। ये सारे परिगणन-प्रयास, किसी एक निश्चित संख्या के शब्द सबसे पहिले सामने आता है, वह है - 'षड्दर्शन' । इस शब्द अनुसार नहीं किये गये, न ही इनमें परिगणित दर्शनों के नामों में के अन्तर्गत कौन कौन से दर्शन आ सकते हैं, कौनसे नहीं? इस विषय 'एकरूपता' या 'शब्द साम्य' है। इस स्थिति में 'षड्दर्शन' शब्द का में किसी भी दो दार्शनिक, विद्वानों की सम्मति, एकसी नहीं मालूम अभिप्राय क्या लिया जाये? यह निश्चय कर पाना सहज-सुकर नहीं पड़ती। वस्तुत:, भारतीय दर्शनों की संख्या न तो कभी सुनिश्चित हो है। वस्तुत: यह 'षड्दर्शन' शब्द ही, अपना कोई खास - अभिप्राय सकती है, न ही हो पायेगी। इसलिये, 'षड्दर्शन' शब्द के अन्तर्गत नहीं रखता। क्योंकि, और कोई ऐसा प्रामाणिक सिद्धान्त नहीं है, जो आने वाले दर्शनों का सार्वकालिक निर्धारण सुनिश्चित कर पाना सहज इस छः संख्या के निर्धारण में सहयोगी भूमिका निभा सके। नहीं है; क्योंकि, यह निश्चय करनेवाला विद्वान, जिन छ: दर्शनों के प्रति, भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण मुख्यत: आस्तिक' और 'नास्तिक अनुकूल मनोभाव रखता होगा, उन्हीं का परिगणन, उक्त छ: संख्या के । नाम के दो वर्गों में किया जाता रहा है। कुछ विद्वान 'वैदिक' और बोधक शब्द की अर्थ सीमा में कर लेगा। अथवा जिन दर्शनों के प्रति 'अवैदिक' इन दो विभागों में वर्गीकृत करते हैं। इस वर्गीकरण में उसकी प्रतिकूल मन:स्थिति होगी, उन्हें उक्त संख्या से बाहर रखने में 'वैदिक' शब्द से 'आस्तिक' दर्शनों का और 'अवैदिक' शब्द से ही उसके विद्दत्ता-गर्व की सन्तुष्टि होगी. इसलिए, सर्वप्रथम यह जानना 'नास्तिक' दर्शनों का ग्रहण करने की परम्परा प्रचलित होगयी है। आवश्यक है कि प्राचीन ग्रंथकारों ने 'षडदर्शन' के अन्तर्गत किन तथापि, यह सुनिश्चित हो जाता है कि भारतीय दर्शन के मूलत: दो दर्शनों का समावेश किया है। विभाग हैं। प्राचीनतम ग्रंथों में शङ्कराचार्य का 'सर्वसिद्धान्त संग्रह' मुख्य उक्त विभागो में से 'नास्तिक' विभाग के अन्तर्गत ही जैन दर्शन' ग्रंथ है । इसमें क्रमश: लोकायत, आर्हत. बौद्ध (चारों सम्प्रदाय), वैशेषिक, का समावेश, प्राय: किया गया है । इस निर्धारण का आधार, मनु आदि न्याय, मीमांसा, सांख्य, पातञ्जल, व्यासवेदान्त को मिलाकर कुल स्मृतिकारों की मान्यता का माना जाता है। इसी मान्यता को अधिकांश दशदर्शनों की चर्चा है। हरिभद्रसूरि के 'षड्दर्शन समुच्चय' में बौद्ध, भारतीय, और पश्चिमी विद्वानों ने भी अपना समर्थन दिया है। किन्तु नैयायिक, कपिल, जैन वैशेषिक और जैमिनी दर्शनों की विवेचना है। इसी सिद्धान्त के आधार पर, अन्य दर्शनों के सैद्धान्तिक - विवेचनों जिनदत्तसूरि के षड्दर्शन समुच्चय में जैन, मीमांसा, बौद्ध, सांख्य, शैव पर जब दृष्टिपात किया जाता है, तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि जिन दर्शनों और नास्तिक नामसे छ: दर्शनों का परिगणन पूर्वक विवेचन किया को 'आस्तिक' वर्ग में परिगणित किया जाता है, उनकी 'आस्तिकता' गया है। राजशेखरसूरि ने जैन, सांख्य, जैमिनि, योग-(न्याय), वैशेषिक, और जैन दर्शन की 'नास्तिकता' के निर्धारण में, अपनाये गये सिद्धान्त और सौगत, कुल छ: दर्शनों का विवेचन किया है । सुविख्यात टीकाकार की मानक-धारणा, कसौटी पर खरी नहीं उतरती। मल्लिनाथ के पुत्र ने पाणिनि जैमिनि, व्यास, कपिल, अक्षपाद और 'मनुस्मृति' के अनुसार 'नास्तिक' वह है, जो वेदनिन्दक' है। कणाद के दर्शनों का विश्लेषण 'षड्दर्शन' के रूप में किया है। इस सिद्धान्त की सार्थक-अन्विति, जैनदर्शन द्वारा 'वेदों' का 'पौरुषेयत्व' 'हयशीर्षपञ्चरात्र' में और 'गुरुगीता' में भी जिन दर्शनों का उल्लेख मानने के आधार पर करलीगयी। क्योंकि - जैनदर्शन, वेदों की 'षड्दर्शन' के रूप में है, उनके नाम हैं - गौतम, कपिल, पतञ्जलि, व्यास 'अपौरुषेयता' को प्रामाणिक नहीं मानता। बुद्धि का प्रयोग करने पर और जैमिनि। यह सिद्ध भी हो जाता है कि वेद 'अपौरुषेय' नहीं है। इसलिए, इस 'शिवमहिम्नस्तोत्र' में सांख्य योग पाशपत और वैष्णव दर्शनों लेख में, मात्र यही परीक्षण करना है कि 'आस्तिक' वर्ग के अन्तर्गत का; कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सांख्य, योग, लोकायत, दर्शनों का; मान्य दर्शन, वेदनिन्दक' की परिधि में आते हैं, या नहीं। माधवाचार्य के 'सर्वदर्शन संग्रह' में चार्वाक, बौद्ध, आईत, रामानुज, शङ्कराचार्य का कथन है कि 'दार्शनिकों में वस्तुत: बादरायण पूर्णप्रज्ञ (माधव), नकुलीश पाशुपत, शैव, रसेश्वर, औलूक्य, अक्षपाद, और जैमिनि, दो ही दर्शनिक ऐसे हैं, जिन्होंने वेदमंत्ररूपी फलों को, जैमिनि, पाणिनि, सांख्य, पातञ्जल, शाङ्कर आदि का; मधुसूदनसरस्वती अपने सूत्रों के द्वारा गूंथकर, वैदिक आचार्यों की एक सुव्यवस्थित के 'सिद्धान्त बिन्दु' में और 'शिवमहिम्न स्तोत्र' टीका में भी माला, अपने दर्शन के रूप में उपस्थापित की है। शेष दार्शनिक तो न्याय-वैशेषिक, कर्ममीमांसा - शारीरिक मीमांसा, पातञ्जल, पाञ्चरात्र, 'तार्किक' भर हैं। उनका वैदिकदर्शन में प्रवेश नहीं है। इन दोनों पाशुपत, बौद्ध, दिगम्बर, चार्वाक, सांख्य और औपनिषद् दर्शनों का प्रमुख दार्शनिकों के साथ, अन्य आस्तिक दर्शनों के आचार्यों का भी श्रीमद् जयंतसेनासूरि अभिनंदन पंथ/वाचना ७१ अहिंसा सत्य अचौर्य हि, ब्रह्मचर्य सन्तोष । जयन्तसेन धर्म यही, करता जीवन पोष ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह समीक्षण किया जा रहा है कि वे किस हद तक 'वेदानुसारी' हैं, बतलाया गया है, और यह कहा गया है कि पुण्यक्षीण हो जाने पर या 'वेदनिन्दक' हैं। फिर मृत्यु लोक में आना पड़ेगा। प्राचीन आचार्यों में एक वर्ग'वेदत्रयी' का समर्थक रहा है। यह दूसरे अध्याय का कथन तो विशेष उल्लेखनीय है । यह कथन, वर्ग 'अथर्ववेद' को वेद ही नहीं मानता था। मनुस्मृति भी इसी वर्ग श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन के प्रति कहा गया है। कृष्ण कहते हैं - 'जो से सम्बन्धित है, यह सर्वविदित है। इस वर्ग में भी, यजुर्वेद से वेदों के वाक्यों में अनुरक्त हैं, वे, 'स्वर्ग' से भिन्न 'मोक्ष' मानते ही नहीं सम्बन्धित दार्शनिक/आचार्य सामवेद की, और सामवेदीय विद्वान् है। वे तो सिर्फ लोगों को लुभाने के लिये ही 'मोक्ष' की चर्चा करते यजुर्वेद की निन्दा करते रहे हैं। इसीलिये, मनुस्मृति ने सामवेद के हैं। इसलिये हे अर्जुन ! संसार में बांधकर रखने के लिये 'वेदत्व' को मान्यता देना तो दूर रहा, उसकी ध्वनि तक को अपवित्र तीन-लड़ियों वाली रस्सी की तरह, वेदत्रयी' को मानो और त्रिगुणातीत घोषित किया हुआ है। जब कि श्रीमद्भगवद्गीता में व्यास ने श्रीकृष्ण बनो" इतना ही नहीं, वे आगे और स्पष्ट कहते हैं - 'परस्पर विरुद्ध के मुख से सामवेद को श्रेष्ठतम वेद कहलवाया है। इन उल्लेखों से वेदों के मंत्रों को सुनने से बुद्धि विचलित हो जाती हैं। किन्तु, यह स्पष्ट है कि 'मनुस्मृति' स्वयं ही वेदनिन्दा में पीछे नहीं है। फिर, इसी विचलित-बुद्धि, जब भी आत्मा - (शुद्ध आत्मा-परमात्मा) में स्थिर के स्व-विरोधी कथन को प्रामाणिक कैसे माना जाये? और जब वेद बनेगी, तभी तुम 'समत्व' योग को प्राप्तकर पाओगे।१२ । ही परस्पर एक-दूसरे की निन्दा करते हों. तो वेद-निन्दा को नास्तिकता गीता में इस प्रकार वेदों की मुक्ति-हेतुता का खण्डन करके, और का आधार कैसे माना जाये? उनकी सांसारिकता को स्पष्ट करके, वेदासिद्धान्तों का समर्थन नहीं कुछ उपनिषत्कार तो खुल्लमखुल्ला वेद के सिद्धान्तों का खण्डन किया है, बल्कि, उनका खण्डन करके, निन्दा ही की है। इस मनु की करते हैं और उन्हें निस्सार घोषित करते हैं। जैसे, ऋग्वेद, यज्ञक्रिया परिभाषा के अनुसार व्यास का समादर भी 'नास्तिक' श्रेणी के दार्शनिकों के समर्थन में कहता है - 'जो पुरुष यज्ञरूपी नौका मे न चढ़ सके वे कुकर्मी हैं, नीच अवस्था में पड़े हुए हैं ' इस कथन का उत्तर देते हुये दश-अंगिराओं में कपिल' की प्रधानता को ऋग्वेद भी स्वीकार मुण्डकोपनिषत् कहती है - 'हे वेद ! तुम्हारी यह नौका तो जीर्ण-शीर्ण करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ऋग्वेद के रचना काल में हो गयी है। वैसे भी, यह पत्थरों से बनी हुई है। इसलिये, तुम्हारे कपिल का प्रभाव इतना अधिकाधिक है कि उससे प्रभावित होकर जैसे मूर्ख ही इसे कल्याणकारी मानते हुए आनन्दित होते होंगे ।जो ऋग्वैदिक आचार्यों ने उनका स्मरण भी विशेष सम्मान के साथ किया इस संसार-सागर में डूबते-तैरते हुए जन्म-जन्मान्तरों में भटकते रहते है। किन्तु, वही कपिल, महाभारत के शान्ति पर्व के २६८ वें अध्याय हैं।' इसी उपनिषद् में चारों वेदों को 'अपरा विद्या' कहकर, उनकी में 'गो-सम्वाद' के समय, घोषणा करता है - 'हिंसायुक्त धर्म, यदि सांसारिकता बतलाई है। अन्य अनेकों स्थलों पर भी ऐसी ही बातें वेदसम्मत भी हो, तो भी, वह 'धर्म' का दर्जा प्राप्त करने लायक नहीं कहीं गई है। जिनसे ज्ञात होता है कि 'वेद मुक्तिदाता हैं' इस कथन है। उसने वेदसम्मत यज्ञों के विभेद में प्रचार भी किया था। की, और उनके क्रियाकाण्डों की भी निन्दा उपनिषत्कारों ने की है। कर इस प्रकार हम देखते है कि वैदिक ऋषियों में भी पारस्परिक अत: उपनिषत्कारों को भी नास्तिक माना जाना चाहिए। विरोध प्रबल है । वे एक दूसरे की निन्दा भी खुले रूप में करते हैं। ___ व्यास, वेद-सिद्धान्तों की विवेचना करने में अग्रणी हैं, यह इस स्थिति में किस ऋषि को 'आस्तिक' और किस ऋषि को 'नास्तिक' आस्तिक-दार्शनिकों की मान्यता है। किन्तु, श्रीमद्भगवद्गीता के माना जाये? यह प्रश्न उठ खड़ा होता है। इस किंकर्तव्यविमूढ़ता की अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि वेदों को सांसारिकता का कारण, स्थिति में, जैनदर्शन को 'नास्तिक' श्रेणी में, और व्यास आदि को और मुक्ति देने में असमर्थ, जितनी प्रबलता से व्यास ने उद्घोषित 'आस्तिक' श्रेणी में रख दिया गया हो इस पर आश्चर्य नहीं करना किया है, वैसी घोषणा दूसरों के द्वारा कहीं नहीं की गई। उदाहरण के चाहिए। इसलिए, यह मान्यता - 'वेदनिन्दक नास्तिक है' - एक व्यर्थ लिये गीता का अठारहवां अध्याय देखें। इसमें 'शुक्ल' और कृष्ण' का कथन जान पड़ती है। अत:, सुधी जनों को चाहिए कि वे इस गतियों का कथन किया गया है। इसी स्थल पर, वेद, यज्ञ और विषय में कोई निर्दोष - मान्यता स्थापित करें, और तब, भारतीय दर्शनों तपस्या में निहित फल की सारहीनता का स्मरण दिलाते हुए, वेद आदि । का वर्गीकरण, आस्तिक - नास्तिक वर्गों में सुनिश्चित करें । सामायिक के पठन को 'कृष्णमार्ग' बतलाया गया है । ग्यारहवें अध्याय में स्पष्ट सन्दर्भो में, इस तरह का निष्पक्ष चिन्तन हो तो, समाज को सही दिशा कहा गया है कि वेद, न तो पर ब्रह्म की प्राप्ति में सहयोगी हैं, न ही हा देने में सार्थक भूमिका निभा पायेगा। मुक्ति दिलाने में साधक हैं। नवम अध्याय में वेदों का फल 'स्वर्ग' मधुकर मौक्तिक जैन सिद्धांत में प्रार्थना के अन्तर्गत भावरमणता का परिचय करानेवाले 'जय वीयराय सूत्र में आत्म प्रबोध एवं प्रबुद्धता की उद्घोष-ध्वनि स्पष्ट दिखाई देती है। इसमें भाव का महत्व एवं आलंबन तथा आलंबक की गुरुता-लघुता का नैसर्गिक चित्रण आलेखित है। प्रार्थना के समय ज्यों ज्यों दृढ चित्तावस्था-एकाग्रता वृद्धिगत होती जाती है, त्यों त्यों सद्भावों की सरिता भी प्रवाहित होती जाती है। यह सद्भाव सरिता दुर्भावना की बीहड़ अटवी को भी प्लावित करके हरी भरी बना देती है। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना ७२ 'आ' से मर्यादा कही, 'ज्ञा' से करलो ज्ञान । जयन्तसेन सुखी सदा, रहता आज्ञावान ॥ . Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में सप्तभंगी-एक विश्लेषणात्मक अध्ययन - उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. के शिष्य रमेशमुनि शास्त्री जैन दर्शन का चरम विकास अनेकान्त एवं स्याद्वाद में हुआ। अतः जैन दर्शन की चिन्तन धारा का मूल उद्गम स्थल स्याद्वाद है। यही उसकी विकास की चरम रेखा है। जैन साहित्य का एक भी ऐसा वचन-प्रयोग नहीं है, जिसमें अनेकान्तवाद का प्राण तत्व संचारित न हो इसलिये यह भी कह दिया जाय तो सर्वथा-संगत होगा कि जहाँ अनेकान्त के परिबोध के लिये प्रमाण और नय को समझना वस्तुगत आवश्यक है वहाँ तत्प्रतिपादक वचन पद्धति के परिज्ञान के लिये सप्तभंगी को समझना भी आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। यहाँ पर प्रमाण और नय की परिचर्चा में न जाकर सप्तभंगी के सम्बन्ध में विवेचना करेंगे। एक प्रश्न चिह्न है सप्तभंगी क्या है ? उसका प्रयोजन क्या है ? उसका क्या उपयोग है ? इन सभी गहन प्रश्नों पर जैन मुनियों ने प्रकाश डाला है, विश्व की प्रत्येक वस्तु के किसी एक धर्म के स्वरूप कथन में सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जाता है, उसे सप्तभंगी कहते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि सप्तभंगी की जो व्यवस्था हुयी है । वह तत्प्रतिपादक वचनपद्धति के परिबोध के लिए है । यह धुव सत्य है कि पदार्थ के यथार्थ परिज्ञान के लिये जैन दर्शन में दो उपाय स्वीकार किए है। प्रमाण और नय ! इन दोनों से ही संसार की किसी भी वस्तु का यथार्थ ज्ञान होता है, इन दोनों के बिना वस्तु का सम्यक् ज्ञान नहीं किया जा सकता । अधिगम का वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया है। स्वार्थ और परार्थ । ज्ञानात्मक स्वार्थ होता है और परार्थ शब्दात्मक । दूसरे के परिबोध के लिये शब्दों का प्रयोग किया जाता है अतः मंत्र का प्रयोग परार्थ अधिगम भी दो प्रकार का है। प्रमाण वाक्य और नयवाक्य ! उक्त आधार पर ही सप्तभंगी के दो भेद किए जाते हैं। प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी ! प्रमाण वाक्य को सकलादेश कहते हैं, और नय वाक्य विकलादेश है । वस्तुगत अनेक धर्मों के बोधक वचन को सकलादेश कहा जाता है। उसके किसी एक धर्म के बोधक वचन को विकलादेश कहते हैं। जैन उसके किसी एक धर्म के बोधक वचन को विकलादेश कहते हैं। जैन दर्शन ने प्रत्येक पदार्थ को अनन्त धर्मात्मक कहा है। वस्तु की परिभाषा करते हुये कहा गया है कि जिस में गुण और पर्याय रहते हैं उसे वस्तु कहते हैं।" तत्त्व, पदार्थ और द्रव्य ये वस्तु के पर्यायवाची शब्द हैं। सप्तभंगी की परिभाषा करते हुये कहा गया है कि प्रश्न समुत्पन्न होने पर एक वस्तु में अविरोध भाव से जो एक धर्म विषयक श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन पंथ वाचना FOR PR REF 6 FE ७३ ॐॐ विधि और निषेध की कल्पना की जाती है उस को सप्तभंगी कहा जाता है। यहाँ एक प्रश्न आता है कि भंग सात ही क्यों ? इन से न्यून या अधिक क्यों नहीं ? समाधान की भाषा में कहा गया है कि पदार्थ के एक धर्म को लेकर प्रश्न सात ही प्रकार से किया जा सकता है । पुन: प्रश्न उठता है; प्रश्न (ही) सात प्रकार का क्यों होता हैं, उत्तर में कहा गया है कि जिज्ञासा सात ही प्रकार से होती है। पुनः प्रश्न उबुद्ध हुआ जिज्ञासा सात ही प्रकार की क्यों होती हैं? क्यों कि संशय सात ही प्रकार से होता है अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि किसी भी पदार्थ के एक धर्म-सम्बन्धी सात ही प्रश्न होने से इसे सप्तभंगी कहा गया है। गणित शास्त्र के नियमानुसार चिन्तन करते हैं तो ज्ञात होगा कि तीन मूल वचनों के संयोगी और असंयोगी अपुनरुक्त भंग सात ही हो सकते हैं, तीन असंयोगी मूल भंग, तीन द्विसंयोगी भंग और एक त्रिसंयोगी भंग। । भंग का अर्थ है विकल्प प्रकार और भेद अभिप्राय यह के कि भंग सात ही हो सकते हैं न अधिक होते हैं और न कम । सप्तभंगीवाद और अनेकान्तवाद । 1 प्रत्येक पदार्थ अनेकान्तात्मक है और इस का प्रतिपादन करने वाली भाषा पद्धति स्यादवाद है इसलिये वह भाषा पूर्णतः निर्दोष है मूलतः सप्तभंगी का रहस्य उसी में रहा हुआ है । अनेकान्त दृष्टि का जो फलितार्थ है वह यह है कि उससे प्रत्येक वस्तु में सामान्य रूप से, विशेष रूप से, भिन्नता की दृष्टि से, अभिन्नता की अपेक्षा से नित्यत्व की दृष्टि से, अनित्यत्व की दृष्टि से तथा सत्ता की दृष्टि से असत्ता की दृष्टि से अनन्त धर्म होते हैं संक्षेप में कहा जा सकता है की प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ पदार्थ में रहता है; सन्निहित है। यह जो परिबोध है; वही अनेकान्त दृष्टि का प्रयोजन हैं, यथार्थ ज्ञान की अनेकान्त दृष्टि का प्रमुख प्रयोजन है। अनेकान्त अनन्त धर्मात्मक वस्तु-स्वरूप की एक निर्मल दृष्टि है और स्याद्वाद या सप्तभंगी उस मूलभूत ज्ञानात्मक दृष्टि को अभिव्यक्त करने की एक वचन पद्धति है, अपेक्षा को सूचित करने वाली एक वचन पद्धति है । अनेकान्त स्यार्थाधिगम होता है, कृतज्ञान प्रमाणात्मक है । परन्तु सप्तभंगी की जो उपयोगिता है वह इस बात में है कि वह पदार्थ गत अनन्त धर्मों की निर्दोष भाषा में अपेक्षा-दृष्टि से विवेचन करे, योग्य अभिव्यक्ति को अपनाये । आज्ञापालन धर्म है, आज्ञा भंग अधर्म । जयन्तसेन सहज समझ, सत्य धर्म का मर्म ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त चर्चा का अभिप्राय यही है कि अनेकान्त एक लक्ष्य है, एक जैनागमों में जिस प्रकार स्याद्वाद का रूप बताया गया है, हम वाच्य है और सप्तभंगी और स्याद्वाद एक वाचक है, एक साधन है, उसी का वर्णन-विवरण प्रस्तुत करेंगे। जिस पर से यह विदित हो उसे समझाने का एक सुन्दर प्रकार है। तथ्य यह है कि क्षेत्र की दृष्टि सकेगा कि सप्तभंगी का जो स्वरूप है वह प्राचीन है, नूतन नहीं है। अनेकान्त एवं व्यापक है, जब कि विषय प्रतिपादन की दृष्टि से स्याद्वाद किन्तु जैन आगम-वाङ्मय में उस पर अवश्य ही चर्चा-विचारणा की व्याप्य है। दोनों व्याप्य-व्यापक भाव का सम्बन्ध है। किसी जिज्ञास गई है और उसके पश्चात् जैन दर्शन के तलस्पर्शी आचार्यों ने उन्हीं के अन्तर्मन में प्रश्न उबद्ध हो सकता है कि स्यावाद व्याप्य क्यों भंगों का दार्शनिक-दृष्टि से विवेचन व विश्लेषण किया है। है? समाधान की भाषा में कहा जा सकता है कि अनन्तानन्त अनेकान्तों गणधर इन्द्रभूति गौतम ने प्रश्न प्रस्तुत किया-भगवन् ! रत्नप्रभा में शब्दात्मक होने के कारण सीमित है अत: स्याद्ववादों की प्रवत्ति पृथ्वी आत्मा है या अन्य है ? उत्तर में प्रभु महावीर ने कहानहीं हो सकती हैं। इस सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि अभिलाष्य भाव, १- रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है! अननिलाष्य भावों के अनन्तवें भाग हैं। अनन्त का अनन्त वाँ भाग २- रत्नप्रभा पृथ्वी आत्मा नहीं है! भी अनन्त ही होता है अत: वचन भी अनन्त है। स्पष्ट है कि वचन ३- रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् अवक्तव्य है। अनन्त हैं तो स्याद्वाद भी अनन्त है। परन्तु वह अनेकान्त धर्मों का उक्त तीनों भंगों को सुनने के पश्चात् गौतम गणधर ने भगवान् अनन्तवाँ भाग होने से सीमित है फलत: व्याप्य है व्यापक नहीं। से पुन: प्रश्न किया कि आप एक ही पृथ्वी को इतने प्रकार से किस आगमकालीन स्याद्वाद के भंगों का स्वरूप! अपेक्षा से कहते हैं? जैन आगम साहित्य भारतीय वाङ्मय का अक्षय कोष है, प्रभु महावीर ने समाधान की भाषा में कहाजैनागमों में आत्मा-परमात्मा के विषय में गहन-चिन्तन और १- आत्मा के आदेश से आत्मा है। विशद-विवेचन मिलता है। इस अनुपम निधि के अवलोकन से इस २- पर के आदेश से आत्मा नहीं है। बात का पता चलता है कि जैनागमों के रचयिता - पुरस्कर्ता केवल उभय के आदेश से अवक्तव्य है। र७ दार्शनिक ही रहें होंगे यह बात नहीं, वे दार्शनिक होने के साथ ही मामा इन्द्रभूति गौतम गणधर ने रलप्रभा की तरह अन्य प्रवियों, साथ महतो महीयान् साधक रहे हैं, इसीलिये वे जीवन के क्षेत्र में नया देवलोक और सिद्धशीला के विषय में भी प्रश्न पूछा है और प्रभु ने शिल्प लेकर उभरते हैं, नया स्वर और नया साज लेकर उतरते हैं। भी उसी प्रकार समाधान किया है ! उस के पश्चात् उन्होंने परमाणु के वस्तुत: उन्होंने अपने आप को साधना की अग्नि में तपाकर स्वर्ण की सम्बन्ध में भी प्रश्न उपस्थित किया। प्रभु ने पूर्ववत् ही उत्तर दिया। भाँति निखारा ! आत्मा की शाश्वत सत्ता का मार्मिक शब्दों में उद्घोष किन्तु जब उन्होंने द्विप्रदेशिक स्कन्ध के सम्बन्ध में पूछा, तब भगवान् किया है। महावीर ने उत्तर इस रूप में दिया। वह इस प्रकार है - सूत्र, प्रवचन, आज्ञा, वचनप्रज्ञापन, उपदेश, आगम आप्तवचन, १-- द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है ! ऐतिय, आम्नाय और जिनवचनश्रुत ये सभी शब्द आगम के ही २- द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा नहीं है। पर्यायवाची हैं।१० ३- द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् अवक्तव्य है। आगम शब्द की निष्पत्ति “आ” उपसर्ग और गम् धातु से हुयी ४- द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है और आत्मा नहीं है। है। “आ” उपसर्ग का अर्थ है समन्तात् अर्थात् पूर्ण है और “गम्” ५- द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है और अवक्तव्य है। धातु का अर्थ गति-प्राप्ति है। द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है। जैनाचार्यों ने “आगम" शब्द के विषय में अनेक परिभाषाएँ उक्त भंगों की संयोजना के विषय में अपेक्षा-कारण है उनके प्रस्तुत की हैं "जिससे पदार्थों का परिपूर्णता के साथ मर्यादित ज्ञान हो सम्बन्ध में तीर्थंकर प्रभु महावीर ने कहा है - उसे आगम कहते है। जिससे पदार्थों का पदार्थ ज्ञान होता है उसे १- द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा के आदेश से आत्मा है। आगम कहा जाता है। आप्त का कथन “आगम" कहलाता है। पर आदेश आत्मा नहीं है। जैनदृष्टि से आप्त कौन है? प्रस्तुत प्रश्न के उत्तर में यह बताया गया है कि जिन्होंने राग और द्वेष को जीत लिया है वह जिन, सर्वज्ञ उभय के आदेश से अवक्तव्य है। भगवान्, तीर्थंकर, आप्त हैं और उनका उपदेश ही जैनागम है !४ ४- एक देश सद्भाव पर्यायों से आदिष्ट है और दूसरा जो अंश तीर्थंकर केवल अर्थरूप उपदेश देते हैं और गणधर उसे सूत्र-बद्ध है वह असद्भावपर्यायों से आदिष्ट है। अत: स्पष्ट है कि करते हैं।१५ द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और आत्मा नहीं है। यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि गणधर केवल द्वादशांगी की ही । एक देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और एक देश उभय संरचना करते हैं और स्थविर अंगबाह्य आगमों की संरचना करते पर्यायी से आदिष्ट है । इसलिये द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और अवक्तव्य है। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन मंथ/वाचना ७४ आज्ञापालक को मिले, गूढ तत्त्व का ज्ञान । जयन्तसेन अनुभव यह शाश्वत सत्य निदान ॥ Jain Education Interational Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकदेश असद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और दूसरा देश ३- स्यात् अस्ति नास्ति ! तदुभय पर्यायों से आदिष्ट है ! अतएव द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा स्यात् अवक्तव्य ! नहीं है और अवक्तव्य है। स्यात् अस्ति अवक्तव्य ! उक्त भंगों में चतुर्थ भंग का जो स्वरूप है उसके सम्बन्ध में स्यात् नास्ति अवक्तव्य ! एक तथ्य ज्ञातव्य है, वह यह कि एक ही स्कन्ध के भिन्न-भिन्न अंशों ७- स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य ! ७में विवक्षा-भेद का आश्रय लेने से चौथे से आगे सभी भंग होते हैं। इस सप्तभंगी में मूलत: भंग तीन ही हैं अस्ति, नास्ति अवक्तव्य ! इन्ही विकलादेशी भंगों को बतलाने की प्रक्रिया प्रस्तुत वाक्य से प्रारम्भ । इसमें तीन द्विसंयोगी और एक त्रिसंयोगी इस प्रकार चार भंग मिलाने होती है। से सात भंग बनते हैं । अस्ति-नास्ति, अस्ति-अवक्तव्य, नास्ति-अवक्तव्य उस के बाद महावीर ने त्रिप्रदेशिक स्कन्ध के सम्बन्ध में तेरह. ये तीन भंग द्विसहयोगी भंग हैं । मूल तीन भंग होने पर भी फलितार्थ चतुष्पदेशिक स्कन्ध के सम्बन्ध में उन्नीस, पंचप्रदेशिक स्कन्ध के रूप से सात भंगों का उल्लेख आगम - वाङ्मय में उपलब्ध होता सम्बन्ध में बावीस व षट्पदेशिक स्कंध के तेवीस भंग किए। है। भगवती सूत्र में जहाँ त्रिप्रदेशी स्कन्ध का उल्लेख आया है वहाँ इस प्रकार उपर्युक्त भंगों को देखने से यह कहा जा सकता है स्पष्ट रूप से सात भंगों का प्रयोग हुआ है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कि यदि ऐसे अधिक प्रदेश बाहुल्य पुद्गल स्कन्धों के सम्बन्ध में भी भी सात-भंगों के नाम गिना कर सप्त भंग का उल्लेख किया है। विचार-चिन्तन किया जाय तो भंगों की संख्या अपेक्षा-भेद के भगवतीसूत्र२६और विशेषावश्यक भाष्य इन दोनों में अवक्तव्य को तीसरा भंग माना है। कुन्दकुन्द आचार्य ने पंचास्तिकाय में इस को कारण-सहित और भी अधिक हो सकती हैं इस में कोई संदेह नहीं। चौथा माना है" पर अपने प्रवचनसार" ग्रन्थ में इस को तीसरा माना इन भंगों पर गहन-चिन्तन करने पर इस बात का पता चलता है। २९ उत्तरावर्ती आचार्यों की कृतियों में दोनों क्रमों का उल्लेख प्राप्त है कि स्याद्वाद से फलित होने वाली सप्तभंगी पश्चात के आचार्यों की होता है। देन नहा है, उनकी कोई सूझ नहीं है। यह तो जैनागमों में मिलती है प्रथम भंग-स्यात् अस्ति घटः! और वह भी अपने वैविध्य पूर्ण प्रभेदों के साथ ! प्रवक्ता अपने उदाहरण के लिये सप्तभंगी को “घट” में घटायेंगे ! घट में बुद्धि-कौशल से नाना प्रकार के विकल्पों के आधार पर अनेक भंगों अनन्त धर्म होते हैं, उन अनन्त धर्मों में से एक धर्म कथंचित् सत् है। का निर्माण कर सकता है। घट में “अस्तित्व" धर्म किस अपेक्षा से है, घट है पर वह क्यों है? सप्तभंगी के इस सन्दर्भ में मेरी अपनी जो विचार सरणि है वह कैसे है? यह एक प्रश्न चिन्ह है, इसी का उत्तर प्रथम भंग देता है। यह है कि आगम-प्रतिपादित भंगों का अवलोकन करने पर यह स्पष्टत: घट का जो अस्तित्व है वह कथंचित् स्व चतुष्टय की अपेक्षा कहा जा सकता है कि जैन दार्शनिकों ने “सप्तभंगी” की संरचना की से है। जब हम यह कहते हैं कि घड़ा है तब हमारा उद्देश्य यही होता है, यह कथन भ्रममूलक है, भंगों की जो संख्या है वह मौलिक भंगों है कि घड़ा स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्वकाल, और स्व-भाव की अपेक्षा से के भेद के कारण नहीं है, किन्तु एक वचन बहुवचन भेद की विवक्षा है। यहाँ घट के अस्तित्व की जो विधि है वही भंग है, परन्तु यह के कारण है, यह कथन निर्मूल नहीं है। यदि हम वचन भेद-कृत और अस्तित्व की विधि, स्व की अपेक्षा से है पर की अपेक्षा से नहीं समझनी संख्या की-दृष्टि से विचार नहीं करेंगे तो हम इस निर्णय पर पहुँचते चाहिये। यदि हम किसी पदार्थ में स्वरूप से अस्तित्त्व का होना हैं कि - मौलिक भंग सात ही होते हैं, न कम और न अधिक हो सकते स्वीकार न करें तो उसकी सत्ता ही नहीं रह जायगी वह वस्तुत: सर्वथा हैं। अत: स्पष्ट है कि जैनागमों में सप्तभंगी का वैज्ञानिक-प्रतिपादन असत् हो जाएगा। अतएव संसार के प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व स्व हुआ है। रूप से ही होता है पर से कदापि नहीं। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक भंग-कथन पद्धति - वस्तु में स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव से सत्ता अवश्यमेव शब्द-शास्त्र की दृष्टि से प्रत्येक शब्द के मुख्य-रूप में दो वाच्य स्वीकार करनी चाहिये । विश्व की प्रत्येक वस्तु का जो अस्तित्व है वह होते हैं - विधि और निषेध । प्रत्येक विधि के साथ निषेध है और पर रूप से नहीं। स्व रूप से ही होता है। यदि स्वयं से भिन्न अन्य प्रत्येक निषेध के साथ विधि जुड़ी रहती है। एकान्त रूप से न कोई समग्र पर स्व-रूपों से भी घट का अस्तित्व माना जाय तो फिरघट, विधि है और न कोई निषेध संभव है। इकरार के साथ इन्कार और घट ही नहीं रह सकता, जल धारण आदि क्रियाएँ घट में ही होती है, इन्कार के साथ इकरार सर्वत्र रहा हुआ है। उक्त विधि और निषेध के पट में कभी भी नहीं ! आच्छादन आदि करना पट का कार्य है, एक आधार पर जो सप्तभंग बनते हैं ! इन सप्त भंगों के कथन की पद्धति बात और है, जो स्मरण रखनी चाहिये यदि पदार्थों में अपने स्वरूप इस प्रकार है। के समान, पर-स्वरूप की सत्ता भी मानी जाय तो° उनमें “स्व” “पर" का विभाग किस प्रकार घटित होगा। स्व-पर के विभाग के अभाव स्यात् अस्ति ! में गुण और गोचर एक हो जायेगा। संकर दोष उपस्थित होता है। २- स्यात् नास्ति ! श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन प्रथ/वाचना ७५ आज्ञा पालन सुखद है, दुःखद आज्ञा भंग । जयन्तसेन आज्ञा धर, चलना नित्य उमंग ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की। एतदर्थ प्रथम-भंग का यह अर्थ होता है कि घट की अपेक्षा एक से अवक्तव्यत्व का दोष पैदा होगा, जो जैन दर्शन में मान्य नहीं है क्यों होती है, सभी से नहीं। और वह एक अपेक्षा है, स्व की, स्व चतुष्टय कि वह मिथ्या है। ऐसी स्थिति में हम घट को घट शब्द से अलग किसी भी दूसरे शब्द के द्वारा, यहाँ तक “अवक्तव्य" शब्द से भी नहीं द्वितीय भंग-स्यात् नास्ति घटः । कह पायेंगे। वस्तुत: वस्तु का शब्द-द्वारा प्रतिपादन करना भी असंभव हो जायेगा। इतना ही नहीं वाच्य-वाचक भाव की कल्पना को कोई "स्यात् नास्ति घटः" यह दूसरा भंग है, यहाँ पर घट की सत्ता स्थान ही न रह सकेगा। एतदर्थ स्यात् अवक्तव्य भंग सूचित करता का निषेध पर - चतुष्टय की अपेक्षा से किया गया है। प्रत्येक पदार्थ है कि यद्यपि विधि निषेध का युगपत्त्व विधि अथवा निषेध शब्द से विधि रूप होता है और निषेध रूप भी। अस्तित्व के साथ निषेध भी वक्तव्य, नहीं है अर्थात् अवक्तव्य है, परन्तु यह भी ज्ञातव्य है कि वह रहा हुआ है। घट में घट के अस्तित्व की विधि के साथ घट में अवक्तव्य सर्वथा अवक्तव्य नहीं हो सकता “अवक्तव्य" शब्द द्वारा तो अस्तित्व-नास्तित्व भी रहा हुआ है। परंतु वह सत्ता का निषेध, अर्थात् वह युगपत्त्व वक्तव्य ही है। नास्तित्व, स्वामिन्न अनन्त पर की अपेक्षा से है। यदि पर की अपेक्षा का पञ्चम भंग - स्यात् अस्ति अवक्तव्य घटः । के समान स्व की अपेक्षा से भी, अस्तित्व का निषेध स्वीकार किया "स्याद् अस्ति अवक्तव्यो घट”: यह सप्तभंगी का पाँचवाँ भंग जाए, तो घट नि:स्वरूप हो जाए। यदि नि:स्वरूपता स्वीकार करे है। यहाँ पर प्रथम समय में विधि और दूसरे समय में युगपत् तो स्पष्ट रूप से ही सर्वशून्यता का दोष उपस्थित हो जाता है । इसलिये विधि-निषेध की विवक्षा की गई है। इसलिये इस में प्रथमांश अस्ति द्वितीय भंग सूचित करता है कि घट कथंचित् नहीं है । घट भिन्न पटादि स्वरूपेण घट की सत्ता का कथन किया जाता है और दूसरे अवक्तव्य की,पर चतुष्टय की अपेक्षा से नहीं हैं. वस्तुत: पर रूपेण नहीं है, स्व अंश के द्वारा युगपत् विधि-निषेध का प्रतिपादन किया गया है, पंचम भंग का अर्थ है - घट है और अवक्तव्य भी है। रूपेण ही सर्वदा "स्व" है। सपा षष्ठ भंग - स्याद् नास्ति अवक्तव्य घटः । तृतीय भंग - स्यात् अस्ति नास्ति घटः । का “स्याद् नास्ति अवक्तव्य घट:” यहाँ पर प्रथम समय में विधि यहाँ प्रथम समय में विधि की और फिर द्वितीय समय में क्रमश: और दूसरे समय में युगपद् अर्थात् एक साथ विधि-निषेध की विवक्षा निषेध की विवक्षा की जाती है। इस में “स्व” की अपेक्षा सत्ता का होने से घट नहीं है और वह अवक्तव्य भी है- यह कथन किया गया और पर की अपेक्षा असत्ता का क्रमश: कथन किया गया है। प्रथम व द्वितीय भंग में विधि एवं निषेध का स्वतन्त्र रूप से पृथक् - पृथक सप्तम भंग स्याद, अस्ति नास्ति अवक्तव्यो घटः।। प्रतिपादन किया गया है किन्तु तृतीय भंग में क्रमश: विधि-निषेध का उल्लेख किया गया है। “स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्यो घट:" यहाँ पर क्रम से पहले चतुर्थ भंग- स्याद् अवक्तव्य घटः। समय में विधि और दूसरे समय में निषेध तथा तृतीय समय एक साथ "स्याद् अवक्तव्य घटः” यह चतुर्थ भंग है। यह सच है कि (युगपत्) में विधि-निषेध की अपेक्षा से घट है, घट नहीं है, घट अवक्तव्य शब्द की शक्ति सीमित है। जब घटास्तित्व के विधि और निषेध इन है। इस प्रकार कथन किया गया है। दोनों की युगपत् अर्थात् एक समय में विवक्षा होती है, तब दोनों को चतुष्टय की व्याख्या - एक कलावच्छेदेन एक साथ अक्रमश: व्यक्त करने वाला शब्द न होने प्रत्येक पदार्थ का नियत रूप में परिज्ञान विधि-मुखेन और के कारण घट को अवक्तव्य कहा गया है। जब हम वस्तुगत किसी निषेध-मुखेन होता है । स्वात्म से विधि है और परात्मा से निषेध है ।३२ भी एक धर्म की विधि का उल्लेख करते हैं उस समय उस का निषेध क्योंकि स्व चतुष्टयेन जो वस्तु सत् है वही वस्तु पर - चतुष्टयेन असत् रह जाता है और जब निषेध करते हैं तब विधि रह जाती है। यदि है।३३ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन को चतष्टय कहते हैं। घट विधि - निषेध का पृथक्-पृथक् अथवा क्रमश: एक साथ प्रतिपादन स्व-द्रव्य रूप में पुद्गल है चैतन्य आदि पर-द्रव्य नहीं है। स्व क्षेत्र करना है तो प्रथम के जो तीन भंग हैं, उनमें यथाक्रम “अस्ति" "नास्ति" के रूप में कपालादि स्वावयवों में है। तन्तु आदि पर अवयवों में और “अस्ति-नास्ति” शब्दों के द्वारा काम चल सकता है परन्तु यह नहीं। स्व काल रूप में वह अपनी वर्तमान पर्यायों में है, किन्तु पर - सच है कि विधि-निषेध की युगपद् वक्तव्यता में कठिनाई है ! उसका समाधान “अवक्तव्य" शब्द के द्वारा किया गया है। “स्याद् अवक्तव्य" पदार्थों की पर्यायों में नहीं है। स्वभाव रूप में स्वयं के रक्तादि गुणों भंग सूचित करता है कि घट की वक्तव्यता युगपद् में नहीं होती है; में है, पर-पदार्थों के गुणों में नहीं है। क्रम में ही होती है। स्यात अवक्तव्य भंग से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता इस सन्दर्भ में - एक तथ्य ज्ञातव्य है कि- व्यवहार दधिको हैं कि अस्तित्व-नास्तित्व का यगपद वाचक कोई भी शब्द नहीं है लक्ष्य में रखकर द्रव्य की अपेक्षा पाथिवत्त्व, क्षेत्र की अपेक्षा पाटलिपत्रत्त्व एतदर्थ विधि-निषेध का युगपत्त्व अवक्तव्य है, किन्तु यह स्मरण रखना काल की अपेक्षा शैशिरत्व और भाव की अपेक्षा श्यामत्व रूप लिखा चाहिये कि वह वक्तव्यत्व सर्वथा सर्वतो भावेन नहीं है। यदि सर्वथा सर्वतो भावेन अवक्तव्यत्व स्वीकार कर लिया जाए तो एकान्त प्रत्येक वस्तु स्व- चतुष्टय से सत् है और पर - द्रव्य, पर - क्षेत्र, पर - काल और पर - भाव की दृष्टि से असत् है। इस प्रकार एक ही पदार्थ सत् और असत् होने के कारण बाधा और विरोध की कोई बात श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन मंथावाचनाः आज्ञा है संजीवनी, भाव रोग हरनार । जयन्तसेन जड़ी यही, देती जीवन सार ॥ Jain Education Interational Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है। संसार का प्रत्येक पदार्थ स्वचतुष्टय दृष्टि से है पर चतुष्टय की दृष्टि से वह नहीं है। प्रत्येक भंग निश्चयात्मक है, अनिशयात्मक नहीं हो सकता। एतदर्थ कई बार अर्थात् ही शब्द का प्रयोग भी देखा जाता है उदाहरण के लिये "स्यात्" घटः अस्त्येव यहाँ पर "एव" शब्द स्व चतुष्टय की अपेक्षा निश्चित रूपेण घट का अस्तित्व प्रकट कर देता है "एव" का कथन न होने पर भी प्रत्येक कथन निक्षयात्मक होता है, ऐसा समझना चाहिये। स्वाद्वाद दृष्टिकोण अनिश्चयात्मक नहीं है वह अनिश्चय की प्ररूपणा भी नहीं करता है। स्वचतुष्टय की अपेक्षा से घट की निश्चितरूप से है और पर चतुष्टय से घट की कोई असता निश्चित है. इस प्रतिपादन पद्धति में संशय को कोई स्थान नहीं है। इस सन्दर्भ में एक सप्राण प्रमाण मिलता हैं, उसमें बताया गया है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में चारों चतुष्टय हैं, प्रत्येक वस्तु स्व चतुष्टय की अपेक्षा अस्तित्ववान है और पर चतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप है। ३५ sap स्यात् शब्द की संयोजना। ३६ सप्तभंगी के प्रत्येक भंग में "स्व धर्म" की मुख्यता होती है। और शेष धर्म गौण हो जाते हैं, अप्रधान होते हैं। इसी गौण और मुख्य की विवक्षा के लिये "स्यात्” अव्यय प्रयुक्त हुआ है, “स्यात् " अव्यय जहाँ विवक्षित धर्म की मुख्यरूप से प्रतीति कराता है। यहाँ अविवक्षित धर्म का भी सर्वथा अपलाप नहीं करता, अपितु उसका गौणत्वेन उपस्थापन करता है। यदि वक्ता और श्रोता शब्दशक्ति और वस्तु-स्वरूप के विवेचन-विश्लेषण में कुशल है तो " स्यात् ” अव्यय के प्रयोग की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है। बिना उसके प्रयोग के भी अनेकान्त का प्रकाशन हो सकता है। उदाहरण के लिये “अहम् अस्मि" मैं हूँ! उक्त वाक्य में "अहं अस्मि" ये दो पद है! एक का प्रयोग होने से दूसरे का अर्थ अपने आप गम्यमान हो जाता है, तथापि स्पष्टता के लिये दोनों पदों का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार “पार्थो धनुर्धरः " इस वाक्य में “एव" कार का प्रयोग नहीं हुआ है। किन्तु " अर्जुन ही धनुर्धरः " यह अर्थ-बोध हो जाता है और कुछ नहीं । प्राकृत में भी यही बात यहाँ पर भी है " स्यात् " शून्य केवल “अस्ति घटः " कहने पर भी यही अर्थ व्यक्त होता है कि “कथंचित् घटः " है। किसी अपेक्षा से घट है तथापि "भूल-चूक" साफ करने के लिये, वक्ता के भावों को समझने में किसी भी प्रकार की भ्रान्ति उत्पन्न न हो जाए, इसलिये "स्यात्" अव्यय का प्रयोग नितान्त अपेक्षित है । वस्तुतः "स्यात्" यह एक तिङन्त पद जैसा प्रतीत होता है किन्तु यह एक अव्यय है । जो “कथंचित्" किसी अपेक्षा से, इस अर्थ को सूचित करता है३८। सप्तभंगी जैसे गहन-गम्भीर तत्त्व को समझने का बहुमत सम्मत राजमार्ग यदि कोई हैं तो वह " स्यात्" है। ३७ ३९ श्रीमद् जयंतसेनरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना Seni Fable अन्य दर्शन-ग्रन्थों में भंग-योजना का रहस्य पूर्व पृष्ठों पर भंगों के विषय में स्पष्टता की जा चुकी है तथापि और अधिक स्पष्टीकरण के लिये इतना समझना अति आवश्यक है। अस्ति नास्ति और अवक्तव्य ये तीन ही मूल भंग है और इसके अतिरिक्त शेष चार भंग संयोग जन्य हैं। तीन द्विसंयोगी और एक त्रिसंयोगी है। अद्वैत वेदान्त, बौद्ध और वैशेषिक दर्शन की दृष्टि से मूलभूत, तीन भंगों की संयोजना इस प्रकार की जा सकती है अद्वैत वेदान्त में ब्रा को ही एक मात्र तत्त्व माना है, पर वह "अस्ति" होकर भी अवक्तव्य है सत्ता रूप होने पर भी वाणी से उसकी अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती। अतएव अद्वैत वेदान्त में " अस्ति” होकर भी अवतव्य है। बौद्ध दर्शन में 'अन्यायोह नास्ति" होने पर भी अवक्तव्य है। इस का मूल भूत हेतु यही है कि वाणी के द्वारा अन्य का सर्वथा अपोह करने पर भी किसी विधि रूप पदार्थ का परिज्ञान नहीं हो सकता। अतएव बौद्ध दर्शन का "अन्यापोह" नास्ति होकर भी अवक्तव्य रहता है। कारण यह है कि वे दोनों किसी एक शब्द के वाच्य नहीं हो सकते और न सर्वथा भिन्न सामान्य विशेष में कोई अर्थ-क्रिया हो सकती है। इस प्रकार विचार-विवेचन करने पर प्रतीति होती है कि जैन सम्मत मूल-भंगों की स्थिति या योजन अन्य दर्शनों में किसी न किसी रूप में देखी जा सकती है। सकलादेश और विकलादेश ! गाँठ यह तो स्पष्ट हो चुका है कि प्रमाण वाक्य सकलादेश है और नय वाक्य को विकलादेश कहते हैं। तथापि उक्त दोनों भेदों को और भी अधिक स्पष्टता के साथ समझने की आवश्यकता है। ज्ञान के पाँच भेद हैं मतिज्ञान् श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवल ४० ज्ञान । जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं, आगम-साहित्य में मतिज्ञान को 'आभिनिबोधिक' भी कहा गया है। ४२ मतिज्ञान के बाद जो चिन्तन-मनन के द्वारा परिपक्व ज्ञान होता है उसी को श्रुतज्ञान कहा जाता है। श्रुतज्ञान होने के लिये शब्द-श्रवण आवश्यक है। शब्द श्रवण यह मतिज्ञान के अन्तर्गत है । कारण यह हैं कि वह श्रोत्र- इन्द्रिय का विषय है। जब-जब भी शब्द सुनाई देता है, तब ही उसके अर्थ का स्मरण हो जाता है। शब्द श्रवण रूप जो प्रवृत्ति है वह मतिज्ञान है। उसके बाद शब्द और अर्थ के वाच्य वाचक भाव के आधार पर होने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। इस पर से यह स्पष्ट है कि मतिज्ञान कारण है, और श्रुतज्ञान कार्य। मतिज्ञान के अभाव में श्रुतज्ञान कभी भी नहीं हो सकता। यह सच है कि श्रुतज्ञान का अन्तरंग कारण श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है मतिज्ञान तो उसका बहिरंग कारण कहलाता है। मतिज्ञान होने के बाद यदि श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं हुआ है तो श्रुतज्ञान होना कदापि संभव नहीं है यह जो विचारणा हुई है वह दार्शनिक विश्लेषण है । ७७ आज्ञो भंजक मानवी, तजे नहीं अभिमान | जयन्तसेन दुःखी रहे, जीवन निष्फल जान ॥ . Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ जिस ज्ञान की सीमा होती है उसको अवधिज्ञान कहा जाता है। अवधिज्ञान का विषय है रूपी पदार्थों को जानना। मूर्तिमान् द्रव्य ही इस के ज्ञेय-विषय बनते हैं। द्रव्य छ हैं जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों में जीव द्रव्य चेतनामय है और शेष द्रव्य चेतानारहित हैं पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है और शेष अमूर्तिक हैं। इन छः द्रव्यों में से केवल पुद्गल द्रव्य ही अवधिज्ञान का विषय है क्योंकि अवशेष पाँच द्रव्य अरूपी है। मनः पर्यवज्ञान मनुष्य गति के अतिरिक्त अन्य किसी भी गति में नहीं हो सकता। मनुष्य में भी संयती मनुष्यों को ही होता है, असंवती मनुष्य को कभी भी नहीं। मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को जाननेवाला ज्ञान मन:पर्ययज्ञान कहलाता है। मन भी एक प्रकार का पौद्लिक द्रव्य है । प्रत्येक इन्द्रिय का विषय अलग-अलग है। एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय के विषय को ग्रहण नहीं कर पाती है। मन एक सूक्ष्म इन्द्रिय है, इसलिये इसे अनिन्द्रिय कहते हैं, अनिन्द्रिय का अर्थ हैं ईषत् इन्द्रिय यह सूक्ष्म इन्द्रिय सभी इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण कर सकती हैं । यह मन आत्मा से भिन्न है और अजीव है । ४५ जब व्यक्ति किसी विषय विशेष पर चिन्तन करता है तब उस समय में उस के मन का नाना प्रकार की पर्यायों में परिवर्तन होने लगता है मनः पर्यवज्ञानी मन से ही उनविविध पर्यायों का साक्षात्कार कर लेता है। केवल ज्ञान में केवल शब्द का अर्थ एक अथवा सहाय रहित है । ४६ 'केवलज्ञानी केवल ज्ञान उत्पन्न होते ही लोक और अलोक दोनों को ही जानने लगता है। केवल ज्ञानी का विषय सर्वद्रव्य और सर्वपर्याय है। ४७ ४४ प्रमाण वाक्य व नय-वाक्य के आधार से सप्तभंगी भी दो विभागों में विभक्त हुयी है प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी ! प्रमाण - सप्तभंगी - - * प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मात्मक होता है। किसी भी पदार्थ का पूर्णरूप से अवबोध करने के लिये अनन्त-शब्दों का प्रयोग करना अपेक्षित है या नहीं ? यह प्रश्न चिह्न है। इसका उत्तर देना भी कठिन है । वस्तुतः अनन्त शब्दों के प्रयोगार्थ अनन्तकाल भी चाहिये, और मनुष्य का जो जीवन है वह वस्तुतः अनन्त नहीं है। इसलिये यह संभव भी नहीं है, और न व्यवहार्थ ही इसलिये कहना होगा कि वह मनुष्य अपने सम्पूर्ण जीवन में भी एकभी पदार्थ का समग्र भाव से प्रतिपादन नहीं कर सकेगा। यद्यपि वह उसका एक ही शब्द द्वारा सम्पूर्ण अर्थ का परिज्ञान करता है, और बाह्य दृष्टि से ऐसी भी प्रतीति होती है कि वह एक ही धर्म का प्रतिपादन करता है किन्तु वह अभेदोपचार वृत्ति - इतर गुण धर्मों का भी प्रतिपादन करता जाता है। अभेदोपचार से एक ही शब्द के द्वारा साक्षात् रूप से एक धर्म का प्रतिपादन होने पर भी अखण्ड रूप से अनन्तधर्मात्मक समग्र धर्मों का भी युगपत् कथन हो जाता है, इसलिये इसको प्रमाण सप्तभंगी कहते हैं। श्रीमद जयंतसेन अभिनंदन FAR 52 जीव आदि पदार्थ किसी अपेक्षा से अस्तिरूप है, अतएव उक्त एक अस्तित्व प्रतिपादन में अभेदावच्छेदक, काल, आत्मरूप अर्थ आदि की घटना पद्धति इस प्रकार है। इनके नाम ये हैं १ २ ३ ४ काल आत्मरूप अर्थ सम्बन्ध नय सप्तभंगी नय पदार्थ के किसी एक धर्म को मुख्यत्वेन ग्रहण करता है, किन्तु अवशिष्ट धर्मों की उपेक्षा न करके उनके प्रति तटस्थ रहता है। इसी को "सुनय" कहते हैं नय सप्तभंगी सुनय में हैं, दुर्नय में नहीं होती। प्रमाण में समस्त धर्मों के ज्ञान का समावेश हो जाता है। किन्तु नय एक अंश को मुख्यत्वेन प्रतिपादित करता है। किन्तु अन्य गुणों की उपेक्षा नहीं । यह सच है कि दुर्नय अन्य निरपेक्ष होकर अन्य-गुणों का निराकरण करता है। प्रमाण तत् और अतत् सभी को जानता है किन्तु नय में केवल “तत्” की ही प्रतिपत्ति होती है। पर दुर्नय दूसरों का तिरस्कार करता है। इस सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है कि वे सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं जो अपने ही पक्ष का आग्रह करते हैं और पर का निषेध करते हैं किन्तु जब वे परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यक्त्व के सद्भाव वाले होते हैं। " ५३ १२३ 4 ६ पदार्थ के अनन्त धर्मों में किसी एक धर्म का काल आदि भेद - अवच्छेदकों द्वारा भेद की प्रधानता अथवा भेद के उपचार से प्रतिपादन करने वाला वाक्य “विकलादेश" है। इसी को "नवसप्तभंगी" कहा गया है भेददृष्टि से नय सप्तभंगी में पदार्थ के स्वरूप का कथन किया जाता है। 1 ४ ७ ८ नय सम्बन्धित भेदावच्छेदक कालादि। | नय सप्तभङ्गी में गुण-पिण्ड रूप द्रव्य पदार्थ को गौण और पर्याय स्वरूप अर्थ को प्रधान माना गया है। इसलिए नय सप्तभंगी भेद-प्रधान है, उक्त भेदों की प्रामाणिकता कालादि के द्वारा ही होती है जिस प्रकार सप्तभंगी में काल, आत्मरूप अर्थ आदि के आधार पर एक गुण-धर्म को अन्य गुणों से विवक्षित किया जाता है, उसी प्रकार नय सप्तभंगी में भी उन्हीं काल, आत्मरूप आदि आधारों से एक गुण का दूसरे गुण से भेद विवक्षित किया जाता है। वह निम्न लिखित है काल आत्मरूप अर्थ सम्बन्ध ७८ उपकार गुणिदेश संसर्ग शब्द 4६ ७ ८ उपकार गुणिदेश संसर्ग शब्द क आज्ञा निध धारक मनुज, पाता अनुपम ठाम । जयन्तसेन हृदय धरो, पावो नित विश्राम ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः जैन दर्शन का यह सप्त भंगीवाद मात्र दार्शनिकचर्चा के क्षितिज पर ही दीप्तिमान नहीं रहा है, कहना होगा कि उस के अभिनव आलोक से जैन दर्शन का प्रत्येक वचन प्रकाशमान है। तत्त्व-स्वरूप के प्रतिपादन में सप्तभंगी का गुश्वर, परिगुञ्जित है। १ २ ३ ५ ६ ७ ८ ९ क- सप्तमिः प्रकारैः वचन विन्यासः सप्तभंगीति गीयते । स्याद्वादमञ्जरी का. २३ टीका । ख- सप्तानां भंगानां समाहारः समूहः सप्तभङ्गीति सप्तभंगी तरंगिणी पृ. १ प्रमाणनयैरधिगमः । तत्त्वार्थ सूत्र १ ।६ । क- सप्तङ्गतरंगिणी पृष्ठ १ ख- अधिगम हेतुः द्विविधः तत्त्वार्थ राज वार्तिक १, ६, ४. अनन्तधर्मात्मकमेवतत्त्वम् अन्ययोग व्यवच्छेदिका कारिका - २२ वसन्ति गुणपर्याया अस्मिन्निति वस्तु धर्माधर्माकाश पुगलकालजीवलक्षणं द्रव्यषट्कम् स्याद्वादमञ्जरी, कारिका, २३ टीका प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यनियोधेन विधि प्रतिषेध परिकल्पना सप्तभङ्गी तत्त्वार्थ राजवार्तिक १, ६, ५. पण्णवणिज्या भावा, अणन्त भागो दु अणहिलप्पाणं गोम्मटसार। एक वस्तुनि अनन्तानां धर्माणा मिलापयोगयानामुपगमनादनन्ता एव वचनमार्गाः स्याद्वादिनां भवेयुः 187 तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक १ । ६ । ५२ । क अनुयोगद्वार ४, ख विशेषावश्यक भाष्य गाथा ८/९७ २६ २७ नगर आ - अभिविधिना सकलश्रुत विषय व्याप्ति रूपेण मर्यादया वा यथावस्थित प्ररूपणा रूपया गम्यंते परिच्छिद्यन्ते अर्थाः येन स आगमः । आवश्यक मलयगिरि वृत्ति । नन्दीसूत्र वृत्ति । १२ आगम्यन्ते मर्यादया वबुद्धयन्तेऽर्थाः अनेनेत्यागमः । रत्नाकरावतारिकता वृत्तिः । १३ न्यायसूत्र १ । १ । ७ । १४ अनुयोग द्वार सूत्र - ४२ । १५ १० तत्त्वार्थ भाष्य १२० । ११ १६ क विशेषावश्यक भाष्य गाथा. ५५ ग सर्वार्थ सिद्धि १ -२० १७ भगवती सूत्र शतक १२, उई १० । अत्थं भासइ अरहत् सुत्त गन्थन्ति गणहरा निउणं । सासणरस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तई । आवश्यक निर्युक्ति गाथा - १९२ । कला २४ भगवती सूत्र शतक १२३.१०. प्र १९-२० । २५ सिय अस्थि- णात्थि उहयं, अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्यं रनु सरभंग आदेश वशेण संभवदि ॥ पंचस्तिकाय गाथा १४ । भगवती सूत्र शतक १२, उ. १०. प्र. १९-२० । विशेषावश्यक भाष्य गाथा २ - ३२ श्रीमद जयंतसेन अभिनंदनाचा ख. बृहत्कल्पभाष्य १४४ घ. तत्त्वार्थभाष्य १ २० पंचास्तिकाय गाथा १४ । प्रवचन सार ज्ञेयाधिकार गाथा ११५ । तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक १६ ।५२ । ३० ३१ पररूपापोहनवत् स्वरूपापोहने तु निरुपाख्यत्वप्रसंगात् तत्वार्थ श्लोक वार्तिक १.६५२। ३२ जिसमें घट बुद्धि और घट शब्द की प्रवृत्ति अर्थात् व्यवहार होता है, वह घट का स्वात्मा है। और जिस में उक्त दोनों की प्रवृत्ति नहीं होती है वह घट का पटादि आत्मा है घट बुद्धयभिधान प्रवृत्तिलिङ्गः २८ २९ ३३ ३४ ३५ ३६ अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र स्यात्कारोऽर्थात्प्रतीयते । विधौ निषेधोऽप्यन्यत्र कुशलश्चेत्प्रयोजकः ॥ लघीयस्त्रय प्रवचन प्रवेशः । ३७ सोऽप्रयुक्तोऽपि तजैः सर्वत्रार्थात्प्रतीयते । तथैवकारो योगादि व्यवच्छेद प्रयोजनः . तत्वार्थश्लोक वार्तिक १, ६५६ । ३८ क - अष्टसहस्री पृ. २९६ । खसर्वथात्वानिषेधको नेकान्तताद्योतकः कथंचिदर्थे स्यात् शब्दो निपातः । पञ्चास्तिकाय टीका श्री अमृतचन्द्र । ३९ सादित्यव्ययम् अनेकान्तद्योतकम् स्याद्वादमञ्चरी का ५: आचार्य हेमचंद्र "स्थात्" को अनेकान्त बोधक ही मानते हैं, इसलिये उन्हें "स्यात्" प्रमाण में अभीष्ट है, नय में नहीं। सदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधार्थ:अयोग का २८ । जब भट्टाकलंक लघीयस्त्रय ६२ में स्यात् को सम्यग् अनेकान्त एवं सम्यग् एकान्त उभय का वाचक मानते हैं। अतएव उन्हें प्रमाण और नय इन दोनों में ही " स्यात् " अभीष्ट है। क- राज्यप्रश्नीय सूत्र सूत्र ९६५ । ख उत्तराध्ययन सूत्र २८ ।४ । ग- स्थानांग सूत्र उद्देश ३ सूत्र ४६३ अनुयोग द्वार सूत्र १ ङ - नन्दीसूत्र सूत्र १ च भगवती सूत्र ८८ ।२ ।३१७ चमतिश्रुतानधीत्यन्तम् मनःपर्यव केवलम् ४० ४१ स्वात्मा यत्र तयोरप्रवृत्तिः स परात्मा पटादिः । तत्त्वार्थ राज वार्तिक १,६,५ । पंचाध्यायी १ । २६३ । स्याद्वाद मञ्जरी, कारिका २३ । सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादि चतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान चेत्र व्यवतिष्ठते ॥ आप्तमीमांसा श्लोक १६ । ४२ ४३ ४४ ४५ पंचज्ञानी समाख्याता, भेदधारा विजृम्मितम् ॥५ ॥ प्रमाणमार्तण्ड रचयिता रमेश मुनि शास्त्री Top तत्त्वार्थ सू. १ १४ | क उत्तराध्ययन २८ । ४ । ख नन्दीसूत्र सूत्र ५९ तत्त्वार्थ सूत्र १ । २८ । सर्वार्थग्रहणं मनः । प्रमाण मीमांसा १ ।२।२४ आता मंते । मणे अन्ते मणे ? गोयमा । णो आता मणे अत्रे मणे मणे मणिज्जमाणे म..... भगवती सूत्र १३ ।७।४९४ ७९ विनयवान पालक सदा, गुरुजन का आदेश । जयन्तसेन समर्थ वह, जीवन का संदेश Mainelibrary.org Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ क केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणंतं च । विशेषावश्यक भाष्य- ९४ ख विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति - ९४ ४७ क तत्त्वार्थ सूत्र १।३० ख जया सव्वत्तगं नाणं चामिगच्छई। तया लोगमलोगंच जिणो जाणइ केवली ।। दशवैकालिक सूत्र ४।२२ ग दशवैकालिक सूत्र हरिभद्रीयवृत्ति पृ. १५९ । ४८ उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ. स्याद्वादनयसंज्ञितौ। स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकल संकथा ॥ लघीयस्त्रयश्लोक-६२ । अनेक धर्मात्मक वस्तु-विषयक-बोधजनकत्त्वं सकलादेशत्वम् एकधर्मात्मकवस्तु विषयकबोधजनकत्त्वं विकलदेशत्वम्॥ सप्तभंगी तरंगिणी - पृष्ठ १६ । ५० नयनामेकनिष्ठानां प्रवृत्ते श्रुतवर्त्मनि। सम्पूर्णार्थविनिश्चायिसस्याद्वादश्रुतमुच्यते ॥धायनमा न्यायावतार सूत्र श्लोक - ३० । विमा क-नभो ज्ञातुरभिप्रायः। लघीयस्त्रयश्लोक ५५ अकलंक ख ज्ञातॄणामभिसन्धयः नयाः। सिद्धिविनिश्चयः टीका पृष्ठ ५१७ अकलंक क धर्मान्तरादानोपेक्षा हानिलक्षणात्त्वात् प्रमाणनयदुर्नयानां - प्रकारान्तरा संभवाच्च । प्रमाणात्तदतत्स्वभावप्रतिपत्तेः तप्रतिपत्तेः तदन्यनिराकृतेश्च - अष्टसहस्त्री। ख निःशेषाशजुषां प्रमाणविषयीभूयं समासेदुषाम् । वस्तनां नियतांश कल्पनपराः सप्त श्रुतासंगिनः ।। औदासीन्य परायणास्तदपरे चांशे भवेयुर्नयाः। चे देकांशकलंकचंक कलुषास्ते स्युस्तदा दुर्नयाः॥ उमास्वातिकृत पंचाशक ॥ तम्हा सव्वे वि णया मिच्छा दिट्ठी सपक्खपडिबद्धा। अण्णोण्णणिस्सि आ उण हवंति सम्मत्तसम्भावा । सन्मति-प्रकरण-१।२१ । ५४ सकलादेशी हि योगवद्येन अशेष धर्मात्मनं वस्तु - कालादिभिरभेदवृत्त्या प्रति ५५ पादमति: अभेदोपचारेण वा, तस्य प्रमाणाधीनत्त्वात् । विकलादेशस्तु क्रमेण भेदोपचारेण भेद-प्राधान्येन वा तस्य नयायत्तत्वात्। तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक १, ६,५४ ५३ ४९ (पृष्ठ ८१ का शेष) 'मैं अनादि से बोधि से विहीन रहा । अत: पापों में ही आसक्त - उत्तम भावों से भर जाता है। जिससे उसके कर्मों की निर्जरा होती रहा। हे जिनेन्द्रदेव' ! कदाचित् पाप-क्रियाएँ छोडी तो दिन और रात है और वह जल्दी ही मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। में सोता ही रहा। जागरण की भावना माम हे प्रभो ! अब मैं निद्रा में लीन न रहँ। मैं उसका परित्याग 'हे प्रभो ! विषयों में जागते हुए मैने समय को खिसकते हुए कोपिली गत में जल्दी ही जा फिर जिनको अन्य विषयों नहीं जाना। कदाचित धर्म करता हूँ तो चित्त शून्य हो जाता है । हे धर्मज्ञान में लीन रखें। देव ! ऐसे मैंने लम्बा समय बिता दिया है। - मोक्खपुरिसत्थो ग्रन्थ के तेईसवें जागरिया अज्झयण का भावानुवाद', मधुकर मौक्तिक तृष्णा के कारण भवजल सरिता पूरे वेग से बहने लगती है, जबकि तृष्णानिरोध के कारण भावगंगा उमड़ उमड़ कर द्विगुणित सतेज प्रवाहित होती है। बहुरंगे मनोभावों को साकार-तदाकार रूप प्रदान करने के लिए वासनाओं की कतार लग जाती है और सत्-असत् का विवेक न रखने से भावमाला विच्छिन्न हो जाती है। जिस भव परंपरा बढ़ाने का सरलतम उपाय है-सद्भाव की साधारण महद्शक्ति को विस्मृत कर मनोविचार जन्य काल्पनिक और क्षणिक इच्छाओं को अत्यधिक महत्व प्रदान करना । ऐसा करना अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है। ******* भव से अतिक्रमण कर भावना की तरफ प्रगति/प्रकृष्ट गति का मंगल प्रारंभ जीवन विकास का पहला कदम है। अतिक्रमण के पश्चात् तीर्थंकर परमात्मा की आत्मा ने भी जब से भव से पीछे हटने का प्रारंभ किया, तब से ही उनके भवों की गिनती प्रारंभ हुई। ऐसे हैं ये तीर्थंकर परमात्मा, जिन्होंने 'वीयराय' अर्थात वीतराग स्थिति प्राप्त की है। राग-द्वेष और उनके फल स्वरूप भव बीजांकुरों के पुष्पित, पल्लवित और फलित होने के कारणों को जिन्होंने समाप्त कर दिया है। उन वीतराग परमात्मा का श्रेष्ठतम पुष्ट आलंबन ही जीव को जयविजय के मार्ग में अग्रसर करता है और इसीलिए प्रार्थना का सर्वप्रथम चरण है—'जय वीयराय!'। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन पंथ वाचना गुरु आज्ञा में रह किया, निग्रह मन वच काय । जयन्तसेन सिद्धि सफल, पावत सब सुखदाय ॥ | Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (धर्म - जागरिका - श्री उमेशमुनिजी अणु' जागरिका का महत्त्व साधना में विघ्न उत्पन्न हो तो वह उससे छुटकारा पाये अर्थात् अल्प जो मुमुक्ष मनुष्य रात के पहले और पिछले प्रहर जागता है, वही सी निद्रा ही ले। श्रावक भी घर में योगी जैसा होता है। अत: वह सामायिक आदि आवश्यक - क्रियाएँ कर सकता है। उस जाग्रत भी धर्म-आराधनाके लिये जागता है। वह भी द्रव्य-निद्रा का परित्याग साधक की धर्म-आराधना ही ओज से भरपूर होती है। धर्म-आराधना करता हुआ भाव-निद्रासे सोने का प्रयास करता है। करने के लिये ही पूर्व और अपर रात्रि में जागने का विधान है। जागरण-विधि जागरिका के भेद योग्यकाल में निद्रित साधक रात्रि के अन्तिम प्रहर में जाग्रत हो धर्म-आराधना के लिये जागना ही धर्म-जागरिका है। इसके दो जाये। क्योंकि जो प्रभात में सोता है, वह लाभ को गँवाता है, किन्तु भेद हैं - द्रव्य जागरिका और भाव-जागरिका। आती हुई निद्रा को जो जागता है, वह पाता है। रात्रि का अन्तिम प्रहर साधना का श्रेष्ठ उड़ाना द्रव्य-जागरिका है और धर्म में उद्यम करना भाव-जागरिका है। समय है। जो उस समय जागता है, उसके गुण, सौभाग्य और सुख इसप्रकार द्रव्य-जागरिका को धारण करके, पूर्व और पश्चात् रात्रि में की वृद्धि होती है। सूत्र अर्थ के चिन्तन में और प्रशस्त ध्यान में साधक को तन्मय बनना जागते ही पहले नमस्कार महामंत्र का (७,५ या ३ बार) स्मरण चाहिये। करे । बाद में निद्रा को भली भाँति त्याग करके शय्या का त्याग करते जागरण से जीव को भय हुए चिन्तन करे - 'द्रव्यसे मैं अनन्त पर्यायों से गुजरता हुआ अनन्त जीव अनादि से द्रव्य और भाव निद्रा में सुप्त रहा है। इसलिये शुभ कर्मों के निमित्त से उत्पन्न मनुष्यभव रूप पर्याय में स्थित जीव पूर्वाभ्यास के कारण जीव सोने में सुखानुभव करता है । वस्तुत: उसे द्रव्य हूँ। क्षेत्र से- आर्यक्षेत्र के उत्तम कुल में उत्पन्न इस ग्राम (के इस जागने से ही डर लगता है और वह जागरण में असुख मानता है। घर के कक्ष) में स्थित हूँ। कालसे - मैं पाँचवें आरे में उत्पन्न हुआ ज्ञान का आलोक होने पर उसे सह नहीं सकने के कारण मूर्च्छित हो हूँ। सुदीर्घ आयुष्य में काल की मर्यादा को जानकार अपने कर्तव्य जाता है या जागकर भी पुन: सो जाता है। को जानता हूँ । भाव से - मैं श्रावक या साधु हूँ। अब किसलिये क्या क्षयोपशम = भीतरी विशिष्ट पुरुषार्थ से और अमित धुण्ययोग करूँ।' फिर सोचे- 'मेरे शरीर में (लघु शंका आदि की) व्याबाधा तो से जीव विशिष्ट चेतनावान बनता है। किन्तु वह उसी चेतना से पीड़ित नहीं हैं? यदि हो तो उससे निवृत्त बना हुआ गमना-गमन का प्रतिक्रमण होने लगता है । (संभवत: लोग इसी कारण से नशेबाज हो जाते होंगे।) करके निद्रादोष का प्रतिक्रमण करे। फिर उस विशिष्ट चेतना के धनी की चेतना ऊर्ध्वगामिनी न होकर धर्म-आराधन-विधि अधोगामिनी हो जाती है। प्रमत्त जीव चेतना से श्रमित बन जाता है इसके बाद पुन: चिन्तन करे - 'मेरा क्या कार्य है? जिनत्व की और फिर पापी हो जाता है - सो जाता है। अभिव्यक्ति ही, न कि और कुछ उस लक्ष्यकी सिद्धि के लिये ही सभी भक्ति में आसक्त मुनि और भोगों में आसक्त गृहस्थ राग में साधना करूं। मैं उसे रत्नत्रय (की आराधना) से साधू । क्योंकि रत्नत्रय लीन हो जाते हैं। वे समय की मर्यादा को नहीं जानते हैं और की आराधना ही सद्भूत साधना है।' (भाव-जागरण में प्रमाद करके) अपराध करते हैं। ऐसे परमुखापेक्षी उपर्युक्त चिन्तन करके भाव और काया से नमस्कार करे । फिर आत्मा जब-जब कोई कार्य (या व्यस्तता) नहीं होता है या वह अकेला (गृहस्थ हो तो सामायिक करे और फिर साधु या श्रावक चार शरण होता है, तब-तब वह सन्तुष्ट होकर सो जाता है और सोते में ही आनन्द ग्रहण करके स्तोत्र, स्वाध्याय या स्तुति करे। विज्ञ पुरुष यल नहीं मानता है। करनेवालों (असंयमियो) को नहीं जगाते हुए भाव-जागरण की साधना में समय व्यतीत करे। मनोरथों को भाये। प्रतिक्रमण करे और कई सूर्योदय हो जाने पर भी शय्या में सुखानुभव करते हैं तो यथाशक्ति प्रत्याख्यान करके सिद्धों को प्रणिपात करे। कई सर्यास्त होते ही शय्याधीन हो जाते हैं - यह बिल्कुल अच्छा नहा धर्म-जागरण का फल इस प्रकार जो प्रमाद को छोड़कर अपररात्रि में सद्धर्म का अनुष्ठान साधु और श्रावक को उपदेश करता है- ध्यान करता है, वह अपनी सुखशीलता का परित्याग करता साधु को निद्रा अल्प ही लेना चाहिये। क्योंकि साधना ही है (अत: तितिक्षा का अभ्यास होता है) और उसका हृदय शुभ भावों उसका वास्तविक कर्म है। पूर्वरात्रि के पश्चात् यदि निद्रा के कारण (शेष पृष्ठ ८० पर) श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना ८१ आज्ञा धारी के निकट, विनय ज्ञान विज्ञान । जयन्तसेन गायक वह, मानवता का ज्ञान ॥ Jain Education Interational Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शनिकों ने मन-योग को काफी चर्चा का विषय बनाया है। भिन्न-भिन्न उपमाओं से मन को उपमित किया। इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियाँ प्रस्तुत हुईं। अलग-अलग विद्वानों-लेखकों द्वारा विभिन्न मंतव्य उल्लिखित हुए मन के संबंध में । माना कि मन का महत्व अपने स्थान पर है। मन का वेग, मन की प्रवृत्ति और मन का कार्यक्षेत्र काफी विस्तृत रहा है। उसी प्रकार इन्द्रियों का प्रभाव भी कम नहीं समझना चाहिये । इंद्रियों की प्रवृत्ति और इन्द्रियों का कार्यक्षेत्र भी मन के कार्य क्षेत्र की अपेक्षा काफी विस्तृत लोकाकाश की परिधि में जीवाणु जगत् के क्षितिज पर्यंत परिव्याप्त है। समनस्क और अमनस्क जीव-जगत को स्पर्शित किया हुआ है । मानसिक शक्ति के अभाव में सूक्ष्म किंवा स्थूल शरीर और शरीर के अवयवों का काम रुका नहीं, अपितु शरीर की प्रवृत्ति सतत चालू रही है। इन्द्रिय-विज्ञान की भूमिका श्रमण संघीय प्रवर्तक श्री रमेशमुनिजी महाराज परंतु ज्ञातव्य है कि ऐन्द्रिय (इन्द्रिय-सम्बन्धी) शक्ति के अभाव में भौतिक शरीर की स्थिति अति शोचनीय बन जाती है। इन्द्रिय-बल प्राण क्या है? मेरी दृष्टि में विद्युत तरंगों का एक समूह है। एक तरह से नेगेटिव और पोजेटिव के मिश्रण का रूप है जब विद्युत तरगें केन्द्र के साथ जुड़ जाती हैं। तभी प्रकाश का वातावरण निर्मित होता है। दोनों शक्तियाँ जहाँ तक अलग-थलग कार्यरत रहती है, वहाँ तक केन्द्र में इधर-उधर लगे सभी बल्ब कार्य करने में सक्षम नहीं होते हैं। अंधकार का एक छत्र साम्राज्य फैला रहता है। उसी प्रकार पांचों इन्द्रियाँ, विद्युत तरंगों से विहीन बल्ब के सदृश रही हुई हैं। बल-प्राणों की तरंगें ज्योंही इन्द्रियों के साथ जुड़ जाती हैं बस निष्क्रिय निष्प्रयोजन बनी वे इन्द्रियां दनादन अपने-अपने कार्यक्षेत्र में सक्रिय हो जाती हैं। क्योंकि बल प्राणों का साथ जो मिला। बल-प्राण शक्ति के अभाव में प्राणियों के प्रत्येक कार्य कलाप खतरे के बिंदु को छूने लगते हैं गति-शील प्रवृत्तिमोह में अव्यवस्था का होना स्वाभाविक है। दिल दिमागों में उभरे हुए व्यक्त या अव्यक्त, प्रगट किंवा प्रच्छन्न, गोपनीय या अगोपनीय मनोभावों की अभिव्यक्तियां, माध्यम के अभाव में उद्घोषित उद्घाटित होना संभव नहीं। इसी प्रकार वाक् शक्ति का प्रगटीकरण क्या शक्य है ? बल्ब का सही स्थिति में रहना उतना ही आवश्यक है जितना विद्युत तरंगों का भी। बल्ब की गड़बड़ी तरंगों को पकड़ नहीं पायेगी और तरंगों की शिथिलता बल्ब को आलोकित कैसे करेगी ? दोनों एक दूसरे के पूरक रहे हैं। वस्तुतः दोनों का व्यवस्थित होते रहना जरूरी है। ठीक उसी प्रकार बल्ब सदृश इन्द्रियां हैं। इन्द्रियों का स्वस्थ रहना आवश्यक है। - श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन मंथ वाचना F और विद्युत सदृश बल-प्राण हैं दोनों के सहयोग से ही क्रियाओं की निष्पत्ति किंवा पूर्णता होती चली जाती है। जैन दर्शन का मनोवैज्ञानिक तर्क यथार्थ धरातल पर एक नये आयाम को उद्घाटित करता है। उसका यह उद्घोष है कि मनः पर्याप्ति के पूर्व ही इस पार्थिव शरीर के साथ स्पर्शेन्द्रिय रसनेन्द्रिय, चक्षु-इन्द्रिय रमेशमुनि महाराज और कर्णेन्द्रिय इस प्रकार पांचों इंन्द्रियों के उद्भव का एक व्यवस्थित क्रम अनादि काल से चालू रहा है। इस क्रम बद्ध व्यवस्था प्रणाली को आज का विज्ञान भी मान्य करता है । उक्त क्रमानुसार ही इन्द्रियों का सम्बन्ध शरीर के साथ और शरीर का सम्बन्ध इन्द्रियों के साथ चिरकाल से जुड़ता रहा और बिछुड़ता रहा है। एकेन्द्रिय (पृथ्वी-अप-तेउ-वाय-वनस्पति अर्थात ५२ लाख जीव योनिक) सत्वों के साथ केवल स्पर्शेन्द्रिय का द्वीन्द्रिय (छोटे-छोटे कीटाणु अर्थात् दो लाख जीवयोनिक) प्राणियों के साथ स्पर्श और रसनेन्द्रिय का त्रीन्द्रिय (कीड़े-मकोड़े-जूं- लीक-खटमल इत्यादि (दो लाख जीव योनिक) प्राणियों के साथ स्पर्श-रसना एवं घ्राणेन्द्रिय का, चतुरिन्द्रिय (मक्खी, मच्छर, बिच्छू, पतंगें इत्यादि - दो लाख जीव योनिक) प्राणियों के साथ स्पर्शन- रसना घ्राण और चक्षु इन्द्रिय का इसी प्रकार पंचेन्द्रिय (जलचर, थलचर, खेचर, उरपर, भुजपर मनुष्य नैरयिक और देव अर्थात २६ लाख जीव योनिक) जीवों के साथ स्पर्श, रसना घ्राण, चक्षु और कर्णेन्द्रिय का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। शरीर की निष्पत्ति के साथ ही इन्द्रियों के उद्गम का श्री गणेश हो जाता है। सूक्ष्म किंवा स्थूल शरीर हो उसका महत्व इन्द्रियों के होने पर ही है वरना शरीर का क्या महत्व ? वह केवल मांस-पिंड ही माना जायेगा। | वस्तुतः इन्द्रियों के सद्भाव में मनः पर्याप्ति की भजना है। अर्थात् द्रव्य मन हो भी सकता है और नहीं भी परन्तु मन की सत्ता में इन्द्रियों का होना निश्चित है जो मन के कार्य क्षेत्र को विकसित करने में आदेश को शिरोधार्य करने में आगे बढ़ाने में, प्रत्यक्ष किंवा परोक्ष रूप में, अपने-अपने कार्य क्षेत्र में रहकर सभी इन्द्रियां पूर्णत: सहयोग करती रही हैं। तो इधर इन्द्रियां अपने-अपने कार्य क्षेत्र की एक नियत परिधि में कार्यरत रही हैं। इस अपेक्षा से इन्द्रियों का महत्व मन पर्याप्ति के उद्भव के पूर्व ही उद्घोषित और उद्भासित मान्य किया है। ८२ आज्ञाराधन से सदा, आत्म शक्ति अभिराम । जयन्तसेन उसे मिले, आत्माराम ललाम ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन के अभाव में साधक क्या करेगा? साध्य को प्राप्त करने है। पुण्य-सकृत में सेवा-स्वाध्याय में ज्ञान-दर्शन-चरित्र की अभिवृद्धि के लिये साधक को तत्सम्बन्धी साधनों का यथोचित उपयोग करना में, देव-गुरु की भक्ति में सद्व्यय करना लाभदायक सिद्ध हुआ है आवश्यक है। भले साध्य-भौतिक हो या अध्यात्म/स्वर्ग हो या और मुक्ति का हेतु माना है। अपवर्ग । तदनुसार ऐन्द्रिय शक्ति को भी आवश्यक साधन माना है। अन्याय-अनीति में, हिंसा-हत्या में, चोरी, शिकारी, भ्रष्टाचार. जिनके द्वारा देहधारी भले वे विकसित हों या अविकसित, मूक हों या अनाचार मार्गों में शक्ति के स्त्रोतों का दुरुपयोग-दखवर्धक, वधरूप अमूक, समनस्क हों या अमनस्क अर्थात-प्राण-जीव-सत्व सभी उन्हीं एवं अधोगति का प्रतीक माना है। मतलब यह कि संगति किंवा दर्गति इन्द्रियों के माध्यम से अपनी कायिक-वाचिक और मानसिक में जीवात्माओं को धकेलने में इन्द्रियाँ भी कारण भूत रही हैं । इन्द्रियाँ आवश्यकताओं की आंशिक पूर्ति करने में सफल होते हैं और हिताहित वे नालियाँ रही हैं जिन मार्गों से सतत मिथ्यात्व-अविरत, प्रमाद, कषाय ज्ञान-विज्ञान से परिचित भी ।यह निर्विवाद सत्य है कि चैतन्य शक्ति और योगिक प्रवृत्ति रूपी गंदगी का प्रवाह अर्थात-पापस्रव जीवन रूपी का सहयोग प्रतिपल प्रतिक्षण के बिना देह धारियों के द्रव्यमन और घर में एकत्रित होता रहता है। उक्त विपरीत प्रवृत्ति पर जब नियन्ता भाव मन से प्रादर्भुत अच्छे बुरे संकल्प-विकल्पों की तरंगें न साकार अंकश लगाने में सफल हो जाता है, तब सत्यं शिवं-संदरम् का प्रतीक हो पाती है और न प्रगट ही....। संवर धर्म की फसल होने लगती है। यह साधक की सामयिक विवेकता विश्व के विराट कोषागार में प्रतिक्षण अगणित क्रियाएं संचालित पर निर्भर है। हैं। कुछ क्रियाएँ किसी न किसी साधना द्वारा संचालित हुआ करती इन्द्रिय विज्ञान के सम्बन्ध में जितना गहन गंभीर हैं। यद्यपि क्रियाओं का सम्बन्ध कर्ता के साथ जुड़ा हुआ है। फिर विश्लेषण-विवेचन जैनागम वाङ्मय में उपलब्ध होता है. उतना अन्य भी कर्ता किसी न किसी माध्यम पर आधारित रहता है । वस्तुत: साधन धर्म ग्रन्थों में नहीं मिलता है। इन्द्रिय-संस्थान, इन्द्रिय-ग्राह्यशक्ति, अगर शिथिल हो. कमजोर हो तो वह कर्ता अपनी योजना में सफल इन्द्रिय विषयक भेद-प्रभेद, इन्द्रिय अवगाहना, इन्द्रियअवगाहित नहीं हो पायेगा भले वे क्रियाएं शारीरिक, मानसिक या वाचिक हों, आकाश प्रदेश, एवं कामी इन्द्रिय और भोगी इन्द्रिय इत्यादि मुद्दों पर इसी प्रकार घर-परिवार - गांव - नगर - देश सम्बन्धी हों या अध्यात्म सविस्तार उल्लेख मिलता है। साधना से जुड़ी हों। सजीव इन्द्रियों के माध्यम से ही पूर्ण होती देखी स्पर्श- इन्द्रिय जाती हैं। मैं सुन रहा हूँ। देख रहा हूँ। सँघ रहा हूँ। चख रहा हूँ और स्पर्शानुभव कर रहा हूँ। उक्त क्रियाएं इन्द्रियों के द्वारा ही पूर्ण स्पर्शेन्द्रिय की परिव्याप्ति शरीर पर्यन्त सभी इन्द्रियों में पाई होती हैं। जाती है। इस कारण इसका महत्व पर्याप्त माना है। कर्कश-कोमल, पांचों इन्द्रियों में स्वाभाविक भिन्न-भिन्न विशेषता वाले भिन्न-भिन्न गुरु, लघु, शीतोष्ण और स्निग्ध-रुक्ष । सामान्य तया उक्त आठों विषयों के ज्ञानाज्ञान की अनुभूति चैतन्य को करवाना, यह स्पर्शेन्द्रिय का अपना यंत्र नियोजित हैं। एक विलक्षण नैसर्गिक व्यवस्था का प्रावधान है। धर्म है। इसका यही नियत कार्यक्षेत्र रहा है। स्पर्शेन्द्रिय की यह कर्णेन्द्रिय में बल प्राण रूप यंत्र हुआ है उसका काम है - श्रव्यध्वनियों सीमित परिधि इन्हीं आठ विषयों में रही है। इसमें सूक्ष्मतम नैसर्गिक की तरंगों को अपनी ओर आकृष्ट करना, पकड़ना । नाक में भी एक ऐसे यंत्र की व्यवस्था है जो केवल गांधिक पुद्गलों के परमाणुओं एक चुम्बकीय यंत्र लगा हुआ है। वस्तुका स्पर्श होते ही वह यंत्र को अपनी ओर खींचता रहता है। रसनेन्द्रिय में भी वह यंत्र है जो सक्रिय बनकर अपने स्वामी (जीव) को सूचित करने में तनिक भी देर नहीं करता है। वस्तुत: इसको योगी इन्द्रिय माना है। इसका आयाम पंचविध रसद पुद्गल परमाणुओं का ज्ञान करवाता है। स्पर्शेन्द्रिय में नियोजित यंत्र-हल्के भारी, शीत, उष्ण, रुक्ष स्निग्ध, कर्कश, कोमल विष्कुम्भ (लम्बाई-चौड़ाई) जघन्योत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग पुद्गलों की अनुभूति करवाता रहता है । चक्षु-इन्द्रिय में स्थापित यंत्र एवं एक हजार योजनाधिक मानी है। की विलक्षणता न्यारी है । दूरस्थ किंवा समीपस्थ दृश्य-मान चीजों का उपर्युक्त आठों विषय सचिताचित, मिश्र, शुभाशुभ और अंत में राग-द्वेष की परिणतियों में परिणत होते हुए आगे चलकर ८६ विकारी ज्ञान कराता चला जाता है। विकल्पों में फैल जाते हैं। स्पर्शेन्द्रिय का संस्थान (आकार) नाना प्रकार बल-प्राण बनाम यंत्र के बिगड़ने पर या उसकी पकड़ शक्ति माना है। इसकी विषय ग्राह्य शक्ति कम से कम अंगुल के असंख्यातवें शिथिल होने पर वे प्राणी बहरे, अंधे, काने, लले, लंगड़े-मक की कोटि भाग, उत्कृष्ट चारसौ धनुष्य से लेकर नौ योजन दूरस्थ पदार्थों को में गिने जाते हैं फिर उन्हें कृत्रिम साधनों का सहारा लेना होता है। आकृष्ट करने की क्षमता रही हुई है । उक्त विकारी परिणतियों से आत्मा बुराई भलाई में सुकृत-विकृत में, हिंसा, अहिंसा में सत्यासत्य का हित नहीं, अहित ही हुआ है। शुभ स्पर्शों से राग की निष्पत्ति और में रागात्मक-द्वेषात्मक प्रवृत्ति में, आस्रव-संवर में उक्त पांचों इन्द्रियों अशुभ स्पर्शों से द्वेष भावों की वृद्धि होती रही है। जैसा कि आगम का सक्रिय योगदान रहा है । वस्तुत: अपेक्षा दृष्टि से ऐन्द्रिय शक्ति की में कहा है - ऊर्जा देहधारियों के लिये हानिकारक भी और लाभदायक भी रही शरीर, स्पों को ग्रहण करता है और स्पर्श, शरीर का ग्राह्य रहा है। सुखद स्पर्श राग का और दुखद स्पर्श द्वेष का कारण है। श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन पंथ/वाचना ८३ अमृत आज्ञाराधना, विराधना विष जान । जयन्तसेन सुधा ग्रहण हो सुखदा सुविहाण ॥ www.janelibrary.org Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो प्राणी सुखद स्पर्शों में अति आसक्त होता है। वह जंगल जिस प्रकार औषधि की सुगन्ध से मूर्च्छित हुआ सर्प मारा जाता के सरोवर के ठण्डे पानी में पड़े हुए और मगर द्वारा ग्रसे हुए भैंसे है, उसी प्रकार गंध में अत्यन्त आसक्त जीव अकाल में काल कवलित की तरह अकाल में ही मृत्यु पाता है। होता है। रसना- इन्द्रिय चक्षु- इन्द्रिय रसनेन्द्रिय के माध्यम से द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय और दृश्यमान वस्तुओं को यथारूप में प्रस्तुत करना, चक्षुइन्द्रिय का पंचेन्द्रिय प्राणी कवलाहार ग्रहण करते हैं। शरीर के समस्त केन्द्रों काम है । देखने का माध्यम आँख है। इसके अभाव में देहधारी अवयवों एवं नाड़ी संस्थानों को इसी इन्द्रिय द्वारा रस मिलता रहा है। प्राणी अन्धे कहलाते हैं फिर उनके लिये कदम-कदम पर शारीरिक रसद स्त्रोत का माध्यम यही इन्द्रिय है। इसी प्रकार वाक् शक्ति की क्रियाओं में व्यवधान और अवरोध पैदा होना स्वाभाविक है। अभिव्यक्ति इसी से होती है। पराधीनता का जाल पूरे शरीर पर और संपूर्ण जीवन पर्यन्त फैल जाता इसका संस्थान (आकार) खरपा जैसा माना है। अनंत प्रदेशी है। मुमुक्षु आत्मा अपने आराध्य के समक्ष प्रतिज्ञा सूत्र समर्पित करता यह असंख्य आकाश प्रदेशों में अवगाहित है। इसकी चौडाई हुआ कहता है- भंते ! युगल नेत्रों के सिवाय संपूर्ण शरीर आप की जघन्योत्कष्टअंगल के असंख्यातवें भाग और लम्बाई दो से नौ अंगल आराधना में तत्पर रहेगा। आँखों के अभाव में जीव दया की परिपालना प्रमाण मानी है। यह भोगी और न्यूनाधिक ६४ धनुष्य से लगाकर ६ संभव नहीं । वस्तुत: इस अनुमान से चक्षु इन्द्रिय के महत्व को भली योजन दूरस्थ वस्तुओं को अपना ग्राह्य विषय बनाने की क्षमता रखती , प्रकार समझ सकते हैं। इस-इन्द्रिय का संस्थान मसूर की दाल जैसा गोल माना है। अनंत प्रदेशी यह आकाश के असंख्य प्रदेशों की तीखा-कड़वा, कसेला, खट्टा और मीठा, इन पांच विषयों में परिधि में परिव्याप्त है। दृश्यमान चीजें स्वत: इस इन्द्रिय के पास रसना की गति रही है। इन्हीं पांच स्वादों का परिज्ञान अपने स्वामी चलकर नहीं आती हैं। अपितु चक्षु की दर्शन शक्ति की पैठ उत्कृष्ट जीव को करवाती रहती है । उक्त पांचों भेद सचिताचित्त, मिश्र शुभाशुभ एक लाख योजन पर्यन्त रही है। इस कारण यह कामी इन्द्रिय मानी और राग द्वेष के रूप में परिणत होकर साठ विकारी परिणतियों में रूपांतरित होते हैं। राग-द्वेषात्मक पर्याय ही संसार है। काला, नीला, लाल, पीला और सफेद इन पांच तरह के रंग-रूपों रस न किसी को दःखी और न किसी को सखी करता किंत में चक्षु की गति रही है। सचिताचित्त, मिश्र, शुभाशुभ और राग-द्वेष जीव स्वयं अमनोज्ञ रसों में द्वेष करके अपने ही किये हुए भयंकर द्वेष के पर्यायों में परिणत हुए भेद-प्रभेद साठ विकारी विकल्पों में परिव्याप्त से दुःखी होता है। जिस प्रकार मांस खाने के लालच में फंसा हुआ होते हैं । फलितार्थ यह हुआ कि अभीष्ट रूप के प्रति राग और अनिष्ट मच्छ कांटे में फंसकर जीवन लीला समाप्त कर देता है उसी प्रकार रूप के प्रति द्वेष पैदा होता है। जैसा कि आगम में कहा है... रसों में आसक्त जीव अकाल में मृत्यु का ग्रास बन जाता है। रूप को ग्रहण करने वाली चक्ष-इन्द्रिय है और रूप चक्षु के प्रिय रस राग का और अप्रिय रस द्वेष का कारण है। दोनों ग्रहण होने योग्य है। प्रिय रूप राग का और अप्रिय रूप द्वेष का प्रकार की स्थितियों में वह समभाव रखता है। वह वीतरागी है। कारण है। या जिस प्रकार दृष्टि के राग में आतुर होकर पतंगा मृत्यु पाता है। घ्राण- इन्द्रिय उसी प्रकार रूप में अत्यन्त आसक्त होकर जीव अकाल में ही मृत्यु सुंगध किंवा दुर्गन्ध पुद्गलों को पकड़ना, यह घ्राणेन्द्रिय का पाते हैं। विषय रहा है। नासिका इसका अपर नाम है। इसी के माध्यम से अल्पज्ञ आत्माओं को गंध का विवेक होता है। यह अनंत प्रदेशी श्रोत्र - इन्द्रिय भोगी इन्द्रिय मानी जाती है। असंख्य लोकाकाश प्रदेशों को अवगाहित सुनने की समस्त क्रियाएं इसी इन्द्रिय से संपन्न होती हैं इसकी करती है। आयाम, विष्कुम्भ (लंबाई-चौड़ाई) की दृष्टि से न्यूनाधिक कार्यशीलता के अभाव में वे नर-नारी बहरे कहलाते हैं। प्रत्येक जीवों अंगुल के असंख्यातवें भाग की मानी गई है। इसका संस्थान धमनी को यह इन्द्रिय प्राप्त नहीं है। केवल पंचेन्द्रिय देह धारियों को ही जैसा माना है। विषय ग्राह्य क्षमता जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्राप्त है। वे ही सुनने के पात्र बने हैं और उन्हीं जीवों को युगल कर्ण की ओर उत्कृष्ट सौ धनुष्य प्रभृति नौ योजन की मानी गई है। जोड़ी मिली है। श्रोत्रेन्द्रिय का संस्थान कदम फूल सद्दश माना है। इसके दोनों विषय सुगन्ध और दुर्गन्ध सचित, अचित और मिश्र अन्य इन्द्रियों की तरह यह भी अनंत प्रदेशी और असंख्य पर्याय में परिणत होकर राग-द्वेष की उत्पत्ति के कारण भूत बनते हैं। आकाश-प्रदेशों में अवगाहित रही है। यह कामी इन्द्रिय है। शब्दों इस प्रकार १२ विकारी पर्यायों में परिणत होते रहते हैं। को श्रवण कर कामोत्पत्ति होना स्वाभाविक है। शब्दों की गड़गड़ाहट गंध को नासिका ग्रहण करती है और गंध नासिका का ग्राह्य । जब कानों में लगे यंत्र से टकराती है तब तत्काल ज्ञान हो जाता है। है। सुगन्ध राग का कारण और दर्गन्ध द्वेष का कारण है। कि नि:सृत यह शब्दावली जीव-अजीव या मिश्र तत्त्व की है। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना आज्ञा पालन से सदा, होत अहं का नाश । जयन्तसेन प्रीति सुधा, देत जीवन प्रकाश ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छी-बुरी या शुभाशुभ है । शब्द तरंगों को पकड़ने की क्षमता इसकी जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है वह पराश्रित, बाधा सहित, जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक योजन से १२ बंध का कारण और विषम होने के कारण वास्तविक सुख नहीं, योजन पर्यन्त रही है। शब्दावली कभी शभ रूप में तो कभी अशुभ दुःखरूप है। रूप में परिवर्तित होती है। तत्पश्चात राग और द्वेष की परिणतियों में इन्द्रिय रूपी चपल घोड़े नित्य दुर्गति मार्ग पर दौड़ते हैं । जिस परिणत होकर १२ विकारी भेदों में फैल जाती हैं। कहा भी है - तरह काठ में जन्म लेने वाले घूण जंतु काठ को भीतर ही भीतर शब्दों में मूर्छित हुआ प्राणी, मनोहर शब्द वाले पदार्थों की कमजार कर देते है। उसी प्रकार मनुष्यों के चरित्र को इन्द्रियाँ भीतर प्राप्ति, रक्षण एवं व्यय में तथा वियोग की चिंता में लगा रहता है, वह ही भीतर असार कर देती है। संभोग काल में भी अतृप्त ही रहती है। फिर उसे सुख कहाँ है? ज्ञान-ध्यान और तपोबल से इन्द्रिय-विषयों-कषायों को बलपूर्वक रोकना चाहिये। जैसा कि लगाम के द्वारा घोड़ो को बलपूर्वक रोका 'जे गुणे से आवट्टे जो आवट्टे से गुणे' (आचारांगसूत्र) जाता है। वश किया हआ बलिष्ट घोड़ा जिस प्रकार बहुत लाभदायक अर्थात-शब्द-रूप-रस-गंध और स्पर्श, उक्त पांचों इंन्द्रियों के मौलिक होता है उसी प्रकार धैर्य रूपी लगाम द्वारा वश की हुई स्वयं की गुण हैं । संसार का भयंकर भ्रमण शील यह जाल है। जिसके प्रभाव से पामर प्राणी भवोदधि में जन्म-मरण किया करते हैं। पांचों इन्द्रियां इन्द्रियाँ तेरे लिये लाभदायक होगी। अतएव इन्द्रियों का निग्रह होना चाहिये। और मन, दोनों शब्दादि गुणों से प्रभावित होते रहते हैं और इसीसे उत्तेजना और तमोगुण की वृद्धि होती है । इन्द्रिय जन्य विषयों में एक उसी का इन्द्रिय निग्रह प्रशस्त होता है, जिसका मन ऐसा लुभावना मोहाभिभूत करने वाला आकर्षण रहा हुआ है कि शब्द-रूप-गंध-रस और स्पर्श में न तो अनुरक्त होता है और न द्वेष देहधारी भ्रमित हुए बिना नहीं रहता। इन्द्रियों और शब्दादि विषयों करता हैं। का एक ऐसा सम्बन्ध है जहां इन्द्रियों की सत्ता का सद्भाव है। वहाँ स इन्द्रिय सम्बन्धी इस निबन्ध का अध्ययन करके प्रबुद्धआत्माओं शब्द रूप-गंध-रस-स्पर्श इत्यादि गुण रहेंगे। दोनों के बीच देहधारी को अनासक्त भाव का आलंबन लेना चाहिये। अनासक्त भाव, भवजंतु के शिकार होते रहे हैं। यथार्थ जानकारी के अभाव में जीवात्माओं को जितेन्द्रिय बनाने वाला राजमार्ग, धर्म मार्ग है और मुर्ख-अज्ञानी आत्माएँ इन्द्रिय जन्य सुखों को ही असली सख मानती मोक्ष-प्राप्ति में पूर्ण सहयोगी भी। रही हैं - जैसा कि कहा भी है मधुकर मौक्तिका स्वार्थ अधम प्रकृति है। स्वार्थपना अधम प्रवृत्ति है और आत्मा की अवनति का उपाय है। ऐसा मलिन स्वभाव-ऐसी मलिन प्रवृत्ति भव को नि:शेष समाप्त होने नहीं देती। इसमें कोई शक नहीं है कि जहाँ स्वार्थ है, वहाँ भवस्थिति अपना साम्राज्य मजबूत करके रहती जागृति के दिनमणि का प्रकाश फैलते ही आधि, व्याधि और उपाधि की रोगत्रयी पलायन कर जाने में ही अपना भला मानती है और फिर जीव को परम अर्थ की अनुभूति होने लगती है। यह अनुभूति उसे स्वभाव के शिखर पर बिठा देती है। तो ऐसी है स्वार्थ, परार्थ और परमार्थ की पगडंडी। प्रार्थना प्रार्थनीय से की जाती है। जो प्रार्थनीय है, उसका विश्लेषण भी आवश्यक है। सेवक-स्वामित्व के भाव को समझ कर हृदय में उसे मूर्तरूप प्रदान करना भी वांछनीय है। कूड़ा-करकट दूर किये बिना रंग कर्म टिक नहीं सकता। वस्तु में जो तेज आना चाहिये-वह आ नहीं सकता। इसलिए साफ सफाई करके धरातल को समतल बना लेना अत्यन्त आवश्यक है। प्रार्थना तो जन्म जन्म से करते आये हैं, फिर भी वह आज तक प्रबल न हो सकी। कारण इतना ही है कि हमने भाव-स्वभाव को ध्यान में लेकर नहीं की, अपितु भव की तरफ ध्यान में रख कर की। **** 'वीतराग ! जगत में परमोत्तम ! पुरुषोत्तम देव ! आपकी जय हो। इसीलिए कि आप जेता हैं, विजेता हैं, त्राता हैं और संसार के प्राणी मात्र को विजेता बनने का प्रबल सामर्थ्य प्रदान करनेवाले हैं। श्रीमद जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथावाचना देश काल का जगत में, नहीं जिसे सद् नाण । जयन्तसेन मिले नहीं, उस को उत्तम ठाण ॥ . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | या तो भीतों से या गीतों से आचार्य सुशील सूरीश्वरजी महाराज जगत् में अनेक जीव जन्म लेते हैं और मरते हैं, फिर भी उनका जिसकी अठारह देशों के अधिपति परमार्हत् महाराजा कुमारपाल ने नाम-निशान तक नहीं रहता। आज पर्यन्त अनेक राजा, महाराजा, कलिकालसर्वज्ञ आचार्य भगवान श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के चक्रवर्ती आदि महारथी हो चुके हैं फिर भी उनमें से कइयों का सदुपदेश से निर्माण कराया था, जो एक गगनचुम्बी जिनालय है, जिसके नाम-निशान तक नहीं है। शिखर के भीतर प्रायः इक्कीस मंजिले हैं । उक्त मन्दिर काष्ठ से निर्मित जो महापरुष अपना जन्म जगत के उद्धार के लिये धर्म को है परन्तु खूबी यह है कि चाहे जितनी भयंकर अग्नि लग जाये तो भी दीन-दुःखी एवं अशरण की रक्षार्थ, देश एवं समाज के लिए अहिंसा उस काष्ठ में से जल ही प्रवाहित होता रहता है। मलनायक के रूप सत्य और ब्रह्मचर्य आदि गुणों के परिपालनार्थ निज जीवन समर्पित ने महाप्रभावशाली श्री अजितनाथ प्रभु की भव्य प्रतिमा है। इसका कर गये, अपनी आत्मा की बलि दे गये, पुण्योदय से प्राप्त लक्ष्मी के निर्माण कराने वाले महाराजा कुमारपाल आज नहीं रहे फिर भी अपने सदपयोग का लाभ ले गये और भावी पीढी का महान उपकार करते अमर यश के रूप में तारंगाजी को छोड़ गये। गये, उन्हीं महापुरुषों के अमर नाम विश्व इतिहास के पृष्ठों पर स्पक्षिरों ऐसे तो अनेक उदाहरण हैं कि पुण्योदय से प्राप्त लक्ष्मी का में अंकित हैं। भीतों के रूप में सदुपयोग करके अपना यश सदा-सदा के लिये नाम दो प्रकार से अमर रह सकते हैं- 'एक तो भीतों से और चिरस्थायी एवं चिरस्मरणीय कर गये। स्थलाभाव के कारण ऐसे दूसरे गीतों से' और वे भी उत्तम कार्य करने से स्वर्णाक्षरों में और अमर यश के केवल तीन उदाहरण ही प्रस्तुत हैं, परन्तु ऐसे महापुरुषों निकृष्ट कार्य करने से काले अक्षरों में। के असंख्य उदाहरण उपलब्ध हैं। (१) सुयशस्वी वस्तुपाल एवं तेजपाल महामन्त्री चले गये, फिर __ अब गीतों तथा गाथाओं में किस प्रकार अमर नाम रह सकता भी उनका ज्वलन्त यश आब पर आज भी विद्यमान है। भारतवर्ष में है कि जिन्होंने जन्म लेकर ऐसे सुकृत किये हों कि उनके चले जाने जितने जैनों के मन्दिर हैं उनमें सूक्ष्म एवं आकर्षक नक्काशी के लिए पर भी महापुरुषों ने उनके नाम ग्रन्थों में गूंथ लिये हों। गीतों तथा वस्तुपाल तथा तेजपाल द्वारा निर्मित्त भव्य जिनालय सर्व प्रथम हैं। गाथाओं आदि में वे नाम स्वतः ही बोल रहे हैंतीर्थंकर भगवान के पाँचों कल्याणक उनमें इतनी उत्तम प्रकार से (१) पूज्य श्री भगवती सूत्र में श्री महावीर स्वामी भगवान से उत्कीर्ण हैं जो सचमुच अद्वितीय हैं और जिनमें गुम्बज आदि की 'भन्ते' कहकर श्री गौतम स्वामी महाराज ने ३६००० प्रश्न पूछे थे नक्काशी भी सचमुच अत्यन्त ही अद्भुत तथा अद्वितीय है। और भगवान ने 'गोयमा' कहकर उन प्रश्नों के उत्तर दे दिये थे । उस भारतीय एवं विदेशी वहाँ आकर घण्टों तक ऊँची दृष्टि से उनका प्रत्येक प्रश्न की संग्राम सोनी ने एक-एक सोनैयों से पूजा की थी। निरीक्षण और अवलोकन करके उनकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते इस प्रकार ३६००० प्रश्नों की ३६००० सोनैयों से पूजा करने वाले संग्राम सोनी तो आज नहीं रहे, परन्तु महापुरुषों द्वारा रचित ग्रंथों में उनका नाम अमर रह गया। का त्रैलोक्य दीपक मन्दिर सर्वोपरि है जो मारवाड़ के धरणाशाह एवं (केवल साढ़े बारह दोकड़ों में जीवनयापन करने वाले पुणिया रलाशाह पोरवाल ने निन्नाणवे लाख सोनैये व्यय करके नलिनी गुल्म श्रावक की एक सामायिक की तुलना में मगध-सम्राट् श्रेणिक की की आकृतिके १४४४ खम्भों एवं ८४ तहखानों से युक्त निर्माण कराया राज्य-ऋद्धि का भी क्या मूल्य था? पूणिया की सामायिक की तुलना था और मूलनायक के रूप में इस अवसर्पिणी के आद्य तीर्थंकर श्री में ढाई द्वीप की ऋद्धि का ढेर भी नगण्य है। ऐसी अनुपम शास्त्रोक्त ऋषभदेव भगवान के भव्य जिनबिंबों को स्थापित किया था। उनके विधिपूर्वक सामायिक करने वाला पूणिया श्रावक तो अब नहीं रहा ही परिवारजन आज भी प्रतिवर्ष उक्त जिनालय पर ध्वज चढ़ाते हैं। परंतु शास्त्रों में उनका अमर नाम रह गया। वे स्वयं तो चले गये परन्तु अपनी ज्वलन्त कीर्ति राणकपुरजी तीर्थ के म (३) कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के सदुपदेश से तीर्थ रूप में छोड़ गये। सार्वभौम श्री सिद्धिगिरि का विशाल संघ लेकर आने वाले अठारह (३) भारतवर्ष में सर्वाधिक ऊँचाई पर यदि कोई मन्दिर है तो देशों के अधिपति परमार्हत् महाराजा कुमारपाल सिद्धगिरि तीर्थ पर इन्द्रमाल का चढ़ावा बोलते समय लाख-लाख रुपयों की बोली बोल वह श्री तारंगाजी तीर्थ पर स्थित श्री अजितनाथ प्रभु का जिनालय है, रहे थे। बाहड़ एवं उदायन जैसे महामन्त्री उनकी टक्कर सह रहे थे। श्रीमद जयंतसेनसरि अभिनंदनाथावाचना ८६ ज्ञान कला है, कर्म की, जानत ज्ञानी सर्व । जयन्तसेन उसे समझ, व्यर्थ करो मत गर्व ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार आमने-सामने दस-पन्द्रह लाख की बोली चल रही थी। करोड़ मूल्य के तीन रत्ल दिये, जिन्हें लेकर मैं अपनी वृद्ध माता को उस समय महुवा के झगडू शाह ने सवा-सवा करोड़ के तीन मोती भी तीर्थ-यात्रा की भावना हो जाने के कारण उन्हें साथ लेकर आया एवं वृद्ध माता को साथ लेकर श्रीसंघ के दर्शन एवं तीर्थ-यात्रा के हूँ, परन्तु अपार मानव-मेदिनी के कारण उन्हें मैं कपर्दी यक्ष के मन्दिर लिए आकर वृद्ध माता को कपर्दी यक्ष के मन्दिर के पास छोड़कर में छोड़कर आया हूँ और यह लाभ लिया है। अभी तक सवा-सवा लाखों अनुष्यों की मेदिनी के मध्य आकर सवा करोड़ रुपयों की करोड़ के दो रत्ल तो व्यय करने शेष हैं।" उछामणी की घोषणा की। यह सुनकर सभी आश्चर्यचकित हो गये। महाराज कुमारपाल झगडूशाह के साथ कपर्दी यक्ष के मन्दिर स्वयं महाराज कुमारपाल की दृष्टि भी उस ओर गई। उन्हें देखने पर। के समीप आये और वहाँ आकर उन्होंने झगडूशाह की माता के चरणों ऐसा प्रतीत होता था कि जिसकी देह पर पूरे सवा रुपये के वस्त्र भी में नमस्कार किया और बोले, "हे रत्न-कुक्षिणी माता ! धन्य है, तुम्हें नहीं हैं, वह व्यक्ति एकदम ऐसी घोषणा कैसे कर सकता है? ऐसा कि तुमने ऐसे नर-रल को जन्म दिया। मेरे जैसा अठारह देशों का प्रतीत होता है कि उसने मेरे द्वारा उछामणी में वृद्धि कराने के लिये अधिपति इतना विशाल संघ लेकर यहाँ आया। फिर भी इन्द्रमाला ही पत्थर फेंका है। का चढ़ावा बोलकर तुम्हारे इस पुत्र-रल ने इन्द्रमाला पहनी और मैं उन्होंने बाहड़ को कहा, “मन्त्रीश्वर ! आप रुपये पहले लेकर फिर रह गया।” तत्पश्चात् इन्द्रमाला पहन कर जगडू शाह ने प्रभु के समीप उन्हें सहर्ष आदेश दे सकते हैं।” यह सुनकर जगडू शाह ने कहा, इन्द्र माला की समस्त क्रिया की। “महाराज ! यह तीर्थ कोई राजामहाराजाओं के लिये ही नहीं है। कोई वहाँ से संघ रैवतगिरि पर गया। वहाँ भी जगडूशाह ने सवा भी व्यक्ति आकर लाभ ले सकता है। तीर्थ-स्थान पर तो सभी पुण्य करोड़ मूल्य के दूसरे रत्न का व्यय किया और तीसरा सवा करोड़ का उपार्जन करने के लिए ही आते हैं, कोई किसी को ठगने के लिए नहीं रल उन्होंने प्रभासपाटण तीर्थ पर व्यय किया। इसप्रकार तीर्थ स्थानों आता।” में लक्ष्मी का सदुपयोग करने बाले नर-रल झगडूशाह भी अब नहीं यह कहकर उन्होंने अपनी देह पर रखे खेस के कोने पर बँधे रहे, फिर भी ग्रन्थों में, गीतों में, गाथाओं में उनका नाम अमर रह गया। रल बाहर निकले। जगडू शाह ने उस समय 'चिथड़े में बाँधा रल' ऐसे असंख्य उदाहरण विद्यमान हैं, परन्तु इस लेख में उनका संक्षिप्त की उक्ति चरितार्थ की। उन्होंने सवा करोड़ मूल्य का एक रल निकाल दिग्दर्शन कराया गया है। कर मन्त्रीश्वर के हाथ में दिया और वहाँ जगडू शाह को इन्द्रमाला से का इससे पाठकों को यह समझना चाहिये कि लक्ष्मी सदा चंचल सुशोभित किया गया। यह देखकर महाराजा कुमारपाल के नेत्र तो है, किसी की भी लक्ष्मी न स्थिर रही है और न रहेगी, परन्तु इससे फटे के फटे रह गये। वे चकित हो गये और उन्होंने जगडू शाह को जितने सुकृत, पुण्य के कार्य, धर्म के कार्य होंगे उतना ही हमारा अमर पूछा, “भाग्यशाली ! आप कहाँ के निवासी हैं? क्या नाम है आपका? आपको जन्म प्रदान करने वाली जननी कौन है?" यश ‘या तो भी तों अथवा गीतों में, चिरस्थायी रहेगा और परम्परा में उनके स्वर्ग एवं मोक्ष के सुफल प्राप्त होंगे। जगडूशाह ने उत्तर दिया, “महाराज ! मैं महुवा निवासी हूँ। यह सोचकर प्राप्त लक्ष्मी का आप सदुपयोग करें, अनेक जीवों आपके महान् संघ के सिद्धगिरि पर आने का समाचार सुनकर मेरे को सुमार्गगामी बनायें, अनेक लोगों का उपकार करें और अपना अमर पिताजी की आज्ञा लेकर श्री शत्रुजय तीर्थ की यात्रा पर आया हूँ। यश जगत् में चिरस्थायी करके इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों से मेरे पिताजी ने आते समय कहा था कि तू सहर्ष जा, पर तीर्थस्थान अमर रखकर स्वर्ग एवं मोक्ष के सफल प्राप्त करें यही आन्तरिक पर खाली हाथ नहीं जाना चाहिये। यह कहकर उन्होंने मुझे सवा-सवा अभिलाषा है। मधुकर मौक्तिक इसलिये दैनिक क्रियाओं संबंधी और जीवन संबंधी अनेकानेक नियमों तथा विधि विधानों का भी जैन धर्म ने संस्थापन एवं समर्थन किया है, जो महावीर की देन है? जिन्हें बारह व्रत एवं पंच महाव्रत भी कहते हैं। जिनका तात्पर्य यही है कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति में इस प्रकार मानव शांति बनी रहे और सभी को अपना विकास करने का सुन्दर एवं समुचित संयोग प्राप्त हो । उन्होंने साधुधर्म व गृहस्थ धर्म का अलग अलग निरूपण किया। जाति, देश, लिंग, रंग, भाषा, वेश नस्ल वंश और काल का कृत्रिम भेद होते हुए भी मूल में मानव-मात्र एकही है, यह है महावीर की अप्रतिम और अमर घोषणा, जो कि जैन धर्म की महानता को सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा देती है। भगवान् महावीर के ये सिद्धान्त भारत के लिए ही नहीं, किन्तु समस्त विश्व के लिए एक अनोखी देन हैं। इन्हीं सिद्धातों के आधार पर मनुष्य जाति के सुखी भविष्य की आशा दी जा सकती है। सामाजिक विषमताओं का उन्मूलन, धार्मिक कदाग्रहों व संघर्षों का शासन एवं राजनैतिक तनावों की कमी केवल इन्हीं आदर्श सिद्धान्तों का प्रचार भगवान् महावीर ने भारत भूमि पर किया। इसलिये हम उस युग को- महावीर युग को - भारतीय जीवन दर्शन का स्वर्णयुग कह सकते है। आज महावीर के उपदेशों पर चले तो विश्व में शांति हो सकती है। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना श्रवण करो सद् ज्ञान का, चिन्तन करो विशेष । जयन्तसेन सुफल करा, आतम शान्ति अशेष alMelibrary.org, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1920 6508 श्रीमद जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना * SHREE SREYANSANATH NEW JAIN TEMPLE NELLORE (A.P.) PRAN PRATHISTA (CONSECRATION) MAHOTSAV A the August presence of FT Parampujya Jagat Vandaniya Acharyadev Sri Shrimad Kailashsagar Suriswarji Maharaj's disciple, Parampujya Acharya Dev Sri Shrimad Kalyansagar Suriswarji's disciple Parampujya Acharya Dev Sri Padmasagar Suriswarji Maharajsahib and other munis. - Viswavandiniya Jainacharya Sri Shrimad Rajendra Suriswarji Maharaj's disciple Sri Acharya Maharaj Yetendra Suriswarji Vidwan sishya ratna Sri Jayantvijayiee Maharajsahib "Madhukar' and other munis ACHARYA SRI PADMASAGAR SURISWARJI Acharya Sri Padmasagar Suriswarji who will perform the installation ceremony is one of the greatest votaries of Jain dharma. On this solemn occasion His Holiness prays for Universal Peace. "May serenity and peace descend upon this world. May human beings give up the ways of violence and live as brothers - transcending distinctions of caste, colour and religion. May the teachings of Lord Mahaveera Do a positive affirmation of the Beauty of Truth and Goodness. May the people of Nellore and Andhra Pradesh be blessed in all their endeavours." This holy temple is dedicated and consecrated to the memory of Shres Sreynnsanathji the oloventh of the twentyfour Thirthankaras-Souls who have annihilated their Karmas and attained Nirvana. Temples are constructed for the benefit of Mankind and are the cradles of our various cultures. The doors of Jain temples are open to all people irrespective of colour, caste and creed; for the purification of the soul and for those who seek release from the cycle of rebirth. Jainism is truly preserved in its pristine glory in the hallowed precincts of her temples. A vast wealth of temples and legends have been left to us by our ancestors. Let us look at them with pride and preserve them with care and devotion. MUNI SRI JAYANT VIJAY JEE "MADHUKAR" Muni Sri Jayant Vijayje. "'Madhukar who will conduct the ceremonies is an Intrepid Saint, Social reformer and author. He forms an important link between traditional and contemporary thinking. Philosopher and linguist he was named Poonamchand at his birth, and true to his name, the Swamijee has toured the length and breadth of the country spreading radiance and enlightenment. PROGRAMME ANJANASHALAKA- Thursday 3rd December 1981 - 5.30 A.M. PRATHISTA - Thursday 3rd December 11 - 7.30 A.M. at Sri Jain Temple, Mandapal Street, Nellore (A.P.) ALL ARE WELCOME With best compliments SRI JAIN SWETAMBER SANGH & SRI SREYASANATH BHAGWAN ANJANSHALAKA - PRATHISTA MAHOTSAV COMMITTEE ग्रंथनायक तथा जैनाचार्य श्रीमद पग्नसागरसूरीश्वरजी महाराज के संयुक्त सानिध्य में नॅलर(आंध्रप्रदेश) में आयोजित प्रतिष्ठोत्सव के समय प्रसारित किया गया प्रचार पोस्टर जो अपने आप में एकता का इतिहास निर्मित करता है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्लेषण ॥श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ। For Private & Personal use only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्लेषण विश्वधर्म के रूप में जैनधर्म-दर्शन की प्रासंगिकता - डॉ. महावीर एस. जैन एस मग्गे आरिएहि पवेइए - प्रो. कल्याणमल लोढा ध्यान साधना- जैन दृष्टिकोण 0 डॉ. नरेन्द्र भानावत अप्पा सो परमप्पा - डॉ. हुकुमचंद भारिल्ल. जैनदर्शन में सर्वज्ञत्व - डॉ. धर्मचंद्र जैन ६. जैन रामायण पउमचरिउ' और हिन्दी रामायण "मानस' O डॉ. ल मीनारायण दुबे 'अभिधान राजेन्द्र कोशस्तथा जैन कोश विद्या' - डॉ. रूद्रदेव त्रिपाठी __ स्याद्वाद - दृष्टि - पं. शिवनारायण गौड़ ऋग्देव तथा तीर्थंकर ऋषभदेव 0 डॉ. प्रह्लाद नारायण बाजपेयी जैनधर्म में प्रायश्चित एवं दंड व्यवस्था - डॉ. सागरमल जैन भारतीय संस्कृति में जैन-दर्शन का अवदान O डॉ. मुलखराज जैन भगवान महावीर का समन्वयवाद, विश्वकल्याण - डॉ. श्रीमती कोकिला भारतीय जीवन मूल्य और जैनधर्म 0 डॉ. नरेन्द्र शर्मा 'कुसुम' जैनदर्शन और धर्म का बीज - डॉ. श्री रतनचंद जैन उन्मुक्त संवाद की अमोघ दृष्टि - स्याद्वाद - डॉ. विश्वास पाटिल जैन दर्शन में मोक्ष की अवधारणा - डॉ. अमृतलाल गांधी महावीर की उन्मुक्त विचारक्रांति, अनेकांतदर्शन 0 डॉ. राजेन्द्रकुमार बंसल जैनकला की भारतीय-संस्कृति को अद्भूत देन - डॉ. सुरेन्द्रकुमार आर्य णमोकार मंत्र का महात्म्य एवं प्रभाव - डॉ. रवीन्द्रकुमार जैन प्राचीन जैन साहित्य के संदर्भ में भारतीय शासन व्यवस्था - डॉ. तेजसिंह गौड़ हिन्दी साहित्य में सत्सई परम्परा 0 डॉ. दिलीप पटेल आचार्य नेमिचंदसूरि का व्यक्तित्व - डॉ. हुकुमचंद जैन जैन एवं मसीही- योग तुलनात्मक अध्ययन - डॉ. एरलिक बारलो शिवाजी भगवान महावीर की जन-जीवन को देन - डॉ. शोभनाथ पाठक जैनधर्म एवं योग - डॉ. मायारानी आर्य २६. जैन सिद्धांत की त्रिवेणी - अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह - डॉ. दिव्या भट्ट जैन दर्शन में आत्मवाद - डॉ. श्रीमती सूरजमुखी जैन जैन दर्शन में आत्मवाद - डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य स्याद्वाद की दृष्टि - डॉ. स्वर्णकिरण भारतीय साहित्य में जैन वाङमय का स्थान 0 डॉ. विष्णुकांत ग्रंथनायक के हस्ताक्षर 0 १०३ १०५ १०७ ११० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-धर्म के रूप में जैनधर्म-दर्शन की प्रासंगिकता (डॉ. श्री महावीर एस. जैन) आज भौतिक विज्ञानों ने बहुत विकास किया है । हम मनुष्य अन्ततः अतृप्ति का अनुभव कर रहा है । उनकी उपलब्धियों एवं अनुसंधानों से चमत्कृत हैं । ज्ञान का न भौतिक विज्ञानों के चमत्कारों से भयाकुल चेतना की हमें विकास इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि प्रबुद्ध पाठक भी सम्पूर्ण आस्था प्रदान करनी है । निराश एवं संत्रस्त मनुष्य को आशा एवं ज्ञान से परिचय प्राप्त करने में असमर्थ एवं विवश है | ज्ञान की विश्वास की मशाल थमानी है । परम्परागत मूल्यों को तोड़ दिया शाखा-प्रशाखा में विशेषज्ञता का दायरा बढ़ता जा रहा है । एक गया है। उन पर दुबारा विश्वास नहीं किया जा सकता । वे विषय का विद्वान दूसरे विषय की तथ्यात्मकता एवं अध्ययन अविश्वसनीय एवं अप्रासंगिक हो गये हैं । हमें नये युग को नये पद्धति से अपने को अनभिज्ञ पा रहा है । हर जगह, हर दिशा में जीवन-मूल्य प्रदान करने हैं । इस युग में बौद्धिक संकट एवं नयी खोज, नया अन्वेषण हो रहा है । प्रतिक्षण अनुसंधान हो रहे उलझनें पैदा हुई हैं। हमें समाधान का रास्ता ढूंढ़ना है। हैं । जो आज तक नहीं खोजा जा सका, उसकी खोज में व्यक्ति संलग्न है । जो आज तक नहीं सोचा गया उसे सोचने में व्यक्ति विज्ञान ने हमें गति दी है, शक्ति दी है । लक्ष्य हमें धर्म एवं व्यस्त है । जिन घटनाओं को न समझ पाने के कारण उन्हें परात्पर दर्शन से प्राप्त करने हैं । लक्ष्य-विहीन होकर दौड़ने से जिन्दगी की परब्रह्म के धरातल पर अगम्य रहस्य मानकर उन पर चिन्तन करना मंजिल नहीं मिलती। बन्द कर दिया गया था, वे आज अनुसंधेय हो गई हैं । सृष्टि की र वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण जिस शक्ति का हमने संग्रह बहुत सी गुत्थियों की व्याख्या हमारे दार्शनिकों ने परमात्मा एवं किया है उसका उपयोग किस प्रकार हो; गति का नियोजन किस माया की सृष्टि के आधार पर की थी। उन व्याख्याओं के कारण प्रकार हो - यह आज के युग की जटिल समस्या है | इसके वे ‘परलोक' की बातें हो गयी थीं । आज उनके बारे में भी व्यक्ति समाधान के लिए हमें धर्म एवं दर्शन की ओर देखना होगा। जानना चाहता है । अन्वेषण की पिपासा बढ़ती जा रही है । इसका कारण यह है कि धर्म ही ऐसा तत्व है जो मानवअनुसंधान का धरातल अब भौतिक पदार्थों तक ही सीमित होकर हृदय की असीम कामनाओं को सीमित करने की क्षमता रखता है; नहीं रह गया है । अन्तर्मुखी चेतना का अध्ययन एवं पहचान भी उसकी दृष्टि को व्यापक बनाता है। मन में उदारता, सहिष्णुता एवं उसकी सीमा में आ रही है । पहले के व्यक्ति ने इस संसार में प्रेम की भावना का विकास करता है। कष्ट अधिक भोगे थे । भौतिक इच्छाओं की सहज तृप्ति की कल्पना उस लोककी परिकल्पना का आधार बनी । आज हम उन्हीं हए कोई भी समाज धर्महीन होकर स्थित नहीं रह सकता । दिव्यात्माओं को धरती के अधिक निकट लाने के प्रयास में रत हैं। समाज की व्यवस्था, शान्ति तथा समाज के सदस्यों में परस्पर प्रेम पृथ्वी को ही स्वर्ग बना देने के लिए बेताब हैं। एवं विश्वास का भाव जगाने के लिए धर्म का पालन आवश्यक इतना होने पर भी मनुष्य सुखी नहीं है । यह असंगति क्यों है? वह सुख की तलाश में भटक रहा है । घन बटोर रहा है, धर्म कोई सम्प्रदाय नहीं है । धर्म का अर्थ है - 'अच्छा भौतिक उपकरण जोड़ रहा है । वह अपना मकान बनाता है। आचरण करना' जिन्दगी में जो हमें धारण करना चाहिए - वही आलीशान इमारत बनाने के स्वप्न को मूर्तिमान करता है । फिर धर्म है । हमें जिन नैतिक मूल्यों को जिन्दगी में उतारना चाहिए, अपना महल सजाता है । सोफा सेट, कालीन, वातानुकूलित वही धर्म है। व्यवस्था, महंगे पर्दे, प्रकाश तथा ध्वनि के आधुनिकतम उपकरण मन की कामनाओं को नियंत्रित किए बिना समाज रचना एवं उनके द्वारा रचित मोहक प्रभाव । सब कुछ अच्छा लगता सम्भव नहीं है । जिन्दगी में संयम की लगाम आवश्यक है । है । मगर परिवार के सदस्यों के बीच जो प्यार, विश्वास पनपना कामनाओं के नियंत्रण की शक्ति या तो धर्म में है या चाहिए उसकी कमी होती जा रही है । पहिले पति-पत्नी भावना की शासन की कठोर व्यवस्था में | धर्म का अनुशासन 'आत्मानुशासन' डोरी से आजीवन बंधने के लिए प्रतिबद्ध रहते थे । दोनों को होता है । व्यक्ति अपने पर स्वयं विश्वास रहता था कि वे इसी घर में आजीवन साथ-साथ रहेंगे । नियंत्रण करता है। शासन का दोनों का सुख दुःख एक होता था। उनकी इच्छाओं की धुरी 'स्व' नियंत्रण हमारे ऊपर 'पर' का न होकर 'परिवार' होती थी । वे अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को अनुशासन होता है । दूसरों के द्वारा पूरा करने के बदले अपने बच्चों एवं परिवार के अन्य सदस्यों की अनुशासित होने में हम विवशता इच्छाओं की पूर्ति में सहायक बनना अधिक अच्छा समझते थे । का अनुभव करते हैं, परतंत्रता का आज की चेतना क्षणिक, संशयपूर्ण एवं तात्कालिकता में केन्द्रित बोध करते हैं, घुटन की प्रतीति होकर रह गयी है । इस कारण व्यक्ति अपने में ही सिमटता जा । करते हैं। रहा है । सम्पूर्ण भौतिक सुखों को अकेला भोगने की दिशा में व्यग्र श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१) मंत्र शिरोमणि है धुरि, महामंत्र नवकार । जयन्तसेन जपो सदा, उतरो भवजल पार || Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्क्स ने धर्म की अवहेलना की है । वास्तव में मार्क्स ने मुसीबतों का कारण हमने अपने विगत जीवन के कर्मों को मान मध्ययुगीन धर्म के बाह्य आडम्बरों का विरोध किया है । जिस लिया । वर्तमान जीवन में अपने श्रेष्ठ आचरण द्वारा अपनी समय मार्क्स ने धर्म के बारे में चिन्तन किया उस समय उसके मुसीबतों को कम करने की तरफ हमारा ध्यान कम रहा । ईश्वर चारों ओर धर्म का पाखंडभरा रूप था । मार्क्स ने इसी को धर्म का और मनुष्य के बीच के बिचोलियों ने मनुष्य को सारी मुसीबतों, पर्याय मान लिया । कष्टों, विपदाओं से मुक्त होकर स्वर्ग, बहिश्त में मौज की जिन्दगी वास्तव में धर्म तो वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का बिताने की राह दिखायी और बताया कि हमारे माध्यम से अपने शुद्धिकरण होता है | धर्म वह तत्व है जिससे व्यक्ति अपने जीवन आराध्यों के प्रति तन, मन, धन से समर्पित हो जाओ - पूर्ण को चरितार्थ कर पाता है । धर्म दिखावा नहीं, प्रदर्शन नहीं, रूढ़ियां आस्था, पूर्ण विश्वास, पूर्ण निष्ठा के साथ भक्ति करो । तर्क, नहीं, किसी के प्रति घृणा नहीं, मनुष्य मनुष्य के बीच भेदभाव नहीं विवेक एवं युक्ति को साधना पथ का सबसे बड़ा शत्रु मान लिया अपितु मनुष्य में मनुष्यता के गुणों के विकास की शक्ति है; गया । सार्वभौम चेतना का सत्-संकल्प है । जब धर्म 'सम्प्रदाय' हो जाता राहा धर्म की उपर्युक्त धारणायें आज टूट चुकी हैं । विज्ञान ने है तो मानवीय प्रगति में बाधक हो जाता है । जब धर्म अहिंसा की हमें दुनिया को समझने और जानने का तर्कसंगत रास्ता बताया ज्योति से मर्यादित एवं संचालित होता है तो मानवीय विकास का है। विज्ञान ने यह स्पष्ट किया कि यह विश्व किसी की इच्छा का पर्याय हो जाता है। परिणाम नहीं है । विश्व तथा सभी पदार्थ कारण-कार्यभाव से बद्ध 5 मध्य युग में विकसित धर्म एवं दर्शन के परम्परागत स्वरूप हैं। भौतिक-विज्ञान ने सिद्ध किया है कि जगत में किसी पदार्थ का एवं धारणाओं में आज के व्यक्ति की आस्था समाप्त हो चुकी है। नाश नहीं होता केवल रूपान्तर मात्र होता है । इस धारणा के इसके कारण हैं। कारण इस जगत को पैदा करने वाली शक्ति का प्रश्न नहीं उठता । जीव को उत्पन्न करने वाली शक्ति का प्रश्न नहीं उठता । मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में 'ईश्वर' प्रतिष्ठित था । हमारा विज्ञान ने शक्ति के संरक्षण के सिद्धान्त में विश्वास जगाया । सारा धर्म एवं दर्शन इसी 'ईश्वर' के चारों ओर घूमता था । सम्पूर्ण पदार्थ की अनश्वरता के सिद्धान्त की पुष्टि की । समकालीन सृष्टि के कर्ता, पालनकर्ता, संहारकर्ता के रूप में हमने परम शक्ति पाश्चात्य अस्तित्ववादी दर्शन ने भी ईश्वर का निषेध किया है । की कल्पना की थी। उसी शक्ति के अवतार के रूप में, या उसके उसने यह माना है कि मनुष्य का स्त्रष्टा ईश्वर नहीं है । मनुष्य पुत्र के रूप में या उसके प्रतिनिधि के रूप में हमने 'ईश्वर, ईसा वह है जो अपने आपको बनाता है। या अल्लाह को प्रतिष्ठित किया तथा उन्हीं की भक्ति में अपनी मुक्ति का मंत्र मान लिया । स्वर्ग की कल्पना, देवताओं की इस प्रकार जहां मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में 'ईश्वर' कल्पना, वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध. अपने देश एवं प्रतिष्ठित था वहाँ आज की चेतना के केन्द्र में 'मनुष्य' प्रतिष्ठित अपने काल की माया एवं प्रपंचों से परिपूर्ण अवधारणा आदि है । मनुष्य ही सारे मूल्यों का स्रोत है । वही सारे मूल्यों का प्रत्यय मध्ययुगीन धर्म एवं दर्शन के घटक थे । वर्तमान जीवन की उपादान है । आधुनिकताबोध से सम्पन्न आज का मनुष्य 'ईश्वरवादी' धर्म से प्रेरणा ग्रहण नहीं कर सकता, भाग्यवाद के सहारे हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठ सकता । बीसवीं शताब्दी में विकसित बीस ग्रंथों, साठ शोध- अस्तित्ववादी दर्शन में, वैज्ञानिक अवधारणाओं में तथा साम्यवादी निबंधों के साथ शताधिक लेख | विचारणा में कुछ विचार-प्रत्यय समान हैं। तथा समीक्षाएँ प्रकाशित । आपके (१) तीनों ईश्वरवादी नहीं हैं। तीनों ने ईश्वर के स्थान पर निर्देशन में तीन शोधक डी. लीट. 'मनुष्य' को स्थापित किया गया है। तथा बारह शोधक पी. एच. डी. की उपाधियाँ प्राप्त कर चुके हैं। (२) तीनों भाग्यवादी नहीं हैं। कर्मवादी तथा पुरुषार्थवादी हैं। अनेक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में (३) तीनों में मनुष्य की वर्तमान जिन्दगी को सुखी बनाने का शोधपत्रों का वाचन आकाशवाणी संकल्प है। से अनेक वार्ताएं प्रसारित । अस्तित्ववादी दर्शन में व्यक्तिगत स्वातंत्र्य पर जोर है तो रोमानिया, हंगेरी, बल्गेरिया, साम्यवादी विचारणा में सामाजिक समानता पर | इन समान एवं डॉ. महावीर सरन जैन झेकोस्लोवाकिया, पोलेण्ड, पूर्वी विषम विचार प्रत्ययों के आधार पर (एम.ए., डी.फिल्., जर्मनी, पश्चिम जर्मनी, बेल्जियम, क्या नये युग का धर्म एवं दर्शन डी.लीट्) नेदरलैंड, इंग्लैंड, इटली आदि देशों | निर्मित किया जा सकता है? में विजिटिंग प्रोफेसर के पद पर विज्ञान ने शक्ति दी है । कार्यरत, संप्रति प्रोफेसर तथा अध्यक्ष, स्नाकोत्तर हिंदी एवं अस्तित्ववादी दर्शन ने स्वातंत्र्य- चेतना भाषा विज्ञान विभाग, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर । निवास पता : ९ बी, विश्वविद्यालय निवास गृह, पचपेटी, प्रदान की है । साम्यवाद ने विषमताओं को कम कराने पर बल जबलपुर - ४८२ ००१. दिया है। फिर भी विश्व में संघर्ष श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण प्रेम करो अरिहन्त से, फैले दिव्य प्रकाश । जयन्तसेन सुखद सदा, पूर्व कर्म का नाश ।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की भावना है; जीवन में अशान्ति है । आज हमें मनुष्य को चेतना के केन्द्र में प्रतिष्ठित कर उसके पुरुषार्थ और विवेक को जागृत कर, उसके मन में सृष्टि के समस्त जीवों एवं पदार्थों के प्रति अपनत्व का भाव जगाना है; मनुष्य एवं मनुष्य के बीच आत्मतुल्यता की ज्योति जगानी है जिससे परस्पर समझदारी, प्रेम, विश्वास पैदा हो सके । मनुष्य को मनुष्य के खतरे से बचाने के लिए हमें आधुनिक चेतना सम्पन्न व्यक्ति को आस्था एवं विश्वास का सन्देश प्रदान करना है। हमारा दर्शन ऐसा होना चाहिये जो मानव मात्र को सन्तुष्ट कर सके, मनुष्य के विवेक एवं पुरुषार्थ को जागृत कर उसको शान्ति एवं सौहार्द का अमोघ मंत्र दे सकने में सक्षम हो। इसके लिये हमें मानवीय मूल्यों की स्थापना करना होगी, सामाजिक बंधुत्व का वातावरण निर्मित करना होगा, दूसरों को समझने और पूर्वाग्रहों से रहित मनःस्थिति में अपने को समझाने के लिये तत्पर होना होगा; भाग्यवाद के स्थान पर कर्मवाद की प्रतिष्ठा करनी होगी, उन्मुक्त दृष्टि से जीवनोपयोगी दर्शन का निर्माण करना होगा । धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिये जो प्राणी मात्र को प्रभावित कर सके एवं उसे अपने ही प्रयत्नों के बल पर विकास करने का मार्ग दिखा सके ऐसा दर्शन नहीं होना चाहिए जो आदमी आदमी के बीच दीवारें खड़ी करके चले धर्म और दर्शन को आधुनिक लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था के आधारभूत जीवन मूल्यों स्वतंत्रता, समानता, विश्व बंधुत्व तथा आधुनिक वैज्ञानिक निष्कर्षों का अविरोधी होना चाहिए । जैन आत्मानुसंधान का दर्शन "जैन" साम्प्रदायिक दृष्टि नहीं है। यह सम्प्रदायों से अतीत होने की प्रक्रिया है। सम्प्रदाय में बंधन होता है। यह बंधनों से मुक्त होने का मार्ग है। "जैन" शाश्वत जीवन पद्धति तथा जड़ एवं चेतन के रहस्यों को जानकर आत्मानुसंधान की प्रक्रिया है। जैन दर्शन प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्रता की उद्घोषणा : : भगवान महावीर ने कहा- “पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं" पुरुष तू अपना मित्र स्वयम् है। जैन दर्शन में आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है- 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य' आत्मा ही दुःख एवं सुख का कर्ता या विकर्ता है । कोई बाहरी शक्ति आपको नियंत्रित संचालित एवं प्रेरित नहीं करती । आप स्वयम् ही अपने जीवन के ज्ञान से चरित्र से उच्चतम विकास कर सकते हैं। यह एक क्रान्तिकारी विचार है। इसको यदि हम आधुनिक जीवन सन्दर्भों के अनुरूप व्याख्यायित कर सकें तो निश्चित रूप से विश्व के ऐसे समस्त प्राणी जो धर्म और दर्शन से निरन्तर दूर होते जा रहे हैं, इनसे जुड़ सकते हैं। भगवान महावीर का दूसरा क्रान्तिकारी एवं वैज्ञानिक विचार यह है कि मनुष्य जन्म से नहीं अपितु आचरण से महान् बनता है । इस सिद्धान्त के आधार पर उन्होंने मनुष्य समाज की समस्त दीवारों को तोड़ फेंका। आज भी मनुष्य और मनुष्य के बीच खड़ी की गयी जितने प्रकार की दीवारें हैं उन सारी दीवारों को तोड़ देने की आवश्यकता है । यदि हम यह मान लेते हैं कि "मनुष्य जन्म से नहीं आचरण से महान् बनता है" तो समाज की समता एवं श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (३) शांति में जो जातिगत एवं वर्गगत जहर घुला हुआ है, उसको हम दूर कर सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा बन सकता है : प्रत्येक व्यक्ति साधना के आधार पर इतना विकास कर सकता है कि इस स्थिति में पहुंचे हुए आदमी को देवता लोग भी नमस्कार करते हैं। 'देवावित्तं नर्मसन्ति जस्स थम्म समायणो ।" महावीर ने ईश्वर की परिकल्पना नहीं की देवताओं के आगे झुकने की बात नहीं की अपितु मानवीय महिमा का जोरदार समर्थन करते हुए कहा कि जिस साधक का मन धर्म में रमण करता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं । व्यक्ति अपनी ही जीवन-साधना के द्वारा इतना उच्चस्तरीय विकास कर सकता है। कि आत्मा ही परमात्मा बन सकती है। जैन तीर्थंकरों का इतिहास एवं उनका जीवन आकाश से पृथ्वी पर उतरने का क्रम नहीं अपितु पृथ्वी से ही आकाश की ओर जाने का उपक्रम है । नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है अपितु नर का ही नारायण बनना है । वे अवतारवादी परम्परा के पोषक नहीं अपितु उत्तारवादी परम्परा के तीर्थंकर थे । उन्होंने अपने जीवन की साधना के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को यह प्रमाण दिया; उसे यह विश्वास दिलाया कि यदि वह साधना कर सके, राग-द्वेष को छोड़ सके तो कोई ऐसा कारण नहीं है कि वह प्रगति न कर सके । जब प्रत्येक व्यक्ति प्रगति कर सकता है, अपने ज्ञान और साधना के बल पर उच्चतम विकास कर सकता है और तत्वतः कोई किसी की प्रगति में न तो बाधक है और न साधक तो फिर संघर्ष का प्रश्न ही कहां होता है ? इस तरह उन्होंने एक सामाजिक दर्शन दिया। प्रत्येक जीवन में आत्म शक्ति : सामाजिक समता एवं एकता की दृष्टि से श्रमण परम्परा का अप्रतिम महत्व है । इस परम्परा में मानव को 'मानव' के रूप में देखा गया है; वर्णों सम्प्रदायों, जाति, उपजाति, वादों का लेबिल चिपकाकर मानव मानव को बांटने वाले दर्शन के रूप में नहीं । मानव महिमा का जितना जोरदार समर्थन जैन दर्शन में हुआ है वह अप्रतिम है । भगवान महावीर ने आत्मा की स्वतंत्रता की प्रजातंत्रात्मक उद्घोषणा की। उन्होंने कहा कि समस्त आत्मायें स्वतंत्र हैं । विवक्षित किसी एक द्रव्य तथा उसके गुणों एवं पर्यायों का अन्य द्रव्य या उसके गुणों और पर्यायों के साथ किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है । इसके साथ-साथ उन्होंने यह बात कही कि स्वरूप की दृष्टि से समस्त आत्मायें समान हैं । अस्तित्व की दृष्टि से समस्त आत्मायें स्वतंत्र हैं; भिन्न-भिन्न हैं किन्तु स्वरूप की दृष्टि से समस्त आत्मायें समान हैं। मनुष्य मात्र में आत्मशक्ति है । शारीरिक एवं मानसिक विषमताओं का कारण कर्मों का भेद है । जीव अपने ही कारण से संसारी बना है। और अपने ही कारण से मुक्त होगा । व्यवहार से बंध और मोक्ष के हेतु 100 अजर अमर रहना नहीं, चार दिनों का वास । जयन्तसेन सिध्दि मिले, रखो अरिहन्त आश || . Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदश्य को सामाजिाय दूसरों का अनिष्ट कर अन्य पदार्थ को जानना चाहिए किन्तु निश्चय से यह जीव स्वयं प्रिय है । सभी जीव जीना चाहते हैं; मरना कोई नहीं चाहता । जब मोक्ष का हेतु है । आत्मा अपने स्वयं के उपार्जित कर्मों से ही सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है तो किसी भी प्राणी को दुःख न बंधती है। आत्मा का दुःख स्वकृत है । प्रत्येक व्यक्ति अपने ही पहुंचाना ही अहिंसा है | अहिंसा केवल निवृत्तिपरक साधना नहीं प्रयास से उच्चतम विकास भी कर सकता है। है, यह व्यक्ति को सही रूप में सामाजिक बनाने का अमोघ मंत्र जैन दर्शन में आत्मायें अनन्तानन्त हैं तथा परिणामी स्वरूप है किन्तु चेतना स्वरूप होने के कारण एक जीवात्मा अपने रूप में अहिंसा के साथ व्यक्ति की मानसिकता का सम्बन्ध है। इस रहते हुए भी ज्ञान के अनन्त पर्यायों को ग्रहण कर सकती है। कारण महावीर ने कहा कि अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है । एक म स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्मायें समान हैं । जीव के सहज कृषक अपनी क्रिया करते हुए यदि अनजाने जीव हिंसा कर भी गुण अपने मूल रूप में स्थित रहते हैं । पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप देता है तो भी हिंसा की भावना उसके साथ जुड़ती नहीं है । भले शुद्धि अशुद्धि की मात्रा घटती बढ़ती रहती है। ही हम किसी का वध न करें, किन्तु किसी के वध करने के विचार के जन्मते ही उसका सम्बन्ध मानसिकता से सम्पृक्त हो जाता है। आत्म तुल्यता तथा सामाजिक समता : हिंसा से पाशविकता का जन्म होता है, अहिंसा से मानवीयता भगवान ने समस्त जीवों पर मैत्रीभाव रखने एवं समस्त एवं सामाजिकता का । दूसरों का अनिष्ट करने की नहीं, अपने. संसार को समभाव से देखने का निर्देश दिया । "श्रमण' की कल्याण के साथ-साथ दूसरों का भी कल्याण करने की प्रवृत्ति ने व्याख्या करते हुए उसकी सार्थकता समस्त प्राणियों के प्रति मनुष्य को सामाजिक एवं मानवीय बनाया है। प्रकृति से वह समदृष्टि रखने में बतलायी | समभाव की साधना व्यक्ति को आदमी है, नैतिकता बोध के संस्कारों ने उसमें मानवीय भावना का श्रमण बनाती है। विकास कर उसके जीवन को सार्थकता प्रदान की है। भगवान ने कहा कि जाति की कोई विशेषता नहीं, जाति जब मनुष्य पशु जीवन जीता होगा तो एक दिन अपने और कुल से त्राण नहीं होता । प्राणी मात्र आत्मतुल्य है, इस अस्तित्व के लिये संघर्ष करता होगा । शक्तिमान निर्बल का वध कारण प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य भाव रखो; आत्मतुल्य समझो, कर देता होगा । विजयी होकर भी उसके जीवन में अनिश्चयात्मकता सबके प्रति मैत्री भाव रखो, समस्त संसार को समभाव से देखो । रहती होगी । जिस दिन दो व्यक्तियों ने आपस में मिलकर परस्पर समभाव के महत्व का प्रतिपादन उन्होंने यह कहकर किया कि सद्भाव एवं प्रेम से रहने की बात सीखी उसी दिन परिवार एवं आर्य महापुरुषों ने इसे ही धर्म कहा है। समाज की संरचना की आधारशिला तैयार हुई । इस प्रकार अहिंसा आचार्य समन्तभद्र ने भगवान महावीर के उपदेश को व्यक्ति के चित्त को सामाजिक बनाती है । 'सर्वोदयतीर्थ' कहा है। आत्मतुल्यता की चेतना के विकास होने अहिंसा से अनुप्राणित अर्थतंत्र : अपरिग्रह : तथा समभाव की आराधना से व्यक्ति सहज रूप से धार्मिक हो जाता है । अहिंसा, अपरिग्रह एवं अनेकांतवाद जीवन के सहज अहिंसा के साथ ही जुड़ी हुई भावनाएँ हैं - अपरिग्रहवाद एवं आचरण की भूमिकायें हो जाती हैं। अनेकांतवाद । परिग्रह से आसक्ति एवं ममता का जन्म होता है । अपरिग्रह वस्तुओं के प्रति ममत्वहीनता का नाम है । जब व्यक्ति अहिंसा : जीवन का विधानात्मक मूल्य एवं भाव दृष्टि: अहिंसक होता है, रागद्वेष रहित होता है तो स्वयमेव अपरिग्रहवादी भगवान महावीर ने अहिंसा शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग हो जाता है। उसकी जीवन दृष्टि बदल जाती है । भौतिक-पदार्थों किया - मन, वचन, कर्म से किसी को पीड़ा न देना । यहां आकर के प्रति उसकी आसक्ति समाप्त हो जाती है । अहिंसा की भावना अहिंसा जीवन का विधानात्मक मूल्य बन गया । से प्रेरित व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को उसी सीमा तक बढ़ाता या महावीर ने अहिंसा के प्रतिपादन द्वारा व्यक्ति के चित्त को है, जिसमें किसी अन्य प्राणी के हितों को आघात न पहुंचे । बहुत गहरे से प्रभावित किया । उन्होंने संसार में प्राणियों के प्रति बहुत अधिक उत्पादन मात्र करने से ही हमारी सामाजिक आत्मतुल्यता-भाव की जागृति का उपदेश दिया, शत्रु एवं मित्र समस्याएँ नहीं सुलझ सकतीं । हमें व्यक्ति के चित्त को अन्दर से सभी प्राणियों पर समभाव की दृष्टि रखने का शंखनाद किया । बदलना होगा | जब व्यक्ति धर्म से प्रेरणा प्राप्त कर अपनी जब व्यक्ति सभी जीवों को समभाव से देखता है तो राग कामनाओं एवं इच्छाओं को स्वयं सीमित करना सीखेगा तभी बहुत द्वेष का विनाश हो जाता है । उसका चित्त धार्मिक बनता है। सा सामाजिक समस्याआ का सुलझाया जा रागद्वेष-हीनता धार्मिक बनने की प्रथम सीढ़ी है । इसी कारण ऐसा नहीं हो सकता कि कोई उन्होंने कहा कि भव्यात्माओं को चाहिये कि वह समस्त संसार को सामाजिक प्राणी सम्पूर्ण पदार्थों को समभाव से देखें | किसी को प्रिय और किसी को अप्रिय न । छोड़ दे । किन्तु हम अपने जीवन बनाएँ । शत्रु अथवा मित्र सभी प्राणियों पर समभाव की दृष्टि को इस प्रकार से ढाल सकते हैं कि रखना ही अहिंसा है। पदार्थ तो हमारे पास रहे किन्तु समभाव एवं आत्मतुल्यता की दृष्टि का विकास होने पर उसके प्रति हमारी आसक्ति न हो । व्यक्ति अहिंसक अपने आप हो जाता है । इसका कारण यह है धर्म यह प्रेरणा दे सकता है जिससे कि प्रत्येक प्राणी जीवित रहना चाहता है। सबको अपना जीवन हम अपन जावन म पदाथा का श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण सेवा कीजे सर्वदा, भज लीजे अरिहन्त । जयन्तसेन विमल मना, पाप कर्म का अन्त ।। ww.jainelibrary.org Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कांतवाद के आग्रह पूर्व वादी रूप में मात्रा का स्वयं नियमन करना सीखें, उनके प्रति अपने ममत्व को होते हैं । सत्य का सम्पूर्ण साक्षात्कार सामान्य व्यक्ति द्वारा एकदम कम करना सीखें। सम्भव नहीं हो पाता । अपनी सीमित दृष्टि से देखने पर हमें वस्तु समाज में इच्छाओं को संयमित करने की भावना का विकास के एकांगी गुण-धर्म का ज्ञान होता है । विभिन्न कोनों से देखने पर आवश्यक है । इसके बिना मनुष्य को शान्ति प्राप्त नहीं हो एक ही वस्तु हमें भिन्न प्रकार की लग सकती है तथा एक स्थान से सकती । 'परकल्याण' की चेतना व्यक्ति की इच्छाओं पर लगाम मायादेखने पर भी विभिन्न दृष्टियों की प्रतीतियां भिन्न हो सकती हैं। लगाती है तथा उसमें त्याग करने की प्रवृत्ति एवं अपरिग्रही भावना 'स्याद्वाद' अनेकांतवाद का समर्थक उपादान है; तत्वों को का विकास करती है। व्यक्त करसकने की प्रणाली है; सत्य कथन की वैज्ञानिक पद्धति परिग्रह की वृत्ति मनुष्य को अनुदार बनाती है उसकी ह। मानवीयता को नष्ट करती है । उसकी लालसा बढ़ती जाती है। पर मिथ्या ज्ञान के बन्धनों को दूर करके स्याद्वाद ने ऐतिहासिक धन लिप्सा एवं अर्थ लोलुपता ही उसका जीवन-लक्ष्य हो जाता है। भूमिका का निर्वाह किया, एकांतिक चिन्तन की सीमा बतलायी । उसकी जिन्दगी पाशविक शोषणता के रास्ते पर बढ़ना आरम्भ कर आग्रहों के दायरे में सिमटे हुए मानव की अन्धेरी कोठरी को देती है । इसके दुष्परिणामों को भगवान महावीर ने पहचाना था। अनेकांतवाद के अनन्त लक्षण सम्पन्न सत्य-प्रकाश से आलोकित इसी कारण उन्होंने कहा कि जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा करता किया जा सकता है । आग्रह एवं असहिष्णुता के बंद दरवाजों को है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है स्याद्वाद के द्वारा खोलकर अहिंसावादी रूप में विविध दृष्टियों एवं और अत्यधिक मूर्छा करता है । परिग्रह को घटाने से ही हिंसा, सन्दर्भो से उन्मुक्त विचार करने की प्रेरणा प्रदान की जा सकती असत्य, अस्तेय एवं कुशील इन चारों पर रोक लगती है। परिग्रह के परिमाण के लिए 'संयम' की साधना आवश्यक यदि हम प्रजातंत्रात्मक युग में वैज्ञानिक पद्धति से सत्य का है । 'संयम' पारलौकिक आनन्द के लिए ही नहीं, इस लोक के साक्षात्कार करना चाहते हैं तो अनेकांत से दृष्टि लेकर स्याद्वादी जीवन को सुखी बनाने के लिए भी आवश्यक है । आधुनिक युग प्रणाली द्वारा कर सकते हैं; विचार के धरातल पर उन्मुक्त चिन्तन में पाश्चात्य जगत ने व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के अतिरेक से उत्पन्न तथा अनाग्रह, प्रेम एवं सहिष्णुता की भावना का विकास कर स्वच्छंद यौनाचार एवं निर्बाध इच्छाओं को परितृप्त करने में सकते हैं । मानवीय जीवन की सार्थकता तलाशने के व्यामोह के कारण पिछले पर इस प्रकार विश्व-धर्म के रूप में जैन धर्म एवं दर्शन की दशका में जा सयमहान आचरण किया उसका परिणाम क्या आधनिक यग में प्रासंगिकता को आज व्याख्यायित करने की निकला है? निर्बाध भागों में निरत लक्ष्यहीन, सिद्धान्तहीन, आवश्यकता है । यह मनुष्य एवं समाज दोनों की समस्याओं का मूल्यहीन समाज की स्थिति क्या है ? ऐसे समाज के सदस्यों के अहिंसात्मक समाधान है । यह दर्शन आज की प्रजातंत्रात्मक पास पसा हो सकता है. धन दौलत हो सकती है मगर क्या उनके शासन-व्यवस्था एवं वैतानिक सापेक्षवादी चिन्तन के भी अनरूप जीवन में सुख, शान्ति, विश्वास, तृप्ति भी है? यदि जीवन में है । आदमी के भीतर की अशांति, उद्वेग एवं मानसिक तनावों को परस्पर प्रेम, विश्वास, सद्भाव नहीं है तो क्या इस प्रकार का यदि दूर करना है तथा अन्ततः मानव के अस्तित्व को बनाये रखना जीवन अनुकरणीय माना जा सकता है ? संत्रास, अतृप्ति, वितृष्णा है तो जैन दर्शन एवं धर्म की मानव में प्रतिष्ठा, प्रत्येक आत्मा की एवं कुंठाओं से भरा जीवन क्या किसी को स्वीकार्य होगा ? स्वतंत्रता तथा प्रत्येक जीव में आत्म शक्ति की स्थापना को विश्व वैचारिक अहिंसा : अनेकान्तवाद : के सामने रखना होगा । 'जैन धर्म एवं दर्शन मानव-मात्र के लिये अहिंसक व्यक्ति आग्रही नहीं होता । उसका प्रयत्न होता है समान मानवीय मूल्यों की स्थापना करता है । सापेक्षवादी सामाजिक कि व. दूसरों की भावनाओं को ठेस न पहुंचावे | वह सत्य की तो संरचनात्मक व्यवस्था का चिन्तन प्रस्तुत करता है, पूर्वाग्रह रहित खोज करता है, किन्तु उसकी कथन शैली में अनाग्रह एवं प्रेम होता उदार दृष्टि से एक दूसरे को समझने-समझाने और स्वयं को है। अनेकांतवाद व्यक्ति के अहंकार को झकझोरता है । उसकी तलाशने - जानने के लिये अनेकान्तवादी जीवन-दृष्टि प्रदान करता आत्यन्तिक दृष्टि के सामने प्रश्नवाचक चिह्न लगाता है । अनेकान्तवाद है, समाज के प्रत्येक सदस्य को समान अधिकार एवं अपने ही यह स्थापना करता है कि प्रत्येक पदार्थ में विविध गुण एवं धर्म प्रयत्नों से उच्चतम विकास कर सकने का आस्थावादी मार्ग प्रशस्त करता है। मधुकर-मौक्तिक खेत में से भूसा भी निकलता है और धान भी । किसान जो मेहनत करता है, वह धान के लिए करता है, भूसे के लिए नहीं। हम भी दुनिया भर की बातें सुनते हैं। वे सार्थक भी होती है और निरर्थक भी हमें सार्थक बातों को ग्रहण करना चाहिये और निरर्थक बातों को छोड़ देना चाहिये। दिमाग में से भूसा निकाल देना चाहिये । हमें सूप के समान बन जाना चाहिये । कहा भी है। मन तो ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय । सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय ।। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण जपत मंत्र नवकार को, अन्तर होत उजास । जयन्तसेन शान्ति मिले, रखो हृदय विश्वास ।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एस मग्गे आरिएहि पवेइए (प्रो. श्री कल्याणमल लोढ़ा) आचार्य समन्तभद्र का कथन है - को अपना कर लोकमानस के सर्वाधिक निकट पहुँचे - उन्होंने देवागमनभोयान-चामरादिविभूतयः । भाषायी अहंकार को नष्ट किया और आचार धर्म को ही मुख्य गिना 1 समाज की आन्तरिक चेतना को नवीन जागति दी। उनका मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् ।। धार्मिक प्रतिपादन और फल वर्तमान से सन्निविष्ट था - उन्होंने देवों का आना, गगन विहार, छत्र-चामर आदि विभूतियाँ बताया कि जिस क्षण धर्माचरण होता है उसी क्षण कर्म का भी ऐन्द्रजालिक व्यक्तियों को भी संभव है - आपके पास देवता आते. क्षय होता है । उमास्वाती ने इसी से कहा कि धर्म से उपलब्ध सुख थे, छत्र-चामर एवं यौगिक विभूतियों से सम्पन्न थे, इसलिए आप प्रत्यक्ष है। उनका कथन है - महान् नहीं - आपकी महानता यह है कि आपने सत्य को अनावृत निर्जितमदमदानां वाक्कायमनोविकासहितानाम् किया । सत्य को अनावृत करना. उसका परम रहस्य उदघाटित करना ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । वही दिव्य पथ का पाथेय है । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् । ऋषियों ने यही उद्घोष किया था - स-प्रशमरतिप्रकरण - २३८ । हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् अर्थात् जो व्यक्ति जाति, कुल, बल, रूप वैभव और ज्ञान-मद को तत्वंपूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये । ईशावास्योपनिषद् । ५। निरस्त करता है, काम-वासना पर विजय पाता है - विकृतियों से यह कौन सा सत्य है, जिसको पाने पर और समझने पर कुछ शेष रहित होता है - आकांक्षाओं से हीन होता - उसे इसी जन्म में उसी क्षण मोक्ष होता है । यह प्रत्यक्ष उपलब्धि मनुष्य को भविष्य से नहीं रहता | भगवान महावीर ने किस सत्य का संधान किया था । आचार्य हेमचन्द्र ने भी कहा - अधिक वर्तमान के प्रति आश्वस्त करती है । उसकी उपयोगिता जितनी आध्यात्मिक है, उतनी ही जागतिक भी । श्रेयस की साधना क्षिप्येत वान्यैः सदृशीक्रियेत वा ही धर्म है - यही है आत्म प्रकाश और चैतन्य का पूर्ण आलोक । तवांध्रपीठे लुठनं सुरेशितुः । भगवान ने बताया शाश्वत धर्म है - किसी भी प्राणी का अतिपात इदं यथावस्थित वस्तुदेशनम्, न करो उपद्रुत - न करो - परितृप्त न करो - अधीन मत करो । परैः कथं कारमपाकरिष्यते ।। महावीर का यह उपदेश, अहिंसा का यह उद्घोष आत्मोदय और लोकोदय दोनों दृष्टियों से मान्य है । आचार्य समन्तभद्र ने इसी से इन्द्र आपके पाद-पद्मों में लोटते थे, यह दार्शनिकों द्वारा खंडित हो जिन शासन को सर्वोदय कहा - सकता है - वे अपने इष्टदेव को भी इन्द्रजित कह सकते हैं, पर आपने जिस परम यथार्थ का निरूपण किया है वह तो सदैव सर्वान्तवद् तद् गुण-मुख्य कल्पं निर्विवाद है । प्रश्न उठता है वह यथार्थ क्या है ? जो शाश्वत है। सर्वान्तशून्यञ्च मिथोऽनपेक्षम् भगवान महावीर हमें बारबार स्मरण कराते हैं कि सत्य से युक्त सर्वापदामन्तकरं निरन्तं पुरुष धर्म को ग्रहण कर श्रेय समझता है - इसी से उनका आदेश सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।है : “हे पुरुष ! सत्य को अच्छी तरह जानो, सत्य की आराधना अब लोकोदय या सर्वोदय की व्यावहारिक दृष्टि से जैन धर्म को ही धर्म की आराधना है, क्योंकि सत्य में रत बुद्धिमान मनुष्य सब पाप-कर्मों का क्षय कर देता है उपयोगिता देखें | जैन धर्म आचार विचार को महत्व देता है, यही मानवीय नैतिकता की आधारशिला है | वैष्णव धर्म में जो महत्व का "सच्चं मि पेहावी कुव्वहा"-आचाराङ्ग । गीता का है, बौद्ध धर्म में धम्म पद का - वही महत्व जैन धर्म में इस पर विचार करने के पूर्व मैं स्पष्ट कर दूं कि वही धर्म - वही. उत्तराध्ययन का है, वह जैन धर्म की गीता है । जैनाचार्यों ने दर्शन - वही अध्यात्म सर्व स्वीकृत और देशकालातीत हो सकता आचार के भिन्न-भिन्न अर्थ किए हैं। है, जो व्यष्टि के साथ समष्टि के भी मंगल का आधार हो । जो आचार्य अभयदेव ने तीन अर्थ व्यक्ति के लिए भी परम मान्य हो पर साथ में हो लोकसिद्ध भी। आचरण, आसेवन और व्यवहरण जैन धर्म को प्रायः व्यक्तिनिष्ठ धर्म कहा जाता है - यह समीचीन किया है । स्थानाङ्ग (२/७२) में उसे नहीं । वह जितना व्यक्तिनिष्ठ है, उतना ही लोकनिष्ठ भी । यह श्रुतकर्म और चारित्र धर्म कहा है। ठीक है कि वीर प्रभु ने सामाजिक व्यवस्था का कोई विधान नहीं उमास्वाती आचार को सम्यग् दर्शन किया । सामाजिक परम्परा और अवधारणा को परिवर्तशील बताया सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र गिनते पर - जिन शाश्वत नैतिक मूल्यों की उन्होंने व्याख्या की वे व्यक्ति हैं। और समाज दोनों के लिए समानरूपेण हितकर हैं । वे लोक भाषा उत्तराध्ययन के अनुसार - यथार्थव को यह दाशी श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण आशा तज कर अन्य की, एक आश अरिहन्त । जयन्तसेन करे सदा, जन्म मरण का अन्त ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार माना । भारहीन पर। इसी से. यही मनुष्यत्व । नोरांचदसणं येव, चरित्तं च तवो तहा। उसमें तप को भी सम्मिलित किया है। स्थानाङ्ग में उसके पाँच भेद- ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार व वीर्याचार किए गए हैं । इन भेदों की तात्विक व्याख्या में न पड़कर यही कहना पर्याप्त है । आचार का अर्थ है - "आचर्यते इति आचार:" - आचरण ही आचार है - अर्थात् सदाचार | हलायुध कोश के अनुसार "विचार" भी आचार का ही एक रूप है । भारतीय मनीषियों ने "आचारः प्रथमो धर्मः" कह कर उसे प्रथम धर्म माना । भगवान महावीर के अनुसार भी: "आचारः प्रभवो धर्म:"- आचारहीन मनुष्य कभी पावन नहीं होता क्योंकि "आचारात् प्राप्यते विद्या"। मनु का स्पष्ट कथन है - "सर्वस्य तपसो मूलाचारं जगृहुः परम् । आचार ही सदाचार है । मानवीय नीतिबोध ही आचार है : नीति शब्द णीञ् (प्रापणे) इस धातु से “अधिकरण" अथवा "करण" इस अर्थ में "क्तिन्" प्रत्यय जोड़कर व्युत्पन्न होता है । "नी" का अर्थ है "ले जाना" | मनुष्य को सत्य दिशा की ओर ले जाना ही नीति का अर्थ है - नयनान्नीतिरुच्यते । नयन व्यापार करता है - ले जाता है दुष्प्रवृत्तियों से सद्प्रवृत्तियों की ओर - व्यक्ति को लोकमंगल की ओर | नीति ऐहिक और पारलौकिक कल्याण का साधन है । वेद के अनुसार - ऋजु नीतिनो वरुणो मित्रो नय तु विद्वान् (१-९०-१) | मित्र वरुण हमें कुटिलता रहित नीति का सुफल दें। अब जैन धर्म में आचार के व्यावहारिक स्वरूप को देखें । भगवान महावीर ने मनुष्यत्व को ही प्रधानता दी । महावीर के अनुसार प्राणियों के लिए चार अंग दुर्लभ हैं - मनुष्यत्व, सद्धर्म, श्रद्धा और संयम । उदाहरण लें - उत्तराध्ययन का कथन है “एवं भाणुस्सगकामादेवकामाण अन्तिए (७-१२) वे कहते हैं देवताओं में कामभोग मनुष्य से हजार गुणा अधिक है । जैन धर्म के अनुसार मनुष्यत्व ही मानवीय नैतिकता का मूलाधार है: चारित्र, त्याग, दया, प्रेम, और सेवा ही मनुष्यत्व के मापदण्ड हैं । भगवान महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन में मानवीय जीवन की सर्वोच्चता बताते हुए कहा - "माणुस्सं खु सु दुल्लहं", मनुष्य जीवन बड़ा दुर्लभ है । उन्होंने बतायापारसका चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजयमि य वीरियं ।। (उत्तराध्ययन ३-१). मनुष्य से महत्वपूर्ण मनुष्यता है - वही जीवन का अलभ्य वरदान है । उन्होंने बल दिया प्रकृतिभद्रता, मन, वचन और क्षमा की सरलता - कर्तव्यनिष्ठा और सत्य की आन्तरिक सच्ची अनभति पर | इसी से विश्व चेतना का विकास सम्भव है - और यही मानव धर्म है, यही मनुष्यत्व है, इससे ही आत्मदर्शन सम्भव है । भगवान महावीर मनुष्यों को "देवाणुप्पिय" कहकर सम्बोधित करते थे । आचार अमितगति के अनुसार - मनुष्यं भव प्रधानम्" मानुष सत्य ही सर्वश्रेष्ठ है । जैन धर्मानुयायी इस मनुष्यत्व की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करता है सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदायमात्मा विदधातु देवः । भारतीय धर्म साधना का यही परम लक्ष्य है - 'मनुर्भव' । मनुष्य बनो । वैदिक आदेश है - "ज्योतिर्गतः पथोरक्षः धिया - कृतान्" । बुद्धि से परिष्कृत ज्योतिमार्ग की रक्षा कर "मानुमन्बिहिं - प्रकाश पथ पर चल । यह प्रकाश पथ तभी मिलता है जब बिना किसी भेदभाव के सभी जीवों के साथ मैत्री, करुणा और समता से तादात्म्य हो । जो जीव-व्यक्ति सर्वात्मभूत है - सब प्राणियों को अपने हृदय में बसाकर विश्वात्मा बन गया है, उसके लिए न तो अन्धकार है - और न पाप । सव्व भूयप्प भूयस्स सम्मं भूयाइ पासओ। पिहिआसवस्स दं तस्स पावकम्मं न बंधइ - दशवैकालिक ४ इस विराट सत्य की उपलब्धि तभी हो सकती है, जब व्यक्ति में आत्मिक समानता हो । मेरी दृष्टि में यही महावीर का प्रथम सिद्धान्त है | समता का बोध ही धर्म है - समियाएं धम्मो आरएहि पवेइए । यही समत्व जीवन के सारे वैषम्य को समाप्त कर अहिंसा का सात्विक उद्रेक करता है । महावीर ने मनुष्य को आत्मनिर्णय और आत्मानुशासन का अधिकार दिया । उन्होंने आत्मवाद के साथ-साथ सापेक्षता (स्याद्वाद) की राह बतायी । प्रेम, मैत्री, करुणा, प्रमोद, अपरिग्रह का यही रहस्य है। मनुष्य में इन सद्गुणों के विकास के लिए आवश्यक है कि वह हिंसा, प्रमाद, राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, घृणा, क्रोध आदि से मुक्त हो । कषाय जीवन की ऊर्ध्व गति और उसके विकास में बाधक हैं। महावीर ने न जोधपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति । १९५९ से १९७९ तक कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी के संकायाध्यक्ष एवं सांस्कृतिक भाषा मंडल के अध्यक्षा राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी के कार्य विकास के संसाधनों व विधियों की अनुशंसा के लिए | गठित एक व्यक्ति जांच आयोग में नियुक्त । कई विश्व विद्यालयों प्रो. श्री कल्याणमल लोढा के सलाहकार तथा विशेषज्ञ के रूप में कार्य किया । कई शैक्षिक प्रवृत्तियों व संस्थाओं से सम्बद्ध । कई राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं से सन्मान एवं पुरस्कार प्राप्त । भारतीय आधुनिक साहित्य पर लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान, लेखक, कुशल-वक्ता । कई विश्वविद्यालयों के सेमीनारों में विस्तार से भाषण । सम्प्रति - २-ए, देशप्रिय पार्क ईस्ट, कलकत्ता - ७०० ०२९. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण देव सदा अरिहन्त को, ध्यावे जो दिन राज । जयन्तसेन जनम सफल, दुष्कर्मोका घात ।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाने कितनी बार इन दोषों के प्रति हमें सचेत किया कहा " महुत्तम वि न पमायए" तू मुहूर्त के लिए भी प्रमाद न कर । एक पौराणिक घटना का उल्लेख भी कर दूँ । लक्ष्मी को एक बार पथ में बैठी देख कर इन्द्र ने पूछा - "आजकल आप कहाँ रहती हैं।" उसका उत्तर था गुरवो यत्र पूज्यन्ते वाणी यत्र सुसंस्कृता । अदन्तको यत्र तत्र शक्र वसाम्यहम् ॥ छ अर्थात् मैं वहां रहती हैं जहाँ प्रेम का अखण्ड राज्य है, समाज में कलह-कोलाहल नहीं है, जहाँ करुना और मैत्री है, सहकारिता है - एक प्रकार से यह उत्तर जैन धर्म के नैतिक प्रत्ययों को स्पष्ट करता है । मानव-जीवन में यह नैतिक बोध तभी सम्भव है जब संकल्प और श्रद्धा का अडिग बल प्राप्त हो कहा भी है "श्रद्धा प्रतिष्ठा लोकस्य देवो" वीरप्रभु कहते हैं "श्रद्धा परम दुल्लहा"। प्राणिमात्र में जिजीविषा प्रबल है। सबको जीवन प्रिय है आज तो विज्ञान ने यह भी सिद्ध कर दिया कि पेड़-पौंधों, लता-पुष्पों सबमें वही प्राण-प्रियता और जिजीविषा है, जो मनुष्य में है । वर्तमान काल में वैज्ञानिकों द्वारा की गयी गवेषणाएँ इसका प्रमाण है । इसीलिए कहा भी है - अभेध्यमध्यस्य कोटस्य सुरेन्द्रस्य सुरालय । सदृशो जीवने वांछा तुल्यं मृत्युभयं द्वयोः ॥ महावीर की अहिंसा का यही सिद्धान्त है । आचाराङ्ग में उन्होंने हिंसा की विभिन्न स्थितियों का वर्णन किया है सर्वप्राणी, सर्वभूत, सर्वजीव, सर्व तत्त्वों को असत् अप्रिय है, महाभय का कारण दुःख है। महावीर ने कहा सत्वे जीवा विच्छन्ति जीवि नमरिजिडे तन्हा पारि व कोरं निग्धा वज्जयंतिणं ॥ सभी सूख चाहते हैं - दुःख नहीं, "सव्वेपाणी सुहसाया दुह पडिकूला" अहिंसा का ऐसा यह दर्शन अन्यत्र दुर्लभ है। इसके लिए आवश्यकता है संयम, विवेक और समत्व की । शांतसुधारस में उपाध्याय विनयविजय लिखते हैं : अधुना परभाव संवृतिं हर चेतः परितोऽवगुण्ठिताम् SISIB UPA FPS द्रुमवातोर्भिरसाः स्पृशन्तु माम् । ह चित्त पर चारों ओर आवरण डालने वाली परभाव की कल्पना से दूर हटें, जिससे आत्म चिन्तत रूपी चन्दन वृक्ष का स्पर्श कर आने वाली वायु की उर्मियों से चूने वाले रस-कण क्षण भर के लिए छू जाएं। सार तत्व है "जो समोसत्वभूदेसु थावरेसु तसेसुवा" । यह समभाव 'कथनी' से नहीं 'करनी' से आता है "भणन्ता अकरेन्ताय बंध मोधक्ख पइण्णिणे", वाया विरिय मेत्तेण समासा सेन्ति अपर्य" । आत्मा की गहराइयों तक पहुँचने से, विशुद्ध अन्तःकरण से रागद्वेष रहित जीव का अनन्य परिणाम है- आत्म दर्शन | आचार्य सोमदेव ने व्यक्ति के साथ-साथ सामाजिक जीवन में भी समभाव के आचरण को प्रतिष्ठित करने के लिए कहा "सर्वा सत्वेषु' हि समता सर्वाचरणानां परमाचरणम्" । जैन दर्शन श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (<) में नैतिकता का आधार यही समभाव है उसकी उपलब्धि होती है ज्ञान, सदाचार, तप, शील और संयम से "आयओ बहिया पास तुम्हा न हंता न विधाइए" - दूसरे प्राणियों को आत्मा तुल्य देखना आवश्यक है । समभाव की यह प्रमुखता प्रायः सभी भारतीय धर्म और दर्शन में मिलती है, पर जैन धर्म में उसका विशेष उपयोग है । इसने जैन धर्मानुयायियों को उदार और विनय सम्पन्न बना दिया । उदारता की मूल भित्ति जीवन की उन महान प्रक्रियाओं से अनुस्यूत होती है, जहाँ मान्यताओं में न तो पूर्वाग्रह रहता है और न संकीर्ण मनोभाव जैनाचार्यों ने इसी उदारता का उद्घोष किया है । पंचपरमेष्ठि को ही लें - इसमें न तो कहीं तीर्थंकर का नामोल्लेख है और न धर्म का ही जो भी अरिहंत हैं, सिद्ध हैं, आचार्य उपाध्याय और साधु हैं उन सबको नमस्कार है । उदार चरित्र वाले ही वसुधा को अपना कुटुम्ब समझ सकते हैं। आचार्य हरिभद्र आचार्य सिद्धसेन व आचार्य हेमचन्द्र आदि अनेक आचायों ने इसी उदारता का प्रमाण दिया । पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु To fift युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः । इस उदार दृष्टिकोण के साथ ही विनय का नैतिक गुण जुड़ा है। जैनधर्म काय, याचिक और मानसिक विनयशीलता पर जोर देता है | विनय ही धर्म का मूल है। "धमस्स विणओ मूल" जैन धर्म की मान्यता है कि 'विणओ, मोक्खद्वारं, विणयादा संजमो तवो णाणं' - विनय ही मोक्ष का द्वार है । विनय से ही संयम, तप और ज्ञान सम्भव है क्योंकि विनय से चित्त अहंकार शून्य होता है सरल, विनम्र और अनाग्रही । उदारता और विनय आचार-विचार के दो नैतिक मूल्य हैं। जैनधर्म ने जिस प्रकार समत्व, औदार्य और विनय को महत्व दिया उसी प्रकार संयम, क्षमा, आर्जव, मार्दव को भी धर्म के कुंद ने द्वादशानुपेक्षा में दश धर्म इस प्रकार बताए हैं क्षमा, चार द्वार हैं- क्षमा, सन्तोष, सरलता और विनय । आचार्य कुंद मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य । क्रोध आत्मा को संज्वलित करता है । आज यह प्रमाणित हो गया है कि क्रोध आधि-व्याधि का कारण है उसका हनन अपेक्षित है। इसमें डॉ. “भवति कस्य न कार्यहानिः " विलियम्स का मत द्रष्टव्य है । क्रोध किसकी हानि नहीं करता । क्षमा बैर का नाश करती है। समस्त जीवों से क्षमा मांगना अन्तर्बाह्य की निर्मलता का प्रमाण है । "मृदोर्भावः मार्दवम्” मार्दव, कोमलता व आर्जव ऋजुता है, अर्थात् सरलता व सहजता । शौच अनासक्त भाव है। वह लोभ का निराकारण है जहाँ लाभ है, वहाँ लोभ है "जहा लाहो तहा लोहो" । लोभ और लाभ एक-दूसरे से जुड़े हैं । शौच उन्हें निरस्त करता है "सोयं अलुद्धा धम्मो वगरणुसवि" । सत्य ही प्रज्ञा है । जैन धर्म कहता है "पन्ना समिक्खए धन्यं" प्रज्ञा से ही धर्म की मीमांसा सम्भव है । महावीर कहते हैं-मुनि ! लोक के स्वरूप सत्य की खोज प्रीत भली अरिहन्त की, करो सदा सुखकार । जयन्तसेन निश्चल मति, पावत जलनिधि पार । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करो | सत्य-साधना अन्तःकरण को निर्मल बनाती है । आचार्य समन्तभद्र ने जिस सत्य को अनावृत्त करने का उल्लेख किया है, उसका आधार है विचार और विवेक से बोलना, क्रोध का परित्याग करना, लोभग्रस्त न होना, निर्भय रहना और हँसी न करना । ये ही सत्यव्रत की पाँच भावनाएँ हैं । दशवैकालिक ने चार आवेगों का दमन इस प्रकार बताया गया है - क्रोध का उपशम से मान का मृदुता से, माया का ऋजुता से और लोभ का सन्तोष से । वीरप्रभु ने कहा आचार शुद्धि के लिए आहार शुद्धि आवश्यक है और विचार शुद्धि के लिए आचार शुद्धि । अहिंसा के पश्चात् सत्य द्वितीय महाव्रत है । संयम वह नैतिक गुण है, जिसके बिना आत्मोपलब्धि सम्भव नहीं । संयम आन्तरिक वृत्ति की पवित्रता और इन्द्रियों का अन्तर्मुखी प्रवाह है । उमास्वाती ने "तत्त्वार्थ सूत्र में" संयम पर विशेष प्रकाश डाला है । भगवान महावीर ने आदेश दिया - जयंचरे जयं चिट्ठे जयमासं जयं सए । जयं भुंजन्तो भासन्तो पावकमन बंधइ ।। मन, वचन और कर्म की सावधानी संयम है। जैनधर्म मनुष्य को नैतिक मूल्यों से जोड़ता हुआ, उसे आत्मदर्शन की प्रज्ञा भूमिका पर ले जाता है | आज मनुष्य विवेकहीन हो गया है - विवेकहीनता उसे स्पर्धा, स्वार्थ, सत्ता और सम्पत्ति, हिंसा, मोह, लोभ, तृष्णा, दुर्भाव, कषाय की ओर ले जाकर पाशविक बना रही है । - यह अराजकता जितनी बाहर है उतनी ही भीतर | प्रदूषण की विभीषिका जहाँ समूचे पर्यावरण को नष्ट कर रही है, वहाँ मनुष्य के अन्तःकरण को भी । अधिकारलिप्सा के आगे कर्तव्यनिष्ठा समाप्त हो गयी है | आज वैज्ञानिक भी अपनी प्रयोगशाला से परे यह निर्द्वन्द्व भाव से स्वीकार करते हैं कि विश्व-शांति की संभावना विज्ञान और तकनीकी जड़ शक्ति से संभव नहीं । वह संभव है अध्यात्म की प्रेरणा से और मानवीय जीवन की नैतिक उच्चता से । जैनधर्म की अर्थवत्ता मनुष्य को पुनः मनुष्यत्व की नैतिक उच्चता और अध्यात्म की ओर ले जाने में है । भगवान महावीर ने जो क्रान्ति की थी, वह उसके अन्तर्बाहय को सत्याभिमुख करने की थी । उसकी पाशविकता को समाप्त कर जीवन में पूर्णता की उपलब्धि को | अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को, वीरप्रभु ने जिन नैतिक मूल्यों को, मनुष्य के आचरण के लिए अनिवार्य बताया था - आज विश्व के सभी चिन्तक उन्हें ही सर्वतोभावेन स्वीकार करते हैं । आधुनिक नीतिशास्त्र का आत्मप्रसादवाद (इयूड्योमोनिज्म) इसका उदाहरण है । नैतिक उच्चता व्यक्ति के मानसिक, वैयक्तिक और सामाजिक सहकारिता और सामंजस्य से ही संभव है | मानवीय पूर्णता के लिए उसके संवेगों और कषायों पर बौद्धिक नियंत्रण आवश्यक है । आधुनिक नीतिशास्त्र व्यक्ति के आचरण के लिए मूल्य चैतन्य को अनिवार्य गिनता है । इसी प्रकार अन्य सिद्धान्त “मिल्योरिज्म"का है । इसकी मान्यता है कि मनुष्य अपने आत्मिक विकास से जीवन को उच्चतम बना सकता है। यही आत्मदर्शन की स्थिति है । इस सिद्धान्त के अनुसार मानव मूलतः संत्रास, अवसादमय और नैराश्यपणं नहीं है। मनष्य अपने आचरण से अपना और अन्य व्यक्तियों का जीवन सुधार सकता है । जीवन में संघर्षों से जूझकर वह परम आत्मचैतन्य से संपृक्त हो अपना और लोक का जीवन नैतिक प्रत्ययों से पूर्ण कर सकता है, पर इसके लिए आवश्यक है। आचार और विचार की उच्चता और सामाजिक अवस्था में आमूल परिवर्तन | आत्मविश्वास की यात्रा में क्लान्त होकर बैठना उचित नहीं । धर्म की परिपूर्णता उसके सदाचार, सद्व्यवहार और सद्गुणों पर ही आधृत है । मार्टिन लूथर की मृत्यु के पश्चात् उसके शव को उसकी पत्नी ने महात्मा गांधी के चित्र के नीचे रखा क्योंकि वे अहिंसा, सत्य, मैत्री, प्रमोद, करुणा और मानवीय समता के मूर्त रूप थे । आधुनिक, नैतिक चिंतन को प्रायः दो प्रकार से आंका जाता है - पारंपरिक नैतिक मूल्य और आलोचनात्मक नैतिक मूल्य | एक शास्त्र सम्मत जीवन प्रक्रिया के लिए है और दूसरा सत्य के संधान का सनातन पक्ष । कहना न होगा कि भगवान महावीर के नैतिक मूल्य - आचार सिद्धान्त इन दोनों का पूर्ण समन्वय है - सामंजस्य । उन्होंने हमारे आंतरिक और बाय व्यक्तित्व को जो आचार संहिता दी, वह देश कालातीत, सनातन और शाश्वत है। उन्होंने बताया कि बाय और आंतरिक स्त्रोतों के छेदन से ही पाप निष्कृत होते हैं। उनका कथन है कि केवल शास्त्रों के अध्ययन से व्यक्ति आत्म-लाभ नहीं कर सकता, उसके लिए आवश्यक है नैतिक रूपान्तरण । इसीलिए वीरप्रभु ने कहा "अप्पणा' सच्च मे सेज्जा" तुम सत्य का स्वयं संधान करो । संसार में न कोई उच्च है और नीच-न श्रेष्ठ न हीन । सभी समान हैं। उनका स्पष्ट उद्घोष था - "सक्खं खु दीसइ तवो विससे । न दीसइ जाइ विसेष कोइ॥ जीवन में विशेषता साधना की है, जाति की नहीं, कर्म की है, जन्म की नहीं - "कम्मुणा बम्यणो होइ" और "समयाए समणो होइ" | महावीर कहते हैं - "प्रमत्त मनुष्य इस लोक और परलोक में सम्पत्ति से त्राण नहीं पा सकता, वह तो स्वार्थ का साधन है, परमार्थ का नहीं | सम्पदा महामय का कारण बनती हैं - संग्रह और परिग्रह की भावना में त्याग, अध्यात्म भाव - अनासक्ति नहीं । सही है कि हमारी यात्रा लम्बी है - कहीं कोई विश्राम नहीं अन्यत्र संबल नहीं, पाथेय नहीं | अपने आत्मबल से ही संसार सागर के तट पर पहुँचना है | जो लोभ, क्रोध, मान, माया, रागद्वेष और इन्द्रियासक्ति की वैतरणी पार नहीं कर सके, वे उसमें डूब जायेंगे, भवसागर का पार नहीं पा सकेंगे - "अपारंगमा ए ए नो य पारंगमित्तए" इसे पार करने के लिए जिस पुरुषार्थ की आवश्यकता है, वह पुरुष के ही भीतर है, बाहर नहीं - बंधन और मुक्ति वहीं है- भीतर | उसे अन्यत्र खोजना वृथा है । दुःख सुख में समान भाव से रहने वाला प्रमादहीन होकर संयम से उत्तम चरित्र प्राप्त करता है । इसी से जैन धर्म श्रद्धा और संयम पर बल देता है । पुरुषार्थ भाव से संयम को सम्यक रूप से स्वीकार करना है । प्रभु ने हमें सचेत किया कि भाषा का दुराग्रह हेय है । बताया कि केवल विद्या या शास्त्र हा मनुष्य को शेष भाग (पृष्ठ १३ पर) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (९) ममता रख अरिहन्त से, समता उर में घार | जयन्तसेन वृत्ति यही, अन्तर मन का सार Ily.org Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान-साधना : जैन दृष्टिकोण (डॉ. श्री नरेन्द्र भानावत) "जिन" का अनुयायी जैन कहा जाता है | "जिन" वह है, जिसने राग-द्वेष रूप, शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बल को आत्मसात् कर लिया है। "जिन" किसी व्यक्ति विशेष का नाम न होकर उस आध्यात्मिक अवस्था की, अनुभूति है, जिसमें अक्षय, अव्याबाध आनन्द की सतत स्थिति बनी रहती है । इसे सिद्ध, मुक्त, परमात्म अवस्था भी कहा जाता है । प्रत्येक प्राणी में इस अवस्था को प्राप्त करने की क्षमता और शक्ति निहित है । दूसरे शब्दों में आत्मा ही परमात्मा होता है और प्रत्येक आत्मा में परमात्मा स्थिति तक पहुँचने की योग्यता है | इस दृष्टि से जैन परम्परा में ईश्वर या परमात्मा एक नहीं, अनेक हैं। सभी स्वतंत्र हैं, उनका सुख "पर" पर आश्रित नहीं, वे स्वाश्रित और स्वाधीन हैं। सब में गुण-धर्म की समानता है । अन्य के कारण किसी प्राणी को सुख-दुःख नहीं मिलता । प्रत्येक प्राणी के सुख-दुःख का कारण वह स्वयं है । अपने सत् कर्मों के कारण वह सुख पाता है और दुष्कर्मों के कारण दुःख पाता है | राग और द्वेष कर्म-बीज हैं, जिनके कारण जीव की स्वाभाविक आत्मशक्तियाँ सुषुप्त पड़ी रहती हैं और उन पर कई प्रकार की परतें छायी रहती हैं, उसी प्रकार आत्म गुण-रत्न नानाप्रकार की दोष व विकाररूपी पर्तों से आवृत्त-आच्छादित बने रहते हैं । इन विकारों की पर्तों को छेदकर-भेदकर आत्म-शक्तियों का विकास किया जा सकता है. गण-रत्नों को चमकाया जा सकता है । विकारों पर विजय प्राप्त करने की, गुण-रलों को चमकाने की साधना के कई रूप है, उनमें ध्यान-साधना का प्रमख स्थान है। मूल आगमों में "जैन" शब्द का प्रयोग नहीं मिलता । वहाँ अर्हत्, अरिहन्त, निर्ग्रन्थ और श्रमण धर्म का प्रयोग विशेष रूप से हुआ है । "अर्हत्" का अर्थ है - जिसने अपनी सम्पूर्ण योग्यताओं का विकास कर लिया है । जिसने राग-द्वेष रूपी अरि अर्थात् शत्रुओं का अन्तकर दिया है, वह अरिहन्त है । "निर्ग्रन्थ" वह, जिसने समस्त दोषों, पापों और विकारों की गांठों का छेदन-भेदन कर दिया है । "श्रमण" वह है, जिसके सारे पाप-दोष शमित हो गये हैं, प्राणी मात्र के प्रति जिसके मन में समता, मैत्री और प्रेम का भाव है, जो अपने सख के लिए किसी अन्य पर निर्भर नहीं स्वयं के श्रम, पुरुषार्थ और पराक्रम से जिसने उसे प्राप्त किया है। इस प्रकार अर्हत, निर्ग्रन्थ और शम-सम-श्रम की साधना के पथ पर -श्रम की साधना के पथ पर चलने वाला साधक जैन है। जैन मान्यता के अनुसार प्रत्येक जीव की आत्मा, अपनी विशुद्धतम स्थिति में परमात्मा है । पर आत्मा के साथ मन और इन्द्रियों का संयोग होने से वह शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि विषयों में प्रवृत्ति करती रहती है । अनुकूल-के प्रति राग और पतिकल के प्रति देष-भावों में उलझी रहती है। इस कारण नानाविध विकारों, दोषों और पापों से उसकी शुद्धता-निर्मलता प्रदूषित होती रहती है । इस प्रदूषण के कारण उसकी तेजस्विता धूमिल और मन्द पड़ जाती है। जैन दार्शनिकों ने इस प्रक्रिया को संवर और निर्जरा कहा है । ध्यान-साधना प्रकारान्तर से संवर और निर्जरा की साधना है। जैनेतर दर्शनों में परमात्म-शक्ति से साक्षात्कार करने की साधना को योग कहा गया है | वहाँ योग का अर्थ है - जोड़, आत्मा का परमात्मा से जुड़ना, मिलना । पर जैन परम्परा में योग शब्द का प्रयोग भिन्न अर्थ में किया गया है । यहाँ आत्मा-परमात्मा से मिलती नहीं वरन् कर्म के आवरणों को भेदकर, समस्त कर्म-राज को हटाकर विशुद्ध और निर्मल होकर स्वयं परमात्मा बनजाती है । आत्मा के इस परमात्मीकरण में मन, वचन और काया की कषाय युक्त प्रवृत्तियाँ बांधक हैं । इन प्रवृत्तियों को जैन दार्शनिकों ने "योग" कहा है । यहाँ भी योग का अर्थ जुड़ना है पर परमात्मा से नहीं वरन् सांसारिक विषयों से | जब साधक मन, वचन व काया के योग को सांसारिक विषयों के योग से हटाता है, अलग करता है, तब वह अपनी परमात्माशक्ति से जुड़ पाता है। स्वयं परमात्ममय हो जाता है। इस अर्थ में जैन अयोग जैनेतर दर्शनों का योग है । यहाँ का अयोगी जैनेतर दर्शनों का परमयोगी है। जैन परम्परा में ध्यान आभ्यन्तर तप का एक प्रकार है । इसके द्वारा कर्म-विकारों को दग्ध किया जाता है, नष्ट किया जाता है। पर इस स्थिति तक पहुंचना सहज-सरल नहीं है । इसके लिए सम्यक् दृष्टि और सम्यक् बोध की आवश्यकता है । स्थानांग, भगवता सूत्र, उववाई आदि जैन आगमों में ध्यान का उल्लेख और विवेचन आया है। वहाँ ध्यान के चार प्रकारों में आर्तध्यान और रौद्र ध्यान को त्याज्य तथा धर्म ध्यान व शुक्ल ध्यान को ग्राह्य बताया है | आर्त व रौद्र ध्यान व्यक्ति की राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति के सूचक हैं । इनसे व्यक्ति व्याकुल, अशान्त, व्यग्र, दुःखी, क्रूर, हिंसक, ईर्ष्यालु, दंभी, लोभी, मायावी और परपीड़क बनता है । आर्त्त और रौद्र ध्यान की दुष्प्रवृत्तियों को छोड़े बिना व्यक्ति धर्मध्यान की ओर अग्रसर नहीं हो सकता । महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग साधना में ध्यान को सातवां योग बताया है तो भगवान महावीर ने द्वादशांग तप-साधना में ध्यान को ग्यारहवाँ स्थान दिया है । पतंजलि के अनुसार ध्यानसाधक के लिए यह आवश्यक है कि वह यम-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह; नियम-शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार - इन्द्रियों को अपने-२ विषयों से हटाकर अन्तर्मुखी बनाना और धारणा - चित्त को किसी ध्येय में स्थिर करने - का पालन करे । महावीर के अनुसार श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१०) बिना इष्ट मिलता नहीं, जग में दिव्य प्रकाश । जयन्तसेन रखो हृदय, परमेष्ठी अधिवास ।। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी यह आवश्यक है कि तपरूप ध्यान-स्थिति तक पहुँचने के लिए साधक अनशन आदि छ: बाह्य तप करता हुआ दोषों की विशुद्धि के लिए प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य और स्वाध्याय रूप अन्तरंग तप-साधना करे । जब तक यह भूमिका नहीं बनती, सच्ची ध्यान साधना संभव नहीं। आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान के त्याग तथा धर्म ध्यान की धारणा के लिए निम्न बातों का होना आवश्यक है - १. सम्यक्त्व-बोध २. व्रत-ग्रहण ३. प्रतिक्रमण ४. स्व-संवेदन (१) सम्यक्त्व-बोध - जब तक व्यक्ति इन्द्रिय स्तर पर जीता है, वह अनिष्ट के संयोग एवं इष्ट के वियोग पर दुःखी बेचैन और व्याकुल होता रहता है । इन्द्रिय-जन्य भोग की लालसा उसे चंचल बनाये रखती है । इस लालसा की पूर्ति कभी होती नहीं, वह उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । इसकी पूर्ति न होने पर व्यक्ति क्रंदन, रुदन, शोक, संतापरूप, नानाविध दुःखों में डूबा रहता है । शरीर से परे वह कुछ सोच नहीं पाता | शरीर-संबंधों को ही वास्तविक संबंध मानकर उन्हें निभाने में ही वह अपने पूरे जीवन को खो देता है । उसके सारे क्रियाकलाप देह-संबंधी भोगों के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटते रहते हैं । यह देह दृष्टि उसे कभी आत्मबोध नहीं होने देती । जब इन्द्रिय-भोगों के प्रति उसमें विरक्ति का भाव अंकुरित होने लगता है और अनुभूति के स्तर पर वह इन्हें नश्वर, नीरस और निरर्थक समझने लगता है तब कहीं उसका सम्यक्त्वबोध जाग्रत होपाता है । इस बोध के जाग्रत होने पर वह दुःख के कारणों से बचने का प्रयल करता है | धीरे-२ उसके विचारों मेंयह पैठने लगता है कि सच्चा सुख कामना-पूर्ति में नहीं । अतः इसके लिए क्यों हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और आसक्ति-संग्रह रूप पाप का व्यवहार किया जाय, दूसरों को कष्ट दिया जाय, दूसरों का हक छीना जाय । यह बोध उसे अंधकार से प्रकाश की ओर, जड़ता से चेतना की ओर, उच्छृखल भोगवृत्ति से मर्यादित जीवन की ओर ले जाता है। २. व्रत-ग्रहण - सम्यक्त्व बोध द्वारा जब अन्दर की जड़ता महसूस होती है तब उसे दूर करने के लिए पुरुषार्थ करने का भाव जाग्रत होता है । यह पुरुषार्थ भाव उसे विरति की ओर ले जाता है । इसमें अपनी शक्ति और संकल्प के अनुसार हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से बचने के लिए व्रत-ग्रहण का भाव पैदा होता है। अपने द्वारा दूसरों को दुःख देने की प्रवृत्ति धीरे-धीरे कम होती है और ज्यों - २ व्रत-निष्ठा मजबूत होती है त्यों - २ यह भावना जाग्रत होती है कि दूसरों के दुःख को दूर करने में अपनी वृत्तियों का संकोच करना पड़े, तो क्या किया जाय । वृत्तियों के संकोच से इन्द्रिय-भोगों पर नियंत्रण होने के साथ ही निष्प्रयोजन हिंसक वृत्ति से बचाव होता है और दैनिकचर्या मर्यादित-संयमित बनती है। इससे समता का भाव पुष्ट होता है और आत्म-गुणों का पोषण होता है । पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रतरूप श्रावक के बारह व्रतों का विधान इसी भावना से किया गया प्रतीत होता है। इसमें श्रावक को, साधक को अपनी शक्ति और साधना - पथ पर बढ़ने की मानसिक तैयारी के अनुसार व्रत-नियम ग्रहण करने की व्यवस्था है। ३. प्रतिक्रमण : वास्तविक ध्यान वस्तुतः अपने स्वभाव में होना है, अपनी पहचान करना है । यह पहचान जब तक मन बहिर्मुख बना रहता है । तब तक नहीं होती । बहिर्मुख मन ग्रहण किये हुए व्रतनियमों की भी स्खलना करता है, विभाग में भटकता रहता है, नैतिक नियमों का अतिक्रमण करता रहता है । इस बहिर्मुख मन को अन्तुर्मख बनाने की साधना, ध्यान की प्रथम सीढ़ी/अवस्था है । मन बाहर से भीतर की ओर प्रवेश करे, यही प्रतिक्रमण है । इससे मन की सफाई होती है, साथ ही अशुभ विचारों का कचरा हटता है। प्रतिक्रमण साधक के लिए आवश्यक क्रिया है, कर्त्तव्य है । दिन में हुए अपने कर्मों पर सम्यक् चिन्तन करना दिन का प्रतिक्रमण है और रात में हुए कार्यों पर चिन्तन करना रात का प्रतिक्रमण है । जिसकी वृत्ति जितनी सरल होती है, वह तुरन्त अपने पापों का प्रायश्चित्त कर लेता है । यदि प्रतिदिन - प्रति रात पापों का प्रायश्चित्त/परिष्कार न हो सके तो पाक्षिक प्रतिक्रमण किया जाना चाहिये । यदि पक्ष भटके अर्थात् १५ दिन के पापों का प्रायश्चित्त/परिष्कार भी न हो सके तो चातुर्मासिक प्रतिक्रमण इस दृष्टि से अपना विशेष साधनात्मक महत्व रखते हैं और यदि इतने पर भी मन की गांठें पूरी तरह न खुलें तो सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के साथ दोषों को न दोहराने का संकल्प आवश्यक है। यदि दोष दोहराये जाते रहें और प्रतिक्रमण की प्रक्रिया चलती रहे तो समझना चाहिये कि साधना यांत्रिक हो गयी है । उसकी हार्दिकता गायब हो गयी है । ऐसी प्रतिक्रमण-प्रक्रिया जीवन में रूपान्तरण नहीं ला पाती। जिसे हम प्रतिक्रमण कहते हैं, शास्त्रीय भाषा में उसे आवश्यक कहा गया है, जिसके छः प्रकार हैं :१. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वन्दन ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान सामायिक समताभाव की साधना है। इसमें प्राणिमात्र के प्रति मैत्री और प्रेमभाव दर्शाते हुए हिंसाकारी प्रवृत्तियों से बचने का संकल्प किया जाता है । चतुर्विंशतिस्तव में उन २४ तीर्थंकरों राजस्थान विश्वविद्यालयसे 'राजस्थानी वेलि साहित्य' पर पी. एच. डी. उपाधि प्राप्त की । लगभग ५० पुस्तकों तथा १०० से अधिक शोध निबन्धों का प्रकाशन | 'जिनवाणी' 'वीर-उपासिका' के सम्पादक एवं 'स्वाध्याय शिक्षा' 'स्वाध्याय संदेश' 'राजस्थानी-गंगा', 'वैचारिकी' के सम्पादक मंडल के सदस्य । अ. भा. जैन विद्वत् परिषद के महामंत्री । अ. भा. जैन पत्रकार परिषद के केन्द्रीय कार्य समिति के सदस्य । श्रेष्ठ वक्ता, कुशल लेखक, सिद्धहस्त शब्द शास्त्री। वर्तमान में आप राजस्थान विश्वविद्यालय में हिन्दी के वरिष्ठ एसोशिएट प्रोफेसर एवं हिन्दी प्राध्यापक समिति के संयोजक हैं। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (११) देव गुरू धर्म की, भक्ति सदा दिल घार | जयन्तसेन पवित्र हो, जीवन पथ संसार Ilyorg. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का स्मरण-ध्यान किया जाता है, जिन्होंने समस्त विषय-विकारों पर जैन आगमों में धर्म-ध्यान के ४ प्रकार बताये हैं - १. आज्ञा विजय प्राप्त कर अपनी आत्मशक्तियों का पूर्ण विकास कर लिया -विचय २. अपाय विचय ३. विपाक विचय और ४. संस्थान है । वन्दन में अरिहन्त-सिद्ध रूप देव एवं आचार्य, उपाध्याय, विचय । विचय का अर्थ है - विचार करना, जागतिक पदार्थों से, साधुरूप गुरु को वन्दन कर अहम् से मुक्त होने का उपक्रम किया सांसारिक प्रपंचों से मन को हटाकर आत्म-स्वभाव में मन को जाता है । प्रतिक्रमण में ग्रहण किये हुए व्रत-नियमों की परिपालना लगाना, आत्मा की स्वाभाविक शक्तियों की खोज करना । आज्ञा में जो स्खलना हो जाती है, उनका चिन्तन कर उन्हें निःसत्व करने विचय का अर्थ है - आप्त पुरुषों, आगम-प्रमाणों और "जिन" का तथा उन दोषों की पुनरावृत्ति न करने का ध्यान किया जाता वचनों के आदेशों को अनिवार्य रूप से आचरण में उतारना, उनके है | कायोत्सर्ग में शरीर जन्य ममता से हटने और आत्मा के ___अन्तस् में डूबना । अपाय का अर्थ है - दोष, पाप । समस्त दुःखों, सम्मुख होने का चिन्तन-मनन किया जाता है । प्रत्याख्यान में पापों से मुक्त होने के लिए अशुभ संकल्प-विकल्पों को त्याग कर साधना मार्ग में आगे बढ़ने के लिए विशेष संकल्प-नियम लिये जाते शुभ भावों में प्रवृत्ति करना, विचरण करना अपाय विचय है । हैं, जिससे आत्म-शक्ति अधिकाधिक पुष्ट हो और धर्म-धारणा संसार में जो सुख-दुख आते-जाते हैं, उनका कारण स्वयं के अच्छेसुदृढ़ बने । बुरे कर्म हैं । इन कर्मों की विपाक-प्रक्रिया का चिन्तन कर, रागवर्तमान धर्म-साधना में यद्यपि ध्यान-धारणा की कोई व्यस्थित द्वेष रूप कर्म बीजों को नष्ट करने में पुरुषार्थ करना विपाक विचय परिपाटी अविच्छिन्न रूप से चली आती हुई नहीं दिखाई देती पर है। कर्म विपाक का चिन्तन करते - २, लोक के स्वरूप को देखतेप्रतिक्रमण की परिपाटी आज भी जीवित है । प्रतिक्रमण का जो देखते अपनी आत्मा में संस्थापित होना, ठहरना संस्थान विचय है। रूप आज प्रचलित है, वह प्रतिक्रमण के पाठों को दोहराने तक ही से जब मन आर्त्त और रौद्र ध्यान से हटकर धर्म-ध्यान में लीन सीमित रह गया है | उसका ध्यान तत्त्व गायब हो गया है । पाठों होता है, तब जो लक्षण प्रकट होने लगते हैं, उन्हें रुचि कहा गया को दोहराने मात्र से मन की सफाई नहीं होती । उसके लिए शान्ति, है। जैन आगमों मे आज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और अवगाढ़रुचि स्थिरता और अनुप्रेक्षा आवश्यक है | आज का प्रतिक्रमण ध्यान न के रूप में धर्म-ध्यान के चार लक्षण बताये गये हैं। रुचि का अर्थ होकर ध्यान की परिपाटी तैयारी मात्र है। है - चमक, शोभा, प्रकाश-किरण । जब साधक के मन में शुभ४. स्व-संवेदन - प्रतिक्रमण जब तैयारी से आगे बढ़ता है, अपनी विचारों की लहर चलती है, तब उसका प्रभाव प्रकाश रूप में प्रकट अन्तर्यात्रा आरंभं करता है तभी स्व-संवेदन हो पाता है । जब तक होता है। धर्म की आज्ञा सत्य की आज्ञा है। सत्य का प्रकाश इन्द्रियां और मन बाहरी विषयों से हटकर अन्तर्मुखी नहीं बनते, नैसर्गिक योग्यता और शक्ति को प्रस्फुटित करता है । उससे जो स्व-संवेदन नहीं हो पाता । पंच भौतिक तत्त्वों से बना हुआ जैसे नैसर्गिक नियम हैं, सूत्र हैं उनका स्वतः पालन होने लगता है और बाहरी संसार है वैसे ही हमारा देह पिण्ड भी है । इसमें पृथ्वी, धर्म में, सदाचरण में, आत्म-स्वभाव में गहरी पैठ-अवगाहना होने जल, अग्नि, वायु और आकाश के तत्व की व्यापकता, जल तत्व लगती है। की तरलता, अग्नि तत्व की उष्णता, वायु तत्व की सजीवता और २. विषय-निवृत्ति - विचारों की विशुद्धता से धीरे - २ मन सूक्ष्म आकाश तत्व की असीमता की भावना कर वह जड़-चेतन को होने लगता है । इन्द्रियजन्य जड़ता और भोग के प्रति रही हुई सुख अनुभूति के स्तर पर समझने लगता है, देखने और परखने लगता । की अभिलाषा से साधक परे होकर आत्म-रमण करने लगता है। है। उनके प्रति किसी प्रकार का राग-द्वेष न कर समता भाव में उसका ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप गुण प्रकट होने लगता है । रहने-रमण करने का अभ्यास करने लगता है। जैन आगमों में प्रतिपादित धर्म-ध्यान के चार आलम्बन-वाचना, सम्यक्त्व-बोध, व्रत-ग्रहण, प्रतिक्रमण और स्व-संवेदन होने पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा-स्वाध्याय में, आत्म-रमण में सहयोगी पर ही धर्म-ध्यान और शुक्ल ध्यान सध पाता है । ये दोनों ध्यान बनते हैं । विचार मूर्त से अमूर्त और स्थूल से सूक्ष्म की ओर वास्तविक अर्थ में शुभ और प्रशस्त ध्यान हैं । जब साधक इस प्रयाण करते हैं । साधक, एकत्त्व, अनित्य, अशरण और संसार ध्यान साधना में गहरा उतरता है, तब उसकी प्रभावानुभूति निम्न रूप चार भावनाओं से अनुभावित होकर सांसारिक विषय-वासनाओं रूपों में प्रकट होती है - से उपरत होने लगता है । उसे अनुभव होता है कि वह आत्म स्वरूप की दृष्टि से एकाकी है, स्वतंत्र है, स्वाधीन है, पर भावना १. विचार-विशुद्धि २. विषय - निवृत्ति ३. कषाय - मुक्ति के स्तर पर प्राणी मात्र के प्रति उसकी एकता है । अपरिचय और ४. परमात्म - सिद्धि अकेलेपन से वह मुक्त है, सबके प्रति एकत्व बोध उसकी अपनी १. विचार-विशुद्धि - ध्यान किसी एक वस्तु पर मन को टिकाना । शक्ति है । इन्द्रियों के भोग अनित्य मात्र नहीं है । मन में उठने वाले विचार व्यक्ति को दुःखी न करें, हैं। ये पर के अधीन है, "पर" व्याकुल न बनायें, क्रूर और कठोर न बनायें बल्कि विचारों में पर आश्रित हैं । जो इनसे परे हो इतनी पवित्रता और निर्मलता आये कि प्राणिमात्र के प्रति प्रेम का, जाता है, वही संसार से पार हो मैत्री का आत्मीय संबंध जुड़ जाए । यही धर्म-ध्यान है | धर्म का जाता है । यहाँ कोई किसी को अर्थ सम्प्रदाय या पंथ नहीं है | धर्म है - आत्म-स्वभाव, कुदरत का शरण नहीं दे सकता । स्वयं की नियम, उन गुणों और शक्तियों का धारण, जिसके कारण जगत में आत्मा ही, उसका गुण-धर्म ही उसके शांति और समता बनी रहे। लिए शरण है । वह अपना नाथ स्वयं है, कोई उसका नाथ नहीं । श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१२) मन की विमल विचारणा करे कुटिलता नाश । जयन्तसेन सरल बनो, पावो पद अविनाश ।। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार परिवर्तनशील है । संसारी संबंध दूसरों पर आश्रित है। विवेक से आत्मा और देह के भेद को समझकर देहजनित समस्त अतः नश्वर हैं, दुःख रूप हैं । ऐसा समझ कर जो सत् है, वही उपाधियों का त्याग कर देता है । इन लक्षणों को ही अव्यथ, अविनाशी है, उसी का संग सत्संग है । इस प्रकार की भावना असम्मोह, विवेक और व्युत्सर्ग कहा है। भाती रहने से विषय-निवृत्ति सहज बन जाती है और धीरे-२ शुक्ल ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ - अनन्तवर्तित, विपरिणाम, विकार छूटने लगते हैं। अशुभ मत अपाय - बतायी गई हैं, भव-भ्रमण की अनन्त वर्तुल ३. कषाय-मुक्ति - चित्त की अशुद्धि ही विकार है । जैन दार्शनिकों गतियों का विचार करते २ साधक अपनी वृत्ति को अनन्त में ने इसे कषाय कहा है । जो आत्म-चेतना को सांसारिक विषयों में विलीन कर देता है । पदार्थ के परिणमनशील परिणाम पर विचार कसता है, उसे कलुषित बनाता है, वह कषाय है । मुख्य कषाय करते-२ वह सुख दुःख के परिणामों से ऊपर उठ जाता है । राग और द्वेष है । इन्हींका विस्तार-प्रतिफलन क्रोध, मान, माया, सांसारिक अशुभ दशा पर विचार करते - २ वह समस्त दोषों से लोभ आदि रूपों में होता है । ये विकार मन, वचन और काया रूप मुक्त होकर परम सिद्व बन जाता है। प्रवृत्तियों से मिलकर आत्मा की शक्ति को, विशुद्ध चेतना को ४. परमात्म-सिद्वि - शुद्ध ध्यान के प्रभाव से जब आत्मा पर कुण्ठित और दूषित कर देते हैं | धर्मध्यान और शुक्लध्यान द्वारा आच्छादित ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय चेतना पर छाये हुए कल्मष को हटाया जाता है, दग्ध किया जाता रूप घाती कर्म नष्ट हो जाते हैं, तब आत्मा की समस्त शक्तियाँ है । आत्मा अपने निज स्वभाव में शुद्ध, शुक्ल, उज्ज्वल रूप में प्रस्फुटित हो जाती हैं | आत्मा परम-आत्मा बन जाती है । यही प्रकट हो जाती है । जैन आगमों में शुक्ल ध्यान के चार प्रकार उसकी जीवन-मुक्त अवस्था है । यही उसका भाव मोक्ष है । यही बताये हैं - प्रथक्त्व वितर्क सविचार, एकत्व वितर्क अविचार, सूक्ष्म - उसका केवल ज्ञान है । यही उसकी समाधि प्राप्त दशा है । यही क्रिया प्रतिपत्ति और समुच्छन्न क्रिया निवर्ति । पहले प्रकार में वीतरागता और स्थितप्रज्ञता है । इस दशा में मन, वचन और ध्यान-साधक द्रव्य और पर्याय की गुणमूलक विविधता पर चिन्तन काया का योग रहते हुए भी कर्म-बन्ध नहीं होता | इसे जैन करता है । दूसरे प्रकार में वह विविधता में एकता का दर्शन करता आगमों में "जयणा" कहा है । हम इसे जागरूकता कह सकते है, भेद में अभेद देखता है । कषायों के शान्त होने से क्षमा, हैं । जो ध्यान-साधक इस जागरूक अवस्था में रहता है, वह निर्लोभता, आर्जव और मृदुता रूप आत्मगुण प्रकट होते हैं । तीसरे अप्रमत्त रहता है । अन्तराय कर्म क्षीण हो जाने से वह अनन्त प्रकार में मन, वचन योग का विरोध हो जाने पर काय योग के औदार्य, अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त माधुर्य, अनन्त सौन्दर्य और अनन्त निमित्त से आत्म-प्रदेशों का अतिसूक्ष्म परिस्पन्द अवशेष रहता है । सामर्थ्य का धनी होता है । चौथे प्रकार में चन्द क्षणों में अघाती-वेदनीय, नाम, गोत्र, और आयुष कर्मों के क्षीण हो जाने से आत्मा जन्म-मरण के भव-प्रपंच उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैन आगमों में से मुक्त होकर सिद्ध-बुद्ध, अजर-अमर बन जाती है। प्रतिपादित ध्यान-साधना का स्वरूप सांसारिक वैभव, विभूति या लब्धि प्राप्ति के लिए नहीं है । उसका मुख्य लक्ष्य कषाय-मुक्ति है, कषाय-मुक्त होने पर शुक्ल ध्यानी साधक को किसी प्रकार राग-द्वेष से छूटना है। की व्यथा नहीं रहती, वह मोह विजेता बन जाता है । अपने एस मग्गे आरिएहि पवेइए का शेष भाग (पृष्ठ ९ से) सुरक्षा नहीं देते । जहाँ महावीर लोक परलोक के लिए आदर्शों का प्रतिपादन करते हैं, वहाँ दूसरी ओर उसका निषेध भी करके कहते हैं - "नो इह लोगट्ठाए, नो परलोगट्ठाए" - यह न केवल इस लोक की साधना और न केवल परलोक की । मेरे विचार से जैन साधना लोकातीत साधना है लोक, परलोक और लोकातीत तीनों की । महावीर, क्रांतदर्शी थे तो शांतदर्शी भी । आचाराङ्ग के लोकाचार की ५९ वीं गाथा अहिंसा, मैत्री, कारुण्य का अक्षय स्रोत है। मनुष्य का अन्तर और बाय एक होना चाहिए - "जहाँ अंतो बहा बाहि, जहां बाहि तहा अंतो" | उत्तराध्ययनं के प्रथम दो तीन अध्ययनों में वे नैतिक आदर्शों का पूर्णरूपेण प्रतिपादन करते हैं । महावीर दुर्बलता और दीनता के समर्थक नहीं थे। निराशा और हताशा उन्हें अमान्य थी । उनका आदेश है अल्पभाषी बनो, किए को किया कहो और न किए को न किया, स्व या पर किसी पर क्रोध न करो - अपनी त्रुटि स्वीकार कर प्रायश्चित्त करो, वृथा संभाषण उचित नहीं, पर-दोष देखना पाप है | विनय और नम्रता, संयम और विवेक, सत्य और समता चारित्रिक उत्कर्ष के लिए अनिवार्य है। अहिंसात्मक जीवन इनका मूल है - मनुष्य की आत्मोपलब्धि शब्दातीत है, वहाँ तर्क नहीं, बुद्धि भी नहीं, कर्मफल से शून्य परम चैतन्य ही वह दशा है । यही तो उपनिषद् ने भी कहा था - "यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह" - जीवन के अन्तर्बाह्य संघर्ष को जीतकर उपसर्ग और परीषह सहकर व्यक्ति मेरु के समान अकंपित और सागर के समान गंभीर बनता है। "मेरुव्व णिप्पकंपा अक्खो भा सागरुत्व गंभीरा ।" यही आर्यों द्वारा कहा गया पथ है - "एस मग्गे आरिएहि पवेइए।" श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१३) ताडवृक्ष किस काम का, छाव तिनक ना देत । जयन्तसेन कदली तरू, छोटा दुःख हर लेत.ly.org Jain Education Intemational Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पा सो परमप्पा • आत्मा ही परमात्मा है (डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल) पर भाई बात यह है कि उसके करोड़पति होने पर भी हमारा मन उसे करोड़पति मानने को तैयार नहीं होता, क्योंकि रिक्शावाला करोड़पति हो - यह बात हमारे चित्त को सहज स्वीकार नहीं होती । आजतक हमने जिन्हें करोड़पति माना है, उनमें से किसी को भी रिक्शा चलाते नहीं देखा और करोड़पति रिक्शा चलाये - यह हमें अच्छा भी नहीं लगता, क्योंकि हमारा मन ही कुछ इसप्रकार का बन गया है। 'कौन करोड़पति है और कौन नहीं है,' - यह जानने के लिए आजतक कोई किसी की तिजोरी के नोट गिनने तो गया नहीं, यदि जायेगा भी तो बतायेगा कौन ? बस बाहरी तामझाम देखकर ही हम किसी को भी करोड़पति मान लेते हैं । दसपाँच नौकरचाकर, मुनीमगुमास्ते और बंगला, मोटरकार, कलकारखाने देखकर ही हम किसी को भी करोड़पति मान लेते हैं, पर यह कोई नहीं जानता कि जिसे हम करोड़पति समझ रहे हैं, हो सकता है वह करोड़ों का कर्जदार हो । बैंक से करोड़ों रुपये उधार लेकर कलकारखाने चल निकलते हैं और बाहरी ठाठबाट देखकर अन्य लोग भी सेठजी के पास पैसे जमा कराने लगते हैं । इसप्रकार गरीबों, विधवाओं, ब्रह्मचारियों के करोड़ों के ठाठबाट से हम उसे करोड़पति मान लेते जैनदर्शन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह कहता है कि सभी आत्मा स्वयं परमात्मा है । स्वभाव से तो सभी परमात्मा है ही, यदि अपने को जाने पहिचाने और अपने में ही जम जाँय, रम जाय तो प्रगटरूप से पर्याय में भी परमात्मा बन सकते हैं। जब यह कहा जाता है तो लोगों के हृदय में एक प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है कि जब 'सभी परमात्मा हैं, तो परमात्मा बन सकते हैं। इसका अर्थ क्या होता है ? और यदि 'परमात्मा बन सकते हैं यह बात सही है तो फिर ‘परमात्मा हैं' -इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता हैं, क्योंकि बन सकना और होना - दोनों एकसाथ संभव नहीं हैं। भाई, इसमें असंभव तो कुछ भी नहीं है, पर ऊपर से देखने पर भगवान होने और हो सकने में कुछ विरोधाभास अवश्य प्रतीत होता है, किन्तु गहराई से विचार करने पर सब बात एकदम स्पष्ट हो जाती है। म एक सेठ था और उसका पाँच वर्ष का इकलौता बेटा । बस दो ही प्राणी थे । जब सेठ का अन्तिम समय आ गया तो उसे चिन्ता हुई कि यह छोटा-सा बालक इतनी विशाल सम्पत्ति को कैसे संभालेगा? अतः उसने लगभग सभी सम्पत्ति बेचकर एक करोड़ रुपये इकट्ठे किये और अपने बालक के नाम पर बैंक में बीस वर्ष के लिए सावधि जमायोजना (फिक्स डिपाजिट) के अन्तर्गत जमा करा दिये । सेठ ने इस रहस्य को गुप्त ही रखा, यहाँ तक कि अपने पुत्र को भी नहीं बताया, मात्र एक अत्यन्त घनिष्ठ मित्र को इस अनुरोध के साथ बताया कि वह उसके पुत्र को यह बात तबतक न बताये, जबतक कि वह पच्चीस वर्ष का न हो जावे । पिता के अचानक स्वर्गवास के बाद वह बालक अनाथ हो गया और कुछ दिनों तक तो बचीखुची सम्पत्ति से आजीविका चलाता रहा, अन्त में रिक्शा चलाकर पेट भरने लगा । चौराहे पर खड़े होकर जोर-जोर से आवाज लगाता कि दो रुपये में रेलवे गर-जार स आवाज लगाता कि दा रुपय म रलव स्टेशन, दो रुपये में रेलवे स्टेशन | अब मैं आप सबसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि वह रिक्शा चलानेवाला बालक करोड़पति है या नहीं? क्या कहा ? नहीं। क्यों ? क्यों कि करोड़पति रिक्शा नहीं चलाते और रिक्शा चलानेवाले बालक करोड़पति नहीं हुआ करते ।। अरे भाई, जब वह व्यक्ति ही करोड़पति नहीं होगा, जिसके करोड रुपये बैंक में जमा हैं तो फिर और कौन करोडपति होगा? इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि जिसे हम करोड़पति साहूकार मान रहे हैं, वह लोगों के करोड़ों रुपये पचाकर दिवाला निकालने की योजना बना रहा हो । ठीक यही बात सभी आत्माओं को परमात्मा मानने के सन्दर्भ में भी है । हमारा मन इन चलते-फिरते, खातेपीते, रोतेगाते चेतन आत्माओं को परमात्मा मानने को तैयार नहीं होता, भगवान मानने को तैयार नहीं होता । हमारा मन कहता है कि यदि हम भगवान होते तो फिर दर-दर की ठोकर क्यों खाते फिरते ? अज्ञानान्धकार में डूबा हमारा अन्तर बोलता है कि हम भगवान नहीं हैं, हम तो दीनहीन प्राणी हैं, क्योंकि भगवान दीनहीन नहीं होते और दीनहीन भगवान नहीं होते। अबतक हमने भगवान के नाम पर मन्दिरों में विराजमान उन प्रतिमाओं के ही भगवान के रूप में दर्शन किये हैं जिनके सामने हजारों लोग मस्तक टेकते हैं, भक्ति करते हैं, पूजा करते हैं, यही कारण है कि हमारा मन डाटेफटकारे जाने वाले जनसामान्य को भगवान मानने को तैयार नहीं होता । हम सोचते हैं कि ये भी कोई भगवान हो सकते हैं क्या ? भगवान तो वे हैं, जिनकी पूजा की जाती है, भक्ति की जाती है | सच बात तो यह है श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण आयु घृत देह पात्र में, जलता जीवन दीप । जयन्तसेन घटे सदा, आखिर अस्त प्रदीप ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि हमारा मन ही कुछ ऐसा बन गया है कि उसे यह स्वीकार नहीं कि कोई दीनहीन जन भगवान बन जावे । अपने आराध्य को दीनहीन दशा में देखना भी हमें अच्छा नहीं लगता । भाई, भगवान भी दो तरह के होते हैं एक तो वे अरहंत और सिद्ध परमात्मा, जिनकी मूर्तियाँ मन्दिरों में विराजमान हैं और उन मूर्तियों के माध्यम से हम उन मूर्तिमान परमात्मा की उपासना करते हैं, पूजनभक्ति करते हैं, जिस पथ पर वे चले, उस पथ पर चलने का संकल्प करते हैं, भावना भाते हैं। ये अरहंत और सिद्ध कार्यपरमात्मा कहलाते हैं । दूसरे, देहदेवल में विराजमान निज भगवान आत्मा भी परमात्मा हैं, भगवान हैं, इन्हें कारण परमात्मा कहा जाता है। जो भगवान मूर्तियों के रूप में मन्दिरों में विराजमान हैं, वे हमारे पूज्य हैं, परमपूज्य हैं, अतः हम उनकी पूजा करते हैं, भक्ति करते हैं, गुणानुवाद करते हैं; किन्तु देहदेवल में विराजमान निज भगवान आत्मा श्रद्धेय है, ध्येय है, परमज्ञेय है; अतः निज भगवान को जानना, पहिचानना और उसका ध्यान करना ही उसकी आराधना है । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की उत्पत्ति इस निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही होती है, क्योंकि निश्चय से निज भगवान आत्मा को निज जानना ही सम्यग्ज्ञान है, उसे ही निज मानना, 'यही मैं हूँ' - ऐसी प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है और उसका ही ध्यान करना, उसी में जम जाना, रम जाना, लीन हो जाना सम्यक्चारित्र है। अष्टद्रव्य से पूजन मन्दिर में विराजमान "परभगवान" की की जाती है और ध्यान शरीररूपी मन्दिर में विराजमान 'निजभगवान' आत्मा का किया जाता है। यदि कोई व्यक्ति निज-आत्मा को भगवान मानकर मन्दिर में विराजमान भगवान के समान स्वयं का भी अष्ट द्रव्य से पूजन करने लगे तो उसे व्यवहारविहीन ही माना समाज द्वारा विद्या याचस्पति, वाणी भूषण, जैन रत्न आदि अनेक उपाधियों से समयसमय पर विभूषित। धर्म प्रचारार्थ अनेक बार विदेश यात्रायें। तर्क संगत तथा आकर्षक शैली में प्रवचन कर्ता । २७ पुस्तकों का लेखन तथा अनेक ग्रंथो का सम्पादन । आपकी कृतियों का आठ भाषाओं में प्रकाशन जिनकी प्रसार संख्या लगभग १४ लाख । वीतराग-विज्ञान (हिन्दी एवं मराठी) व आत्मधर्म (तमिल तथा कन्नड) का सम्पादन । पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट द्वारा संचालित विभिन्न प्रवृत्तियों के सूत्रधार । सम्पर्क टोडरमल स्मारक भवन, ए-४, बापूनगर, जयपुर ३०२ ०१५. डॉ. हुकुमचन्द भारिल शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, एम.ए., पी.एच.डी. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण जायगा, वह व्यवहारकुशल नहीं अपितु व्यवहारमूढ ही है। इसीप्रकार यदि कोई व्यक्ति आत्मोपलब्धि के लिए ध्यान भी मन्दिर में विराजमान भगवान का ही करता रहे तो उसे भी विकल्पों की ही उत्पत्ति होती रहेगी, निर्विकल्प आत्मानुभूति कभी नहीं होगी। क्योंकि निर्विकल्प आत्मानुभूति निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही होती है। निर्विकल्प आत्मानुभूति के बिना सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की उत्पत्ति भी नहीं होगी । इसप्रकार उसे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र के एकतारूप मोक्षमार्ग का आरंभ ही नहीं होगा । जिसप्रकार वह रिक्क्षावाला बालक रिक्शा चलाते हुए भी करोड़पति है, उसीप्रकार दीनहीन हालत में होने पर भी हम सभी स्वभाव से ज्ञानानन्द स्वभावी भगवान हैं, कारण परमात्मा हैं। यह जानना मानना उचित ही है । इस सन्दर्भ में मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि भारत में अभी किसका राज है ? क्या कहा, कॉंग्रेस का ? नहीं भाई यह ठीक नहीं है, काँग्रेस तो एक पार्टी है, भारत में राज तो जनता जनार्दन का है, क्योंकि जनता जिसे चुनती है, वही भारत का शासन चलाता है, अतः राज तो जनता जनार्दन का ही है । उक्त सन्दर्भ में जब हम जनता को जनार्दन (भगवान) कहते हैं तो कोई नहीं कहता कि जनता तो जनता है, वह जनार्दन अर्थात् भगवान कैसे हो सकती है ? पर जब तात्विक चर्चा में यह कहा जाता है कि हम सभी भगवान हैं तो हमारे चित्त में अनेक प्रकार की शंकाएँ- आशंकाएँ खड़ी हो जाती हैं, पर भाई गहराई से विचार करें तो स्वभाव से तो प्रत्येक आत्मा परमात्मा ही है इसमें शंका- आशंकाएँ को कोई स्थान नहीं है। प्रश्न:- यदि यह बात है तो फिर ये ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा वर्तमान में अनन्त दुःखी क्यों दिखाई दे रहे हैं ? उत्तर अरे भाई, ये सब भूले हुए भगवान हैं, स्वयं को स्वयं की सामर्थ्य को भूल गये हैं, इसीकारण सुखत्वभावी होकर भी अनन्तदुःखी हो रहे हैं। इनके दुःख का मूल कारण स्वयं को नहीं जानना, नहीं पहिचानना ही है । जब ये स्वयं को जानेंगे, पहिचानेंगे एवं स्वयंमें ही जम जायेंगे, रम जायेंगे, तब स्वयं ही अनन्तसुखी भी हो जायेंगे। जिसप्रकार वह रिक्शा चलानेवाला बालक करोड़पति होने पर भी यह नहीं जानता है कि मैं स्वयं करोड़पति हैं इसीकारण दरिद्रता का दुःख भोग रहा है । यदि उसे यह पता चल जावे कि मैं तो करोड़पति हूँ, मेरे करोड़ रुपये बैंक में जमा हैं तो उसका जीवन ही परिवर्तित हो जावेगा । उसीप्रकार जबतक यह आत्मा स्वयं के परमात्मास्वरूप को नहीं जानता पहिचानता, तभीतक अनन्तदुःखी है, जब यह आत्मा अपने परमात्मास्वरूप को भलीभाँति जान लेगा, पहिचान लेगा तो इसके दुःख (१५) 100 मध्यम बहता नीर है, बरसै उत्तम नीर जयन्तसेन पड़ा सलिल, करता कीचड़ पीर ॥ www.jalnelibrary.org. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूर होने में भी देर न लगेगी। हृदय प्रफुल्लित हो उठा, पर उसकी वह प्रसन्नता क्षणिक साबित - कंगाल के पास करोड़ों का हीरा हो, पर वह उसे काँच का हुई, क्योंकि अगले ही क्षण उसके हृदय में संशय के बीज अंकुरित टुकड़ा समझता हो या चमकदार पत्थर मानता हो तो उसकी हो गये । वह सोचने लगा कि मेरे नाम इतने रुपये बैंक में कैसे हो दरिद्रता जानेवाली नहीं है. पर यदि वह उसकी सही कीमत जान ले सकते हैं। मन तो कभी जमा कराये ही नहीं | मेरा तो किसी तो दरिद्रता एक क्षण भी उसके पास टिक नहीं सकती, उसे विदा बैंक में कोई खाता भी नहीं है । फिर भी उसने वह समाचार दुबारा होना ही होगा । इसीप्रकार यह आत्मा स्वयं भगवान होने पर भी बारीकी से पढ़ा तो पाया कि वह नाम तो उसी का है, पिता के यह नहीं जानता कि मैं स्वयं भगवान हूँ । यही कारण है कि यह नाम के स्थान पर भी उसी के पिता का नाम अंकित है, कुछ अनन्तकाल से अनन्त दुःख उठा रहा है । जिस दिन यह आत्मा आशा जागृत हुई, किन्तु अगले क्षण ही उसे विचार आया कि हो यह जान लेगा कि मैं स्वयं भगवान ही हूँ, उस दिन उसके दुःख सकता है. इसी नाम का कोई दूसरा व्यक्ति हो और सहज संयोग दूर होते देर न लगेगी। से ही उसके पिता का नाम भी यही हो । इसप्रकार वह फिर शंकाशील हो उठा। T इससे यह बात सहज सिद्ध होती है कि होने से भी अधिक महत्त्व जानकारी होने का है, ज्ञान होने का है | होने से क्या होता इसप्रकार जानकर भी उसे प्रतीति नहीं हुई, इस बात का है ? होने को तो यह आत्मा अनादि से ज्ञानानन्द स्वभावी भगवान विश्वास जागृत नहीं हुआ कि ये रुपये मेरे ही हैं । अतः जान लेने आत्मा ही है, पर इस बात की जानकारी न होने से, ज्ञान न होने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ । इससे सिद्ध होता है कि प्रतीति से ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान होने का कोई लाभ इसे प्राप्त नहीं हो बिना, विश्वास बिना जान लेने मात्र से भी कोई लाभ नहीं होता । रहा है । होने का तो वह रिक्शा चलानेवाला बालक भी गर्भश्रीमन्त अतः ज्ञान से भी अधिक महत्व श्रद्धान का है, विश्वास का है, वाला बालक मा राष्टियों की प्रतीति का है | है, जन्म से ही करोड़पति है, पर पता न होने से दो रोटियों की खातिर उसे रिक्शा चलाना पड़ रहा है । यही कारण है कि इसीप्रकार शास्त्रों में पढ़कर हम सब यह जान तो लेते हैं कि जिनागम में ज्ञान के गीत दिल खोलकर गाये हैं। कहा गया है कि आत्मा ही परमात्मा है (अप्पा सौ परमप्पा), पर अन्तर में यह "ज्ञान समान न आन जगत में सुख कौ कारण । विश्वास जागृत नहीं होता कि मैं स्वयं ही परमात्मस्वरूप हूँ, परमात्मा हूँ, भगवान हूँ | यही कारण है कि यह बात जान लेने पर इह परमामृत जन्म-जरा मृतु रोग निवारण ।।' भी कि मैं स्वयं परमात्मा हूँ, सम्यक्श्रद्धान बिना दुःख का अन्त इस जगत में ज्ञान के समान अन्य कोई भी पदार्थ सुख नहीं होता, चतुर्गतिभ्रमण समाप्त नहीं होता, सच्चे सुख की प्राप्ति देनेवाला नहीं है । यह ज्ञान जन्म, जरा और मृत्यु रूपी रोग को दूर नहीं होती। करने के लिए परमअमृत है, सर्वोत्कृष्ट औषधि है ।" समाचार-पत्र में उक्त समाचार पढ़कर वह युवक अपने और भी देखिए - साथियों को भी बताता है । उन्हें समाचार दिखाकर कहता है कि "जे पूरब शिव गये जाहि अरु आगे जैहें । 'देखो, मैं करोड़पति हूँ । अब तुम मुझे गरीब रिक्शेवाला नहीं समझना। - इसप्रकार कहकर वह अपना और अपने साथियों का सो सब महिमा ज्ञानतनी मुनि नाथ कहे हैं ॥२ मनोरंजन करता है, एकप्रकार से स्वयं अपनी हँसी उड़ाता है । आजतक जितने भी जीव अनन्त सुखी हुए हैं अर्थात् मोक्ष इसीप्रकार शास्त्रों में से पढ़-पढ़कर हम स्वयं भगवान हैं, दीनहीन गये हैं या जा रहे हैं अथवा भविष्य मे जावेंगे, वह सब ज्ञान का मनुष्य नहीं ।' इसप्रकार की आध्यात्मिक चर्चाओं द्वारा हम स्वयं ही प्रताप है - ऐसा मुनियों के नाथ जिनेन्द्र भगवान कहते हैं।" का और समाज का मनोरंजन तो करते हैं, पर सम्यक्श्रद्धान के सम्यग्ज्ञान की तो अनन्त महिमा है ही, पर सम्यग्दर्शन की अभाव में भगवान होने का सही लाभ प्राप्त नहीं होता, आत्मानुभूति महिमा जिनागम में उससे भी अधिक बताई गई है, गाई गई है। नहीं होती, सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होती, आकुलता समाप्त नहीं क्यों और कैसे? इसप्रकार अज्ञानीजनों की आध्यात्मिक चर्चा भी आत्मानुभूति मानलो रिक्शा चलानेवाला वह करोड़पति बालक अब २५ के बिना, सम्यग्ज्ञान के बिना, सम्यश्रद्धान के बिना बौद्धिक वर्ष का युवक हो गया है । उसके नाम जमा करोड़ रुपयों की व्यायाम बनकर रह जाती है। अवधि समाप्त हो गई है, फिर भी कोई व्यक्ति बैंक से रुपये लेने नहीं आया । अतः बैंक ने समाचारपत्रों में सूचना प्रकाशित कराई व समाचारपत्रों में प्रकाशित हो कि अमुक व्यक्ति के इतने रुपये बैंक में जमा हैं, वह एक माह के जाने के उपरान्त भी जब कोई व्यक्ति भीतर नहीं आया तो लावारिस समझकर रुपये सरकारी खजाने में पैसे लेने बैंक में नहीं आया तो जमा करा दिये जायेंगे। बैंकवालों ने रेडियो स्टेशन से घोषणा कराई । रेडियो स्टेशन को भारत में उस समाचार को उस नवयुवक ने भी पढ़ा और उसका आकाशवाणी कहते हैं । अतः आकाशवाणी हुई कि अमुक व्यक्ति पंडित दौलतरामःछहढाला, चतुर्थ ढाल, छन्द ४ के इतने रुपये बैंक में जमा हैं, वह पंडित दौलतरामःछहढाला, चतुर्थ ढाल, छन्द ५ एकमाह के भीतर ले जावे, अन्यथा होती। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१६) फूल बिछावत फूल है, बबूल से है शूल । जयन्तसेन यथा करो, फल वैसा मत भूल || . Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लावारिस समझकर सरकारी खजाने में जमा करा दिये जायेंगे। चलाते रहे और आप देखते रहे । यह कोई साधारण बात नहीं है, आकाशवाणी की उस घोषणा को रिक्शे पर बैठेबैठे उसनी जो ऐसे ही छोड़ दी जावे, आपको इसका जवाब देना ही होगा।" सुनी, अपने साथियों को भी सुनाई, पर विश्वास के अभाव में कोई "तुम्हारे पिताजी मना कर गये थे ।" लाभ नहीं हआ | इसीप्रकार अनेक प्रवक्ताओं से इस बात को आखिर क्यों ? सुनकर भी कि हम सभी स्वयं भगवान हैं, विश्वास के अभाव में बात वहीं की वहीं रही । जीवनभर जिनवाणी सुनकर भी, पढ़कर "इसलिए कि बीस वर्ष पहले तुम्हें रुपये मिल नहीं सकते थे। भी, आध्यात्मिक चर्चायें करके भी आत्मानुभूति से अछूते रह गये । चर्चायें करके भी आत्मानमति से आठते रह गये। पता चलने पर तुम रिक्शा भी न चला पाते और भूखों मर जाते ।" समाचारपत्रों में प्रकाशित एवं आकाशवाणी से प्रसारित उक्त या "पर उन्होंने ऐसा किया ही क्यों ?" समाचार की ओर जब स्वर्गीय सेठजी के उन अभिन्न मित्र का क "इसलिए कि नाबालिगी की अवस्था में कहीं तुम यह ध्यान गया, जिन्हें उन्होंने मरते समय उक्त रहस्य की जानकारी दी सम्पत्ति बर्बाद न कर दो और फिर जीवनभर के लिए कंगाल हो थी, तो वे तत्काल उस युवक के पास पहुंचे और बोले - जावो । समझदार हो जाने पर तुम्हें ब्याज सहित तीन करोड़ रुपये "बेटा ! तुम रिक्शा क्यों चलाते हो?" मिल जावें और तुम आराम से रह सको | तुम्हारे पिताजी ने यह सब तुम्हारे हित में ही किया है । अतः उत्तेजना में समय खराब उसने उत्तर दिया - "यदि रिक्शा न चलायें तो खायेंगे। मत करो । आगे की सोचो ।" क्या ?" जरा इसप्रकार सम्पत्ति सम्बन्धी सच्ची जानकारी और उस पर पूरा उन्होंने समझाते हुए कहा - "भाई, तुम तो करोड़पति हो, तुम्हारे विश्वास जागृत हो जाने पर उस रिक्शेवाले युवक का मानस तो करोड़ों रुपये बैंक में जमा हैं।" एकदम बदल जाता है, दरिद्रता के साथ का एकत्व टूट जाता है अत्यन्त गमगीन होते हुए युवक कहने लगा - एवं 'मैं करोड़पति हूँ' - ऐसा गौरव का भाव जागृत हो जाता है, "चाचाजी, आपसे ऐसी आशा नहीं थी, सारी दुनिया तो आजीविका की चिन्ता न मालूम कहाँ चली जाती है, चेहरे पर हमारा मज़ाक उड़ा ही रही है, पर आप तो बुजुर्ग हैं, मेरे पिता के सम्पन्नता का भाव स्पष्ट झलकन लगता है। बराबर हैं, आप भी - " इसीप्रकार शास्त्रों के पठन, प्रवचनों के श्रवण और अनेक वह अपनी बात समाप्त ही न कर पाया था कि उसके माथे युक्तियों के अवलम्बन से ज्ञान में बात स्पष्ट हो जाने पर भी पर हाथ फेरते हुए अत्यन्त स्नेह से वे कहने लगे - अज्ञानीजनों को इसप्रकार का श्रद्धान उदित नहीं होता कि ज्ञान का घनपिण्ड, आनन्द का रसकन्द, शक्तियों का संग्रहालय, अनन्त "नहीं भाई, मैं तेरी मज़ाक नहीं उड़ा रहा हूँ | तू सचमुच ही गुणों का गोदाम भगवान आत्मा मैं स्वयं ही हूँ । यही कारण है कि करोड़पति है | जो नाम समाचारपत्रों में छप रहा है, वह तेरा ही श्रद्धान अभाव में उक्त ज्ञान का कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। नाम है" काललब्धि आने पर किसी आसन्नभव्य जीव को परमभाग्योदय अत्यन्त विनयपूर्वक वह बोला - "ऐसी बात कहकर आप से किसी आत्मानुभवी ज्ञानी धर्मात्मा का सहज समागम प्राप्त होता मेरे चित्त को व्यर्थ ही अशान्त न करें । मैं मेहनत मजदूरी करके है और वह ज्ञानी धर्मात्मा उसे अत्यन्त वात्सल्यभाव से समझाता हैं दो रोटियाँ पैदा करता हैं और आराम से जिन्दगी बसर कर रहा कि हे. आत्मन् ! तू स्वयं भगवान है, तू अपनी शक्तियों को हूँ । मेरी महत्वाकांक्षा को जगाकर आप मेरे चित्त को क्यों पहिचान, पर्याय की पामरता का विचार मत कर, स्वभाव के उद्वेलित कर रहे हैं । मैंने तो कभी कोई रुपये बैंक में जमा कराये सामर्थ्य को देख, सम्पूर्ण जगत पर से दृष्टि हटा और स्वयं में ही ही नहीं । अतः मेरे रुपये बैंक में जमा कैसे हो सकते हैं ?" समा जा, उपयोग को यहाँ-वहाँ न भटका, अन्तर में जा, तुझे निज अत्यन्त गद्गद् होते हुए वे कहने लगे - "भाई तुम्हें पैसे परमात्मा के दर्शन होंगे। जमा कराने की क्या आवश्यकता थी? तुम्हारे पिताजी स्वयं बीस ज्ञानी गुरु की करुणा-विगलित वाणी सुनकर वह भव्य जीव वर्ष पहिले तुम्हारे नाम एक करोड़ रुपये बैंक में जमा करा गये हैं, कहता हैजो अब ब्याज सहित तीन करोड़ हो गये होंगे | मरते समय यह बात वे मुझे बता गये ये ।" "प्रभो ! यह आप क्या कह रहे हैं, मैं भगवान कैसे हो सकता हूँ? मैंने तो जिनागम में ___ यह बात सुनकर वह एकदम उत्तेजित हो गया । थोड़ासा बताये भगवान बनने के उपाय का विश्वास उत्पन्न होते ही उसमें करोड़पतियों के लक्षण उभरने लगे। अनुसरण आजतक किया ही नहीं वह एकदम गर्म होते हुए बोला - "यदि यह बात सत्य है तो है । न जप किया, न तप किया, न आपने अभी तक हमें क्यों नहीं बताया ?" ... व्रत पाले और न स्वयं को जानावे समझाते हुए कहने लगे - "उत्तेजित क्यों होते हो ? अब पहिचाना-ऐसी अज्ञानी-असंयत दशा तो बता दिया । पीछे की जाने दो, अब आगे की सोचो ।" में रहते हुए मैं भगवान कैसे हो “पीछे की क्यों जाने दो? हमारे करोड़ों रुपये बैंक में पड़े रहें और हम दो रोटियों के लिये मुंहताज हो गये । हम रिक्शा (१७) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education Interational पवन बुझावत दीप को, करता आग प्रचंड । जयन्तसेन सबल बचे, निर्बल पावत दण्ड || Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यन्त स्नेहपूर्वक समझाते हुए ज्ञानी धर्मात्मा कहते हैं - किट "भाई, ये बननेवाले भगवान की बात नहीं है, यह तो बनेबनाये भगवान की बात है । स्वभाव की अपेक्षा तुझे भगवान बनना नहीं है, अपितु स्वभाव से तो तू बना-बनाया भगवान ही है । ऐसा जाननामानना और अपने में ही जमजाना, रमजाना पर्याय में भगवान बनने का उपाय है । तू एकबार सच्चे दिल से अन्तर की गहराई से इस बात को स्वीकार तो कर, अन्तर की स्वीकृति आते ही तेरी दृष्टि परपदार्थों से हटकर सहज ही स्वभावसन्मुख होगी, ज्ञान भी अन्तरोन्मुख होगा और तू अन्तर में ही समा जायगा, लीन हो जायगा, समाधिस्थ हो जायगा । ऐसा होने पर तेरे अन्तर में अतीन्द्रिय आनन्द का ऐसा दरिया उमडेगा कि तू निहाल हो जावेगा, कृतकृत्य हो जावेगा । एकबार ऐसा स्वीकार करके तो देख ।" "यदि ऐसी बात है तो आजतक किसी ने क्यों नहीं बताया ?" "जाने भी दे, इस बात को, आगे की सोचो" "क्यों जाने दें ? इस बात को जाने बिना हम अनन्त दुःख उठाते रहे, स्वयं भगवान होकर भी भोगों के भिखारी बने रहे, और किसी ने बताया तक नहीं।" "अरे भाई, जगत को पता हो तो बताये, और ज्ञानी तो बताते ही रहते हैं, पर कौन सुनता है उनकी, काललब्धि आये बिना किसी का ध्यान ही नहीं जाता इस ओर । सुन भी लेते हैं तो इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देते हैं, ध्यान नहीं देते। समय से पूर्व बताने से किसी को कोई लाभ भी नहीं होता । अतः अब जाने भी दो पुरानी बातों को, आगे की सोचो । स्वयं के परमात्मस्वरूप को पहिचानो, स्वयं के परमात्मस्वरूप को जानो और स्वयं में समा जावो । सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। कहते कहते गुरु स्वयं में समा जाते हैं और वह भव्यात्मा भी स्वयं में समा जाता है । जब उपयोग बाहर आता है तो उसके चेहरे पर अपूर्व शान्ति होती है, संसार की थकान पूर्णतः उतर चुकी होती है, पर्याय की पामरता का कोई चिह्न चेहरे पर नहीं होता, स्वभाव की सामर्थ्य का गौरव अवश्य झलकता है । आत्मज्ञान, श्रद्धान एवं आंशिक लीनता से आरंभ मुक्ति के मार्ग पर आरूढ़ वह भव्यात्मा चक्रवर्ती की सम्पदा और इन्द्रों जैसे भोगों को भी तुच्छ समझने लगता है । कहा भी है - "चक्रवर्ती की सम्पदा अर इन्द्र सरीखे भोग । कागबीट सम गिनत है सम्यग्दृष्टि लोग ।।" पिता के मित्र रिक्शेवाले नवयुवक से यह बात रिक्शा स्टेण्ड पर ही कर रहे थे । उनकी यह सब बात रिक्शे पर बैठे-बैठे हो ही रही थी । इतने में एक सवारी ने आवाज दी - "ऐ रिक्शेवाले ! स्टेशन चलेगा ?" उसने संक्षिप्तसा उत्तर दिया - "नहीं।" "क्यों ? चलो न भाई, जरा जल्दी जाना है, दो रुपये की जगह पाँच रुपये लेना, पर चलो, जल्दी चलो ।" "नहीं, नहीं जाना, एक बार कह दिया न ।" "कह दिया पर -" उसकी बात जाने दो, अब मैं आपसे ही पूछता हूँ कि क्या वह अब भी सवारी ले जायगा ? यदि ले जायेगा तो कितने में? दस रुपये में, बीस रुपये में -? क्या कहा, कितने ही रुपये दो, पर अब वह रिक्शा नहीं चलायेगा। "क्यों ?" नि "क्यों कि अब वह करोड़पति हो गया है।" "अरे भाई, अभी तो मात्र पता ही चला है, अभी रुपये हाथ में कहाँ आये हैं ?" Pा "कुछ भी हो, अब उससे रिक्शा नहीं चलेगा ? क्योंकि करोड़पति रिक्शा नहीं चलाया करते ।" इसीप्रकार जब किसी व्यक्ति को आत्मानुभवपूर्वक सम्यग्दर्शनज्ञान प्रगट हो जाता है, तब उसके आचरण में भी अन्तर आ ही जाता है । यह बात अलग है कि वह तत्काल पूर्ण संयमी या देशसंयमी नहीं हो जाता, फिर भी उसके जीवन में अन्याय, अभक्ष्य एवं मिथ्यात्व पोषक क्रियाएँ नहीं रहती हैं । उसका जीवन शुद्ध सात्विक हो जाता है, उससे हीन काम नहीं होते। _वह युवक सवारी लेकर स्टेशन तो नहीं जायेगा, पर उस सेठ के घर रिक्शा वापिस देने और किराया देने तो जायेगा ही, जिसकी रिक्शा वह किराये पर लाया था । प्रतिदिन शाम को रिक्शा और किराये के दस रुपये दे आने पर ही उसे अगले दिन रिक्शा किराये पर मिलता था । यदि कभी रिक्शा और किराया देने न जा पावे तो सेठ घर पर आ धमकता था, मुहल्ले वालों के सामने उसकी इज्जत उतार देता था। आज वह सेठ के घर रिक्शा देने भी न जायेगा । उसे वहीं ऐसा ही छोड़कर चल देगा । तब फिर क्या वह सेठ उसके घर जायेगा? हाँ जायेगा, अवश्य जायेगा, पर रिक्शा लेने नहीं, रुपये लेने नहीं, अपनी लड़की का रिश्ता लेकर जायगा, क्योंकि यह पता चल जाने पर कि इसके करोड़ों रुपये बैंक में जमा हैं, कौन अपनी कन्या देकर कृतार्थ न होना चाहेगा ? इसीप्रकार किसी व्यक्ति को आत्मानुभव होता है तो उसके अन्तर की हीन भावना समाप्त हो ही जाती है, पर सातिशय पुण्य का बंध होने से लोक में भी उसकी प्रतिष्ठा बढ़ जाती है, लोक भी उसके सद्व्यवहार से प्रभावित होता है । ऐसा यह सहज ही निमित्तनैमित्तिक संबंध है। ज्ञात हो जाने पर भी जिसप्रकार कोई असभ्य व्यक्ति उस रिक्शेवाले से रिक्शावालों जैसा व्यवहार भी कदाचित् कर सकता है, उसीप्रकार कुछ अज्ञानीजन उन श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१८) उदधि बडा किस कामका, खारा जिस का नीर । जयन्तसेन सुन्दर सरि, हरे प्यास मन पीर Hary.org Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानी धर्मात्माओं से भी कदाचित् असद्व्यवहार कर सकते हैं, करते भी देखे जाते हैं, पर यह बहुत कम होता है । . यद्यपि अभी वह वही मेलाकुचैला फटा कुर्ता पहने है, मकान भी टूटाफूटा ही है, क्योंकि ये सब तो तब बदलेंगे, जब रुपये हाथ में आ जावेंगे । कपड़े और मकान श्रद्धाज्ञान से नहीं बदल जाते, उनके लिए तो पैसा चाहिए, पैसे, तथापि उसके चित्त में आप कहीं भी दरिद्रता की हीन भावना का नामोनिशान भी नहीं पायेंगे । म जामा उसीप्रकार जीवन तो सम्यकचारित्र होने पर ही बदलेगा, अभी तो असंयमरूप व्यवहार ही ज्ञानी धर्मात्मा में देखा जाता है, पर उनके चित्त में रंचमात्र भी हीन भावना नहीं रहती, वे स्वयं को भगवान ही अनुभव करते हैं । आमा जिसप्रकार उस युवक के श्रद्धा और ज्ञान में तो यह बात एक क्षण में आ गई कि मैं करोड़पति हूँ, पर करोड़पतियों जैसे रहनसहन में अभी वर्षों लग सकते हैं । पैसा हाथ में आ जाय, तब मकान बनना आरंभ हो, उसमें भी समय तो लगेगा ही। उस युवक को अपना जीवनस्तर उठाने की जल्दी तो है, पर अधीरता नहीं, क्योंकि जब पता चल गया है तो रुपये भी अब मिलेंगे ही, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों. बरसों लगनेवाले नहीं हैं। उसीप्रकार श्रद्धा ज्ञान तो क्षणभर में परिवर्तित हो जाते हैं, पर जीवन में संयम आने में समय लग सकता है । संयम धारण करने की जल्दी तो प्रत्येक ज्ञानी धर्मात्मा को रहती ही है, पर अधीरता नहीं होती, क्योंकि जब सम्यग्दर्शन-ज्ञान और संयम की रुचि (अंश) जग गई है तो इसी भव में, इस भव में नहीं तो अगले भव में, उसमें नहीं तो उससे अगले भव में, संयम भी आयेगा ही, अनन्तकाल यों ही जानेवाला नहीं है । अतः हम सभी का यह परम पावन कर्तव्य है कि हम सब स्वयं को सही रूप में जाने, सही रूप में, पहिचानें, इस बात का गहराई से अनुभव करें कि स्वभाव से तो हम सभी सदा से ही भगवान ही हैं - इसमें शंकाआशंका के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है। रही बात पर्याय की - सो जब हम अपने परमात्मस्वरूप का सम्यग्ज्ञान कर उसी में अपनापन स्थापित करेंगे, अपने ज्ञानोपयोग (प्रगटज्ञान) को भी सम्पूर्णतः उसी में लगा देंगे, स्थापित कर देंगे और उसी में लीन हो जायेंगे, जम जायेंगे, रम जायेंगे, समा जायेंगे, समाधिस्थ हो जायेंगे तो पर्याय में भी परमात्मा (अरहंतसिद्ध) बनते देर न लगेगी। भार अरे भाई । जैनदर्शन के इस अद्भुत परमसत्य को एकबार अन्तर की गहराई से स्वीकार तो करो कि स्वभाव से हम सभी भगवान ही हैं । पर और पर्याय से अपनापन तोड़कर एकबार द्रव्यस्वभाव में अपनापन स्थापित तो करो, फिर देखना अन्तर में कैसी क्रान्ति होती है, कैसी अद्भुत और अपूर्व शान्ति उपलब्ध होती है, अतीन्द्रिय आनन्द का कैसा झरना झरता है । इस अद्भुत सत्य का आनन्द मात्र बातों से आनेवाला नहीं ह, अन्तर में इस परमसत्य के साक्षात्कार से ही अतीन्द्रिय आनन्द का दरिया उमड़ेगा । उमड़ेगा, अवश्य उमड़ेगा, एकबार सच्चे हृदय से सम्पूर्णतः समर्पित होकर निज भगवान आत्मा की आराधना तो को फिर देखना क्या होता है? बातों में तो इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है । अतः यह मंगलभावना भाते हुए विराम लेता हूँ कि सभी आत्माएँ स्वयं के परमात्मस्वरूप को जानकर, पहिचानकर स्वयं में ही जमकर, रमकर अनन्त सुख-शान्ति को शीघ्र ही प्राप्त करें । मधुकर-मौक्तिक कई लोग ऐसे होते हैं, जो सुनी-सुनायी बातों पर विश्वास कर लेते हैं । आँखों से देखे बिना वे उन सुनी-सुनायी बातों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं । पर ज्ञानी कहते हैं, पहले सही तथ्य जानो, फिर आलोचना करो । ज्ञानी का वचन है - किसी के द्वारा कुछ भी कहे जाने पर तू सुन ले, पर वास्तविक तथ्य को जाने बिना तू किसी भी प्रकार की आलोचना मत कर | आलोचना करने का तुझे हक नहीं है। यदि तुझे आलोचना करना है, तो तू स्वयं के गुण-दोषों की आलोचना कर | फिर देख, तुझे सारा संसार कैसा दिखायी देता है । - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' 'नमो अरिहंताणम्' का जाप हमारी कर्णेन्द्रिय को हमेशा वश में रखने का फल प्रदान करता है। यदि हम इन पंच परमेष्ठियों से पूरी तरह जुड़ जाएँगे, तो हमारे जीवन का एक भी पक्ष ऐसा नहीं रह जाएगा जहाँ अरिहंत परमात्मा हमारे साथ न हों, लेकिन हमारी आँख ही अभी तक नहीं खुल रही है । हम तो आँखें बन्द करके इस जीवन की राह पर भागे जा रहे हैं। कहीं खड़े हो कर सोचते तक नहीं हैं कि यदि पंच परमेष्ठियों का इस संसार में अस्तित्व है तो अपना भी तो इनके साथ कुछ सम्बन्ध होगा | दूर से केवल हाथ जोड़ने से सम्बन्ध थोड़े ही बनता है | दूर से दर्शन करके जब हम इनके निकट जाएँगे तभी हमारा सम्बन्ध इनसे जुड़ेगा; और यदि एक बार ऐसा सम्बन्ध जुड़ गया तो अवश्य ही जीवन में निखार आ जाएगा। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण फीके लगते है सदा, बिना भूख पकवान । जयन्तसेन समझ बिना, व्यर्थ मान सन्मान ।। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में सर्वज्ञत्व : एक विश्लेषण | (डॉ. श्री धर्मचन्द्र जैन) भारतीय दर्शनों में दो ऐसे दर्शन, मीमांसा और चार्वाक, न्यायवैशेषिक दर्शन में सर्वज्ञत्व : विशेष हैं. जो 'सर्वज्ञत्व' को स्वीकार नहीं करते किन्तु न्याय- न्याय वैशेषिक दर्शन में ईश्वर को ही सर्वज्ञ के रूप में वैशेषिक, सांख्य, योग, वेदान्त, बौद्ध और जैन दर्शन 'सर्वज्ञ' एवं स्वीकार किया गया है । इनके अनुसार ईश्वर ही सम्पूर्ण जगत् का सर्वज्ञत्व में पूर्ण श्रद्धा रखते हैं । ये सभी इस विषय में अपना द्रष्टा, बोद्धा और सर्वज्ञाता है । इस प्रकार नित्यज्ञान का आश्रय अपना दृष्टिकोण रखते हैं किन्तु प्रश्न उठता है कि कोई सर्वज्ञ था। होने से यही जानना चाहिए कि ईश्वर की सर्वज्ञता अनादि और या नहीं ? कोई सर्वज्ञ हो सकता है अथवा नहीं ? यहां इसी को अनन्त है। विभिन्न दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में रखते हुए जैन दृष्टि से अध्ययन करना ही प्रस्तुत अनुबन्ध का विवेच्य विषय है सांख्य-योगदर्शन में सर्वज्ञत्व : 'सर्वज्ञ' शब्द का अर्थ: सांख्यदर्शन निरीश्वरवादी है किन्तु यहां तत्त्वज्ञान के अभ्यास से कैवल्य (सर्वज्ञत्व) की उपलब्धि स्वीकार की गई है । सर्वज्ञ का अर्थ है - सबको जानने वाला - सर्व जानातीति योगदर्शन पुरुषविशेष को ही ईश्वर मानता है और उसमें सर्वज्ञत्व सर्वज्ञः । सर्वज्ञ का 'सर्व' शब्द ही यहां त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों की निरतिशयता स्वीकार करता है ।१३ एवं उनके समस्त पर्यायों को दर्शाता है अर्थात् उनको एक साथ एक ही समय में साक्षात्कार करने वाला व्यक्ति विशेष ही सर्वज्ञ मीमांसा तथा वेदान्त दर्शन में सर्वज्ञत्व : मीमांसकों का कहना है कि धर्म जैसे अतीन्द्रिय पदार्थों में कुछ विद्वान् अनेक विषयों के ज्ञाता को सर्वज्ञ बतलाते हैं। पुरुष की ज्ञान प्रवृत्ति नहीं कर सकता कारण कि वह रागद्वेषादि कुछ एक मानते हैं कि जो सब शब्दों का ज्ञान रखता है वही सर्वज्ञ दोषों से मुक्त नहीं है | अतःपुरुष का धर्मज्ञ होना असम्भव है। है ।' तत्त्वसंग्रहकार सर्वपद से 'भावाभावरूपं जगत्' अर्थ ग्रहण उनका यहां धर्म से अभिप्राय वेद को प्रमाण मानने से है । धर्मज्ञान करते हैं और कहते हैं कि जो संक्षेप से इस भावाभाव रूप जगत् में वेद ही अन्तिम है क्योंकि वही अतीन्द्रिय धर्म का प्रतिपादक है को जानता है, वही सर्वज्ञ है । वह यह भी मानते हैं कि जिसने और वह अपौरुषेय है । इस तरह मीमांसक व्यक्ति में प्रत्यक्षगत जिस दर्शन में जितने-जितने पदार्थ बतलाए गए हैं उन-उन को सर्व धमज्ञता का निषधकर सवज्ञत्व का अभाव मानत ह । मान कर सामान्यरूप से उन्हें जाननेवाला भी सर्वज्ञ है ।। _यहां आचार्य कुमारिल भट्ट सर्वज्ञत्व को स्पष्ट करते हुए वेद एवं उपनिषदों में सर्वज्ञत्व: लिखते हैं कि 'सर्वज्ञत्व' के निषेध से मेरा तात्पर्य 'धर्मज्ञत्व' का निषेध करना मात्र है । यदि कोई व्यक्ति धर्मातिरिक्त जगत् के | वेदों में सर्वज्ञ पद दृष्टिगोचर नहीं होता किन्तु यहां देवताओं अन्य समस्त पदार्थों को अवगत करता है तो वह अवगत करे के प्रशंसापरक प्रार्थनामंत्रों में आगत विश्वदेवान्, विश्वजित्', किन्तु धर्म का ज्ञान वेद को छोड़कर प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से नहीं विश्वविद्वान्, सर्ववित्, विश्वचक्षु, विश्वद्रष्टा' आदि शब्दों के किया जा सकता । अनुमान आदि प्रमाणों से धर्मातिरिक्त निखिल अर्थ में ही सर्वज्ञत्व निहित है । 'सर्वज्ञता' इस पद का प्रयोग पदार्थों को जाननेवाला यदि कोई पुरुष 'सर्वज्ञ' बनता है, तो बेशक उपनिषदों में अधिक बार किया गया है। बृहदारण्यकोपनिषद् में तो 'आत्मानं विद्धि' कह कर सर्वज्ञ को 'आत्मज्ञ' कहा गया है । १० वहदारण्यक ४/५/७ जबकि जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में तत्त्वज्ञ को सर्वज्ञ माना गया है। " आगमाच्च दृष्टा बौद्धा सर्वज्ञाता ईश्वर इति । न्यायसूत्र ५/१/२१ पर वात्सायन भाष्य, पृ. ४८१ विशेष - न्यायवैशेषिक ईश्वर भिन्न योगियों में सर्वज्ञान स्वीकार करते हैं किन्तु तत्र यः सर्वशब्दज्ञः सः सर्वज्ञोऽस्तु नामतः । तत्त्वसंग्रह श्लो. ३/३० सभी योगी आत्माओं में नहीं, क्योंकि योगजन्य होने से उनका ज्ञान अनित्य भावाभाव स्वरूपं वा जगत् सर्वं यदोच्यते । होता है। तत्संक्षेपेण सर्वज्ञः पुरुषः केन वार्यते ।। वही, श्लो. ३/३२ दे. वाराणसी प्रशस्तपादभाष्य पृ. पदार्था यैश्च यावन्तः सर्वत्वेनावधारिताः १५८/१५९ तथा न्यायमंजरी भा. पृ. तज्ज्ञत्वेनापि सर्वज्ञः ।। वही ३/३५ १७५ दे. ऋग्वेद १/२१/१; सामवेद १/१/ ३ १ २ एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे दे. अथर्ववेद १/१३/४; ऋक् १०/९१/३ मा नाहमित्यपरिशेषम् । अविपर्ययाद् दे. ऋग्वेद ९/४/८५, १०/२२/२ । विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ॥ दे. अथर्ववेद १७/१/११ सांख्यसारिका ६४ ८ दे. ऋग्वेद १०/८१/३ तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् । योगदर्शन दे, अथर्ववेद ६/१०७/४ १/२५ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (२०) ठगई ठट्टा ठाकुरी, ठोठी ठणठण पाल । जयन्तसेन निष्फल यह, खोते अपना काल ।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बने, इसमें किसे विरोध हो सकता है ?' किसी को नहीं। यि दूसरे, मीमांसक आचार्य शबर स्वामी ने लिखा है कि वेदभूत, वर्तमान और भावी तथा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों का ज्ञान करने में समर्थ है। किन्त परुष राग देष और अज्ञान से दूषित होते हैं । अतः आत्मा में पूर्ण ज्ञान और वीतरागत्व का विकास सम्भव नहीं जिससे वह अतीन्द्रियदर्शी और प्रामाणिक बन सके । इस तरह धर्मज्ञ के अभाव से सर्वज्ञत्व का अभाव भी सिद्ध हो जाता है। तीसरे, कुमारिल भट्ट का भी कहना है कि शब्द में दोषों की उत्पत्ति वक्ता के अधीन है किन्तु शब्द में निर्दोषता दो प्रकार से आती है एक तो गुणवान् वक्ता के होने से और दूसरे वक्ता के अभाव से क्योंकि वक्ता के अभाव में आश्रय के बिना दोष असम्भव है । इस प्रकार शब्द की प्रामाणिकता का आधार निर्दोषता है और वेद में जो निर्दोषता और प्रामाणिकता है वह उसके अपौरुषेय होने से है । निर्दोषता और ज्ञान का पूर्ण विकास न मानने में कारण यह भी है कि विकास की भी एक सीमा होती है । विकास सीमित ही हो सकता है, असीमित नहीं क्योंकि कोई व्यक्ति आकाश में उछलने के अभ्यास द्वारा १०-२० हाथ ही तो उछल सकता है न कि वह उछलकर एक योजन ऊंचा चला जावेगा/ अतएव मीमांसकों ने इसतरह वेद को त्रिकालदर्शी बतलाकर सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध किया है। वेदान्ती एकमात्र ब्रह्म को सच्चिदानन्दमय, चिदात्मक, व्यापक और सर्वज्ञ मानते हैं । शांकरभाष्य में भी बतलाया गया है कि ब्रह्म नित्य, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, नित्यतृप्त, नित्यशुद्ध, नित्यबुद्ध, नित्यमुक्त स्वभावी, विज्ञान स्वरूप एवं आनन्दमय है । इसतरह ब्रह्म के ज्ञानात्मक होने से उसमें अनन्तज्ञान सदैव एवं सर्वत्र बना रहता है । अतएव यहां ब्रह्म ही सर्वज्ञ है। ह। अतएव यहा ब्रह्म हा स बौद्धदर्शन में सर्वज्ञत्व : बौद्धदर्शन में भगवान बुद्ध को ही सर्वज्ञ के रूप में स्वीकार किया गया है । मिलिन्द प्रश्न में उनके शिष्यों में उनकी सर्वज्ञता की सिद्धि करते हुए बतलाया गया है कि जैसे चक्रवर्ती राजा स्मरणमात्र से चक्र, रल आदि उपस्थित कर सकता है वैसे ही भगवान् बुद्ध जिस किसी बात अथवा तत्त्व को जानना चाहते हैं वे उसे ध्यान करते ही जान लेते हैं । धर्मकीर्ति के विचार में संसार की समस्त बातों का ज्ञान होने से अथवा कोई वस्तु कितनी पास या दूर है, इसके ज्ञानमात्र से ही सर्वज्ञ नहीं हो जाता । यदि ऐसा न होता तो दूरदर्शी गृद्धोंकी भी उपासना करनी चाहिए। परन्तु धर्म से सम्बन्धित सभी आवश्यक बातों के ज्ञान का ही (हमे) विचार करना अभीष्ट है । अतः हेयउपादेय तत्त्वों का ज्ञाता ही प्रभाव है, सब पदार्थों का ज्ञाता नहीं । प्रमाणवार्तिक के भाष्यकार प्रज्ञाकर गुप्त ने बुद्ध को सर्वज्ञ सिद्ध करते हुए कहा है कि बुद्ध की तरह अन्य योगी भी सर्वज्ञ हो सकते हैं कारण कि जब आत्मराग से रहित हो जाती है तब उसमें सब पदार्थों को जानने की सामर्थ्य आ ही जाती हैं । शान्तरक्षित ने भी सर्वज्ञत्व की सिद्धि करते हुए कहा है कि सर्वज्ञ के सद्भाव का कोई भी बाधक प्रमाण नहीं है बल्कि उसके साधक प्रमाण ही अधिक मिलते हैं । अतः सर्वज्ञत्वपर विवाद करना व्यर्थ है । इस प्रकार प्रायः सभी दर्शन किसी न किसी रूप में सर्वज्ञत्व को स्वीकार करते हैं। इस धर्मज्ञत्वनिषेधश्च केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते । तत्त्वसंग्रह श्लो. ३१२८ चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सक्ष्म यवहितं विप्रकट- मित्येवं जातीयकमर्थमवगमयितुमलम् शाबरभाष्य १/१/२ शब्दे दोषाद्भस्तावद् वक्त्रधीन इतिस्थितम । तद्भावः क्वचित्तावत् गुणवद्वक्तृतत्त्वतः ।। तद्गणैरपकृथनां शब्दे संक्रान्त्यसम्भवात् । यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषाः निराश्रयाः ।। मीमांसा श्लोकवार्तिक चोदनासूत्र ६२-६३. आचार्य (साहित्य, जैन दर्शन), साहित्यरल, काव्यतीर्थ, अभिधर्म देशना प्रकाशित । 'लघु बौद्ध पारिभाषिक शब्द कोश तथा जैन दर्शन में नयवाद : एक अध्ययन प्रकाश्य । लगभग पचास शोध निबंधोंका अभी तक प्रकाशन । दो ग्रंथों के लिए लेखनरत सम्प्रति - रीडर, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या संस्थान, कुरुक्षेत्र विश्व - विद्यालय, कुरुक्षेत्र, हरियाणा. ४ दे. ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य, सू. ५, पृ.११ जामशाहामा दे. मिलिन्द प्रश्न (हिन्दी) पृ. १३७ दूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । प्रमाणं दूरदर्शी चे तद् गृध्रानुपास्महे ।। प्रमाणवार्तिक १/३५ तस्मादनुष्ठेयगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । वही १/३३ हेयोपादेतेय तत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्ये न तु सर्वस्य वेदकः ।। वही १/३४ ततोऽस्य वीतरागत्वे सर्वार्थज्ञानसंम्भवः । समाहितस्य सकलं चकास्तीति विनिश्चितम् ।। सर्वेषांवीतरागाणामेंतत् कस्मान्न विद्यते । रागादिक्षयमात्रं हि || पुनः कालान्तरं तेषां सर्वज्ञ गुणरागिणाम् । अल्पयलेन सर्वज्ञस्य सिद्धिवारिता || प्रमाणवार्तिकालंकार, पृ. ३२१ निवृत्तावस्य भावोऽपि दृष्टेस्तेनापि संशया । तस्मात् सर्वज्ञसद्भाव बाधकं नास्ति किञ्चन ॥ ततश्च बाधकाभावे साधने सति च स्फुटे । कस्माद् विप्रतिपद्यन्ते सर्वज्ञे जड़बुद्धयः || तत्त्वसंग्रह श्लो. ३३.इ.३३०१. डा. धर्मचन्द्र जैन एम.ए., पी.एच.डी. (संस्कृत एवं पाली) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (२१) खटपट खार व खिंझना, खोटी बात खुंखार | जयन्तसेन प्रगति रहे, छोडे पांच खकार | Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में सर्वज्ञत्व: है। वही सर्वज्ञ है। जैनदर्शन में सर्वज्ञत्त्व विषयक गहन चिन्तन किया गया है। वीतरागी सर्वज्ञ जैन ग्रंथों का साङ्गोपाङ्ग अध्ययन करने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि 5 प्राणवध आदि पापस्थानों के त्याग और ध्यान, अध्ययन यहां प्रत्येक जीव अपनी विशद्ध अवस्था में सर्वज्ञ है । इस दर्शन में आदि की विधि को कष कहते हैं। जिन बाह्य क्रियाओ से धर्म में चौवीस तीर्थङ्कर तो सर्वज्ञ हुए ही हैं परन्तु स्वयं बौद्ध दार्शनिक बाधा न आती हो और जिससे निर्मलता की वृद्धि हो वह छेद है। धर्मकीर्ति ने भी अपनी रचना में 'ऋषभ और वर्धमान की सर्वज्ञता जीवसम्बद्ध दुःख और बन्ध को सहना ताप है। इस प्रकार कषादि का उल्लेख किया है । इसके अलावा अन्य असंख्य आत्माएं भी से शुद्धधर्म धर्म कहलाता है । जिसमें रागादि सम्पूर्ण दोष क्षय हो चार घातिया कर्मों का प्रहाण कर सर्वज्ञ हई हैं। भविष्य में भी गए हैं, वही आप्त है | रागादि किसी जीव में सर्वथा नाश होना कर्मनाश करके द्रव्य, क्षेत्र, काल और आज की अपेक्षा कोई भी भी सम्भव है । जिसप्रकार सूर्य को आच्छादित करनेवाले बादलों में भव्य जीव सर्वज्ञ बन सकता है। हीनाधिकता पायी जाती है इसलिए कहीं पर बादलों का सर्वथा जैनागमों में सर्वज्ञत्व नाश भी सम्भव है, उसी प्रकार जीवों में भी राग की न्यूनाधिकता जैन आगमग्रंथों में कहा गया है कि सर्वज्ञ त्रिकाल और देखी जाती है। कहीं पर राग आदि का सर्वथा विनाश भी सम्भव त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों और उनके समस्त पर्यायों को जानता है है । जिसमें ये रागादि सम्पूर्ण दोष नष्ट हो गए हैं वही आप्त 'सइ भगवं उप्पण्णाणाणदरिसी - सव्वलोए सब्बजीवे सव्वभावे भगवान सर्वज्ञ है। सम्मसमें जाणादि पस्सदि विहरदित्ति । कि का यह मानना भी ठीक नहीं है कि रागादि अनादि हैं और कुन्दकुन्दाचार्य सर्वज्ञ का निरूपण करते हुए कहते है कि इनका सर्वथा नाश असम्भव है क्यों कि जैसे अनादि सवर्ण के मैल 'ज्ञानी लोको के समस्त द्रव्यों को जाननेवाला होता है । वह अनन्त का क्षार मिट्टी के पुटपाकादि योग्य साधनों को पाकर नष्ट हो पर्यायवाले एक द्रव्य को भी जानता है और एक साथ अनेक जाता है और बाहरी तथा भीतरी मल से विहीन हुआ अपने शुद्ध पर्यायीवाले अनन्त पदार्थों को भी जानता है । सुवर्णरूप में परिणत हो जाता है वैसे ही रागादि अनादि दोष सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रलत्रय के अभ्यासरूप साधना से नष्ट आचार्यसमन्तभद्रकी दृष्टि में सर्वज्ञत्व हो जाते है । तात्पर्य यह कि द्रव्य तथा भावकर्मरूपमल से बद्ध समन्तभद्राचार्य ने सर्वज्ञ की सिद्धि करते हुए कहा है कि हुआ भव्य जीव सम्यग्दर्शन आदि योगसाधनों के बल पर उस कर्म 'सूक्ष्म अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को हम जैसे अनुमान से बन्ध को पूर्णरूप से दूर करके अपने शुद्धात्मरूप में परिणत हो जानते हैं, वैसे ही उन पदार्थो को प्रत्यक्ष से जानने वाला भी कोई ___ जाता है । अतः किसी पुरुष विशेष में दोषों तथा उनके कारणों व्यक्ति अवश्य होता है जिसने पदार्थों को जाना ही 'नहीं', प्रत्युत की पूर्णतः हानि होना असम्भव नहीं है । जिस पुरुष में दोषों तथा उसने उनका साक्षात्कार भी किया है, ऐसा व्यक्ति विशेष ही सर्वज्ञ आवरणों की यह निःशेष हानि होती है वह पुरुष आप्त अथवा निर्दोष सर्वज्ञ होता है । निम्नोक्त अनुमान प्रयोग से भी सर्वज्ञ की - इस तरह सर्वज्ञत्व के विषय में अकलंकभट्ट, विद्यानन्द, सिद्धि होती है - प्रभाचन्द और हेमचन्द्रसूरिने आचार्य समन्तभद्र का ही अनुसरणकिया सर्वज्ञत्व की सर्वोत्कृष्टता: है । स्याद्वादमंजरीकार आचार्य मल्लिषेण ने भी आप्तमीमांसा की वन्य ज्ञान की हानिवृद्धि किसी जीव में सर्वोत्कृष्टरूप में नहीं युक्तियों का अनुसरण कर सर्वज्ञ की सिद्धि की है । वे कहते है कि कष, छेद और तापरूप उपाधियों से रहित धर्म को कहने वाला पायी जाती क्योंकि ये हानि और वृद्धि रूप है । तथा जिस प्रकार आगम ही प्रमाण है और इस आगम का कर्ता ही आप्त कहलाता यस्त्वाप्तप्रणीत आगमः स प्रमाणमेव, कषच्छेदताप लक्षणोपाधित्रयविशुद्धत्वात् । स्याद्वादमंजरी, पृष्ठ १७५ यः सर्वज्ञ आप्तो वा स ज्योतिर्ज्ञानादिकमुपदिष्टवान् तद् यथा वही, पृ. २६८ ऋषभवर्धमानादिरिति । न्यायबिंदु ३/१३१ देशतो नाशिनो भावा दृथ निखिलनश्वराः । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म घातिया मेघपङक्त्यादयो यद्वत् एवं रागादयोमताः ।। वही, पृ. १७६.. कहलाते है। यस्यच निरवयवर्तयते (रागादयः) दे. षट्खण्डागम पयडि. सूत्र ७८ तथा मिलाइये - 'से भगवं अरहं विलीना, स एवाप्तो भगवान् सर्वज्ञः जिनकेवलीसव्वन्नू सव्वभावदरिसी - सबलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई वही तथा तुलना कीजिएजाळमाणे पासमाणे एवं च णं विहरइ । आचारांग सूत्र २/३ जं तकालियमिदरं जाणादि जुगवं समंतदो सव्वं । दोषाऽऽवरणयोहानिनिःशेषाऽसत्यतिशायनात्। आधं विवित्तविसमं तं पाणं खाइयं भणियं ।। क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः तिक्ककालणिञ्चविसमं सयलं सव्वत्यसंभवं चित्तं । || आप्तमीमांसा कारिका ५ जुगवं जाणादि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं ।। प्रवचनसार १/४७,५१ अनादेरपि सुवर्ण मलस्य सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । क्षारमृत्पुटपाकादिना विलयोपलम्भात् । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति || आप्तमीमांसा कारिका ५ स्याद्वादमंजरी, पृ. १७६. है। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (२२) दानी दीन सखा भुदा, दम दाक्षिण्य दयाल । जयन्तसेन सुदूर हो, इन से सब जंजाल ।। - Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश में परिमाण की सर्वोत्कृष्टता पायी जाती है उसी प्रकार सर्वज्ञ में ज्ञान की सर्वोत्कृष्टता पायी जाती है।' अतीन्द्रिय पदार्थ ज्ञाता, द्रष्टा सर्वज्ञ: तथा स्वभाव से दूर परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ देश से दूर सुमेरु पर्वत आदि और काल से दूर राम, रावण आदि किसी के प्रत्यक्ष होते हैं, अनुमेय होने से । जो अनुमेय होते है, वे किसी के प्रत्यक्ष होते है । जैसे पर्वत की गुफा की अग्नि अनमान का विषय होने से किसी न किसी के प्रत्यक्ष होती है वैसे ही हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान के बाह्य परमाणु आदि किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य होने चाहिए । अतः जिसे ये समस्त अतीन्द्रिय पदार्थ प्रत्यक्ष होते हैं, वही सर्वज्ञ है। यदि यह न मानें कि अतीन्द्रिय पदार्थों का कोई ज्ञाता नहीं है तब यह भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान न हो सकता तो सूर्य चन्द्र इत्यादि ज्योतिग्रहों का उपदेश भी कैसे सत्य कहा जा सकेगा । ज्योतिर्ज्ञान उपदेश अविसंवादी और यथार्थ देखा जाता है, और उसका यथार्थ उपदेश अतीन्द्रियार्थ के विना नहीं हो सकता । अतएव सर्वज्ञ की सिद्धि निश्चित होती है । इस प्रकार जैन आचार्यों का अभिमत है वि सर्वज्ञत्व की सिद्धि में कोई बाधक प्रमाण नहीं है और सर्वज्ञ सिद्ध है। यह सर्वज्ञ सब कुछ जानता है, राग आदि दोषों से पूर्ण मुक्त है, तीनों लोको में पूजित और वस्तुएं जैसी हैं उन्हें उसी प्रकार से प्रतिपादित करता है । वही परमेश्वर अरहंत हैं। सर्वज्ञ है । कुन्दकुन्दाचार्य नियमसार में कहते हैं कि यह सर्वज्ञ व्यवहारनय से ही समस्त पदार्थों को जानता है किन्तु निश्चय नय से तो वह केवल अपनी आत्मामात्र को ही जानता है । इसी कारण आप्तमीमांसा, अष्टशती', अष्टसहस्त्री, आप्तपरीक्षा, प्रमेयकमलमार्तण्ड', न्यायकुमुदचन्द्र", न्यायविनिश्चय१२ विवरणप्रभृति जैन सिद्धान्तग्रंथों में सर्वज्ञत्व की पर्ण सिद्धि की गयी है। ज्ञानतारतम्यं क्वचिद् विक्रान्तम्, तारतम्यत्वात्, आकाशे परिणाम तारतम्यवत्। तथा मिलाइए :प्रज्ञाया अतिशय:- तारतम्यं क्वचिद्विक्रान्तम, अतिशयत्वात्, परिमाणातिशयवदित्यनूमानेन निरतिशयप्रज्ञासिद्ध्या तस्य केवलज्ञानस्य सिद्धिः । -प्रमाणमीमांसा, पृ. १२. म तथा सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः, अनुमेयत्वात्, क्षितिधरकन्दराधिकरण धूमध्वजवत् । स्याद्वादमंजरी, पृ. १७६ तथा देखिएसूक्ष्मान्तरित दूराः कस्यचित्प्रत्यक्षाः, अनु मे यत्वात्, क्षितिधरकन्दराधिसूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षा, प्रमेयत्वात् घटवदित्यतो। - प्रमाणमीमांसा, पृ. १२ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति ।। आप्तमीमांसा कारिका ५ एवं चन्द्रसूर्योपरागादि सूचकज्योतिर्ज्ञानाविसंवादान्यथानुपपत्ति प्रभृतयोऽपि हेतवो वाच्याः । स्याद्वादमंजरी, पृ. १७६ ज्योतिर्ज्ञानाविसंवादान्यथानुपपत्तेश्च तत्सिद्धिः । प्रमाण मीमांसा, पृ. १२ यदाह धीरत्यन्तपरोक्षेऽर्थे न चेत् पुंसां कुतः पुनः । ज्योति नाविसंवादः कृताश्चेत् साधनान्तरम् ।। सिद्धिविनिश्चय, पृ. ४१३ तथा न्याय विनिश्चय श्लो. ४१४ बाधकाभावाच्च । प्रमाणमीमांसा १/१/१७ कश्चित्पुमानशेषज्ञः प्रमाणाबाधितत्त्वतः । न चासिद्धमिदं तावत्कस्यचिद् बाधकात्ययात् ।। सिद्धान्तसंग्रह ४/८८ अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासंभवाद्बाधक प्रमाणत्वात् मुखादिवत् । समान सिद्धि विनिश्चयटीका, पृ. ४२१ सर्वज्ञो जितसंगादिदोष त्रैलोक्यपूजितः यथा स्थितार्थवादो च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ।। योगशास्त्र २/४ जाणादि पस्सदि सव्वं ववहारणएणं केवली भगवं । केवलणाणी जाणादि पस्यदि णिपमेण अप्पाणं ।। नियमसार गा. १५८ दे. आप्तमीमांसा, पृ. ६-८ दे. ये दोनों आत्ममीमांसा के टीकाग्रंथ है। दे. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. २४७-२६६ ११ दे. न्याय कुमुदचन्द, पृ. ८६-९७ १२ दे. न्यायविनिश्चय विवरण, पृ. २८६ मधुकर-मौक्तिक यदि आपसे कोई पूछे कि आप कौन हैं - जीव या शरीर ? तो आप क्या जवाब देंगे ? क्या आपको, स्वयं को जीव होने का पूरा भरोसा है ? जिसको अपने जीवत्व' पर विश्वास हो जाता है, उसका जीवन हमेशा के लिए निर्मल बन जाता है | उसके जीवन में किसी प्रकार का उतार-चढ़ाव या भेदभाव निर्मित नहीं होता । वह इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट विषयों में द्वेष नहीं करता। अपना अपने शरीर के साथ संयोग-सम्बन्ध है | शरीर आखिर छूटने वाला है | देहातीत होने की कला यदि आपने जान ली. तो समझ लीजिये कि आपने जीव को समझ लिया है । जिसने भेद-विज्ञान को नहीं जाना, उसने जीव को भी नहीं जाना । जैसे तलवार म्यान में रहती है; पर स्थान और तलवार एक रूप नहीं है, उसी प्रकार जीव शरीर में रहते हुए भी जीव और शरीर एक रूप नहीं है । दोनों जुदा हैं। इसलिए हम शरीर नहीं, पर शरीरधारी जीव अवश्य है। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण जाहिल जालिम जाल्मक, जीभ न वश में जास । होत नही इन चार का, जयन्तसेन विकास-lary.org Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन रामायण 'पउमचरिउ' और हिन्दी रामायण 'मानस' (डॉ. श्री लक्ष्मीनारायण दुबे) था। प्रभाव-सूत्र: जीवन-सूत्र: जैन रामायण 'पउमचरिउ' (पद्मचरित्र) के रचयिता महाकवि स्वयंभू के समय में ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन धर्म ही भारत के स्वयंभू थे और हिन्दी रामायण "रामचरितमानस' के स्रष्टा गोस्वामी प्रधान धर्म थे । तुलसी के युग में इस्लाम का राजनैतिक प्रभुत्व तुलसीदास थे । स्वयंभू अपभ्रंश के वाल्मीकि थे तो तुलसी अवघी के । स्वयंभू के मूल स्रोत वाल्मीकि थे और तुलसी के भी वे ही स्वयंभू के जीवन-काल के विषय में पर्याप्त मतभेद है । थे । स्वयंभू ने जिन कवियों का गुणगान किया था, उनमें अपभ्रंश राहुलजी ने उनका जीवनकाल नवम शताब्दी के पूर्वार्द्ध में माना है के कवि सिर्फ चतुर्मुख हैं जिनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। जबकि डॉ. भायाणी ने उन्हें नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में माना है । चतुर्मुख का उल्लेख हरिषेण, पुष्पदंत और कनकामर ने भी किया डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने उनका जन्म सन् ७७० बताया है । तुलसी था । तुलसी ने स्वयंभू की कहीं कोई चर्चा नहीं की है परन्तु का जीवनकाल सन् १५८२-१६२८ की कालावधि को घेरता है । महामण्डित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है : मालूम होता है, तुलसी 'पउम चरिउ' (सन् ८५०-६० के मध्य लिखा गया था जबकि बाबा ने स्वयंभू रामायण को जरूर देखा होगा, फिर आश्चर्य है कि 'रामचरित मानस' सन् १५७४-१५७७ में लिखा गया था ।) उन्होंने स्वयंभू की सीता की एकाध किरण भी अपनी सीता में क्यों नहीं डाल दी । तुलसी बाबा ने स्वयंभू-रामायण को देखा था, मेरी तुलसी की धर्मपली रलावली के समान स्वयंभू की दो इस बात पर आपत्ति होसकती है, लेकिन मैं समझता हूं कि तुलसी पलियां थीं जो कि सुशिक्षिता तथा काव्य-प्रेमी थीं । प्रथम पली बाबा ने 'क्वचिदन्यतोपि' से स्वयंभू रामायण की ओर ही संकेत सामिअबूबा ने कवि को विद्याधर काण्ड लिखाने में मदद की थी। किया है | आखिर नाना पुराण, निगम, आगम और रामायण के द्वितीय पत्नी आइच्चम्बा ने स्वयंभू को अयोध्या काण्ड लिखने में बाद ब्राह्मणों का कौनसा ग्रन्थ बाकी रह जाता है, जिसमें राम की सहयोग दिया था । उनके एकमेव पुत्र त्रिभुवन ने उनकी तीन कथा आयी है । 'क्वचिदन्यतोपि' से तुलसी बाबा का मतलब है, कृतियों के अंतिम अंशों को पूर्ण किया था और वह स्वयं को ब्राह्मणों के साहित्य से बाहर 'कहीं अन्यत्र से भी' और अन्यत्र इस 'महाकवि' कहता हुआ अपने पिता के सुकवित्व का उत्तराधिकारी जैन ग्रन्थ में रामकथा बड़े सुन्दर रूप में मौजूद है । जिस सौरौं या घोषित करता था। उसने 'पंचमी चरिउ' ग्रन्थ को लिखा था । सूकर क्षेत्र में गोस्वामीजी ने राम की कथा सुनी, उसी सोरों में जैन तुलसी उत्तर भारतवासी थे जबकि स्वयंभू दाक्षिणात्य । तुलसी घरों में स्वयंभू-रामायण पढ़ी जाती थी । रामभक्त रामानन्दी साधु उत्तर- भारत का अधिक वर्णन करते थे जबकि स्वयंभू दक्षिण राम के पीछे जिस प्रकार पड़े थे, उससे यह बिल्कुल सम्भव है कि भारत का । स्वयंभू अपने वर्णन में विन्ध्याचल से आगे कम ही उन्हें जैनों के यहां इस रामायण का पता लग गया हो। यह यद्यपि बढ़त थ । वस्तुतः स्वयभू विदर्भवासी थे | गोस्वामीजी से आठ सौ बरस पहले बना था किन्तु तद्भव शब्दों के दोनों महाकवियों की ख्याति अपने युग में फैल चुकी थी। प्राचुर्य तथा लेखकों-वाचकों के जब तब के शब्द - सुधार के कारण स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने अपने पिता को स्वयंभूदेव, कविराज, भी आसानी से समझ में आ सकता था (हिन्दी काव्य-धारा) । कविराज चक्रवर्तित, विद्वान्, कुन्दस चूड़ामणि आदि उपाधियों से डॉ. नेमिचन्द शास्त्री (हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन, भाग १) अलंकृत किया था जिससे स्वयंभू की अपने समय में ख्याति, यश का भी अभिमत है कि हिन्दी साहित्य के अमर कवि तुलसीदास पर तथा सम्मान की सूचना भी हमें मिलती है - तुलसी भी अपने समय स्वयंभ की 'पउमचरिउ' और 'भविसयव कहा' का अमिट प्रभाव म वाल्माक क अवतार धाषित हा चक था। पड़ा है । इतना सुनिश्चित है कि 'रामचरित मानस' के अनेक स्थल साहित्य-सूत्र : स्वयंभू की 'पउम चरिउ' रामायण से अत्यधिक प्रभावित हैं तथा तुलसी ने द्वादश काव्य-ग्रन्थ लिखे थे । स्वयंभू-रचित तीन स्वयंभू की शैली का तुलसीदास ने अनेक स्थलों पर अनुकरण किया ग्रन्थ 'पउम चरिउ', 'रिट्ठणेमि चरिउ' एवं 'स्वयंभू-कुन्द' बताये जाते हैं । इनके अतिरिक्त स्वयंभू इसके विपरीत डॉ. उदयभानु सिंह (तुलसी-काव्य-मीमांसा). को 'सिरि पंचमी' और 'सुद्धय चरिय' का अभिमत है कि ब्राह्मण-परम्परा में लिखित ग्रन्थ ही तुलसी- की रचना का भी श्रेय दिया जाता साहित्य के स्रोत हैं । कुछ स्थलों पर बौद्ध-जैन राम-कथाओं से है । स्वयंभू ने सम्भवतः किसी तुलसी-वर्णित रामचरित का सादृश्य देखकर यह अनुमान कर लेना व्याकरण-ग्रन्थ की भी सृष्टि की ठीक नहीं है कि तुलसी ने उनसे प्रभावित होकर वस्तु-ग्रहण किया थी । जैन विद्वान् स्वयंभू को अलंकार है । दोनों के दृष्टिकोण में तात्विक भेद है। तथा कोश-ग्रन्थ के रचयिता भी मानते हैं । स्वयंभू ने शायद कुल सात श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (२४) छद्मवेश, छद्मी, छली, छक्का नर भुवि जान । जयन्तसेन यह दुःखदा, छोडत पावो त्राण Lord Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ लिखे थे । सप्तम ग्रन्थ का नाम 'सिरि-पंचमी कहा' है । उनकी 'सप्त जिव्हा' वास्तव में उनके सात ग्रन्थ थे TOIS गजंति ताम्ब कइमच कुंजरा लक्ख लक्खण- बिहीणा । जा सच दीह-जी सयंभु-सीण पेच्छिति ॥ "स्वयंभू छन्द" का प्रकाशन सर्वप्रथम हुआ। इसमें आढ अध्याय हैं जिनमें प्रथम तीन अध्यायों में प्राकृत 'कुन्दों' तथा परवर्ती पांच अध्यायों में अपभ्रंश कुंदों का वर्णन है । स्वयंभू ने अपने इस ग्रन्थ से राजशेखर, हेमचन्द्र आदि को प्रभावित किया था । ॥ स्वयंभू को अमर शाश्वत बनाने वाली रचनाएं 'पउमचरिउ' तथा 'रिमिचरिउ' हैं। जैन-परिपाटी में 'पद्म' श्रीराम का परिचायक है। स्वयंभू जैन रामकथा गायक विमलसूरि की परम्परा के कवि थे । उन्होंने इस कथा को अनेक अभिधानों से उद्भासित किया था यथा पोमचरिय, रामायण पुराण, रामायण, रामएवचरिय, रामचरिय, रामायणकाव, राघवचरिय, रामकहा इत्यादि । 'पउम चरिउ' पांच काण्डों में विभाजित है जबकि 'रामचरित मानस' सप्त सोपानों में पउम चरिउ' में कुल मिलाकर ९० संधियां हैं विद्याधर काण्ड - २०, अयोध्याकाण्ड २२, सुन्दरकाण्ड - १४, युद्धकाण्ड - २१ तथा उत्तरकाण्ड १३ संधियां । समूचे ग्रन्थ में कुल १२६९ कड़वक हैं। 'रिट्ठणेमेचरिउ' स्वयंभू का सबसे बड़ा ग्रन्थ है । इसमें १८ हजार श्लोक हैं। इसमें ४ काण्ड और १२० संधियां है । मान्यता-सूत्र : स्वयंभू और तुलसी रामकथा के सूत्र से सम्बद्ध थे । दोनों में लगभग ७५० वर्षों का अंतर था। दोनों के काव्य-सिद्धातों में अंतर दिखायी पड़ता है। स्वयंभूने शाश्वत कीर्ति और अभिव्यंजना को अपने लक्ष्य स्वीकार किये थे पुणु अथाणउ पाय मि रामायण कावैं । णिम्मल पुण्य पवित्र कह- क्विणु आढप्पड़ । जैण समाणिज्जंतेण थिर किचणु विपढप्पढ़ ॥ तुलसी के काव्योद्देश्य में राम के स्तवन के साथ आत्मकल्याण तथा परहित निहित था एहि महं रघुपति काम उदारा, अति पावन पुरान स्मृति सारा । मंगलभवन अमंगलहारी, उमा सहित, जेहि जपत मुरारी ॥ स्वयंभू को राम कथा जैन परम्परा से प्राप्त हुई । भगवान महावीर स्वामी, गौतम गणधर सुधर्मा प्रभव, कीर्तिधर और आचार्य रविषेणसे यह धारा उन्हें मिली । तुलसी को स्वयंभू शिव से प्राप्त हुई। स्वयंभू रविषेण को अपना मुखिया मानते थे वद्धमाण-मुह- कुहर विणिग्गय राम कहा- गइ एह कमागय ॥ पच्छर इन्तमुह-आयरिएं । पुणु धम्मेण गुणालंकिएं । पुणु पहवे संसाराराएं । किचिहरेण अणुचरवाएं | पुणु रविषेणायरिय पसाएं। बुहिए अवगाहिय कइराएं ॥ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण गी स्वयंभू ने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की वंदना से अपना काव्यारम्भ किया है - णमह णव-कमल-कोमल-मणहर- वर-वहल- कांति-सोहिल्लं । उसहस्स पाय कमले स-सुरासुरं वन्दियं सिरसां । तुलसी पार्वती-शंकर के मंगलाचरण से 'मानस' का श्रीगणेश करते भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ । याम्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम् ॥ 'पउमचरिउ' तथा 'मानस' के कतिपय कथा सूत्र भी अवलोकनीय हैं । स्वयंभू राम वनवास में सीता के वियोग में गज से मृग-नैनी सीता की बात पूछते हैं हे कुंजर कामिणि-गह- गमज कहेकंहि मि दिह जड़ मिगणयण || 'मानस' के राम भी इसी प्रकार पूछते-फिरते दिखायी देते हैं - "हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी तुम देखी सीता मृग नैनी ।। । स्वयंभू के राम नीलकमलों को सीता के नयन समझते हैं तो कहीं अशोक को सीता की बांह मान बैठते हैं ि यि पारि वेण वैयारियउ जाणइ सीयएं हक्कारियउ || कत्थई दिई इन्दीवरहं जणइ घण-णयणई दीहरहं || ॥ कत्थइ असोय-तरू हल्लियउ । जानाइ घण-वाहा- डौल्लियउ ॥ वणु सय गवेसवि सवल महि पल्लट्टु पडीवउ दासरहि ॥ तुलसी के राम की भी यही स्थिति है। उनको ऐसा प्रतीत होता है कि मानों सीता के अंग-प्रत्यंगों से ईर्ष्या करने वाले खंजन, मृग, कुंद, कमल आदि इस समय प्रमुदित हैं - खंजन सुक कपोत मृग मीना मधुप निकर कोकिला प्रवीना ॥ । कुंद कली दाडिम दामिनी । कमल सरद ससि अहिमामिनी ॥ बरुन पास मनोज धनुहंसा । गज के हरि निज सुनत प्रसंसा ॥ श्रीफल कनक कदलि हरसाहीं । नेक न संक सकुच मनमाहीं ॥ सुनु जानकी तोहि बिनु आजु । हरषे सकल पाइ जनु राजू ॥ स्वयंभू ने सीता के असहाय करुण क्रन्दन को मार्मिक रूप में प्रस्तुत किया है। हउंपावेण एण अवगण्णेवि पिय तिहवणु अ मणूसउ मण्णें वि ।। अह महं कवणु णेइ कन्दन्ती । BPUTE नक्खण राम - विजइ हुन्ती ॥ हा हा दसरह माणगुणोवहि । हा हा जणय जणय अवतौयहि || हा अपराइएं हा हा केक्क हा सुप्पेहें सुमिचें सुन्दर -मह ॥ हा सुतहण भरह भरहेसर । हा भामष्कुछ भाइ सहोयर || (२५) 本 चोरी, चुगली, चाटुकी, चालाकी ये चार । जयन्तसेन तजो करो, पापों का परिहार ॥y.org Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हा हा पुणु वि राम हा लक्खण । को सुमरमि कहो कहपि अ लक्खण ॥ को संथवइ मइ को सुहि कहों दुक्खु महन्त उ । नाराय जहिं जहिं जामि हउँ त त जि पएस पतिचउ ॥ शाक्य यही स्थिति 'मानस' में भी है हा जग एक वीर रघुराया । केहि अपराध विसारेहु दाया । आरति हरन सरन सुखदायक । हा रघुकुल सरोज दिननायक ॥ हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा । सो फलु पायउं कान्हेउं रोसा ।। विपति मोरि को प्रभुहि सुनावा । पुरोडास चह रासभ खावा ॥ सीता के विलाप सुनि भारी । भये चराचर जीव दुखारी ॥ अहिंसा मूलक जैन धर्म के अनुयायी होने के कारण स्वयंभू कहीं भी आखेट का वर्णन नहीं करते परंतु युद्ध-वर्णन में उनका उत्साह अमित है और उन्होंने प्रचुर युद्ध-वर्णन प्रस्तुत किये हैं। उनमें वस्तु-वर्णन तथा गणना की प्रवृत्ति का आधिक्य है । वे वृक्षों के नामों की लम्बी सूची प्रस्तुत करते हैं | उनकी प्रवृत्ति मन्दोदरी तथा सीता के नख-शिख-वर्णन में बड़ी रमी है । यह स्थिति तुलसी की नहीं है । दोनों कवियों में धार्मिक भावना की प्रधानता है । स्वयंभू ने जैन धर्म के आचारात्मक तथा विचारात्मक - दोनों पक्षों का निरूपण किया है । स्वयंभू के रामचन्द्र प्रभु जिनकी स्तुति करते जय तुहुँ गइ तुहं मइ तुहं सरणु । तुहुं माया-वप्पु तुहुं बन्धु जणु ॥ तुहं परम-पक्खु परमति-हरू । तुहं सहबहु परहुं पराहियरू॥ तुहु दंसणे णाणे चरिचे थिउ । तुहुँ सयल-सुरासुरहि णमिउ ॥ सिद्धनो मन्ते तुहं वायरणें । सज्झाएं झाणे तुहं तव-चरणें ॥ अरहन्तुं वुदु तुहुं हरि हरूर वि तुहुं अण्णाण-तमोह-रिउ । तुहं सुहुम निरंजण परमणु तुहुं रवि वम्भु सयम्भु सिउ ॥ क स्वयंभू का दृष्टिकोण उदार तथा सहिष्णू था । उन्होंने कहीं भी ब्राह्मण धर्म की निन्दा नहीं की । उन्होंने हिन्दु देवताओं, अवतारों तथा भगवान बुद्ध का नाम सम्मान के साथ लिया है । उन्होंने अपने धर्म का प्रचार अवश्य किया है परंतु परनिन्दा में वे नहीं पड़े। नारी-सूत्र: स्वयंभू के समस्त पात्र जैन धर्मावलम्बी हैं । उनके समस्त नारी-पात्र 'जिन-भक्त' हैं । तुलसी ने अपने नारी-पात्रों में जिस उदात्तता के अंश की समाविष्ट किया था, उसका अभाव स्वयंभू में दिखायी पड़ता है । स्वयंभू ने सुप्रभा, अपरम्मा, अंजना, कल्याण, माला आदि अनेक नारी-पात्रों की नूतन सृष्टि की है। स्वयंभू की कौशल्या 'अपराजिता' है । उसमें सिर्फ पुत्र-प्रेम है । तुलसी के मातृत्व तथा मार्मिकता का उसमें अभाव है। तुलसी की कैकयी स्वयंभू की कैकयी से अधिक प्राणवान् है । 'पउम चरिउ' में सुमित्रा सामान्य नारी है। स्वयंभू की उपरंभा की अतीव कामासक्ति को तुलसी का मर्यादावादी कवि कभी स्वीकार नहीं करता । नारी के विषय में दोनों महाकवियों के समान विचार हैं। अहो साहसु पमण्इ पहु मुयवि । ज महिल काइ तं पुरिसु णवि । दुम्महिल जि भीसण जम-णयरि । दुम्महिल जि असणि जगत-यरि ॥ ला- (स्वयंभू) काह न पावक जारि सके, का न समुद्र समाइ । का न करे अबला प्रबल, कैहि जग कालु न खाइ । स्वयंभू का नारी-चित्रण स्थूल, परिपाटीगत तथा औपचारिक है । उसमें तुलसीकी - सी कलात्मक तथा मनोवैज्ञानिकता नहीं है । तुलसी का रावण संयत है परन्तु स्वयंभू का रावण सीता के प्रति अपनी कामुकतापूर्ण मनोवृत्ति तथा चेष्टाओं का प्रदर्शन करता दिखायी देता है । वह चोर की भांति सीता का सौन्दर्य निहारता है और उससे श्रीराम को प्राप्त होने वाले भौतिक आनन्द की कल्पना में डूबकर ईर्ष्यालु हो जाता है । विराग प्रधान होने के कारण स्त्रीरति की बुराई से जैन धर्म भरा पड़ा है। स्वयंभू ने नारी के सौन्दर्य रात का का नश्वरता का रूप बारम्बार उद्घाटित किया ह । चरितकाव्य-सूत्र: गि TE 'पउम चरिउ' और 'मानस' दोनों चरितकाव्य हैं । दोनों को पौराणिक शैली के महाकाव्यों की श्रेणी में स्थान दिया गया है। स्वयंभू ने अपने नायक श्रीराम में मनुष्यत्व अधिक देखा है और इस दृष्टि से वे आधुनिक काल के माइकेल मधुसूदन दत्त के अधिक निकट दिखलायी देते हैं । इसके विपरीत तुलसी के राम परब्रह्म परमेश्वर हैं । स्वयंभू का कवि-हदय रावण में जितना रमा है, उतना राम में नहीं । स्वयंभू सीता का रूप-सौन्दर्य इस प्रकार नख-शिख के रूप में उपस्थित करते हैं - सुकइ-कह-व्व सु-सन्धि-सु सन्धि य । सु-पय सु-वयज सु सद्द सु वद्धिय ।। धिर-कलहंस-गमण गइ-मंधर । किस मज्झारे णियम्बे सु-वित्थर ।। रोमावलि मयरहरूत्तिण्णि । णं पिम्पिलि-रिंकोलि विलिण्णी ॥ी . अहिणव-हुंड, पिंड-पील-स्थण । णं मयगल उर-खंम णिसुंमण || रेहइ वयण-कमलु अलंकउ । णं माणस-सरे वियसिउ पंकउ || सु-ललिय-लोलण ललिय-पसण्णह । णं वरइत्त मिलिय वर-कण्णइ ॥ घोलइ मुट्ठिहि वेणि महाहणि । चंदन-तयहि ललइ णं णाहणि ।। तुलसी का सौन्दर्य वर्णन आंतरिक तथा सात्विक है - ना सुन्दरता कहुं सुन्दर करई । छबिगृह दीपसिखा जनु बरई। सब उपमा कवि रहे जुठारी । केहि पटतरो विदेहकुमारी। और सिय वरनिऊ तेइ उपमा देई । कुकवि कहार अजसु को लेई । जे पटतरिय तीय सम सीया । जग असि जुवति कहां कमनीया ।" श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (२६) टंटाटिक टिक टनटनी, दीपस राखणहार । जयन्तसेन यहाँ सभी, पाते दुःख अपार |.org Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जें कबि सुधा पयोनिधि होई । परम रूपमय कच्छपु सोई। सोमा रजु मंदरू सिंगाऊ । मपै पानि पंकज निज मारू । एहिविधि उपजै लच्छि तव सुन्दरता सुखमूल । यो तदपि संकोच समेत कवि कहहिं सीय समतूल ॥ स्वयंभू में तुलसी के समक्ष सामाजिकता तथा समाजअनुशासन का अभाव है। 'पउम चरिउ' में विभीषण जनक और दशरथ को मरवाने का असफल प्रयास करता है | भामण्डल अपनी भगिनी सीता पर कामासक्त हो जाता है । रावण सीता को वायुयान में बिठाकर लंका घुमाता है । ये सब स्वयंभू की आश्चर्यजनक उद्भावानएं हैं। स्वयंभू ने रावण को दशमुखी राक्षस न मानकर विद्याधर वंशी माना है । उनके सभी पात्र जन्मतः जैन मतानुयायी हैं । स्वयंभू के लक्ष्मण रावण का वध करते हैं क्योंकि वे वासुदेव हैं। स्वयंभू ने राम-कथा-साहित्य के श्रृंगारी रूप का मार्ग प्रशस्त किया था । तुलसी ने रामकथा को घर-घर में गुंजायमान कर दिया और उसके शाश्वत आदर्शों से जनता प्रेरणा पाने लगी । स्वयंभू राज्याश्रित कवि थे परंतु तुलसी अपने चार चने में ही मस्त रहे और कमी किसी राजा की परवाह नहीं की । संरचना के दृष्टिकोण से स्वयंभू तुलसी को प्रभावित करते हैं | स्वयंभू में रसात्मकता मिलती है तो तुलसी में रमणीयता । प्रतिबिम्ब सूत्र : तुलसी ने महर्षि वाल्मीकि (रामायण) तथा वेद व्यास (महाभारत) की तो वन्दना की है परन्तु स्वयंभू का कहीं नाम नहीं लिया - सीताराम-गुण ग्राम पुण्यारण्य-विहारणौ । वन्दे विशुद्ध विज्ञानौ कवीश्वर कपीश्वरौ || और किन व्यास आदि कवि पुंगव नाना। जिन सादर हरि सुजस बखाना ॥ तुलसी के समान स्वयंभू ने भी अपने पूर्वज कवियों का ऋण स्वीकार किया है । तुलसी ने बिना किसी का नाम लिये प्राकृतकवियों का स्तवन किया है - जे प्राकृत कवि परम सयाने । जात भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने । डॉ. शम्भूनाथसिंह (हिन्दी महाकाव्य का स्वरूप-विकास) ने इस प्रसंग में लिखा है कि यहां प्राकृत कवि का अभिप्राय प्राकृत और अपभ्रंश में रामकथा लिखने वाले विमलसूरि, स्वयंभू, पुष्पदेव आदि कवियों से है । रामचरित मानस की भाषा और शैली पर स्वयंभू का प्रभाव तो स्पष्ट दिखाई देता है। तुलसी ने 'मानस' की समाप्ति की पुष्पिका में लिखा है - या पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गम । श्रीमद्रामपदाजभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम् । मत्वा तद्रघुनाथनाम निरतं स्वान्तस्तमः शान्तये । भाषाबद्धमिदंचकार तुलसीदासस्तथा मानसम् ॥ कतिपय टीकाकारों ने 'कृतं सुकविना श्रीशम्भुना' से संकेतार्थ निकाला है कि सुकवि स्वयंभू ने पहले जिस दुर्गम रामायण की सृष्टि की थी, उसी को तुलसी ने 'मानस' के रूप में भाषाबद्ध कर दिया। लिया डा. संकटा प्रसाद उपाध्याय (कवि स्वयंभू) की भी सम्मति है कि स्वयंभू ने तुलसी को प्रभावित किया था परंतु वे धार्मिक बाधा के कारण स्वयंभ का नामोल्लेख नहीं कर सके । तलसी वर्णाश्रम-विरोधी किसी अन्य धर्म अथवा उसके उन्नायक कवि का नाम नहीं लेना चाहते थे। " स्वयंभू-रामायण तथा तुलसी-मानस में अनेक स्थलों में साम्य दिखायी पड़ता है । स्वयंभू ने अपने काव्य सरिता वाले रूपक में लिखा है कि यह अक्षर व्यास के जल-समूह से मनोहर सुन्दर अलंकार तथा छंद रूप मछलियों से आपूर्ण और लम्बे समास रूपी प्रवाह से अंकित है । यह संस्कृत और प्राकृत रूपी पुलिनों से शोभित देशी भाषा रूपी दो कूलों से उज्ज्वल हैं । इसमें कहीं-कहीं घन शब्द रूपी शिला-तल हैं । कहीं-कहीं यह अनेक अर्थरूपी तरंगों से अस्त-व्यस्त-सी हो गई है । यह शताधिक आश्वासन रूपी तीर्थों से सम्मानित है - अक्खर-बास-जलोह मनोहर | सु-अलंकार हन्व मच्छोदर ।। दीह समास पवाहावकिय । सक्कय-पायय-पुलिणा लंकिय ।। देसी-भासा-उभय-तहुज्जल | क वि दुक्कर-घण-सद्द-सिलायल । अत्थ-वहल-कल्लोलाणिट्ठिय । आसासय-सम-तूह-परिट्ठिय ॥ तुलसी का काव्य-सरोवर-रूपक इस प्रकार है - सप्त प्रबंध सुमग सोपाना । ग्यान नयन निरावत मन माना । रघुपति महिमा अगुन अबाधा । वरनव सोइ वर वारि अगाधा । रामसीय जस सलिल सुधासम । उपमा बीचि विलास मनोरम ॥ पुरइन सधन चारु चौपाई । जुगुति मंजु मनि सीय सुहाई ।। छंद सोरठा सुन्दर दोहा । सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा ॥ अरथ अनूप सुभाव सुभासा । सोइ पराग मकरन्द सुवासा ।। सुकृत पुंज मंजुल अलि माला । ग्यान विराग विचार मराला ॥ धुनि अवरेव कवित गुन जाती । मीन मनोहर जे बहु भांती । अरथ धरम कामादिक चारी । कहब ज्ञान विज्ञान विचारी ॥ नवरस जप तप जोग विरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा ।। 'पउम चरिउ' में राम-कथा का श्रीगणेश श्रेणिक की शंका से होता को परमेसर पर-सासणेहि सुबह विवरेरी। काकी श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (२७) दयाहीन दागी तथा, दुर्गुण देखन हार । जयन्तसेन तजो सदा, ये दुःख के दातार || . www.jairneidlary.org Jain Education Interational Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहें जिण सासणे केम थिय कह राघव-केरी ॥ वह आगे व्यंग्य करता है - जइ राम हों तिहुअणु उवरें माइ । तो रावणु कहि तय जाइ। 'मानस' में भी पार्वती शंका करती है - जो नृप तनय त ब्रह्म किमि, नारि- विरह मति मोरि । देखि चरित महिमा सुनत, भ्रमति बुद्धि अति मोरि ॥ भरद्वाज की जिज्ञासा भी इसी प्रकार है - प्रभु सोइ राम कि अमर कोइ जाहि जगत त्रिपुरारि । सत्य धाम सर्वज्ञ तुम्ह करहु विवेक विचारि ।। FIF 'पउम चरिउ' में श्रेणिक की शंका के निवारण हेतु गणधर गौतम राम कथा का उद्भव इस प्रकार निरूपित करते हैं बद्धमाण मुह कुहर विणिग्गय । राम कहा णह एह कमागय ॥ एह राम कह सरि सोहन्ती । गणहर देवहि विवहन्ती ॥ पच्छइ हन्दमूइ-आयरिए । पुण धम्मेण गुणा लंकरिए ॥ पुणु पहवे संसारा राएं । कित्ति हरेण अणुत्तर बाएं । पुणु रविषेणायरि पसाएं । बुद्धि ए अवगाहिय कराएं || 'मानस' में राम कथा की यह परिपाटी निरूपित हैं - संभु कीन्ह यह चरित सुहावा बहुरि कृपा करि उमहिं सुनावा ॥ सोइ सिव कागमुलुंडहिं दीन्हा । राम भगति अधिकारी चीन्हा || तेहि सन जागवनिक पुनि पावा । तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा ॥ में मुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकर खेत । समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउ अचेत ॥ ठिक स्वयंभू के आत्मनिवेदन और तुलसी के आत्मनिवेदन में काफी भावसादश्य हैं। 'पउम चरिउ' में स्वयंभू कहते हैं बुह-यण संयमु पहं विण्णवह महु सरिसउ अण्ण पाहि कुमइ ॥ वाय कवाइ ण जाणि पउ उ विधि-सुत्त वक्खाणियउ ॥ णा णिसुणिन पंच महाय कव्वु । णउ मरहु ण लक्खणु कुंदु सब्बु ।। उ वुज्झिउ पिंगल-पच्छारू । णउ भामह दंडीय लंकारू ॥ वे वे साय तो वि णउ परिह रमि । वरि रयडा वुत्तु क्षब्बु करमि ॥ सामाणमास छुड मा विहडउ हुदु आगम- जुत्ति किंपि धडउ ॥ कुड्डु होंति सु हासिय वयणाई । गामेल्ल-मास परिहरणाई || एहु सज्जण लोमहु किउ विणउ । ज अबुहु पदरिसिउ अप्पणउ ॥ जं एवंबि रूसाइ कोवि खलु । तहो हत्युत्थल्लिड लेउ छलु ॥ पिसुनें कि अबूमत्थिएण, जसु कोवि ण रूच्चइ । किं छण-इन्दु मरुगाहे, ण कंपंतु विभुच्चइ ॥ तुलसी ने भी अपनी लघुता प्रदर्शित की है. निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं । तातें विनय करउं सब पाहीं ।। and श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण करन चहउं रघुपति गुनगाहा । लघुमति मोरि चरित अवगाहा ।। डूब न एकउ अंग उपाऊ । मन मति रंक मनोरथ राऊ ।। मति अति नीच ऊंचि रुचि आछी । चहिअ अमिख जग जुरइ न काछी ॥ छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई सुनिहहिं बालवचन मन लाई ॥ जो बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता । हंसहहिं कूर कुटिल कुविचारी । जे पर दूषन भूषन धारी ॥ भाव भेद रख मेव अपारा। कवित दोष गुन विविध प्रकारा । कवित विवेक एक नहिं मोरे । सत्य कहउं लिखि कागद कोरे ।। "भविरायसकहा' की निम्न पंक्तियों में भी बड़ी समानता है - सुणिमित्तं जा अई तासु ताम । गय पथहिणत्ति उड्डेवि साम ॥ वायंगि सुत्ति सहसहइ वाउ । पिय मेलावह कुलकुल काउ ॥ बाम किलकिंचित सावरण वाहिणउ अंगु नरिसिङ मए ॥ दाहिण लोयणु फंदह सुवाहु । णं पणइ एण मग्गेण जाहु ॥ तुलसी ने भी उसी भाव की सम्पुष्टि की है। दाहिन काग सुखेत सुहावा । नकुल वरस सब काहुन पावा । सानुकूल वह त्रिविध बयारी । सघट सबाल पाव वर नारी ॥ लोया फिरिफिरि दरस दिखावा। सुरभी सम्मुख शिशुहि आवा ।। मृगमाला दाहिन दिशि आई मंगल गन जनु दीन्ह दिखाई || निष्कर्ष सूत्र : 'पउमचरिउ' जैन संस्कृति से ओतप्रोत राम-काव्य है । उसने 'मानस' को यत्र-तत्र प्रभावित किया है। स्वयंभू ओज के कवि थे। उनकी सबसे बड़ी देन सीता का चरित्र चित्रण है। तुलसी ने समूचे भारतीय मानस को प्रभावित किया है। वे अपने कृतित्व तथा साहित्य-स्रोतों के विषय में बड़े ईमानदार थे। हिन्दी का युग आते-आते उनका कोई नामलेवा नहीं रह गया था। किसी ने उनका स्तवन नहीं किया। इसका कारण था कि हिन्दी में आभारप्रदर्शन की परिपाटी समाप्त हो गयी थी। इसके एकमेव अपवाद महाकवि गोस्वामी तुलसीदास थे जिन्होंने अपने पूर्व प्रमुख कवियों का तर्पण किया है । अन्य किसी कवि ने अपने पूर्ववर्ती कवियों का स्मरण नहीं किया। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने 'साकेत' में रामकाव्य के गायकों तथा पुरस्कर्ताओं का सादर नामोल्लेख किया है । S Stre 'पउम चरिउ' और 'रामचरित मानस' भारतीय साहित्य की वह अनूठी, अप्रतिम तथा प्रौढ़ उपलब्धियां हैं जिन्होंने रामकथा तथा रामकाव्य को युगांतर प्रदान किया है । (२८) אגם feit גליש प्रेमी आत्मजा अंगना; मित्र बंधु परिवार । जयन्तसेन सभी साथ रह जलकमल विचार ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अभिधान-राजेन्द्र-कोशस्तथा जैन-कोश-विद्या" (डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी) अहो माहात्म्यं कोशस्य ! नम 'यथायथोपयुनक्ति तथा तथा परिष्कृतिर्भवति' तथ्यमिदं कोशकोशश्चैव महीपानां कोशश्च विदुषामपि । विद्याया विकासेऽपि निदर्शनायते । निघण्टौ कस्यापि वैदिकस्य ग्रन्थस्य सङ्ग्रहः केवलं क्लिष्टानां शब्दानामेव सङ्ग्रहः तत्रापि उपयोगेन महानेष क्लेशस्तेन विना भवेत् ।। नामाव्ययाख्यातशब्दानां सङ्ग्रह एवासीत् । वैदिकशब्दानामर्थअभियुक्तोक्तिरियं सर्वथा सत्या सती सर्वदा सतां श्रुतिकुहरेषु सूचनमेवासीत् तदीयं लक्ष्यम् । ततः परं निरुक्तकारेण किमपि कमनीयं जीवनरसं पूरयन्तीव कोशमाहास्यं स्फोरयति । न निर्वचनद्वाराऽर्थस्पष्टीकाराय प्रयतितम् तत्र हि - तद् राष्ट्र शासनं वा राज्यकार्य सुचारु-रूपेण चालयितुं शक्नोति, मा "वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च, द्वौ चापरौ वर्ण-विकार-नाशौ । यस्य सविधे कोशो न स्यात्, न च ते विद्वांसोऽपि स्वानि कविकर्माणि यथेच्छं सम्पादयितुं शक्नुवन्ति येषां समीपे शब्दकोशो न भवेत् । धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम् ॥ यतो हि शासनसूत्रसञ्चालने भूयसीर्जनसुखकारिणीर्योजनाः इत्यासीद् रचना-प्रक्रिया । एवं भाषाविज्ञानदृशा दुरुहशब्दानां व्याख्या फलवतीर्विधातुं प्रवृत्तौ सत्यामपि कोशं विना कथं ताः सफलाः अपि निरुक्त एव प्रकटिता । सहैव निरुक्ते प्रत्येक शब्दस्य सम्भवेयुः ? शब्ददारिद्र्याक्रान्ताश्च विपश्चितः कवयो यथारुचि 'प्रचलितार्थो विशिष्टार्थो विशिष्टार्थ - नियन्त्रणकारणानि चापि शब्दानामन्वेषणे प्रसक्ता उत्तमोत्तमानां भावानां विभावने च कथं यास्काचार्यैव्याख्यातानि | एतां विवेचन-प्रणाली विलोक्यैव कतिपये समर्था भवेयुरिति सत्यमेव माहास्यं कोशस्य ।। विद्वांसो निरुक्तं व्याकरणशास्त्रान्तर्गतामेव मन्वते । अद्यापि कोशोत्पत्ति-विचारणा सृष्टावस्त्यानन्त्यं वस्तूनाम् । तानि वस्तूनि भाषाविज्ञानविदोऽस्य निरुक्तस्य बहुशो नियमान् वैज्ञानिकान् मानयित्वा पृथक्-पृथक् परिचेतुं परिचाययितुं च तेषामभिधानान्यपि पृथक्-पृथक् स्वीकुर्वन्ति । इयं वैदिकी कोश-विद्या ततोऽग्रे तादृशं प्रसारं न दर्शितानि विद्यन्त एव । सृष्टे: प्रवाहानुरूपमेव शब्दप्रवाहोऽपि प्राप्तवता । निरन्तरं निरर्गलं प्रवहन् न जाने कुतः कुत्र सम्प्राप्तः ? कालक्रमेण गद्य-पद्यात्मकं लौकिक-संस्कृत-साहित्यमधिकृत्य पुरोवर्तिन शब्दानामा अपि विस्मृतिं यान्तीति हेतोस्तेषामर्थावबोधायला आचार्याः 'कवीनां (रचनाधर्मिणां शास्त्रज्ञानैकधिषणानां) हितकाम्यया' शक्तिग्रहं व्याकरणोपमान-कोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । नैकेषां शब्दानां मालारूपेण सङ्ग्रहं विधाय 'लौकिक-संस्कृत-शब्द कोश' - ग्रन्थानां परम्परामाविरकार्षुः । अस्यां परम्परायां प्राधान्येन वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदन्ति, सांनिध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ॥ त्रयः प्रकाराः प्रवृत्ताः | ते हि - १, एकार्थनाममालारूपाः, २ . इति सङ्केतग्रहस्याष्टौ साधनानि सूचयद्भिराचार्यैः । अनेकार्थकनाम - मालारूपास्तथा ३ एकाक्षर-नाममालारूपाः सन्ति । कोशस्यावश्यकत्वं सुतरां प्रतिपादितम् । एतेषां रचनाविधानमपि गद्यात्मिकां निरुक्तपद्धतिं विसृज्य मुख्यरूपेण 'आवश्यकतैवाविष्काराणां जननी'ति सिद्धान्तोक्त्यनुसारं पद्यरूपात्मकमेव स्वीकृतम् । तत्रापि विशिष्यानुष्टुप्छन्दस एव प्रयोग मन्येऽनुकम्पापरवशैराचार्यैर्लोकानां हित शब्दानां तदर्थानुसन्धानपूर्वकं आदृतः । ईदृशानां कोशानां निर्माणोद्देश्येषुसङ्कलन विधाय कोशः कोशरूपेणोपस्थापितः । प्राचीनायाः प्राचीनया १. महत्त्वपूर्णानां विरलप्रयुक्तानां कविजनोपयोगिशब्दानां गवेषणया गवेषकैः सर्वप्रथमः कोशो महर्षेः कश्यपस्य - सङ्ग्रहः । (ईसातोऽप्यष्टशतवर्षप्राक्तनस्य 'निघण्टु' रस्तीति सुनिश्चितम् ।' २. संयम-विचाराचार-नियमापन्न-पानाशन-वसन-सहनादीनां वैदिकानां शब्दानामर्थनिर्वचनमेवास्य लक्ष्यम् । अस्मात् पूर्वमपि शास्त्रबहिर्भूत-त्वाद् बल-वीर्य-मेधा-विद्या-तपश्चरणादीनां हासाद् लौकिकके चन कोशकारा अभूवन् परं तेषां ग्रन्था नोपलभ्यन्ते । निघण्टोरस्यापि ज्ञातारो यदा दुर्लभा अभव॑स्तदा महर्षिणा यास्केन तज्ज्ञानाय शब्दानामप्यर्थज्ञानस्य दुर्बोधत्वात् तद्वारणाय शास्त्रज्ञानार्थं च 'निरुक्त'स्य निर्माणं कृतम् । वस्तुत इदं निरुक्तं तस्य शब्दसङ्ग्रहः । निघण्टोष्टीकैवास्ति । निरुक्तेऽस्मिन् प्राचीनानाम्-औपमन्यव-प्रभृतीनां ३. काव्यनिर्माणार्थ निरुक्तकाराणां नामान्यपि सूचितानि सन्ति यानि कोशनिर्मितेः पूर्वतनी पर्यायवाचिशब्दानां सङ्कलनञ्चेति - प्रवृत्तिं पुरस्कुर्वन्ति । एवं भारते कोश-निर्माण-कलायाः प्रारम्भः कश्यपस्य महर्षेनिघण्टु-कोशादेव मन्यते । प्रधानान्युद्देश्यान्यासन् । तेषु मुख्यत्वेन नामपदानामव्ययानाञ्चैव सङ्ग्रहो कोश-विद्या-विकासः 'भवति स्म । इयमासीत् प्रारम्भिकी कोश-विद्या प्रवेशिका-पद्धतिः । निघण्टु-शब्दार्थाः किल - (१) अर्थस्य द्योतकः (२) वेदेभ्यः सङ्गृहीतस्तथा (३) एकशः कथित इति सन्ति । श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (२९) झगडा, झंझट त्याग दे, और झुठ भी छोड । जयन्तसेन सौख्य मिले, प्रपंच से मुख मोड । Jain Education Interational Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनं कोश-साहित्यम् एतेषु कोशेषु केचन लिङ्गानुसारिणः केचन च विषयानुसारिणः ला संस्कृत-साहित्य सम्प्राप्तेषूद्धरणेषु यत्र तत्र निर्दिष्टानामनेकेषां सन्ति । परषु कषुचित् काशषु शब्दाना चयन प्रथमवर्णानुसारकोशग्रन्थानां नामान्युपलभ्यन्ते, येषु भागुरिकृतः 'त्रिकाण्डकोशः', मन्त्यवणानुसार वा विहितमास्त । एकाक्षर-काश-रचनाया स्वर-व्यञ्जनवाचस्यति - रचितः 'शब्दार्णवः', विक्रमादित्य-विरचितः 'संसारावर्तः'. संयुक्तरूपेषु त्रिषु वर्गेषु विभागः कृतः । श्लोक-निर्माणविधौ प्रथम वररुचेः 'नाममाला', व्याडे: 'उत्पलिनीकोशः', आपिशलेः शाकटायनस्य पूर्णे श्लोके निवेशयोग्याः पर्यायास्ततोऽर्ध श्लोके समावेश्याः पर्यायाः चाज्ञातनामानौ कौचित् कोशौ स्पृहणीयतां भजन्ति स्म । प्रान्तेच श्लोकस्य प्रतिचरणं निवेशनार्हाः पर्यायाः समाकलिता विद्यन्ते। कतिपयेऽन्येऽपि कोशा अद्यत्वे नामशेषा एव विद्यन्ते । परमुपलभ्यमानेषु अमरकोशे नानार्थवर्गस्यान्तर्गतमनेकार्थकानां शब्दानां सङ्ग्रहणमपि लौकिक-संस्कृत-कोशेषु प्राचीनात् प्राचीनः श्रीमतोऽमरसिंहस्य वर्तते; अतः स मिश्रप्रकारोऽपि वक्तुं शक्यते । 'नामलिङ्गानुशासनं - (अमरकोशापराख्यं) विद्यते । अयं कोशः क्रोश-निर्माण-पद्धति-परिचयः पर्यायकोशोऽनेकाक्षरकोशश्चेति निगद्यते । अस्य कालो मैक्समूलर उपर्युक्तायां परम्परायां निर्माण-पद्धतेर्ये प्रकाराः स्वीकृताः सन्ति स्याभिमतानुसारं षष्ठशत्याः पूर्वतनः । डॉ. हार्नले महोदयस्य मते तेषां संक्षिप्तः परिचयोऽत्र क्रमेण प्रस्तूयते । यथा - ६२५-६४० ई. वत्सरात्मको मन्यते । साम्प्रतं प्रसिद्धेषु कोशेषूपयोगितादृष्ट्याऽस्यैव कोशस्य सर्वत्र प्रचारो वर्तते । अस्य १. लिङ्गानुसारी शब्दावचयः । वैशिष्ट्यमस्मादपि सिद्धं भवति यदस्य प्रायः पञ्चाशन्मिताष्टीका शब्द-प्रयोगावसरे तेषां लिङ्गज्ञानमत्यावश्यकं भवति । विविधाचार्य-विरचिता विराजन्ते । अस्य रचना-पद्धतिः सुसंयता विशेषणरूपेण प्रयोगसमये सकलमपि वाक्यकदम्बं विशेष्यमनुकरोति । सुसङ्गता वैज्ञानिकी चास्ति । बालानां सुखबोधाय प्रारम्भकाले तदर्थं नियमदििकयमार्या सुप्रसिद्धाऽस्ति - कण्ठस्थकरणायानुष्टुप्छन्दसा प्रत्येकं नाम्नो यावच्छक्यं विविधाः पर्यायाः यलिङ्ग यद्वचनं या च विभक्तिर्विशेष्यस्य । प्रदत्ताः । तल्लिङ्ग तद्वचनं सैव विभक्तिर्विशेषणस्यापि ॥ शालिन कोश-निर्माण-परम्परा इतः परं कोश-निर्माण-विधौ नैरन्तर्यमायातं तत्फलरूपेण च अतएव कोशकाराः लिङ्गानुशासनं मुख्यत्वेनाङ्गीकृत्य कोशान् व्यरचयन् । तेषु सर्वतः प्रथमममरकोशकारेण तृतीये काण्डे पद्धतिरेषा शाश्वतस्य 'अनेकार्थ-समुच्चयः', हर्षवर्धनस्य (सप्तमशत्यां) स्वीकृता ।' ततः परं हर्षवर्धन-वामन केशवस्वामिभिः स्वे स्वे कोषग्रन्थे लिङ्गानुशासनं', पुरुषोत्तमदेवस्य "त्रिकाण्डशेष-हारावली-वर्णमालाएकाक्षरकोश-द्विरूपकोशाः', वामनस्य 'लिङ्गानुशासनं' पुँल्लिङ्ग-स्त्रीलिङ्ग-नपुंसकलिङ्गानेकलिङ्गात्मकशब्दानां क्रमशश्चयनं चेत्यादयोऽप्यस्यामेव शत्यां निर्मिताः । दशैकादशशत्योश्च हलायुधस्य विहितम् । 'सुजान' कृतायां 'शब्द-लिङ्गार्थचन्द्रिका'यां तु क्रमेण 'अभिधान-रलमाला', विशिष्टाद्वैतवादिनो यादवप्रकाशस्य "वैजयन्ती" एकलिङ्ग-द्विलिङ्ग-त्रिलिङ्गरूपेण त्रयः - काण्डा एव निर्मिताः । 'यादव प्रकाश'स्य 'वैजयन्ती" कोशे पुंस्त्रीनपुंसकलिङ्गैः सहैव 'अभिधेयवल्लिङ्ग भोजराजस्य च 'नाममालिका' ख्याति प्राप्ताः । इयमेव नानारूपेण प्रवर्तमाना परम्पराऽद्य यावद् नैकान् कोशान् पुरस्कुर्वाणा नानालिङ्ग'- नामभ्यामपि वर्गीकरणं प्रस्तुतम् । साम्प्रतिकेन श्रीमुकुन्दशर्मणा लिङ्गानुशासनवर्गापराख्ये 'मुकुन्दकोशे' लिङ्गत्रय्या सह विलोक्यन्ते । पुंस्त्रीलिङ्ग - पुनपुंसकलिङ्ग - स्त्रीनपुंसक-त्रिलिङ्गाभिधेयवल्लिङ्ग-नामभिः संस्कृत तथा हिन्दी दोनों केचनान्येऽपि वर्गा आपादिताः । भाषाओं पर विद्वत्तापूर्ण समान २-विषयानुसारि-शब्दावचयः अधिकार । अच्छे लेखक तथा शब्दानां सागरादपेक्षितानि रलानि सम्यक् सञ्चय्य कवयो विचारक । शोध में विशेष रचना विदधति परं यदि सागरेऽन्वेषणाय तेषां भूयान् कालो व्यत्याप्येत रुचि । जैन संस्कृति के विषयों तदा तु कल्पना-कुरङ्गी न जाने कुत्र विद्रुता विहृता वा भवेदिति का खोजपूर्ण अध्ययन । कई ग्रन्थों कष्टमाकलय्य कोशनिर्मातृभिर्विषयानुसारि शब्दसङ्कलनमादृतम् । तस्यां तथा पत्रपत्रिकाओं में लेखों का अत्र प्रस्तावनारूपेण लिङ्ग-निर्णयाय निर्देशोऽयं विद्यतेप्रकाशन | पंचांग-संशोधन आदि प्रायशो रूपभेदेन साहचर्याच्च कुत्र चित् । कार्य में अनवरत साधनाशील । स्त्री-पुं-नपुंसकं ज्ञेयं तद्विशेष-विधेः क्वचित् ।। IFE बम्बई, दिल्ली जैसे केन्द्रों पर रह भेदाख्यानाय न द्वन्द्वो नैकशेषो न सहरः । डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी, कर साहित्य सृजन । कृतोऽत्र भिन्नलिङ्गनामनुक्तानां क्रमाद्द आचार्य वर्तमान में विक्रम ऋते ||३-४||इत्यादि। एम.ए., पी.एच.डी., काव्य-शिक्षा-काव्यकल्पलता विश्वविद्यालय उज्जैन के अंतर्गत डी.लिट् कविशिक्षादिष्वप्येतादृशाः शब्दाः विक्रम कीर्ति मंदिर के अन्वेषण सङ्कलिता दृश्यन्ते । विभाग में कार्यरत । मंदसौर (म.प्र.) में आपका जन्म तथा यथा - अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा | धर्म के प्रति आस्था. मंत्रों की सिद्धि में विबुधाः सुराः । आनुष्ठानिक क्रियाशीलता। सुपर्वाणः सुमनसस्त्रिदिवेशा दिवौकसः ।। इत्यादि ।। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (३०) श्रद्धा ज्ञान सदाचरण, रक्खो नित समभाव । जयन्तसेन दुर्गुण से, करते नित्य बचाव ।। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिश्यपि प्राथम्यं श्रीमतोऽमरसिंहस्यैव विलोक्यते । तेन हि स्वीये १-अनुक्रमणिका कोशेषु पदपाद-वाक्य-सिद्धान्तानां सङ्ग्रहाः क्रियन्ते। कोशे त्रिषु काण्डेषु 'स्वर्ग-व्योम-दिक्काल-धीशब्दादि-नाट्य-पाताल- २-शब्द-विवेचनात्मककोशे लक्षणावली विशिष्ट-प्रयुक्त-सम्प्रदायभोगि-नरक-वारि-भूमिपुर-शैल-वनौषधि-सिंहादि-मनुष्य-ब्रह्म-क्षत्रिय-वैश्य- सिद्धादिशब्दानां विवेचनानि प्रस्तूयन्ते । ३ - विषयानुसारि-सङ्ग्रहशूद्रप्रभृतयो विभिन्ना वर्गा आविष्कृताः । एषैव पद्धतिरग्रिमैः कोश- कोशेषु विशिष्टानां विषयाणां प्रतिपादनाय कालक्रमेणो-पदिष्टानां प्रणेतृभिरपि स्वीकृता । ग्रन्थानामाघारेण विवरणानि संस्थाप्यन्ते । एवमेव 'धातुकोशाः परिभाषा ३-प्रथमवर्णानुसारि-शब्दावचयः कोशाः सङ्ग्रहकोशा ग्रन्थकोशा विश्वकोशादयश्चाद्य कोशनिर्माणस्य सुदीर्घा परम्परां व्यञ्जयन्तो विलसन्ति नवनवाश्च प्रयोगा आविर्भवन्ति यदा कदा काव्यादिरचनायां काठिन्यमिदमप्युपतिष्ठते यत् पद्यादि तदनुसारं च बुद्धि-कौशल-साधन-सौविध्यबलेनोत्तरोत्तर प्रयासा योजनायां कश्चन विशिष्टवर्णात्मकः शब्द एव नितान्तमावश्यकोभवति । निरन्तरमाधीयन्ते । सन्धि-नियमानां बाधातो मुक्तयेऽपीदृशाः शब्दा अभीप्स्यन्ते । मन्येऽत एव यादवप्रकाशस्य वैजयन्त्याम्, अजयपालस्य नानार्थरलमालायां कोश-विद्यायां जैनानां योग-दानम् । श्रीहेमचन्द्राचार्यस्य नाममाला (रयणमाला)यां मेदिनीकोशादिषु च कादयः विश्वस्य वाङ्मये जैनाचार्यैर्जन-गृहस्थ-मनीषिभिश्चापूर्वं योगदानं खादयः शब्दाः प्रथमवर्णानुसारि-शब्दावचयरूपेण समायोजिताः ।। विहितमस्ति । यस्मिन् कस्मिन्नपि विषये दृष्टिीयते तत्रैव तेषां ४-अन्त्यवर्णानुसारि-शब्दावचयः किमप्यपूर्वमेव चिन्तनं दर्शनञ्चोपलभ्यते । बहुषु विषयेषु तु परेषां सम्प्रदायानां यत्र मुष्टिमेयमेव साहित्यं मिलति तत्रैव सम्प्रदायेऽस्मिन् काव्येष्वलङ्काराङ्कन-दृशा केचन निश्चित-वर्णात्मकाः शब्दाः पर्याप्तं विशालं साहित्यं विलोक्यते । परः सहस्त्रेभ्यो वत्सरेभ्यः शब्दालङ्कार-परिपुष्टये नितान्तमुपादेया भवन्ति । अनुप्रास-यमक प्रवहन्त्याः श्रमणसंस्कृतेरुपासकास्ते संस्कृत-साहित्यस्य भाण्डागारं पूरयितुं चित्रभेदेषु पूर्वापरवर्ण-विन्यास-वैशिष्ट्येन किमपि सहृदयाह्लादि तत्परा अनवरतं साहित्यसृष्टये नैकशः प्रायतन्त । अत एव वैचित्र्यमुपस्थापयति । नाद-माधुरी-प्रमोदपूरेण सहैव रचनागतमौज्ज्चल्यं कोशविद्याक्षेत्रमपि नास्ति शून्यं दुर्बलं वेति शक्यते सुदृढं वक्तुम् । च स्वान्तमुल्लासयति । अनयैव भावनयाऽन्त्यवर्णानुसारि अत्र तैर्विरचितानां कोशानां परिचयाय मनाक् पर्यालोच्यते - शब्दावचयमङ्गीकृत्य मङ्खकविः 'अनेकार्थकोशं', महेश्वरसूरिः 'विश्वप्रकाश-कोशं', मेदिनीकोशकारः 'मेदिनीकोशं', तजौरभूपः जैन-कोश-साहित्य-समुद्भवः शाहजीः 'शब्दरलसमन्वयकोशं', विश्वनाथः 'कोशकल्पतरूं' न यथा वैदिकसम्प्रदायवन्तो वेदेभ्य एव सर्वासां विधानां समुद्भूति कश्चनाज्ञातनामाऽऽचार्यो 'नानार्थपद-पेटिका' च रचितवान् । एतेषु स्वीकुर्वन्ति तथैव जैनधर्मावलम्बिनोऽपि जैनागमेभ्य एव सर्वविधस्य क्रमशः कान्ताः खान्ता गान्तप्रभृतयश्च शब्दाः सङ्ग्रहीताः सन्ति । साहित्यस्य समुद्भवं स्वीकुर्वन्ति । एतदनुसारं कोशसाहित्यस्य रचना ५-अक्षर-सङ्ख्यानुसारि-शब्दावचयः अपि सत्प्रवादपूर्वस्य तथा विद्यानुवादस्य पञ्चशतमहाविद्यास्वक्षर विद्यायां सम्मिलन्ति । प्रारम्भकाले - 'आगमानां भाष्याणि, चूर्णयो कियन्तो वर्णाः कुत्रापेक्षितास्ते स्फुरणा-समनन्तरमेव यदि लभ्येरन् वृत्तयो विभिन्नाष्टीकाश्च कोशसाहित्यस्य पूर्तिं कुर्वन्ति स्म । कालान्तरे तदा छन्दो-निबन्धने च-वा-तु-हि-वै-प्रभृतीनामव्ययानां निरर्थकपदानां ननरथकपदाना यदा भाष यदा भाष्याणां चूर्णीनां वृत्तिप्रभृतीनांच शब्दार्थज्ञानं क्रमशः श्लथमभूत् स्थापना न क्रियेत । किञ्च सूत्ररूपेण समासशैल्या वाऽभीप्सितस्याख्यानं तदा शब्दकोशानामावश्यकता समजनि तस्माद् भाष्य-चूर्णि-वृत्तिसरल भवदिति विचारणया केशवस्वामिनी 'नानार्थकरल-सक्षेप', निर्मित्यत्तरकालिक एवास्ति 'जैन-कोश-साहित्यस्य समद्भव-काल' इति तज्जौराधिपतेः श्रीशाहस्य 'शब्दरल-समन्वये' क्रमश एकवर्ण निश्चप्रचम् । कालोऽयं खीस्तीय नवमशत्याः स्वीक्रियते, यदा हि द्विवर्णात्मकशब्दानां सङ्कलना विद्यते । 'कवि-कल्पलता' याममर सर्वप्रथममागमानामालेखनमारब्धमभूत् । मन्ये तेष्वेव वर्षेषु कोशचन्द्रयतिरपि पद्धतिमिमां स्वीकृत्य शब्दराशिं प्रास्तौदथ च तत्रैव सङ्ग्रहोऽपि प्रारब्धो भवेत् ! 'कनक' सदृशान् लोम-विलोमभावेऽप्ये-करूपधरान् कतिपयानन्य-यमकश्लेषालङ्कारोपयोजिशब्दानपि समगृह्णात् ।' सेयं प्रक्रियापि कोश- आधा जन-काशकारा दृशा महनीयैव । १. श्रीधनञ्जयः - अन्येषां शास्त्राणामिव कोश-साहित्येऽपि ६-पर्याय-परिणामानुसारि-शब्दावचयः जैनविद्वांसो निरन्तरं लिखन्त एवावर्तन्त । परं स्वतन्त्ररूपेणोपलभ्यमानेषु कोशेषु नवम-शत्यां समुत्पन्नस्य द्विसन्धान-महाकाव्यस्य 'राघवकस्य शब्दस्य कियन्तः पर्यायाः सन्तीति विभावयितुं धनञ्जयः पाण्डवीय'स्य रचयितुः श्रीधनञ्जयस्य 'नाममाळा-अनेकार्थ-नाममाळाशाश्वतोऽने-कार्थसमुच्चयं' धनपालश्च 'पाइय-लच्छी नाममालां' निर्माय अनेकार्थनिघण्टु-एकाक्षरी-कोशा' उपलभ्यन्ते । अयं हि जैनगृहस्थः तत्र प्रथमं प्रतिपाद्यावसायिनस्ततोऽर्धपद्यावसायिनः प्रान्ते 'सुदृष्टतरङ्गिण्या' आधारेण (४१ प्रतिचरणावसायिनः पर्यायान् स्थापितवन्तौ । तमङ्गेण) ज्ञायते यदमरकोश साम्प्रतिके वैज्ञानिके युगे तु कोश-निर्माण-कलेयं पूर्णाभिः कारस्यामरसिंहस्य श्यालक आसीदिति। कलाभिः परिस्फुरन्ती किमप्यभिनवं स्वरूपमेवाविष्करोति । तत्र हि १ - स्वसाहित्यशास्त्रीयां जैनानां ग्रन्थरूप-सेवामभिलक्ष्यानेन लेखकेन बाण-मयूर-मुरारि-श्रीहर्ष-प्रभृतिभिः कविभिरपि कोशा निर्मिता आसन् । 'श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायविरचित श्रीहर्षेण 'श्लेषार्थ-पद-सङ्ग्रह' नाम्ना कोशो विरचित आसीद् यस्मिन् श्लिष्ट 'काव्यप्रकाश-टीका' ग्रन्थस्य भूमिकायां शब्दानां सङ्ग्रहोऽभूत् । द्रष्टव्यः-'इ. डी. कुलकर्णी-महोदयस्य लेखः "वाक्"।। विशिष्य विवेचितमस्ति । तच्चद्रष्टव्यं२ वेदानामागमानां शास्त्राणां पुराणानां चेदशाः कोशाः सम्प्रत्युपलभ्यन्तो । श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (३१) कलही क्लेशी कैतवी, कुविचारी कुधि क्रूर । जयन्तसेन सुखद नहीं, रहना इन से दूरः ||rary.org Jain Education Interational Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री यशोभारतीप्रकाशन समिति-बम्बईतः प्रकाशिते "काव्य-प्रकाशे"। संस्कृतशब्दानामन्त्यश्च देश्यशब्दानां सङ्ग्रहात्मका वर्तन्ते । अनेकार्थस्वीयस्य द्विसन्धानकाव्यस्यान्तिमे पद्ये स्वयं परिचाययनयं स्वां मातरं सङ्ग्रहे सप्तसु काण्डेषु क्रमश एक-द्वि-त्रि-स्वर-क्रमेण षट्काण्डाः 'श्रीदेवी' -नाम्ना स्वं जनकञ्च वसुदेवाख्यया गुरुं च दशरथाभिधानेन प्रान्तेऽव्ययशब्दरूपः सप्तमः काण्ड एवं १०२९ पद्यानां सङ्ग्रहोऽस्ति। बोधयति । अस्य महाकवेः शब्दशास्त्रे पूर्णाऽधिकार आसीत् । निघण्टौ षट्सु काण्डेषु वृक्ष-गुल्म-लता-तृण-शाक-धान्यानां शब्दाः शब्दार्थज्ञानेन सह तस्य समुचित-प्रयोग-वैदग्ध्यप्रशंसा चेत्थं वर्णितैतेन- ३९६ पद्यैः प्रकाशिताः । देशीनाममालायां ३९७८ संख्यकशब्दानां ब्रह्माणं समुपेक्ष्य वेदनिनव्याजात् तुषाराचलाया सङ्कलनं शोभते । वर्णक्रमेण रचितायामस्यां ७८२ गाथाः सन्ति यत्रोदाहरणाय काश्चनान्या गाथा अपि सङ्ग्रहीताः । तत्सम तद्भवस्थानस्थावरमीश्वरं सुरनदीव्याजात् तथा केशवम् । संशययुक्ततद्भवव्युत्पादित - प्राकृत शब्दा अत्र महतीमावश्यकतां अप्यम्भोनिधिशायिनं जलनिधिर्वानोपदेशादहो, पूरयन्ति । एवं हेमचन्द्राचार्यस्येमा रचना सर्वोपयोग्यास्तु सन्त्येव ।। फूत्कुर्वन्ति धनञ्जयस्य च भिया शब्दाः समुत्पीडिताः ॥ अतोऽपि महत्तरा कृतिः कोशविद्यायाम् - 'अभिधान-चिन्तामणिः' 'नाममाला' परिचय: - 'नामशेषमाला' पूर्णं महत्त्वं बिभर्ति | अस्मिञ्चिन्तामणौ सम्पूर्ण जैनत्वं सुरक्षितं विराजते । तीर्थङ्कराणां नामानि, तेषां पर्यायशब्दाः, इयं द्विशतश्लोकेषु संस्कृतभाषाया आवश्यकानां तेषां मातृ-पितृनामानि, अतिशयनामावली, भूत भविष्यद्-वर्तमानसप्तदशशतशब्दानामर्थान् प्रस्तौति । अत्रैकां विशिष्ट प्रणार्ली निर्माय कालिकचतुर्विशी, गणधराणां नामानि, तीर्थपानां ध्वजचिह्नानि, महाकविर्धनञ्जय एकस्माच्छब्दाच्छब्दान्तर-निर्माणकलामपि प्रकाशयति । अन्तिमके वली, ऋतके वली, तीर्थेशानां जन्मभूमयस्तथा, इयं कला पर्यायवाचिनां शब्दानां परिज्ञानं तु कारयत्येव तया जैनाम्नायसम्मतानां देवगति-तिर्यग्गत्योर्जीवानां वर्णनानि चात्र विशिष्टानि कलयाऽन्यविधानां पर्यायवाचिशब्दानां बोधोऽपि सुखेन सम्पद्यते । विद्यन्ते । पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकजीवानां द्वि-त्रि-चतुः- पञ्चेन्द्रिय यथा-पृथ्वीवाचिशब्दैः सह 'धर' - पदस्य योजनया पर्वतवाचिशब्दानां, जीवानां नामानि सर्वप्रथममेवास्मिन् कोशे समग्रतया परिचायितानि । 'पति' शब्दयोजनेन राजवाचिर्ना, 'रुह' पद योजनेन च वृक्षवाचिनां कोशरचनाया अनेके विधयोऽत्र प्राथम्येनाविष्कृता इति शब्दानां निर्माणं चमत्करोति । इयं वैज्ञानिका शैली सर्वप्रथममने महत्त्वमस्याक्षुण्णमेव । नैवाविष्कृताऽस्ति । नाममालाया भाष्यमपि ततोऽधिकं माहास्यं प्रकटयति तच्च पञ्चदश्याः शत्या अमरकीर्तिना निर्मितम् । यत्र अन्य जैनकोशकाराः सूत्रनिर्देशः, इतरे पर्यायाः, व्युत्पत्तयः पर्याय शब्दानां सङ्ख्या अपि श्रीहेमचन्द्राचार्याणां परम्परामनुसरन्तः केचनाचार्या उत्तरकालेऽपि विस्मयावहाः सन्ति । तथाविधान् कोशान् विरचितवन्तः किञ्चतैस्तस्मिन् विषये स्वीयं अस्यैव महाकवेः 'अनेकार्थ-नाममाला' - ‘अनेकार्थ-निघण्टु'स्तथा विशिष्टं प्रावीण्यमपि प्रकटितम् । यथा - 'एकाक्षर-कोशोऽपि संस्मरणीय एव । आचार्यः श्रीजिनभद्रसूरिः २-श्रीधनपाल त्रयोदश्यां शत्यां वर्तमानेनानेन सरिवरेण 'अपवर्गनाममाला' म जैन-सम्प्रदाये भगवतामुपदेशा अर्धमागध्यामेव सन्ति । तत्कारणं नाम्नैकस्यांशिकशब्दकोशस्य रचना विहिता यत्रांशरूपेण केचन शब्दाः च श्रीहरिभद्रसूरिणा - 'बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । सङ्ग्रहीताः । अनुग्रहार्थं सर्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृते कृतः' इति स्पष्टीकृतम् । अत आचार्यः श्रीपद्मनन्दिः एव धनपालः 'पाइय-लच्छी-नाममालां' व्यरीरचत् । अस्यां २७५ मात्रयोदश्याः शत्या एवान्तिमे चरणे (१२३०-१३३०ई.) गाथाः सन्ति यासु संस्कृत-व्युत्पत्ति-सिद्धाः प्राकृतशब्दास्तथा देश्यशब्दाः. जैनाचार्येणानेन 'निघण्टु' नाम्ना वैद्यविद्याया एकः कोशो सङ्कलिता विद्यन्ते । प्रान्ते प्रत्ययानामा अपि प्रत्ताः । एवं विरचितः । प्राकृतकोशकर्तृषु धनपालस्याद्यकोशकर्तृत्वेन सुबहु सम्मानोऽस्ति । महाक्षपणकः कलिकालसर्वज्ञः श्रीहेमचन्द्राचार्यः 'अनेकार्थ-ध्वनि-मञ्जरी' नाम्ना विरचितोऽस्य कोशः या कालक्रमानुसारं जैनकोशकारेषु धनञ्जय-धनपालयोरनन्तरं 'शब्दरलप्रदीप' नाम्नाऽपि प्रसिद्धः । २२० पद्यैरञ्चितोऽयं त्रिभागेषु श्री हेमचन्द्राचार्यस्याभिधानं संस्मरणीयं विद्यते । साहित्यस्य प्रत्येकं विभक्तः । अस्य कालस्तु न निश्चितः । शाखायां - 'व्याकरण-कोशच्छन्दोऽलङ्कार-काव्य-न्याय-तत्त्वज्ञान-योग'प्रभृतिविषयानधिकृत्य प्रौढ-ग्रन्थानां निर्मातृत्वेन सुप्रद्धिः श्रीमानयमाचार्यो अमरकवीन्द्रः गूर्जरप्रदेशस्य 'धुन्धुका' - नाम्नि ग्रामे वि. सं. ११४५ तमे वत्सरे जैनकविरमरकवीन्द्रोऽमरपण्डितापरनामधेय समुत्पन्नः श्रीदेवसूरेीक्षामवाप्य हेमचन्द्राभिधया विख्यातोऽभूत् । 'एकाक्षर-नाममालां' व्यरचयत् । कालान्तरेण स्वस्यागाधवैदुष्यवशादाचार्यत्वं प्राप्तः 'कलिकालसर्वज्ञ' अस्यां १९ श्लोका एव सन्ति । CO इति सम्मानपदेन सभाजित आसीत् । गूर्जरत्रा-प्रदेशस्य वीसलदेवनृपस्य श्रीहेमचन्द्राचार्यः कोशसाहित्ये चतुरः कोशान् निरमात् । ते च संरक्षणेऽयमभूत् । १ - अभिधान-चिन्तामणि - २ - अनेकार्थसङ्ग्रह -३ - निघण्टुशेष - ४ - देशीनाममालाश्चेति सन्ति । एतेष्वाद्यास्त्रयः कोशाः श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (३२) गुण गायक गुणी जन पुनि, गुण दृष्टा इन्सान । जयन्तसेन मनुज यही, पावे पद निर्वाण || / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्ये जैनाःकोशकर्तारः -शनीमार- ततः श्रीगुरूणां प्रमोदविजयमहाराजानामेव सम्मत्या नि चतुर्दश्यां शत्यां सेनसङ्घस्याचार्येण श्रीधरसेनेन - 'मूकसरस्वती' - विरुदधरेभ्यः श्रीसागरचन्द्रमहाराजेभ्यो व्याकरण - 'विश्वलोचनकोशः' (मुक्तावाली-कोषावर नामकः), राजशेखरसूरि साहित्यादि - शास्त्राणां तथा तपागच्छाधिपतिभ्यो जैन-सिद्धान्तानां शिष्येण सुधाकलशाचार्येण 'एकाक्षर-नाममाला', सम्राजोऽकबरस्य क्रमशोऽध्ययनं विधाय श्रमणसङ्घे भूयसी प्रतिष्ठां क्रमशो लब्धवान् । शासनकालिकेन जैनविदुषा पद्मसुन्दरेण 'सुन्दरप्रकाश-कोशः' (पदार्थ यथाकालं पंन्यास-पदव्या विभूषितः स्वगुरुप्रदत्ता विद्याः सम्प्राप्य च चिन्तामणिः शब्दार्णवो'वा), तत्सम्राट् सम्मानितेन श्रीभानुविजय-गणिना प्रौढत्वं प्राप्तः पूज्यो लोकमाननीयश्चाप्यभवत् । तदैव सूरि'विविक्त-नामसङ्ग्रहः' (नाममालासङ्ग्रहोवा) रचितः । षोडश्यां शत्यां पदेनाप्यलङ्कृतः । 'श्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरि' रिति महनीयेनाभिधानेन श्रीहर्षकीर्तिसूरिः 'शारदीय (मनोरमा) नाममालां' विमलसूरिश्च विख्यातोऽयं महात्मा दुण्ढकमतानुयायिनः शास्त्रार्थान् विधाय स्वीयाः 'देश्यशब्दसमुच्चयं प्राणैषीत् । सप्तदश्यां शत्यां साधना-प्रक्रियाः संसाध्य दैवं बलं सम्प्राप्य प्रायो २५० जीवेभ्यो खरतगच्छस्यैकेनाज्ञातनामकेन सूरिणा 'शेषनाममाला', साधुकीर्तेः शिष्येण भागवतीं दीक्षा प्रदाय विपुलां साहित्य-निर्मितिञ्चाकरोत् । सुन्दगणिना 'शब्दरलाकरः' सहजकीर्तिगणिना च 'सिद्धशब्दार्णवो' अभिधान-राजेन्द्रकोशः रचितः । एवमेव 'प्रबन्धकोशः' श्री राजशेखरसूरेः, 'वस्तुरलकोश लोके भणितिरियं प्रसिद्धाऽस्ति यत् 'कोशवानेव कोशंसंगृहीतुं एकादिसङ्ख्यासंज्ञाकोशौ' चाज्ञातकर्तृकस्य प्रख्यातौ स्तः । जनेभ्यो वितरितुं च समर्थो भवति ।" तदनुसारं श्रीमन्तो जैनकथासाहित्यमाश्रित्यापि - 'बृहत्कथाकोशः' श्रीहरिषेणस्य गद्य विजयराजेन्द्रसूरयोऽपि भूयसा ज्ञानधनेन सम्पन्ना आसन्नत एव तैः कोश:- (आराधनाकोश:- प्रभाचन्द्राचार्यस्य, 'आख्यानमणिकोशः' सार्धचतुर्लक्षश्लोक-प्रमाणोऽभिधानराजेन्द्रकोश निर्मितवन्तः । षष्टिनेमिचन्द्रसूरेः, 'कथारलकोशो' ब्रह्मदेवाचार्यस्य, 'कथाकोशः श्रुतदेवस्य, सहस्त्र-संख्यकाः प्राकृत भाषाशब्दा अपि कोशेऽस्मिन् संगृहीताः । "जातक-कथा-कोश-बृहत्कथाकोशौ'च नवमशतीतो द्वादशशतीं यावत् इत्थमयं कोशराजः संस्कृत - प्राकृतभाषयोरितः पूर्वं सङ्गृहीतेभ्यः प्रणीताः । कोशेभ्यः परमं प्रावीण्यं प्राचीकटत् । यद्यपि महतामीदृशाणां कोशानां श्रीमन्तो विजयराजेन्द्रसूरीश्वराः निर्माणविधौ कश्चन समवायः सम्भूय कार्यं करोति उपरि निर्दिष्टानां कोश-ग्रन्थानां महनीय-मालायां सुमेरु-स्थानीयो परमभिधानराजेन्द्रकोशकारैः श्रीसूरिभिः स्वकीययैवैकया प्रतिभयाऽहर्निशं विशालाकारः श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरमहाभागैः प्रणीतः 'अभिधान परिश्रम्य कोशोऽयं विरचितः । सप्तसु भागेषु सुसम्पाद्य 'सियाणा' राजेन्द्रकोशः' किमपि विशिष्टं स्थानं कोशविद्यायां बिभर्ति । अस्य नगरे सं. १९४६ तमे वर्षे आषाढ-शुक्ल द्वितीयायां प्रारब्धस्य तथा कोशस्य निर्मातारः किल महातपस्विनः शास्त्रनिष्ठा-निषेवितान्तकरणाः 'सूरत' नगरे सं. १९६० मिते वर्षे चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां परिपूर्णस्यास्य स्वधर्मपालनतत्पराश्चासन् । एतेषां जन्म १८२७ ई. तमे वर्षे कोशराजस्य सार्धचतुर्दशवर्षाणामहोरात्राविश्रान्तश्रमस्य महत्परिणतिरूपेण राजस्थानस्य 'भरतपुर' नगरे पारखगोत्रीयौशवालवैश्यान्ववाये श्रेष्ठिवर्य प्रकाशनं सप्तदशवर्षाणां सततश्रमेण पूर्णतां प्राप्तम् । प्रकाशनस्य श्रीऋषभदासमहाभागस्य धर्मपल्याः 'श्रीकेसरीबाई' महाभागाया श्रेयः किलोपाध्याय श्रीमोहनविजयश्रीदीपविजय-श्रीयतीन्द्रविजयरत्नकुक्षितोऽभवत् । जन्म नाम च तदा 'रलराज' इत्यासीत् । सर्वैः सूरिवरेभ्यस्तेषामेव परम्परायां विद्यमानेभ्यो गुरुवरेभ्यो गच्छति यैः सौम्यगुणैर्मण्डितस्य श्रीरलराजस्य - प्राथमिकी शिक्षा स्वगृहे तथा परमया निष्ठया भक्त्या प्रतिभया च महत्तमं कार्यमिदं सम्पादितम् । स्वग्रामस्याध्ययनशालायामेव सजाता । अत्र हि या पुष्पिका दर्शिताऽस्ति तत्र कोशविषये स्पष्टीकृतं प्रायेण द्वादशे वर्षे रत्नराजोऽयं पितुराज्ञां प्राप्य विद्यते यत् - "श्रीसर्वज्ञप्ररूपित - गणधरनिर्वर्तिताद्यश्वीनोपलभ्यश्रीकेसरियाजीमहातीर्थस्य यात्रामकरोत्, तदैव मार्गे श्रेष्ठिनः । मानाशेष-सूत्र-तवृत्ति-भाष्य-नियुक्ति-चूादि-विहितसकल-दार्शनिकश्रीसौमाग्ममल्लस्य पुत्र्याः डाकिनीदोषं स्वसाधनाबलेन न्यवारयत् ।। सिद्धान्तेतिहास-शिल्प-वेदान्त-न्याय-वैशेषिक-मीमांसादि-प्रदर्शित-पदार्थतदानी श्रीरलराजस्य प्रभावातिशयेन चमत्कतः स श्रेष्ठी स्वपत्र्या युक्तायुक्तत्वनानणायकः "काशाऽयामात रमादेव्या सह तस्य विवाहायापि व्यचारयत् परं भावी तु कश्चनान्य का इत्थमिह क्रमशः १ - मूलशब्दः प्राकृतभाषामयोऽकारादि एवाभूत् । कालान्तरेण श्रीरलराजः स्वकीयज्येष्ठसहोदरेण सह क्रमेण, २ - संस्कृतानुवादः, ३ - व्युत्पत्तिः, ४ - लिङ्गनिर्देशः, ५ - कालिकात्ता-महानगर्यां प्रस्थितः । तत्र व्यापारमाचरन्तौ तौ प्रसङ्गवशात् अर्थः, ६ - जैनागमसम्मतोऽर्थः, ७ - सति सम्भवे भिन्न-भिन्ना सिंहलदेशमपि गतवन्तौ तत्र च व्यापारचातुर्येण द्रव्याणि सगृह्य अर्थाः, ७ - महत्सु पदेषु तेषां प्रयोगदर्शकाधिकारादिनिरूपणं, ८ - पुनः कालिकात्तानगर्यां परावृत्तौ । वृद्धौ च मातापितरौ भरतपुरे तदा मूलसूत्रपाठः, ९ - टीकाकर्तृभिर्विहिताः स्पष्टता, १० - ग्रन्थान्तररुग्णावभूतामतः स्वनगरं समागत्य तयोः सेवायां संलग्नौ । दैववशात् प्राप्तोविषय - विस्तारः, ११ - एकस्यैव तौ दिवं प्रयातौ । पित्रोः स्वर्गमनेन प्राप्तप्रबोध इव श्रीरत्नराजः । शब्दस्य विभिन्नाः सम्भाव्याः संस्कृतसंसारस्य नश्वरत्वं परमेश्वरस्य पारमेष्ठ्यं तथा वैराग्यमेवाभयमिति शब्दाः, १२ - प्राकृत - व्याकृति - साक्षादनुभवन् परिवार-पञ्जरं भित्त्वा भागवतीं दीक्षां प्राप्तुं गृहात् प्राकृत - शब्दरूपावली - प्रस्थितः । १९०३ वै. वत्सरे वैशाखशुक्लपञ्चम्यां शुक्रवासरे परिशिष्टादिशब्दशास्त्रीय - विमर्श श्रीप्रमोदविजयमहाराजानां निर्देशात् तेषां ज्येष्ठगुरुभ्रातुः सहिताः कस्य न सचेतसो मानसं श्रीहेमविजयमहाराजादाहतीं यतिदीक्षां गृहीत्वा 'श्रीरलविजय' नाम्ना रञ्जयति बोधयति च? प्रख्यापितः । अनया दीक्षया मुनिमण्डले नवदीक्षितः श्रीरलराजो कि अस्य पूर्वे सम्पादयितारोऽपि धन्यधन्यो जातः । जैनागमानां तत्सिद्धान्तानां व्याकरणादि श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ/ विश्लेषण (३३) काम क्रोध कलुषित मति, कलह कपट कटुभाव । जयन्तसेन तजो करो, पार स्वयं निज नाव ।। / Jain Education Interational Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विविध - शास्त्राणां च पूर्णतया परिज्ञातार आसन्, पुनः प्रकाशन - भगीरथाः श्रीमद् - जयन्तसेनसूरयो “मधुकराः" तस्मादेवातिप्रवीणया धियाऽस्य सम्पादनमकुर्वन् । चिरकालात् प्रकाशितस्याभिधानराजेन्द्रकोशस्य भागा विद्वद्भ्यो वस्तुतः साहित्यस्य धरातलं लोकादूर्ध्वं भवति, तदुपरि विशालस्य दुर्लभसजाता आसन् । साम्प्रतिके युगे शोधशालानां महाग्रन्थागाराणां संसारस्य स्रष्टेव विद्वान् विराजते । स हि जनः स्वीये मनसि तथा विश्वविद्यालयानां विस्तारः समुहान् संवृत्तः । अनुसन्धातृणां विचिन्त्य परीक्ष्य च यां वाचं प्रस्तौति तस्या मर्म तत्समभावनाशालिन कृते जैनागम-वर्णित-विषयावबोधाय को शराजस्यास्य एव ज्ञातुं प्रभवन्ति । "विद्वानेव विजानाति विद्वज्जन - परिश्रमम् । महत्यावश्यकताऽनुभूयते स्म । तामनुभूय श्रीमन्त आचार्य-प्रवरा नहि वन्ध्या विजानाति गुर्वी प्रसववेदनाम् ।। श्रीजयन्तसेनसूरयस्तेषु सूरिवरेषु श्रद्धधाना भगीरथेन प्रयासेन समग्रस्य तस्य प्रकाशनेन समस्तं विद्वज्जगदुपकृतवन्त इति महते गौरवाय । इत्ययमाभाणकः किल - अभिधान - राजेन्द्रकोशस्य नितरां परिशीलनेनैव तेभ्यो विनता अभिनन्दनाञ्जलयः साम्प्रतं ग्रन्थ-विशेषरूपेण विपश्चितः कथञ्चित् सकलागमपारदृश्वानां श्रीमतां समर्पयितुकामाः सन्ति भक्तिभाजो विद्यानुरागिण इति महत् विजयराजेन्द्रसूरीश्वराणां श्रमजातं वैदुष्यं च परिज्ञातुं प्रभवन्तीति प्रमोदस्थानम् । 'चिरं जीवन्तुतमाम्' ते महाभागा इति परमेश्वरं सत्यमेव । वयमपि सर्वात्मना प्रार्थयामः । इति शम् ।। अत एव समस्तानां जैनागमानां तदङ्गभूतानामन्येषां टीका - प्रटीकादिग्रन्थानां सारसर्वस्वं सरलया पद्धत्या समालोड्य समुद्राद् राष्ट्रस्यास्य विराजते सुमहती स्पष्टा प्रतिष्ठा क्षिती, रत्नभूतानां शब्दरत्नानां वास्तविकं तत्त्वं परिबोधयितुं ज्ञानेनैव चिरात् प्रखरिणी सर्वोच्च-सानौ स्थिता । श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिवरैर्विनिर्मितोऽभिधानराजेन्द्रकोशः प्रामाणिकं तामात्मप्रतिभाभरेण निरतं संवर्धयन्तो बुधाः, साहित्यं प्रस्तौति । कोशेऽस्मिन् कोश-विद्यायै समपेक्षिताः प्रक्रियास्तु क्रियास्तु केषां नैव भवन्तु भूमिपटले ते वन्दनाभागिनः ॥ १ ॥ प्रयुक्ता एव, सहैव नवनवाः प्रकारा अप्याविष्कृताः । जैनसिद्धान्तपरिज्ञानाय कोशोऽयं कल्पवृक्षायितः । ग्रन्थानां मूलपाठ विश्वज्ञान-निधानवर्षणपरस्तत्त्वप्रकाशान्वितः, निक सङ्गहेणास्य महत्त्वं सर्वोपरि परिगण्यते । विद्याविदां समाजे स्वदेशे शब्दार्थागम-मण्डितः श्रुतपथाचारश्रियाऽऽभासितः । विदेशे वा सर्वत्र यादृशः सम्मानः श्रीमदभिधान - राजेन्द्र - कोशेन जैनानामखिलार्थसार्थसहितो रत्नत्रयी-राजितः, समवाप्तः स तु सर्वानतिशेत एव । लगा श्रीराजेन्द्रगुरोरमेययशसा कोशश्चिरं राजताम् ॥ मधुकर-मौक्तिक हम अक्सर कहा करते हैं: मैं तो अपने मन के अनुसार चलता हूँ। यह बात मन का अपने ऊपर अधिकार सिद्ध करती है। यदि हमें 'जीव' का विश्वास हो जाए, तो हम ऐसा नहीं कहेंगे । 'जीव' का विश्वास होने के बाद हमारा कहने का ढंग बदल जाएगा । तब हम कहेंगे, हमारे 'जीव' को जैसा अँचेगा, वैसा हम करेंगे । आज तक हम मन को जॅचे वैसा करते आये हैं और इसीलिए इसका परिणाम यह हुआ है कि मन हम पर सवार हो गया है। वस्तुतः होना यह चाहिये था कि हम मन पर सवार हो जाते; पर हुआ उल्टा ही; मन हम पर सवार हो गया । सवार घोड़े पर बैठने के बजाय घोड़ा सवार पर बैठ गया । सवार पर घोड़ा बैठ गया तो फिर रहा ही क्या? ज्ञानी कहते हैं, 'मन के घोड़े पर हमें बैठना है और उसे लगाम बाँधना है। मन का घोड़ा हम पर सवारी कर चुका है, यह जानकर के उसे दूर हटाना है । उस पर सवार होने की योग्यता हमें प्राप्त करनी है। वह योग्यता और शक्ति हमें तब ही प्राप्त हो सकती है, जब हम पंच परमेष्ठियों का परिचय प्राप्त कर उनकी शरण में जाएँ । जब हम नवकार मन्त्र के सच्चे आराधक होंगे, तभी हमें पंच परमेष्ठी की शरण प्राप्त होगी । महामन्त्र का आराधक कभी इस संसार-चक्र में नहीं फँसेगा । असल में उसके सामने भव-भ्रमण का चक्र रहता ही नहीं है, किन्तु हम तो हमेशा चक्कर में ही बैठे हैं। चक्कर के सिवा हमारे पास और है ही क्या ? - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण इस रंगीले जगत का, चित्र विचित्र स्वरूप । जयन्तसेन स्वभाव में, रहना सौख्य अनूप ।। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद-दृष्टि (पं. शिवनारायण गौड़) है, पर यात्री है जिस र विज्ञान के स्व और पर कारण वह घोष व उद्भावना सकता है । इस का यह विस्तृन, विशाल संसार हमारे जीवन की चरम इकाई समदर्शन हो या विज्ञान इनके कार्य हवा में नहीं चलते वे इस है। इससे परे क्या है कौन जाने ? और हम न भी जान पावें तब संसार के सहारे चलते हैं, संसार में रहकर चलते हैं, अपने सीमित भी हमारा काम तो चल ही जाता है । प्रसन्नता की बात है कि साधनों से चलते हैं । इस कार्य में सहायता करते हैं हमारे शरीर, उसका आयाम दिन पर दिन बढ़ता जाता है और हमारी उसे उसकी इन्द्रियां, हमारे सहित यह पूरा संसार । एक प्रकार से हम देखने-समझने की शक्ति भी कई प्रकार के उपकरणों की सहायता संसार के द्वारा ही संसार को समझने का प्रयास करते हैं, विचारों से निरन्तर बढ़ती जा रही है। फिर भी संसार की तुलना में हमारी के द्वारा विचार और संसार को जानने का प्रयास करते हैं, इस पृथ्वी नगण्य है और उसकी तुलना में जीव जगत् तुच्छ है | पर बीच यह संसार भी हमारे जीवन, हमारे विचार और स्वयं अपने मनुष्य पर विचार करें तो उसकी एक प्रकार की तुच्छता दूसरे को प्रभावित करता रहता है। यह स्थिति वैसी ही है जैसे आंखों से प्रकार की उच्चता में बदलती दिखाई देती है । मनुष्य का शरीर आंखों को देखना, किसी पैमाने से खुद उस पैमाने को नापना, चाहे छोटा हो, उसकी शक्तियां चाहे सीमित हों अपने ज्ञान की विचार से विचार पर विचार करना । पूंजी के कारण वह बहुत बड़ा है और उसकी गुप्त संभावनाओं पर गनीमत है कि हममें और संसार में ऐसी क्षमता है कि वह विचार करें तो उसकी क्षमता देवों की कोटि तक पहुंचती दिखाई स्व को पर में और परको स्व में बदल सकता है । इस कार्य में देती है। उसे विचार, भाव कल्पना व उद्भावना से बड़ी सहायता मिलती अपने ज्ञान की कुंजी से ही वह संसार के रहस्य खोजने का है। इनके कारण वह धोखा भले ही खा जावे, इनकी सहायता से प्रयास करता है । इस रूप में उसे जो कुछ मिलता है उसे हम स्व और पर में आलोडन विलोडन करके संसार को (और अपने विज्ञान कहते हैं। पर विज्ञान क्या अन्तिम सच्चाई है ? विज्ञान के को भी) विविध दृष्टियों से, विविध प्रकार से समझने, परखने में इतिहास को देखें तो वह एक ऐसा यात्री है जिसकी यात्रा का सफल होता है। क्षितिज विस्तृत होता जाता है, पर मंजिल कहां है, अन्तिम लक्ष्य जा इस दार्शनिक विचारधारा के अनुसार सत्य एक है, उसके क्या है, इसे अनन्त का पथिक कैसे जान सकता है ? रूप अनेक हैं, भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न देशकाल के अनुसार पर मनुष्य भी कोई हार माननेवाला प्राणी नहीं है । एक सत्य के एक अंश को ही ग्रहण कर सकते हैं, जब सभी दृष्टियां यात्रा करता है तो दूसरा उसकी सहायता करता है और तीसरा आंशिक सत्य हैं तो पूर्ण सत्य को पाने का एक ही मार्ग है उनका उसका मार्गदर्शन करता चलता है । हमारा जीवन पारस्परिक योग । पर यह योग यदि बेमेल हो तो टांग सिर पर और सिर पेट सहयोग का एक अच्छा उदाहरण है । हरेक अपने योग्य काम चुन पर बिठा देने जैसी स्थिति बन सकती है । इसीलिए विरोध में लेता और जीवनक्रम को आगे बढ़ाता है, इसीलिए हरेक अलगअलग अविरोध की सम्यक् स्थापना करना ही स्याद्वाद की साधना है। काम-धंधे करता दिखाई देता है, पर अन्तिम रूप में सब एक ही संसार के विषय में दो अतिवादी दृष्टियां हैं - पहली वैदिक दर्शन उद्देश्य में लगे रहते हैं । इस सामूहिक एकलक्ष्यी जीवन को समझने के अनुसार के प्रयास को हम दर्शन कहते हैं । दर्शन की यात्रा भी बहुत लम्बी और व्यापक रही है, पर उसका अन्तिम उद्देश्य रहा है जीवन और सर्वं खल्विदं ब्रह्म,नेह नानाऽस्ति किंचन । उसके साथ जगत में एकरूपता खोजना, संसार की विषमताओं के जीर आरामं तस्य पश्यन्ति, न तत् पश्यति कश्चन ।। बीच एकता तलाशना, विरोधों के बीच समन्वय स्थापित करना । यह सारा संसार अलग-अलग दिखाई देकर भी मूलतः एक ही निश्चित ही यह कार्य विज्ञान से भी अधिक कठिन है । ब्रह्मसत्ता का विस्तार है, वैसे ही जैसे दुनिया भर का पानी कई विज्ञान संसार के विश्लिष्ट करते देखने का प्रयास करता है, पर स्थानों से कई रूपों में समुद्रतक पहुंच कर बादल बनता, बिजली व विश्लेषण से वस्तु की सत्ता लोप चाहे न हो । रूपान्तरित तो हो ही गर्जन में बदलकर फिर जल बन जाती है । हमारा जीवन ही नहीं । उसका आधार यह संसार भी जाता है । यही दशा मिट्टी (पृथ्वी), एक इकाई के रूप में, एकलक्ष्यी यात्री की भांति पूरी व्यवस्था के आग (अग्नि) आदि की भी है । ये साथ नियमित रूप से निरन्तर चल रहा है, चल ही नहीं रहा एक कई रूपधारण करके भी अन्ततः यात्रा कर रहा है, इसलिए उसके अंगों, उसके पथ या पड़ावों का एक ही ब्रह्म तत्त्व के आभास हैं, बिखरा विश्लेषण पूरी यात्रा व उसके जुड़े उद्देश्य का सम्पूर्ण चित्र परिवर्तितरूप हैं । वे ब्रह्म से उत्पन्न प्रस्तुत नहीं कर सकता । इस कार्य का सम्पादन दर्शन करता है। (परिणत) होते और ब्रह्म में ही लीन वह जीवन जगत का संश्लिष्ट चित्र देकर उसे जीवित रूप में हमारे होकर ब्रह्ममय बन जाते हैं । सामने रखने का प्रयास करता है। बिठा र योग यदि सत्य को पाने सकते हैं, जो यात्री की भांति नहीं रहा एक एक ही ब्रह्म तत्वव ब्रह्म से (३५) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण द्विरद चले निज चाल से, श्वान भसत तस लार । जयन्तसेन फिकर तजो, अन्त श्वान की हार |Morary.org Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे छोर पर बौद्धौं का वह क्षणिकवाद है जिसके अनुसार समष्टि व व्यष्टि दोनों ही रूपों में इस प्रकार परिभाषित किया जा संसार या उसके पदार्थ - सकता है कि, अनिरुद्धमनुत्पादं-मनुच्छेदम शाश्वतम् । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् सत् । या प्राकृत में उप्पन्नेइवा विमेइ अनेकार्थमनानामिनाराममनिमम । इसीको टमरे भन्नों में वा धुवेइ वा । पदार्थ, वस्तु या द्रव्य उत्पन्न होता, नष्ट होता, इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि दिखाई देता है फिर भी मूलरूप में बना भी रहता है या इतने परिवर्तनों, रूपान्तरों के बीच भी स्थिर रहता है, मूलरूप में नष्ट न सद्, नासद्, न सदसत्, न चानुभयात्मकम् । रिट नहीं होता। चतुष्कोटि विनिर्युक्तं सत्वं माध्यमिका विदुः ।। - माध्यमिकावृत्ति या परिवर्तनशील संसार में पदार्थों के रूपान्तर होते रहते हैं, उनके मतानुसार तो - परमार्थो हि आर्याणां तूष्णीभावः । मा.वृ. उनके गुणधर्म बदलते रहते हैं, एक ही व्यक्ति बाल, युवा, वृद्ध यह संसार क्या है, पदार्थ क्या है आदि प्रश्नों पर चुप्पी होता है, वह भले-बुरे कर्म करता है, पदार्थ के रूप, रंग, रस, कार्य साध लो | बुद्ध ने दार्शनिक प्रश्नों को अव्याकृत कहकर छुट्टी बदलते जाते हैं । इस प्रकार वस्तु अनेक धर्मात्मक है, जिनमें से पाली। कुछ समान होते हैं तो कुछ विरोधी । इन विशेषताओं को इन दोनों ध्रुवों के बीच और भी कई विचारधाराएं हैं जो समझकर वस्तुस्थिति का परिचय पा लेना ही ज्ञान है । उसकी ओर भेद, अभेद, एक अनेक, स्थायी-अस्थायी आदि रूपों में इस संसार आगे बढ़ने का प्रारम्भिक साधन है। का वर्णन करती हैं। पर जैन मत में वे सब एकांगी हैं. एकांशी हैं. विरोधी धर्मों का निषेध न करते हए वस्तु के एक अंश या खण्डित या एकाग्रही हैं । सत्य को पूर्णरूप में समझने के लिए धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय कहलाता है। उनमें समन्वय और सभी का समादर करने की आवश्यकता है। (अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः।) प्रमाणसे निश्चित इसी अनाग्रही, सर्वांगीण, सामञ्जस्यपूर्ण दृष्टि को स्याद्वाद या किये हुए पदार्थों के एक अंश के ज्ञान करने को नय कहते हैं। अनेकान्तवाद का नाम दिया गया । (प्रमाण परिच्छिन्नास्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तु नि एक सत्य एक है किन्तु उसको समझने के दृष्टिकोण अनेक हैं। देशग्राहिणस्तदितरांशोऽप्रतिक्षेपिणोऽध्यवसायविशेषा नयाः । अथवा विभिन्न दृष्टिकोणों में अनाग्रहपूर्वक सत्य का साक्षात्कार करना और प्रमाणप्रतिपन्नार्थैकदेशपरामर्शो नयः । उसका सम्यक् निर्वचन करना यही स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है। . नि नय का अर्थ है अभिप्राय, दृष्टि, विवक्षा, या अपेक्षा तथा विश्व की संरचना विविध विरोधों का समन्वित रूप है और अपेक्षाभेद से होनेवाले वस्तु के विभिन्न अध्यवसाय । नय कथन वे सब उसके धर्म हैं, स्वभाव हैं । उनके अतिरिक्त विश्व का अन्य करने की एक प्रक्रिया है, वचन-विन्यास है। वे ज्ञान की ओर ले कोई रूप नहीं है । ये विरोध प्रतिद्वन्द्वी नहीं हैं, किन्तु परस्पर जाते हैं, नयन्तीतिनयाः । नय का अभिप्राय यही है कि सभी पक्ष, सापेक्ष हैं । उनका आधार एक है और वे आधार के प्रति एकनिष्ठ सभी मत पूर्ण सत्य को जानने के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं। किसी एक हैं । इस तथ्य को स्वीकार करने पर वैचारिक संघर्ष और विवाद प्रकार की इतनी प्रधानता नहीं कि वही सत्य है और दूसरा सत्य के लिए अवकाश ही नहीं रह जाता है। नहीं हैं । सभी पक्ष अपनी-अपनी दृष्टि से सत्य हैं । इसीलिए दृष्टियां भी अनेक हो सकती हैं । जावइआ वयणपदा तावइआ चेव "स्याद्वाद दृष्टि अनाग्रही होती है । उसका लक्ष्य सत्य की हुँति नयवादा । सत्य के जितने कथन हो सकते हैं उतने दी नय खोज करना है इसीलिए उसकी एक ही आकांक्षा रहती है यत्सत्यं वाद हैं । नय एक ही वस्तु को अपेक्षाभेद से या अनेक दृष्टिकोणों तन्मदीयम् । जो सत्य है वही मोक्ष है । उसका मानना है कि, से ग्रहण करने वाले विकल्प हैं। सयं सयं प्रसंसंता, गरदंता, परं लखं । प्रमाण और नय में यह अन्तर है कि प्रमाण में अनन्त जे उ तत्थ विडस्यन्ति, संसारे ते विडस्सिया ॥ धर्मात्मक वस्तु के सभी धर्मों के ज्ञान का समावेश हो जाता है और जो अपने को पंडित मान कर अपनी ही प्रशंसा करते और नय वस्तु के किसी एक अंश को मुख्य और अन्य अंशों को गौण दूसरों की निन्दा करते हैं वे संसार में चक्कर लगाते रहते हैं। करके ग्रहण करता है, किन्तु उनकी उपेक्षा या तिरस्कार नहीं करता । स्याद्वाद दृष्टि का मानना है कि सत्य एक है, उसके रूप अनेक हैं । देशकाल के अनुसार वे सत्य के एक अंश को ही ग्रहण नय के व्यापक क्षेत्र को सुविधा के विचार से निम्नलिखित कर सकते हैं । अतएव परस्पर विरोधी दिखाई देती हुई भी वे सभी सात क्षेत्रों में वर्गीकृत किया गया दृष्टियां सत्य हैं। है। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । नाम जैनदर्शन के अनुसार सम्यक् दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः के साथ इनके क्रमों का भी महत्त्व है । ज्ञान की उपलब्धि के दो साधन हैं, प्रमाण और नय । प्रमाण है । ये एक दूसरे से तो जुड़े हैं ही का अर्थ है सकलादेश और नय का विकलादेश - सकलादेशः पर क्रम से स्थूल से सूक्ष्म या सामान्य प्रमाणाधीनो, विकलादशो नयाधीन इति (सर्वार्थसिद्धि १-६) से विशिष्टता की ओर बढ़ते जाते यह ज्ञान पदार्थ पर आधारित होता है । सत्य सत् या सत्ता पर निर्भर करता है । यह संसार विविध पदार्थों का संग्रह है जिन्हें श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण धर्म पैर्य शुभ ध्यान घर, घी धन धारण हार । जयन्तसेन पुरुष रतन, करत जगत उद्धार ॥ . Jain Education Intematonal Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगम __ कानयों की संख्या, वर्गीकरण व भेद आदि के विचार से कई संग्रह नय से जाने हुए पदार्थों में योग्य रीति से विभाग प्रकार सामने आते है, पर सुविधा की दृष्टि से सर्वमान्य और करने को व्यवहारनय कहते हैं। उपयोगी रूप का ही यहां ग्रहण किया गया है। अथवा द्रव्य और पर्याय का वास्तविक भेद जानना व्यवहार नैगम नय- । सामान्य विशेषाद्यनेक धर्मोपनयनपरोऽध्यवसायो नय है। नैगमः । नैगम, संग्रह और व्यवहार को द्रव्यार्थिकनय के सामान्य वर्ग वा सामान्य और विशेष आदि अनेक धर्मों को ग्रहण करने के अन्तर्गत मान लिया गया है क्योंकि ये द्रव्यसंस्पर्शी हैं । इनका वाला अभिप्राय नैगम नय कहलाता है । ... निगम शब्द का सम्बन्ध प्रत्यक्ष या पदार्थ (उसके स्थायीरूप) से है । शेषचार को शाब्दिक अर्थ है देश, संकल्प और उपचार | उनमें होनेवाले पर्याय संस्पर्शी कहते हैं क्योंकि वे उसके अस्थायीरूप (रूपान्तरो) अभिप्राय को नैगमनय कहते हैं । अर्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः । से सम्बन्धित हैं । इसीलिए ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत संकल्प का भाव है अभिप्राय या उद्देश्य । इसमें जिस उद्देश्य से का पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत वर्गीकरण किया गया है। क्रिया की जा रही है उसीकी प्रधानता दी जाती है | जैसे कोई इन चारों में से भी केवल ऋजुसूत्र का पर्याय से सम्बन्ध है। ईंधन, जल, चावल आदि ले जाते हुए व्यक्ति से पूछे कि वह क्या इस सहित प्रथम चार का अर्थ या पदार्थ से सम्बन्ध होने से इन्हें कर रहा है तो वह कहेगा कि मैं खाना पका रहा. हूं । यही दशा अर्थनय (अर्थतन्त्र) कहते हैं और शेष (अन्तिम) तीन को शब्दनय । लेखक, पाठक आदि की भी हो सकती है । दूसरे रूप में कोई (शब्दतन्त्र) किसी से पूछे कि आप कहाँ रहते हैं और वह उत्तर दे कि मैं लोक में रहता हूं और उस लोक को संकीर्ण करता हुआ अपने घर तक ऋजुसूत्र - ऋजुसूत्रः स विज्ञेयो येन पर्यायमात्रकम् । । पहुंच जावे | या कोई कहे कि फल लाओ और वह आम या केला वर्तमानैकसमयविषयं परिगृह्यते ।। या कोई विशिष्ट फल ले आवे | ऋजुसूत्र का सम्बन्ध पदार्थ के परिवर्तनशीलरूप से रहता है। कुछ आचार्यों के मत में दो धर्मी, दो धर्म अथवा एक धर्म अमुक वस्तु अमुक क्षण जैसी दिखाई देती है उसके तत्कालीन और एक धर्मी में प्रधानता और गौणता की विवक्षा करनेवाला उल्लेख को ऋजुसूत्र नय कहा जाता है। जैसे राजा का अभिनय कथन, नैगममय माना गया है। करनेवाले नर को हम उस समय राजा ही कहते हैं । ततः प्रविशति संक्षेप में सामान्य व विशेष में कथंचित् तादात्म्य ही नैगम महाराजः । यही दशा विवाह के समय दूल्हे राजा की होती है। नय का मूलाधार है। शब्दनय - यह अन्तिम तीन नयों का सामान्य नाम भी है और संग्रहनय - उनमेंसे प्रथम का विशिष्ट नाम भी है । यहां उसे इसी दूसरे विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त किया गया है | इसका सम्बन्ध शब्द के सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रह इति । नैगमनय में सामान्य पर्यायों (पर्यायवाची शब्दों) से है । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ व विशष दाना हा आभप्रेत हात है पर सग्रह म केवल सामान्य का इति शब्दः । पर्यावाची शब्द एक दो पदार्थ वाचक है। पर इसस ग्रहण किया जाता है। किसी यात्री द्वारा मार्ग पूछे जाने पर जब भी अधिक इसका भाव यह है कि जो काल, कारक, लिंग, वचन हम मात्र यह कथन करते हैं कि उस पेड़ के बायें घूम जाना तो पुरुष और उपसर्ग आदि की भिन्नता के बीच भी शब्द के सामान्य हमारा ध्यान इस बात पर नहीं जाता कि पेड़ आम का है या नीम अर्थ को ग्रहण करे । उदाहरण के लिए कुम्भ, कलश, घट मिट्टी से का, यद्यपि पेड़ केवल पेड़ नहीं होता, बड़-पीपल कुछ भी हो निर्मित एकार्थवाची शब्द हैं । यही दशा इन्द्र, शक्र और पुरन्दर की सकता है। यही दशा सर्वसामान्य सत् के कथन की है। जब हम है। तीनों ही इन्द्र के वाचक हैं । पर व्युत्पत्ति के आधार पर इन्द्र कहते हैं कि क्या बढ़िया चीज है, घटना है, दृश्य है तब भी हमारा का अर्थ है इन्दते वर्धत इति इन्द्रः, शक्नोति इति शक्रः, पुरं आशय ऐसे ही सामान्य से होता है। दारयति इति पुरन्दरः समृद्धि के कारण इन्द्र, समर्थ होने से शक्र व्यवहार नय - इस शब्द को निश्चय नय के विपरीतार्थी और पुर का विदारण करने से पुरन्दर भिन्न भाववाची हैं यही व्यवहारनय के प्रसंग में भी प्रयुक्त किया जाता है, पर यहां वह समभिरूढनय का अभिप्राय है। एक विशिष्ट (तकनीकी) अर्थ में ही प्रयुक्त किया जाता है। जैन सिद्धान्त के अनुसार शब्दारूढोऽर्थोऽर्थारूदः तथैव पुनः विशेषात्मकमेवार्थं व्यवहारश्च मन्यते । बिगिया शब्दः । शब्द और अर्थ अन्योन्याश्रित हैं | एक शब्द का एक ही विशेषभिन्नं सामान्यमसरव-विषाणवत् | शा. अर्थ और एक अर्थ में एक ही शब्द प्रयुक्त होता है। इसलिए हरेक शब्द जब वस्तु के सामान्य गुणों पर ध्यान न देते हुए विशिष्ट का अलग-अलग अर्थ है और गुणों का उल्लेख किया जावे या सामान्य जाति के स्थान पर पर्यायवाची भी इस नियम से बाहर विशिष्ट वर्ग का उपयोग किया जावे, उस अभिप्राय को व्यवहार नहीं हैं। नय कहते हैं। जैसे कि जब किसी को फल लाने को कहा जावे और वह आम या केला या फल का और कोई प्रकार ले आवे, या एवंभूतनय - यह नय पूर्ववर्ती जबकि उसे पता है कि आम या केला ही फल नहीं है, ये तो से एक कदम आगे बढ़ कर बताता उसके प्रकार मात्र हैं। है कि पर्यायों के निरुक्ति या व्युत्पत्ति श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (३७) उचित मुनाफा ले सदा, रखे राष्ट्र हित-ध्यान । जयन्तसेन मनुज वही, पाता यश वरदान ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कारण अर्थ तो भिन्न होते ही हैं उनका प्रयोग भी अर्थ या नयों से संगृहीत हो जाते हैं । इनके द्वारा वस्तु की नित्यानित्यता, परिस्थिति के अनुकूल किया जाना चाहिए । उदाहरण के लिए घड़े भेदाभेदता, एकानेकता आदि को सिद्ध किया जा सकता है। का को घट इसीलिए कहते हैं कि वह (पानी भरते समय) घट-घट जब तक उन सभी प्रकार के नयों को नहीं समझा जावे तब करता या गाड़ी में ले जाते समय घड़े घड़-घड़ करते हैं । इसलिए ___ तक अनेकान्तवाद या स्याद्वाद का ठीक आशय समझ में नहीं आ उनके लिए घट या घड़े शब्द का प्रयोग तभी करना चाहिए जब वे सकता । ये नय दृष्टि या स्याद्वाद की आधारशिला हैं। घट-घट या घड़-घड़ करें । इन्द्र को पुरन्दर तभी कहना चाहिए जब प्रसंग पुरों के विदारण का हो । मनुष्य को मनुष्य तभी कहना पदार्थ को ज्ञान, शब्द और अर्थ के आकारों में बांटने का चाहिए जब वह मनन करे या मननशील हो । किसी हत्यारे को तो आधार निक्षेप पद्धति है । अप्रस्तुत का निराकरण करके प्रस्तुत का मानव की बजाय दानव कहना ही सही होगा। बोध कराना, संशय को दूर करना और तत्त्वार्थ का अवधारण करना निक्षेप पद्धति का प्रयोजन है । नाम, स्थापना, द्रव्य और नय निर्विषय न होकर ज्ञान, शब्द या अर्थ किसी न किसी भाव ये निक्षेप के चार भेद हैं । यद्यपि जगत में ठोस और मौलिक को विषय अवश्य करते हैं । इसका विवेक करना ज्ञाता का स्वार्थ अस्तित्व द्रव्य का है परन्तु व्यवहार केवल परमार्थ अर्थ से नहीं है। जैसे कि एक लोकसत् की अपेक्षा एक है, जीव और अजीव चलता । अतः व्यवहार के लिए पदार्थों का निक्षेप शब्द, ज्ञान और के भेद से दो है, द्रव्य, गुण और पर्याय के भेद से तीन, द्रव्य, अर्थ - तीन प्रकारसे किया जाता है | जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया क्षेत्र, काल और भावरूप होने से चार, पंच-अस्तिकायों की अपेक्षा आदि निमित्तों की अपेक्षा किये बिना ही इच्छानुसार संज्ञा रखना पांच और जीवादि षद् द्रव्यों की अपेक्षा छह है। नाम कहलाता है। जैसे किसी लड़के का नाम गजराज रखना, यह नय में सापेक्ष दृष्टि रहती है इसीलिए वे सम्यक् ज्ञान के शब्दात्मक अर्थ का आधार है। जिसका नामकरण हो चुका है उस कारण बनते हैं । जो नय निरपेक्षदृष्टिवाले एकान्तवादी, एकपक्षी पदार्थ का उसी के आकार वाली वस्तु में या अतदाकार वस्तु में होते हैं वे मिथ्यानय कहे जाते हैं। स्थापना करना स्थापना निक्षेप है । जैसे हाथी की मूर्ति में हाथी की जैन दर्शन की विचार-सरणि इस प्रकार है कि सम्यक् दर्शन, स्थापना या शतरंज के मुहरे को हाथी कहना । यह ज्ञानात्मक अर्थ ज्ञान और चारित्र मोक्ष के उपाय हैं । 'दर्शन का अर्थ है तत्त्वार्थ में का आधार होता है । अतीत और अनागत पर्याय की योग्यता की श्रद्धा (तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यकदर्शनमा) तत्व या पदार्थों के प्रथम दृष्टिस पदाथ म वह व्यवहार करना द्रव्य निक्षप ह । जस यवराज जीव और अजीव में और अजीव को धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, को राजा कहना या जिसने राजपद छोड़ दिया है उसे भी वर्तमान काल नामक ५ वर्गों में विभाजित किया गया है । इन छह को द्रव्य में राजा कहना । वर्तमान पर्याय की दृष्टि से होने वाला व्यवहार कहते हैं । सत्ता ही द्रव्य का लक्षण है (सद् द्रव्यलक्षणम्) सत् का भाव निक्षेप है । जैसे राज्य करनेवाले को राजा कहना । अर्थ है उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त होना । जो परिवर्तनों के बीच भी स्थिर काम हमारा समस्त व्यवहार कहीं शब्द, कहीं अर्थ और कहीं रहे वही द्रव्य है । द्रव्य के इस दुहरे रूप को समझने के लिए ही स्थापना अर्थात् ज्ञान के सहारे चलता है । या कहा जा सकता है नयवाद या स्याद्वाद की आवश्यकता होती है | द्रव्य का एक कि शब्द ही पदार्थ का ज्ञान प्राप्त कराने में सहायक होते हैं | ज्ञान अंश गुण और पर्यायवाला है जो परिवर्तनशील है, दूसरा मूलांश के साधक के लिये इन शब्दों की सार्थकता वाक्यों में प्रयुक्त होने ध्रुव है । पर गुण और पर्यायों के बिना उसका कोई स्वतंत्र पर ही संभव है। केवल 'घट' या अकेले है' का कोई तात्पर्य अस्तित्व नहीं है । इन दोनो रूपों के सम्बन्धों को जानना नय नहीं, न लाल-पीला से कोई उद्देश्य पूरा होता है । जब कोई कहता दृष्टिका मूलाधार है। पर वस्तु को अकेले ही नहीं देखा जा सकता, है कि यहां एक घड़ा पड़ा है या यह घड़ा. लाल है या लाल और न उसे केवल अस्तित्वरूप में ही देखा जाता है। वस्तु कुछ-कुछ है पीला रंग है, या यह घड़ा लाल नहीं पीला है, हो सकता है यह तो कुछ-कुछ नहीं भी है। वह यदि घट है तो पट नहीं है और पट घड़ा कभी लाल रहा हो पर अभी पीला पड़ गया है । मुझे नहीं है तो घट नहीं है । उस तुलनात्मक दृष्टि को चार अपेक्षाओं से मालूम रंग क्या होता है । आदि वाक्य पदार्थ, घटना, आदि के देखा जा सकता है। विषय में जानकारी देते हैं । इन विविध कथनों को विधि और प्रत्येक द्रव्य का अपना असाधारण स्वरूप होता है । उसका निषेध या इससे परे के आधार पर अकेले या मिश्रित रूप में रखने निजी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव (गुण) होता है, जिनमें उसकी से उनके ७ प्रकार बनते हैं इसीलिए उन्हें सप्तमंगी कहते हैं और सत्ता सीमित रहती है। ये चारों उसके स्वरूप चतुष्टय कहे जाते हर कथन के साथ द्दष्टिभेद सूचक स्यात् शब्द का प्रयोग करने से हैं । प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप चतुष्टय से सत् होता है और पररूप इस सापेक्ष दृष्टि को स्यात् शब्द को लक्ष्य में रखकर स्याद्वाद और चतुष्टय से असत् । जैसे कि बीकानेर में शीतकाल में बना हुआ दृष्टि की सापेक्षता के कारण मिट्टी का काला घड़ा, द्रव्य से मिट्टी का है किन्तु स्वर्ण आदि सापेक्षवाद कहते हैं। यहां प्रधानता अन्यरूप नहीं है । क्षेत्र से बीकानेर में बना हुआ है, दूसरे क्षेत्र का न सात के अंक या प्रकार की है न नहीं है । काल की अपेक्षा शीत ऋतु में बना हुआ है, दूसरी ऋतु में स्यात् शब्द के प्रयोग की । महत्ता निर्मित नहीं है । भाव या गुण की अपेक्षा काले वर्ण का है, लाल उस दृष्टि की है जो इसका मूलाधार आदि वर्णवाला नहीं है। है । नयों के प्रसंग में अनुभव किया गया था कि पदार्थ स्व द्रव्य, क्षेत्र, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये चार अपेक्षाओं के आधार से काल और भाव के विचार से सत् दर्शक वस्तदर्शन करता है। ये चारों द्रव्यार्थिक एवं पयायाथिक और पर दव्य क्षेत्र काल और श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (३८) काटे पेट गरीब का, भरे स्वयं का कोष । जयन्तसेन ऐसा नर, भरे पाप का कोष ।। • Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव के विचार से असत् है । इसी बात को घट-पट आदि पर लागू करके संसार के किसी भी पदार्थ के लिए कहा जा सकता है कि वह एकान्तरूप से न सत् है न असत्, न वर्ण्य हैं न अवर्ण्य । उसे देखने-समझने की अनेक दृष्टियां हैं, अनेक अपेक्षाएं हैं, जिन्हें शब्दों या वाक्यों में समेटना हो तो ऐसे सात वाक्प्रयोग हैं जो समग्ररूप में पदार्थ का सही ज्ञान दे सकते हैं, पर किसी एक पर आग्रह करने से हमारा ज्ञान ही अधूरा नहीं रहता, वह दृष्टि भी दोषपूर्ण बन जाती है। एकत्र जीवादौ वस्तुनि एकैकसत्त्वादि धर्मविषयप्रश्नवशात् अविरोधेन प्रत्यक्षादिबाधापरिहारेण पृथग्भूतयोः समुदितयोश्च विधिनिषेधयोः पर्यालोचनयाकृत्वा स्याच्छब्दलांछितो वक्ष्यमाणः सप्तभिः प्रकारैः वचनविन्यासः सप्तभंगीति गीयते । (मल्लिषेण प्रश्नवशात् एकत्र वस्तुनि अविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी । स्याद्वाद वह सापेक्ष प्रणाली है जिसमें विधि और निषेध अलगअलग या सम्मिलित रूप से किसी वस्तु के धर्म का बिना विरोध के प्रसंगानुसार सातरूप में कथन करते हैं । इसी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि स्वपर्यायैः परपर्यायैः उमयपर्यायैश्च सद्भावेन, असद्भावेन, उभयेन, चार्पितो विशेषितः कुम्भः कुम्भाकुम्भावक्तंव्योभयरूपादि भेदो भवति - सप्तभंगी प्रतिपाद्यत इत्यर्थः । स्वपर्याय परपर्याय उभयपर्याय के द्वारा सदभाव असदभाव दोनों ही की विशेषता से युक्त कुम्भ, कुम्भ, अकुम्भ, अवक्तव्य के दो (या अधिक) के जोड़ों से कथन ७ प्रकार का या सप्तभंगी रूप में व्यक्त किया जाता है। इसमें प्रधानता अविरोध की है । एक ही वस्तु अपने से भिन्न नहीं हो सकती । वह स्वधर्म को नहीं छोड़ सकती (वत्थुसुहावोधम्मो) पट पट की अपेक्षा से या अपनी विशेषता के कारण अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य के व्यस्त और समस्त एकाधिक या सर्वविध मिश्रण से उसके विषय में कथन सातरूप धारण कर सकता है। सत्ता एक है या अनेक इस बात को निम्न सातरूपों में व्यक्त किया जा सकता है- १. स्यादेकः, २ स्यादनेकः, ३. स्यादेकानेकश्च ४. स्यादवक्तव्यः ५. स्यादेकश्चावक्तव्यः ६. स्यादनेकश्चावक्तव्यः, ७. स्यादेकश्चानेकश्चावक्तव्यश्च । सत्ता के स्थान पर घट शब्द के प्रयोग द्वारा इसी बात को निम्न प्रकार समझा जा सकता है - स्यात् घट है - एक अर्थ में, एक अपेक्षा से शिश घट (घट) है । स्यादस्ति घटः एक अर्थ में घड़ा नहीं है । (स्यात् नास्ति घटः) एक अर्थ में घड़ा है और नहीं है (स्यात् अस्ति नास्ति च घट:) ४. एक अर्थ में घड़ा अवक्तव्य है (स्यात् अवक्तव्यः घटः) एक अर्थ में घड़ा है और अवक्तव्य है (स्यात् अस्ति अवक्तव्यश्च घटः) ६. एक अर्थ में घड़ा नहीं है और अवक्तव्य है (स्यानास्ति अवक्तव्यश्च घटः) एक अर्थ में घड़ा है, नहीं है और अवक्तव्य है (स्यात् अस्तिनास्तिचावक्तव्यश्च घटः). इन कथनों के मूलाधार अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य हैं जिन्हें अकेले, दुकेले और सभी के मिश्रण से ७ ही प्रकार बनते हैं इसीलिए कथन की शैली को सप्तभंगी नाम दिया गया है । स्यात् सर्वत्र अनुगत रहने से इसे स्याद्वाद कहा जाता है । पर मूल भावना अनेकान्त की होने से इस सिद्धान्त को अनेकानतवाद कहा जाता है । अनेकान्त एकान्त का विरोधी शब्द है । सिद्धान्त का अन्त जब एकवादी, हठवादी या एकांगी बन जाता है कि संसार के पदार्थ अनेक धर्मात्मक हैं इसलिए किसी एक धर्म का कथन व्यवहारोपयोगी तो हो सकता है पर यथार्थ की दृष्टि तो जबतक उसके सभी गुणधर्मों का पर्यालोचन नहीं कियाजावे तब तक हमारा कथन सत्यसे परे, अर्धसत्य या सत्य का एकांश ही हो सकता है। इसीबात को लक्ष्य में रखकर हर कथन को सात प्रकार से परखकर सभी के समवेत कथन को सत्य बताया गया है। मोटे रूप में इसे हाथी के अंधों द्वारा स्पर्शज्ञान से प्राप्त किये गये अधूरे ज्ञान के समन्वय से समझा जा सकता है | हाथी अकेले खंभे या सूप जैसा नहीं होकर समग्ररूप से हाथी है । इसी प्रकार पदार्थ स्वरूप से स्वद्रव्यरूप है पर पररूप से पररूप द्रव्य से अभिन्न न होकर भिन्न है और मूलरूप में वाणी का विषय नहीं, दोनों से अवक्तव्य है । पर विवक्षाभेद या प्रसंगानुसार इनमें से किसी एक रूप में ही नहीं । इनके मिलेजुले या सभी के मिश्रित रूप में भी वर्णित किया जा सकता है । ये सभी वर्णन अधूरे होने से अर्धसत्य हैं, पूर्णसत्य तो सभी कथनों की समग्रता में है । यही स्याद्वाद दृष्टि का सार है। एक ही वस्तु भिन्न धर्मा कैसे हो सकती है इसे एक रोचक उदाहरण द्वारा सरलता से समझा जा सकता है - घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पत्ति - स्थितिष्वयम् । शोक प्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ।। तीन व्यक्ति किसी सुनार के पास पहुंच गये । हरेक का उद्देश्य भिन्न था । एक को सोने या चांदी का घड़ा (गिलास) बनवाना था, दूसरा उससे मुकुट बनवाना चाहता था और तीसरा सोने या चांदी की डली चाहता था । सुनार मुकुट को तोड़कर घड़ा बना रहा था इसलिए मुकुट चाहनेवाले को दुःख हुआ कि उसका वांछित मुकुट तोड़ा जा रहा था ? घड़ा या गिलास चाहने वाले को प्रसन्नता हुई कि सुनार उसके उद्देश्य की पूर्ति कर रहा था, पर जिसे सोना-चांदी चाहिए था उसके लिए तो एकही बात थी कि सुनार उसका घड़ा बनावे, मुकुट ही बना रहने दे या दोनों को ही तोड़-फोड़ कर डली में बदले यही अभिप्राय, अपेक्षा, विवक्षा जब शब्दों का जामा पहनकर सामने आती है तो विविधरूपी होने १. (३९) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jan Education International संचित वैभव छल रहित, लक्ष्मी करे निवास । जयन्तसेन घनिक वही, पर की परे आस Ilary.org Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या से सप्तभंगीरूप में प्रकट होती है और क्रमबद्ध सात रंगोंवाले पंखे सामान्य भाषा में समझना हो तो किसी विचित्र, चितकबरे. को घुमाने से सभी का एकरूप सफेद बन जाता है । वही सफेद बहुरंगी, बहुमुखी, विविध स्वादवाले पदार्थ को लेकर उसके बारे में रंग का सूर्य-प्रकाश बरसात में सतरंगीइन्द्र धनुष का रूप धारण किये गये प्रश्नोत्तर से इस दृष्टि से थोड़ा परिचय प्राप्त किया जा कर लेता है और बिखरे रूप में कहीं लाल तो कहीं नीला दिखाई। सकता है । खट्टे-मिट्टे आम को ही लें। क्या वह खट्टा है, नहीं वह देता है। मीठा' भी है, क्या वह मीठा है, हां है पर खट्टा भी है, वह मीठाइसी प्रकार सत्य को देखने की अनेक दृष्टियां हैं। उन सभी खट्टा दोनों है, पर न तो केवल मीठा है न खट्टा । फिर उसका असली स्वाद क्या है? उसे शब्दों से तो कहा नहीं जा सकता कि का समन्वय स्याद्वाद है । संपूणार्थविनिश्चायी, स्याद्वादं श्रुतमुच्यते (न्यायावतार) वह क्या है, क्या नहीं है, वह एक है या अनेक है या मिश्रित रूप में वह क्या है, स्वाद आखिर क्या है, वह आम है या आम का स्याद्वाद का अर्थ है विभिन्न दृष्टिकोणों का पक्षपात रहित । गुण है, पर बिना स्वाद के आम क्या है, जब वह केरी था तब होकर तटस्थ बुद्धि और दृष्टि से समन्वय करना । मीठा नहीं था, कल मीठा बनकर वह खट्टा नहीं रहेगा, फिर मीठे वस्तुस्थिति, व्यक्ति और कर्म की दृष्टि से सापेक्ष होती है। और खट्टे में क्या अन्तर है, क्या वे साथ रह सकते हैं, क्या वे एक प्रसंगानुसार अभीप्सित अर्थ मुख्य और अनभीप्सित गौण हो जाता दूसरे के सहयोगी हैं या रूपान्तर/पर क्या स्वाद को हम आंख से हैं; स्व की अपेक्षा उसके एकरूप की सत्ता होती है, दूसरे की देख सकते हैं, तो स्वाद आम में कहां है, जो दिखाई नहीं देता वह अपेक्षा से उसकी सत्ता नहीं होती और दोनों की अपेक्षा से वह है ऐसा कैसा कहा जा सकता है ? पर आम क्या केवल एकही क्या है इसका वर्णन वाणी से परे होने से अवक्तव्य भी हो सकता रूप का होता है ? उसकी दुनिया भरकी जातियां, रूप-रंग, है। आकार-प्रकार, स्वाद व गंध हैं, उन सबमें सामान्य आम कहां है ? यतो वाचोनिवर्तन्ते अप्राप्य मनसासह । सूरदास ने उसे मन पर उपचारसे तो पूरा पेड़ ही आम है, आम का त्रिआयामी वाणी से अगम-अगोचर कहा है । तुलसी के शब्दों में - केसव, नकलीरूप, चित्र, पर्दे या टी.व्ही. पर प्रदर्शित रूप आम ही तो है, कहि न जादू का कहिये ? देखत तब रचना विचित्र अति, पर उनमें क्या कोई स्वाद है, फिर ये आम कैसे? एक छोटे से समुझिमनहि मन रहिये । कुछ ने इसे गूंगे का गुड़ बताया है। आकार से लेकर किलोभर के, लम्बे, पतले, मोटे सभी में आम्रत्व कहां है, राम की रामता की तरह आम की आमता कहां है ? स्याद्वाद का शास्त्रीय प्रणेता चाहे किसी काल या क्षेत्र से बंधा हो उसका व्यावहारिक रूप तो वैदिक काल में भी परिचित ऐसे एक नहीं अनेक प्रश्न आम के बारे में पूछे जा सकते हैं था, जब सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व की अवस्था के लिए कहा गया और ज्यों ज्यों उत्तर खोजते या पदार्थ को जानने का प्रयास करते था - नअसद् आसीत्, नो सद् आसीत् तदानीम् । तब न असत् था। हैं बुद्धि चकराने लगती है, शब्द छोटे पड़ जाते हैं, वर्णन अधूरे रह न सत् ही था, वह तो अप्रतीक - प्रतीक, चिन्ह या संकेत रहित जाते हैं, मन भ्रम में पड़ जाता है और बोलचाल की भाषा में - है था शब्दातीत था । किसे मालूम कि वह क्या था ? कहूं तो है नहीं, नहीं कहूं तो है । इन दोनों के बीच में कुछ न कुछ तो है । इसीसे सन्तोष करना पड़ता है। ऐसे ही प्रश्नों, इसी प्रकार मिट्टी, जल आदि के विवों (पर्यायों) को जिज्ञासाओं या शंकाओं की समाधानकारक दृष्टि को स्याद्वाद, समझाने के लिए कहा गया है - वाचारमणं विकारो नामधेयं अनेकान्तवाद या कथन को सप्तभंगी कहा जाता है। मृत्तिकेत्येव सत्यम् । (छांदोग्य) यह संसार नामरूपात्मक है । मूल रूप में अव्याकृत है - तद्धेदं तयव्याकृतमासीत् तन्नामरूपाभ्यामेव विज्ञान के क्षेत्र में जाकर तो हमारी दृष्टि और भी चकरा व्याक्रियत (वृहदारण्यक) जाती है | विज्ञान ने सारी सृष्टि को छान मारा है | वह मोटे से लगाकर छोटे तक का, स्थूल से सूक्ष्म और ब्रह्माण्ड से परमाणु तक बुद्ध ने इसे विभाज्यवाद का नाम दिया था । पर माध्यमिकों सभी का पर्यवेक्षण, परीक्षण, विश्लेषण और वर्गीकरण करके कुछ या शून्यवादियों ने तो सबकुछ को नकारते हुए सर्वशून्य बना दिया। सामान्य गुणों, तथ्यों या नियमों को जानने का प्रयास करता है, अतस्तत्त्वं सदसदुभयात्मक चतुष्कोटिविनिर्मुक्तम् (नागार्जुन) प्रकाशानन्द वह दुनिया भर की चीजों में भिन्नता और अभिन्नता खोजता हुआ ने इस संसार को मन की उपज बता कर दृष्टिसृष्टिवाद के रूप में स्थूल पदार्थ से परमाणु को भी खण्डित करके मूल १०५ तत्त्वों को समझाने का प्रयास किया तो बर्कले के लेटिन उक्ति percipi भी तरंग-दैर्घ्य में परिवर्तित करके इनका भी मूलाधार दिक्काल या अस्तित्व का अर्थ है दर्शन, मन का प्रक्षेप | यह संसार वही है सातत्य अथवा आकाशीय वक्रता द्वारा समझाने का प्रयास करता जैसा हम उसे देखते या देख पाते हैं, वह तभी तक है जबतक हम वह पदार्थ को कर्जा और कर्जा देखते हैं और जब हम नहीं देखते तो ईश्वर उसे देखता है, पर को तरंगों में बदलते बदलते एक कोई देखनेवाला नहीं रहे तो यह संसार भी नहीं रहेगा | मुंदिगइ से संसार में पहुंच जाता है जहां आंखें, फिर लाखें केहि काम की । आप मरे जग पर जाय । पदार्थ नहीं घटनाएं हैं, क्रियाएं हैं, एक छोर पर ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या, नेह नानास्ति किंचन । गति है, परिवर्तनशीलता है, पर वह ब्रह्मैक्य और दूसरे छोर पर सर्व शून्यं के रूप में पूर्णतः अभाव, किसमें है, कहां है, क्यों है आदि उन दोनों को एक में समेट ने का प्रयास ही स्याद्वाद है। का पता ही नहीं लग पाता । __ इसके आधुनिक पदार्थवादी रूप को समझने का प्रयास भी अप्रासंगिक नहीं होगा। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (४०) सभी कला में श्रेष्ठ है, जीवन कलाविचार । जयन्तसेन घनिक वही, पर की परे आस || Vanenbrary.org Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयोग से विज्ञान के इस दृष्टिकोण को भी हमने सापेक्षवाद उसने इन सभी को मिलाकर विश्व को सापेक्ष्य बना दिया है और नाम दे दिया है और इस रूप में वह स्याद्वाद का समानार्थी। इनकी वक्रता व साधनता-विरलता को ऊर्जा का, ऊर्जा को पदार्थों दिखाई देता है, पर ये दोनों दृष्टियां मूल में एक होकर भी विस्तार का, इस भरे पूरे संसार का रूप बताकर रूपाकार को सापेक्षता का में नितान्त भिन्न हैं। एरिंगटन के शब्दों में - मूलाधार बना दिया है। bothi The relativelity theory of physics reduces Troजब संसार इस प्रकार का सापेक्ष दृश्य है तो द्रष्टा इसे कैसे everything to relation, that is to say. It is structure. समझे? ये दृश्य क्षणक्षण परिवर्तनशील तो हैं ही मनुष्य की पकड़ not material, which counts. The structure cannot से भी परे हैं । व्हाइटेद के शब्दों में you cannot recognise be built up without material, but the nature of the an event, because when it is gone, it is gone. BH material is of no importance. घटना (परिवर्तन, परिणाम, विवत) को नहीं पहचान सकते क्यों मायभौतिकी का सापेक्षवाद सिद्धान्त हर चीज को सम्बन्ध कि एक बार बीता कि वह सदा के लिए अतीत बन जाता है, (अपेक्षा) में बदल देता है, अर्थात् वहां महत्त्व पदार्थ का नहीं हमारी पकड़ से बाहर पहुंच जाता है । और तो और हम परमाणु संरचना का है । यद्यपि संरचना, बिना पदार्थ के नहीं की जा में इलेक्ट्रान की गति व स्थिति का पता नहीं लगा सकते क्योंकि सकती परन्तु वहां भी महत्त्व पदार्थ की प्रकृति का नहीं होता। गति नापते हैं तो स्थिति बदल जाती है और स्थिति को छूते हैं तो गति गड़बड़ा जाती है । यही दशा प्रकाश के तरंगमयरूप की है । केसिपस कायजर के अनुसार होने (अस्तित्व) का अर्थ है क्वान्टम वाद के अनुसार प्रकाश कोरी तरंगों के रूप में नहीं आता सम्बद्ध या सापेक्ष होना । To be is to be related. प्वांकेट के प्रकाश के पेकेट के रूप में आता है। अनुसार Science, in other words, in a system of relations. विज्ञान ने मूल तत्त्वोंकी संख्या भले ही १०५ तक सदृश्य में द्रष्टा की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है | आइन्स्टाइन पहुंचा दी हो, पर ये १०० कौरव और ५ पांडवों की तरह ने समय की सापेक्षता को सुख-दुःख की अनुभूति के अनुसार महाभारत के पात्र नहीं हैं, ये सब जिन अणुओं से बने हैं उनका (उनकी अपेक्षासे) घटता-बढ़ता दिखाया है, पर विज्ञान तो निरपेक्ष अन्तिम रूप ऊर्जा है । हर पदार्थ न केवल ऊर्जा है अपितु हर तथ्यों तक पहुंचने का प्रयास करता है । पर सापेक्षता तो यहां भी पदार्थ को ऊर्जा में बदला जा सकता है और हर प्रकार की ऊर्जा पीछा नहीं छोड़ती । समय की सापेक्षता व्यक्तिगत ही नहीं का पदाथ में रूपान्तरित किया जा सकता है. यहां तक कि जिन पदाथगत भा ह, मानसिक ही नहीं भौतिक भी है. इस तथ्य को ऊष्मा, प्रकाश, विद्युत-चुम्बकत्व आदि को हम अलग-अलग देखते इस बात से समझा जा सकता है कि अपनी गति में निरपेक्ष प्रकाश हैं वे भी एक दूसरे में रूपान्तरित किये जा सकते हैं । संसार ऊर्जा (किरणे) सूर्य से हम तक तत्काल नहीं पहुंचती, उन्हें पृथ्वी तक का रूपान्तरण है पर न तो ऊर्जा नये सिरेसे बनाई जा सकती है न उतरने में ८ मिनट से अधिक लगते हैं । कुछ आकाशगंगाओं या विद्यमान ऊर्जा का कभी किसी प्रकार अन्त होता है । अतः यहां तारों से हम तक पहुंचने में उसे लाखों वर्ष लग जाते हैं । इसका भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लागू होता है कि पदार्थ में परिवर्तन होता है अर्थ यह हुआ कि उनका जो रूप हम आज देखते हैं वह लाखों पर कुछ मौलिक तत्त्व शाश्वत बना रहता है। वर्ष पहले का है । इस बीच वे पदार्थ नष्ट भी हो गये तब भी वे उसी क्रम में हमें दिखाई देते रहेंगे और दूरी के अनुपात में इतने हमारी सामान्य दृष्टि में तो पदार्थ को रहने के लिए स्थान समयतक उनका अस्तित्व बना रहेगा | इस प्रकार समय स्थान या चाहिए और बदलने के लिए समय, पर वैज्ञानिक सापेक्षवाद ने तो दूरी के सापेक्ष है, समकालीनता जैसी वस्तु नहीं होती वैसे ही जैसे इन दोनों का मिश्रण बना दिया है । मिंकोवस्की के शब्दों में पदार्थ की स्वतन्त्रता सत्ता है वह दूसरों से तदाकार भले ही हो Space by itself and time by itself. or doomed तादात्य नहीं होती । इस तादात्य या आइडेन्टिटीने ही अपेक्षा का to fade away into more shadows, and only a kind उपहास किया है जिसकी विस्थापना का प्रयास वर्तमान विज्ञान का of union of the two will proserve an independent लक्ष्य है। reality. इस क्षेत्र में सबसे बड़ी बाधा भाषा द्वारा उपस्थित की जाती अकेले आकाश या दिक् और अकेले काल को परछाइयों में है। संसार को जानने का माध्यम हमारा मन तो है ही, पर बिना बदलना होगा, स्वतन्त्र सत्ता तो इनके एक प्रकार के संयोग की भाषा के वह लंगड़ा है । पर भाषा का सहारा लेते ही वह इतना होगी। जिसे दिक्काल कहा जा सकता है। परन्त आइन्स्टाइन ने पराधीन हो जाता है कि उसे बार-बार सावधान करना पड़ता है कि तो इस मिश्रण के मूलाधार ईश्वर को ही गायब कर दिया है | For भाषा या शब्द संसार या पदार्थ नहीं Einsstein, 'space-time' is, semantically, 'fulness', 'not हैं | आम शब्द आम पदार्थ का emptiness', and, in his language. he does not need स्थान नहीं ले सकता । कोई भी any term like 'ether' of astins 'plenum' 'structurally. शब्द आपका पूरा या यथार्थ वर्णन covers the ground. आइन्स्टाइन के लिए दिक्काल का अर्थ है नहीं कर सकते । एडिंगटन के परिपूर्णता, रिक्तता (शून्य) नहीं परिपूर्णता की संरचना ही उसके अनुसार - मूलाधार का काम दे देती है अतः उसे न ईश्वर की आवश्यकता है । We cannot describe न दिशा के तीन और काल के एक अलग-अलग आयामों की । substance, we can only (४१) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण सभी कला में श्रेष्ठ है, जीवन कलाविचार जयन्तसेन रहे सदा, उन का शुध्दाचार |Lrary.org Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ give aname to it. Any attempt to do more than कठिन है। ऊपर इसके केवल वर्णनात्मक रूप का स्पर्श किया गया give aname leads at once to an attribution of है । तुलनात्मक रूप में तो विषय और भी जटिल हो जाता | पर structure. But structure can be described to some वर्णनात्मक रूप के विस्तार को ही देखें तो भेद और उपभेदों, extent, and when reduced to ultimate terms it विचारों की शाखाओं प्रशाखाओं, भारतीय विचारधारा के परिप्रेक्ष्य appears to resolve itself into a complex of relations में सापेक्षवाद के प्रादुर्भाव और विकास तथा पश्चिमी विचारधारा में ... A law of nature resolves itself into a constant आध्यात्मिकता से भौतिकता और वस्तुवादी यथार्थ की यात्रा बड़ी relation. लम्बी है। हम पदार्थ का वर्णन नहीं कर सकते, हम केवल उसे नाम विभिन्न विरोधी विचारधाराओंका जैसा समन्वय सापेक्षवाद ने पद या संज्ञा प्रदान कर सकते हैं । इससे अधिक करने का अर्थ है किया, यहां तक कि अपने अनेकान्तवाद सिद्धान्त को स्वयं उसकी संरचना का उल्लेख करना । एक सीमा तक संरचना का अनेकांतवाद पर लागू करने से पीछे नहीं हटे वर्णन किया भी जा सकता है पर अन्तिम पदोंतक पहुंचने का अर्थ (अनेकान्तवादोऽप्यनेकान्तात्मकः), वैसाही प्रयास अध्यात्मवादी हो जाता है संबंधों का संकुल । ... प्रकृति के नियम का अर्थ है अनेकान्त या सापेक्षवाद का भौतिकवादी सम्बन्धवाद या सापेक्षवाद ऐसे स्थायी सम्बन्धों की खोज । से करने की युगीन मांग की पूर्ति करना ही किसी पुरातनवाद को पेवस बार्न के शब्दों में Beyond the bounds of नवीन परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का उद्देश्य होना चाहिए। science, too, objective and relative reflaction is a पर यह किसी विस्तृत ग्रंथ का विषय हो सकता है, साधारण gain, a release from prejudice, a liberation of the लेख या रचना का नहीं । प्रसंगानुसार इसपर विचार करने का spirit from standards whose claim to absolute valicity अवसर मिला । इसमें स्याद्वाद पर लिखने की अपेक्षा सीखने का melts away before the critical judgement of the प्रयास अधिक किया गया है । लेख को लिखने में विविध स्रोतोंका relations. उपयोग किया गया है, पर प्रधानता दो ग्रंथों की है - विज्ञान की सीमा के बाहर भी भौतिक और सापेक्ष विचार स्याद्वाद सिद्धान्त - एक अनुशीलन आचार्य श्री आनन्दऋषिजी, लाभप्रद ही हैं, उनसे पक्षपात से छुटकारा मिलता है और आत्मा तथा Jaina theories of Reality and Knowledge : Dr.Y. ऐसे प्रतिमानों से मुक्त हो जाती है जिनका निरपेक्ष प्रामाणिकता का J. Padmarajan. दावा एस सापेक्षवादा के आलोचनात्मक निणय के सामन पिघल कोर्जीबस्की की पुस्तक साइंस एंड सेनिटी ने जाता (लुप्त हो जाता) है। वैज्ञानिक सापेक्षवाद को समझाने में विशेष सापेक्षवाद का क्षेत्र बड़ा विस्तृत व्यापक है, साथ ही वह सहायता की है। इतना गम्भीर व जटिल है कि उसे थोड़े शब्दों में समेट पाना बड़ा मधुकर-मौक्तिक हमारे जीवन में कई प्रकार के चक्र हैं । दुनिया का तक, बातों का चक्र, धंधे का चक्र और एक-दूसरे को आगे-पीछे धकेलने का चक्र चक्र के सिवाय और हम है ही कहाँ? हमारा जीवन इन चक्रों से मुक्त होना चाहिये । इन सब चक्करों का मूल कारण है कर्म-चक्र, अतः इन दुश्चक्रों से मुक्त होने के लिए कर्म-चक्र से छूटना पड़ेगा; और कर्म-चक्र को यदि रोकना है, तो जीवन में धर्म-चक्र को अंगीकार करना पड़ेगा। यदि धर्म-चक्र हाथ में होगा तो कर्म-चक्र पीछे हटने लगेगा और फिर यह धर्म-चक्र हमारे जीवन में सुस्थिर हो जाएगा। जिसने धर्म-चक्र को पा लिया, उसे सिद्ध-चक्र तक पहुँचने में समय नहीं लगेगा और उसकी राह में कोई बाधा भी निर्मित नहीं होगी। हमें सिद्ध-चक्र तक पहुँचना है । सिद्ध-चक्र में केवल सीधापन है। वहाँ किसी प्रकार की बाँक नहीं है । सीधेपन से युक्त और चक्र से मुक्त जो स्थिति है, उसे सिद्ध-चक्र कहते हैं। यदि आप सीधेपन में आना चाहते हैं और अपने जीवन को चक्र-मुक्त रखना चाहते हैं, तो फिर जरा गौर से अपने जीवन-मूल्यों को समझते जाइये । उनको समझने के बाद आप अपना जीवन स्तर ऊँचा उठा सकेंगे और उज्ज्वलतर बन सकेंगे। -जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि मधुकर हमारा जीवन-पथ कितना लम्बा है। हमें नहीं मालूम । कितनी लम्बी अपनी जीवन-स्थिति है, नहीं मालूम | अरे, हमें तो इस जीवन का भी पता नहीं है। हमें यह भी मालूम नहीं है कि हमारा यह मूल्यवान जीवन किस प्रकार बीत रहा है.? हम होश में हैं ही कहाँ ? मोह महामद पियो अनादि, भूलि आपकू भरमत वादि । हमने तो मोह की तेज शराब पीने की आदत बना डाली है और इसीलिए हम अपने आपको को भूल कर इस संसार-चक्र में व्यर्थ भटक रहे हैं। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि मधुकर श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (४२) मातृभूमि अरु धर्म की रखता है जो शान | जयन्तसेन जग में वह, पाता पूजा मान Ily.org Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋग्वेद तथा तीर्थंकर ऋषभ देव | (डॉ. श्री प्रहलादनारायण वाजपेयी) ऋषभ देव मानव संस्कृति के आदि पुरुष हैं । वह सबसे वर्षा की उपमा आदि तीर्थंकर ऋषभ देव के देशना रूपी पहले राजा हुए जिन्होंने गाँवों और नगरों का निर्माण कराया । जल की ही सूचक है । पूर्व गत ज्ञान का उल्लेख जैन परम्परा के उनके राज्य काल में वनवास से लोगों ने गाँवों और नगरों में भवन अनुरूप ही है । अतः ऋग्वेद के यह पूर्व ज्ञाता ऋषभ और कोई बना कर रहना आरम्भ किया । राज्य को समृद्धि के लिये गायों, नहीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव ही हैं। घोड़ों और हाथियों का संग्रह आरम्भ किया । मंत्रिमण्डल बनाया। 'आत्मा ही परमात्मा है ।" यह जैन दर्शनका मूलभूत चतुरंगिणी सेनाएँ सजायी, सेनापतियों की व्यवस्था की । साम, साम, सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त को ऋग्वेद में इस प्रकार से प्रतिपादित मटात दाम, दण्ड और भेद की नीति का प्रवर्तन किया । विवाहपद्धति का किया गया है | जिसके चार अंग हैं - अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, सूत्रपात किया । कृषि की व्यवस्था प्रारम्भ कर खाद्य समस्या का अनन्त सुख और अनन्त वीर्य । तीन पाद हैं - सम्यग्दर्शन, समाधान प्रस्तुत किया । शिल्पकला के विविध आयाम प्रस्तुत सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र | दो शीर्ष हैं - केवल ज्ञान और किये । व्यवसायों का प्रशिक्षण दिया । इस प्रकार सभी जीवों को मुक्ति तथा जो मन, वचन, काय इन तीनों योगों से बद्ध अर्थात् सुखी बनाने वाली सभ्यता का शुभारम्भ किया । संयत वृषभ हैं उन्हीं ऋषभ देव ने घोषणा की : 'महादेव जीवन के अन्तिम भाग में ऋषभ देव ने राज्य व्यवस्था त्याग (परमात्मा) मयों में निवास करता है । अर्थात् प्रत्येक आत्मा में दी और श्रमण बन गये । वर्षों तक ऋषभ देव ने अनवरत साधना परमात्मा का निवास है। की । उन्हें कैवल्य लाभ हुआ | श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका इन ऋषभ देव ने कठोर तपश्चरण रूप साधना कर आत्मा से चार तीर्थों की स्थापना की । श्रमण धर्म के पाँच महाव्रतों एवं महात्मा और महात्मा से परमात्मा तक क्रमशः उन्नति करते हुए जन श्रावक धर्म के लिये बारह व्रतों का उपदेश दिया । इस काल में जन के समक्ष यह आदर्श प्रस्तुत किया कि तपस्या से सब कुछ ऋषभ देव प्रथम सम्राट्, प्रथम केवली और सर्व प्रथम तीर्थंकर थे। संभव है । एतदर्थ ही ऋग्वेद के मेधावी महर्षि द्वारा निर्दिष्ट किया सभ्यता का सूत्रपात करने वाले आदि तीर्थंकर ऋषभ देव के गया : ऋषभ स्वयं आदि पुरुष थे, जिन्होंने सर्व प्रथम मर्त्य दशा में विषय में यह कहा गया है : 'वेदों का मुख अग्निहोत्र है, यज्ञों का अमरत्व की उपलब्धि अर्पित की। मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा है एवं धर्मों का मुख ऋषभ देव ने सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भावना का सन्देश काश्यप ऋषभ देव है।" दिया । इसीलिये उन्हें विशुद्ध प्रेम पुजारी के रूप में भी ख्याति ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ रल है उसकी एक ऋचा मिली । उनके मैत्री भावना सन्देश का मुद्गल ऋषि के सारथी में तीर्थंकर ऋषभ देव की स्तुति की गई है । वैदिक ऋषि ने भाव (विद्वान नेता) केशी वृषभ जो अरिदमन के लिये नियुक्त थे, विभोर होकर प्रथम तीर्थंकर की स्तुति करते हुए कहा है : 'हे उनकी वाणी निकली, जिसके परिणाम स्वरूप मुद्गल ऋषि की गायें आत्म दृष्टा प्रभो, परम सुख प्राप्त करने के लिये मैं तेरी शरण में आना चाहता हूँ क्योंकि तेरा उपदेश और तेरी वाणी शक्तिशाली मरवस्य ते तीवषस्य प्रजूति है, उनकी मैं अवधारणा करता हूँ। हे प्रभो ! सभी मनुष्यों और मिर्याभं वाचमृत्ताय भूषन् । देवों में तुम्ही पहले पूर्व गत ज्ञान के प्रतिपादक हो।' इन्द्र क्षितीमामास मानुषीणां । विशां देवी नामुत पूर्वयामा || ऋग्वेद २/३४/२ ऋग्वेद में ऋषभ देव को पूर्व ज्ञान का प्रतिपादक और दुःखों असूतपूर्वा वृषभो ज्यायनि मा. का नाशक कहा गया है। उसमें बताया गया है जैसे जल से भरा अरय शुरुधः सन्ति पूर्वीः । मेघ वर्षा का मुख्य स्रोत है, जल से पृथ्वी की प्यास बुझा देता है। दिवो न पाता विदयस्यधीमिः । उसी प्रकार परम्परागत पूर्वज्ञान के प्रतिपादक महान् ऋषभ देव का क्षम राजाना प्रतिवोदधाथे ॥ ऋग्वेद ५२/३८ शासन वर देने वाला हो । उनके शासन में ऋषि-परम्परा से प्राप्त । (अ) अप्पा सो परमप्पा । (ब) सदा भुक्तं.....कारण परमात्मानं पूर्व का ज्ञान आत्मिक शत्रु क्रोधादि का विध्वंसक हो । दोनों प्रकार जानाति | नियमसार, तात्पर्य की आत्माएँ (संसारी और सिद्ध) स्वात्म गुणों से ही चमकती हैं। वृत्ति, गा. ९६ अतः वे राजा हैं, पूर्ण ज्ञान के भण्डार हैं और आत्म पतन नहीं चत्वारि श्रृङगा त्रयो अस्य पादा होने देते ।। द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीती । उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन २५, गा. १६ महादेवो मानाविवेश ।। ऋग्वेद ऋषभं मा समानानां सपलानां विषासहिम् । ४/५८/३ हंतारं शत्रुणां कृषि विराजं गोपतिं गवाम् ॥ तन्मय॑स्य देवत्व सजातमनः। ऋग्वेद १०/१६६/१ ऋग्वेद ३१/१७ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (४३) सरल हृदय सद्भावना, स्लेह सुमति सहकार । जयन्तसेन जीवन भुवि, सुखदा पांच 'स' कार ।। ww.jamendrary.org Jain Education Interational Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो दुर्धर रथ से योजित हुई दौड़ रही थीं, वे निश्चल होकर मनायी जाती है । तीर्थंकर ऋषभ देव के शिव गति गमन की तिथि मौद्गलानी की और लौट पड़ीं।' भी यही है जिस दिन ऋषभ देव को शिवत्व उत्पन्न हुआ था । उस ऋग्वेद की प्रस्तुत ऋचा में 'अरि दमन' कर्मरूप शत्रुओं का दिन समस्त साधु संघ ने दिन को उपवास रखा था तथा रात्रि में दमन करने के लिये प्रयुक्त हुआ है । गायों का तात्पर्य इन्द्रियों से जागरण कर के शिव गति प्राप्त ऋषभ देव की आराधना की, इस है और दुर्धर रथ का मन्तव्य शरीर से है | आदि तीर्थंकर ऋषभर रूप में यह तिथि शिव रात्रि के नाम से प्रसिद्ध हुई । देव की अमृत वाणी से अस्थिर इन्द्रियाँ स्थिर होकर मुद्गल की शिव को कैलाशवासी कहा जाता है । तीर्थंकर ऋषभ के तप स्वात्म वृत्ति की ओर लौट आयीं। और निर्माण का क्षेत्र कैलाश पर्वत है | जिस प्रकार शिव ने तप में ऋषभ देव की ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर महादेव के रूप में विघ्न उपस्थित करनेवाले कामदेव को नष्टकर शिवा से विवाह स्तुति की गई है । सर्व प्रथम अमरत्व पाने वाले के रूप में और किया । उसी प्रकार तीर्थंकर ऋषभ देव ने मोह को नष्ट कर शिवा अहिंसक आत्म साधकों के रूप में उनकी स्तुति की गयी है। देवी के रूप में शिव सुन्दरी मुक्ति से विवाह किया । ऋग्वेद में ऋषभ देव स्तुत्य हैं - मधुर भाषी, बृहस्पति, स्तुति शिव के अनुयायी गण कहलाते हैं और उनके प्रमुख नायक योग्य ऋषभ देव को पूजा साधक मन्त्रों द्वारा वर्धित करो, वे अपने शिव के पुत्र गणेश थे । उसी प्रकार ऋषभ देव के तीर्थ में भी स्तोता को नहीं छोड़ते । एक जगह कहा गया है - तेजस्वी ऋषभ उनके अनुयायी मुनि गण कहलाते थे । जो गण के अधिनायक के लिये स्तुति प्रेरित करो । ऋग्वेद के ही रुद्र सूक्त में एक ऋचा होते थे वे गणाधिप, या गणधर कहलाते थे। ऋषभ देव के प्रमुख है - हे वृषभ ! ऐसी कृपा करो कि हमें कभी नष्ट न हों।" गणधर भरत पुत्र वृषभसेन थे। अन्तिम स्तुति जहाँ की गई है वहाँ वृषभ का पाँच बार पाणिनि ने अ इ उ ण आदि सूत्रों को महेश्वर से प्राप्त हुआ उल्लेख आया है । रुद्र को आर्हत् शब्द से सम्बोधित किया गया बताया है । जैन परम्परा ऋषभ देव को महेश्वर मानती है । उन्होंने है। यह आईत उपाधि प वकीदी हो सकती गोलि सबसे पहले अपनी पुत्री 'ब्राह्मी' को ब्राह्मी लिपि अर्थात् अक्षर उनका प्रतिपादित धर्म आहेत धर्म के नाम से विश्व विख्यात है। विद्या का ज्ञान कराया था। का शतरुद्रीय स्तोत्र में रुद्र की स्तुति के मन्त्र हैं जिनमें रुद्र को शिव का वाहन वृषभ है जबकि ऋषभ देव का चिह्न वृषभ शिव, शिवतर तथा शंकर कहा गया है ।"५ श्वेताश्वतर उपनिषद है । शिव त्रिशूल धारी हैं । जैन परम्परा में वह त्रिशूल सम्यग् में रुद्र को ईश, महेश्वर, शिव और ईशान कहा गया है । मैत्रायणी दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग् चरित्र रूप रलत्रय का प्रतीक है। उपनिषद् में इन्हें शम्मु कहा गया है। पुराणों में शिव को महेश्वर, भागवत पुराण में ऋषभ देव को विष्णु का आठवाँ अवतार त्र्यंबक, हर, वृषभध्वज, भव, परमेश्वर, त्रिनेत्र, वृषांक, नटराज, माना गया है | गायत्री मन्त्र द्वारा ऋषभ देव की ही स्तुति की गयी जटी, कपर्दी, दिग्वस्त्र, यती, आत्मसंयमी, ब्रह्मचारी, ऊर्ध्व रेता है । अथर्व वेद में परम ऐश्वर्य के लिये ऋषभ देव की विद्वानों के आदि विशेषणों से अभिहित किया गया है । यदि ध्यान से देखा जाने योग्य मार्गों से बड़े ज्ञान वाले अग्नि के समान स्तुति की गयी जाय तो यह सभी विशेषण ऋषभ देव तीर्थंकर के ही प्रतीत होते है। (अथर्ववेद ९/४/३) हैं। शिव पराण में शिव का आदि तीर्थंकर ऋषभ देव के रूप में अथर्ववेद में ऋषभ देव की पापों से मुक्त करने वाले अवतार लेने का उल्लेख है । प्रभास पुराण में भी इसी प्रकार का -देवताओं में अग्रगण्य एवं भव सागर से पार जाने का मार्गदर्शन उल्लेख प्राप्त होता है। करने वाले तेजस्वी व्यक्तित्व के रूप में स्तुति की गई है : 'पापों से आदि देव शिव और आदि तीर्थंकर के स्वरूप, गुण, तप, मुक्त पूजनीय देवताओं में सर्व प्रथम तथा भव सागर के पोत को ज्ञान और चैतन्य में इतना साम्य है कि ऐसा लगता ही नहीं कि मैं हृदय से आव्हान करता हूँ | हे सहचर बन्धुओं ! तुम आत्मीय इनका पृथक् पृथक् अस्तित्व हो । अधिक उपयुक्त यह लगता है श्रद्धा द्वारा उसके आत्म बल और तेज को धारण करो ।' व्यक्तित्व एक ही है जिसे भिन्न भिन्न रुचि और भिन्न धारणा के लोग भिन्न नामों से जानते और मानते हैं। इत्यं प्रभाव ऋषमोऽवतारः शंकरस्य मे । सतां गतिर्दीनबन्धुर्नवमः कथितस्तव।। शिव की जन्म तिथि शिव रात्रि के रूप में व्रत रखकर ऋषभस्य चरित्रं हि परमं पावनं महत् । स्वय॑यशस्यमायुष्यं श्रोतव्यं च प्रयत्नतः ॥ शिवपुराण ४/४७-४८ ककर्दवे वृषभो युक्तआसीद् कैलाशे विमले रम्ये वृषमोऽयं जिनेश्वरः।। अवावचीत् सारथिरस्य केशी । चकार स्वावातारः च सर्वज्ञ : सर्वगः दुधेर्युक्तस्य द्रवतः सहानसः शिवः ॥ ऋच्छन्तिष्मा निष्पदो मुद्गलानीम् ॥ ऋग्वेद १०/१०/२/६ प्रभासपुराण ४९ अनर्वाणं ऋषभं मन्द्र जिह्न, वृहस्पति वर्धया नव्य मर्के । अहोमुचं वृषमं यज्ञियानां, ऋग्वेद १/१९०/१ विराजन्तं प्रथममध्वराणाम् । प्राग्नये वाचमीरय ऋग्वेद १०/१८७ अण्जां न पातमश्विना हुंवे धिय, एव वजो वृषभ चेकितान यथा देव न हणीयं न हंसी । इन्द्रियेण इन्द्रियं दत्तमोजः ।। अथर्ववेद ऋग्वेद रुद्रसूक्त २/३३/१५ कारिका १९/४२/४ यजुर्वेद (त्तिरीय संहिता) १/८६, वाजसनेयी ३/५७/६३ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण नारी तूं नारायणी, तज छठ मान प्रपंच । जयन्तसेन पावन मति, हो निज वैभव संच॥ Jain Education Interational Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रल धारक अर्थात्, ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय को जैन साहित्य के अनुसार जब भगवान ऋषभ देव साधु बने धारण करने वाले, विश्व वेदस्, विश्व तत्व के ज्ञाता, मोक्ष नेता, उस समय उन्होंने चार मुष्टि केशों का लोभ किया था । तीर्थंकर ऋषभ देव ने प्रेम के ऐसे पवित्र वातावरण की सृष्टि की। सामान्यरूप से पाँच मुष्टि केश लोभ करने की परम्परा रही है । थी कि प्रेम की पवित्रता से ओतप्रोत होने के कारण पशुओंको भी भगवान केशों का लोभ कर रहे थे। दोनों भागों के केशों का लोभ मानव के समान माना जाने लगा था। करना शेष था । उस समय इन्द्र की प्रार्थना से भगवान ने उसी ऋषभ देव प्रेम के राजा हैं । उन्होंने उस संघ की स्थापना प्रकार रहने दिया । की है जिसमें पशु भी मानव के समान माने जाते थे और उनको अपने देश में ही नहीं विदेशों में भी ऋषभ देव मानव कोई भी मार नहीं सकता था ।' सम्यता का सूत्रपात करने वाले महापुरुष के रूप में पूज्य रहे हैं । ऋषभ देव का एक नाम केशीया केशरिया जी है । उदयपुर चीनी त्रिपिटकों में उनका उल्लेख मिलता है । जापानी उनको जिले का एक प्रसिद्ध तीर्थ केसरिया नाथ भी है । केसरिया तीर्थ रोकशाब कह कर पुकारते हैं। पर दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं वैष्णव आदि सभी सम्प्रदायवाले समान पान मध्य एशिया, मिश्र और यूनान तथा फणिक लोगों की भाषा रूप से श्रद्धा के साथ यात्रा करते हैं । में उन्हें रेशेफ कहा गया जिसका अर्थ सींगोंवाला देवता है जो कि इस क्षेत्र के आदिवासी केसरिया नाथ की शपथ ले कर जो ऋषभ का अपभ्रंश रूप है।" भी वचन देते हैं। उसे वह केसरियानाथजी की आन मानते हैं। का अक्कड़ और सुमेरों को संयुक्त प्रवृत्तियों से उत्पन्न बेबी उस वचन का पालन आदिवासी अपने प्राण देकर भी करते हैं। लोनिया की संस्कृति और सभ्यता बहुत प्राचीन मानी जाती है । इस सन्दर्भ में मान्यता यह है कि सभ्यता के सूत्रपात कार्य क्रम में उनके विजयी राजा (२१२३-२०८१ ई. पू.) के शिला लेखों से ऋषभ देव जिस समय साधना रत थे आदिवासियों ने भी तीर्थंकर ज्ञात होता है कि स्वर्ग और पृथ्वी का देवता वृषभ था । ऋषभ देव से मार्गदर्शन चाहा था तो तीर्थंकर ऋषभ देव ने उन्हें एल्य हित्ती जाति पर भी ऋषभ देव का प्रभाव है । उनका मुख्य वचन का पालन करने की शिक्षा दी थी । प्रथम तीर्थंकर द्वारा दी देवता ऋतु देव था । उसका वाहन बैल था । जिसे तेशुव कहा गई शिक्षा को इन आदिवासियों ने आजतक परम्परागत क्रम में जाता था । जो तित्थयर उसभ का अपभ्रंश ज्ञात होता है। हृदयंगम कररखा है। वास्तविकता यह है कि ऋषभ देव मानव सभ्यता के आदि ऋग्वेद में ऋषभ देव की स्तुति केशी के रूप में की गई है : सूत्रधार हैं। केशी अग्नि, जल, स्वर्ग तथा पृथ्वी को धारण करता है । केशी विश्व के समस्त तत्त्वों का दर्शन कराता है, और केशी ही प्रकाशमान ज्ञान ज्योति कहलाता है। मधुकर-मौक्तिक लोग कहते हैं, हमने परमात्मा की पूजा की, उसके नाम नास्य पशून समानान् हिनस्ति वही की माला फेरी, पर बदले में कुछ नहीं मिला | अरे, जो कुछ केश्यग्निं विषं केशी विभाति रोदसी । मिला है, वह पूजा-भक्ति से, और नाम-स्मरण से ही मिला है। केशी विश्व स्वदृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते ॥ मनुष्य-जन्म मिला, पंचेन्द्रियों की पूर्णता प्राप्त हुई, आर्य कुल में ऋग्वेद १०/१३६/१ जन्म मिला, ये क्या कम हैं ? अब तो परमात्मा के प्रति कृतज्ञ जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति वक्षस्कार', सूत्र ३० आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ दि. खं. पृ. ४ बने रह कर पूजा-भक्ति करना है, जिससे परिपूर्णता प्राप्त हो बाबू छोटे लाल जैनस्मृति ग्रन्थ पृ. १०५ सके। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि मधुकर' ज्ञानी कहते हैं - जीवन सफल बनाओ | पंच परमेष्ठी भगवन्त हमारे जीवन के आधार हैं और बाय-अभ्यंतर जीवन के विकास-कर्ता हैं । हम स्वयं को उनके निकट रख और उन्हें अपने हृदय में प्रतिष्ठित कर जीवन में आने वाले अनेक झंझावतों से अपने को बचायें। अपने जीवन को कलषुताओं से मुक्त कर सर्व प्रकार से वैभव-संपन्न बनायें, शान्तिमय बनायें। हम जीवन को सफलता की ओर ले चलें । यही इन पंच परमेष्ठियों की आराधना के बाद हमें मुख्य रूप से समझना है- सीखना है। मनुष्य ने जगत् में जन्म लिया है तो जीना तो है ही; पर जीना ऐसे है कि जिसके जीने में जीवन का आदर्श रूप निरन्तर दीखता रहे । ज्ञानी पुरुषों ने जीवन का जो लक्ष्य बनाया है, उस लक्ष्य को सामने रख कर हम अपने कार्य करते रहें। ज्ञानियों के वचन अपने जीवन में आदर्श बन जाऐं, वे हमारे आचरण में आ जाएँ, तो हमारा जीवन सफल बन जाए, तो हम नवकार मन्त्र को अपने गले का हार बना लें और उसे संभाल कर रखें। वह हमसे कभी दूर न हो, ऐसी स्थिति हम बनाये रखें, तब अवश्य ही हम सबका जीवन प्रगतिशील हो जाएगा और हम मंजिल तक पहुँच जाएंगे। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि मधुकर श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण आवश्यकता से अधिक, संचय है अपराध । जयन्तसेन तजो अधिक, पाओ शान्ति अबाय:/ry.org Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TIS है ि "जैनधर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड व्यवस्था" (डा. श्री सागरमल जैन) प्रायश्चित्त और दण्ड जैन आचार्यों ने न केवल आचार के विधिनिषेधों का प्रतिपादन किया अपितु उनके भंग होने पर प्राश्चित्त एवं दण्ड की व्यवस्था भी की। सामान्यतया जैन आगम ग्रन्थों में नियम भंग या अपराध के लिए प्रायश्चित्त का ही विधान किया गया और दण्ड शब्द का प्रयोग सामान्यतया 'हिंसा' के अर्थ में हुआ है । अतः जिसे हम दण्ड व्यवस्था के रूप में जानते हैं, वह जैन परम्परा में प्रायश्चित्त व्यवस्था के रूप में ही मान्य है। सामान्यतया दण्ड और प्रायश्चित्त पर्यायवाची माने जाते हैं, किन्तु दोनों में सिद्धान्ततः अन्तर है। प्रायश्चित्त में अपराध-बोध की भावना से व्यक्ति में, स्वतः ही उसके परिमार्जन की अन्तः प्रेरणा उत्पन्न होती है । प्रायश्चित्त अन्तः प्रेरणा से स्वयं ही किया जाता है, जबकि दण्ड अन्य व्यक्ति के द्वारा दिया जाता है। जैन परम्परा अपनी आध्यात्मिक प्रकृति के कारण साधनात्मक जीवन में प्रायश्चित्त का ही विधान करती है । यद्यपि जब साधक अन्तःप्रेरित होकर आत्मशुद्धि के हेतु स्वयं प्रायश्चित की याचना नहीं करता है तो संघ व्यवस्था के लिए उसे दण्ड देना होता है। यद्यपि हमें यह स्मरण रखना होगा कि दण्ड देने से साधक की आत्मशुद्धि नहीं होती । चाहे सामाजिक या संघ व्यवस्था के लिए दण्ड आवश्यक हो किन्तु जबतक उसे अन्तःप्रेरणा से स्वीकृत नहीं किया जाता तब तक वह आत्मविशुद्धि करने में सहायक नहीं होता। जैन प्रायश्वित्त व्यवस्था में परिहार, छेद, मूल, पारंभिक आदि बाहयतः तो दण्डरूप है, किन्तु उनकी आत्मविशुद्धि की क्षमता को लक्ष्य में रखकर ही उन्हें दण्ड के स्थान पर प्रायश्चित्त ही कहा गया है। प्रायश्चित्त शब्द का अर्थ - प्रायश्चित्त शब्द की आगमिक व्याख्या साहित्य में विभिन्न परिभाषाएं प्रस्तुत की गई हैं। जीतकल्पभाष्य के अनुसार जो पाप को छेदन करता है, वह प्रायश्चित्त है ।' यहाँ 'प्रायः' शब्द को पाप के रूप में तथा 'चित्त' शब्द को शोधक के रूप में परिभाषित किया गया है । हरिभद्र ने पञ्चाशक में प्रायश्चित्त के दोनों ही अर्थ मान्य किये हैं। वे मूलतः 'पायच्छित' शब्द की व्याख्या उसके प्राकृत रूप के आधार पर ही करते हैं, वे लिखते हैं कि जिसके द्वारा पाप का छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त है । इसके साथ ही वे दूसरे अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जिसके द्वारा पाप से चित्त का शोधन होता है, वह प्रायश्चित है । प्रायश्चित शब्द के संस्कृत रूप के आधार पर 'प्रायः' शब्द के प्रकर्ष के अर्थ में लेते हुए यह भी कहा गया है कि जिसके द्वारा चित्त प्रकर्षता अर्थात् जितकल्प भाष्य ५ पंचासक (हरिभद्र) १६ / ३ ( प्रायश्चितपञ्चाशक) वही Y अभिधान राजेन्द्र कोश श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण उच्चता को प्राप्त होता है वह प्रायश्चित्त है । दिगम्बर टीकाकारों ने 'प्राय' शब्द का अर्थ अपराध और चित्त शब्द का अर्थ शोधन करके यह माना है कि जिस क्रिया के करने से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित है ।" एक अन्य व्याख्या में 'प्रायः' शब्द का अर्थ लोक भी किया गया है । इस दृष्टि से यह माना गया है कि जिस कर्म से साधुजनों का चित्त प्रसन्न होता है वह प्रायश्चित्त है ।" मूलाचार में कहा गया है कि प्रायश्चित्त वह तप है जिसके द्वारा पूर्वकृत पापों की विशुद्धि की जाती है। इसी ग्रन्थ में प्रायश्चित्त के पर्यायवाची कर्मों का क्षपण, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धावन, पुन्छण अर्थात् निराकरण, उत्क्षेपण एवं छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त है ।" प्रायश्चित्त के प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में विविध प्रायश्चितों का उल्लेख स्थानांग, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, जितकल्प आदि ग्रन्थों में मिलता है । किन्तु जहाँ समवायांग में प्रायश्चित्तों के प्रकारों का मात्र नामोल्लेख है वहाँ निशीथ आदि ग्रन्थों में प्रायश्चित्त योग्य अपराधों का भी विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। यद्यपि प्रायश्चित्त सम्बन्धी विविध सिद्धान्तों और समस्याओं का स्पष्टतापूर्वक विवेचन बृहत्कल्पभाष्य, निशीथभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णी, जीतकल्पभाष्य एवं जीतकल्पचूर्णी में उपलब्ध होता है । जहाँ तक प्रायश्चित्त के प्रकारों का प्रश्न है, इन प्रकारों का उल्लेख श्वेताम्बर आगम स्थानांग, बृहत्कल्प, निशीय और जीतकल्प में, यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में दिगम्बर ग्रन्थ जयधवला में तथा तत्वार्थसूत्र एवं उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं में मिलता है । बृहत्कल्प में प्रायश्चित्त योग्य अपराधों को दो भागों में बाँटा गया है उद्घातिक और अनुद्घातिक । जो प्रतिसेवना या आचरण लघुप्रायश्चित्त से सरलतापूर्वक शुद्ध की जा सकती है उसे उद्घातिक कहते हैं। इसके विपरीत जो प्रतिसेवना या आचार गुरुप्रायश्चित्त से कठिनता पूर्वक शुद्ध किया जा सके उसे अनुद्धातिक कहते है । उदाहरणस्वरूप हस्तमैथुन, समलिंगी मैथुन अथवा स्त्री मैथुन का सेवन आदि ऐसे अपराध हैं जो अनुद्घातिक अपराधों की श्रेणी में आते हैं। ६ ८ निशीथ में प्रायश्चित्त का वर्गीकरण लघु और गुरु रूप में किया गया है ।" उसमें लघु से तात्पर्य मृदु और गुरु से तात्पर्य कठोर प्रायश्चित्त माना गया है। ९ - SIP EYE तत्त्वार्थवार्तिक ९ / २२/१ पृ. ६२० वही ५ मूलाचार ५/१६४ वही ५/१६६ कप्पत्तं (मुनि कन्हैयालालजी) पृ. ९६ निशीथ (४६) For yasin 版 重師 400 अपने मुंह अपनी कभी, करो नहीं तारीफ । जयन्तसेन असभ्य नर, खोले अपनी जीभ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः इसके ही मास लघु, मास गुरु, चातुर्मास लघु, चातुर्मास गुरु, क्या तात्पर्य है यह न तो मूलग्रन्थ से और न उसकी टीका से ही षण्मास लघु, षण्मास गुरु आदि भेद किये गये हैं मास - चातुर्मास स्पष्ट होता है । यह अन्तिम प्रायश्चित्त है, अतः कठोरतम होना आदि का अर्थ शाब्दिक दृष्टि से स्पष्ट नहीं है । इनके तात्पर्य को चाहिए इसका अर्थ यह माना जा सकता है कि ऐसे अपराधी लेकर हमने आगे स्वतंत्र रूप से चर्चा की है। व्यक्ति जो श्रद्धा से रहित मानकर संघ से पूर्णतया बहिष्कृत कर स्थानांग सूत्र में प्रायश्चित्त के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख दिया जाय किन्तु टीकाकार वसुनन्दी ने श्रद्धान का अर्थ तत्त्वरुचि हुआ है, उसके तृतीय स्थान में ज्ञान प्रायश्चित्त, दर्शन प्रायश्चित्त एवं क्रोधादि त्याग किया है । इन प्रायश्चित्तों में जो क्रम है वह और चारित्र प्रायश्चित्त ऐसे तीन प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ है । सहजता से कठोरता की ओर है अतःअन्त में श्रद्धा नामक सहज इसी तृतीय स्थान में अन्यत्र आलोचना, प्रतिक्रमण और तदुभय ऐसे प्रायश्चित्त को रखने का कोई औचित्य नहीं है । वस्तुतः जिनप्रायश्चित्त तीन रूपों का भी उल्लेख हुआ है । इसी आगम ग्रन्थ प्रवचन के प्रति श्रद्धा का समाप्त हो जाना ही वह अपराध है, में अन्यत्र छः, आठ, और नौ प्रायश्चित्तों का भी उल्लेख हुआ है, जिसका दण्ड मात्र बहिष्कार है अतः ऐसे श्रमण की श्रद्धा जब तक इनमें सभी प्रायश्चित्तों का विवरण दिया गया है जिनमें ये समाहित सम्यक् नहीं है तब तक उसे संघ से बहिष्कृत रखना ही इस हो जाते हैं। अतः हम उनकी स्वतंत्र रूप से चर्चा न करके उसमें प्रायश्चित्त कातालय उपलब्ध दशविध प्रायश्चित्त की चर्चा करेंगे - ममा प्रायश्चित्त का सर्वप्रथम रूप वह है जहाँ साधक को स्वयं ही स्थानांग, जीतकल्प और धवला में प्रायश्चित्त के निम्न दस अपने मन में अपराधबोध के परिणाम स्वरूप आत्मग्लानि का भाव प्रकार माने गये हैं - उत्पन्न हो । वस्तुतः आलोचना का अर्थ है अपराध को अपराध के रूप में स्वीकार कर लेना | आलोचन शब्द का अर्थ देखना, (१) आलोचना (२) प्रतिक्रमण (३) उभय (४) विवेक (५) अपराध को अपराध के रूप में देख लेना ही आलोचना है । व्युत्सर्ग (६) तप (७) छेद (८) मूल (९) अनवस्थाप्य और (१०) सामान्यतया वे अपराध जो हमारे दैनंदिन व्यवहार में असावधानी पारांचिक ।' यदि हम इन दस नामों की तुलना यापनीय ग्रन्थ (प्रमाद) या बाध्यतावश घटित होते हैं, आलोचना नामक प्रायश्चित्त मलाचार और तत्त्वार्थसूत्र से करते है तो मूलाचार में प्रथम आठ के विषय माने गये हैं। अपने द्वारा हए अपराध या नियम भंग को नाम तो जीतकल्प के समान ही है किन्तु जीतकल्प के अनवस्थाप्य आचार्य या गीतार्थमनि के समक्ष निवेदित करके उनसे उसके के स्थान पर परिहार और पाराचिक के स्थान पर श्रद्धान का प्रायश्चित्त की याचना करना ही आलोचना है। सामान्यतया उल्लेख हआ है । मलाचार श्वेताम्बर परम्परा से भिन्न होकर तप आलोचना करते समय यह विचार आवश्यक है कि अपराध क्यों और परिहार को अलग-अलग मानता है | तत्त्वार्थसूत्र में तो इनकी हुआ? उसका प्रेरक तत्त्व क्या है ? संख्या नौ मानी गयी है । इसमें सात नाम तो जीतकल्प के समान ही हैं किन्तु मूल के स्थान पर उपस्थापन और अनवस्थाप्य के स्थान अपराध क्यों और कैसे? पर परिहार का उल्लेख हुआ है। पारांञ्चिक का उल्लेख तत्त्वार्थ में मत अपराध या व्रतभंग क्यों और किन परिस्थितियों में किया नहीं है अतः वह नौ प्रायश्चित्त ही मानता है। श्वेताम्बर आचार्यों जाता है, इसका विवेचन हमें स्थानांग सूत्र के दशम स्थान में ने तप और परिहार को एक माना है, किन्तु तत्त्वार्थ में तप और मिलता है, उसमें दस प्रकार की प्रतिसेवना का उल्लेख हुआ है। परिहार दोनों स्वतंत्र प्रायश्चित्त माने गये हैं, अतः तत्त्वार्थ में भी प्रतिसेवना का तात्पर्य है गृहित व्रत के नियमों के विरुद्ध आचरण परिहार का अर्थ अनवस्थाप्य ही हो सकता है । इस प्रकार तत्त्वार्थ करना अथवा भोजन आदि ग्रहण करना । वस्तुतः प्रतिसेवना का और मूलाचार दोनों तप और परिहार को अलग-अलग मानते हैं सामान्य अर्थ व्रत या नियम के प्रतिकूल आचरण करना ही है । और दोनों में उसका अर्थ अनवस्थाप्य के समान है । यद्यपि यह व्रतभंग क्यों कब और किन परिस्थितियों में होता है इसे स्पष्ट दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ धवलाई में स्थानांग और जीतकल्प के करने हेतु ही स्थानाङ्ग में निम्न दस प्रतिसेवनाओं का उल्लेख है - समान ही १० प्रायश्चित्तों का वर्णन है और उनके नाम भी वे ही १ - दर्प-प्रतिसेवना - आवेश अथवा अहंकार के वशीभूत है । इस प्रकार जहाँ धवला श्वेताम्बर परम्परा से संगति रखती है, होकर जो हिंसा आदि करके वतभंग किया जाता है वह दर्प वहाँ मलाचार और तत्त्वार्थ कुछ भिन्न है । सम्भवतः ऐसा प्रतीत प्रतिसेवना है। होता है कि जीतकल्प सूत्र के उल्लेखानुसार जब अनवस्थाप्य और पारांञ्चिक इन दोनों प्रायश्चित्तों को भद्रबाहु के बाद व्यवच्छिन्न २- प्रमाद प्रतिसेवना - प्रमाद एवं कषायों के वशीभूत मान लिया गया या दूसरे शब्दों में इन प्रायश्चित्तों का प्रचलन बन्द होकर जो व्रत भंग किया जाता है, वह प्रमाद प्रतिसेवना है। कर दिया गया तो इन अन्तिम दो प्रायश्चित्तों के स्वतंत्र स्वरूप को ३ - अनाभोग प्रतिसेवना - लेकर मतभेद उत्पन्न हो गया और इनके नामों में अन्तर हो गया। स्मृति या सजगता के अभाव में मूलाचार में अन्त में परिहार का जो उल्लेख है वह अनवस्थाप्य से अभक्ष्य या नियम विरुद्ध वस्तु का कोई भिन्न नहीं कहा जा सकता, किन्तु उसमें श्रद्धान प्रायश्चित्त का ग्रहण करना अनाभोग प्रतिसेवना स्थानांग ३/४७० २ वही ३/४४८, वही १०/७३ (अ) स्थानांग १०/७३ (ब) जीतकल्पसूत्र (स) धवला ९३/५, २६/६३/१ मूलाचार ५/१६५ ५ तत्त्वार्थ ९/२२ जीतकल्प भाष्य २५८६, जीतकल्प १०२ स्थानांग १०/६९ स्थानाङ्ग १०/७१ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (४७) विभल हृदय आंगन करो, छबी बने समीचीन : जयन्तसेन समान मन, साधक पंथ प्रवीण ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ - आतुर प्रतिसेवना - भूख-प्यास आदि से पीड़ित होकर निम्नलिखित दस गुणों से युक्त होना चाहिए।' का किया जाने वाला व्रत भंग आतुर प्रतिसेवना है। १.आचारवान् - सदाचारी होना आलोचना देने वाले व्यक्ति ५ - आपात् प्रतिसेवना - किसी विशिष्ट परिस्थिति के का प्रथम गुण है, क्योंकि जो स्वयं दुराचारी है वह दूसरों के उत्पन्न होने पर व्रतभंग या नियम विरुद्ध आचरण करना आपात् अपराधों की आलोचना सुनने का अधिकारी नहीं है | जो अपने ही प्रतिसेवना है। दोषोंको शुद्ध नहीं कर सका वह दूसरे के दोषोंको क्या दूर करेगा । ६- शंकित प्रतिसेवना - शंका के वशीभूत होकर जो २. आधारवान् - अर्थात् उसे अपराधों और उसके सम्बन्ध में नियम भंग किया जाता है, उसे शंकित प्रतिसेवना कहते हैं, जैसे नियत प्रायश्चित्तों का बोध होना चाहिए, उसे यह भी ज्ञान होना यह व्यक्ति हमारा अहित करेगा ऐसा मानकर उसकी हिंसा आदि चाहिए कि अपराध के लिए किस प्रकार का प्रायश्चित्त नियत है। कर देना। ३. व्यवहारवान् - उसे आगम, श्रुत, जिज्ञासा, धारणा और ७- सहसाकार प्रतिसेवना - अकस्मात् होने वाले व्रत या जीत इन पांच प्रकार के व्यवहारों को जानने वाला होना चाहिए नियम भंग को सहसाकार प्रतिसेवना कहते हैं। क्योंकि सभी अपराधों एवं, प्रायश्चित्तों की सूची आगमों में ८- भय प्रतिसेवना - भय के कारण जो व्रत या नियम उपलब्ध नहीं है अतः आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना भंग किया जाता है वह भय प्रतिसेवना है। चाहिए जो स्वविवेक अथवा आगमिक आधारों पर किसी कर्म के प्रायश्चित्त का अनुमान कर सके। ९ - प्रदोष प्रतिसेवना - द्वेषवश किसी प्राणी की हिंसा अथवा उसका अहित करना - प्रदोष प्रतिसेवना है। ४. अपव्रीडक - आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए कि आलोचना करने वाले की लज्जा छुड़ाकर उसमें आत्म१० - विमर्श प्रतिसेवना - शिष्यों की क्षमता अथवा उनकी आलोचन की शक्ति उत्पन्न कर सके । श्रद्धा आदि के परीक्षण के लिए व्रत या नियम का भंग करना विमर्श प्रतिसेवना है । दूसरे शब्दों में किसी निश्चित उद्देश्य के ५. प्रकारी - आचार्य अथवा आलोचना सुनने वाले में यह लिए विचारपूर्वक व्रतभंग करना या नियम के प्रतिकूल आचरण सामर्थ्य होना चाहिए कि वह अपराध करने वाले व्यक्ति के करना विमर्श प्रतिसेवना है । व्यक्तित्व को रूपान्तरित कर सके। इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति अपराध केवल स्वेच्छा से ६. अपारश्रावा. उस आलाचना करने वाले के दोषा का दूसर जानबूझ कर ही नहीं करता अपितु परिस्थितिवश भी करता है । के सामने प्रगट नहीं करना चाहिए, अन्यथा कोई भी व्यक्ति उसके अतः उसे प्रायश्चित्त देते समय यह बात ध्यान में रखनी चाहि सामने आलोचना करने में संकोच करेगा । कि अपराध क्यों और किन परिस्थितियों में किया गया है। ७. निर्यापक - आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए आलोचना करने का अधिकारी कौन ? 'कि, वह प्रायश्चित्त विधान इस प्रकार करे कि प्रायश्चित्त करने वाले का सहयोगी बनना चाहिए। आलोचना कौन व्यक्ति कर सकता है इस सम्बन्ध में भी स्थानांग सूत्र में पर्याप्त चिन्तन किया गया है । उसके अनुसार ८. अपायदर्शी - अर्थात् उसे ऐसा होना चाहिए कि वह निम्न दस गुणों से युक्त व्यक्ति ही आलोचना करने के योग्य होता आलोचना करने अथवा न करने के गुण-दोषों की समीक्षा कर है' - (१) जातिसम्पन्न (२) कुलसम्पन्न (३) विनयसम्पन्न (४) सके। ज्ञानसम्पन्न (५) दर्शन सम्पन्न (६) चारित्र सम्पन्न (७) क्षान्त (क्षमा ९. प्रियधर्मा - अर्थात् आलोचना सुनने वाले व्यक्ति की धर्ममार्ग सम्पन्न) (८) दान्त (इन्द्रिय-जयी) (९) अमायावी (मायाचार रहित) में अविचल निष्ठा होनी चाहिए। और (१०) अपश्चात्तापी (आलोचना करने के बाद पश्चात्ताप न १०. दृढधर्मा - उसे ऐसा होना चाहिए कि वह कठिन से कठिन करने वाला)। समय में भी धर्म मार्ग से विचलित न हो सके। आलोचना किसके समक्ष की जाये - जिसके समक्ष आलोचना की जा सकती है उस व्यक्ति की आलोचना किस व्यक्ति के समक्ष की जाना चाहिए यह भी इन सामान्य योग्यताओं का निर्धारण करने के साथ-साथ यह भी एक विचारणीय प्रश्न है । योग्य और गम्भीर व्यक्ति के अतिरिक्त माना गया है कि किसी गीतार्थ, बहुश्रुत एवं आगमज्ञ के समक्ष ही किसी अन्य व्यक्ति के समक्ष आलोचना करने का परिणाम यह आलोचना की जानी चाहिए । साथ होता है कि वह आलोचना करने वाले व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस ही इनके पदक्रम और वरीयता पर पहुँचा सकता है तथा उसे अपयश का भागी बनना पड़ सकता है। विचार करते हुए यह कहा गया है अतः जैनाचार्यों ने माना कि आलोचना सदैव ऐसे व्यक्ति के समक्ष कि जहाँ आचार्य आदि उच्चाधिकारी करना चाहिए जो आलोचना सुनने योग्य हो, उसे गोपनीय रख उपस्थित हों, वहाँ सामान्य साधु या सकता हो और उसका अनैतिक लाभ न ले । स्थानांगसूत्र के गृहस्थ के समक्ष आलोचना नहीं अनुसार जिस व्यक्ति के सामने आलोचना की जाती है उसे करनी चाहिए | आचार्य के उपस्थित स्थानाङ्ग १०/७१ स्थानाङ्ग १०/७२ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण सर्वोपरि सत्ता रही, सदा मनुज के हाथ। जयन्तसेन भ्रमति हुआ, ज्ञान दीप नहीं साथ ॥ _ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने पर उसी के समक्ष आलोचना की जानी चाहिए । आचार्य की (९) अव्यक्त दोष - दोषों को पूर्णरूप से न बताकर उनकी अनुपस्थिति में उपाध्याय के समक्ष, उपाध्याय की अनुपस्थिति में - आलोचना करना अव्यक्त दोष है। सांभोगिक साधर्मिक साधु के समक्ष और उनकी अनुपस्थिति में (१०) तत्सेवी दोष - जो व्यक्ति स्वयं ही दोषों का सेवन करने अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु भी उपलब्ध न हो तो ऐसी स्थिति में वाले हैं उनके सामने दोषों की आलोचना करना तत्सेवी दोष है । बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ समान - वेश धारक साधु के समक्ष क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं दोष का सेवन करने वाला है उसे दूसरे आलोचना करे ।' उसके उपलब्ध न होने पर यदि पूर्व में दीक्षा को प्रायश्चित्त देने का अधिकार नहीं है, दूसरे ऐसा व्यक्ति उचित पर्याय को छोड़ा हुआ बहुश्रुत और आगमज्ञ श्रमणोपासक उपस्थित प्रायश्चित्त भी नहीं देपाता । हो तो उसके समक्ष आलोचना करे । उसके अभाव में सम्यक् भावित चैत्यों के समक्ष अर्थात् सम्यक्त्वी जीवों के द्वारा उपास्य इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाचार्यों ने आलोचना के सन्दर्भ में जिन प्रतिमा के समक्ष आलोचना करे । यदि सम्यक् भावित चैत्य उसके स्वरूप, आलोचना करने व सुनने की पात्रता और उसके भी न हो तो ग्राम या नगर के बाहर जाकर पूर्व या उत्तर दिशा में दोषों पर गहराई से विचार किया है । इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा अभिमुख होकर अरिहन्त और सिद्ध की साक्षीपूर्वक आलोचना निशीथ आदि में पायी जाती है । पाठकों से उसे वहाँ देखने की करे ।' अनुशंसा की जाती है। आलोचना सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसंग में यह भी तथ्य ध्यान आलोचना योग्य कार्यदेने योग्य है कि आलोचना दोषमुक्त हो । स्थानांग, मूलाचार, जीतकल्प के अनुसार जो भी करणीय अर्थात् आवश्यक भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में आलोचना के दस दोषों का कार्य हैं, वे तीर्थंकरों द्वारा सम्पादित होने पर तो निर्दोष होते हैं, उल्लेख हुआ है। किन्तु छद्मस्थ श्रमणों द्वारा इन कर्मों की शुद्धि केवल आलोचना से (१) आकम्पित दोष - आचार्य आदि को उपकरण आदि देकर ही मानी गयी है । जीतकल्प में कहा गया है कि आहार आदि का अपने अनुकूल बना लेना आकम्पित दोष है । कुछ विद्वानों के ग्रहण, गमनामन, मल-मूत्र विसर्जन, गुरुवंदन या चैत्यवंदन आदि अनुसार आकम्पित दोष का अर्थ है काँपते हुए आलोचना करना, सभी क्रियाएं आलोचना के योग्य हैं । इन्हें आलोचना योग्य मानने जिससे प्रायश्चित्त दाता कम से कम प्रायश्चित्त दे । का तात्पर्य यह है कि साधक इस बात का विचार करे कि उसने इन कार्यों का सम्पादन सजगता पूर्वक अप्रमत्त होकर किया है या (२) अनुमानित दोष - अल्प प्रायश्चित्त या दण्ड मिले इस भय से नहीं । क्योंकि प्रमाद के कारण दोष लगना सम्भव है। इसी प्रकार अपने को दुर्बल, रोगग्रस्त आदि दिखाकर आलोचना करना अनुमानित आचार्य से सौ हाथ की दरी पर रहकर जो भी कार्य किये जाते हैं, दोष है। वे भी आलोचना के विषय माने गये हैं । इन कार्यों की गुरु के (३) अदृष्ट - गुरु अथवा अन्य किसी ने जो अपराध देख लिया. समक्ष आलोचना पर ही साधक को शुद्ध माना जाता है। इसका हो उसकी आलोचना करना और अदृष्ट दोषों की आलोचना न उद्देश्य यह है कि साधक गुरु को यह बताये कि उसने गुरु से दूर करना ही अदृष्ट दोष है। रहकर क्या-क्या कार्य किस प्रकार सम्पादित किये हैं । इसके साथ (४) बादर दोष - बड़े दोषों की आलोचना करना और छोटे दोषों ही किसी कारणवश या अकारण ही स्वगण का परित्याग कर की आलोचना न करना बादर दोष है । परगण में प्रवेश पर अथवा उपसम्पदा, विहार आदि कार्यों को भी आलोचना का विषय माना गया है । ईर्या आदि पांच समितियों (५) सूक्ष्म दोष - छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना और बड़े और तीन गुप्तियों में लगे हुए दोष सामान्यतया आलोचना के दोषों को छिपा जाना, सूक्ष्म दोष है। विषय हैं । यद्यपि हमें स्मरण रखना चाहिए कि ये सभी दोष जो (६) छन्न दोष- आलोचना इस प्रकार से करना कि गुरु उसे पूरी आलोचना के विषय हैं, वे देश - काल - परिस्थिति और व्यक्ति के तरह सुन ही न सके छन्न दोष है । कुछ विद्वानों के अनुसार आधार पर प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, परिहार, छेद आचार्य के समक्ष मैनें यह दोष किया, यह न कहकर किसी बहाने आदि प्रायश्चित्त के योग्य भी हो सकते हैं। से उस दोष का प्रायश्चित्त ज्ञात कर स्वयं ही उसका प्रायश्चित्त ले । प्रतिक्रमण - प्रायश्चित्त का दूसरा प्रकार प्रतिक्रमण है । अपराध लेना छन्न दोष है। या नियमभंग को अपराध के रूप में स्वीकार कर पुनः उससे वापस (७) शब्दाकुलित दोष - कोलाहलपूर्ण वातावरण में आलोचना लौट आना । अर्थात् भविष्य में उसे नहीं करने की प्रतिज्ञा करना करना जिसे आचार्य सम्यक् प्रकार से सुन न सके, शब्दाकुलित ही प्रतिक्रमण है । दूसरे शब्दों में दोष है । दूसरे शब्दों में भीड-भाड़ अथवा व्यस्तता के समय गुरु के आपराधिक स्थिति से अनपराधित सामने आलोचना करना दोष पूर्ण माना गया है । स्थिति में लौट आना ही प्रतिक्रमण (८) बहुजन दोष - एक ही दोष की अनेक लोगों के समक्ष करते हैं । आलोचना और प्रतिक्रमण आलोचना करना और उनमें जो सबसे कम दण्ड या प्रायश्चित्त दे में अन्तर यह है कि आलोचना में उसे स्वीकार करना बहुजन दोष है। अपराध को पुनः सेवन न करने का व्यवहारसूत्र १/१/३३(अ) स्थानांग, १०/७० (ब) मूलाचार, ११/१५ जीतकल्प ६, देखे-जीतकल्पभाष्य गाथा ७३१-१८१० श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education Intemational दृष्टि जैसी सृष्टि सदा, दिखती है सब ठौर । जयन्तसेन दृष्टि विमल, रखो तुम चंहु और brary.org Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय नहीं होता, जबकि प्रतिक्रमण में ऐसा करना आवश्यक है। आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, सत्य एवं संयम के क्षेत्र में अग्रसर (स) पांच अणुव्रतों, ३ गुणव्रतों, ४ शिक्षाव्रतों में लगने वाले ७५ होना । (३) परिहरण - सब प्रकार से अशुभ प्रवृत्तियों एवं अतिचारों का प्रतिक्रमण व्रती श्रावकों करना चाहिए। दुराचरणों का त्याग करना (४) वारण - निषिद्ध आचरण की ओर प्रवृत्ति नहीं करना । बौद्ध धर्म में प्रतिक्रमण के समान की जाने (द) संलेखना के पांच अतिचारों का प्रतिक्रमण उन साधकों के वाली क्रिया को प्रवारणा कहा गया है । (५) निवृत्ति - अशुभ लिए है जिन्होंने संलेखना व्रत ग्रहण किया है । भावों से निवृत्त होना, (६) निन्दागुरुजन, वरिष्ठजन अथवा स्वयं श्रमण प्रतिक्रमण सूत्र और श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र में सम्बन्धित अपनी ही आत्मा की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ आचरणों को बुरा संभावित दोषों की विवेचना विस्तार से की गई है । इसके पीछे समझना तथा उसके लिए पश्चात्ताप करना । (७) गर्हा - अशुभ मूल दृष्टि यह है कि उनका पाठ करते हुए आचरित सूक्ष्मतम दोष आचरण को गर्हित समझना, उससे घृणा करना । (८) शुद्धिभी विचार - पथ से ओझल न हों। प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा आदि के द्वारा आत्मा पर लगे दोषों से प्रतिक्रमण के भेद - साधकों के आधार पर प्रतिक्रमण के दो भेद आत्मा को शुद्ध बनाता है, इसलिए उसे शुद्धि कहा गया है। हैं - १. श्रमण प्रतिक्रमण और २. श्रावक प्रतिक्रमण | कालिक प्रतिक्रमण किसका - स्थानांगसूत्र में इन छह बातों के प्रतिक्रमण आधार पर प्रतिक्रमण के पाँच भेद हैं - (१) दैवसिक - प्रतिदिन का निर्देश है - (१) उच्चार प्रतिक्रमण - मल आदि का विसर्जन सायंकाल के समय पूरे दिवस में आचरित पापों का चिन्तन कर करने के बाद ईर्या (आने जाने में हुई जीवहिंसा) का प्रतिक्रमण उनकी आलोचना करना दैवसिक प्रतिक्रमण है । (२) रात्रिक - करना उच्चार प्रतिक्रमण है । (२) प्रश्रवण प्रतिक्रमण - पेशाब प्रतिदिन प्रातःकाल के समय सम्पूर्ण रात्रि के आचरित पापों का करने के बाद ईर्या का प्रतिक्रमण करना प्रश्रवण प्रतिक्रमण है। चिन्तन कर उनकी आलोचना करना रात्रिक प्रतिक्रमण है (३) (३) इत्वर प्रतिक्रमण - स्वल्पकालीन प्रतिक्रमण करना इत्वर पाक्षिक - पक्षान्त में अमावस्या एवं पूर्णिमा के दिन सम्पूर्ण पक्ष में प्रतिक्रमण है । (४) यावत्कथिक प्रतिक्रमण - सम्पूर्ण जीवन के आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना पाक्षिक लिए पाप कैसे निवृत्त होना यावत्कथिक प्रतिक्रमण है । (५) प्रतिक्रमण है। (४) चातुर्मासिक-कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण - सावधानीपूर्वक जीवन व्यतीत करते एवं आषाढ़ी पूर्णिमा को चार महीने के आचरित पापों का विचार हुए भी प्रमाद अथवा असावधानी से किसी भी प्रकार का कर उनकी आलोचना करना चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है । (५) असंयमरूप आचरण हो जाने पर तत्काल उस भूल को स्वीकार कर सांवत्सरिक - प्रत्येक वर्ष संवत्सरी महापर्व के दिन वर्ष भर के पापों। लेना और उसके प्रति पश्चात्ताप करना यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण का चिन्तन कर उनकी आलोचना करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है।। है। (६) स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण - विकार - वासना रूप कुस्वप्न प्रतिक्रमण - मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण किया देखने पर उसके सम्बन्ध में पश्चात्ताप करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण जाता है, अथवा दूसरों के द्वारा कराया जाता है और दूसरे लोगों है । यह विवेचना प्रमुखतः साधुओं की जीवनचर्या से सम्बन्धित के द्वारा आचरित पापाचरण का जो अनमोदन किया जाता है उन वह। आचाय भद्रबाहु न जिन-जन तथ्या का प्रातक्रमण करना सबकी निवृत्ति के लिए कृतपापों की समीक्षा करना और पुनः नहीं चाहिए इसका निर्देश आवश्यक नियुक्ति में किया है । उनके करने की प्रतिज्ञा करना प्रतिक्रमण है | आचार्य हेमचन्द्र प्रतिक्रमण अनुसार (१) मिथ्यात्व (२) असंयम (३) कषाय एवं (४) अप्रशस्त का निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि शुभयोग से अशुभयोग की कायिक, वाचिक एवं मानसिक व्यापारों का प्रतिक्रमण करना ओर गये हुए अपने आपको पुनः शुभयोग में लौटा लाना प्रतिक्रमण चाहिए । प्रकारान्तर से आचार्य ने निम्न बातों का प्रतिक्रमण करना है ।' आचार्य हरिभद्रने प्रतिक्रमण की व्याख्या में इन तीन अर्थों भी अनिवार्य माना है- (9) गृहस्थ एवं श्रमण उपासक के लिये का निर्देश किया है - (१) प्रमादवश स्वस्थान से परस्थान (स्वधर्म निषिद्ध कार्यों का आचरण कर लेने पर (२) जिन कार्यों के करने का शास्त्र में विधान किया गया है उन विहित कार्यों का आचरण से परस्थान, परधम) में गये हुए साधक का पुनः स्वस्थान पर लौट आना यह प्रतिक्रमण है । अप्रमत्त चेतना का स्व-चेतना केन्द्र में न करने पर, (३) अश्रद्धा एवं शंका के उपस्थित हो जाने पर और स्थित होना स्वस्थान है. जबकि चेतना का बहिर्मख होकर पर. (४) असम्यक् एव असत्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने पर अवश्य वस्तु पर केन्द्रित होना पर - स्थान है । (२) क्षयोपशमिक भाव से प्रतिक्रमण करना चाहिए । औदयिक भाव में परिणत हुआ साधक जब पुनः औदयिक भाव से जैन परम्परा के अनुसार जिनका प्रतिक्रमण किया जाना क्षयोपशमिक भाव में लौट आता है, तो यह भी प्रतिकूलगमन के चाहिए, उनका संक्षिप्त वर्गीकरण इस प्रकार है - ग कहलाता है । (३) अशुभ आचरण से निवृत्त (अ) २५ मिथ्यात्वों, १४ होकर मोक्षफलदायक शुभ आचरण में निःशल्य भाव से प्रवृत्त होना तानातिचारों और १९ पापस्थानों प्रतिक्रमण है। का प्रतिक्रमण सभी को करना आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिक्रमण के निम्न पर्यायवाची नाम दिये। चाहिए। हैं (9) प्रतिक्रमण - पापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर बो पंच महावतों मन वाणी और आत्मशुद्धि के क्षेत्र में लौट आना । (२) प्रतिचरण - हिंसा, असत्य , योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति, ३। हाला आवश्यकटीका, उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ. ८७0 स्थानांगसूत्र, ६/५३८/ आवश्यकनियुक्ति, १२५०-१२६८/ -20TRI श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (५०) खुदका दमन करो भला, दम जीवन सुखदाय । जयन्तसेन दमन बिना, जीवन निष्फल जाय ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर के असंयम तथा गमन, भाषण, याचना, ग्रहण-निक्षेप एवं कहीं-कहीं गुरुक, लघुक और लघुष्वक. ऐसे तीन भेद भी मलमूत्र विसर्जन आदि से सम्बन्धित दोषों का प्रतिक्रमण श्रमण किये गये हैं और फिर इनमें से प्रत्येक के जघन्य, मध्यम और साधकों को करना चाहिए । उत्कृष्ट ये तीन-तीन भेद किये गये हैं और फिर इनमें से प्रत्येक के तदुभय - तदुभय प्रायश्चित्त वह है जिसमें आलोचना और प्रतिक्रमण जधन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन-तीन भेद किये गये हैं । दोनों किये जाते हैं । अपराध या दोष को दोष के रूप में स्वीकार व्यवहारसूत्र की भूमिका में उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य प्रत्येक के करके फिर उसे नहीं करने का निश्चय करना ही तदुभय प्रायश्चित्त भी तीन तीन विभाग किये हैं । यथा उत्कृष्ट से उत्कृष्ट उत्कृष्ट है । जीतकल्प में निम्न प्रकार के अपराधों के लिए तदुभय मध्यम और उत्कृष्टजघन्य तीन विभाग हैं । ऐसे ही मध्यम और प्रायश्चित्त का विधान किया गया है - (9) भ्रमवश किये गये कार्य जघन्य के भी तीन-तीन विभाग हैं । इस प्रकार तप प्रायश्चित्तों के (२) भयवश किये गये कार्य (३) आतुरता वश किये गये कार्य ३ x ३ x ३ = २७ भेद हो जाते हैं । उन्होंने विशेषरूप से जानने (४) सहसा किये गये कार्य (५) परवशता मे किये कार्य (६) सभी के लिए व्यवहार भाष्य का संकेत किया है किन्त व्यवहार भाष्य व्रतों में लगे हुए अतिचार । मुझे उपलब्ध न होने के कारण मैं इस चर्चा के प्रसंग में उनके व्यवहारसुत्तं के संपादकीय का ही उपयोग कर रहा हूँ | उन्होंने इन विवेक - विवेक शब्द का सामान्य अर्थ यह है कि किसी कर्म के सम्पूर्ण २७ भेदों और उनसे सम्बन्धित तपों का भी उल्लेख नहीं औचित्य एवं अनौचित्य का सम्यक निर्णय करना और अनुचित किया है। अतः इस सम्बन्ध में मझे भी मौन रहना पड़ रहा है। कर्म का परित्याग कर देना । मुनि जीवन में आहारादि के ग्राहय इन प्रायश्चित्तों से सम्बन्धित मास, दिवस एवं तपों की संख्या का और अग्राहय अथवा शुद्ध और अशुद्ध का विचार करना ही विवेक उल्लेख हमें बृहत्कल्पभाष्य गाथा ६०४१-६०४४ में मिलता है । है । यदि अज्ञात रूप से सदोष आहार आदि ग्रहण कर लिया ही उसी आधार पर निम्न निवरण प्रस्तुत है - तो उसका त्याग करना ही विवेक है । वस्तुतः सदोष क्रियाओं का त्याग ही विवेक है । मुख्य रूप से भोजन, वस्त्र, मुनि जीव के प्रायश्चित्त का नाम तप का स्वरूप एवं काल अन्य उपकरण एवं स्थानादि प्राप्त करने में जो दोष लगते हैं उनकी यथागुरु - छह मास तक निरन्तर पाँच-पाँच उपवास शुद्धि विवेक प्रायश्चित्त द्वारा मानी गयी है। गुरुतर चार मास तक निरन्तर चार-चार उपवास व्युत्सर्ग - व्युत्सर्ग का तात्पर्य परित्याग या विसर्जन है । सामान्य गुरु एक मास तक निरन्तर तीन-तीन उपवास तया इस प्रायश्चित्त के अन्तर्गत किसी भी सदोष आचरण के लिए (तेले) शारीरिक व्यापारों का निरोध करके मन की एकाग्रता पूर्वक देह के शोक प्रति रहे हुए ममत्व का विसर्जन किया जाता है । जीतकल्प के १० बेले १० दिन पारणे (एक मास तक अनुसार गमनागमन, विहार, श्रुत अध्ययन, सदोषस्वप्न, नाव आदि निरन्तर दो-दो उपवास) के द्वारा नदी को पार करना तथा भक्त-पान, शय्या-आसन, लघुतर - २५ दिन निरन्तर एक दिन और एक दिन मलमूत्र विसर्जन, काल व्यतिक्रम, अर्हत् एवं मुनि का अविनय भोजन आदि दोषों के लिए व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त का विधान किया गया है । यथा लघु - २० दिन निरन्तर आयम्बिल (रूखा - सूखा जीतकल्प में इस तथ्य का भी उल्लेख किया गया है कि किस भोजन) प्रकार के दोष के लिए कितने समय या श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग किया जाना चाहिए । प्रायश्चित्त के प्रसंग में व्युत्सर्ग लघुस्वक १५ दिन तक निरन्तर एकाशन (एक समय और कायोत्सर्ग पर्यायवाची रूप में ही प्रयुक्त हुए हैं। भोजन) तप प्रायश्चित्त - सामान्य दोषों के अतिरिक्त विशिष्ट दोषों के लघुस्वकतर दस दिन तक निरन्तर दोपोरसी अर्थात् १२ लिए तप प्रायश्चित्त का विधान किया गया है । किस प्रकार के ज बजे के बाद भोजन ग्रहण काक दोष का सेवन करने पर किस प्रकार के तप का प्रायश्चित्त करना यथा लघुस्वकप- पांच दिन निरन्तर निर्विकृति (घी, दूध आदि होता है उसका विस्तारपूर्वक विवेचन निशीथ, कल्प और जीतकल्प कगारहित भोजन) में तथा उनके भाष्यों में मिलता है | निशीथ सूत्र में तप प्रायश्चित्त लघुमासिक के योग्य अपराध - दारुदण्ड का पादपोंछन बनाना, के योग्य अपराधों की विस्तृत सूची उपलब्ध है | उसमें तप पानी निकलने के लिए नाली बनाना, दानादि लेने के पूर्व अथवा प्रायश्चित्त के विविध प्रकारों की चर्चा करते हुए मासलघु, मासगुरु, पतटाता की प्रशंसा करना. चातुर्मासलघु, चातुर्मासगुरु से लेकर षट्मासलघु और षट्मासगुरु निष्कारण परिचित घरों में प्रवेश प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है | जैसा कि हमने पूर्व में संकेत करना, अन्य तीर्थिक अथवा गृहस्थ किया है, मासगुरु या मासलघु आदि का क्या तात्पर्य है, यह इन की संगति करना, शय्यातर अथवा ग्रन्थों के मूल में कहीं स्पष्ट नहीं किया गया है किन्तु इन पर लिखे आवास देने वाले मकान मालिक के गये भाष्य - चूर्णि आदि में इनके अर्थ को स्पष्ट करने का प्रयास यहाँ का आहार, पानी ग्रहण करना किया गया है, मात्र यह नहीं लघु के लघुतर और लघुतम तथा गुरु आदि क्रियाएं लघुमासिक प्रायश्चित्त की गुरु, गुरुतर और गुरुतम ऐसी तीन-तीन कोटियाँ निर्धारित की। के कारण हैं। ४EPTESशान कुछ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (५१) यह संसार अनन्त है, अनन्त जीव प्रमाण । जजयन्तसेन सुमार्ग लो, ज्ञानी वचन सुजाण ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुमासिक योग्य अपराध - अंगादान का मर्दन करना, अंगादान था । वह केवल प्रायश्चित्त की तपावधि के लिए संघ से पृथक्करण के ऊपर की त्वचा दूर करना, अंगादान को नली में डालना, पुष्पादि था । संभवतः प्राचीनकाल में तप नामक प्रायश्चित्त दो प्रकार से सूंघना, पात्र आदि दूसरों से साफ करवाना, सदोष आहार का दिया जाता रहा होगा - परिहारपूर्वक और परिहाररहित । इसी उपयोग करना आदि क्रियायें गुरुमासिक प्रायश्चित्त के कारण हैं। आधार पर आगे चलकर जब अनवस्थाप्य और पारांञ्चिक प्रायश्चित्तों लघु चातुर्मासिक के योग्य अपराध - प्रत्याख्यान का बारबार भंग का प्रचलन समाप्त कर दिया गया तब प्रायश्चित्तों की दस संख्या करना, गृहस्थ के वस्त्र, शैय्या आदि का उपयोग करना, प्रथम प्रहर पूर्ण करने के लिए यापनीय परम्परा में तप और परिहार की गणना में ग्रहण किया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर तक रखना, अर्धयोजन अलग-अलग की जाने लगी होगी । परिहार नामक प्रायश्चित्त की अर्थात् दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, विरेचन लेना अथवा भी अधिकतम अवधि भी छह मास मानी गई है क्योंकि तप औषधि का सेवन करना, शिथिलाचारी को नमस्कार करना, प्रायश्चित्त की अधिकतम अवधि भी छः मास ही है। परिहार का वाटिका आदि सार्वजनिक स्थानों में मल-मूत्र डालकर गन्दगी छेद प्रायश्चित्त से अन्तर यह है कि जहाँ छेद प्रायश्चित्त दिये जाने करना, गृहस्थ आदि को आहार-पानी देना, दम्पति के शयनागर में पर भिक्षुणी संघ में वरीयता बदल जाती थी वहाँ परिहार प्रायश्चित्त प्रवेश करना, समान आचार वाले निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को स्थान आदि से उसकी वरीयता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था । मूलाचार में की सुविधा न देना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्यकरना, परिहार को जो छेद और मूल के बाद स्थान दिया गया है, वह अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना अथवा स्वाध्याय के काल उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि कठोरता की दृष्टि से छेद औरमूल में स्वाध्याय न करना, अयोग्य को शास्त्र पढ़ाना अथवा उससे की अपेक्षा परिहार प्रायश्चित्त कम कठोर था | वसुनन्दी की पढ़ना आदि क्रियाएं लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के कारण हैं। मूलाचार की टीका में परिहार की गण से पृथक् रहकर तप अनुष्ठान करना ऐसी जो व्याख्या की गई है वह समुचित एवं गुरुचातुर्मासिक के योग्य अपराध-स्त्री अथवा पुरुष से मैथुन सेवन श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप ही है । फिर भी यापनीय और के लिए प्रार्थना करना, मैथुनेच्छा से हस्तकर्म करना, नग्न होना, श्वेताम्बर परम्परा में मूलभूत अंतर इतना तो अवश्य है कि निर्लज्ज वचन बोलना, प्रेमपत्र लिखना, गुदा अथवा योनि में लिंग श्वेताम्बर परम्परा परिहार को तप से पृथक् प्रायश्चित्त के रूप में डालना । स्तन आदि हाथ में पकड़कर हिलाना अथवा मसलना, स्वीकार नहीं करती है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि पशपक्षी को स्त्री अथवा पुरुष रूप मानकर उनका आलिंगन करना, दिगम्बर परम्परा यापनीय ग्रन्थ षटखण्डागम की धवला टीका मैथुनेच्छा से किसी को आहारादि देना, आचार्य की अवज्ञा करना, परिहार को पृथक् प्रायश्चित्त नहीं मानती है | उसमें श्वेताम्बर लाभालाभ का निमित्त बताना, किसी श्रमण-श्रमणी को बहकाना, परम्परा सम्मत दस प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ है जिसमें परिहार किसी दीक्षार्थी को भड़काना, अयोग्य को दीक्षा देना, अचेल होकर का उल्लेख नहीं है। सचेल के साथ रहना अथवा सचेल होकर अचेल के साथ रहना आदि क्रियाएं गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य है ।' छेद प्रायश्चित्त - जो अपराधी शारीरिक दृष्टि से कठोर तप-साधना करने में असमर्थ हो अथवा समर्थ होते हुए भी तप के गर्व से तप और परिहार का सम्बन्ध - जैसा कि हमने पूर्व में सूचितमें उन्मत्त है और तप प्रायश्चित्त से उसके व्यवहार में सुधार संभव किया है, तत्त्वार्थ और यापनीय परम्परा के ग्रन्थ मूलाचार में नहीं होता और तप प्रायश्चित्त करके पुनः पुनः अपराध करता है, नहीं होता और त प्रायश्चित्त परिहार को स्वतंत्र प्रायश्चित्त माना गया है | जबकि श्वेताम्बर । उसके लिए छेद प्रायश्चित्त का विधान किया गया है । छेद परम्परा के आगमिक ग्रन्थों और धवला में इसे स्वतंत्र प्रायश्चित्त न प्रायश्चित्त का तात्पर्य है भिक्ष या भिक्षणी के दीक्षा पर्याय को कम मानकर इनका सम्बन्ध तप के साथ जोड़ा गया है | परिहार शब्द कर देना जिसका परिणाम यह होता था कि अपराधी का श्रमण का अर्थ बहिष्कृत करना अथवा त्याग करना होता है । श्वेताम्बर संघ में वरीयता की दृष्टि से जो स्थान था, वह अपेक्षाकृत निम्न हो आगम ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि गर्हित जाता था अर्थात जो टीला पर्याय में उससे लघ थे वे उससे ऊपर अपराधों को करने पर भिक्षु या भिक्षुणी को न केवल तप रूप हो जाते थे । दूसरे शब्दों में उसकी वरिष्ठता (सीनियारिटी) कम प्रायश्चित्त दिया जाता था अपितु उसे यह कहा जाता था कि वे हो जाती थी और उसे इस आधार पर जो भिक्षु उससे कभी भिक्षु संघ या भिक्षुणी संघ से पृथक् होकर निर्धारित तप पूर्ण करें। कनिष्ठ थे उनको उसे वन्दन आदि करना होता है । किस अपराध यद्यपि निर्धारित तप को पूर्ण कर लेने पर उसे पुनः संघ में में कितने दिन का छेद प्रायश्चित्त आता है इसका स्पष्ट उल्लेख सम्मिलित कर लिया जाता था । इस प्रकार परिहार का तात्पर्य था मुझे देखने को नहीं मिला । संभवतः यह परिहारपूर्वक तप कि प्रायश्चित्त रूप तप की निर्धारित अवधि के लिए संघ से भिक्षु प्रायश्चित्त का एक विकल्प था । का पृथक्करण । परिहार की अवधि में वह भिक्षु भिक्षुसंघ के साथ अतः जिस अपराध के लिए जितने रहते हुए भी अपना आहार-पानी अलग करता था तथा संघस्थ मास या दिन के लिए तप निर्धारित अन्य दीक्षा पर्याय में लघु मुनियों द्वारा वन्दनीय नहीं माना जाता था, उस अपराध के करने पर उतने था | इससे यह भी स्पष्ट होता है कि परिहार प्रायश्चित्त म तथा दिन का दीक्षा छेद का प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य और पाराश्चिक प्रायश्चित्त में मूलभूत अन्तर था । दिया जाता था। जैसे जो अपराध अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त में जहाँ उसे गृहस्थ वेष धारण करवा कर पाण्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य होते संघ से पृथक किया जाता था, वहाँ परिहार में ऐसा कोई विधान न हैं उनके करने पर उसे हमास का छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। ' निशीथ सूत्र के आधार पर - उद्धृत जैनाचार, पृ. २१३-२१४ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण पग पग पर संकट खडा, पग पग पर है काल । जयन्तसेन सुसमझ ले, छोड सभी जंजाल || For Private & Personal use only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे शब्दों में उसकी वरीयता छ मास कम कर दी जाती है । अधिकतम तपावधि ऋषभदेव के समय में एक वर्ष, अन्य बाईस तीर्थंकरों के समय में आठ मास और महावीर के समय में छह मास मानी गई हैं अतः अधिकतम एक साथ छः मास का ही छेद प्रायश्चित्त दिया जा सकता है । सामान्यतया पार्श्वस्थ अवसन्न, कुशील और संसक्त भिक्षुओं को छेद प्रायश्चित्त दिये जाने का विधान है । मूल प्रायश्चित्त -- मूल प्रायश्चित्त का अर्थ होता था, पूर्व की दीक्षा पर्याय को समाप्तकर नवीन दीक्षा प्रदान करना । इसके परिणामस्वरूप ऐसा भिक्षु उस भिक्षुसंघ में जिस दिन उसे यह प्रायश्चित दिया जाता था वह सबसे कनिष्ठ बन जाता था । यद्यपि मूल अनवस्थाप्य और पाराज्यिक प्रायश्वितों से इस अर्थ में भिन्न था कि इसमें अपराधी भिक्षु को गृहस्थवेष धारण करना अनिवार्य न था । सामान्यतया पंचेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा एवं मैथुन सम्बन्धी अपराधों को मूल प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता है। इसी प्रकार जो भिक्षु मृषावाद, अदत्तादान और परिग्रह सम्बन्धी दोषों का पुनः पुनः सेवन करता है वह भी मूल प्रायश्चित्त का पात्र माना गया है । जीतकल्प भाष्य के अनुसार निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विराधना होने पर मूल प्रायश्चित्त दिया जा सकता है, परन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से ज्ञान और दर्शन की विराधना होने पर मूल प्रायश्चित्त दिया भी जा सकता है और नहीं भी दिया जा सकता है परन्तु चारित्र की विराधना होने पर तो मूल प्रायश्चित्त दिया ही जाता है। जो तप के गर्व से उन्मत्त हो अथवा जिसपर सामान्य प्रायश्चित्त या दण्ड का कोई प्रभाव ही न पड़ता हो, उनके लिए मूल प्रायश्चित्त का विधान किया गया है । पाराञ्चिक प्रायश्चित्त वे अपराध जो अत्यंत गर्हित हैं और जिनके सेवन से न केवल व्यक्ति अपितु सम्पूर्ण जैन संघ की व्यवस्था धूमिल होती है, पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं। पाराज्यिक प्रायश्चित्त का अर्थ भी भिक्षु संघ से बहिष्कार ही है। वैसे जैनाचार्यों ने यह माना है कि पाराश्चिक अपराध करने वाला भिक्षु यदि निर्धारित समय तक गृहस्थवेष धारण कर निर्धारित तप का अनुष्ठान पूर्ण कर लेता है तो उसे पुनः संघ में प्रविष्ट किया जा सकता है । किन्तु मेरी दृष्टि में ऐसा करना उचित नहीं है । बौद्ध परम्परा में भी पाराज्यिक अपराधों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ऐसा अपराध करने वाला भिक्षु सदैव के लिए संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता है अतः प्राचीन जैन आचार्यों ने पाराज्यिक शब्द का जो अर्थ किया है उससे मैं सहमत नहीं हूँ । जीतकल्प के अनुसार अनवस्थाप्य और पाराञ्विक प्रायश्चित्त भद्रबाहु के काल से बन्द कर दिया गया है।' मुझे ऐसा लगता है। कि जब संघ से बहिष्कृत भिक्षु अन्य भिक्षु संघों में प्रवेश करके जैन संघ की आन्तरिक दुर्बलताओं का प्रत्यक्षदर्शी होने के कारण आलोचना करते रहे होंगे तो यह समझा गया होगा कि पाराधिक प्रायश्चित्त का प्रचलन समाप्त कर दिया जाये। स्थानाङ्ग सूत्र में । निम्न पांच अपराधों को पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के योग्य माना गया है । 9 २ जो कुल में परस्पर कलह करता हो । जो गण में परस्पर कलह करता हो । श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण ५ जो हिंसाप्रेक्षी हो अर्थात् कुल या गण के साधुओं का घात करना चाहता हो । (५३) जो छिद्रप्रेक्षी हो अर्थात् हो छिद्रान्वेषण करता हो । जो प्रश्नशास्त्र का बार-बार प्रयोग करता हो । स्थानांग सूत्र में ही अन्यत्र अन्योन्य मैथुनसेवी भिक्षुओं को पाराज्यिक प्रायश्चित्त के योग्य बताया गया है। यहाँ यह विचारणीय है कि जहाँ हिंसा करने वाले को, स्त्री से मैथुन करने वाले को मूल प्रायश्चित्त के योग्य बताया, वहाँ हिंसा की योजना बनाने वाले एवं परस्पर मैथुन सेवन करने वालों को पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के योग्य बताया। इसका कारण यह है कि जहाँ हिंसा एवं मैथुन सेवन करने वाले का अपराध व्यक्त होता है और उसका परिशोधन सम्भव होता है किन्तु इन दूसरे प्रकार के व्यक्तिओं का अपराध बहुत समय तक बना रह सकता है और संघ के समस्त परिवेश को दूषित बना देता है। वस्तुतः जब अपराधी के सुधार की सभी संभावनाएं समाप्त हो जाती है तो उसे पाराञ्चिक प्रायश्चित के योग्य मानकर संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता है। जीतकल्प के अनुसार तीर्थकर के प्रवचन अर्थात् श्रुत, आचार्य और गणधर की आशातना करने वाले को भी पाराचिक प्रायश्चित्त का दोषी माना गया है। दूसरे शब्दों में जो जिन प्रवचन का अपर्णवाद करता हो वह संघ में रहने के योग्य नहीं माना जाता जीतकल्पभाष्य के अनुसार कषायदुष्ट विषयदुष्ट राजा के वध की इच्छा करने वाला, राजा की अग्रमहिषी से संभोग करने वाला, भी पाराचिक प्रायश्चित्त का अपराधी माना गया है। वैसे परवर्ती आचार्यों के अनुसार पाराञ्चिक अपराध का दोषी भी विशिष्ट तपसाधना के पश्चात् संघ में प्रवेश का अधिकारी मान लिया गया है । पाराञ्विक प्रायश्चित्त का कम से कम समय छः मास, मध्यम समय १२ मास और अधिकतम समय १२ वर्ष माना गया है । कहा जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर को आगमों को संस्कृत भाषा में रूपान्तरित करने के प्रयत्न पर १२ वर्ष का पाराक्षिक प्रायश्चित्त दिया गया था । विभिन्न पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के अपराधों और उनके प्रायश्चित्तों का विवरण हमें जीतकल्प भाष्य की गाथा २५४० से २५९६ तक मिलता है । विशिष्ट विवरण के इच्छुक विद्वत्जनों को वहाँ उसे देख लेना चाहिए । अनवस्थाव्य अनवस्थाप्य का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति को पद से च्युत कर देना है या अलग कर देना है । इस शब्द का दूसरा अर्थ है - जो संघ में स्थापना अर्थात् रखने योग्य नहीं है । वस्तुतः जो अपराधी ऐसे अपराध करता है जिसके कारण उसे संघ से बहिष्कृत कर देना आवश्यक होता है वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता है । यद्यपि परिहार में भी भिक्षु को संघ से पृथक किया जाता है किन्तु वह एक सीमित समय के लिए होता है और उसका वेष परिवर्तन आवश्यक नहीं माना जाता। जबकि अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य भिक्षु को संघ से पृथक किया • पाव वृध्दों का आदर नहीं, वश में नही जवान । जयन्तसेन सर्वत्र हि पाता वह अपमान ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है किन्तु वह एक सीमित समय के लिए होता है और उसका अपराध की समानता पर दण्ड की समानता का प्रश्न - वेष परिवर्तन आवश्यक नहीं माना जाता। जबकि अनवस्थाप्य मा प्रायश्चित्तों की चर्चा के प्रसंग में यह भी विचारणीय है कि प्रायश्चित्त के योग्य भिक्षु को पूर्णतः संघ से बहिष्कृत कर गृहस्थ क्या जैन संघ में समान अपराधों के समान दण्ड की व्यवस्था है या वेष प्रदान कर दिया जाता है और उसे तब तक पुनः भिक्षु संघ में एक ही समान अपराध के लिए दो व्यक्तिओं को अलग-अलग प्रवेश नहीं दिया जाता है जब तक कि वह प्रायश्चित्त के रूप में दण्ड दिया जा सकता है । जैन विचारकों के अनुसार एक ही निर्दिष्ट तप-साधना को पूर्ण नहीं कर लेता है । और संघ इस तथ्य प्रकार के अपराध के लिए सभी प्रकार के व्यक्तिओं को एक ही से आश्वस्त नहीं हो जाता है कि वह पुनः अपराध नहीं करेगा । समान दण्ड नहीं दिया जा सकता । प्रायश्चित्त के कठोर और मृदु जैन परम्परा में बार-बार अपराध करने वाले आपराधिक प्रवृत्ति के होने के लिए व्यक्ति की सामाजिक स्थिति, वह विशेष परिस्थिति लोगों के लिए यह दण्ड प्रस्तावित किया गया है । स्थानाङ्ग सूत्र के जिसमें वह अपराध किया गया है भी विचारणीय है। उदाहरण के अनुसार साधर्मियों की चोरी करने वाला, अन्य धर्मियों की चोरी लिए एक ही समान प्रकार के अपराध के लिए जहाँ सामान्य भिक्षु करने वाला तथा डण्डे, लाठी आदि से दूसरे भिक्षुओं पर प्रहार या भिक्षुणी को अल्प दण्ड की व्यवस्था है वहीं श्रमण संघ के करने वाला भिक्षु अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता है। पदाधिकारियों को अर्थात् प्रवर्तिनी, प्रवर्तक, गणि आचार्य आदि प्रायश्चित्त देने का अधिकार : को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था है । पुनः जैन आचार्य यह भी सामान्य प्रायश्चित्त देने का अधिकार आचार्य या गणि का मानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति स्वतः प्रेरित होकर कोई अपराधमाना गया है । सामान्य व्यवस्था के अनुसार अपराधी को अपने करता है और कोई व्यक्ति परिस्थितियों से बाध्य होकर अपराध अपराध के लिए आचार्य के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट करना करता है तो दोनों के लिए अलग-अलग प्रकार के प्रायश्चित्त की चाहिए और आचार्य को भी परिस्थिति और अपराध की गुरुता का व्यवस्था है । यदि हम मैथुन सम्बन्धी अपराध को लें तो जहाँ विचार कर उसे प्रायश्चित्त देना चाहिए । इस प्रकार दण्ड या बलात्कार की स्थिति में भिक्षुणी के लिए किसी दण्ड की व्यवस्था प्रायश्चित्त देने का सम्पूर्ण अधिकार आचार्य, गणि या प्रवर्तक को नहीं है किन्तु उस स्थिति में भी यदि वह सम्भोग का आस्वादन होता है | आचार्य या गणि की अनुपस्थिति में उपाध्याय, उपाध्याय लेती है तो उसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था है अतः एक ही की अनुपस्थिति में प्रवर्तक अथवा वह वरिष्ठ मुनि जो देढसूत्रों का प्रकार के अपराध हेतु दो भिन्न व्यक्तिओं व परिस्थितियों में अलगज्ञाता हो, प्रायश्चित्त दे सकता है । स्व गण के आचार्य आदि के अलग प्रायश्चित्त का विधान किया गया है | यही नहीं जैनाचार्यों अभाव में अन्य गण के स्वलिंगी आचार्य आदि से भी प्रायश्चित्त ने यह भी विचार किया है कि अपराध किसके प्रति किया गया है। लिया जा सकता है। किन्तु अन्य गण के आचार्य आदि तभी एक सामान्य साधु के प्रति किये गये अपराध की अपेक्षा आचार्य प्रायश्चित्त दे सकते हैं जब उनसे इस सम्बन्ध में निवेदन किया के प्रति किया गया अपराध अधिक दण्डनीय है । जहाँ सामान्य जाये । जीतकल्प के अनुसार स्वलिंगी अन्यगण के आचार्य या मुनि व्यक्ति के लिए किये गये अपराध को मृदु या अल्प दण्ड माना की अनुपस्थिति में देढसूत्र का अध्येता गृहस्थ जिसने दीक्षा पर्याय जाता है वहीं श्रमण संघ के किसी पदाधिकारी के प्रति किये गये छोड़ दिया हो तो भी प्रायश्चित्त दे सकता है | इन सब के अभाव अपराध को कठोर दण्ड के योग्य माना जाता है। में साधक स्वयं भी पाप शोधन के लिए स्वविवेक से प्रायश्चित्त का इस प्रकार हम देखते हैं कि अपने प्रायश्चित्त विधान या निश्चय कर सकता है। दण्ड प्रक्रिया में व्यक्ति या परिस्थिति के महत्त्व को ओझल-नहीं क्या प्रायश्चित्त सार्वजनिक रूप में दिया जाये? किया है और माना है कि व्यक्ति और परिस्थिति के आधार पर सामान्य और विशेष व्यक्तिओं को अलग-अलग प्रायश्चित्त दिया इस प्रश्न के उत्तर में जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अन्य जा सकता है जबकि सामान्यतया बौद्ध परम्परा में इस प्रकार के परम्पराओं से भिन्न है | वे प्रायश्चित्त या दण्ड को आत्मशुद्धि का विचार का अभाव देखते हैं । हिन्दू परम्परा यद्यपि प्रायश्चित्त के साधन तो मानते हैं लेकिन प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त के विरोधी हैं सन्दर्भ में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का मूल्यांकन करती है उनकी दृष्टि में दण्ड इसलिए नहीं दिया जाता है कि उसे देखकर किन्तु उसका दृष्टिकोण जैन परम्परा से बिल्कुल विपरीत दिखाई अन्य लोग अपराध करने से भयभीत हों, अतः जैन परम्परा देता है | जहाँ जैन परम्परा उसी अपराध के लिए प्रतिष्ठित सामूहिक रूप में, खुले रूप में दण्ड की विरोधी है, इसके विपरीत व्यक्तिओं एवं पदाधिकारियों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था बौद्ध परम्परा में दण्ड या प्रायश्चित्त को संघ के सम्मुख सार्वजनिक करती है वहीं हिन्दू परम्परा आचार्यों, ब्राह्मणों आदि के लिए मृदु रूप से देने की परम्परा रही है । बौद्ध परम्परा में प्रवारणा के समय दण्डव्यवस्था करती है उसमें एक व्यकि साधक भिक्षु को संघ के सम्मुख अपने अपराध को प्रकट कर संघ सामान्य अपराध करने पर भी एक प्रदत्त प्रायश्चित्त या दण्ड को स्वीकार करना होता है । वस्तुतः बुद्ध शूद्र को कठोर दण्ड दिया जाता है के निर्वाण के बाद किसी संघ प्रमुख की नियुक्ति को आवश्यक वहाँ एक ब्राह्मण को अत्यन्त मृदु नहीं माना गया, अतः प्रायश्चित्त या दण्ड देने का दायित्व संघपद दण्ड दिया जाता है। दोनों परम्पराओं पर आ पड़ा । किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सार्वजनिक रूप से का यह दृष्टिभेद विशेष रूप से दण्डित करने की यह प्रक्रिया उचित नहीं है, क्योंकि इससे समाज द्रष्टव्य है । बृहत्कल्पभाष्य की टीका, में व्यक्ति की प्रतिष्ठा गिरती है, तथा कभी-कभी सार्वजनिक रूप में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है से दण्डित किये जाने पर व्यक्ति विद्रोही बन जाता है। कि जो पद जितना उत्तरदायित्वपूर्ण श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (५४) सब को जाना एक दिन, तज तन धन परिवार । जयन्तसेन निरर्थका, मद मिथ्या अधिकार ।। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है उस पद के धारक व्यक्ति को उतना ही कठोर दण्ड दिया पाश्चात्य विचारकों ने दण्ड के तीन सिद्धान्त प्रतिपादित जाता था । उदाहरण के रूप में भिक्षुणियों का नदी-तालाब के किये हैं - किनारे ठहरना, वहाँ स्वाध्याय आदि करना निषिद्ध था । इस १- प्रतिकारात्मक सिद्धान्त, २-निरोधात्मक सिद्धान्त, नियम का उलंघन करने पर जहाँ स्थविर को मात्र षट्लघु, भिक्षुणी ३ - सुधारात्मक सिद्धान्त | प्रथम प्रतिकारात्मक सिद्धान्त यह को षट्गुरु, प्रायश्चित्त दिया जाता था । वहाँ गणिनी को देह और मानकर चलता है कि दण्ड के द्वारा अपराध की प्रतिशत की जाती प्रवर्तिनी को मल प्रायश्चित्त देने का विधान था । सामान्य साधु की है अर्थात अपराधी ने दसरे की जो क्षति की है उसकी परिपर्ति अपेक्षा आचार्य के द्वारा वही अपराध जाता है तो आचार्य को करना या उसका बदला लेना ही दण्ड का मुख्य उद्देश्य है । 'आँख कठोर दण्ड दिया जाता है। के बदले आँख' और दात के बदले दांत, ही इस दण्ड सिद्धान्त की बार-बार अपराध या दोष सेवन करने पर अधिक दण्ड - जैन मूलभूत अवधारणा है । इस प्रकार की दण्ड व्यवस्था से न तो परम्परा में प्रथम बार अपराध करने की अपेक्षा दूसरी बार या समाज के अन्य लोग अपराधिक प्रवृत्तियों से भयभीत होते हैं और तीसरी बार उसी अपराध को करने पर कठोर प्रायश्चित्त की न उस व्यक्ति का जिसने अपराध किया है, कोई सुधार ही होता व्यवस्था की गई है । यदि कोई भिक्षु या भिक्षुणी एक नियम का है । अपराध का दूसरा निरोधात्मक सिद्धान्त मूलतः यह मानकर बार-बार अतिक्रमण करते थे तो उस नियम के अतिक्रमण की चलता है कि अपराधी को दण्ड इसलिए नहीं दिया जाता है कि संख्या में जैसे-जैसे वृद्धि हो जाती थी प्रायश्चित्त की कठोरता भी उसने अपराध किया है अपितु इसलिए दिया जाता है कि दूसरे बढ़ती जाती थी । उदाहरण के रूप में सामान्यतया भिक्षु-भिक्षुणियों लोग अपराध करने का साहस न करें । समाज में आपराधिक को दिन में एक समय ही भिक्षा के लिए जाने का विधान था, प्रवृत्ति को रोकना ही दण्ड का उद्देश्य है, इसमें छोटे अपराध के किन्तु बिना विशेष कारण के यदि कोई भिक्षु या भिक्षुणी दिन में लिए भी कठोर दण्ड की व्यवस्था को समाज के दूसरे व्यक्तिओं एक से अधिक बार भिक्षा के लिए जाता था तो उसे प्रायश्चित्त को आपराधिक प्रवृत्ति से भयभीत करने के लिए साधन बनाया लेना होता था । अतिक्रमण की संख्या में वृद्धि होने के साथ ही जाता है । अतः दण्ड का यह सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं कहा जा प्रायश्चित्त की गुरुता किस प्रकार बढ़ती जाती थी, उसे निम्न सकता । इसमें दण्ड का प्रयोग साध्य के रूप में नहीं अपितु साधन उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है: के रूप में किया जाता है। दिन में दो बार भिक्षा के लिए जाने पर मासलघु कवि दण्ड का तीसरा सिद्धान्त सुधारात्मक सिद्धान्त है, इस दिन में तीन बार भिक्षा के लिए जाने पर मासगुरु सिद्धान्त के अनुसार अपराधी भी इस प्रकार का रोगी है अतः दिन में चार बार भिक्षा के जाने पर चातुर्मासलघु उसकी चिकित्सा अर्थात् उसे सुधारने का प्रयल करना चाहिए । दिन में पाँच बार जाने पर चातुर्मासगुरु इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड का उद्देश्य व्यक्ति का सुधार होना चाहिए । वस्तुतः कारागृहों को सुधारगृहों के रूप में परिवर्तित दिन में छः बार जाने पर षट्मासलघु किया जाना चाहिए ताकि अपराधी के हृदय को परिवर्तित कर उसे दिन में सात बार जाने पर षट्मासगुरु सभ्य नागरिक बनाया जा सके। दिन में आठ बार जाने पर छेद यदि हम इन सिद्धान्तों की तुलना जैन प्रायश्चित्त व्यवस्था से दिन में नौ बार जाने पर मूल करते हैं तो यह कहा जा सकता है कि जैन विचारक अपनी दिन में दस बार जाने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त या दण्ड व्यवस्था में न तो प्रतिकारात्मक सिद्धान्त को दिन में ग्यारह बार जाने पर पारांञ्चिक । और न निरोधात्मक सिद्धान्त अपनाते हैं अपितु सुधारात्मक सिद्धान्त प्रायश्चित्त देते समय व्यक्ति की परिस्थिति का विचार - जैन दण्ड से सहमत होकर यह मानते हैं कि व्यक्ति में स्वतः ही अपराधबोध या प्रायश्चित्त व्यवस्था में इस बात पर भी पर्याप्त रूप से विचार की भावना उत्पन्न कर उसे आपराधिक प्रवृत्तियों से दूर रहने को किया गया है कि यदि कठोर अपराध को करने वाला व्यक्ति भी अनुशासित किया जाये । वे यह भी स्वीकार करते हैं कि जब तक यदि रुग्ण हो, अतिवृद्ध हो, विक्षिप्तचित्त हो, उन्माद या उपसर्ग से व्यक्ति में स्वतः ही अपराध के प्रति आत्मग्लानि उत्पन्न नहीं होगी पीडित हो उसे भोजन-पानी आदि सविधापर्वकन मिलता हो तब तक वह आपराधिक प्रवृत्तियों से विमुख नहीं होगा । यद्यपि अथवा मुनि जीवन के आवश्यक सामग्री से रहित हो तो ऐसे इस आत्म ग्लानि या अपराधबोध का तात्पर्य यह नहीं है कि भिक्षुओं को तत्काल संघ से बहिष्कृत करना अथवा बहिष्कृत करके व्यक्ति जीवन भर इसी भावना से पीड़ित रहे अपितु वह अपराध शुद्धि के लिए कठोर तप आदि की व्यवस्था देना समुचित नहीं है। या दोष को दोष के रूप में देखे और यह समझे कि अपराध एक आधुनिक दण्ड सिद्धान्त और जैन प्रायश्चित्त व्यवस्था - जैसा कि सांयोगिक घटना है और उसका हमने प्रारम्भ में ही स्पष्ट किया है कि दण्ड और प्रायश्चित्त की परिशोधन कर आध्यात्मिक विकास अवधारणाओं में एक मौलिक अन्तर है । जहाँ प्रायश्चित्त अन्तःप्रेरणा के पथ पर आगे बढ़ा जा सकता से स्वतः लिया जाता है, वहाँ दण्ड व्यक्ति को बलात् दिया जाता है । अतः आत्मशुद्धि तो प्रायश्चित्त से ही संभव है, दण्ड से नही । दण्ड में तो प्रतिशोध, प्रतिकार या आपराधिक प्रवृत्ति के निरोध का दृष्टिकोण ही प्रमुख होता है। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education Interational विराट वैभव पास में, भरे हुए भंडार। जयन्तसेन परार्थ कर, पा लो जीवन सार brary.org. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में जैन-दर्शन का अवदान (डॉ. मुलखराज जैन) 'संस्कृति' बड़ा मोहक तथा आकर्षक शब्द है । इसकी व्युत्पत्ति 'संस्कार' शब्द से होती है, जिस का अभिप्राय है . परिष्कृत करना अथवा उत्तम बनाना । प्रत्येक देश की अपनी एक संस्कृति होती है जो वहां के जन समुदाय की परिष्कृत भावनाओं, संस्कारों और चिंतन का प्रतिबिम्ब हुआ करती है | भारत की भी अपनी एक संस्कृति है जो भारतीयों के संस्कारों, भावनाओं, चिंतन और जीवन मूल्यों की परिचायिका है । भारतीय संस्कृति हमारे पूर्वजों की थाती है जो युगों-युगों के अनुभूत सत्यों की अर्जित सम्पत्ति है । भारत में विभिन्न प्रकार की जातियां, साधनाएं, मान्यताएं और आचार पद्धतियां हैं, फिर भी भारतीय संस्कृति अपने मूलभूत गुणों और विशेषताओं के कारण अब भी जीवित है । वे मूलभूत गुण अथवा विशेषताएं हैं - समन्वय-भावना, अध्यात्म-साधना और आत्मसंयम, गुणग्रहण-शीलता आदि । 'समन्वय-भावना' भारतीय संस्कृति की मूल भित्ति है | इसी गुण के कारण नाना धर्म-साधनाओं और आचार-निष्ठाओं के होते हुए भी इसने समस्त धर्मों के लिए त्याग और मोक्ष के द्वार खोल दिए । स्वामी रामानन्द प्रभृति आचार्यों ने एक ओर 'सगुणमतवाद' की प्रतिष्ठा की तो दूसरी ओर 'निर्गुणमतवाद' को भी प्रश्रय दिया। यह गुण इसी समन्वय-साधना का ही परिणाम है । वास्तव में भारतीय संस्कृति ने 'व्यक्तिगत' धर्म साधना को अधिक महत्त्व दिया है । यही कारण है कि व्यक्ति को यदि किसी विशेष साधनापद्धति से आनन्दानुभूति होती हो तो भारतीय संस्कृति उसे सहर्ष स्वीकार करती है । तुलसीदास भारतीय संस्कृति के उन्नायकों में से एक हैं, जिनका 'मानस' समन्वय की विराट चेष्टा है । शंकराचार्य के 'अद्वैतवाद' और रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद' के मध्य ज्ञान और भक्ति को लेकर दार्शनिक वैमनस्य आरम्भ हो गया था। एक केवल ज्ञान को दूसरा केवल भक्ति को मोक्ष-मार्ग मानता था । तुलसी ने दोनों को अभिन्न मानकर भव-भय-नाशक स्वीकार किया। अध्यात्म साधना और आत्म-संयम के संदर्भ में भारतीय संस्कृति ने 'भौतिक सुखवाद' को कभी वरीयता प्रदान नहीं की। यह एक आर्य-संस्कृति है | त्याग से अनुप्राणित और तपस्या से पोषित भारतीय संस्कृति का भव्य प्रासाद हमारे ऋषियों और श्रमणों से ही शोभा पा रहा है । मध्य युग से पूर्व सिद्धों ने 'महासुखवाद' को अपनी साधना का अंग बना लिया था | सिद्ध सरहपाद ने यह घोषणा की थी कि 'खाते-पीते, सुरत का रमण करते, सुन्दरियों के चक्र में घूमते इस प्रकार जो सिद्धि पाकर परलोक जाता है, वही संसार के माथे पर पाँव रखकर आगे बढ़ जाता है ।' परन्तु यह सब भारतीय संस्कृति में न खप सका । जब सिकन्दर ने अपने आक्रमण के समय महान भारतीय ऋषि दाण्डयायन को भय से अथवा प्रलोभन से अपने पक्ष में करने का प्रयत्न किया तब ऋषि ने उत्तर दिया कि मैं तुम्हारी इच्छा का क्रीडा कंदुक नहीं बन सकता । इच्छाओं का शमन और त्याग ही भारतीय संस्कृति का अमर स्वर रहा है। सत्य का अन्वेषण और दूसरे के अच्छे गुणों को ग्रहण करने में भारतीय संस्कृति ने कभी संकोच नहीं किया। भारतीय ज्योतिष का विकास यूनानी ज्योतिष के प्रभाव से हुआ । इसी प्रकार नाट्यशाला, मूर्ति-कला पर भी यूनानी प्रभाव मिलता है । यद्यपि भारतीय संस्कृति में श्रमण, यति और सन्त लोग अत्यन्त त्याग को महत्त्व देते हैं परन्तु समाज-हितमें उन्होंने दूसरों के अच्छे गुणों को उपादेय स्वीकार किया । भारतीय संस्कृति में जैन दर्शन का अवदान - जैन दर्शन भारतीय संस्कृति के विशालतम वृक्ष का ही एक मधुरतम फल है | जैन दर्शन ने अपने चिन्तन में जो क्रान्ति उत्पन्न की उसने भारतीय संस्कृति पर गहरी छाप छोड़ी है । यद्यपि जैन दर्शन प्रवाह से चली आ रही भारतीय संस्कृति का ही एक स्रोत है तथापि इस स्रोत की कुछ निजी धाराएं हैं, जो अन्य संस्कृतियों की नहीं । अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या, ईश्वर की सृष्टि-कर्ता के रूप में अस्वीकृति, अनेकान्तवाद आदि ऐसी ही उसकी कुछ चिंतन धाराएं हैं जिनका गौरव जैन श्रमणों की दीर्घ साधना और अनुभूति के साथ जुड़ा हुआ है। किया वैदिक संस्कृति में भी अहिंसा जैसे तत्त्व पर विचार किया गया है परन्तु ब्राह्मण-संस्कृति-प्रधान होने से उसमें वैदिक युग के बाद जिस पशुबलि का प्रचलन हो गया था उससे जन समाज में वैषम्य तथा उद्विग्नता उत्पन्न हो गई थी । यज्ञों को जीवन की संस्कृति मान लिया गया था । आगे चलकर महावीर ने इस संस्कृति का समर्थन नहीं किया । लोगों में चिरकाल से चली आ रही - 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति - के विरोध में विचार भेद हुआ । महावीर को इस के लिए अनेक अवरोधों का सामना करना पड़ा। यज्ञों में पशु-बलि के स्थान पर महावीर ने घोषणा की कि सभी जीव जीना चाहते हैं, सुख सब को अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल है, वध अप्रिय है अतः किसी भी प्राणी को मत मारो । उपनिषद् काल में आगे चलकर इस का प्रभाव पड़ा। २. भारतीय संस्कृति दिग्दर्शन श्यामचन्द्र कपूर । सवे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं चोरं, निग्गथा वज्जयंतिणं ।। (समणसुत्त) खाअन्ते, पीवन्ते सुरअ रमन्ते । अलि-उल वहल हो चम्क करते ।। एवहि सिद्धि जाई परलोह । माथे पाअ देइ मुअलोअह ।। (सिद्धसरहपाद-दोहाकोश) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (५६) नेह तज तन धन नार का, तजे कीर्ति अरुमान । जयन्तसेन वीर वही, करता जग कल्याण Maryadri Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर ने उत्तर दिया है। परमाणु नित्य है या अनित्य से) बहुत ते ही हैं । परन्तु जैन देश की भारतीय दर्शनों और मतवादों में केवल जैन दर्शन ही एक परिवर्तित होना और ध्रौव्य का अर्थ है - परिवर्तन के बावजूद ऐसा दर्शन है जिसने ईश्वर को सृष्टि-नियन्ता स्वीकार नहीं किया। प्रत्येक वस्तु का द्रव्यत्व की दृष्टि से शाश्वत रहना । महावीर ने यद्यपि सांख्य दर्शन यह नहीं मानता कि सृष्टि की रचना किसी इसी सिद्धान्त के आधार पर (विभिन्न अपेक्षाओं की दृष्टि से) बहुत ईश्वर ने की है, इसी प्रकार योग दर्शन नहीं मानता कि सृष्टि का से प्रश्नों के उत्तर दिये हैं । परमाणु नित्य है या अनित्य ? इस पर निर्माण ईश्वर ने किया है' तथापि प्रकारान्तर रूप से ये ईश्वर की महावीर ने उत्तर दिया कि द्रव्यत्व-अर्थात्, वस्तु के मूल गुणों की कर्ता के रूप में सत्ता तो स्वीकार करते ही हैं । परन्तु जैन दर्शन ने अपेक्षा वह नित्य है और वर्ण-पर्याय अर्थात्, बाह्य स्वरूप की घोषणा की कि सृष्टि प्रवाह तो अनादि है और जड़-चेतन के संसर्ग दृष्टि से अनित्य है । इसी प्रकार जयन्ती श्राविका के प्रश्न और से स्वयं चालित है । इस चिंतन ने भारतीय संस्कृति को नया मोड़ महावीर के उत्तर अनेकांतवाद सिद्धान्त के पोषक हैं। दिया। जैन दर्शन की सब से बड़ी देन यह है कि वस्तु तत्त्व को जैन दर्शन की भारतीय संस्कृति को सब से बड़ी देना समझो, पक्षपात कहीं नहीं रहेगा । आज के युग में जबकि 'अनेकांतवाद' का सिद्धान्त है । 'अनेकांतवाद' किसी वस्तु तत्त्व साम्प्रदायिकता, हिंसा और पक्षपात का बोलबाला है - ऐसे युग में को अनेक पहलुओं और अपेक्षाओं से परखकर उसमें से सत्य का महावीर की यह घोषणा कि - "मानवता के लिए अहिंसा बहुत अन्वेषण करने का एक मान दण्ड है । 'अनेकांतवाद' दार्शनिक आवश्यक है परन्तु दूसरों के पक्ष को न समझकर जो हम मानसिक मतवादों के गहन सिद्धान्ती को अपेक्षा दृष्टि से देखकर उन सभी हिंसा कर रहे हैं यह अधिक हानिकारक है ।" मतों, सम्प्रदायों और में निहित सत्यता को स्वीकार करता है । मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण है राष्ट्रों के बीच बिना दूसरों के पक्ष को जाने हम स्वयं साम्प्रदायिक और ऐसा कोई मार्ग नहीं है जिसपर चलकर एक ही व्यक्ति सत्य बन रहे हैं । वस्तु तत्त्व का अनेकांतवाद की दृष्टि से गहन के सभी पक्षों की जानकारी प्राप्त कर सके । इसलिए हम जो अध्ययन करने पर ऐसी सच्चाइयां प्रस्कुटित हो सकती हैं, जिनका जानते हैं वह ठीक है, किन्तु उतना ही ठीक वह व्यक्ति भी हो हमे पहले ज्ञान नहीं था । अतः जैन दर्शन की भारतीय संस्कृति को सकता है जो हमारे विरुद्ध खड़ा है । यही जीवनदृष्टि अनेकांतवाद सब से बड़ी देन यह है कि - अपनी सीमित बुद्धि को ही चरम हमें प्रदान करता है। सत्य मत समझो परन्तु समस्त धर्मों में निहित सच्चाई को भी दहा अनेकांतवाद का दार्शनिक आधार यह है कि प्रत्येक वस्तु जानो। अनन्त गुण-पर्याय और धर्मों का अखण्ड पिण्ड है । वस्तु को तुम जिस दृष्टिकोण से देख रहे हो, वस्तु उतनी ही नहीं है । उसमें दव्वठयाए सासए वण्ण पज्जवेहिं जाव कास वज्जवेहिं । अनन्त दृष्टिकोणों से देखने की आवश्यकता है । जैन दर्शन असासए, से तेजढे णं जाव - सियासाए असासए । प्रत्येक वस्तु का 'उत्पादव्यय' और ध्रौव्या की दृष्टि से अन्वेषण (भगवतीसूत्र, १४/३४) करता है। यही वस्तु का सत्य है । उत्पाद का अर्थ है जो वस्तु पहले से है वह अनादि है । व्यय का अर्थ है - प्रत्येक पदार्थ का मधुकर-मौक्तिक संस्कृति के चार अध्याय - रामधारीसिंह 'दिनकर' । संस्कृति के चार अध्याय -पृ.१५३ उपादव्यय ध्रौव्य युक्तं सत् - तत्त्वार्थसूत्र भगवान् महावीर ने अपने प्रवचन में एक बहुत बड़ा सत्य उजागर किया है। उन्होंने कहा है- इस संसार में चारों ओर भय व्याप्त है। सभी प्राणी भयभीत हैं । भयभीत वे इसलिए है कि उन्हें अपनी नीति का ज्ञान नहीं है। यदि आत्मनीति का ज्ञान हो जाए तो भय अवश्य ही भाग जाएगा; इसलिए यदि आत्मनीति को जानना है, तो नवकार के निकट जाना होगा । नवकार आत्मनीति का कल्याणकारी ज्ञान करायेगा / नीति का आगमन होते ही भीति भाग जाएगी। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर दस वर्षों तक जैन शिक्षा निकेतन बोर्ड पंजाब, लुधिआना में शिक्षापति के रूप में कार्य किया । आचार्य श्री आत्माराम जैन शिक्षा निकेतन, लुधिआना में लगभग दस वर्षों तक मुख्यभ्राता के रूप में कार्यरत । तीन कृतियाँ प्रकाशित | 'पंजाब के हिंदी जैन कवियों का सर्वांगीण अध्ययन' और अध्ययन शोधकार्य पर स्वणपदक प्राप्त । शासकीय महाविद्यालय लुधियाणा एवं खालसा महाविद्यालय फगवाड़ा में पांच वर्ष तक अध्यापन कार्य । डॉ. मुलखराज जैन (एम.ए., पी.एच.डी.) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (५७) दिलसे भ्रम निकला नहीं, स्नेह गया अति दूर। जयन्तसेन विभ्रति मति, दूर करे सब नूर :Jory.org Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का समन्वयवाद और विश्व-कल्याण जोग (डॉ. श्रीमती कोकिला भारतीय) मानव जीवन का परम लक्ष्य है - निर्वाण पाना । मनुष्य क्या में समन्वयवाद के जरिये समस्त प्राणियों को सुख, शांति समृद्धि व करे कि उसे निर्वाण प्राप्त हो - आत्म स्वरूप का ज्ञान हो? इस संतोष का संदेश दिया । प्रश्न का उत्तर भगवान महावीर ने दिया - “आत्मा पर अनुशासन । सर्वधर्मसमन्वयआत्मा पर विजय पाने वाला मनजीत ही. विश्वजीत होता है - समस्त दुःखों से मुक्त होता है । दुःखों से मुक्ति के लिए, जीवन में 'वत्थु सभावो धम्मो' - वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है | सार्थक शांति के लिए, आत्म प्रशस्ति की दिशा में आगे बढ़ने के जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता, अग्नि का उष्णता, शक्कर लिए तथा विश्व कल्याण, दूसरे शब्दों में 'स्व' और 'पर' के का स्वभाव मीठापन, नमक का स्वभाव खारापन है उसी तरह कल्याण के लिए समन्वय भाव आवश्यक है । भगवान महावीर आत्मा का स्वभाव ज्ञान, दर्शन व चारित्रमय है - सदाचार-मय है - समन्वय की जीती जागती मशाल थे । हर क्षेत्र में समन्वय - चाहे सचित्त एवं आनंदमय है। प्रत्येक आत्मा अपने स्वभाव में रमण वह विभिन्न धर्मों में हो, चाहे आचरण में हो, चाहे व्यवहार में हो करे तो यही धर्म है और यही आत्मा का स्वाभाविक और निजी चाहे विचार में | उन्होने आंतरिक और बाह्य, व्यक्तिगत और गुण भी । दूसरे शब्दों में आत्मा की मूल प्रवृत्तियों के अनुरूप सामाजिक प्रत्येक कोण से समन्वय का समीकरण किया तथा चलना ही धर्म है। प्रत्येक समस्या का सम्यक् समाधान प्रस्तुत कर मानवता को धम्मो मंगल मुक्किटठं, अहिंसा संजमो तवो, कल्याण और शांति की राह दिखाई।। देवा वित्तं नर्मसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥ अन्तर्जगत में समन्वय-क्रांति का शंखनाद कर, भगवान (दशवैकालिक सूत्र) महावीर स्वयं कामनाओं से लड़े, विषय वासनाओं पर विजय प्राप्त की, हिंसा को पराजित किया, असत्य को पराभूत किया तथा म अर्थात् जो उत्कृष्ट मंगलमय है, वही धर्म है - दूसरे शब्दों में जात्यभिमान, कर्माभिमान, आडम्बर, विषमता, लोभ, मोह आदि जो प्राणीमात्र के लिए सुख शांतिकारी है, मंगलकारी है - वही धर्म को पीछे धकेल कर निर्वाण के भागी बने, भगवत्ता के महान् पद है । अहिंसा, संयम व तप की आराधना से ही मानव मात्र का पर प्रतिष्ठित हुए। मंगल होता है तथा आत्मा का कल्याण होता है। ऐसे धर्म को धारण करने वाले को देवता भी नमस्कार करते हैं। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना उनमें कूट कर भरी थी । हर . प्राणी सुख चाहता है और इस हेतु वह प्रयल भी करता हैं, पर उन्हान किसा धर्म विशष का गुण गान नहीं किया । उनका अधिकांश जन दुःखी ही देखे जाते हैं। वे दुःखी क्यों है? उन्हें तो बस एक ही लक्ष्य था - प्राणीमात्र को सुखी देखना । जिस धर्म सुख क्यों नहीं मिलता, क्या सुखी बनने के लिए दूसरों को दुःखी में सभी प्राणियों का मंगल निहित है वही सच्चा धर्म है। बनाना आवश्यक है ? यदि नहीं तो सभी को सुखी बनाकर कैसे "जाव दियाई कल्लाणाई, सग्गे य मगुअलोगेय । सुख पाया जा सकता है - यह, उनके मन की व्यथा थी तथा सर्व आव हदि ताण सव्वाणि, मोक्खं च वर धम्मो ।' कल्याण और स्व कल्याण के मार्ग को ढूंढना उनके जीवन का लक्ष्य । इस प्रक्रिया में उन्हें १२ वर्ष लगे और जो पाया वह दिव्य (भगवती सूत्र) से दिव्य था, गहन से गहन था पर स्फटिक की तरह केवल ज्ञान अर्थात् स्वर्ग और मृत्युलोक में जितने भी कल्याण हैं उन और ज्ञान था । जीवन का कोई क्षेत्र अछूता नहीं रहा । केवल सबका प्रदाता धर्म ही है। मनुष्य का कल्याण धर्म पालन में है - ज्ञान के उस अलौकिक प्रकाश ने विश्व की हर समस्या का । हाँ धर्म की परख आवश्यक है - हिंसक, रूढ़िवादी व कृत्रिमता पूर्ण समाधान प्रस्तुत किया । धर्म कल्याण कारक नहीं हो सकता । सर्वोच्च और सच्चा धर्म वही महावीर के आविर्भाव के समय की तत्कालीन व्यवस्था में है जो सब प्राणियों के लिए मंगलकारी है। जन्मना जाति का सिद्धान्त व्याप्त था अतः समाज में विषमता का भगवान महावीर के सर्व धर्म बोल बाला था । सांप्रदायिकता का आवरण धर्म पर छा रहा था। समन्वयवादी विचारों ने न सिर्फ एक ओर हिंसा का बोल बाला था तो दूसरी ओर वैभव, विलास तत्कालीन समाज को सन्मार्ग दिया और व्यभिचार का तांडव नृत्य । ऐसे में महावीर का समता का वरन् आज जब संप्रदायों के झगड़े, सिद्धान्त - कोई ऊँचा नहीं - कोई नीचा नहीं - सभी बराबर का हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई आदि प्रतिपादन अभूतपूर्व क्रान्ति लाया । प्राणीमात्र का कल्याण ही धर्मानुयायियों के झगड़े, संगठनों उनका लक्ष्य था और यही उनका धर्म । उन्होंने मानसिक स्वतंत्रता के - पंथो और विचारों के झगड़े न और साहसिक आवश्यकता का महत्त्व समझाया तथा प्रत्येक क्षेत्र सिर्फ भारत को वरन् सम्पूर्ण विश्व श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (५८) खोकर निज सम्मान को, करता कार्य कठोर । जयन्तसेन जगे नहीं, उस का अनुभव जोर Moral Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को अशान्ति और आतंक, संघर्ष और तनाव की ओर ले जा रहे विचार में समन्वित हो। हैं - महावीर के ये सर्व धर्म समन्वयवादी विचार सर्व मंगल ____आचरण में समन्वय - - मांगल्यम् सर्व कल्याण कारणम् है - प्रत्येक देश, समाज, जाति, मानव एवं प्राणीमात्र के लिए शांतिदीप की तरह है। मा 'आ' अर्थात् आचार - मर्यादा तथा 'चरण' अर्थात् 'चलना' । मर्यादा में चलना ही आचरण है | जैसा औरों का आचरण हम सामाजिक समन्वयवाद - अपने प्रति चाहते हैं वैसा ही आचरण हमें औरों के साथ करना समाज से विषमता का जहर मिटाने के लिए, शोषण के चाहिये | "मित्ती मे सव्वभूएसु, वैरं मझं न केणई" - सभी से दावानल को समाप्त करने के लिये तथा विश्वबन्धुत्व व विश्वशांति मित्रता हो, किसी से बैर नहीं | यह उनके आचरण समन्वयवाद की प्रतिष्ठा के लिए भगवान महावीर ने सामाजिक व्यवहार का की मंजिल थी । इस मंजिल तक पहुँचने के लिए उन्होंने पंच सम्यक्करण किया - समता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । अणुव्रत - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह-परिमाणसमता - अर्थात् सब के प्रति समान व्यवहार, समान भाव । अनादि व्रतः, दशधर्म - क्षमा, मार्दव, अर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, काल से मानव इस संसार में जन्म ले रहा है । कोई ऐसा जीव नहीं त्याग, अविंचन एवं ब्रह्मचर्य तथा १२ अनुप्रेक्षाएं - अनित्य, जो उसका माता-पिता, पति-पलि, पुत्र-पुत्री, भाई-बहिन आदि न __अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, रहा हो । फिर वह किससे मित्रता करे व किससे घृणा ? किसे लोक, बोधि दुर्लभ तथा धर्म - का प्रतिपादन किया । यह वह . ऊँचा माने और किसे नीचा ? उसका आवागमन दीर्घकालिक है। समन्वित आचार संहिता थी जो शांति, कल्याण और मुक्ति का अतः तात्कालिक दृष्टि से उसे नहीं सोचना चाहिये। शाश्वत मार्ग थी- है - और रहेगी। उनके समान व्यवहार का तात्पर्य यह भी था कि - 'जीओ और जीने दो' -- कोई दुःख नहीं चाहता अतः किसी 'सर्वभूतात्मभूतता - अर्थात् प्राणीमात्र को आत्मीय भाव से अंगीकार को दुःख मत दो - यह उनके आचरण समन्वयवाद का सर्वोत्कृष्ट करना । प्रत्येक व्यक्ति आत्मा से परमात्मा, जीव से शिव तथा नर उदाहरण है। से नारायण बनता है अतः प्रत्येक के साथ आत्मवत् व्यवहार करना 'उड्ढे अहे य तिरिय, जे केइ तस थावरा । ही, उनका सामाजिक समन्वयवाद था । साधु + साध्वी, श्रावक + श्राविका यह चतुर्विध संघ ही उनका, समाज था, जातिवाद का सव्वत्थं विरई विज्जा, संति निवाण माहियं ।। दम्भ उनसे कोसों दूर था। उनके मत से कोई भी मनुष्य जन्म से अर्थात्, उर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यगलोक में जितने भी ब्राह्मण, शूद्र या वैश्य नहीं होता वरन् - त्रस और स्थावर जीव हैं, उनके प्राणों का विनाश करने से दूर "कम्मुणा बम्भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओम रहना चाहिये । वैर से विरक्ति ही शांति है और यह शांति ही निर्वाण की ओर ले जाने वाली है। वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ।" 'सब्बे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुःख पडिकूला, अप्पियवहा, अर्थात् मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य और कर्म से ही शूद्र होता है। पिय जीविणो, जीविउ कामा, सव्वेसि जीवियं पियं ।' आज जो समाजवादी विचारधारा पोषण पा रही है, वह अर्थात् सभी प्राणी को अपना जीवन प्रिय है, सभी सुखसाता भगवान महावीर के समता सिद्धान्त पर ही आधारित है। चाहते हैं, दुःख को सर्वथा प्रतिकूल मानते हैं, अपने वध को अप्रिय मानते हैं तथा जीवन को अति प्रिय मानते हैं । अतः जब सामाजिक समन्वय तभी संभव है जब संसार का प्रत्येक किसी को भी मरना इष्ट नहीं तो दूसरों को मारने का क्या व्यक्ति अपने व्यक्तिगत क्षेत्र में - आचार में, व्यवहार में और अधिकार है? यही अहिंसा है । कहा गया है कि - 'यस्मिन् कर्मणि प्राणिना प्राणानां नाशं न क्रियते, तत् कर्म एव अहिंसा इति सिद्धहस्त लेखक तथा कथ्यते ।' किन्तु महावीर की अहिंसा तो इससे भी कहीं ऊपर बहुत अन्वेषणात्मक विधि से परिपक्व ।। ऊपर थी । मन से, वचन से और कर्म से किसी की हिंसा न एक शोध प्रबंध का प्रकाशन । करना, ऐसा करने का विचार भी मन में न लाना तथा मन - कई पत्र पत्रिकाओं में विविध वचन - कर्म से किसी को भी मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा न विधाओं पर रचनाओं का पहुँचाना ही अहिंसा है। समावेश । कुशल वक्ता तथा शब्द भंडार की विशिष्टता। भगवान महावीर के अनुसार संपर्क : ४७, सागरमल मार्ग, एक सच्चा अहिंसक वही है जो खाचरौद, (जि. उज्जैन, म. प्र.) बाहरी भेदों को पाटकर आन्तरिक समानता को देखे । शरीर, इन्द्रिय, डॉ श्रीमती कोकिला भारतीय रूप, रंग, जाति, धन, धर्म आदि एम.ए., पी.एच.डी. बाहरी भेदों को देखकर आन्तरिक और स्वरूप गत समानता को भुलाने प्राणित । किन्तु महावा वचन से और मन में न लाना तथा पीड़ा श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण दो मुंह बातें मत करो, बहुत बड़ा यह पाप । जयन्तसेन निश्चल मति, करती जीवन साफ ।। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला अहिंसक हो ही नहीं सकता । जो आंतरिक समानता को नहीं सत्य याने 'अस्ति' - जो है, उसको बताना पर वह हितकारी देखता वह अपने को ऊँचा व दूसरे को नीचा या दूसरे को ऊँचा हो तथा दूसरों को भी प्रिय हो । गीता में भी कहा गया है - तथा स्वयं को नीचा समझता है । यही अहम् या हीन भाव ही "अनुढेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्, विषमता पैदा करता है और जहाँ विषमता है या विषमता का भाव है वहाँ हिंसा को कोई रोक नहीं सकता। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्चते ।" र अहिंसा को साधने के लिए उन्होंने सम-भाव की साधना अर्थात् ऐसा वाक्य बोलना चाहिये जो दूसरों के चित्त में आवश्यक बताया । एकाग्रता के अभ्यास के द्वारा मन को वश में उद्वेग उत्पन्न न करें, जो सत्य, प्रिय व हितकर हो तथा जो वेद करके सिद्धांतगत स्वरूपगत मानस-स्तरीय समता को साधा जा शास्त्रों के अनुकूल हो । यही वाणी का तप है । यही बात भगवान सकता है । समता अर्थात् सम-भाव, न राग न द्वेष, न आकर्षण न महावीर ने भी कहीविकर्षण, न इधर झुकावा न उधर | - यही तो समन्वय है और तहेव काणं काणोक्ति, पंडगं पंडगेति वा, जिस व्यक्ति या समाज का अन्तःकरण समता से स्नात हो जाता है वाहिय वा वि रोगीत्ति, तेणं चोरेत्ति नो' वए। उसके व्यवहार में विषमता नहीं होती। (दशवैकालिक सूत्र) इतना ही नहीं उन्होंने इस अहिंसा अणुव्रत के पालन में आने वाले अतिचारों जैसे - परिजनों व पशुओं के प्रति क्रूरता बरतना, अर्थात् काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी उनका वध - बन्धन करना, अतिभार लादना, चाबुक-बेंत आदि से तथा चोर को चोर न कहें । किसी को पीड़ा पहुँचाना हिंसा है पीटना, भूखे रखना, नाक-कान छेदना आदि अनेकों अतिचारों से इसीलिए भ. महावीर ने वाणी-संयम पर बल दिया । यथासंभव बचे रहने के लिए कहा । सत्य किसी के द्वारा अधिकृत नहीं, उसकी अभिव्यक्ति पर भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा विश्व कल्याण के सभी का अधिकार है । उन्होंने कहा कि - लिए अद्वितीय थाती है, सुख शांति की जननी है तथा शस्त्रास्त्रों "सच्चं जसस्तं मूलं, सच्चं विस्सास कारणं, की होड़ में लगे विश्व की रक्षा करने वाली अलौकिक शक्ति है। परमं सच्चं सग्ग-द्वारं, सच्चं सिद्दीइ सोपाणं ॥" व्यवहार में समन्वयवाद अर्थात् सत्य निश्चय ही यश प्राप्ति का मूल है, सत्य ही इस प्रकार आचरण के लिए अहिंसा को और अहिंसा के लिए विश्वास उत्पन्न कराने में कारण भूत तत्त्व है, सत्य ही स्वर्ग का समता को साधना ही व्यक्तिगत आचरण का समन्वयवाद था । श्रेष्ठ द्वार है तथा सत्य ही मोक्ष प्राप्ति के लिए सुन्दर सीढ़ियों के व्यवहार में इस साधना के लिए २ बातें अनिवार्य बताई समान है। (१) साधन शुद्धि का विवेक _जन्म से ही आत्मा की प्रवृत्ति सत्य की होती है - बच्चा झूठ (२) व्यक्तिगत जीवन में संयम का अभ्यास बोलना नहीं जानता-उसे झूठ बोलना सिखाया जाता है | ज्यों ज्यों उम्र और दायित्व बढ़ते हैं - कमजोरियाँ बढ़ती है वैसे-वैसे असत्य साध्य से साधन की महत्ता कम नहीं अतः पवित्र साध्य की की ओर उन्मुखता बढ़ती है पर असत्य भाषण भला कौन पसन्द साधना के लिए साधनों की पवित्रता भी नितान्त आवश्यक है । करता है ? कागज की फूलों की सच्चाई कहीं छुपती भी है ? महावीर की यही साधन शुचिता महात्मा गान्धी के मानस पर विद्यमान थी जिसके बूते पर - सत्याग्रह व अहिंसक आन्दोलन के जो कठिनाइयाँ सत्य भाषण में आती है वे हमारी आत्मा की जरिये ब्रिटिश जैसी साम्राज्यवादी कौम ने भी हिन्दुस्तान को बुराइयाँ है और सत्य भाषण से ही वे समाप्त भी होंगी । भ. आजादी दी। महावीर ने कहा कि यदि मनुष्य सदैव सत्य ही बोलने का संकल्प ले ले तो वह स्वयं भी सुखी रह सकता है तथा सबको भी सुखी व्यवहारिक जीवन में भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बना सकता है । वास्तव में यह छल प्रपंचवाला संसार यदि महावीर व्यक्तिगत जीवन में संयम का अभ्यास आवश्यक है ऐसा उनका के सत्य को अपनाले तो विश्वशांति और कल्याण की दिशा में अनुभूत प्रयोग एवं मत था । मन, वचन एवं काया से कर्म से उन्मुख हो सकता है। बुराइयों को रोकना ही अहिंसा है - धर्म है । वाणी पर संयम, प्रवत्ति पर संयम तथा शरीर पर संयम के द्वारा व्यक्तिगत जीवन परन्तु सत्य की दिशा में भी समन्वय की ओर कदम बढ़ाते में, सामाजिक जीवन में तथा आध्यात्मिक उपलब्धि, मक्तिमंजिल हुए उन्हान कहा, - की ओर आसानी से बढ़ा जा सकता है। "महुत दुक्खा उद्ववंति कंटया, वाणी पर संयम - अओमया ते वि त ओ सुउद्धरा । भगवान महावीर की अहिंसा सर्व जीव हिताय थी, एक वाया दुरुत्राणि दुरूद्धराणि, समन्वित आचार संहिता थी तथा विश्वमैत्री और विश्वशांति की वेराणु बन्धीणि महब्भयाणि । रूप रेखा थी वहीं धर्म निरपेक्षता इस अहिंसा का आधार थी तथा सत्यदर्शन इसका सम्बल । काँटा या कील चुभ जाने पर कुछ देर ही दुःख पहुँचाती है किन्तु श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (६०) छुरा भोंकना पीठ में, कायर का है काम । जयन्तसेन पराक्रमी स्पष्ट बदत विश्राम ॥ Jain Education Interational Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठोर वाणी की चोंट चिरकाल तक कष्ट पहुँचाते हुए बैर को उपजाकर विनाश की ओर ले जाती है अतः वाणी पर सदैव संयम रखना चाहिये । यह उनका सापेक्षवाद एवं आचरण और तथा प्रवृत्ति पर संयम का दूसरा व्यवहारिक हिस्सा परिग्रह परिणाम व्यवहार के समन्वय वाद का उत्कृष्ट उदाहरण था । वे सत्याग्रही होने की अपेक्षा सत्यग्रही होना आवश्यक और अच्छा समझते थे । व्रत है। आज का मानव पार्थिव एषणाओं तथा भौतिक पिपासाओं कहा, बोली का घाव किसी को न लगे यही वाणी का संयम है। उन्होंने रेकी मृग मरीचिका के पीछे बेतहाशा दौड़ रहा है उसे नहीं अविश्रान्त दौड़ का लक्ष्यविन्दु क्या है ? क्या मंजिल है ? इस बेचैनी का एक मात्र कारण है - संग्रह वृत्ति परिग्रह वृत्ति । परिग्रह सिर्फ भौतिक वस्तुओं का ही नहीं होता के प्रति ममत्व या आसक्ति रखना ही परिग्रह है ने कहा कि, - किसी भी पदार्थ । भगवान महावीर "चित्तमंत चित्तवा परिगिज्झ किसामवि । अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खाण मुच्चइ ॥ अर्थात् जो सजीव और निर्जीव वस्तुओं का संग्रह करता है और दूसरों से करवाता है या करने की सम्मति देता है वह दुःखों से मुक्त नहीं होता। 'अप्पणट्ठा, परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसमं न मूसें बूया, नो वि अन्नं वयावए ।' (दशयैकालिक ६/११) अपने या दूसरों के लिए क्रोध या भय से पीड़ा पहुँचाने वाला सत्य और असत्य न बोले, न दूसरों से बुलवाएं। वाणी सत्यमय हो, उसमें कष्ट व कटुता न हो इसका ध्यान प्रत्येक व्यक्ति को रखना चाहिये। 7 सत्य अणुव्रत के पालन के लिए अतिचारों को रखने की बात उन्होंने कही जैसे मिथ्या उपदेश, कूटलेख तैयार करना, न्यूनाधिक नापतोल करना, व्यंग करना, निन्दा करना, वचन देकर भूलजाना या पालन में ढिलाई करना आदि । प्रवृत्ति पर संयम संग्रह की प्रवृत्ति, तस्करी की प्रवृत्ति, मुनाफाखोरी, कालाबाजारी और भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति ने आज मानव को आतंकित कर रखा है तथा दैनिक जीवन को अशान्त एवं अनाचार पूर्ण बना दिया है । महावीर के आचार समन्वयवाद ने जहाँ सत्य और अहिंसा के द्वारा विश्व शांति और मैत्री का मार्ग प्रशस्त किया वहीं अस्तेय व अपरिग्रह अणुव्रत के द्वारा प्रवृत्ति पर संयम की राह दिखाई तथा व्यावहारिक जीवन को आसान बनाया । 'चित्तमेतम चितं वा अप्पे वा जइ वा बहुं । दंत्त सोहण मित्रं वि, उग्ग हंसि अजाइया । तं अप्पणा न गिति, नौ वि गिव्हावए परं, अन्नं वा गिण्हमाणं वि, नाणु जाणन्ति संजया । अर्थात्, कोई भी वस्तु चाहे सजीव हो या निर्जीव, कम या ज्यादा यहां तक कि दांत कुतरने की सलाई के समान ही छोटी क्यों न हो; उसे बिना उसके स्वामी से पूछे नहीं उठाना चाहिये, यही नहीं वरन् न दूसरों से उठवाए और न ही उठाने वाले का अनुमोदन ही करे । इस प्रवृत्ति को रोकना अत्यावश्यक है अन्यथा यह बहुत कष्टकर होती है। क्योंकि बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करना चोरी है, दूसरे की वस्तु को पाने की चाह मात्र चोरी हैं । इस अणुव्रत के भी कई अतिचार बताये हैं जैसे दूसरों की वस्तु का अभिलाषी होना, दूसरों को इसके लिए उकसाना, चोरी के साधन रूप उपकरण या औजार बनाना या बनवाना, चोरी का माल खरीदना या बेचना, राज्य के नियमों का उल्लंघन करना, वाजिब से ज्यादा मुनाफा कमाना, चोरी छिपे धन संग्रह का प्रयत्न करना आदि । यदि वर्तमान में इन प्रवृत्तियों पर अंकुश लग जाय तो श्रीमद् जयन्तसेनरि अभिनन्दन ग्रंथ विश्लेषण FISTRIE अनेकानेक समस्याओं का समाधान स्वयमेव ही हो जायगा तथा एक आसान अर्थव्यवस्था का अवतरण होगा । यहाँ भी समन्वयवाद की ओर कदम बढ़ाते हुए उन्होंने सांसारिक जीवन में यथासंभव संयम का पथ प्रदर्शित किया । उन्होंने कहा कि व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संग्रह न करे । परिग्रह परिणाम के द्वारा व्यक्ति तृष्णा और लोभ पर अंकुश लगाकर स्वयं को नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से ऊँचा उठा सकता है तथा सुख और शांति का जीवन जी सकता है । भगवान महावीर ने सबके कल्याण हेतु व्यक्ति की दृष्टि से, समाज की दृष्टि से तथा आध्यात्मिक दृष्टि से अपरिग्रह को आवश्यक बताया। शरीर पर संयम इन्द्रियों को वश में करके संयम और तप के द्वारा ही आत्मा को निखारा जा सकता है। भगवान महावीर ने कहा कि 'न व मंडिएण समणो, न ओकारेण बंभणो । न मुनीवण्ण वासेण, कुस चीरेग ण तावसो ।' अर्थात् सिर मुड़ा लेने से श्रमण ओम् कहने से ब्राह्मण, निर्जन वन में रहने से मात्र से ही मुनि और कुश के वस्त्र पहनने से ही कोई तपस्वी नहीं होता वरन् - 'समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो नाणेण उ मुनी होइ, तवेण होइ तावसो ।' अर्थात् समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान की उपासना से मुनि व तप से तपस्वी बनता है । अनैतिकता और वासना के दावानल में झुलसते संसार को आज भगवान महावीर का ब्रह्मचर्य व्रत शीतलता प्रदान कर सकता है । उन्होंने कहा कि, तप-नियम-नाण-दंसण, "f बंभचेर उत्तम चारित्र - सन्मत विणयमूलं ||" अर्थात् ब्रह्मचर्य उत्तम तप, (६१) दोष किसी के क्यों ग्रहे, रख गुण ग्राहक भाव । जयन्तसेन गुणी बनो, निश्चल नित्य स्वभाव ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय का मूल है - अतः पूरा बोध हो सकता है । इस प्रकार सब तत्त्वों में समन्वय की जो इसका पालन करते हैं देवता भी उनके आगे नतमस्तक हो । खोज करना, व भिन्नता में अभिन्नता का दिग्दर्शन करना ही जाते हैं। अनेकान्त है। म यहाँ भी समन्वय की ओर उन्मुख होते हुए भी उन्होंने गृहस्थ हातमा वर्तमान समाज में पारस्परिक झगड़ों का एक महत्त्वपूर्ण व के लिए स्व-दारा सन्तोष तथा अपनी पत्नी के प्रति ईमानदारी की मूल कारण यह भी रहा है कि दूसरों के सही दृष्टिकोण का भी बात कही । स्वदारासन्तोष जहाँ समाज के शील और शिष्टाचार अनादर करना । अनेकान्तवाद समस्त मतवादों के समन्वय का की रक्षा करता है वहीं सामाजिक सुव्यवस्था बनाए रखता है, मध्यम मार्ग है क्योंकि वह सत्य से परिचित है । अनेकान्तवाद मनुष्य को पशु होने से बचाता है साथ ही विषय भोगों के प्रति माननीय विचार धारा का एक वैज्ञानिक उन्मेष है जो आग्रह और अनासक्ति से स्वास्थ्य की भी रक्षा होती है। आतंक के इस वातावरण में भी तत्त्व को, सत्य को समझने की मक वास्तव में यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव है, शाश्वत है, जिनावदेशित सूक्ष्म दृष्टि देता है। अनेकान्त वाद जहाँ दार्शनिक तथ्यों को लेकर है। महावीर के व्यक्तित्व का सर्व प्रधान गुण ही उनका अनन्तवीर्य होने वाले वाद-विवादो और संघर्षों का अंत करने में समर्थ है वहीं होना तथा मन-वचन-कर्म से संयमित होना ही था । आचरण के आचरण और व्यवहार को भी सरल व सरस बनाने में कम सफल समन्वय का यह अनुपम उदाहरण है । विश्व कल्याण के लिए, नहीं |णि नैतिकता के निखार के लिए यह अमृत तुल्य है। वर्तमान समय में विश्व की बहुत सारी समस्याओं का विचार के द्वारा समन्वयवाद समाधान महावीर के समन्वयवाद से - अनेकान्तवाद से हो सकता है - कि कौन किस अपेक्षा से बातकर रहा है - यह सम्यक् ज्ञान भगवान महावीर ने अहिंसा, संयम व तप के द्वारा जहां सम्यक् समाधाम बन सकता है । इतिहास साक्षी है, एकान्तवाद ने आचरण को, अपरिग्रह के द्वारा व्यवहार को समन्वित किया वहीं हिंसा को प्रश्रय दिया है अशांति को - आतंक को प्रश्रय दिया है चिन्तन व दर्शन के क्षेत्र में समन्वय की प्रतिष्ठा के लिए अनेकान्त वहीं अनेकान्त ने शान्ति को, कल्याण को तथा अहिंसा को जन्म का दीप जलाया । दिया है । आग्रह, पक्षपात और एकान्त द्रष्टिकोणों के आधार पर अनेकान्त का अर्थ है - अनेक अन्त - वस्तुका सर्वतोन्मुखी सामूहिक जीवन कभी शान्त नहीं हो सकता, सुखी नहीं हो विचार । जगत का प्रत्येक पदार्थ अनन्त गुणात्मक है । जल, मनुष्य सकता। की प्यास बुझाता है पर हैजे के रोगी के लिये विषतल्य है; दूध आज जो - प्रत्येक परिवार में, समाज में, धर्मों में, संस्थानों स्वास्थ्य के लिए अमृत है पर अतिसार रोगी के लिए मृत्यु का में राष्ट्र व अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्रों में - संघर्ष है, मनोमालिन्य है, कटुता कारण | राम दशरथ के पुत्र थे, लव कुश के पिता व सीता के व तनावपूर्ण व्यवहार है . वे सारे असहिष्णुता-प्रसूत है | उनकी पति । अर्थात् एक में अनेक आभास | यह बोध ही धर्म व दर्शन एकही कमी है - समन्वय का अभाव । भगवान महावीर का का उद्देश्य है । और यही महावीर का अनेकान्तवाद | मिट्टी का समन्वयवाद वह कांक्रीट है जो समस्त टुकड़ों को जोड़ सकता है, एक कण अनन्त स्वभावों का मिश्रण है । मिट्टी से ही तीखी, वह शीतल जल है तो अशांति के दावानल को शांत कर सकता है, कड़वी, मीठी अनेक प्रकार की वस्तुएं उत्पन्न होती हैं - वास्तव में वह सेतुबन्ध है जो अनेकानेक किनारों को-तटों को जोड़ सकता है, मिट्टी तो एक ही है पर बीज अपने स्वभावानुकूल अभीष्ट तत्त्वों समीकरण का वह सूत्र है जो विश्वकी समस्त समस्याओं का को खींच लेते हैं । ऐसी स्थिति में मिट्टी के कणों को कडुआ, मीठा समाधान कर विश्व को शांति और कल्याण के प्रवास की दिशा या तीखा कहना अज्ञानता है | तात्पर्य यह कि प्रत्येक वस्तु के प्रदान कर सकता है। अनेक स्वभाव होते हैं अतः सभी स्वभावों कोजानकर ही वस्तु का मधुकर-मौक्तिक हमारे अपने जीवन में दर्पण का बड़ा महत्त्व है। दर्पण में हम अपनी मुखछवि देखते हैं। चेहरे पर यदि कोई गन्दगी हो, तो दर्पण में वह दिखायी देती है | दर्पण में देख कर हम अपने मुँह को साफ रख सकते हैं | अरिहंत परमात्मारुपी दर्पण हमारे सामने है। इस आईने में हमारा सम्पूर्ण जीवन प्रतिबिम्बित हो सकता है। इस आईने में देखकर हमारे जीवन की मलिनता हमें दूर कर लेनी चाहिये । पर हम इस आईन में देखते ही नहीं हैं । आत्म-निरीक्षण करने की हमें आदत नहीं है | आईना हमारे सामने है, पर हम आईने में देखते नहीं हैं। इसमें आईने का क्या दोष है ? आईने का कोई दोष नहीं, दोष हमारा स्वयं का है। हम देखकर भी अन्धे बनते हैं। -जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (६२) जन्म मरण का चक्र यह, चलता जग में जान । जयन्तसेन प्रेम सुधा, अमर करे नित प्राण || Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-मूल्य तथा जैन-धर्म जकालका (योगाचार्य डा. नरेन्द्र शर्मा 'कुसुम') सता एक अर्थ में जीवनमूल्य और जैनधर्म एक दूसरे के पर्याय ही माने जाने चाहिए । इसका कारण संभवतः यह है कि जैन धर्म उदात्तोन्मुखी जीवन शैली का ही नाम है । आखिर, जीवनमूल्य हैं क्या ? मानवता में संस्कारित होने की सतत प्रक्रिया के अमोघ साधन ही तो ये जीवन मूल्य हैं; मनुष्य के अन्तर में छिपे 'दिव्य तत्त्व' की भास्वरता में मनसा-वाचा-कर्मणा निमग्न होने के माध्यम ही तो ये जीवन-मूल्य हैं; जीवन को मूल्यवत्ता प्रदान करने वाले ये शाश्वत मानवीय मूल्य ही तो जीवन मूल्य हैं । संसार के सभी धर्म इन जीवनमूल्यों का प्रतिपादन करते हैं क्योंकि इन मूल्यों के अनुकरण में ही मानव-मंगल सन्निहित है । जैन-धर्म में इन जीवनमूल्यों पर विशेष बल दिया गया है | अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह आदि जीवनमूल्य सनातन मानवीय मूल्य हैं । ये मूल्य ही मानव संस्कृति के मूलाधार हैं । जैनधर्म इस संस्कृति का पूर्णरूपेण प्रतिनिधित्व करता है । सच्चा जैन वही है जो कि "जिन" का अनुसरण करे; वे 'जिन' जिन्होंने राग-द्वेषरूप अथवा क्रोध-मानादि कषायरूप आन्तरिक शत्रुओं को जीत लिया है, जो निर्लेप-निर्विकार हैं, जो तीर्थंकर हैं, जो वीतराग हैं, जो अरिहंत हैं तथा स्थिरधी हैं। कहने का तात्पर्य है कि आत्म-परिष्कार की पूर्णता के प्रतीक ये 'जिन' ही जैनधर्म के प्रेरणा-स्रोत हैं । जैनधर्म सही अर्थों में किसी सम्प्रदाय या पंथ विशेष का नाम न होकर जीवन-मूल्यों को अपने साथ लेकर चलनेवाली एक विशेष जीवन - पद्धति है । मंगलमयी, उदात्तचेता । तप, संयम, अहिंसा द्वारा समन्वित जीवन शैली ही सच्चा धर्म है । दशवैकालिक १/१ में धर्म की परिभाषा इसी अर्थ में की गयी है: "धम्मो मंगलमक्किटठं. अहिंसा संजमो तवो ।" यही धर्म हमारा परम आधार है । जरा, मृत्यु के प्रभंजनों से प्राणी की रक्षा करने वाला, उसे काल-जलधि में डूबने से बचाने वाला यही धर्म-द्वीप हमारा सच्चा अवलम्ब है :जरा-मरण वेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवा पइट्ठा य गई सरणमुत्तमं ।। - उत्तराध्ययन २३/६८ आत्म-परिष्कार के माध्यम से समष्टि में प्रेम, करुणा, बंधुत्व, अहिंसा तथा सहिष्णुता जैसे मानवोचित जीवन-मूल्यों को विकसित करने का सच्चा साधन यही धर्म है। आज के भौतिकता-संकुल परिवेश में जैन-धर्म में प्रतिपादित अहिंसा सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, कषाय-विजय आदि इन जीवन-मूल्यों का बड़ा महत्त्व है | इन शाश्वत जीवन - मूल्यों की सार्थकता अथवा प्रासंगिकता निर्विवाद है । इन जीवनमूल्यों की उपेक्षा से ही हम एक ऐसी त्रासद स्थिति में पहुँच गये हैं कि यदि हम शीघ्र ही इस अवस्था से नहीं उभर पाये तो मानव का विनाश अवश्यम्मावी ही माना जाना चाहिए । इन जीवन मूल्यों की पुनस्थापना से मानव का कल्याण संभव है । इन जीवन-मूल्यों को यदि कहीं ढूँढा जा सकता है तो जैनधर्म में प्रमुखता से ढूँढा जा सकता है । वैसे जैसा कि ऊपर कहा गया है कि ये जीवन-मूल्य सभी धर्मों में समाविष्ट हैं, पर अहिंसा, अपरिग्रह आदि जीवनमूल्यों पर जैन-धर्म में विशेष आग्रह रहा है, और इन्हीं जीवनादर्शों से ही जैनधर्म की विशिष्ट पहचान बनी है। कि आज सर्वत्र हिंसा, लोभ, असंयम,अनुशासनहीनता, असहिष्णुता, असत्य का बोलबाला है | मानव की मानवता तिरोहित होती जा रही है । समस्त संसार विनाश के कगार पर खड़ा हुआ है । ऐसी विषादमयी स्थिति में जैनधर्म में समाविष्ट ये जीवन-मूल्य ही मानव को विनाश से बचा सकते हैं । इसलिए यह आवश्यक है कि हम इन जीवन-मूल्यों की वर्तमान भूमिका को पहचानें और तदनुसार मनवचन - कर्म से अपने जीवन में उनका पूर्ण पालन करें। इन जीवन-मूल्यों में अहिंसा का सर्वोपरि स्थान है । 'अहिंसा परमो धर्मः' का उद्घोष जैनधर्म का मूल प्राण-तत्त्व है | धर्म का यहाँ अर्थ अंग्रेज़ी शब्द 'रिलीजन' से नहीं लिया जाना चाहिए । इसे मनुष्य-स्वभाव का आभ्यन्तर एवं अन्तर्निहित तत्त्व ही समझना चाहिए । वस्तुतः प्राणिमात्र की एकात्मकता या एकान्विति का नाम ही धर्म है । जहाँ कहीं भी धर्म के लक्षण गिनाये गये हैं वहाँ अहिंसा का नाम सबसे पहले आया है । वैदिक, बौद्ध तथा जैन - तीनों परम्पराओं में पंचव्रतों के अन्तर्गत अहिंसा को सर्वोच्च स्थान मिला है । महर्षि पतंजलि ने अहिंसा को यमों के अन्तर्गत मान कर उसे वैर का प्रतिकारक माना है : योगदर्शन में कहा गया है । कि "अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः" (पाद-२, सूत्र ३५) जन-धर्म का मुख्य संबल अहिंसा ही है । यह जीवन-मल्य मात्र निषेधात्मक न होकर पूर्णरूप से सकारात्मक है क्योंकि अहिंसा में प्राणिमात्र से प्रेम करने का भाव छिपा रहता है। जैन-धर्म के मुख्य दीप्ति-स्तम्भ भगवान महावीर ने 'जिओ और जीने दो' का मूल मंत्र इसी जीवन-मूल्य के द्वारा दिया है | सूत्रकृतांग में उल्लेख है: "एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचणं" अर्थात् ज्ञानी होने का सार है - किसी भी प्राणी की हिंसा न करना । दशवैकालिक (६/११) म ताथकर महावार कहत है: सव्वे जीवावि इच्छंदि, णीविउं ण मरिज्जिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंधा वज्जयंति णं ॥ - क्योंकि सभी जीवों को अपना जीवन प्रिय है, सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसीलिए मिर्ग्रन्थ श्रमण जीवों के साथ हिंसक व्यवहार का सर्वथा त्याग करते हैं। मनुष्य जब अहिंसा के इस जीवन-मूल्य को अपना लेगा तो आज श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (६३) आता जाता कौन है, स्वार्थ भरा संसार । जयन्तसेन मनन करो, खुला ज्ञान भंडार ।। , Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अनेक समस्यायें, विभीषिकायें, विसंगतियाँ अपने आप समाप्त है । इसे केवल 'अपरिग्रह' के सतत आचरण से ही हटाया जा हो जायेंगी । जैनधर्म अहिंसा पर इसलिए बल देता है क्योंकि सकता है । अहिंसा की उपलब्धि बिना अपरिग्रह की भावना से अहिंसा एक व्यापक जीवन-मूल्य है जिसके अन्तर्गत सत्य, अस्तेय, संभव नहीं । अपरिग्रह के होने पर अहिंसा तो स्वतः फलित होगी ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि अन्य जीवनमूल्य स्वतःही आ जाते हैं। ही । यदि लोभ नहीं है तो द्वेष क्यों उत्पन्न होगा और द्वेष के बिना इसलिए अहिंसा का पालन प्रारंभ में अणुव्रत के रूप में किया जाना हिंसा का जन्म कैसे होगा? चाहिए क्यों कि इसे महाव्रत के रूप में अपनाना सरल नहीं है । संगात्कामस्ततः क्रोधस्तस्माहिसा तयाऽशुभम् । हाँ, सतत अभ्यास से महाव्रत की स्थिति तक पहुँचा जा सकता है। ..... दुःखं वाचामगोचरम् ।। जिस प्रकार 'हिंसा' आसुरी प्रवृत्ति है, उसी प्रकार 'परिग्रह' - ज्ञानार्णव १६/१२/१७९ । हमारी कई समस्याओं का कारण है । हिंसा को अहिंसा से जीता आज के विश्व को अपरिग्रह की नितांत आवश्यकता है । जा सकता है और परिग्रह को अपरिग्रह के जीवन - मूल्य द्वारा । सामाजिक विघटन, व्यक्ति का स्खलन, अशांति अपरिग्रह की विज्ञान की अनेकानेक उपलब्धियाँ मनुष्य को 'परिग्रह' की अंधेरी उपेक्षा के ही परिणाम हैं । इसलिए यह आवश्यक है कि व्यष्टि गुफाओं में ले जा रही हैं । मानव शांति के लिए छटपटा रहा है, और समष्टि के हित में अपरिग्रह को जीवन - मूल्य के रूप में पर उसे शांति कहाँ ? परिग्रह की प्रवृत्ति, राग, द्वेष, वैमनस्य, अपनाया जाये । अपरिग्रह क्या है ? जीवन की आवश्यकताओं शक्ति-संचय, शस्त्र-संग्रह, वैषम्य के रूप में यत्रतत्र सर्वत्र प्रकट हो को सीमित करना, संग्रह को सीमित करना और इनसे मूर्छा रही हैं । ऐसी भयावह स्थिति में अपरिग्रह का जीवन-मूल्य ही हमें हटाना अपरिग्रह है । परिग्रह के मूल में कषाय ही मुख कारण हैं। अशांति और सामाजिक विघटन से बचा सकता है। अपरिग्रह की भावना एवं तदनुसार कर्तव्य से ही इन कषायों को अहिंसा, अपरिग्रह के जीवन-मूल्यों से जुड़ा हुआ एक और जीता जा सकता है । जिस व्यक्ति में संचय-संग्रह की प्रवत्ति का जीवन-मूल्य है जिसका जैन धर्म में विशेष महत्त्व है । वह है अभाव होगा वह.. हिंसा, द्वेष, वैमनस्य आदि दोषों से मुक्त रहेगा, क्षमा । सभी धर्मों में क्षमा को एक श्रेष्ठ मानवीय मूल्य बताया वह सत्यशील होगा क्योंकि वह निर्भय होगा. वह किसी की सम्पत्ति गया है। महाभारत में कहा गया है: अथवा अधिकार का क्यों हनन करेगा? | अपरिग्रही व्यक्ति अपने क्षमा ब्रह्म, क्षमा सत्यं, क्षमा भूतं च .. को सही अर्थ में जान सकेगा। क्षमा तपः क्षमा शौचं, क्षमयैतद्धृतं जगत् ।। योगदर्शनकार के अनुसार, अपरिग्रही को ज्ञान हो जाता है कि 'परिग्रह' निस्सार है क्योंकि इससे तृप्ति प्राप्त नहीं हो सकती : भगवान महावीर तो क्षमा के साक्षात् अवतार ही थे । उनका वचन है कि 'समयं सया चरे' अर्थात् क्षमा (समभाव) का आचरण शिश न जातु, कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । मनालाल करो । क्षमा से प्राणी परिषह को जीत लेता है 'खंतिएणं जीवे हविषा कृष्ण-वर्सेव भूय एवाभिवर्धते ॥ परिषहं जणयइ' । क्षमा करुणा, वात्सल्य तथा स्नेह की जननी है। "आग में चाहे हवन की कितनी भी सामग्री डाली जाये, क्षमा से सहिष्णुता जन्म लेती है । क्षमा, कषायों को धो डालती आग की तृप्ति नहीं होती, वह और उद्दीप्त हो जाती है, उसी है। क्षमा के अभाव में मानव हिंस्त्र पशु बन जाता है । क्षमा से प्रकार भोग जितने भी भोगे जायें भोगेच्छा की तृप्ति नहीं होती। मन में निर्मलता तथा सात्विकता का संचार होता है । प्रतिशोध को वह और भी बढ़ती जाती है ।" जैनधर्म में परिग्रह को मूर्छा माना केवल क्षमा से ही जीता जा सकता है । अंग्रेज़ी लेखक बेकन ने 'प्रतिशोध' को एक प्रकार का 'वन्यन्याय' माना है । जैन धर्म में बहुचर्चित और व्यवहृत क्षमा का यह जीवन-मूल्य हमारे वर्तमान पांच पुस्तकों का प्रकाशन । अक्सादमय जीवन को सुख, शांति और प्रेम से भर सकता है। कई पत्रपत्रिकाओं में कृतियों का इसलिए हमें चाहिए कि क्षमा - केवल वाचक नहीं अपितु आंतरिक समावेश | राजस्थान योग प्रतिष्ठान भी - का सतत अभ्यास करें जिससे कि मानव सही जीवन जी जयपुर के निर्देशक । 'अभिज्ञान' सकें। कहा भी गया है: “गलति इंसान से होती है पर उसे क्षमा के संयोजक । 'संदर्भ तथा करना दैवी गुण है"। 'वातायन' के सदस्य। व जैन-धर्म में क्षमा के अतिरिक्त, सहिष्णुता को पनपाने वाला समन्वयवादी, उदात्तोन्मुखी, मानव एक जीवनमूल्य और है : वह है मंगलोत्सुक जीवन दृष्टिकोण । जीवन के प्रति अनेकांत-दृष्टि । सम्प्रति अध्यक्ष स्नातकोत्तर भगवान महावीर ने अनेकांत या अंग्रेजी विभाग, लालबहादुर शास्त्री स्याद्वाद के माध्यम से यह कहा योगाचार्य डॉ. नरेन्द्र शर्मा स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कि सत्य एकपक्षीय नहीं है, उसके 'कुसुम' तिलकनगर, जयपुर। अनेक पक्ष हैं । इसलिए सत्यान्वेषण एम.ए., पी.एच.डी., सम्पर्क - 'मधुविलयम्' ७ | में दुराग्रह या एकांगिता नहीं होनी सी.टी., वाई.एड. वा २ जवाहरनगर, जयपुर चाहिए । वास्तव में सत्य तो एक (राजस्थान) नाम ही है किन्तु विद्वान् इसे विविध श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (६४) संशय का हि फैसला, कभी न हो जग जान । जयन्तसेन सरल सुखद, धरो हृदय शुभ ध्यान ।। W inelibrary.org Jain Education Interational Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वर या भाग्यावन मह पवित्रता नहीं ला सक, पवित्रस्नान, जप, प्रकार से विवेचित करते हैं । सत्य तो 'अंधों का हाथी' है । आज बालों के लुंचन से कोई श्रमण नहीं बन जाता, मात्र 'ॐ' का जाप के 'धार्मिक - असहिष्णुता एवं साम्प्रदायिकता - संकीर्णता' के युग करने से कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता, बन में निवास करने से कोई में जैनधर्म का 'स्याद्वाद' का सिद्धांत एक उपयोगी जीवन-मूल्य मुनि नहीं बन जाता और वल्कल पहनने से कोई तापस नहीं बन हो सकता है। जाता :जैन धर्म में विवेचित महाव्रत, मानव के सनातन जीवन-मूल्य न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंमणो । हैं । इनमें एक जीवन-मूल्य 'कर्म का सिद्धान्त' मनुष्य को कर्म की न मुणी वण्णवासेण, कुसचीरेण न तावसो ॥ सतत प्रेरणा देता है । हम अपने दुःख-सुख के कर्ता स्वयं है । भाग्य इसमें, बीच में कहाँ आता है । ईश्वर, हमारी अनुकूल अतएव, सच्चा धर्म तो 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का दूसरा नाम है। प्रतिकूल परिस्थितियों एवं द्वंद्वात्मक स्थितियों का रचनाकार नहीं प्राणिमात्र में प्रेम का भाव देखना ही धर्म है। रुद्राक्ष, तुलसीमाला, है । स्वर्ग, नरक, दुःख-सुख हमारे कर्मों के ही फल हैं । इसलिए त्रिपुण्ड्र, भस्मलेप, तीर्थयात्रा, पवित्रस्नान, जप, देवदर्शन मनुष्य में हमें सुकर्मों में ही प्रवृत्त होना चाहिए । हमें कर्मरत होकर जीवन वह पवित्रता नहीं ला सकते जो प्राणिमात्र में 'एकात्म' भाव देखने जीना चाहिए न कि अपनी सभी स्थितियों को ईश्वर या भाग्य के मत्थे मढ़ देना चाहिए । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है : रुद्राक्ष, तुलसीकाष्ठं, त्रिपुण्ड्रं, भस्मधारणम् अप्पा कत्ता विकत्ताय दुहाणय सुहाणय, यात्राः, स्नानानि होमाश्च जपाः वा देवदर्शनम् अप्पा मित्तं ममित्तं य, दुपट्ठिय, सुपट्ठिय ।। मग पुनन्त्येतेन मनुजं यथा भूतहिते रतिः ॥ व्यक्ति स्वयं अपने दुःख व सुख का कर्ता है । वह स्वयं ही कहने का तात्पर्य है कि हमारे जीवन-मूल्य मात्र सांस्कारिकअपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है । यही भाव गीता में . औपचारिकताएँ न बन जायें, उनमें व्यवहार की प्राण-प्रतिष्ठा होना भी आया है । व्यक्ति अपना उद्धार स्वयं करे । कर्म का यह बहुत आवश्यक है । जैन-धर्म में सामान्यतः मन-वचन-कर्म का सिद्धान्त जीवन की कर्मठता का पोषक है । यह जीवन-मूल्य हमें अच्छा समीकरण मिलता है । इसी गुणवत्ता के कारण कहा गया पलायनवादी होने से रोकता है । जो व्यक्ति भाग्याधीन होकर कर्म- है:विमुख बैठे रहते हैं, उन्हें इस जीवन-मूल्य से प्रेरणा ग्रहण करनी स्याद्वादो वर्ततेह्यस्मिन्, पक्षपातो न विद्यते । चाहिए। नास्त्यन्यपीडनं यत्र, जैनधर्मः स उच्यते ॥ अंत में यह बताना परमावश्यक है कि 'धर्म' कोई मात्र अनुष्ठान, परिपाटी, रूढ़ि नहीं है और न यह कोई उत्सवों या पर्वो जैनधर्म में अन्तर्ग्रथित जीवन-मूल्य, समता, अपरिग्रह, अहिंसा, का रंगमंच है। आंतरिक परिवर्तन का ही दसरा नाम धर्म है। अनेकांत, सम्यक्दर्शन, सम्यकूज्ञान व सम्यकूचारित्र जैसे उच्चादशी इसलिए जीवन-मूल्यों का सही अर्थ तभी समझा जा सकेगा जब की भूमि पर अवस्थित हैं । इन जीवन-मूल्यों के मन-वचन-कर्म के कि वे हमारे आंतरिक-परिवर्तन की प्रक्रिया के अंग बन जायें । सुन्दर समन्वय से ही मानव का कल्याण सभव है मधुकर-मौक्तिक इस भव-अटवी में यह जीव-रूपी मुसाफिर भटका हुआ है । कर्म-चोर ने उसका आत्म-धन छीन लिया है और उसे अन्धा बना दिया है | वह होश में भी नहीं है। ऐसे समय में उस भले आदमी के सामने श्री अरिहंत परमात्मा सब से पहले उसे अभय दान करते हैं, जिससे उसका भय भाग जाता है, फिर वे उसकी आँखों पर लगे अज्ञान के पर्दे को दूर कर उसे चक्षुदान करते है । वे उसे मार्ग दिखाते है । उसे मुक्ति के पथ की ओर अग्रसर करते हैं । उसे शरण देते हैं और उसका मोह दूर कर उसे आत्मज्ञान देते हैं । यह अरिहंत परमात्मा का इस जगत् के जीवों पर सब से बड़ा उपकार है। उन्होंने संसार के प्राणियों को दुःख-मुक्ति और सुख प्राप्ति का मार्ग बताया, इसीलिए हमें उनके प्रति कृतज्ञ रहना है और उनका गुणगान करना है। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' इस संसार में सब स्वार्थ के सगे हैं। इस बात का अनुभव मनुष्य को कब होता है ? जब मनुष्य चारों ओर से निराश हो जाता है, तब कहता है कि सब लोग स्वार्थी हैं | स्वारथ के सब ही सगे बिन स्वारथ नहीं कोय' - यह बात सबसे पहले किसने बतायी ? अरिहंत परमात्मा ने । पर हमें इस बात का अनुभव तब होता है, जब हम संकट में फँस जाते हैं और सब हमारा साथ छोड़ देते हैं। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण ढोल बजाओ मत कभी, अगर सुनो कुछ बात । जयन्तसेन तथ्य समझ, कभी न हो उत्पात ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन और धर्म का बीज । (डॉ. श्री रतनचन्द्र जैन) जैनदर्शन का मर्म है कि धर्म क्रिया में नहीं लक्ष्य में होता अन्याय का एक भी पैसा उसके पास न आने पावे | उसके ऊपर है । हम जीवन में किस चीज को पाना चाहते हैं, इस पर धर्म- यदि किसी बात का पूर्ण प्रयत्न करता है कि उसके हाथों किसी के अधर्म निर्भर है । यदि हम सांसारिक ऊँचाई पाना चाहते हैं तो साथ तिल भर भी अन्याय न हो । रिश्वत या घुसखोरी की तो वह हमारे भीतर धर्म का बीज है । क्योंकि सांसारिक ऊँचाई लक्ष्य होने स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकता । किसी को संकट में पड़ा पर मनुष्य धन-दौलत, सत्ता, प्रभुता और ख्याति की प्राप्ति को ही देखकर वह कायरतापूर्वक मुख नहीं मोड़ सकता, बल्कि अपने एकमात्र धर्म मान लेता है, जिसके फलस्वरूप उसकी दृष्टि में प्राणों को भी खतरे में डालकर उसे संकटमुक्त करने की चेष्टा किसी भी नैतिक नियम का मूल्य नहीं रहता और वह छल-कपट, करता है । इस प्रकार लक्ष्य में अलौकिकता या आध्यात्मिकता आ हिंसा, अन्याय, किसी भी मार्ग का अवलम्बन कर अपने लक्ष्य को जाने पर लौकिक क्रियाएँ भी अंशतः अलौकिक या आध्यात्मिक सिद्ध करने की चेष्टा करता है । अतः सांसारिक ऊँचाई पाने का बन जाती हैं। लक्ष्य अधर्म का लक्षण है । इसके विपरीत, आध्यात्मिक ऊँचाई पर उवमोगमिदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिढराणं । पहुँचना जिसके जीवन का उद्देश्य होता है, उसकी दृष्टि में धनदौलत, सत्ता, प्रभुता, ख्याति आदि सांसारिक वस्तुओं की जं कुणढि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ।। निस्सारता पहले ही झलक चुकी होती है | इसलिए वह इन चीजों म अर्थात् सम्यग्दृष्टि आत्मा इन्द्रियों से चेतन और अचेतन द्रव्यों को पाने के लिए पापमार्ग का अवलम्बन नहीं करता । जीवनोपयोगी का जितना भी उपभोग करता है वह सब निर्जरा का निमित्त होता वस्तुओं की जितनी आवश्यकता होती है उन्हें वह न्यायमार्ग से ही है। अर्जित करता है । इसलिए आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुँचने का तात्पर्य यह कि सम्यग्दृष्टि जीव का लक्ष्य निज आत्मा के लक्ष्य धर्म का मूलभूत लक्षण है। सर्वोच्च स्वरूप को प्राप्त करता होता है अतः वह चेतन-अचेतन इस प्रकार धर्म की जड़ लक्ष्य में होती है, क्रिया में नहीं। पदार्थों का उपभोग ऐन्द्रिय सुख की लालसा से नहीं करता, अपितु यद्यपि जैसा लक्ष्य होता है उसी के अनुसार क्रिया भी होती है, शरीर को आध्यात्मिक साधना के अनुकूल बनाये रखने के लिए तथापि एक ही क्रिया भिन्न-भिन्न लक्ष्यों से भी हो सकती है। करता है । फलस्वरूप लक्ष्य की आध्यात्मिकता से उसकी उपभोग - उदाहरण के लिए पूजा, भक्ति, स्वाध्याय, व्रत, तप आदि शुभ क्रिया भी अंशतः आध्यात्मिक बन जाती है और नवीन कर्मबन्ध क्रियाएँ सांसारिक सुख, सामाजिक प्रतिष्ठा आदि लौकिक प्रयोजनों बहुत मामूली सा (अल्पस्थिति-अनुभागवाला) होता है। से भी की जा सकती है और मोक्षरूप आध्यात्मिक प्रयोजन स किन्त जिसके जीवन का लक्ष्य सांसारिक ऐश्वर्य होता है भी । अतः इन क्रियाओं के द्वारा यह निर्णय नहीं किया जा सकता उसकी ये लौकिक क्रियाएँ पापमय ही बनी रहती हैं, क्योंकि वह कि इन्हें करनेवाला व्यक्ति धार्मिक है या अधार्मिक । यह निर्णय भोजन करता है तो उसमें स्वाद की लालसा होती है, वस्त्र पहनता केवल इस तथ्य से किया जा सकता है कि इनके पीछे उसका लक्ष्य है तो शरीर को सजाने का भाव मन में रहता है । चलते-फिरते, क्या है ? यदि ये क्रियाएँ वह लौकिक प्रयोजन से प्रेरित होकर उठते-बैठते समय उसे प्राणियों के सुख-दुःख की चिन्ता नहीं करता है तो निश्चित है कि उसके भीतर धर्म नहीं है । यदि रहती । जीविकोपार्जन में भी न्यायमार्ग की परवाह नहीं करता । आध्यात्मिक लक्ष्य इन क्रियाओं का स्रोत है तो निश्चित ही करने वाले के भीतर धर्म मौजूद है। तात्पर्य यह कि यदि सांसारिक ऐश्वर्य जीवन का लक्ष्य है तो पूजा, भक्ति, व्रत, तप, यज्ञ आदि कर्मकाण्ड भी अधर्म ही बना ___ इसी प्रकार भोजन-पान, शयन-आसन, जीविकोपार्जन, विवाह, रहता है और यदि आत्मा का सर्वोच्च स्वरूप जीवन का लक्ष्य होता सन्तानोत्पत्ति आदि लौकिक क्रियाएँ प्रायः सभी मनुष्य करते हैं । है तो लौकिक क्रियाएँ भी अंशतः धर्म बन जाती हैं। किन्तु जिसके जीवन का लक्ष्य आत्मा के सर्वोच्च स्वरूप को प्राप्त करना हो जाता है, उसकी ये क्रियाएँ भी धर्म का अंग बन जाती जैसे एक ही जाति के बीज हैं। क्योंकि जब वह भोजन करता है तब स्वाद में उसकी आसक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमियों में बोये नहीं होती, बल्कि धर्म के साधनभूत शरीर का निर्वाह ही प्रयोजनभूत जाने पर भिन्न-भिन्न रूप में फलित होता है । जब वह चलता-फिरता, उठता-बैठता है तो इस बात का होते हैं, वैसे ही एक ही शुभराग ध्यान रखता है कि उसकी इन क्रियाओं से किसी जीव को पीड़ा न सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि आत्माओं हो । किसी से बात करता है तो मुखमद्रा कठोर न हो जाय वाणी के सम्पर्क से भिन्न-भिन्न फल देनेवाला में कटता न आ जाय, इस बात का बराबर ख्याल रखता है। मदा हा जाता है। को अत्यन्त प्रसन्न और वाणी को मृदु बनाकर ही बोलता है । इसी प्रकार लौकिक क्रियाओं आजीविका अर्जित करते समय इस विषय में सावधान रहता है कि का स्वरूप भी सम्यग्दृष्टि और उदाहरण के क्रिया भिन्न-भिन्न लार क्रिया भी होती है श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण द्रव्यक्षेत्र अरुकाल है, भाव भव प्रतिबंध । जयन्तसेन उदय सभी, जीव मात्र संबंध ।। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यादृष्टि आत्माओं के सम्पर्क से बदल जाता है । परिणामस्वरूप होता । जीवन भर अनन्त वस्तुओं का उपभोग करते रहने पर भी उनका फल भी भिन्न-भिन्न हो जाता है । सार यह कि जीवन का मनुष्य दुःखमय व्यवस्था में बँधा हुआ ही वापस लौटता है, बल्कि लक्ष्य ही धर्म और अधर्म का स्रोत है। उसे और मजबूत कर लेता है । सांसारिक वस्तुओं के उपभोग या लक्ष्यभ्रम क्यों? सम्पर्क से जीवनयापन का स्तर तो ऊँचा उठता है, लेकिन अविद्या, माया या मिथ्यात्व के प्रभाव से मनुष्य को जीवन इंसानियत का स्तर ऊँचा नहीं उठता । ऐसा कोई फल या मिष्ठान्न, के वास्तविक लक्ष्य का बोध नहीं हो पाता । सांसारिक वस्तुओं में ऐसा कोई वस्त्र या आभूषण, ऐसा कोई पद या आसन धरतीपर ही उसे आकर्षण दिखाई देता है, सुख का आभास होता है । नहीं है, जिसे खा लेने, पहन लेने या जिस पर बैठजाने से मनुष्य इसलिए उनकी प्राप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मान लेता है । किन्तु इंसानियत की ऊँचाई पर पहुँच जाय । इसलिए सांसारिक वस्तुओं सांसारिक वस्तुओं का आकर्षण मायावी है, माया (मोह) के द्वारा की प्राप्ति जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकती । मिथ्यात्व के प्रभाव से उत्पन्न किया गया होता है। इसका प्रमाण यह है कि वह अस्थायी ही वे जीवन का लक्ष्य प्रतीत होती हैं। होता है । शुरु में वे आकर्षक दिखाई देती हैं, लेकिन कुछ ही हम जीवन का लक्ष्य तो वही वस्तु हो सकती है, जो जीवन के समय बाद उनका आकर्षण समाप्त हो जाता है । जो वस्तु पहले दुःखों का शाश्वत उपचार हो, जिससे परमसंतोष की उपलब्धि हो, रसमय प्रतीत होती है बाद में वह रसहीन हो जाती है। किसी भी जिससे जीवनयापन का स्तर नहीं, स्वयं जीवन का स्तर ऊँचा उठे, वस्तु का आकर्षण, किसी भी वस्तु की सुखमयता अन्त तक नहीं जिससे मनुष्य अपनी क्षुद्र सांसारिक अवस्था से मुक्ति पाकर टिकती । यौवन और सौन्दर्य अच्छे लगते हैं, लेकिन वे चार दिन सर्वोच्च परमात्म अवस्था में प्रतिष्ठित हो जाय । वह वस्तु लौकिक के ही मेहमान होते हैं । दुनिया की कितनी चीजें हम प्राप्त करते नहीं हो सकती, क्योंकि जैसा पूर्व में कहा गया है, लौकिक वस्तुओं हैं ! किन्तु प्राप्त होने के बाद उनका आकर्षण खत्म हो जाता है। से दुःखों का शाश्वत उपचार नहीं होता, न ही व्यक्ति का गुणात्मक और नई चीजों में आकर्षण दिखाई देने लगता है । और जब वे उन्नयन होता है । यह किसी अलौकिक वस्तु से ही संभव है। वह नई चीजें प्राप्त हो जाती हैं तब उनका भी यही प्रश्न होता है। ती... अलौकिक वस्तु एक ही है - स्वयं का सर्वोच्च स्वरूप । वह स्वयं में हर वस्तु की आकर्षणक्षमता सामयिक ही होती है, शाश्वत आनन्दमय है और शाश्वत है । अतः उसकी उपलब्धि से हम नहीं । जो चीजें युवावस्था में आकर्षक लगती हैं, वे वृद्धावस्था में शाश्वत रूप से आनंद में प्रतिष्ठित हो जाते हैं । स्वयं के सर्वोच्च आकर्षण खो देती हैं । जिन वस्तुओं में वृद्धावस्था में आकर्षण स्वरूप की प्राप्ति का अर्थ है शरीर से सदा के लिए छुटकारा । प्रतीत होता है वे युवावस्था में आकर्षणहीन होती हैं । धन भी सदा शरीर सम्बन्ध ही दुःखों का कारण है । अतः उससे सदा के लिए आकर्षक नहीं रहता, कभी कोई अन्य वस्तु उससे भी अधिक छुटकारा मिल जाने पर दुःखों का शाश्वत उपचार हो जाता है। आकर्षक हो जाती है। जो व्यक्ति भयंकर व्याधि से पीड़ित होता जब स्वयं की सर्वोच्च अवस्था जीवन का लक्ष्य होती है, है उसके लिए व्याधि से छुटकारा ही दुनिया की सर्वाधिक स्पृहणीय तब दैनिक जीवन की क्रियाएँ भी धर्म बन जाती हैं। आज मनुष्य वस्तु होती है । अन्धे के लिए नेत्र ही संसार की सर्वाधिक को कर्मकाण्ड में लगाने की बजाय उसके जीवनलक्ष्य को बदलने आकर्षक चीज है । जिस व्यक्ति को जीवन भर धन प्रिय रहा है की, उसे सम्यक् बनाने की जरूरत है, ताकि मनुष्य का साँस लेना उसे बुढ़ापे में शायद यौवन ही सबसे ज्यादा प्रिय प्रतीत होता होगा भी धर्म बन जाय, उसका चलना-फिरना, उठना-बैठना, सोचना और मरते हुए आदमी को संभवतः जीवन से अधिक प्रिय और विचारना, हंसना-रोना, जीविकोपार्जन करना इत्यादि सम्पूर्ण कोई चीज न होगी । अर्थात् दुनिया में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जीवनपद्धति ही कर्मकाण्ड का रूप धारण कर ले । विडम्बना यह जो ऐकान्तिक और आत्यन्तिक रूप से आकर्षक और सुख देनेवाली है कि अधिकांश लोगों के जीवन में थोथा कर्मकाण्ड तो जोरशोर हो । यही कारण है कि दुनिया से कोई भी आदमी सन्तुष्ट नहीं से आ जाता है, लेकिन जीवनपद्धति धर्म से अनुप्राणित नहीं हो रहता । हर आदमी को दुनिया से शिकायत रहती है। इससे सिद्ध पाती, जिससे धर्म के ढोल पीटते रहते हैं, लेकिन धर्म का परिणाम है कि सांसारिक वस्तुओं का आकर्षण मायावी है। परिलक्षित नहीं होता। इसके अलावा सांसारिक वस्तुओं की केवल जीवनयापनगत उपयोगिता है । उनसे जीवन के दुःखों का शाश्वत उपचार नहीं जन mamm डॉ. श्री रतनचंद्र जैन जैन दर्शन तथा संस्कृत का विशेष अध्ययन । 'जैन दर्शन के निश्चय एवं व्यवहार नयों का समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर शोध प्रबंध। सम्प्रति - रीडर (संस्कृत और प्राकृत) विश्वविद्यालय, भोपाल. संपर्क : ई,७/१५, चार ईमली, भोपाल-४६२०१६. muTMLM wak श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (६७) कहना सो कह दीजिये, अपने दिल को खोल। जयन्तसेन मलीन मन, मिलना मात्र मखोल || Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्मुक्त संवाद की अमोघ दृष्टि : स्याद्वाद (डा. श्री विश्वास पाटील) आर्य और अनार्य जातियों की संस्कृति के संघर्ष की कहानी दुरभिसंधि निकालो और दूसरे के दृष्टिकोण के विषय को भी वैदिक कालसे भी पुरानी है । उपनिषदों एवं बौद्ध तथा जैन ग्रंथों सहिष्णुतापूर्वक खोजो, वह भी वहीं लहरा रहा है।" के अध्ययन से यह अनुमान लगाना आसान है कि ईसा पूर्व की र अनेकांतवाद जैनधर्म की वैचारिक क्रांति है, इससे वैचारिक छठी शताब्दी के आसपास का काल भारत में बौद्धिक बेचैनी, सहिष्णुता और भावनात्मक एकता के साथ धर्मनिरपेक्षता के बीज शंका-कुशंका तथा मानसिक कोलाहल का काल था । जीवन-मृत्यु, अंकुरित होते हैं | 'अनेके अन्ताः धर्मा, यस्मिन् स अनेकान्तः ।' सृष्टि-ग्रहमण्डल, ईश्वर-अनीश्वर जैसे अनगिनत प्रश्न थे । भारत प्रत्येक पदार्थ अनेक विशेषताओं के कारण अनेकांत रूप में माना में आगे चलकर दर्शन की जो छह शाखाएँ विकसित हुईं, उनके जाता है। मूल में भी यही बौद्धिक आन्दोलन था। अहिंसा और अनेकांत दोनों जैन संस्कृति के अद्भुत तत्त्व मा वैदिक परम्परा वेदनिंदक को नास्तिक मानती थी । ईश्वर की हैं । अहिंसा आचारपक्ष से संबंधित है जब कि अनेकान्त विचारपक्ष सत्ता नकारने वाले को नास्तिक कहने की परम्परा तो बहुत बाद में से जुड़ा है । अनेकान्त में 'अनेक' और 'अंत' ये दो शब्द आते चली । पाणिनि के कालतक भी परलोक की सत्ता को न हैं । 'अनेक' याने एकाधिक और 'अंत' याने दृष्टि ! इसे ही माननेवाला नास्तिक कहलाता था । इस दृष्टि से देखनेपर हम यह अनेकांतवाद, स्याद्वाद, अपेक्षावाद, कथंचिद्वाद आदि विविध मान सकते हैं कि न तो जैन या बौद्ध परम्परा ही नास्तिक है, नामों से जाना जाता है। इस सिद्धान्त की विशेषता यह है कि वह क्योंकि दोनों मत परलोक की सत्ता को मानते हैं और दोनों मतों किसी पदार्थ के एक ही धर्म को एकांततः न स्वीकार कर उसके का विश्वास है कि विश्व वहीं पर समाप्त नहीं हो जाता, जहाँतक हरसंभव पहलुओं को आत्मसात कर चलता है । वह 'ही' के वह दिखलाई पड़ता है। स्थानपर 'भी' के प्रयोग का आग्रही है । 'ही' एकांत है और 'भी' वैदिक परम्परा के संदर्भ में बुद्ध और महावीर का नाम प्रचंड अनेकांत ! जैन धर्म की यह मान्यता है कि प्रत्येक पदार्थ अनंत क्रांतिकारी के रूप में लिया जाना चाहिए । दोनों ने प्रचलित धर्मात्मक है । वह अनन्त गुणधर्मों से युक्त है। व्यवस्था के विरुद्ध बुलंदी भरे स्वर में क्रांति की घोषणा की । दोनों ना जैन दर्शन ने ज्ञान का वर्गीकरण पाँच प्रकार से किया है - की दिशा एक थी - लेकिन शैली भिन्न ! बुद्ध घोर क्रांतिकारी, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्यायज्ञान और केवलज्ञान ! महावीर चरम समन्वयवादी | बुद्ध ने हिंसा को नकारा, यज्ञ की' अनेकांत एक ज्ञानात्मक उपलब्धि है - अनुभूति है, वह जब वाणी सत्ता को अस्वीकार किया, यहाँतक कि वेद और ईश्वर के के माध्यम से प्रकट होती है तब - स्याद्वाद कहलाती है । अस्तित्व तक को झुठला दिया । महावीर ने मौलिक राह स्याद्वाद में पदार्थगत विरोधी धर्मोंका तर्कसंगत समन्वय होता है । अपनायी । उन्होंने अनेकान्तवाद के रूप में समन्वय की चिन्तनधारा चित्त में निर्मलता आती है । वस्तु का सम्यक् बोध होता है । का सूत्रपात किया । अभिव्यक्ति की नयी सरणियाँ जन्म लेती हैं। मन, चित्त, बुद्धि और 4 महावीर की कार्यदिशा का स्वरूप यह है - "हाँ, हाँ, जहाँ वाणी की एकतानता का व्यक्त मनोहारी रूप ही स्याद्वाद है जो खड़े होकर आप देख रहे हो, जीवन का वही रूप दिखाई देता है, परम्परा से पुष्ट तो है ही, नए सन्दर्भो से सम्पृक्त होकर और भी जो आप कह रहे हो, पर देखने की एकमात्र जगह वही तो नहीं है नयी दीप्ति के साथ उजागर होते हुए दिखाई देता है। जहाँ आप खड़े हो । लो, आओ मेरे पास और यहाँसे देखो कि हम स्याद्वाद और अनेकांतवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । आप जहाँ से देख रहे हो जीवन का वही सत्य नहीं है।" दोनों एक होते हुए भी उनमें सूक्ष्म अंतर है । अनेकांत है पदार्थों या भारत में विविध धर्म - सम्प्रदायों का उदय - विकास हुआ के यथार्थ स्वरूप को देखने - परखने की एक चिन्तनपद्धति, जब लेकिन अहिंसा-विचार को जितना महत्व जैन धर्म ने दिया उतना कि देखे - परखे हुए स्वरूप को व्यक्त करने की भाषापद्धति है किसीने भी नहीं दिया । जैन दर्शन शारीरिक, मानसिक अहिंसा के स्याद्वाद ! अनेकांत एक दार्शनिक साथ बौद्धिक अहिंसा का भी आग्रही है | यह बौद्धिक अहिंसा ही दृष्टि है, स्याद्वाद है उन्मुक्त संवाद अनेकान्तवाद है । अनेकांतवाद का दार्शनिक आधार यह है - की अमोघ भाषा ! अनेकांत में "प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण, पर्याय और धर्मों का अखंड पिंड है। तमाम दर्शनों का अन्तर्भाव हो जाता वस्तु को तुम जिस दृष्टिकोण से देख रहे हो, वस्तु उतनी ही नहीं है और स्याद्वाद उस सिद्धान्त का है । उसमें अनंत दृष्टिकोणों से देखे जाने की क्षमता है। उसका प्रतिपादन है । अहिंसा का विराट स्वरूप अनंत धर्मात्मक है । तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी विचारात्मक पक्ष अनेकांत है और मालूम होता है, उसपर ईमानदारी से विचार करो तो उसका इस चिन्तन की अभिव्यक्ति शैली का विषयभूत धर्म भी वस्तु में विद्यमान है | चित्त से पक्षपात की नाम स्याद्वाद है । "अनेकांतवाद श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (६८) क्षुद्रादर मानव सदा, करता है उत्पात । जयन्तसेन अनुभव यह, सोच समझ कर बात ॥ Jain Education Intematonal Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का संबंध विचारों से है किंतु स्याद्वाद उस विचार चिन्तन को जाता है । इस समूचे लोक की हरेक वस्तु के किसी भी एक धर्म अभिव्यक्त करने योग्य अहिंसामयी भाषा शैली की खोज़ करना है, के स्वरूप - प्रतिपादन में सात प्रकार के वचनों का प्रयोग होता है, दार्शनिक मतभेदों और विरोधों का शमन करना है । वादी-प्रतिवादी प्रयोग किया जाता है, प्रयोग किया जा सकता है । यही 'सप्तभंगी' दोनों को न्याय देना है । एक-दूसरे को टकराने से रोकना है। कहलाता है । प्रत्येक पदार्थ अनेकांतात्मक है और उसको प्रतिपादित जटिल से जटिल उलझनों को सुलझाने की क्षमता रखना है ।" करनेवाली निर्दोषात्मक भाषा पद्धति स्याद्वाद है । इस भाषामें अनेकांतवाद का आधार है नयवाद ! नय - याने पदार्थ के स्वरूप । निश्चयात्मकता है । कोई भी भंग अनिश्चयात्मक नहीं है। को सापेक्ष दृष्टिकोण से समझना, वस्तुगत अनन्त गुणधर्मों को THE 'स्याद्' का हिंदी पर्याय 'शायद' माना जाता है, जिससे यह समझना नयवाद में पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को देखने परखने की ध्वनि निकलती है कि स्यादाद निश्चित ज्ञान का माध्यम नहीं हो सभी दृष्टियों और समस्त दर्शनोंका समावेश हो सकता है। मामला सकता । इसी बात को लेकर शंकराचार्य, शांतरक्षित, रामानुज, हमा स्याद्वाद का आधार - स्तम्भ है - सप्तभंगीवाद ! पदार्थगत राधाकृष्णन्, राहुल सांकृत्यायन, संपूर्णानंद आदि विद्वानोंने इस धर्म सापेक्ष होते हैं अतः उनका विवेचन - विश्लेषण भी सापेक्ष सिद्धान्त की कडी आलोचना की है। श्री. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यजीने होना बिल्कुल ही स्वाभाविक है । स्याद्वाद का सिद्धान्त जहाँ वस्तु अपने 'जैन दर्शन' नामक ग्रंथ में स्याद्वाद की इन आलोचनाओंका के धर्मों का विवेचन - विश्लेषण करता है वहाँ सप्तभंगीवाद अनन्त । जमकर खंडन किया है । महेंद्रकुमारजी 'स्याद' शब्द का अर्थ धर्मात्मक वस्तु के हर धर्म का विवेचन करने की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया 'शायद' नहीं मानते । उनकी मान्यता है कि "प्राकृत और पालि में प्रस्तुत करता है । सप्तभंगीवाद स्याद्वाद का विश्लेषण प्रस्तुत 'स्याद्' का 'सिया' रूप होता है | यह वस्तुके सुनिश्चित भेदों के करता है । वस्तु के यथार्थ स्वरूप के विवेचन - विश्लेषण में सात साथ प्रयुक्त होता रहा है । कोई ऐसा शब्द नहीं है जो वस्तु के प्रकार के वचनों का प्रयोग हुआ करता है, प्रयोग हो सकता है, पूर्णरूप का स्पर्श कर सके । हर शब्द एक निश्चित दृष्टिकोण से प्रयोग किए जा सकने की संभावना है | इस दृष्टि से उसके सात प्रयुक्त होता है और अपने विवक्षित धर्म का कथन करता है । इस भंग या प्रकार या पद्धतियां हैं । वे निम्नप्रकार की हैं - तरह, जब शब्द में, स्वभावताः विवक्षानुसार अमुक धर्म के स्यात् अस्ति घट : - कथंचित् घट है। प्रतिपादन करने की शक्ति है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि अविवक्षित शेष धर्मों की सूचना के लिए एक 'प्रतीक अवश्य हो, स्यात् नास्ति घट : - कथंचित् घट नहीं है। जो वक्ता और श्रोता को भूलने न दें । 'स्याद्' शब्द यही कार्य स्यात् अस्ति नास्ति घट : - कथंचित् घट है और नहीं है। करता है । वह श्रोता को विवक्षित धर्म का, प्रधानता से, ज्ञान स्यात् अवक्तव्य घट : - कथंचित् घट अवक्तव्य है। कराके भी अविवक्षित धर्मी के अस्तित्व का द्योतन कराता है । 'स्याद्' शब्द जिस धर्म के साथ लगता है, उसकी स्थिति कमजोर स्यात् अस्ति अवक्तव्य घट : - कथंचित् घट है और अवक्तव्य है। नहीं करके, वस्तुमें रहनेवाले तप्रतिपक्षी धर्मकी सूचना देता है ।" स्यात् नास्ति अवक्तव्य घट : - कथंचित् घट नहीं है और अवक्तव्य चिन्तन की अहिंसामयी प्रक्रिया का नाम अनेकांत है और है। उस चिन्तन को अभिव्यक्त करने की शैली कहलाती है स्यावाद ! स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य घट : अर्थात् अनेकांतवाद का संबंध मनुष्य के विचार से है, किन्तु, कथंचित् घट है, नहीं है और अवक्तव्य है। स्याद्वाद उस विचार के योग्य अहिंसायुक्त भाषा की खोज करता है । स्याद्वाद के अनुसार सच्चा अहिंसक यह नहीं कहेगा कि 'यह एक प्रश्न का समुचित उत्तर विविध सात पद्धतियोंसे दिया सत्य सिद्धान्त है । वह यही कहेगा कि 'स्याद् यह सत्यसिद्धान्त हिंदी, मराठी में आधा दर्जन से अधिक ग्रंथों का लेखन व सम्पादन | हिंदी, मराठी, गुजराती से अनुवाद कार्य भी। सिद्धहस्त लेखक, कुशल प्राध्यापक | साहित्यिक मित्रो के एक वर्ग से निरंतर संपर्क । सम्प्रति - स्नातकोत्तर हिंदी विभागाध्यक्ष, शहादा महाविद्यालय, शहादा. संपर्क : डॉ. विश्वास पाटील, ३४ ब. कृष्णाम्बरी, सरस्वती कॉलोनी, शहादा (धुलिया) महाराष्ट्र - ४२५ ४०१. 'स्याद्वाद' नाम के साथ वाद जुड़ा है जो अंग्रेजी ISM का पर्यायी है । मैं स्वयं स्याद्वाद को वाद नहीं - संवाद मानता हूं । इसमें वाद-विवाद छूट जाते हैं । हितकारी संवाद, समन्वयात्मक अभिव्यक्ति और 'सर्वेषां अविरोधेन ।' दृष्टि का परिचायक यह तत्त्व है । उन्मुक्त संवाद है इसमें ! सबके साथ, सब को लेकर, सबतक पहुंचने की संवादपद्धति है यह स्याद्वाद ! हम अपने कोषोंतक ही सीमित न रहें, ज्ञान की - अभिव्यक्ति की हर संभव जितनी पद्धतियाँ, प्रणालियाँ, सरणियाँ हो सकती हैं उनका सुकरता से स्वागत, सत्कार और स्वीकार करें यही इस दृष्टिकी विशेषता है। डॉ. विश्वास पाटील एम.ए., पी.एच.डी. शेष भाग (पृष्ठ ७२ पर) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण क्षुद्र हृदय के मनुज से, कभी न करना प्रीत । जयन्तसेन निज हित की, यह है सच्ची रीत ।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - दर्शन में मोक्ष की अवधारणा मानालामालेखक: डॉ. श्री. अमृतलाल गांधी) FREETTES जैन धर्म की बारहखड़ी नमस्कार महामंत्र से प्रारंभ होती प्राकृतिक रूप से अनादि काल से चली आ रही है और अनन्तकाल है । इसमें सर्व प्रथम तीर्थंकर परमात्मा अरिहंतों की और द्वितीय तक चलती रहेगी । इस सृष्टि में अनेकों आत्माएं कर्म-बंधन के नमो सिद्धाणं के पद में उन समस्त जीवात्माओं नमस्कार किया कारण भव भ्रमण करती रहती हैं। सभी आत्माओं पर विभिन्न जाता है जो तीर्थंकरों द्वारा समय-समय पर बतलाये गये मार्ग का प्रकार के कर्मों का बंधन है जिसके दूर होने पर सभी आत्माएं अनुसरण कर सिद्धावस्था को प्राप्त हुए हैं । इसीका पर्यायवाची स्वयं परमात्मा स्वरूप बन सकती हैं। शब्द मुक्ति या मोक्ष है। जैनधर्म का शाश्वत सिद्धान्त है :जैन: जिन का अनुयायी अप्पा कप्पा विकताय, दुहाण य सुहाण य । "जैन दर्शन में मोक्ष" विषय पर विचार करने के पूर्व हमारे अप्पा मित्तम मित्रं च, दुष्प-ट्टियं सुप्पट्ठियं ।। लिये "जैन" शब्द का सही अर्थ जानना आवश्यक है । हिन्दु शब्द जैसे जाति का वाचक है, बौद्ध शब्द जैसे व्यक्ति का वाचक है अर्थात् आत्मा ही सुख दुःख का करने वाला है, उसके फल वैसे जैन शब्द किसी जाति या व्यक्ति का वाचक न होकर विशेष भोगने वाला है, एवं उनसे मुक्ति पाने वाला है । जब तक आत्मा गुणों का वाचक है । "जैन" शब्द "जिन" से बना है। जैन धर्म पर शुभ-अशुभ कमा का आवरण ह, वह आत्मा मनुष्य, पशु, दव का अर्थ है "जिन का धर्म" | "जिन" का अर्थ है "जीतने और नारकी की चार गतियों में भ्रमण करती रहती है । परन्तु जब वाला" | जीतने का प्रश्न शत्रुओं का ही होता है, मित्रों का नहीं । आत्मा के कर्म बंधन समाप्त हो जाते हैं, वह इस भ्रमण से मुक्त तो ये शत्रु कौन है ? इसका उत्तर "उत्तराध्ययन सूत्र" की गाथा हो जाती है और अनन्त सुख की मोक्षावस्था को प्राप्त हो जाती २३/८ में दिया गया है "एगप्पा अजिए सत्तू" अर्थात् अपनी अविजित आत्मा ही शत्रु है । सुख: आत्मा का स्वभाव हमारा शत्रु कोई अन्य नहीं है अपितु असंयम में बहती हुई प्रायः सभी दार्शनिकों के मतानुसार संसार की प्रत्येक आत्मा राग द्वेष में कलुषित आत्मा ही हमारी शत्रु है । इसीलिये अन्य चाहे वह कहीं भी और किसी भी अवस्था में क्यों न रही हो, किसी को जीतने की आवश्यकता ही क्या है ? जो सबसे बड़ा उसके अंतस्तल में सुख प्राप्ति की अभिलाषा रहती है । सुख आत्मा शत्रु है उसे ही जीतना चाहिये । इस आत्म-शत्रु को अर्थात् आत्मा का स्वभाव है । इसलिये प्राणिमात्र अनादि काल से सुख प्राप्ति के में रहे हुए राग, द्वेष के संस्कारों को, क्रोध, काम, लोभ को लिये प्रयलशील है। सुख प्राप्ति के संबंध में अनेक विचारकों एवं विकारों को जीतना यही सबसे बड़ी विजय है | "उत्तराध्ययन चिन्तकों ने अपने अपने दृष्टिकोण से विचार व्यक्त किये हैं और सूत्र" की ही गाथा ९/३६ में लिखा है “सव्वमप्पे जिऐ जियं" उसकी प्राप्ति के लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ अर्थात् जिसने इस राग-द्वेषात्मक संसार को जीत लिया उसने माने हैं । जिनकी दृष्टि में वर्तमान जीवन ही सबकुछ है और इह सब कुछ जीत लिया । मेरी भावना प्रार्थना के भी प्रथम बोल यही लोक के सिवाय परलोक एवं जन्मान्तर नहीं है, उन्होंने वर्तमान है, "जिसने राग, द्वेष कामादिक जीते, सब जग जान लिया ।" जीवन एवं उसी में भौतिक सुख प्राप्त करने के साधन अर्थ और अतः जो अपनी वासना को, अपने विचारों को, राग, द्वेष के काम इन दो पुरुषार्थो को ही माना और उनका लक्ष्य यह रहा संस्कारों को जीत लेता है, उन्हें जड़ मूल से समाप्त कर देता है, किवह आत्मा वीतराग बन जाता है और उसे ही “जिन" अर्थात् यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । विजेता कहा जाता है । उस जिन पुरुष, वीतराग भगवान् के आदर्शों पर, उनकी शिक्षाओं पर, उनके द्वारा कथित मार्ग पर जो भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ चलता है, जो जिन का अनुगामी है, वही "जैन" है । "जैन" का अर्थात् जबतक जीओ, सुख से जीओ, कर्जा करो और घी पीओ जो उपदेश है वह है “जैन धर्म" | इस प्रकार जैन धर्म एक गुण क्योंकि यह शरीर भस्म हो जायेगा। वाचक शब्द है । उसमें इन्द्रिय विजय की, आत्म संयम की एवं इसका कोई पुनरागमन नहीं है। मनोनिग्रह की ध्वनि गूंज रही है, संक्षेप में, यही जैन - धर्म का भारत में यह विचार-पक्ष लक्षण है। चार्वाक दर्शन के नाम से प्रसिद्ध जैन-धर्म : आत्मवादी दर्शन हुआ | पाश्चात्य जगत की वैदिक मान्यताओं से भिन्न, जैन - धर्म परमात्मवादी न होकर विचारधारा में इसी प्रकार का आत्मवादी है । वह सृष्टि के रचयिता या संचालक के रूप में ईश्वर दृष्टिकाण खाआ, पावा आर एश जसा किसा शक्ति को नहीं मानता | उसके अनसार यह सष्टि करा के नाम से प्रसिद्ध है। यह श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७०) खोटी साख भरे नहीं, करे न खोटे लेख । जयन्तसेन वह नर सुखि, सकल विश्व में देख ॥ Jain Education Interational Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णतया भौतिकतावादी विचारधारा है जिसका संबंध मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष है और “संवर" तथा "निर्जरा" मोक्ष वर्तमान जीवन से ही है। के साधन है | "संवर" का अर्थ है कर्म आने के द्वार को रोकना परन्तु अन्य प्रबुद्ध विचारकों एवं चिन्तकों ने दृश्यमान जगत और "निर्जरा" का अर्थ है “पहले से आत्मा के साथ बंधे हुए के अतिरिक्त उत्तम या अधम परलोक एवं मृत्यु के बाद पुनर्जन्म कर्मों को क्षय करना" | बौद्ध दर्शन के अनुसार भव-संताप परम्परा एवं जन्मांतर भी माना है । अतएव उन्होंने धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ का विच्छेद होना मोक्ष है और संसार को दुःखमय, क्षणिक एवं माना और स्पष्ट किया कि परलोक और पुनर्जन्म में सुखप्राप्ति धर्म शून्य मय समझना मोक्ष का साधन है । नैयायिक, वैशेषिक, के पुरुषार्थ द्वारा ही संभव है | जैन-धर्म की मान्यता के अनसार । सांख्य-योग आदि दर्शनों ने भी दुःख का ध्वंस हो जाना मोक्ष माना अर्थ और काम भौतिक सुख हैं जो क्षण-भंगुर हैं जबकि धर्म के मार्ग से प्राप्त मोक्ष का सुख अनन्त है | जैन दर्शन के अनुसार जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष का सीधा अर्थ है "समस्त कर्मों जिन का अनुयायी अपने आराध्य तीर्थंकर देव से सदैव इसी से मुक्ति" । इसमें अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कर्म आते हैं अनन्त सुख की प्राप्ति की कामना करता है । यह बात 'जय क्योंकि जैसे हथकड़ियाँ चाहे सोने की हो या लोहे की, मनुष्य को वीयराय' सूत्र की प्रथम गाथा से स्पष्ट होती है जो इस प्रकार है:- दोनों ही बन्धनयुक्त रखती है, उसी प्रकार जीव को उसके शुभ "जय वीय राय । जय गुरु । होउ मम तुह प्रभावओ भयवं । और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म बंधन में रखते हैं । अन्य शब्दों में, मोक्ष का अर्थ है "राग और द्वेष' दोनों का पूर्ण क्षय | वस्तुतः भवनिव्वेओ मग्ग णुसारिया, इट्ठ फल सिद्दी॥ कर्म बंधन के कारणों एवं पूर्व से संचित कर्मों का पूर्ण रूप से क्षय अर्थात् हे वीतराग ! हे जगद्गुरु ? आपके प्रभाव से मुझे हो जाना ही मोक्ष है । तात्त्विक दृष्टि से कहा जाय तो आत्मा का संसार से विरक्ति, मोक्ष मार्ग का अनुसरण तथा इष्टफल (अर्थात् अपने शुद्ध स्वरूप में सदा के लिये स्थिर हो जाना ही मोक्ष या मोक्ष के अनन्त सुख) की प्राप्ति हो । मुक्ति है। मोक्ष और मोक्षप्राप्ति के साधन: यह बात ध्यान रखी जाय कि मोक्ष का अर्थ जीव का अभाव मोक्ष पुरुषार्थ को स्वीकार करने वाले जैन, बौद्ध, नैयायिक, अथवा विनाश नहीं है अपितु जीव या आत्मा का अपने शुद्धि वैशेषिक और सांख्य-योग दर्शन हैं। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक स्वरूप में अपनी स्वतंत्र सत्ता रहित स्थित होना ही मोक्ष है । आत्मा यानि जीव अपने समस्त कर्म-कर्मफल, ज्ञान, मोक्षादि के चौरासी लक्ष्य योनियों के भव भ्रमण की सांसारिक अवस्था में तो लिये पूर्ण रूपेण स्वतंत्र है । जीव स्वयं अपना स्वामी है । उसका कर्म बंधन के कारण जीव वि-भाव रूप में रहता है किन्तु जब वह बंधन एवं मुक्ति किसी के रोष अथवा कृपा का परिणाम नहीं है। पुरुषार्थ द्वारा अपने कर्मों का क्षय कर देता है तब जन्म-मरण के अपितु स्वयं के कर्तव्यों एवं कार्यों का परिणाम है । प्रभुत्त्व शक्ति चक्र से मुक्त होकर वह स्व-भाव में स्थित हो जाता है और यही से युक्त जीव सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान व सम्यक् चारित्र के द्वारा उसकी चरम परिणति है । चार घाती कर्मों को नष्ट करके जब अर्हत् दशा को प्राप्त होता है अन्य शब्दों में मोक्ष आत्म विकास की पूर्ण अवस्था है । एक तब उसमें प्रभुत्त्व शक्ति का पूर्ण विकास होता है । फिर जब वह बार मुक्ति प्राप्त कर लेने पर यह आत्मा अनन्तकाल तक मुक्ति में शेष चार अर्धांति कर्मों को भी नष्ट करके सिद्ध मुक्त हो जाता है ही रहती है और फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आती है क्योंकि तब वह साक्षात् प्रभु ही हो जाता है और उसका पुनर्जन्म नहीं इस जीव को संसार में जन्म-मरण कराने एवं सुख दुःख देने के होता। कारण जो कर्म होते हैं, मुक्ति की अवस्था में उनका सर्वथा अभाव जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा पर लगे हुए आठों प्रकार के होता है । मुक्ति में इस जीव के साथ किसी प्रकार का शरीर नहीं रहता और न ही उसको किसी प्रकार का भौतिक सुख प्राप्त करने की इच्छा ही रहती है । मुक्ति में यह आत्मा अनंत काल तक एक कई पुस्तकों के लेखक एवं अनुपम, अतीन्द्रिय, आध्यात्मिक सच्चे सुख का उपभोग करती सामाजिक क्षेत्र में भी अनुकरणीय रहती है। कार्य । १९५४ में राजस्थान चूँकि मोक्ष आध्यात्मिक विकास की पूर्ण अवस्था है और प्रशासनिक सेवा में बीसवें स्थान पूर्णता में कोई भेद नहीं होता है, अतः मोक्ष का भी कोई भेद नहीं पर रहे । डेढ़ दर्जन पुस्तकों का है । मोक्ष या मुक्ति कोई स्थान लेखन विभिन्न जैन, सामाजिक व विशेष भी नहीं है किन्तु आत्मा की सार्वजनिक संस्थाओं के संचालक शुद्ध चिन्मय स्वरूप की प्राप्ति है रहे । १९७४ में जोधपुर जिला जिसे वैदिक दर्शन में "सच्चिदानंद" महावीर निर्वाण समिति के मंत्री के रूप में प्रशंसनीय सेवाओं के अवस्था कहा गया है | जैन दर्शन के अनुसार कर्म बंधनों से मुक्त डॉ. अमृतलाल गांधी लिये राज्य स्तर पर ताम्रपत्र से होने पर आत्मा हल्की होने के कारण एम.ए., पी.एच.डी., अलंकृत। ऊपर की ओर उठती है और वह एल.एल.बी. लोक के अग्रभाव में स्थित हो जाती श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७१) उपयोग उपभोग मध्य, अन्तर बड़ा विशेष । जयन्तसेन समझ लिया, फिर नहीं किंचित क्लेश ।। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है जिसे जैन दर्शन में "सिद्ध शिला" कहा गया है । मुक्ति, निर्वाण, परिनिर्वाण, सिद्धावस्था आदि भी मोक्ष के ही नाम हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीव एक द्रव्य है और द्रव्य लोक में रहते हैं। जीव का ऊर्ध्वगामी स्वभाव होने के कारण वह लोक के अग्रभाव में स्वतः ही पहुँच जाता है। दीपक की लौ का स्वभाव ऊपर जाता है, वैसे ही आत्मा का स्वभाव भी ऊपर जाता है । कर्म के कारण उसमें भारीपन आ जाता है । अतः वह भव-भ्रमण करती रहती है परन्तु कर्म मुक्त होने पर स्वाभाविक रूप से ही आत्मा की मोक्ष की दिशा में ऊर्ध्वगति होती हैं । जब तक कर्म पूर्ण रूप से क्षय नहीं होते, तब तक आत्मा का शुद्ध स्वभाव छिपा रहता है जैसे बादलों में सूर्य । परन्तु बादलों के हटते ही जैसे सूर्य पुनः अपने पूर्ण प्रकाश के साथ चमकने लगता है, वैसे ही आत्मा से कर्मों का आवरण हटते ही आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव में चमकने लगती है । परन्तु सूर्य पर तो कभी कदाचित् पुनः बादल आ सकते हैं लेकिन आत्मा एक बार कर्म मुक्त होने के बाद फिर कभी कर्मों से आवृत नहीं होती है। जैन दर्शन के अनुसार "दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः " कहा गया है अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चारित्र, मोक्ष के मार्ग है । इसमें हमें तप को और जोड़ना चाहिये क्योंकि महावीर सहित अनेक तीर्थकरों एवं सिद्ध पुरुषों ने घोर तपस्या द्वारा ही अपने कर्मों की निर्जरा की है परन्तु यह दर्शन, ज्ञान और चारित्र सही होना चाहिये। जिसके लिए जैन दर्शन में 'सम्यक्' शब्द का प्रयोग किया है। ज्ञान से तत्त्वों की जानकारी होती है और दर्शन से तत्त्वों पर श्रद्धा आती है । चारित्र से आते हुए कर्मों को रोका जाता है और तप द्वारा आत्मा से बंधे हुए कर्मों की निर्जरा होती है । अतः इन चारों उपायों से कोई भी रुकावट नहीं है। जिसने भी कर्म बंधन को तोड़कर आत्मगुणों को प्रकट कर लिया, वही मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी है। जैन दर्शन में गुणों का महत्त्व है, व्यक्ति, जाति, लिंग, कुल, संप्रदाय आदि किसी अन्य का कोई महत्त्व नहीं है । इसीलिये कहा गया है कि "मनुष्य जन्म से नहीं, अपितु कर्म से महान बनता है।" श्रीमद् जयनासेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण अतः निष्कर्ष रूप में, कहा जा सकता हैं कि जहाँ परमात्मवादी विचारधारा वाले धर्मों की मान्यता है कि परमात्मा का भक्त बनने में ही आत्मा की सार्थकता है, वहाँ जैन धर्म में आत्मा को परमात्मा और भक्त को भगवान बनने का पूर्ण अधिकार है। जीवन के इस चरम लक्ष्य को साधक अपनी ही साधना द्वारा चौदह गुण स्थानों में आत्मा के क्रमिक आध्यात्मिक विकास द्वारा प्राप्त कर सकता है । जैन दर्शन के अनुसार मुक्ति किसी दूसरे के हाथ की चीज नहीं है अपितु किसी भी आत्मा की मुक्ति उसी के हाथ में है । यहीं 'अपना हाथ जगन्नाथ' वाली कहावत लागू पड़ती है । निम्न श्लोक में यह बात भली क्राँति स्पष्ट हो जाती है : स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते । उन्मुक्त संवाद की अमोघ दृष्टि का शेष भाग (पृष्ठ ६९ से) भारतीय जनता की संस्कृति का रूप सामासिक है। उसने धीरे-धीरे बढ़कर अपना आकार ग्रहण किया है। इस संस्कृति में समन्वयन की तथा नूतन बातों - सिद्धान्तों को पचानेकी, पचाकर आत्मसात कर लेनेकी अद्भुत योग्यता है । इसी शक्ति के कारण भारत विकसित होता रहा । इसके मूल में स्याद्वाद की दृष्टि है । स्याद्वाद जैन धर्मका अनूठा और उन्मुक्त दर्शन है। भाषा के आवरण में छिपे सत्य को अनावृत्त करने का माध्यम ही स्याद्वाद है। आचारांग सूत्र में (१/३/३) कहा गया है- सच्चस्स आणाए उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ. अर्थात् सत्य की आज्ञा में प्रस्तुत बढ़ता हुआ मेधावी साधक मृत्युको जीत लेता है। स्याद्वाद इस साधक की आरती उतारता है। (७२) अर्थात् आत्मा स्वयं अपना कर्म करती है और उसका फल भोगती है। अपने कर्म बंधनों के कारण ही वह संसार परिभ्रमण करती है तथा पुरुषार्थ द्वारा मुक्ति प्राप्त करती है । आज के युग में वैचारिक विषमताने शीत युद्ध का वातावरण तैयार कर रखा है । अनेकांत तथा स्याद्वाद द्वारा समता, एकता, सहभाव और बंधुता का वातावरण तैयार किया जा सकता है। स्यादवाद नयी मनुष्यता के लिए परम आश्वासक तत्व है स्याद् इसीकी मदद से मानवता का उपकार हो सकता है । “मोक्ष में आत्मा अनन्त सुखमय रहता है, उस सुख की न कोई उपमा है और न कोई गणना ही ।" भगवान महावीर मधुकर मौक्तिक संकेतपूर्वक साध्य की ओर प्रेरित करने वाले, साध्य की ओर गतिशील करने वाले आराध्य अरिहंत परमात्मा हमें जीवन का सही स्वरूप समझाते हैं। हमें यदि अपने सच्चे स्वरूप को समझना है, तो अरिहंत परमात्मा को आराध्य बना कर अरिहंत परमात्मा की वाणी को अपने जीवन में उतारना होगा और उनके प्रवचन का मनन-चिन्तन करना होगा; फिर हमें यह मालूम हो जाएगा कि यद्यपि सिद्ध पद साध्य है, फिर भी अरिहंत परमात्मा उस साध्य की ओर हमें ले जाते हैं, इसलिए अरिहंत पद भी आराध्य है। यदि हम आराध्य के निकट जाते हैं और उन्हें समझते हैं, तो साध्य की दिशा भी मिल जाती है और जब साध्य की दिशा की ओर आगे बढ़ते हैं, तो सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है। • जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' 100 जिसने जीता स्वयं को जीत लिया संसार । जयन्तसेन अखंड है, उस की जय जयकार | Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की उन्मुक्त विचार-क्रान्तिः अनेकान्त-दर्शन (डॉ. श्री. राजेन्द्रकुमार बंसल) सत्यान्वेषण का आधार ॐ चेतन एवं जड़ जगत विविधता लिये हुये है । प्रत्येक पदार्थ का अपना-अपना स्वभाव या विशिष्ट गुण-धर्म होता है जिनकी परिसीमा में उनकी अवस्था में नित परिवर्तन होता रहता है । पदार्थों के गुण-धर्म की अवस्थाओं का परिवर्तन भी भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों के अनुसार विचार, चिंतन एवं अभिव्यक्ति का विषय बनता है । प्रत्येक व्यक्ति की ज्ञान-क्षमता, रुचि, प्रकृति एवं दृष्टिकोण आदि पृथक-पृथक होते हैं । इनकी विभिन्नता एवं विविधता एक सामान्य तथ्य है जबकि एकता-समानता अपवाद स्वरूप ही प्राप्त होती है। पदार्थों की स्वभावगत रहस्यात्मकता, परिवर्तनजन्य विविधता, विचित्रता एवं ज्ञाता के दृष्टिकोणों की भिन्नता आदि कारणों से पदार्थों का स्वरूप दृष्टिभेद एवं मतभेद का विषय बनता है । इसी कारण विश्व में वस्तु स्वरूप की यथार्थता के सम्बन्ध में विवाद मतभेद, विरोध, वैमनस्य एवं विषमता युक्त व्यवस्था सर्वत्र दिखायी देती है । वैचारिक स्तर पर एकांतवादी दृष्टिकोण एवं आग्रह के कारण ही मानव इतिहास की ऊषाकाल से लेकर अब तक विश्व में सर्वत्र अप्रिय एवं आत्मघाती घटनायें घटती रही हैं जिससे सत्यान्वेषण का मार्ग अवरुद्ध हुआ है और सत्य ज्ञान की परिधि के परे होता गया है । सत्य का उपासक पुजारी अज्ञानता के गह्वर में भ्रमित होता रहा है । अस्तु आत्मोत्थान एवं स्वच्छ सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना हेतु वैचारिक क्षेत्र में उन्मुक्त चिंतन आवश्यक है। उन्मुक्त - चिंतन : आस्था की दिशा: मन के विचार एवं चिंतन की प्रक्रिया स्वस्थ एवं उन्मुक्त हो, यह इस बात पर निर्भर करता है कि चेतन एवं जड़ जगत के स्वरूप तथा उनके सम्बन्धों के प्रति हमारी मान्यता कैसी है । यदि हमारी मान्यता वस्तु स्वरूप के अनंत गुण-धर्म एवं उनके परिवर्तनशील स्वरूप के अनुरूप हो, तो निश्चित ही हम यथार्थ सत्य के निकट होंगे । किन्तु यदि हमारी दृष्टि स्थूल रूप से वस्तस्वरूप की मात्र बान्य अवस्था पर ही हो और वह भी "कोले और नीम चढ़े" के अनुसार एकान्तिक आग्रहयक्त हो तो जद चेतन पदार्थों के सम्बन्धों के प्रति हम अनभिज्ञ ही रहेंगे । ऐसी स्थिति में वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हमें नहीं हो सकेगा और हमारी स्थिति “कूपमण्डूक" जैसी होगी । इतना ही नहीं सत्यान्वेषण भी दृष्टि की विशालता के अभाव में असंभव है । सत्यान्वेषी व्यक्ति मानसिक धरातल पर विविध वैचारिक प्रयोग वस्तुस्वरूप के अनेक धर्मात्मक स्वभाव के अनुसार उन्मुक्त चिंतन-पद्धति द्वारा करता है जिसे जैन दर्शन में अनेकांत दर्शन के नाम से सम्बोधित किया गया है। दृष्टा एक, दृष्टि अनेक : अनेकांत दर्शन : जगत की प्रत्येक वस्तु अनंत गुण एवं धर्मात्मक है । गुण से तात्पर्य वस्तु के निरपेक्ष स्वभावरूप गुणों से है, जो बिना किसी अपेक्षा के वस्तु में विद्यमान रहते हैं और जिनकी अवस्थाओं मे सदैव परिवर्तन होता रहता है । जैसे आत्मा के ज्ञान, दर्शन, आनंद, सुख एवं शक्ति आदि ये गुण हैं । धर्म का तात्पर्य वस्तु के उन परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले गुणों से है जो सापेक्ष रूप से वस्तु में विद्यमान रहते हैं जैसे आत्मा की नित्यता-अनित्यता, वीतरागता-रागता एवं शुद्धता-अशुद्धता आदि । आत्मा के ये गुणरूप सापेक्षिक दृष्टि के विषय हैं। आत्मा नित्य (शाश्वत) होते हुये भी संसार अवस्था में देहाश्रित परिवर्तन की प्रक्रिया के कारण अनित्य भी है । इसी प्रकार स्वभाव दृष्टि से आत्मा वीतरागी, शुद्ध एवं अनंत ज्ञान से परिपूर्ण है किन्तु वर्तमान संसार अवस्था में यह रागी, अशुद्ध एवं अज्ञानी भी है। यह धर्म परस्पर विरोधी जैसे अवश्य प्रतीत होते है किन्तु यह विरोध वस्तु के स्वभाव के अनुसार संभाव्य स्तर तक ही होते हैं जैसे आत्मा की नित्यता एवं अनित्यता धर्म आदि, न कि चैतन्यता-अचैतन्यता । यहां यदि आत्मा अचैतन्यत्व को प्राप्त हो जावे तो वह अपना स्वभाव ही खो देगा, जो कभी संभव नहीं है। मा वस्तु के गुण-धर्मों की अवस्था में ऊर्ध्वगामी या अधोगामी चक्रीय परिवर्तन सदैव होते रहते है जिसका परिणाम विकास एवं पतन के रूप में दृष्टिगोचर होता है | वस्तु स्वभाव के कारण यह परिवर्तन अनायास न होकर क्रमबद्ध रूप से होता है । परिवर्तन की यह प्रक्रिया वस्तु के त्रिकाली गुण-धर्म की धुरी से संचालित होती है। दूसरे शब्दों में निरंतर परिवर्तनशील वस्तुएं अपने स्वभाव एवं सत्ता से विलग-विचलित नहीं होती । यही उनकी शाश्वतता एवं ध्रुवत्व का कारण है । वस्तु स्वभाव की इस विशेषता के कारण इसके सम्बन्ध में मतभेद पैदा होना स्वाभाविक है । यह मतभेद वस्तु स्वरूप में न होकर ज्ञाता की दृष्टि में होता है । वस्तु स्वरूप तो जैसा है, वैसा ही है | जब विशाल या अनेकांतवादी दृष्टि से उसका अवलोकन किया जाता है तब वस्त स्वरूप के विराट सत्य का दर्शन हो जाता है अन्यथा नहीं । ऐकांतिक एवं आग्रही दृष्टि से वस्तु के सत्यांश का ही बोध हो पाता है । इस प्रकार वस्तु के अनंत गुण एवं धर्मों का बोध अनेक अनंत दृष्टिकोणों से ही हो सकता है । इसमें एक दृष्टा अनेक दृष्टियों से वस्तु स्वरूप को देखता है । यही अनेकांत दर्शन का उद्घोष है। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७३) विचित्र बातों से भरा हुआ है यह संसार । जयन्तसेन निज हित की, बात करो स्वीकार || Jain Education Interational Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांत का सैद्धान्तिक पहलू : अनेकांत "अनेक" और "अंत" इन दो शब्दों से मिलकर बना है। अनेक का अर्थ है एक से अधिक, जो दो से लेकर अनंत संख्या तक हो सकते है | "अंत" का अर्थ वस्तु के गुण एवं धर्म से होता है । जब "अनेक" शब्द का उपयोग वस्तु के गुणों के सदभम किया जाता है तब उसका तात्पर्य वस्त के अनंत गणों से होता है और तब "अनेक" शब्द का उपयोग दो के संदर्भ में किया जाता है तब उसका तात्पर्य वस्तु के दो विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों से होता है । इस प्रकार अनंत गुण तथा परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दो धर्मों का एक ही वस्तु में सद्भाव स्वीकार करना अनेकांत है । व्यावहारिक दृष्टि से अनंत गुण-धर्म से युक्त जड़ चेतन वस्तुओं के सर्वअंश ज्ञान हेतु उन्हें अनेक एवं सम्पूर्ण दृष्टिकोणों से अवलोकन करना ही अनेकांत है। वस्तु के गुण निरपेक्ष होते हैं, जिनका ज्ञान ऐकांतिक दृष्टिकोण या नय पद्धति से होता है । यह ऐकांतिक दृष्टि भी दो प्रकार की होती है। सम्यक् एकांत एवं मिथ्या एकांत | जब वस्तु के गुणों को सापेक्ष दृष्टिकोण (नय) से देखा जाता है तब वह सम्यक् एकांत कहलाता है और जब उन्हें निरपेक्ष दृष्टिकोण से देखा जाता है तो वह मिथ्या एकांत कहलाता है । सम्यक् एकांत से वस्तुस्वरूप के अंश का यथार्थ ज्ञान होता है जबकि मिथ्या एकांत से उसके अंश का अयथार्थ ज्ञान होता है क्योंकि इसमें अन्य गुणों का अभाव कर दिया जाता है । इसी प्रकार वस्तु के धर्म सापेक्ष होने के कारण अनेकांत दृष्टिकोण से ही उनका ज्ञान होता है। अनेकांत भी सम्यक् अनेकांत एवं मिथ्या अनेकांत दो प्रकार होता है । जब वस्तु के विरोधी धर्मों को सापेक्षिक रूप से अनेक दृष्टिकोणों के संदर्भ मे देखा जाता है तब वह सम्यक् अनेकांत कहलाता है इसे जैनदर्शन में श्रुत प्रमाण कहा गया है और जब वस्तु के विरोधी धर्मों को निरपेक्ष रूप से अनेक दृष्टिकोणों के संदर्भ में देखा जाता है तब उसे मिथ्या अनेकांत कहते हैं जिसे प्रमाणामास भी कहा जाता है । सम्यक अनेकांत से वस्तुस्वरूप के विरोधी धर्मों का सापेक्ष ज्ञान होता है जो खण्ड-खण्ड सापेक्ष ज्ञान के अंशों से सर्वांश का बोध कराता है जबकि मिथ्या अनेकांत में दो विरोधी धर्मों का एक समय में अस्तित्व सम्भव न हो सकने के कारण वस्तुस्वरूप का लोप ही कर देता है। अनेकांत - दर्शन द्वारा सर्वनयात्मक वस्तुस्वरूप का बोध: पाएकांत और अनेकांत के उक्त वर्गीकरण को निम्न सूत्र द्वारा समझा जा सकता है जो सर्वनयात्मक वस्तु - स्वरूप का बोध कराता है :(१) एकांत सम्यक् एकांत (नय) = निरपेक्ष गुण + सापेक्ष दृष्टिकोण मिथ्या एकांत (नयाभास) निरपेक्ष गुण + निरपेक्ष दृष्टिकोण (२) अनेकांत : सम्यक् अनेकांत (प्रमाणज्ञान) = सापेक्ष धर्म (गुण) + सापेक्ष दृष्टिकोण समूह मिथ्या अनेकांत (प्रमाणाभास) = सापेक्ष धर्म (गुण) + निरपेक्ष दृष्टिकोणसमूह (३) अनेकांत दर्शन: अनेकांत दर्शन (सर्वनयात्मक) - सम्यक् एकांत + सम्यक् अनेकांत अनेकांत में अनेकांत REETIRE उक्त विवचेन से स्पष्ट होता है कि गुणों की दृष्टि से वस्तु का स्वरूप सम्यक् एकांत एवं धर्मों की दृष्टि से सम्यक् अनेकांत होता है । जैन दर्शन में सम्य्क् एकांत को नय (दृष्टि) एवं सम्यक अनेकांत को प्रमाण (ज्ञान) कहा जाता है । इस प्रकार वस्तु का स्वरूप सर्वथा अनेकांतवादी न होकर एकांतवादी भी है जो यह सिद्ध करता है कि जैनदर्शन अनेकांत में भी अनेकांत की व्यवस्था को स्वीकृत करता है । ऐसा न होने पर अनेकांत भी एकांत रूप हो जावेगा जो वस्तुस्वरूप के प्रतिकूल है क्योंकि वस्तु स्वरूप अनेकांतात्मक होने से सर्वनयात्मक होता है | अनेकांत दर्शन का सार इस तथ्य में गर्भित है कि वस्तुस्वरूप के सर्वअंश के ज्ञान हेतु उसे सापेक्ष रूप से ही ग्रहण करना चाहिये। अनेकांत के भेद : विविध एकांतवादियों के मध्य समन्वय हेतु अनेकांत-दर्शन के चार भेद वर्णित किये गये हैं जो इस प्रकार है :(१) कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य आध्यात्मिक गूढ़ तत्वों से युक्त चिन्तनशील रचनाओं का जैन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन । भगवान महावीर २५०० वें निर्वाण वर्ष में आपकी प्रेरणा से अहिंसा सेवा समिति का गठन । 'तीर्थंकर महावीर' स्मारिका का प्रकाशन | आपके प्रयलों से शहडोल में तीर्थंकर महावीर संग्रहालय एवं उद्यान' का निर्माण । कई जैन संस्थाओं के सदस्य, सलाहकार तथा पदाधिकारी । आपकी सेवा के लिए स्वर्णपदक पुरस्कृत। सम्प्रति - कार्तिक प्रबंधन ओरियण्टल पेपर मिल्स, अमलाई (जिला. शहडौल) डॉ. राजेन्द्रकुमार बसल एम.ए., पी.एच.डी., एल.एल.बी. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण दोलत की दो 'लत' बड़ी, समझे वही सुजान । जयन्तसेन समझ विना, दोलत से ही हान । Jain Education Interational Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) कथंचित् सामान्य, कथंचित् विशेष तोड़ने-जोड़ने की द्वैध भूमिका: (३) कथंचित् अवाच्य, कथंचित् वाच्य तथा अनेकांत दर्शन अध्यात्म के क्षेत्र में तोड़ने एवं लौकिक क्षेत्र (४) कथंचित् सत् कथंचित् असत् । में जोड़ने का कार्य करता है । अनेकांत की यह द्वैध भूमिकायें बाय दृष्टि से असंगत एवं विरोधी प्रतीत होती हुयी भी एक यहां पर कथंचित् शब्द का अर्थ "अपेक्षा या ऐसा भी है", सिक्के के दो पहलू के समान हैं जो अनेकांत में अनेकांत का बोध से है । कथंचित् शब्द पूर्वाग्रह, दुराग्रह एवं हठवादिता को दूरकर कराती है । अखण्ड-अभेद ज्ञान स्वभावी आत्मा के त्रिकाली धर्म वस्तु स्वरूप के विविध धर्मों के अस्तित्व को स्वीकृत करता है। की प्राप्ति वर्तमान अज्ञान रूप खण्ड भेद दृष्टि को तोड़कर ही जब हम वस्तु स्वरूप के त्रिकाली स्वभाव की ओर दृष्टिपात करते प्राप्त की जा सकती है और जब तक अनेकांत दर्शन द्वारा खण्डहैं तो वह हमें नित्य, सामान्य, अवाच्य एवं सत् स्वरूप दिखायी । 'खण्ड ज्ञान को जोड़ा नहीं जाता तब तक अखण्ड परिपूर्ण ज्ञान का देता है जबकि अवस्था विशेष (पर्याय) की दृष्टि से वह अनित्य, दर्शन संभव नहीं है । इस प्रकार विचार दृष्टि से अभेद-अखण्ड विशेष वाच्य एवं असत् रूप में सामने आता है । यदि वस्तुस्वरूप ज्ञान की प्राप्ति खण्ड-खण्ड एवं भेदज्ञान के समन्वय अर्थात् जोडने के त्रिकाली स्वभाव या अवस्था विशेष को ही उनका स्वरूप मान के द्वारा ही संभव है जो अंततः उस समन्वित खण्ड एवं भेदज्ञान लें तो वह एकांत दृष्टि होगी और हमें वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान को तोडकर (अभावकर) ही प्राप्त होता है। चरम लक्ष्य की दृष्टि नहीं हो सकेगा | वस्तुतः वस्तु के स्वरूप में खण्ड या भेद नहीं से खण्ड-खण्ड ज्ञान का जोड़ हेय या त्याज्य है जबकि समन्वित होता है वह तो अखण्ड अभेद रूप है । भेद तो दृष्टिकोण में ज्ञान का सद्भाव उपादेय एवं सारभूत है | विचार प्रक्रिया की निहित होता है जिसका कारण आग्रह एवं ज्ञान की अल्पता है। इतनी तीक्ष्ण एवं पैनी पद्धति अनेकांत दर्शन से ही सुलभ हो विराट् सत्य का दर्शन: सकती है जो जिन शासन के विचार क्षेत्र का मूलाधार है। अनेकांत दर्शन ज्ञान की अल्पता दूरकर पूरक का कार्य अनेक दृष्टाः अनेक दृष्टि: करता है । यह वस्तु के खण्डित ज्ञान अंश का समन्वय कर विश्व ने युग परिवर्तन की प्रक्रिया में समय-समय पर अनेक विपनने या परिवर्तन की पक्रिया में समय अखण्ड सत्य का यथार्थ बोध करता है । इस प्रकार अनेकांत दर्शन महान विचारकों एवं सुधारकों को जन्म दिया है । उन्होंने अपनेविवेकशील व्यक्ति का एक सशक्त उपकरण है जिसके माध्यम से अपने समय की समस्याओं के संदर्भ में चिंतन कर तत्कालीन विराट सत्य का दर्शन होता है | इसका संबंध विचार क्षेत्र से है जो अवस्था के संदर्भ में वस्तु स्वरूप की यथार्थता से विश्व को अवगत चिंतन की प्रक्रिया द्वारा हमे सत्य के समीप पहुंचाता है । चिंतन कराया । यह वस्तु स्वरूप परिवर्तन की प्रक्रिया में अवस्थात्मक विचार से आचरण निर्देशित एवं प्रभावित होने के कारण अनेकांत दृष्टि से बदलता रहा जिसके कारण उसकी व्याख्या में भी परिवर्तन दर्शन अहिंसक एवं अपरिग्रही जीवन के लिये एक अनिवार्य शर्त होता रहा । वस्तुस्वरूप की ये विविध व्याख्यायें कालांतर में एकांत है । इस दृष्टि से अनेकांत दर्शन वह केन्द्रबिन्दु है जो हमें न केवल वादी दृष्टिकोण के कारण मतभेद, विवाद एवं वैमनस्य का कारण सत्य के दर्शन कराता है किन्तु आत्मा के स्वरूप अर्थात् "धर्म" की बनी । हर एक विचारक एवं उनके अनुयायियों ने उनके द्वारा प्राप्ति में एक विश्वसनीय एवं अपरिहार्य सहयोगी का कार्य करता प्रतिपादित समर्थित वस्तु स्वरूप के एक अंश को ही पूर्ण सत्य है । वस्तुतः जीवन में धर्म का सूत्रपात ही अनेकांत दर्शन की मानकर "अपनी ढपली अपनी राग" अलापा । उस प्रवृत्ति के स्वीकृति के साथ होता है जो अहिंसक जीवन का मूलभूत आधार कारण मानव जगत विविध धर्म, सम्प्रदायों एवं वर्गपंथों में विभक्त होता गया किन्तु उसे परिपूर्ण सत्य के दर्शन नहीं हो सके । चैतन्य स्वोन्मुखीवृत्ति एवं सामाजिक सहिष्णुता का उदय आत्म तत्त्व एवं विशाल जड़ जगत के यथार्थ दर्शन - ज्ञान से वह अनेकांत दर्शन से आध्यात्मिक एवं लौकिक दोनों उद्देश्यों वंचित हो गया । यह प्रवृत्ति तीर्थंकर महावीर के जीवन काल में अपनी पराकाष्ठा पर थी। पदार्थों के स्वरूप का यथार्थ बोध होता है जिसके कारण आत्मस्वरूप महावीर की देनः एकांत के बीहड़ में आत्मा की खोज: की पहिचान, ज्ञान, अनुभूति एवं अनुरूप आचरण होता है । तीर्थंकर महावीर के प्रतिपादन का केन्द्र बिन्दु आत्मा था । आत्मा की स्वमुखी वृत्ति का विकास होकर परोन्मुखी वृत्ति का कोई विचारक आत्मा को नित्य कोई अनित्य और कोई क्षणिक परिहार होता है । इस प्रकार परोन्मुखी वृत्ति के जनक पर-पदार्थों मानता था । उन्होंने वस्तु स्वरूप के अनेकांत दर्शन को दृष्टिगत के प्रति ममत्व भाव को तोड़ना अनेकांत दर्शन का प्रथम लक्ष्य है। कर कहा कि आत्मा द्रव्य दृष्टि से, लौकिक दृष्टि से अनेकांत दर्शन व्यक्ति एवं समाज के मध्य नित्य, देह दृष्टि से अनित्य एवं पल अंतर-बाय मतभेद एवं विवाद आदि का निराकरण, सामाजिक, प्रतिपल पर्याय परिवर्तन की दृष्टि सद्भाव एवं शांति की स्थापना में सहायक होता है । अनेकांत से क्षणिक भी है । यदि एक दृष्टि दर्शन के अप्रत्यक्ष प्रभाव का ही कारण है कि भारत में विविध से ही उसे देखा जायेगा तो सम्पूर्ण प्रतिकूल संस्कृति, सभ्यता एवं मान्यता वाले व्यक्ति सहिष्णुतापूर्वक आत्मगुणों का ज्ञान नहीं हो एक साथ रहने में समर्थ हो सके । इस प्रकार अनेकांत दर्शन सकेगा । इस प्रकार उन्होंने जीवन में समन्वय दृष्टि प्रदान करता है जो इसका "उप उत्पाद" वस्तुस्वरूप के अनेकांत दर्शन को या गौण लक्ष्य है। प्रतिपादित कर विविध मत-मतान्तरों श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७५) जितने जग में मनुज हैं, सब के भिन्न विचार । जयन्तसेन पन घट अति, स्वाद अनेक प्रकार ।। . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . एवं दृष्टिकोणों के मध्य समन्वय का मार्ग प्रस्तुत कर यथार्थ सम्यक् सांसारिक समन्वय एवं एकता का सेतु: ज्ञान का बोध कराया । इसके माध्यम से महावीर ने विविध धर्मों, अनेकांत दर्शन की उपादेयता वस्तुस्वरूप के यथार्थ ज्ञान वर्गों, सम्प्रदायों एवं मत-मतान्तरों में विभक्त मानवता को एक सूत्र तथा धार्मिक एवं साम्प्रदायिक मतभेदों के निराकरण तक ही में पिरोने का सहज सरल एवं सर्वत्र सुलभ सूत्र समर्पित किया। सीमित नहीं है । जीवन के विस्तृत व्यवहार क्षेत्र में समन्वय एवं अनेकांत दर्शन इस प्रकार वस्तु स्वरूप से सम्बन्धित मतभेद एकता की दृष्टि से यह चमत्कारी औषधि है । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एवं विवाद आदि को दूरकर विविध दृष्टिकोणों को जोड़ने एवं जबकि विश्व आर्थिक दृष्टि से पूंजीवाद एवं साम्यवाद तथा समन्वित करने की उन्मुक्त वैचारिक क्रान्ति थी जिसके द्वारा वस्तु राजनैतिक दृष्टि से लोकतंत्र एवं अधिनायकत्व (तानाशाही) के द्वंद्व स्वरूप के खण्ड-खण्ड विभक्त ज्ञान का उपयोग उसकी समग्रता- में फंसा हुआ है, अनेकांत दर्शन इन विरोधी विचारधाराओं के सम्पूर्णता जानने हेतु किया जाने लगा और जिसके माध्यम से मध्य समन्वय हेतु प्रभावकारी सेतु है । आर्थिक एवं राजनैतिक अखण्ड स्वरूप का ज्ञान उसके स्वभाव की परिपूर्णता के संदर्भ में क्षेत्रों में इन दोनों परस्पर विरोधी विचारधाराओं के विविध प्रयोग संभव हुआ। निर्ममता से मानवता के ऊपर किये जा रहे हैं । परस्पर अविश्वास अहिंसक जीवन का आधार : एवं घृणा के वातावरण में समूची मानव जाति के चिरंतन विकास की गति अवरुद्ध हो गयी है । मानवीय महत्तम कल्याण के आत्मा अपने ज्ञान स्वभाव में स्थिर रहे, यही उसका सहज आदर्शों की ओट में मानव जीवन यंत्रवत् बन गया है । आत्मशांत एवं अहिंसक भाव है | आत्मा में उठने वाले मोह, राग, द्वेष । वैभव एवं आत्मिकगुणों के विकास के स्थान पर भौतिक समृद्धि के परिणाम भाव-हिसा है जबकि प्राणी को मारना, सताना, अग- को वरीयता दी जा रही है। हाला भंग करना आदि द्रव्य हिंसा कहलाता है । अहिंसक जीवन का संघर्ष, स्पर्धा, अविश्वास, अवसरवाद एवं भौतिकवाद की प्रारम्भ स्वच्छ-निर्मल वैचारिक भाव भूमि से होता है | जब विचार लम्बी दौड़ में कब महानाश का बिन्दु मिल जावे, कोई कल्पना नहीं एकांगी, आग्रही होते हैं तब जीवन भी तदनुसार व्यक्तिहित में की सकती है । ऐसी स्थिति में "अनेक धर्मात्मक वस्तुस्वरूप पर केन्द्रित होकर हिंसक हो जाता है । ऐसे व्यक्ति के आचार में आधारित उन्मुक्त चिंतन पद्धति युक्त अनेकांत दर्शन ही एक मात्र अहिंसा का प्रवेश होना अशक्य है । ठीक इसके विपरीत उन्मुक्त ऐसा समन्वयकारी मार्ग है जो सांसारिक मतभेद, विवाद, वैमनस्य विचार चिंतन एवं अनेकांतिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति वस्तु स्वरूप एवं विषमता पूर्ण आचार-विचार की गहरी खाई पाटने की क्षमता की विराटता को सम्यक् रूप से समझते हुये मानसिक एवं रखता है और वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध कराकर आत्मसामाजिक धरातल पर सहज ही अहिंसक आचार पद्धति अपनाता कल्याणकारी, अहिंसक, अपरिग्रही समाज व्यवस्था द्वारा सर्वोदय हुआ अपरिग्रही जीवनयापन करता है। यही वह बिन्दु है जहां से का ठोस आधार प्रस्तुत करता है । आवश्यक है कि मस्तिष्क के जीवन में धर्म का प्रवेश होता है । इस दृष्टि से अनेकांतिक दर्शन बन्द द्वार खोलकर हम मिथ्या. एकांतवादी एवं अज्ञानयक्त दषित से जीवन में अहिंसक आचार एवं अपरिग्रही जीवन को सशक्त वायु का निष्कासन करे और अनेकांत दर्शन की निर्मल विचारआधार मिलता है, जो अन्यथा संभव नहीं है। ज्ञान-रश्मियों से अंतरतम को आलोकित होने दें तभी तीर्थकर महावीर की, लोककल्याणकारी साधना होगी । मधुकर-मौक्तिक भगवान् ने जो कहा है, वह सत्य है । असत्य बिल्कुल नहीं है । यहाँ तो प्रसंग आने पर हमें किसी सत्य की अनुभूति होती है । जब हम अरिहंत परमात्मा द्वारा प्रदत्त ज्ञान-चक्षुओं से इस जगत् को देखते हैं, तब यह अनुभव होता है कि अरिहंत से दूर रहने के कारण हम कितने दुःखी हो गये हैं। अरिहंत के निकट रह जाते तो दुःखी नहीं होते। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि मधुकर' हर व्यक्ति किसी-न-किसी को अपना साध्य बनाता है । हो सकता है, किसी का साध्य शुद्ध हो और किसी का अशुद्धः पर साध्य हर एक जीव का होता ही है। किसी का साध्य अमृत है, किसी का जहर, पर साध्य हर एक का है। सभी अपना साध्य पाने के लिए प्रयलशील हैं। ज्ञानी कहते हैं कि यदि साध्य उल्टा है, तो काम भी उल्टा ही होगा और यदि साध्य सीधा है, तो काम भी सीधा ही होगा। हमारे लिए सीधा साध्य यदि कोई है, तो वे पंच परमेष्ठी ही हैं। यद्यपि हमारा साध्य सिद्ध पद है, फिर भी उस साध्य की स्थिति प्राप्त कराने वाले पंच परमेष्ठी हैं, इसलिए पंच परमेष्ठी भी साध्य है। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७६) अलंकरण है दान का, जिस मानव के पास । जयन्तसेन मिले उसे, यशोकीर्ति अधिवास ।। . Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-कला की भारतीय-संस्कृति को अद्भुत देन (डॉ. सुरेन्द्रकुमार आर्य) भारतीय - संस्कृति में समन्वय का तत्त्व प्रमुख रहा है । इसमें वैदिक, बौद्ध, जैन, शाक्त, और गाणपत्य व शाक्त-मत का अभूतपूर्व समन्वय रहा है । इन विभिन्न धर्मों में सैद्धान्तिक भेद होते हुए भी सभी का लक्ष्य समान था । यह लक्ष्य भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र था कि धर्म और नीति समानरूप से एक दूसरे से जीवन्तता प्राप्त करें । नैतिक आदर्शों की स्थापना में मैत्री, बंधुत्व, अहिंसा, सत्याचरण सभी धर्मों ने स्वीकार किये । जैनकला में भी जीवन की तालबद्ध जीवंतता के दर्शन होते हैं । स्थापत्य मर्ति और चित्रकला के क्षेत्र में जैनधर्म ने भी सौंदर्यप्रधान दृष्टि को स्थापित किया । तीर्थंकर मंदिरों के निर्माण में जहाँ एक ओर जैनदर्शन का गूढ़अर्थ सामान्य-जन को स्पष्ट हुआ कि सामाजिक कल्मष से ऊंचे उठकर दिव्य भाव से अनुप्राणित होकर मन-वचन और कर्म की शुद्धता को अहिंसा भाव से मंडितकर क्रमशः ऊपर उठकर प्रवेश द्वार, मंडप, गर्भगृह और शिखर तक पहुंचना है तो मूर्तिशिल्प में अपने आराध्य का अलौकिक स्वरूप जानकर उसमें अपने को समाहित कर मोक्ष की प्राप्तिकर, चिर-सौन्दर्य का प्रत्यक्षीकरण करना है । भगवान् महावीर ने एक ऐसे व्यापक दर्शन का निर्माण किया जो समस्त जीवों के लिये मंगलप्रद था । आनंद कुमारस्वामी के लेखों व मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से भारतीय कलाविदों का ध्यान जैनकला की ओर १७८४ ई. से गया और आज तक सपूण भारत म६४० स आधक स्थाना पर जन स्थापत्य, मूति एव चित्र की प्राप्ति होकर ऊपर बीसों पुस्तकें हिन्दी व अंग्रेजी में लिखी गई हैं । प्रस्तुत लेख में मध्यप्रदेश में जैन कला के खोजे गये नये स्थान व अवशेषों का दिग्दर्शन कराया गया है साथ ही साथ जो पूर्व में शोधकार्य हुए हैं उनका भी आकलन कर यह स्वरूप देने का प्रयास किया गया है कि समग्र प्राचीन भारतीय कला में जैनकला व उसमें भी मध्यप्रदेश का शैलीगत क्या योगदान है ? मध्यप्रदेश में जैनकला का जन्म व विकास का सर्वेक्षण प्रस्तुत किया है । मध्यप्रदेश में जैनकला का इतिहास गौरवमय रहा है। इस क्षेत्र में चौथी से लेकर पंद्रहवीं शताब्दी तक जैन संस्कृति अनेक रूपों में पल्लवित-पुष्पित हुई । भारत के अन्य धर्मों की अपेक्षा जैन धर्म में समता, अहिंसा एवं सम्यग् संकल्प को विशेष बल दिया गया । इस धर्म में नैतिकता, वैचारिकता का उन्नयन तथा आत्म-संयम का अनोखा संगम है । जैनधर्म में महावीर के एवं अन्य तीर्थंकरों के तपो-निष्ठ व्यक्तित्व को आदर्श माना गया है । यही कारण है कि जैनधर्म के शाश्वत सिद्धान्त में आजतक कोई अंतर नहीं आया है। मध्यप्रदेश में जैनकला के प्रमुख केन्द्र :- दशपुर के लिए जैन ग्रन्थों में वर्णन मिलता है कि यहां प्रद्योत के समय काष्ठ निर्मित महावीर प्रतिमा की स्थापना व उस पर उत्सव मनाया गया था । इस प्रतिमा को “जीवन्त स्वामी" की प्रतिमा कहा गया है अर्थात् महावीर के जीवन काल में ही इस प्रतिमा के प्रति जनता में पर्याप्त आदर भाव था । परन्तु विद्वान् इस कथन से सहमत नहीं है क्योंकि जैन संदर्भ बहुत बाद के हैं । इस आधार पर मध्यप्रदेश में कोई भी जैन- प्रतिमा गुप्तकाल से प्राचीन नहीं मिलती है । गुप्तों के बाद मध्यप्रदेश में प्रतिहार, कलचुरि, चंदेल, परमार नरेशों ने राज्य किया और इन राजाओं के संरक्षण में जैनकला का विकास तीव्रता से हुआ । मध्यप्रदेश में जैन धर्म के केद्रों के रूप में सिद्धक्षेत्र, अतिशय क्षेत्र तथा कलाक्षेत्र हैं । जो अपनी जैन मूर्ति एवं स्थापत्यकला की दृष्टि से प्रसिद्ध हैं | जैन परंपरा में सिद्धक्षेत्र उन स्थानों को कहते हैं, जहां पर निर्ग्रन्थ मुनियों में आत्म साधना द्वारा तप करके केवल-ज्ञान प्राप्त किया । ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उन्होंने जीवों को कल्याण के उपदेश दिये फिर वहां से मुक्त हो गये - ये स्थान हैं - पावागिरि, चूलगिरि, द्रोणगिरि, सोनागिरि, देशान्दिगिरि व सिद्धवरकूट | अतिशय क्षेत्र - अतिशय क्षेत्र उन क्षेत्रों को कहा गया है जहां जैन मुनियों के साथ कुछ अतिशय (चमत्कारिक घटना) हुआ । मध्यप्रदेश में अतिशय क्षेत्रों की संख्या इस प्रकार परिगणित की जा सकती है - चंदेरी, थूबोन, बाहुरिबंद, सिंहोनिया, पनागर, पटनागंज, बंधा. आहार, गोलाकोट पचराई, पपौरा, कण्डलपर कोनी, तालनपर. मक्सी पार्श्वनाथ बनैड़िया, बीना-बारहा, बूढ़ी चंदेरी, खन्दार, हस्तादौन इनमें से अनेक स्थानों पर जैन पुरातन संपदा बिखरी पड़ी है । प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक ने जैनतीर्थ मगसी पार्श्वनाथ के अवशेषों का विस्तृत अभ्यास कर मक्सीतीर्थ की पुरातात्विक मूर्तियों एवं उनका 'कलागत पक्ष' विषय पर पुस्तिका प्रकाशित की है जो प्रत्येक दर्शनार्थी को मक्सीतीर्थ पर निःशुल्क वितरित की जाती है। बनेडिया जी में जैन तीर्थंकर प्रतिमाएँ सुरक्षित हैं जो ९ वीं से १३ वीं शताब्दी के काल में निर्मित हुई थी। सभी प्रतिमाएँ कला के उन्नत स्वरूप को व्यक्त करती हैं। कलाक्षेत्र - मध्यप्रदेश में अनेक ऐसे स्थान भी हैं जहां ब्राह्मण शिल्प के साथ जैन शिल्प भी निर्मित हुआ - ऐसे स्थानों पर जैन मूर्ति- कला का विकास एवं उनका चरमोत्कर्ष भी देखा जा सकता है | ग्वालियर, अजयगढ़, त्रिपुरी, उदयपुर, बड़ोद, पठारी, विदिशा, मंदसौर, उज्जैन, खजुराहो, गुना, ईसागढ़, अंदार, गंधावल, बड़वानी, पचोर, सुंदरली, आष्टा, शाजापुर, शुजालपुर, वाण्याखेड़ी व सांवेर जिसे क्षमणेर नगरे कहा गया है आदि स्थानों पर जैन मूर्तियाँ, मंदिर व चित्र मिलते हैं। इन स्थानों पर प्राप्त जैन मूर्तिशिल्प के आधार पर एक विभाजन कालक्रमानुसार भी किया जा सकता है जो इस प्रकार होगा - (१) गुप्तकालीन शिल्प (२) मध्यकालीन (६००-९०० ई.) एवं (३) उत्तरकालीन (९०० ते १५०० ई.) शिल्प | मध्यप्रदेश के प्रमुख कलाकेंद्रों को भी क्षेत्र के आधार पर,विभाजित किया जा सकता है - (१) गोपादि-विध्यक्षेत्र के जैन श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७७) विद्यार्थी को चाहिए, कम निद्रा आहार । जयन्तसेन मानस शुचि, रक्खो विनय विचार ।। , Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाकेंद्र (२) मालवा क्षेत्र के जैन कला केंद्र (३) मध्यक्षेत्र के मंदिर में मिलता है, परन्तु यहां का जैनशिल्प भी कला के विकासजैनकला केंद्र व (४) छत्तीसगढ़ क्षेत्र के जैन कला केंद्र | क्रम को सूचित करता है । यहां के तीन प्रसिद्ध जैनमंदिर हैं - प्रथम क्षेत्र के अंतरगत ग्वालियर प्रमुख है । प्राचीनकाल में (१) पार्श्वनाथ मंदिर (२) आदिनाथ मंदिर (३) घंटाई मंदिर । यह नगर गोपाद्रिपुर के नाम से जाना जाता था । ग्वाल्हेर. प्रथम मंदिर विशाल तथा मूर्तिशिल्प से समृद्ध है । ब्राह्मण मंदिरों ग्वालियर के रूप में धीरे धीरे जाना जाता रहा है । जैन-ग्रन्थों में की भांति इसमें भी गर्भगृह की बाहय दीवारोंपर अग्नि, ईशान, इसे गोपगिरि, गोपाचलगढ़ और गोवागिरि कहा गया है। यहां पर नैऋत्य, बृहस्पति, यम, कुबेर, आदि देवता प्रदर्शित हैं । बीच-बीच जैन कला के अवशेष ९०० ई. के बाद के काल के मिलते हैं। में सुरसुन्दरिकाएँ, मृदंगवादक, वेणुवादक, अंकित हैं। मंदिर का प्रबंधकोष एवं प्रभावक चरित के अनुसार गोपाचलगढ़ पर जैन निर्माण १० वीं शताब्दी का माना जाता है। मूर्ति एवं स्थापत्य का निर्माण किया गया था। कनिंघम को १८४४ मंदिर क्रमांक २ आदिनाथ का मंदिर है, इसका स्थापत्य एवं ई. में महत्त्वपूर्ण जैन मंदिर के ध्वंसावशेष मिले थे। इस मंदिर का आयोजना वामन मंदिर के समान है। डॉ. कृष्णदेव ने अपने लेख निर्माण ११०८ ई. में हुआ था यहां से पद्मासन और खड्गासन “दि टेम्पल्स ऑफ खजुराहो इन सेन्ट्रल इंडिया" (एशन्ट इंडिया, मुद्रा में अनेक तीर्थंकर प्रतिमाएँ मिली हैं । ग्वालियर किले के अंक १५ पृ. ५५) में इसका निर्माण काल ग्यारहवीं शती का संग्रहालय में यहां से प्राप्त अम्बिका यक्षी और गोमेद यक्ष प्रदर्शित उत्तरार्द्ध माना है । घंटाई मंदिर में भी जैनमूर्ति अवशेष सुरक्षित हैं जिनका निर्माणकाल आठवीं शताब्दी निर्धारित किया गया है। हैं । एक पार्श्वनाथ की भव्य पद्मासना प्रतिमा खजुराहो संग्रहालय इसी काल की तीन स्वतंत्र जैन प्रतिमाएँ क्रमशः आदिनाथ, में सुरक्षित कर प्रदर्शन हेतु रखी गई है। यहां पर दसवीं से १२ पार्श्वनाथ व महावीर की मिली हैं। यहां एक चौवीस तीर्थंकर वीं शती के मध्य निर्मित लगभग २५० प्रतिमाएँ कलादीर्घा में अंकित किये हुए पद भी अवस्थित हैं । नंदीश्वर द्वीप सहित प्रदर्शित हैं। आदिनाथ तीर्थंकर की एक महत्त्वपूर्ण कलात्मक प्रतिमा भी यहां उज्जैन की प्रतिष्ठा प्राचीन सप्तपुरियों में की गई है । यह प्रदर्शित है जो गोपाद्रिकर की जैनकला का वैभवकाल प्रदर्शित एक प्रसिद्ध सांस्कृतिक केंद्र था और जैन धर्म की दृष्टि से भी यह करती है। एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ के रूप में स्थापित था । यहां के जैन शिल्प सिंहौनिया (मुरैना जिले में स्थित) भी जैन संस्कृति का एक की पर्याप्त चर्चा पुस्तकों में प्रकाशित है। यह स्थान जैनतीर्थ के प्रमुख केंद्र रहा है यहां भगवान् शांतिनाथ का जिनालय है इसमें रूप में प्रसिद्ध था । उज्जयिनी की चर्चा जैनग्रन्थों में भगवान् शांतिनाथ की बलुए पत्थर से निर्मित १६ फिट ऊंची प्रतिमा है। महावीर की उपसर्ग भूमि के रूप में की गई है । हेमचंद्राचार्य, टीकमगढ़ जिले में स्थित पपौरा में १२ वीं शताब्दी का मंदिर प्रभावकचरित, कालकाचार्य कथानक आदि ग्रंथों व अनुश्रुतियों में अवस्थित है। इस मंदिर में भगवान् शांतिनाथ की काले पत्थर की जैन तीर्थ के रूप में इस नगरी को अघिष्ठित किया गया है। प्रतिमा है जिसके पादपीठ कर संवत् १२०२ अंकित है । आहार श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार यहां एक जैन मंदिर था, जिसमें नामक स्थान पर शांतिनाथ का एक अन्य महत्त्वपूर्ण मंदिर है इसमें जीवन्त स्वामी की प्रतिमा थी । यहां पर उज्जैन परिसर से एकत्र कन्थुनाथ की १० फुट ऊंची प्रतिमा अत्यन्त कलात्मक है जिसका जैन तीर्थंकर प्रतिमाएँ एकत्रित कर जयसिंहपुरा जैन पुरातत्व उत्कीर्णन संवत् १२३७ में किया गया था। संग्रहालय में संग्रहित हैं इनमें आदिनाथ, श्रेयांसनाथ, पार्श्वनाथ, खजुराहो में चंदेल कला का उत्कृष्ट रूप कहरिया महादेव कुंथुस्वामी एवं महावीर की पादपीठ लेखयुक्त प्रतिमाएँ संग्रहित हैं। कला की दृष्टि से ये प्रतिमाएँ महत्त्वपूर्ण हैं इनमें परमारकालीन जैन कला तथा स्थापत्य (तीनखण्डों मे) नई दिल्ली, संपा. अमलानंद कला सौष्ठव दृष्टव्य है । मांसल शरीर यदि पद्मासना या खड्गासना घोष, १९७५, पृ. ३७ है परन्तु यक्ष यक्षिणी व अष्ट प्रतिहार्यों में अंकित चंवरधारिणी, देव-मंडली, नृत्यांगना, अप्सराएँ जीवन के भौतिक रूप को अधिक जैन मूर्तिकला तथा जैन मांसल स्वरूप में व्यक्त करती हैं। इसीप्रकार विक्रम विश्वविद्यालय पुरावशेषों पर विशेष कार्य । उज्जैन के पुरातत्त्व संग्रहालय में झर, हासामपुरा (जैनतीथ) एवं जैन पत्रिकाओंमें शताधिक लेखों आष्टा व मक्सी से एकत्रित तीर्थंकर प्रतिमाएँ प्रदर्शित हैं जिनका का प्रकाशन | तीर्थंकर महावीर कलात्मक पक्ष अत्यन्त प्रखर है । ये प्रायः पादपीठ लेखयुक्त हैं व २५०० वें निर्वाण वर्ष के उपलक्ष इन्हें परमार नरेश भोज, उदयादित्य, नरवर्मन के काल में निर्मित में शाजापुर जिले (म. प्र.) के माना जाता है | "समरांगण सूत्रधार' एवं 'युक्तिकल्पतरु' नामक जैन अवशेषों का सर्वेक्षण पूर्ण प्रतिमा विज्ञान एवं स्थापत्य विषयक लिखे ग्रन्थों में बताये लक्षण, किया। विश्वविद्यालयीन संगोष्ठियों | आकार, प्रमाण, वाहन आदि इन में शोध-लेखों का वाचन। कई मूर्तियों में दृष्टि गोचर होते हैं । स्थानों पर नए जैन शिल्पों की उज्जयिनी के जैनशिल्प में स्पष्टतः खोज । जैन मूर्तियों का पादपीठ राष्ट्रकूट मूर्तिशिल्प पद्धति एवं - डॉ. सुरेन्द्रकुमार आर्यवाचन एवं प्रकाशन । परमार कला का शैलीगत एवं सम्प्रति - सचिव, विशाला शोध परिषद उजैन, प्रमुख वैदिक शिल्पगत सौन्दर्य दृष्टिगोचर होता नंदी सरस्वती शोध अभियान. संमर्क : २२, भक्तनगर, दशहरा मैदान, उज्जैन. प्राचीन काल में वर्द्धमानपुर के रूप में जिस स्थान की चर्चा हुई है है। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७८) जहाँ समर्पण भाव हैं, वहाँ न संशय लेश । जयन्तसेन स्वयं सफल, कार्य करत तज द्वेष ॥ www.jainerbrary.org Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी में आकर्षित किया था रजत जयंति उत्सव पर आयों का चूलगिरि के नाम से भावपुरा, केथली बम उसे डॉ. हीरालाल जैन एंव डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने वर्तमान बडोह पठारी में गडरमल का मंदिर भव्य है । मंदिर के बदनावर से पहचान की है । यहां पर कई जैन मंदिर थे जिनके सिरदल (ललाटबिम्ब) में चतुर्भुजी जैन यक्षिणी की भव्य कलात्मक ध्वंसावशेष सिरनी के बाड़े में पड़े हैं । यहां की एक अच्छुम्मादेवी प्रतिमा अंकित है जिसे पाश्चात्य कलाविदों ने खूब सराहा है। (घोड पर सवार) का अभिलेखयुक्त प्रतिमा जयसिहपुरा-जैन-मूर्तिया ग्यारसपुर के मालादेवी मंदिर में भगवान् शांतिनाथ की संग्रहालय में प्रदर्शित है। खड्गासना प्रतिमा बड़े मनोहारी रूप में अंकित है । यह प्रतिहारगंधावल जिसकी पहचान गंधर्वपुरी से की गई है, वह भी कालीन मूर्तिकला का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करती है । इसी प्रकार एक महत्त्वपूर्ण जैन मूर्तियों का स्थान है। प्राचीन काल में यह कलचुरि काल की प्रतिमाएँ त्रिपुरी में स्थित है। यहां अम्बिका यक्षी जैनों का प्रसिद्ध तीर्थ रहा होगा । यहां का जैन शिल्प परमारकालीन व पद्मावती की महत्त्वपूर्ण कलाकृतियाँ हैं जिनके अभ्यास से है । यहां पर महत्त्वपूर्ण प्रतिमा ऋषभदेव की है जो पद्मासना है, भारतीय जैनमूर्ति शिल्प का उदात्त स्वरूप ज्ञात हो सकता है । सौम्य चेहरे पर दिव्य अलौकिक भाव है । स्कंध स्पर्श करती तीन बाहुरीबंध से शांतिनाथ भगवान् की दिव्य प्रतिमा मिली है। यहां अलकावली सुशोभित है । यहां की चक्रेश्वरी यक्षिणी के कलात्मक अम्बिका व पद्मावती यक्षिणी की प्रतिमा भी कलात्मक पक्ष को पक्ष की ओर पंक्तियों के लेखक ने भारतीय कला समीक्षकों का उजागर करती है। ध्यान केंद्रीय संग्रहालय इंदौर के रजत जयंति उत्सव पर आयोजित लखनादीप, बारहा, बीना. कण्डलपर. कारीतलाई कोनोजी, संगोष्ठी में आकर्षित किया था । मूलतः प्रतिमा २० भुजाधारी थी ऐसे स्थान हैं जहां से १० वी ११ वीं शताब्दी का कलचुरिकालीन जिसके अधिकांश हाथ खंडित हो चुके हैं। शेष हाथों में फल, स्थापत्य एवं मूर्तिशिल्प प्राप्त होता है । यहां के नंदीश्वर द्वीप व वज्र, पाश व चक्र आयुध बचे हैं । देवी के शीर्ष भाग में पांच सहस्त्रकूट जिनालय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कलात्मक अंकन हैं। कोष्ठकों में पांच तीर्थंकर मूर्तियाँ स्थापित हैं । देवी के एक ओर छत्तीसगढ़ क्षेत्र में आरग, राजिम, सिरपुर, ऐसे स्थान हैं जहां वाहन गरुड़ प्रदर्शित है। देवी की शरीर यष्टि समभंग में प्रदर्शित है। यहां एक महावीर भगवान की प्रतिमा अपने अष्ट प्रतिहार्यों से पर जैनशिल्प अपनी चरम पराकाष्ठा पर पहुंचा विदित होता है। युक्त निर्मित की गई मिलती है । एक महत्त्वपूर्ण चतुर्विशंति पट्ट का अंत में यक्ष मूर्तियों की चर्चा करना आवश्यक है । ये भी स्थित है। महत्त्वपूर्ण यक्ष हैं - गोमुख, गोमेध, पार्श्व एवं मातंग | खजुराहो से १०-११वीं शती की गोमुख की द्विभुजी और चतुर्भुजी मूर्तियाँ बड़वानी की “बावनगजा" प्रतिमा अपने विशाल परन्तु मिलती हैं। इनका वाहन वृषभ स्पष्ट है । हाथों में पद्म, गदा व संतुलित शरीर निर्मिति के कारण विश्वभर में विख्यात है। यह मुद्रा या सिक्कों का थैला रहता है । गोमेध यक्ष की प्रतिमा एक सिद्ध क्षेत्र है जिसका उल्लेख जैन ग्रन्थों में चूलगिरि के नाम से भावपुरा, कैथुली व मालादेवी मंदिर में प्राप्त हुई हैं । यह तीर्थकर हुआ है । भगवान् आदिनाथ की प्रतिमा भव्य एवं दृष्टव्य है। नेमिनाथ का यक्ष है । और नेमिनाथ का वाहन गज रहता है। निर्माणकाल १२ वीं शताब्दी का है । यह मूर्ति शिल्प विधान की ललित मुद्रा में मालादेवी मंदिर में अंकित गोमेधयक्ष भव्य है। दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वकी है । मूर्ति देखकर ही धर्म श्रद्धालु उसके भव्य रूप को हृदयंगम एवं आत्मसात करते हैं । पहाड़ की तलहटी । खजुराहो में भी ऐसे रूप की श्रेष्ठ कलात्मक प्रतिमाएँ में १९ मंदिर हैं जिनमें मुनि सुव्रत नाथ की विक्रमसंवत् ११३१ अवस्थित हैं। की प्रतिमा अत्यन्त कलात्मक है। पार्श्वयक्ष २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का है | इसे सर्पफण के ऊन एक अन्य महत्त्वपर्ण जैनतीर्थ है जो मापदेश के छत्र से चतुर्भुजी बताया गया है इसका वाहन कर्म है। स्वतंत्र यक्ष पश्चिमी निमाड़ जिले में स्थित है। राजा बल्लालदेव ने इन मंदिरों की प्रतिमा भी मालादेवी मंदिर में मिलती हैं । मातंग यक्ष २४ वें को बनाया उनका अभिप्रेत शतक मंदिर का था परन्तु वे ९९ तीर्थंकर महावीर का है । खजुराहों में इसकी भव्यप्रतिमा विद्यमान मंदिर ही बना पाये और एक मंदिर की कमी के कारण ही वह 'ऊन' नाम से विख्यात हुआ | प्रसिद्ध विद्वान् प्रोफेसर के. डी. वाजपेयी के शब्दों में पुरातत्ववेत्ता राखालदास बेनर्जी के अनुसार मध्यभारत में "मध्यप्रदेश के अधिकांश जैन मंदिरों का निर्माण नागर शैली पर खजुराहो के पश्चात् ऊन ही एकमात्र ऐसा स्थान है जहां इतने हुआ । मूर्तियों में प्रतिमा लक्षणों की ओर विशेष ध्यान दिया गया मूत प्राचीन देवालय विद्यमान हैं | चौबाराडेरा, एवं ग्वालेविर मंदिर जैन है और इनके अभ्यास से संपूर्ण जैनकला के स्वरूप का आकलन स्थापत्य शिल्प की उत्कृष्टता का प्रकाशन करते हैं । विदिशा नगर हो सकता है।" की परिगणना प्राचीन नगरों में की जाती है । जैनधर्म की म मेरे विदेशी मित्र न्यूमायर इरविन (आस्ट्रिया-युरोप) ने जैनमूर्तियों महत्त्वपूर्ण प्रतिमाएँ यहां बेसनगर से मिली हैं । प्राचीन विदिशा को देखकर कहा था कि मध्यप्रदेश के जैनशिल्प में जहां जैनधर्म व नगर की सीमा में स्थित दुर्जनपुर नामक स्थान से तीन तीर्थंकर दर्शन जीवंत हुआ है वहीं श्रेष्ठ प्रतिमाएँ प्राप्त हुई है जिनपर महाराजाधिराज रामगुप्त के समय का कला का उदात्त स्वरूप भी प्रकट अभिलेख है । ये मध्यप्रदेश में अबतक प्राप्त तीर्थंकर प्रतिमाओं में हुआ है । ऐसे जैनशिल्प से मंडित सबसे प्राचीन एवं अत्यन्त कलात्मक हैं। ये प्रतिमाएँ तीर्थकर मध्यप्रदेश में जैनधर्म एक समय चंद्रप्रभ, पुष्पदंत की हैं । अन्य महत्त्वपूर्ण प्रतिमाएँ पार्श्वनाथ, प्रमुख धर्म था । शांतिनाथ, नेमिनाथ, ऋषभदेव की हैं तथा पद्मावती यक्षी तथा धरणेन्द्र यक्ष की प्रतिमाएँ श्रेष्ठ जैनकला का उदाहरण प्रस्तुत करती 'अनेकांत' 'मध्यप्रदेशकी प्राचीन जैन कला' लेख पृ. ११९ प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७९) मित्रता यहाँ कर सको, करो नीर सह दूध । जयन्तसेन यथा समय, ले वह अपनी सुध ।। • Jain Education Intemational Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shering Cap S णमोकार मन्त्र का माहात्म्य एवं प्रभाव 16215 (डॉ. श्री रवीन्द्रकुमार जैन ) पृष्ठाधार : अनादि - अनन्त णमोकार महामन्त्र के माहात्म्य का अर्थ है उसकी महती आत्मा (आत्मशक्ति) अर्थात् अंतरंग और मूलभूत शक्ति । इसी को हम उस मन्त्र का गौरव, यश और महत्ता कहकर भी समझते हैं। यह मूलतः आत्म-शक्ति का, आत्म-शक्ति के लिए और आत्म-शक्ति के द्वारा अपरिमेय काल से कालजयी होकर, समस्त सृष्टि में जिजीविषा से लेकर मुमुक्षा तक की सन्देश तरंगिणी का महामन्त्र है । इस मन्त्र की महिमा का जहाँ तक प्रश्न है वह तो हमारे समस्त आगमों में बहुत विस्तार के साथ वर्णित है । यह मन्त्र हमारी आत्मा की स्वतन्त्रता अर्थात् उसकी सहजता को प्राप्त कराकर उसे परमात्मा बनाने का सब से बड़ा, सरलतम और सुन्दरतम साधन है यही इसकी सब से बड़ी महत्ता है। इस के पश्चात् हमारी समस्त सांसारिक उलझनें तो इस मन्त्र के द्वारा अनायास ही सुलझती चली जाती हैं। पारिवारिक कलह, शारीरिकमानसिककरुणता, निर्धनता, अपमान, अनादर, सन्तानहीनता आदि बातें भी इस महामन्त्र के द्वारा अपना समाधान पाती हैं। आशय यह है कि यह मन्त्र मानव को धीरे धीरे संसार में रहकर संसार को कैसे जीतना है यह सिखाता है और फिर मानव में ही ऐसी आन्तरिक शक्ति उत्पन्न करता है कि मानव स्वतः निर्लिप्त और निर्विकार होने लगता है। उसे स्वात्मा में ही परम तृप्ति का अनुभव होने लगता है। अतः इस महामन्त्र के भी शारीरिक और आत्मिक धरातलों को पूरी तरह समझकर ही हम इसकी सम्पूर्ण महत्ता को समझ सकते हैं । आगमों में वर्णित मन्त्र-माहात्म्य : णमोकार महामन्त्र द्वादशाङ्ग, जिनवाणी का सार है । वास्तव में जिनवाणी का मूल स्रोत यह मन्त्र है ऐसा समझना न्यायसंगत है । यह मन्त्र बीज है और समस्त जैनागम वृक्ष-रूप हैं । कारण पहले होता है और कार्य से छोटा होता है । यह मन्त्र उपादान कारण है । प्रायः समस्त जैन शास्त्रों के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में प्रत्यक्षतः णमोकार महामन्त्र को उद्धृत कर आचार्यों ने उसकी खोकोत्तर महत्ता को स्वीकार किया है, अथवा देव, शास्त्र और गुरु के नमन द्वारा परोक्ष रूप से उक्त तथ्य को अपनाया है । यहाँ कुछ प्रसिद्ध उद्धारणों को प्रस्तुत करना पर्याप्त होगा । इस महामन्त्र की महिमा और उपकारकता पर यह प्रसिद्ध पद्य द्रष्टव्य है। एसो पंच णमोकारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढ़र्म हब मंगलं ॥ अर्थात् यह पंच नमस्कार - मन्त्र समस्त पापों का नाशक है, समस्त मंगलों में पहला मंगल है, इस नमस्कार मन्त्र के पाठ से समस्त मंगल होंगे । वास्तव में मूल महामन्त्र तो पंचपरमेष्ठियों के नमन से सम्बन्धित पाँच पद ही हैं। यह पद्य तो उस महामन्त्र का मंगलपाठ या महिमागान है। धीरे-धीरे भक्तों में यह पद्य भी श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ विश्लेषण P thes णमोकार मंत्र का अंग सा बन गया और इसके आधार पर महामन्त्र को नवकार मन्त्र अर्थात् नौ पदोंवाला मन्त्र भी कहा जाता है । इसी महत्वाङ्कन की परम्परा में मंगलपाठ का और भी विस्तार हुआ है । चार मंगल, चार लोकोत्तर और चार शरण का मंगलपाठ होता ही है। ये चार हैं अरिहन्त, सिद्ध, साधु और केवली -प्रणीत धर्म । इसमें आचार्य और उपाध्याय को धर्म प्रवर्तक प्रचारक वर्ग के अन्तर्गत स्वीकार कर लिया गया है अतः खुलासा उल्लेख नहीं है । कभी कभी अल्पज्ञता और अदूरदर्शिता के कारण ऐसा भी कतिपय लोगों को भ्रम होता है कि आचार्य और उपाध्याय को संसारी समझकर छोड़ दिया गया है। वास्तव में ये दो परमेष्ठी धर्म की जड़ जैसी महत्ता रखते हैं; इन्हें कैसे छोड़ा जा सकता है ? पाठ द्रष्टव्य है चार मंगल चार लोकोत्तम : चत्तारि लोगोत्तमा, अरिहंता लोगोत्तमा, सिद्धा लोगोत्तमा; चार - शरण चार शरण : चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवली पण्णत्ता धम्मो मंगलं ॥ अर्थात् चार चार का यह त्रिक जीवन का सर्वस्व है । चार मंगल हैं चार लोकोत्तम हैं साहू लोगोत्तमा, केवली पण्णत्तो धम्मो लोगोत्तमा ।। : चत्तारि शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि सिद्धा शरणं पवज्जामि (८०) साहू शरणं पवज्जामि, केवली पण्णत्तं धम्मं शरणं पवज्जामि ॥ एसो पञ्चणमोकारो गाथा की व्याख्या आचार्य सिद्धचन्द्र गणि ने इस प्रकार की है - एषः पञ्चनमस्कारः प्रत्यक्षविधीयमानः पञ्चानामर्हदादीनां नमस्कारः प्रणामः । ये हैं अरिहंत परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी, साधु परमेष्ठी और केवली प्रणीत धर्म । अरिहंत परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी, साधु परमेष्ठी और केवली प्रणीत धर्म । इस संसार से पार होना है तो ये चार ही सबलतम शरण (रक्षा के आधार हैं ।) अरिहंत, परमेष्ठी, साधु-परमेष्ठी और केवली प्रणीत धर्म । स च कीदृशः सर्वपाप प्रणाशनः । सर्वाणि च तानि पापानि च सर्वपापानि इति कर्मधारयः । सर्व पापानां प्रकर्षेण नाशनो विध्वंसकः सर्वपापप्रणाशनः इति तत्पुरुषः । सर्वेषां द्रव्यभाव भेदभिन्नानां मंगलानां प्रथममिदमेव मङ्गलम् । 100 एक वस्तु को देखते, भिन्न भिन्न सब लोग । जयन्तसेन परिगति वश, योग भोग या रोग | Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः सर्वेषां मङ्गलानां - मङ्गलकारकवस्तूनां हमारा सदा मंगल करें । अष्ट कर्मों के नाशक, अशरीरी, परम दधिदूर्वाऽक्षतचन्दननारिकेल पूर्णकलश स्वस्तिकदर्पण भद्रासनवर्धमान - निर्विकार सिद्ध परमेष्ठी हमारा सदा मंगल करें । जिन शासन की मत्स्ययुगल श्रीवत्स नन्द्यावर्तादीनां मध्ये प्रथमं मुख्य मंगलं मङ्गल सर्वतोमुखी उन्नति जिनके द्वारा होती है और जो स्वयं शास्त्रीय कारको भवति । यतोऽस्मिन् पठिते जप्ते स्मृते च सर्वाण्यपि मर्यादा के अनुसार चरित्र पालन करते हैं। ऐसे आचार्य परमेष्ठी मङ्गलानि भवन्तीत्यर्थः । तथा समस्त शास्त्रों के ज्ञाता और श्रेष्ठतम प्राध्यापक परम गुरु कि अर्थात् - यह पंच नमस्कार मन्त्र सभी प्रकार के पापों को उपाध्याय परमेष्ठी हम सब का सदा मंगल करें | समस्त मुनि संघ नष्ट करता है । अधमतम व्यक्ति भी इस मन्त्र के स्मरण मात्र से के ये सर्वोच्च अध्यापक होते हैं। रलत्रय (सम्यक् दर्शन - ज्ञानपवित्र हो जाता है । यह मन्त्र दधि, दुर्वा, अक्षत, चन्दन, नारियल, चारित्र्य) की निरन्तर आराधना में लीन परम अपरिग्रही साधु पूर्णकलश, स्वस्तिक, दर्पण, भद्रासन, वर्धमान, मस्त्ययुगल, श्रीवत्स, परमेष्ठी हम सब का मंगल करें। नन्द्यावर्त आदि मंगल वस्तुओं में सर्वोत्तम है । इसके स्मरण और किसी भी व्यक्ति या वस्तु की महानता उसमें निहित गुणों के जप से अनेक सिद्धियां प्राप्त होती हैं। कारण ही मानी जाती है । फिर ये गुण जब स्व से भी अधिक पर स्पष्ट है कि इस परम मंगलमय महामन्त्र में अद्भुत लोकोत्तर कल्याणकारी अधिक होते हैं तभी उनकी प्रतिष्ठा होती है । इस शक्ति है । यह विद्युत तरंग की भांति भक्तों के शारीरिक, एवं कसौटी पर पंच परमेष्ठी बिल्कुल खरे उतरते हैं । जन्म, मरण, आध्यात्मिक संकटों को तुरन्त नष्ट करता है और अपार विश्वास रोग, बुढ़ापा, भय, पराभव, दारिद्र्य एवं निर्बलता आदि इस और आत्मबल का अविरल संचार करता है । वास्तव में इस महामन्त्र के स्मरण एवं जाप से क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं । महामन्त्र के स्मरण, उच्चारण या जप से भक्त की अपनी णमोकार मन्त्र के माहास्य वर्णन को समझ लेने पर फिर और अपराजेय चैतन्य शक्ति जग जाती है। यह कंडलिनी (तेजस अधिक समझने की आवश्यकता नहीं रह जाती है - शरीर) के माध्यम से हमारी आत्मा के अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान अपवित्रः पवित्रो वा, सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा । और अनन्त वीर्य को शाणित एवं सक्रिय करता है । अर्थात् आत्म- ध्यायेत पंच नमस्कार, सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १॥ साक्षात्कार इससे होता है। अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा । पंच परमेष्ठियों की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए उनसे यःस्मरेत् परमात्मानं स बाह्याम्यन्तरः शुचिः ।। २ ।। जन-कल्याण की प्रार्थना इस प्रसिद्ध शार्दूल विक्रीडित छन्द में की अपराजित मन्त्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः । गयी है"अर्हन्तो भगवन्त इन्द्र महिताः सिद्धाश्च सिद्धिस्थिताः । मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ।। ३ ।। आचार्याजिनशासनोन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः ॥ विघ्नौधाः प्रलयं यान्ति शाकिनीभूतपन्नगाः | विषो निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ।। ४ ।। श्री सिद्धान्त सुपाठका मुनिवरा रत्लत्रयाराधकाः मंत्र संसार सारं त्रिजगदनुपमं सर्वपापारि मन्त्रं, पंचैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मङ्गलम्" जिनशासन में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, संसारोच्छेद मन्त्रं विषम विषहरं कर्म निर्मूल मन्त्रम् । इन पाँचों की परमेष्ठी संज्ञा है । ये परम पद में स्थित हैं अतः मन्त्र सिद्धि प्रदानं शिव सुख जननं केवलं ज्ञान मन्त्रम् । परमेष्ठी कहे जाते हैं | चार घातिया कर्मों का क्षय कर चकनेवाले मन्त्रं श्रीजैन मन्त्र जप जप जपितं जन्म निर्वाण मन्त्रम् ॥ ५ ॥ इन्द्रादि द्वारा पूज्य, केवल ज्ञानी, शरीरधारी होकर भी जो विदेहावस्था आकृष्टिं सुर - सम्पदां विदधते मुक्तिश्रियो वश्यतां, में रहते हैं, तीर्थङ्कर पद जिनके उदय में हैं, ऐसे अरिहन्त परमेष्ठी उच्चाटं विपदां चतुर्गतिभुवां विद्वेषमात्मैनसाम् । स्तम्भं दुर्गमनंप्रति प्रयततो मोहस्य सम्मोहनम्, आठ विभिन्न विधाओं की पुस्तकों का प्रकाशन | लगभग पायात् पंचनमक्रियाक्षरमयी साराधना देवता ।। ६ ।। दो सौ शोध व साहित्यिक कृतियों अर्हमित्यक्षरं ब्रह्मम् वाचकं परमेष्ठिनः का विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सिद्ध चक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् ।। ७ ।। प्रकाशन । अभी तक बारह अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । पुस्तकों की रचना । पच्चीस तस्मात् कारुण्य भावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ।। ८॥ शोधार्थियों का पी.एच.डी. हेतु ★★★ मार्गदर्शन । बत्तीस वर्ष तक वंदों पांचों परम गुरु सुर गुरु वन्दन अध्यापन कार्य। जास। सम्प्रति - मद्रास विघ्न हरन मंगल करन, पूरन परम विश्वविद्यालय की हिन्दी संकाय डॉ. रवींद्र कुमार जैन में य.जी.सी.की ओर से प्रिन्सीपल प्रकाश ॥ ९ ॥ एम.ए., पी.एच.डी., इन्वेस्टीगेटर। उक्त पद्यों का मथितार्थ यह है - शास्त्री, साहित्य रल, संपर्क : १३, शक्तिनगर, पंच नमस्कार महामन्त्र का काव्यतीर्थ, डी.लिट् स्मरण अथवा पाठ करनेवाला श्रद्धाल पल्लवरम, मद्रास-४३. भक्त पवित्र हो, अपवित्र हो, सोता श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (८१) जीना सबको प्रिय लगा, जीवन करो प्रदान । जयन्तसेन कुशल सदा, ऐसा राष्ट्र विधान ।। Jain Education Intemational Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो, जागता हो, उचित आसन में हो, न हो फिरभी वह शरीर और बलवती एवं चैतन्य युक्त बनाने की प्रेरणा पाते हैं। मत्र हमारा मन के (बाहरी-भीतरी) सभी पापों से मुक्त हो जाता है । उसका आदर्श है - हमारी भीतरी शक्तियों को जगाने और क्रियाशील शरीर और मन अद्भुत पवित्रता से भर जाता है। मानव का यह बनाने वाला । शरीर लाख प्रयल करने पर भी सदा अनेक रूपों में अपवित्र रहता राम हम अपने नित्यप्रति के संसार में जब किसी बीमारी, ही है, प्रयल यह होना चाहिए कि हमारी ओर से पवित्रता के प्रति राजनीतिक संकट, शीलसंकट, पारिवारिक संकट एवं ऐसे ही अन्य सावधान रहा जाए। इस शरीर से भी हजार गुना मन चंचल होता संकटों से घिर जाते हैं और घोर अकेलेपन का. असहायता का है और पाप प्रवृत्ति में लीन रहकर अपवित्र रहता है। केवल अनुभव करते हैं, तब हम क्या करते हैं ? रते हैं, चीखते हैं और णमोकार मन्त्र की पवित्रतम शरण ही इस जीव को शरीर और मन कभी-कभी घटकर आत्महत्या भी कर लेते हैं। या फिर राक्षस भी की पवित्रता प्रदान करती है। यह मन्त्र किसी भी अन्य मन्त्र या बन जाते हैं। पर ऐसी स्थिति में एक और विकल्प है अपने रक्षकों शक्ति से पराजित नहीं हो सकता, बल्कि सभी मन्त्र इसके आधीन और मित्रों की तलाश | अपनी भीतरी ऊर्जा की तलाश । हम हैं । यह मन्त्र समस्त विघ्नों का विनाशक है । समस्त मंगलों में मित्रों को याद करते हैं, पुलिस की सहायता लेते हैं - आदि आदि । प्रथम मंगल के रूप में सर्व-स्वीकृत है । महत्ता और कालक्रम से इसी अकेलेपन के सन्दर्भ में - सहायता और आत्म-जागरण की इसकी प्रथमता सनिश्चित है । इस मन्त्र के प्रभाव से विघ्नों का तलाश में हम अपने परम पवित्र ऋषियों, मनियों एवं तीर्थंकरों के दल, शाकिनी, डाकिनी, भूत, सर्प, विष आदि का भय क्षण भर में महान कार्यों और आदर्शों से प्रेरणा लेते हैं । मन्त्र तो अन्ततः प्रलय को प्राप्त हो जाता है। अनादि अनन्त हैं | तीर्थंकरों ने भी इनसे ही अपना तीर्थ पाया है। जा यह मन्त्र समस्त संसार का सार है | त्रैलोक्य में अनुपम है जब हमें किसी मंगल की, किसी लोकोत्तम की शरण लेनी है, तो और समस्त पापों का नाशक है । विषम विष को हरनेवाला और स्वाभाविक है कि हम महानतम को ही अपना रक्षक और आराध्य कर्मों का निर्मलक है। यह मन्त्र कोई जादू टोना या चमत्कार नहीं बनायेंगे और हमारा ध्यान - हमारी दृष्टि महामन्त्र णमोकार पर ही है, परन्तु इसका प्रभाव निश्चित रूप से चमत्कारी होता है। प्रभाव जाएगी। की तीव्रता और अनुपमता से भक्त आश्चर्य-चकित होकर रह स्वयं की संकीर्णता और सांसारिक स्वार्थान्धता को त्यागकर जाता है। यह मन्त्र समस्त सिद्धियों का प्रदाता, मुक्ति सुख का हमें अपने ही विराट में उतरना होगा-तभी महामन्त्र से हमारा दाता है, यह मन्त्र साक्षात् केवल ज्ञान है । विधिपूर्वक और भाव भीतरी नाता जड़ेगा। महामन्त्र तक पहुँचने के लिए हमें मत्र सहित इसका जाप या स्मरण करने से भी सभी प्रकार की लौकिक- (शुद्ध-चित्त) तो बनाना ही होगा। अन्ततः इस महामन्त्र के माहाल्य अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । इससे समस्त देव सम्पदा एवं प्रभाव के विषय में अत्यन्त प्रसिद्ध आर्षवाणी प्रस्तुत है - वशीभूत हो जाती है | मुक्तिवधू वश में हो जाती है । चतुर्गति के "हरइ दुहं, कुणइ सुहे, जणइ जस सोसए भव समुदं । सभी कष्टों को भस्म करनेवाला यह मन्त्र है । मोह का स्तम्भक और विषयासक्ति को समाप्त करने वाला है | आत्मविश्वास को इह लोए पर लोए, सुहाण मूलं णमुक्कारो ।" प्रबलता देनेवाला तथा सभी स्थितियों में जीव मात्र का परम मित्र अर्थात् यह नवकार मन्त्र दुःखों का हरण करनेवाला, सुखों का है। "अह" यह अक्षर युगल साक्षात् ब्रह्म है । और परमेष्ठी का प्रदाता, यश दाता और भवसागर का शोषण करने वाला है। इस वाचक है | सिद्धियों की माला का सद्बीज है । मैं इसको मन, लोक और परलोक में सुख का मूल यही नवकार है। वचन और काय की समग्रता से प्रणाम करता हूँ। हे जिनेश्वर रूप "भोयण समये समणे, वि बोहणे - पवेसणे - भये - बसणे । महामन्त्र मुझे आपके अतिरिक्त कोई अन्य उबारनेवाला नहीं है। पंच नमुक्कारं खलु, समरिज्जा सव्वकालंपि।" आप ही मेरे परम रक्षक हैं । इसलिए पूर्ण करुणाभाव से हे देव ! अर्थात् भोजन के समय, सोते समय, जागते समय, निवास मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए । स्थान में प्रवेश के समय, भय प्राप्ति के समय कष्ट के समय इस मथितार्थ : महामन्त्र का स्मरण करने से मन वांछित फल प्राप्त होता है। । सम्पूर्ण निबन्ध का सार यह है कि महामन्त्र णमोकार पर महामन्त्र णमोकार मानव ही नहीं अपितु प्राणी मात्र के भक्तों का अटूट विश्वास है - तकतिीत शंकातीत विश्वास है । इहलोक और परलोक का सब से बड़ा रक्षक एवं निर्देष्टा है । इस उनके मन्त्र संबंधी अनुभव तार्किकों और नास्तिकों को मिथ्या लोक में विवेक पूर्ण जीवन जीते हुए मानव अपना अन्तिम लक्ष्य - अथवा आकस्मिक लग सकते हैं। आत्मा की विशुद्ध अवस्था इस मन्त्र से प्राप्त कर सकता है- यही मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि हम मनो-विज्ञान इस मन्त्र का चरम लक्ष्य भी है। और अध्यात्म को तो मानते ही हैं । कम से कम मानसिकता और "जिण सासणस्स सारो, चदूरस भावनात्मकता को तो मानते ही हैं | साहित्य के श्रृंगार, करुण, पुण्याण जे समुद्धारो। वीर, रौद्र, आदि नव रसों को भी अपने जीवन में घटित होते जस्स मणे नव कारो, संसारो तस्स देखते ही हैं । यह सब मूलतः और अन्ततः हमारे मनोजगत् के किं कुणइ ।" अर्जित एवं सर्जित भावों का ही संसार है। अर्थात् नवकार जिन शासन का मन्त्रों को और विशेषकर इस महामन्त्र को यदि हम पारलौकिक सार है चौदह पूर्व का उद्धार है । शक्ति से न भी जोडे तो भी इतना तो हमें मानना ही होगा कि हमे यह मन्त्र जिसके मन में स्थिर है चित्त की स्थिरता, दृढ़ता और अपराजेयता के लिए स्वयं में ही संसार उसका क्या कर सकता है? गहरे उतरना होगा और दूसरों के गुणों और अनुभवों से कुछ अर्थात काठ नहीं बिगाड सकता। सीखना होगा । बस महामन्त्र से हम स्वयं की शक्तियों को अधिक श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ | विश्लेषण (८२) देख अवर की संपदा, द्वेष न ईर्ष्या भाव। जयन्तसेन महान वह, रहे न उस का घाव || Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन साहित्य के संदर्भ में भारतीय शासन व्यवस्था (डॉ. तेजसिंह गौड़) जैन साहित्य का अनुशीलन करने के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रारम्भ में कुलकरों की व्यवस्था थी । मानव अपनी समस्त आवश्यकताओंकी पूर्ति कल्पवृक्षों के माध्यम से कर लिया करता था। कुल की व्यवस्था व संचालन करने वाला सर्वेसर्वा, जो पूर्ण प्रतिमा सम्पन्न होता था, उसे 'कुलकर' कहा गया है।" कुलकर को व्यवस्था बनाये रखने के लिए अपराधी को दण्डित करने का भी अधिकार था । कुलकर विमलवाहन शासक के समय में कुछ समय तक अपराधों में न्यूनता रहीं, पर कल्पवृक्षों के क्षीणप्राय होने से युगलों का उन पर ममत्व बढ़ने लगा एक युगलिया जिस कल्पवृक्ष का आश्रय लेता था उसीका आश्रय अन्य युगल भी ले लेता था, इससे कलह व वैमनस्य की भावनाएँ तीव्रतर होने लगी स्थिति का सिंहावलोकन करते हुए नीतिज्ञ कुलकर विमलवाहन ने कल्पवृक्षों का विभाजन कर दिया । दण्डनीति : आवश्यकता आविष्कार की जननी है कहावत के अनुसार जब समाज में अव्यवस्था फैलने लगी । जनजीवन अस्तव्यस्त हो उठा, तब अपराधी मनोवृत्ति पर नियंत्रण करने के लिए उपाय खोजे जाने लगे और उसी के परिणामस्वरूप दण्डनीति का प्रादुर्भाव हुआ ।" कहना अनुचित न होगा कि इससे पूर्व किसी प्रकार की कोई दण्डनीति नहीं थी, क्योंकि उसकी आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुईं। जैन साहित्य के अनुसार सर्वप्रथम हाकार, माकार और 'धिक्कार' नीति का प्रचलन हुआ। जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : हाकार नीति :- इस नीति का प्रचलन कुलकर विमलवाहन के समय हुआ । इस नीतिके अनुसार अपराधी को खेदपूर्वक प्रताड़ित किया जाता था "हा ! अर्थात् तुमने यह क्या किया ?" देखने में यह केवल शब्द प्रताड़ना है किंतु यह दण्ड भी उस समय का एक महान दण्ड था । इस 'हा' शब्द से प्रताड़ित होने मात्र से ही अपराधी पानी-पानी हो जाता था। इसका कारण यह था कि उस समय का मनुष्य वर्तमान मनुष्य की भांति उच्छृंखल एवं अमर्यादित नहीं था। यह तो स्वभाव से लज्जाशील और संकोची था । इसलिये इस 'हा' वाले दण्ड को भी वह ऐसा समझता था मानो उसे मृत्युदण्ड मिल रहा हो । यह नीति कुलकर चक्षुष्मान के समयतक बराबर चलती रही। माकार नीति :- कोई एक प्रकार की नीति एकाई नहीं होती है। देशकाल परिस्थिति के अनुसार नीति में परिवर्तन भी होता है। यही बात प्रथम 'हाकार नीति के लिए सत्य प्रमाणित हुई । स्थानांग सूत्र वृत्ति ७६०/५१०/१ ऋषभदेव : एक परीशिलन, पृ. १२१ स्थानांग वृत्ति प. ३९९-१ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति-काळाधिकार, ७९ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण लि FPIFC She ** plast 'हाकार' नीति जब विफल होने लगी तो अपराधों में और वृद्धि होने लगी, तब किसी नवीन नीति की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी । तब चक्षुष्मान के तृतीय पुत्र कुलकर यशस्वी ने अपराध भेद का अर्थात् छोटे बड़े अपराध के मानसे अलग अलग नीति का प्रयोग प्रारम्भ किया। कहने का तात्पर्य यह कि अपराधों का वर्गीकरण किया। छोटे अपराधों के लिए तो 'हाकार नीति' का ही प्रयोग रखा तथा बड़े अपराधों के लिए 'माकार नीति' का आरम्भ किया। यदि इससे भी अधिक कोई करता तो उस अपराधी को दोनों प्रकार की नीतियों से दण्डित करना प्रारम्भ किया । 'माकार' का अर्थ था 'मत करो ।' यह एक निषेधात्मक महान दण्ड था । इन दोनों प्रकार की दण्डनीतियों से व्यवस्थापन कार्य यशस्वी के पुत्र 'अमिचचन्द्र तक चलता रहा। धिक्कार नीति : समाज में अभाव बढ़ता जा रहा था । उसके साथ ही असंतोष भी बढ़ रहा था जिसके परिणामस्वरूप उच्छृंखलता दुष्टता का भी एक प्रकार से विकास ही हो रहा था । ऐसी स्थिति ' में हाकार और माकार नीति कब तक व्यवस्था चला सकती थी । एक दिन माकार नीति भी विफल होती दिखाई देने लगी और अब इसके स्थान पर किसी नई नीति की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। तब माकार नीति की असफलता से 'धिक्कारनीति' का जन्म हुआ ।" यह नीति कुलकर प्रसेनजित से लेकर अंतिम कुलकर नामितक चलती रही। इस 'धिक्कार' नीति के अनुसार अपराधी को इतना कहा जाता था 'धिक् अर्थात् तुझे धिक्कार है, जो ऐसा कार्य किया ।' इस प्रकार यदि अपराधों के मान से वर्गीकरण किया जाये तो वह इस प्रकार होगा जघन्य अपराध वालों के लिए 'खेद' मध्यम अपराध वालों के लिए' 'निषेध' और उत्कृष्ट अपराध वालों के लिए 'तिरस्कार' सूचक दण्ड मृत्युदण्ड से भी अधिक प्रभावशाली थे 1 कुलनाभि तक अपराधवृत्ति का कोई विशेष विकास नहीं हुआ था, क्योंकि उस युग का मानव, स्वभाव से सरल और हृदय से कोमल था ।" प्रथम राजा अंतिम कुलकर नाभि के समय में ही जब उनके द्वारा अपराध निरोध के लिए निर्धारित की गई धिक्कारनीति का (८३) स्थानांग वृत्ति पृ. ३९९ त्रिषष्टि शलाका १/२/१७६-१७९ स्थानांग वृत्ति प. ३९९ धिगधिक्षेपार्थ एव तस्य करणं उच्चारणधिक्कारः । ऋषभदेव एक परिशीलन पृ. १२३ जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति संस्कार सूत्रे १४ यहाँ न अति करना कभी, किसी तरह इन्सान | जयन्तसेन कर के अति, बना मनुज शैतान ॥ . Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लंघन होने लगा और अपराध निवारण में उनकी नीति प्रभावहीन दी । उस नगरी का दूसरा नाम अयोध्या भी कहा जाता है। सिद्ध हुई, तब युगलिक लोग घबराकर ऋषभदेव के पास आए और बाया . उन्हें वस्तुस्थिति का परिचय कराते हुए सहयोग की प्रार्थना की। राज्याभिषेक के उपरांत श्री ऋषभदेव ने राज्य की सुव्यवस्था ऋषभदेव ने कहा - "जनता में अपराधी मनोवृत्ति नहीं फैले .. के लिए आरक्षक दल की स्थापना की, जिसमें अधिकारी 'उग्र' और मर्यादा का यथोचित पालन हो इसके लिए दण्ड व्यवस्था होती। कहलाए । 'भोग' नाम के अधिकारियों का मंत्री-मंडल बनाया । है, जिसका संचालन 'राजा' किया करता है और वही समय समय राजा के परामर्शदाता 'राजन्य' के नाम से विख्यात हुए तथा राज्य पर दण्डनीति में सुधार करता रहता है । राजा का राज्य पद पर कर्मचारी 'क्षत्रिय' के नाम से जाने जाने लगे ।' अभिषेक किया जाता है। यह सुनकर युगलियों ने कहा - "महाराज! आप ही हमारे राजा बन जाइये।" दुष्ट लोगों के दमन के लिए तथा प्रजा और राज्य के संरक्षण के लिए उन्होंने चार प्रकार की सेना व सेनापतियों की भी व्यवस्था इसपर ऋषभदेव ने नाभि के सम्मानार्थ कहा - "जाओ इसके की । उनके चतुर्विध सैन्य संगठन में गज, अश्व, रथ एवं पैदल लिए तुम सब महाराज नाभि से निवेदन करो ।" सैनिक सम्मिलित किए गए । अपराध-निरोध तथा अपराधियों की युगलियों ने नाभि के पास जाकर निवेदन किया। समय के खोज के लिए साम, दाम, दण्ड और भेद की नीति का भी प्रचलन जानकार नाभि ने युगलियों की नम्र प्रार्थना सुनकर कहा - "मैं तो किया । वृद्ध हूँ, अतः तुम सब ऋषभदेव को राज्यपद देकर उन्हें राजा दण्डनीति :- शासन की सुव्यवस्था के लिए दण्ड परम आवश्यक बनालो।" है । दण्डनीति सर्व अनीति रूपी सो को वश में करने के लिए नाभि की आज्ञा पाकर युगलिकजन पद्मसरोवर पर गए और विषविद्यावत् है । अपराधी को उचित दण्ड न दिया जाय तो कमल के पत्तों में पानी लेकर आए । उसी समय आसन चलायमान अपराधों की संख्या निरन्तर बढ़ती जायगी एवं बुराइयों से राष्ट्र की होने से देवेन्द्र भी वहां आगए । उन्होंने सविधि सम्मानपूर्वक रक्षा नहीं हो सकेगी । अतः श्री ऋषभदेव ने अपने समय में चार देवगण के साथ ऋषभदेव का राज्याभिषेक किया और उन्हें राजा- प्रकार की दण्डनीति अपनाई । (१) परिभाष (२) मण्डलबंध योग्य अलंकारों से विभूषित कर दिया । (३) चारक और (४) बिच्छेद । युगलियों ने सोचा कि अलंकार विभूषित ऋषभ के शरीर पर परिभाष :- कुछ समय के लिए अपराधी व्यक्ति को आक्रोश पूर्ण पानी कैसे डाला जाय ? ऐसा विचारकर उन्होंने ऋषभदेव के चरणों शब्दों में नजरबंद रहने का दण्ड ।। पर पानी डालकर अभिषेक किया और उन्हें अपना राजा स्वीकार मण्डल बंध :- सीमित क्षेत्र में रहने का दण्ड देना ।। किया । चारक :- बन्दीगृह में रहने का दण्ड देना। इस प्रकार ऋषभदेव उस समय के प्रथम राजा घोषित हुए । इन्होंने पहले से चली आ रही कुलकर व्यवस्था समाप्तकर नवीन छविच्छेद :- करादि अंगोपांगों के छेदन का दण्ड देना । राज्यव्यवस्था का निर्माण किया ।। ये चार नीतियां कब चलीं, इसमें विद्वानों के मत अलग-अलग युगलियों के इस विनीत स्वभाव को देखकर शक्रेन्दने उस हैं । कुछ विज्ञों का मंतव्य है कि प्रथम दो नीतियां श्री ऋषभदेव के स्थान पर विनीता नगरी के नाम से उनकी वसति स्थापित कर' समय चली और दो भरत के समय । आचार्य अभयदेव के मंतव्यानुसार ये चारों नीतियां भरत के समय चली । आचार्य जैनधर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग. पृ. १९-२० भद्रबाहु और आचार्य मलयगिरि के अभिमतानुसार बन्ध (बेड़ी का प्रयोग) और घात (दण्डे का प्रयोग) ऋषभनाथ के समय आरम्भ हो एक संस्कृति पर सात गए थे और मृत्यु दण्ड का आरम्भ भरत के समय हुआ । जिनपुस्तकों का प्रकाशन । कई सेनाचार्य के अनुसार वध-बन्धनादि शारीरिक दण्ड भरत के समय पत्रिकाओं के अतिरिक्त महावीर चले । उस समय तीन प्रकार के दण्ड प्रचलित थे जो अपराध के स्मारिका, पांच स्मृति या अभिनंदन | अनुसार दिये जाते थेग्रंथों, जैनविद्या पर लिखित (१) अर्थहरण दण्ड (२) शारीरिक क्लेशरूप दण्ड (३) प्राणउपन्यासों एवं जीवन-चरित्र पर | हरण रूप दण्ड ।' ग्रंथों का सम्पादन । शोध प्रबंध का विषय - प्राचीन तथा उपर्युक्त विवरण कुलकरों तथा मध्यकालीन मालवा में जैन धर्म | प्रथम राजा ऋषभदेव के समय की : एक अध्ययन त्रिषष्टि १/२/९७४-९७६, आव. निर्यु. सम्प्रति - व्याख्याता, डॉ. तेजसिंह गौड़ गा. १९८ शासकीय उच्चतर माध्यमिक वही १/२/९२५-९३२ विद्यालय, उन्हेल. (जि. उज्जैन, त्रिषष्टि १/२/९५६ म.प्र.) ऋषभदेवः एक परीशीलन, पृ. १४५-४६ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (८४) निद्रा भोजन अल्प हो मर्यादित हो बात । जयन्तसेन सुमार्ग से, होता भव का घात ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्था प्रतिपादित करता है । समय के प्रवाह के साथ व्यवस्था में वाराणसी, श्रावस्ती, साकेत, कांपिल्य, कौशाबी मिथिला, हस्तिनापुर भी परिवर्तन हुआ और उसका विकास भी हुआ । जैन- साहित्य में , और राजगृह उस समय इन दस नगरियों को अभिषेक राजधानी आगे शासन व्यवस्था विषयक जो विवरण मिलता है, उसका कहा है। संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। युवराज की योग्यता :- युवराज पांच विशिष्ट पुरुषों में से एक राजा का पद एवं उत्तराधिकार :- प्रजा-पालन के लिये राजा का होता था । राजा के पश्चात् युवराज का क्रम था फिर अमात्य, होना अत्यन्त आवश्यक माना गया | राजा का सर्वगण सम्पन्न और श्रेष्ठ और पुरोहित होते थे। राजा की मृत्यु के पश्चात. यवराज व्यसन तथा विकार रहित होना आवश्यक था ।' राजा का ही राजा बनता था। उसकी योग्यता के सम्बन्ध में बताया गया हैराजनीति में निपुण और धर्म के प्रति श्रद्धावान होना भी जरूरी (१) युवराज अणिमा, महिमा आदि आठ प्रकार के ऐश्वर्य से था । उसके दोनों कुल पवित्र होना चाहिए । राजा का पद वंश युक्त होता था । परम्परागत होता था । राजा के एक पुत्र होने की स्थिति में वही (२) वह बहत्तर कलाओं, अठारह देशी भाषाओं, गीत, नृत्य, तथा उत्तराधिकारी होता था । एक से अधिक पुत्र होने पर, उनकी हस्तियद्ध, अश्वयुद्ध, मुष्टियुद्ध, बाहयुद्ध, लतायुद्ध, रथयुद्ध, धनुर्वेद परीक्षा आयोजित की जाती थी और जो परीक्षा में सफल होता आदि में भी निपण होता था ८ उसके कर्तव्यों की ओर संकेत वही युवराज बनता था । राजा के स्वर्गवास के पश्चात जिस करते हुए बताया गया है कि आवश्यक कार्यों से निपटकर वह राजकुमार को सिंहासन का अधिकार मिलता यदि वह दीक्षा ले सभा मण्डल में पहुंचकर राजकाज का अवलोकन करता था । लेता तो उससे छोटा राजकुमार राजा बन जाता । यदि राजा और पड़ोसी राजा द्वारा उपद्रव करने की स्थिति में उसे शांत करने का युवराज दोनों ही राज्य त्यागकर दीक्षा ले लेते तो बहन के पुत्र को कर्तव्य भी यवराज का था।" राज्य का भार सौंप दिया जाता । एक परम्परा यह भी थी कि अमात्य का पद बड़ा महत्त्वपूर्ण होता था । युवराज के यदि राजा का कोई भी उत्तराधिकारी नहीं होता तो हाथी या घोड़ा पश्चात् सबसे बड़ा पद भी यही था । जैन साहित्य में अमात्य/मंत्री छोड़ दिया जाता था । वह जिसका भी अभिषेक करता उसी को के पद विषयक अनेक महत्त्वपूर्ण दृष्टांत भी मिलते हैं। विस्तारभय राजा बना दिया जाता। से यहां विशेष विवरण न देकर यह कहना ही पर्याप्त है कि राज्य प्राप्ति के लिए षड्यंत्र :- राजकुमारों में राज्य प्राप्तकरने की अमात्य साम, दाम, दण्ड और भेद में कुशल, नीतिशासन में तीव्र उत्कंठा रहती थी इसलिए राजा उनसे शंकित और भयभीत चतुरका, अर्थशासन में पारंगत, औत्पात्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी रहता था । और उनपर कठोर नियंत्रण रखता था । तथापि कितने और पारिणामिकी इन चार प्रभावी बुद्धियों में निष्णात होता था । ही महत्त्वाकांक्षी राजकुमार मौका मिलने पर अपने कुचक्रों में सफल राजा स्वयं उससे महत्त्वपूर्ण विषयों में परामर्श लिया करता था । हो जाते थे । वे राजा का वध कर स्वयं राजा बन जाते थे । राजा वह विलक्षण प्रतिभा का धनी होता था | सारे गुप्त रहस्यों का श्रेणिक को कूणिक ने अपने सौतेले भाई की सहायता से पकड़ ज्ञाता होने के साथ शत्रु को पराजित कर राज्य की रक्षा करता कर जेल में डाल दिया और स्वयं राजसिंहासन पर बैठ गया । था ।१० उसके बाद अपनी माता के कहने से परशु लेकर बेड़ियां काटने अन्य राज्याधिकारी :- श्रेष्ठि, नगर सेठ अठारह प्रकार की प्रजा चला, किंतु राजा ने समझा कि कूणिक उसे मारने के लिए आ रहा का रक्षक कहलाता था । वह राजा द्वारा मान्य होता था उसका है, एतदर्श कूणिक के आने से पूर्व ही विष खाकर उसने अपना मस्तक देवमुद्रा से व सुवर्णपिट्ट से सुशोभित रहता था । इनके प्राणांत कर लिया । अतिरिक्त ग्राम महत्तर, राष्ट्र महत्तर, गणनायक, दण्डनायक, राज्याभिषेक :- राज्याभिषेक के सम्बन्ध में ऊपर संकेत किया जा तलवर, कोहपाल, कौटुम्बिक, गणक, वैद्य इभ्य, ईश्वर, सेनापति चुका है । इस विषयकी जो जानकारी है उसके अनुसार राजा का सार्थवाह, संधिपाह, पीठमर्द, महामात्र, यानशालिक, विदूषक, दूत, अभिषेक समारोह अत्यंत उल्लास के क्षणों में मनाया जाता था । चेट, वार्तानिवेदक, किंकर, कर्मकर असिग्राही, धनुग्राही, कोतग्राही, जब मेघकुमार ने दीक्षा का निश्चय किया, तब माता-पिता के छत्रग्राही, चामरग्राही, वीणाग्राही, भाण्ड, अभ्यंग लगानेवाले, उबटन अत्यधिक आग्रह पर वे एकदिन के लिए राजसम्पदा का उपयोग मलनेवाले, स्नान कराने वाले, वेशभूषा से शोभित करने वाले, पैर करने के लिए प्रस्तुत हुए । अनेक गणनायक, दण्डनायक, प्रभृति को दबाने वाले, आदि अनेक अधिकारी, कर्मचारी और सेवक से परिवृत्त हो उन्हें सोने, चांदी, मणि, मुक्ता आदि से आठआठ राजा की सेवामें रहते थे।". जांचर सौ कलशों से स्नान कराया । मृत्तिका, पुष्प, गंध, माल्य, औषधि कर व्यवस्था :- राज्य की आय का प्रमुख स्रोत कर होता है । उन और सरसों आदि उनके मस्तक पर फेंकी गयी, तथा दुंदुमि बाजों और जय-जयकार का घोष सुनाई देने लगा | राज्याभिषेक हो जाने दिनों अठारह प्रकार के करों के प्रचलन का उल्लेख मिलता है ।१२ सुंकपाल नामय अधिकारी कर वसूल . के पश्चात् सभी प्रजा राजा को बधाई देती है | चम्पा, मथुरा, कर स्वने पर अपना । तथापि भयभीत कर स्वयं ग की सहाय बैठ गयाटने वह विलक्षण उससे ने से परशासन पर बैठ से पकड़ निशीशभाष्य १५/४७९९ व्यवहार भाष्य १ | पृ. १२८ व्यवहार भाष्य ४/२०९ और ४ ESS उत्तराध्ययन टीका, १० प. १५३ सिण्डिकी वही ३, पृ. ६३ भगवान महावीर : एक अनु. पृ.७८ ७ वही, पृष्ठ. ७८-७९ औपपातिक सूत्र ४० पृ. २४८ र व्यवहार भाष्य, १पृ. १३१ १० भगवान महावीर : एक अनु. पृ.८० " भगवान महावीर : एक अनुशीलन पृ.८० २ आवश्यक नियुक्तिी श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण भूल कबूल करे नहीं, व्यर्थ करे आलाप | जयन्तसेन उसे मिले, जीवन में संताप ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने का कार्य करता था ।' सामान्यतः उपज का दसवां भाग कर दण्डविधान :- उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजीशास्त्री ने विपाकसूत्र, रूप में लिया जाता था किंतु विशिष्ट कारणों से इसमें अंतर भी आ प्रश्नव्याकरण, अंगुतर निकाय और जैन आगम साहित्य में भारतीय जाता था । व्यापारिक वस्तुओं पर भी कर लगाया जाता था । समाज के आधार पर लिखा है कि चोरी करने पर भयंकर दण्ड व्यापारी उन दिनों भी कर चोरी किया करते थे, वे अपना माल दिया जाता था । उस समय दण्ड-व्यवस्था कठोर थी । राजा चोरों छिपा देते थे । जो व्यापारी अच्छी किस्म का माल छिपा लेता था, को लोहे के कुंभ में बन्द कर देते थे, उनके हाथ कटवा देते थे। पता चलने पर राजा उस व्यापारी का सम्पूर्ण माल जब्त कर लेता सूली पर चढ़ा देते थे। कभी अपराधी की कोड़ों से पूजा करते । था । शुल्क वसूल करने में कठोरता बरती जाती थी। इससे जनता चोरों को वस्त्रयुगल पहनाकर, गले में कनेर के फूलों की माला त्रस्त रहती थी । पुत्र जन्म, राज्याभिषेक जैसे अवसरों पर जनता डालते और उनके शरीर को तेल से सिक्त कर भस्म लगाते और को कर मुक्त भी किया जाता था । चौराहों पर घुमाते व लातों, घूसों, डंडों और कोड़ों से पीटते । अपराध :- उस समय अपराधों में चौर्य-कर्म प्रमुख था । चोरों के ओंठ, नाक और कान को काट देते, रक्त से मुँह को लिप्त कर के अनेक वर्ग इधर उधर कार्यरत रहते थे । लोगों को चोरों का फूटा ढोल बजाते हुए अपराधों की उद्घोषणा करते । आतंक हमेशा बना रहता था । चोरों मे अनेक प्रकार थे । यथा - तस्करों की तरह परदारगमन करने वालों को भी सिर मुंडना, (१) आमोष - धनमाल को लूटन वाले । तर्जन, ताड़न, लिंगच्छेदन, निर्वासन और मृत्युदण्ड दिये जाते थे । पुरुषों की भांति स्त्रियां भी दण्ड की भागी होती थी, किन्तु गर्भवती (२) लोभहार - धन के साथ ही प्राणों को लूटने वाले । स्त्रियों को क्षमा कर दिया जाता था । हत्या करने वाले को (३) ग्रन्थि भेदक - ग्रंथि भेद करने वाले । अर्थदण्ड और मृत्युदण्ड दोनों दिये जाते थे। (४) तस्कर - प्रतिदिन चोरी करने वाले । न्याय व्यवस्था :- अपराधियों को दण्डित करने के लिये योग्य और (५) कण्णुहा - कन्याओं का अपहरण करने वाले। ईमानदार न्यायाधीश होते थे जो रिश्वत न लेकर निष्पक्ष न्यायप्रदान लोभहार अत्यंत क्रूर होते थे । वे अपने आपको बचाने के करने का कार्य करते थे । साधारण अपराध के लिये भी कठोर लिये मानवों की हत्या कर देते थे । ग्रंथि भेदक के पास विशेष दण्ड व्यवस्था का प्रावधान था। प्रकार की कैचियां होती थी जो गाठों को काटकर धन का श्रावकों को झठी गवाही न देने और झठे दस्तावेज प्रस्तत न अपहरण करते थे । निशीथ भाष्य में आक्रान्त, प्राकृतिक, ग्रामस्तेन, करने का नियम दिलाया जाता था । इससे ऐसा आभास होता है देशस्तेन, अनारस्तेन, अध्वानस्तेन और खेतों में खनकर चोरी करने । कि उन दिनों झूठी गवाही भी दी जाती थी। अपराधी को राजकुल वाले चोरों का उल्लेख है। में उपस्थित किया जाता था । ऐसा उल्लेख मनुस्मृति में पाया जाता ए कितने ही चोर धन की तरह स्त्री, पुरुषों को भी चुरा ले है। जाते थे । कितने ही चोर इतने निष्ठुर होते थे कि वे चुराया हुआ उन दिनों राजा सर्वेसर्वा होता था । अर्थात् वह स्वेच्छाचारी अपना माल छिपाने को अपने कुटुम्बी जनों को भी मार देते थे। होता था । एक ओर वह प्रजाकी रक्षा करता था तो दसरी ओर एक चोर अपना सम्पूर्ण धन कुए में रखता था । एक दिन उसकी जनता को कष्ट भी देता था। राजा की आज्ञा का उल्लंघन करने पलीने उसे देख लिया, भेद खुलने के भय से उसने अपनी पली वाला महान् अपराधी माना जाता था । इसके लिये भी दण्ड को ही मार दिया । उसका पुत्र चिल्लाया और लोगों ने उसे पकड़ व्यवस्था थी । विस्तारभय से यहां अब अधिक न लिखकर केवल लिया । संकेत मात्र किया जा रहा है। चोरी करने के लिए छः प्रकार से सेंघ लगाने का उल्लेख जैन साहित्य में कारागृहों का भी विवरण मिलता है । मिलता है (१) कपिशीर्षाकार (२) कलशावृत्ति (३) नन्दावर्त कारागृहों में कैदियों को किस प्रकार रखा जाता था, उनके साथ संस्थान (४) पद्माकृति (५) पुरुषाकृति और (६) श्री वत्ससंस्थान। कैसा व्यवहार किया जाता था, आदि उल्लेख भी है । उन दिनों कम चोर अपने साथियों के साथ चोरपल्लियों में रहा करते थे। प्रत्येक राज्य की अपनी गुप्तचर व्यवस्था थी । गुप्तचर होने की चोरपल्लियाँ विषम पर्वत और गहन अटवी में हुआ करती थी। आशंका में साधुओं को भी पकड़ लिया जाता था। जहाँपर किसी का पहुँचना संभव नहीं था । जब चोर चोरी करने युद्ध, एवं चतुरंगिणी सेना, युद्धनीति और अस्त्र-शस्त्र आदि के लिये जाते थे तब अपने साथ पानी की मशाल और तालोद्घाटिनी का भी विस्तार से वर्णन मिलता है | यदि इन सबका व्यवस्थित विद्या आदि उपकरण लेजाया करते थे । रूप से अध्ययन कर प्रस्तुत किया जाये तो एक अच्छी पुस्तक तैयार उत्तराध्ययन हो सकती है । और यह स्पष्ट हो वहीं, ३१ पृ.६४ भगवान महावीर : एक अनु. पृ.८१ सकता है कि जैन साहित्य में केवल वही, पृ. ८२ धर्म और दर्शन विषयक ही नहीं, भगवान महावीर : एक अनु. पृ. ८२ अन्य विषयोंसे सम्बन्धित विवरण उत्तराध्ययन बृहवृत्ति पृ. २१५ भी पर्याप्तरूप से उपलब्ध होता है। भगवान महावीर : एक अनु. पृ. ८३ जैन विद्या के मनीषियों को इस ज्ञाताधर्म कला १८/१ २१० ओर भी ध्यान देना चाहिए। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (८६) पंचेन्द्रिय के विषय का, जो करता परिहार । जयन्तसेन मानस वह, स्वपर करत उद्धार । Jain Education Intemational Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | हिन्दी-साहित्य में सतसई परम्परा | (डॉ. दिलीप पटेल, शहादा) का नाम उन में प्रया' छंद के आधारपर हिंदी की र सतसई और सतसैया शब्द संस्कृत के 'सप्तशती' और 'सप्तशतिका' शब्दों के रूपान्तर हैं जो सात सौ पद्यों के संग्रह-रूप में रूढ हो गये हैं। भारतीय संस्कार कुछ ऐसे हैं कि हम प्रत्येक श्रेष्ठ एवं ग्राह्यवस्तु को एक निश्चित संख्या में जानने के अभ्यासी हैं। यह बात लोकगीतों में स्पष्टरूप से परिलक्षित होती है । यथा - 'सामरे मेरे घर आइ जाइयो । सात सहेलीन बीच बाँसुरी अधर बजाइ जइयो ।' त्रिलोक, चार पुरुषार्थ, पंचमुखी, षड्दर्शन, सप्तसिंधु, अष्टसिद्धियाँ, नवनिधियाँ, दशावतार इन उदाहरणोंसे यह बात स्वयंसिद्ध है। साहित्य के क्षेत्र में अष्टयाम, मदनाष्टक, वीराष्टक केवल आठ ही पदयोंपर आधारित काव्यकृतियाँ उपलब्ध हैं परंतु इनके द्वारा कृतिकार के कवित्व का समग्र परिचय प्राप्त करना मुश्किल है । संस्कृत में 'पंचाशिका' तथा हिंदी में 'बाइसी' 'पच्चीसी' नाम से रचनाएँ मिलती हैं परन्तु ये रचनाएँ उतनी लोकप्रिय नहीं हुई काप्रय नहा हुइ जितनी 'शतक' अथवा 'सप्तशती' में बद्ध रचनाएँ हुई हैं | शतक परम्परा में भर्तृहरिकृत 'नीतिशतक' 'वैराग्य शतक' तथा 'श्रृंगार शतक' कवि मयर कृत 'सूर्य-शतक' बाणकृत 'चण्डी शतक' अमर कृत, 'अमर शतक' आदि प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं । इसप्रकार शतक परम्परा मिलती है । इसके अलावा सप्तशती ग्रन्थोंकी परम्परा और भी समृद्ध है । इसके मूल में भारतीयों की विशेष आस्था सात के प्रति होना भी माना जा सकता है | विवाह के समय सप्तपदी, यज्ञके समय सप्तधान्य आदिका विशेष महत्व है । सातजिह्वाएँ होने से अग्नि को सप्तजिह्व कहा जाता है । सप्तर्षि, सप्तदिन, सप्तद्वीप, सप्तस्वर, राज्य के सप्तांग, जैन न्याय के सप्त नय आदि बातों से सात संख्या का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है । भारतीय मानस सप्तसंख्या के प्रति विशेष आस्था दिखाता है । इसी प्रवृत्ति के कारण शतक को सप्तगुणा करके 'सप्तशती' परम्परा का आविर्भाव हुआ होगा ऐसा प्रतीत होता है । मार्कण्डेय पुराण के अन्तर्गत 'दुर्गासप्तशती' और महाभारत के अन्तर्गत 'श्रीमद्भगवद्गीता' में सातसौ श्लोक होना भी इसी प्रवृत्ति के सूचक है । साहित्यिक क्षेत्र में महाराष्ट्रीय प्राकृत में रचित कवि हाल की 'गाह सतसई' (गाथा-सप्तशती) प्रथम उल्लेखनीय कृति कही जा सकती है जिसके अनुकरणपर परवर्ती संस्कृत कवियों-गोवर्धनाचार्य एवं श्री विश्वेश्वर ने अपनी-अपनी 'आर्या सप्तशती' का संकलन प्रस्तुत किया है। हिन्दी की सतसई परम्परा का प्रेरणा-स्रोत मुख्य रूप से हाल कवि की 'गाथा सप्तशती' और गोवर्धनाचार्य की 'आर्या सप्तशती है । हिन्दी की सतसई परम्परा सुविशाल और सुदीर्घ है । यह परम्परा शैली एवं विषय दोनों की दृष्टि से उपर्युक्त संस्कृत प्राकृत सप्तशती परम्परा से सूत्रबद्ध है । इन दोनों में अंतर केवल यह है कि संस्कृत प्राकृत के 'सप्तशती' ग्रन्थों में - विभिन्न कवियोंदवारा रचित मुक्त संकलित हैं जबकि हिन्दी की प्रत्येक सतसई एक ही कवि के स्वरचित पदों का संग्रह है । संस्कृत-प्राकृत के इन संग्रहों का नाम उन में प्रयुक्त विशिष्ट छंद के आधारपर किया गया है । यथा-संस्कृत के 'आर्या' छंद के आधारपर 'आर्या-सप्तशती' प्राकृत के गाथा छंद के आधारपर 'गाथा सप्तशती' | हिंदी की सभी सतसइयों में 'दोहा' छन्द का प्रयोग हुआ है । प्रयुक्त छंद के आधारपर अगर नामकरण किया जाता तो वैशिष्ट्य न रह पाता इसलिए उनके नाम प्रायः रचयिता कवियों के नाम पर आधारित हैं । यथा-तुलसी-सतसई, रहीम-सतसई, बिहारी-सतसई । म सतसई ग्रन्थों के नामकरण की यह प्रवृत्ति मध्यकालतक ही दिखाई देती है । आधुनिक काल में रचित सतसइयों के नाम उनमें प्रतिपादित विषयों के आधारपर मिलते है । जैसे - वीर सतसई, ब्रजराज विलास-सतसई, वसन्त सतसई, किसना सतसई । हिन्दी की सतसई परम्परा पर्याप्त समृद्ध है । भक्तिकाल से आधुनिक कालतक सत्ताईस सतसई ग्रन्थों के रचे जानेका उल्लेख मिलता है । ये सतसई ग्रन्थ हैं - 'तुलसी-सतसई', रहीम-सतसई, अक्षर अनन्यद्वारा दुर्गासप्तशतीका हिंदी अनुवाद, वृन्द-विनोदसतसई, अलंकार-सतसई, यमक-सतसई, बुद्धजन-सतसई, बिहारी-सतसई, मतिराम-सतसई, भपति-सतसई, चन्दन-सतसई, राम-सतसई, विक्रमसतसई, रसनिधि-सतसई, वीर-सतसई (सूर्यमल्ल), बुधजन-सतसैया (दीनदयाल), ब्रजरास विलास सतसई, (अमीरदास), आनंद प्रकाश सतसई (दलसिंह), सतसइया रामायण (कीरत सिंह) वसन्त सतसई, हरिऔध-सतसई (वियोगी हरि), किसान सतसई (जगनसिंह सेंगर), ज्ञान-सतसई, (राजेन्द्र शमा) ब्रज-सतसई (रामचरित उपाध्याय) दयाराम सतसैया (अमृतलाल) मोहन-सतसई (मोहनसिंह)। हिन्दी सतसई-परम्परा में ऐतिहासिक दृष्टि से पहला स्थान 'तुलसी-सतसई' का है | यह एक संकलन ग्रन्थ है, सतसई की दृष्टि से रचित कृति नहीं | विषय की दृष्टि से हिन्दी में लिखित सतसइयों को दो वर्गों में रखा जा सकता है - (१) सूक्ति सतसई । (२) श्रृंगार सतसई । सूक्ति सतसई में जीवन के किसी पक्ष से संबंधित किसी तथ्य की मार्मिक, रमणीक और चमत्कार पूर्ण ढंग से अभिव्यक्ति की जाती है और श्रृंगार सतसई में श्रृंगार रसको प्रधानता दी जाती है। डा. श्यामसुंदरदासजी, सूक्ति के संबंध में मत प्रतिपादित करते हुए कहते हैं - "सूक्ति या सुभाषित ल सी-सतसई' का सा प्रतीत होता सप्तशती' परम्परा श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण कपट कला करता नहीं, पूज्य जनों के संग । जयन्तसेन मिले उसे, आतम शान्ति अभंग ।। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अर्थ अच्छे कथन से है । सूक्ति का प्रधान उद्देश्य आदेश है । नित्यप्रति के व्यवहार में जिन बातों से लाभ उठाया जा सकता है, उन्हीं बातों को सूक्तिकार एक मार्मिक और हृदयग्राही ढंग से कहता है, जिससे जन-साधारण के मन में चुभ जाती है।" श्रृंगार सतसई में चमत्कार विधायिनी प्रवृत्तिकी अपेक्षा भाव व्यंजना या रस परिपाक को प्रधानता दी जाती है । ऐसी सतसइयों में श्रृंगार के संयोग वियोग दोनों पक्षों की व्यंजना होने के साथ साथ श्रृंगार के विविध पक्षों का आलम्बन उद्दीपनादि का विस्तृत वर्णन भी रहता है । इसलिए श्रृंगार सतसई सूक्ति सतसई से अधिक लोकप्रिय होती है। हिन्दी में सूक्ति सतसई के अन्तर्गत तीन सतसइयों की गणना की जा सकती है - (१) तुलसी-सतसई । (२) रहीम - सतसई (३) वृन्द- सतसई । तुलसी सतसई में गोस्वामी तुलसीदासजी के भक्ति एवं नीति विषयक दोहे संकलित हैं। सात सर्गों में विभाजित सतसई में भक्ति, उपासना, राम भजन, आत्मबोध, कर्म व ज्ञान सिद्धांत और राजनीतिका स्वतंत्र विवेचन किया गया है। कुछ दोहे उपदेश प्रधान हैं तो कुछ सुन्दर और मर्मस्पर्शी भी प्राप्त होते हैं। यथा 'बरखत हरखत लोग सब, करखत लखें न कोय । तुलसी भूपति भानुसम, प्रजा भाग बस होय ।।' रहीम सतसई में लौकिक जीवन के विविध पक्षोंपर कवि की मार्मिक सूक्तियाँ मिलती हैं। वृन्द सतसई औरंगजेब के दरबारी कवि वृन्द की सतसई विशिष्ट विदग्धतापूर्ण सूक्तियों का संग्रह है । सरल मुहावरेदार भाषा, दृष्टांत सहित जीवनानुभव की अभिव्यंजना इस सतसई की विशेषता है। उदाहरण दृष्टव्य है फिर न हवे है कपट सो जो कीजे व्यापार । जैसे हाँडी काठ की चदै ना दूजी बार ॥' हिन्दी की श्रृंगार सतसइयों में 'बिहारी सतसई' 'मतिरामसतसई' 'रसनिधि सतसई' 'राम- सतसई' तथा 'विक्रम-सतसई' की गणना होती है । विद्वानों की राय में हिंदी में श्रृंगार सतसई परम्परा का सूत्रपात बिहारी सतसई से होता है । आचार्य डा. डॉ. दिलीप पटेल एम.ए., पी.एच.डी., हिंदी शिक्षण निष्णात fra sted - STUDIS कई रचनाओं का पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन । सफल शिक्षक, कुशल लेखक । छात्रों में विशेष लोकप्रियता । सम्प्रति प्राध्यापक, कलाविज्ञान-वाणिज्य महाविद्यालय शहादा (महाराष्ट्र) है Pfle श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Line Wh 5615 T (८८) हजारीप्रसाद द्विवेदीजी अपने 'हिन्दी साहित्य' में हिन्दी की श्रृंगार सतसई परम्परा का प्रारम्भ बिहारी सतसई से मानते हैं। महाकवि बिहारी की 'बिहारी सतसई' महत्वपूर्ण कृति है । आचार्य रामचंद्र शुक्लजी का बिहारी सतसई के संबंध में निम्नलिखित मंतव्य दृष्टव्य है "श्रृंगार रसके ग्रन्थों में जितनी ख्याति और जितना मान बिहारी सतसई का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है ।" बिहारी सतसई की महत्ता निम्न दोहे से स्वयं प्रमाणित हो जाती है सतसइया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर । देखन में छोटे बर्गे, घाव करे गम्भीर ॥ बिहारी सतसई मुख्यरूप से श्रृंगार की रचना है जिसमें कवि ने श्रृंगार के विविध पक्षों संयोग, वियोग, प्रेमीप्रेमिकाओं की क्रीडाएँ, नखशिख, वयःसंधि, प्रेमोदय का विशद वर्णन किया है । कि प्रेम के जितने खिलवाड़ हो सकते हैं उनका विस्तृत चित्रण "बिहारी सतसई' में देखा जा सकता है संयोग की क्रीडा दृष्टव्य है - 'बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय । सोह करे भौंहनि हँसे, देन कहै नटि जाय ।।' संयोग- पक्ष में रूपवर्णन की प्रधानता बिहारी की विशेषता है। नारी सौंदर्य की सुकोमलता, मादकता का वर्णन करते हुए आप लिखते हैं - 'अरुन बरन तरुनी चरण- अँगुरी अति सुकुमार । चुवत सुरंग रँगसो मनो चपि बिछुवन के भार ।' विरहजन्य दुर्बलता की मार्मिक व्यंजना निम्न दोहे में दृष्टव्य है। 'करके मीड़े कुसुम सी गई विरह कुम्हिलाय । सदा समीपिन सखिन हूँनीकि पिछानी जाय ॥' अलंकारों की कलात्मक योजना 'बिहारी सतसई' की विशेषता ही कही जाएगी। अनुप्रास, वीप्सा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग बिहारीजी ने बड़ी खूबी से किया है भाषा की समास शक्ति का परिचय देनेवाला निम्न दोहा दृष्टव्य है - कहत नटत रीझत खिझत मिठत खिलत रुजियात भरे भौन मों करत हैं, नैननु ह्रीं सो बात ।' बिहारी सतसई की भाषा ब्रज है । भाषा की प्रांजलता, शब्दों का सुष्ठु चयन, पदविन्यास की कुशलता, लाक्षणिकता, चित्रौपमता, नादयोजना, ध्वन्यात्मकता जो बिहारी सतसई में लक्षित होती है वह अन्य किसी भी कृति में लक्षित नहीं होती । ऊपर के विवेचन से काव्यगुणों की दृष्टि से "बिहारी सतसई' की उत्कृष्टता प्रमाणित हो जाती है। 100 Thes उपगारी उपगार की, कभी न करता बात । जयन्तसेन महानता, रवि शशि की दिन रात ॥ www.jajnelibrary.org Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की सतसई परम्परा में बिहारी सतसई निश्चयही सर्वप्रथम एवं सर्वोत्कृष्ट है। बिहारी की काव्य प्रतिभा, बहुज्ञता, और वाग्विभूति अद्वितीय है । संस्कृत, प्राकृत और फारसी काव्य का पर्याप्त प्रभाव होते हुए भी प्रस्तुत सतसई में हर दृष्टि से एक अनोखी नवीनता दिखायी देती है । डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदीजी के शब्दों में “बिहारीसतसई सैकडों वर्षों से रसिकों का हिय-हार बनी हुई है और तब तक बनी रहेगी जबतक इस संसार में सहदयता है ।" सतसई काव्य-परम्परा के संदर्भ में हिंदी जैन काव्य के मध्ययुग में बनारसीदास, यशोविजय, विजयदेव सूरि, ज्ञानतराय, बुधजन, टेकचंद, पार्श्वदास आदि अनेक जैन कवि हुए । इनके काव्य में तत्वदर्शन तथा भक्ति के साथ-साथ जैन आचार-पद्धति की काव्यात्मक मीमांसा पाई जाती है । सप्तव्यसन और चार कषायों का विरोध तथा दशधर्म के पालन की प्रेरणा का प्रभाव समस्त जैन काव्य में सर्वत्र पाया जाता है । हिंदी जैन काव्यों में अहिंसा का निरूपण सैद्धान्तिक तथा भावपरक दोनों दृष्टियों से पाया जाता है । अहिंसा का स्वरूप तथा हिंसा की अनावश्यकता तथा अव्यावहारिकता को तार्किक एवं बौद्धिक शैली में समझाया गया है । विशाल नीतिकाव्य 'बुधजन सतसई' के प्रणेता बुधजन ने 'इहलोक' और 'परलोक' दोनों में ही हिंसक व्यक्ति को निंदनीय ठहराया है । एक उद्धरण द्रष्टव्य है - हिंसक को बैरी जगत, कोई न करे सहाय । मरता निबल गरीब लखि, हर कोई लेत बचाय ।। हिंसा ते वै पातकी, पातक ते नरकाय । नरक, निकसि कै पातकी, संतति कठिन मिटाय ।। इसी परम्परा में श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' जी द्वारा लिखित सतसई का विशिष्ट स्थान है । हिंदी काव्य की सतसई परंपरा में यह लेखन अनेक अर्थों में वंदनीय है । उसकी स्वतंत्र रूप से चर्चा आवश्यक है लेकिन वह स्वतंत्र लेख का विषय है । लेख की मर्यादाको ध्यान में रखते हुए यहाँ रुकना पडता है । मधुकरजी के ज्ञान, तपस्या, साधना, जीवनानुभव के अनेकानेक रमणीय सिद्ध स्थलों के चित्रण उनके साहित्य में प्रकट हुए हैं। उनके वाङ्मयीन विग्रह की परिक्रमा और वंदना साहित्य की उपयुक्त निधि है । धार्मिक साहित्य के अंतर्गत उसका विचार मर्यादित रूप से न किया जाए तो उसके साहित्य विषयक नाना गुणों का कोष सहदयों के लिए खुला हो सकता है। मधुकर-मौक्तिक माला तो रोज हम गिनते हैं, पर जीवन में उसका असर नहीं होता; क्यों नहीं होता? इसलिए कि माला तो हाथ में फिरती है और मन सब जगह फिरता है। हाथ में रहा हुआ 'मनका' तभी असर करेगा जब मन का मनका उसका साथ देगा। हाथ का मनका और मन का मनका दोनों का मेल बैठना चाहिये। ★★★ परमात्मा का ध्यान करने के लिए अपना हृदय कमल-समान मानना चाहिये । उसकी एक मध्य, आठ दिशा-विदिशा में नौ पंखुड़ियाँ मान कर एक-एक पँखुड़ी पर नवकार का एक-एक पद स्थापिन करना चाहिये । बीच में अरिहन्त परमात्मा और उनके ठीक चारों ओर सिद्ध परमात्मा, आचार्य भगवान, उपाध्याय महाराज और साधु मुनिराज की स्थापना करनी चाहिये । चारों कोनों में नवकार के शेष चार पद स्थापित करने चाहिये । फिर आँखें बन्द कर ध्यान शुरु करना चाहिये । अरिहन्त परमात्मा पर ध्यान लगा कर आँखें बन्द कर नमो अरिहंताणं' का जाप करो । इसी प्रकार नवकार के नौ पदों का हृदय-कमल की नौ पँखुड़ियों का आधार लेकर ध्यान करना चाहिये। ऐसा प्रयल करेंगे तो मन घूमेगा नहीं | मन की स्थिरता के लिए आँखें बन्द करना आवश्यक है | मन मुकाम पर तब रहता है, जब हम यह महसूस करते हैं कि हम माला नहीं फेर रहे हैं, मन्त्र का जाप कर रहे हैं। सच्चा मन्त्र वही है जो मन को मन्त्रित कर डाले । यदि मन मन्त्रित नहीं हुआ, तो समझ लेना कि अभी तक मन्त्र हाथ नहीं लगा । मन्त्र हाथ लगते ही मन मन्त्रित हो जाता है अथवा मन मन्त्रित हो जाए, तो समझ लेना कि मन्त्र हाथ लग गया। ★★★ जिससे मन को शिक्षा मिलती है - सलाह मिलती है, वह मन्त्र है । मन्त्र से ही मन्त्री शब्द बना है । मन्त्री राष्ट्रपति का सलाहकार होता है | नवकार मन्त्र भी मन को सलाह देता है । वह कहता है मन तर; तो यह मन्तर मन को तरने की, पार होने की सलाह देता है। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण भूल गया उपगार को, अपकारी अविनीत । जयन्तसेन सुखी नहीं, खोता निज परतीत ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचंद्रसूरि का व्यक्तित्व (डा. श्री हुकुमचंद जैन) आचार्य नेमिचंद्रसूरि (उपनाम देवेंद्रगणि) १२ वीं शताब्दी के (३) नमिसाधुकृत (वि. सं. ११२५) काव्यालंकार वृत्ति । महान् आचार्य थे । इनकी प्रमुख रचनाएँ (आरकानकमणिकोश, (४) चंद्रप्रभु महत्तर कृत (वि. सं. ११२७) विजयचंद्र चरित्र । उत्तराध्ययन वृत्ति, महावीर चरियं, रयणचूडरायचरियं, आत्मबोधकुलक (५) देवसेन कृत (वि. सं. ११३२) सुलोचण चरित्र । अथवा धर्मोपदेश कुलक) हैं | इन रचनाओं के माध्यम से उन्होंने तत्कालीन समाज को जागृत किया । इन रचनाओं में दान, शील, (६) जिनचंद्रसूरि कृत (वि. सं. ११३५) संवेगरंगशाला । तप, भावना, एवं अन्य आचार संहिताओं को कथाओं एवं उपदेशों (७) वर्धमानाचार्य कृत (वि. सं. ११४०) मनोरमा चरियं । के माध्यम से समझाया है । आरकानकमणिकोष जैसे कथा ग्रंथ को या इन कवियों के समकालीन होने के कारण नेमिचंद्रसूरि ने लिखकर तो वे संसार में छा गये | उनके कथा ग्रंथों में तत्कालीन अपने ग्रंथों में कथा और चरित्र की सभी विशेषताओं को समावेश सभ्यता एवं संस्कृति के सभी तत्त्व विद्यमान हैं। करने का प्रयल किया है जो उस समय के साहित्य में प्रचलित थी। (१) प्रारंभिक जीवन :- आचार्यनमिचंद्रसूरि के प्रारंभिक जीवन के देवेंद्रसूरिगणि का कार्यक्षेत्र गुजरात था । इस राजघराने के संबंध में उनकी स्वयं की रचनाओं अथवा अन्य दूसरे साहित्य में समय में जैन साहित्य की पर्याप्त प्रगति हुई है । देवेंद्रगणि ने अपने कोई सामग्री उपलब्ध नहीं होती है । उनके स्वयं के ग्रंथों की “महावीर चरियं" की प्रशस्ति में यह कहा है कि उन्होंने 'श्री कर्ण प्रशस्तियों आदि के आधार पर उनकी गुरु परंपरा का तो पता राज्य में, अणहित्तवाडपुर में इस ग्रंथ की रचना की थी। चलता है किंतु लेखक के परिवार, जन्मस्थान, बचपन, गृहस्थजीवन इससे स्पष्ट है कि देवेंद्रगणि गुजरात के सोलंकी वंश के कर्ण आदि के संबंध में अभी तक कोई सामग्री उपलब्ध नहीं हैं । राजा के राज्य में अपनी रचना कर रहे थे । ये कर्णराजा मूलराज तत्कालीन पट्टावलियों और गच्छों के इतिहास में भी लेखक के के वंशज थे । इसी समय में काश्मीर के कवि विल्हण ने मुनि जीवन का ही उल्लेख है। "कर्णसुन्दरी" नामक एक नाटिका लिखी है । जिसमें नायक कर्ण म ग्रंथकार की प्रारंभिक रचनाओं में देवेंद्र साधु नाम मिलता। और नायिका कर्णसुन्दरी है । विद्वानों का मत है कि इस नाटिका है। संभवतः गृहस्थ जीवन में भी उनका नाम देवेंद्र रहा हो । और में गुजरात के राजा कर्णदेव त्रैलोक्यमल के संबंध में बहुत से जब उन्होंने गणिपद प्राप्त किया तब वे देवेंद्रगणि के नाम से जाने ऐतिहासिक वृत्तांत भी जाने जा सकते हैं। इन समकालीन कवियों गये । उसी समय से उनका नाम आचार्य नेमिचंद्रसूरि प्रचलित रहा को राजा कर्णदेव के संबंध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होने पर तथा होगा। इन कवियों की रचनाओं के तुलनात्मक अध्ययन होने पर नेमिचंद्रसूरि (२) समकालीन कवि एवं राजा :- देवेंद्रगणि के अपने ग्रंथों में के व्यक्तित्व पर और प्रकाश पड़ सकता है। किसी समकालीन कवि के नाम का उल्लेख नहीं किया गया है । (३) आत्मलाघव :- आचार्य नेमिचंद्रसूरि यद्यपि प्राकृत के महान् किंतु इतना अवश्य कहा कि आनंद उत्पन्न करने वाली विद्वानों कवि और आगम के जानकार थे फिर भी उन्होंने अपने ग्रंथों में की अन्य कथाओं के विद्यमान होते हुए मेरी यह कथा (रयणचूडराय बड़ी विनम्रता से आत्मलाघव प्रकट किया है । 'रयणचूडरायचरियं" चरिय) विद्वानों के लिए हास्य का स्थान होगी । उनके इस कथन के प्रारंभ में उन्होंने कहा है कि मेरी इस रचना में न गंभीर अर्थ है, -से यह स्पष्ट है कि वे प्राचीन आचार्यों की कथाओं एवं चरित ग्रंथों न अलंकार है, फिर भी मैं इस कथा को कहूँगा । क्योंकि यह कथा से परिचित थे । और उन्होंने अपने समकालीन कवियों की अज्ञानियों के उद्बोधन के लिए और अपने स्मरण के लिए कही कथाओं का भी अध्ययन किया होगा । “समराइच्चकहा", गयी है। यह कथा न पांडित्य प्रदर्शन के लिए और न विद्वानों के "कुवलयमालाकहा", "तिलकमंजरी", चउप्पन्न-महापुरिसचरियं" आदि प्रमोद के लिए है । इसी ग्रंथ के अंत में भी ग्रंथकार ने अपनी रचनाओं के परिपेक्ष्य में देवेंद्रगणि द्वारा उक्त विचार प्रकट करना लघता प्रदर्शित की है और कहा है कि इस कथा को मैं केवल एक ओर उनकी विनम्रता का प्रतीक है तो दूसरी ओर वस्तुस्थिति काव्य रचना के अभ्यास के लिए लिख रहा हूँ | विद्वान लोग का परिचायक भी। इसके दोष समूह का शोधन करें । - नेमिचंद्रसूरि की रचनाओं के समय की सीमा ११२९ से महावीरचरियं की प्रशस्ति में भी ११४१ वि.सं. है । किंतु उनका अध्ययन काल संभवतः वि.सं. ग्रंथकार ने कहा है कि आगम से ११२० से ११५० के लगभग रहा होगा । इस अवधि में जैन कथा रचित लक्षण और छन्दों से दूषित और चरित्रसाहित्य के प्रमुख समकालीन कवि इस प्रकार थे। तथा मेरे अज्ञान से इस चरित्र में जो त्रुटि रह गई है, इसके लिए मैं (१) श्रीचंद्र कृत (वि.सं. ११२०) कथाकरेसु । अपने दोषों की आलोचना करता (२) साधारण सिद्धसेन कृत (वि. सं. ११२३) विलासवई कहा । श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (९०) श्वान प्रवृत्ति छोड़ कर, शेर दृष्टि यदि होत । जयन्तसेन करता वह, पग पग पर उद्योत ।।। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) कवि एवं कथाकार :- इस आत्मलाघक के उपरांत भी कवि ग्रन्थकार की लेखनी से जन्मी है । इन कथाओं में कथाकार ने की रचनाओं को देखने से स्पष्ट है कि वे आगमों के ज्ञाता, विभिन्न कथातत्वों, कथानक-रूढ़ियों, लोकतत्वों का समावेश किया साहित्यशास्त्र में पारंगत और सूक्ष्मदर्शी कथाकार थे । उनकी सभी है | ग्रंथकार की यह विशेषता है कि कथाओं में कौतूहल तत्व रचनाओं में उनके अगाध काव्यत्व की झलक स्पष्ट रूप से देखी निरंतर बना रहता है, जो कि कथा का प्राण है। उनकी कथाओं जा सकती है | नेमिचंद्रसूरि ने प्राकृत गाथा छंद का सर्वाधिक में सोद्देश्यता भी विद्यमान है । इस कारण से नेमिचंद्रसूरि ने अपनी प्रयोग किया है तथा साहित्य में प्रयुक्त होने वाले प्रायः प्रमुख कथाओं के माध्यम से मानव जीवन को सार्थकता प्रदान की है अलंकारों का प्रयोग उनकी रचनाओं में प्राप्त होता है । ये गद्य- और परंपरा में सुरक्षित कथाओं को जीवित रखा है। शैली के प्रयोग करने में भी सिद्धहस्त थे । रयणचूड में प्रायः सभी म इस प्रकार नेमिचंद्रसूरि ने प्राकृत कथा और चरित्र साहित्य प्रकार के गद्य उपलब्ध हैं। उनकी रचनाओं का काव्यात्मक की परंपरा में अपनी रचनाओं के द्वारा विशिष्ट स्थान बनाया है। विवेचन भी प्रस्तुत किया है । जिससे ग्रंथकार के कवित्व का पता चंद्रकुल के वृहद्गच्छ के आचार्यों की परंपरा में नेमिचंद्र चमकते चलता है। वर्गों के लिए उपयोगी हैं । अपने इस कृतित्व के माध्यम से आचार्य नेमिचंद्रसूरि ने परंपरा से आगमिक एवं तात्विक ज्ञान नेमिचंद्र अपने कवि और कथाकार के व्यक्तित्व की अमिट छाप भी प्राप्त किया था । इस बात की सूचना उनकी रचनाओं में पद- छोड़ने में सक्षम हैं। पद पर प्राप्त होती है। जहां कहीं भी वे नैतिक आदर्श उपस्थित संदर्भ :करने का अवसर देखते हैं, वहां उन्होंने अवश्य ही तत्वज्ञान संबंधी अपने ज्ञान का उपयोग किया है । ग्रन्थकार ने अधिकतर तत्वज्ञान (१) देविंदसाहुमहियं अइरा लहइ अपवग्गं । और सुभाषितों का प्रयोग गाथाओं में किया है । कर्मफल, भाग्य मुनि पुण्यविजय द्वारा संपादित और पुरुषार्थ, साहस और धैर्य, अहिंसा, शील और नैतिक आदर्शों 'आरकानकमणिकोश' (प्रस्तावना) प्रा. टॅ. सो. के जो उदाहरण ग्रंथकार ने दिये हैं उनमें कवि के विस्तृत ज्ञान वाराणसी, १९६२ और सतत अध्ययन का परिचय मिलता है | कवि ने केवल जैन हुकमचंद, 'रयणचूडराय चरियं का आलोचनात्मक स्वरचित ही सुभाषितों का प्रयोग अपनी रचनाओं में नहीं किया है, सम्पादन एवं अध्ययन' शोधप्रबन्ध १९८३, अनुच्छेद ९९, अपितु परंपरा से प्राप्त कई सुभाषितों के संदर्भ यत्र-तत्र दिये है। गण ९२. ग्रन्थकार शास्त्रीय ज्ञान के अतिरिक्त लौकिक शिक्षा में भी देसाई, जैन साहित्यनु इतिहास, पृ. १९१ से २१०. निष्णात थे । यही कारण है कि ग्रंथकार ने तत्कालीन समाज शास्त्री, देवेंद्रकुमार, अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध संस्कृति, कला, शिक्षा एवं जनजीवन आदि का सूक्ष्मता से विश्लेषण प्रवृत्तियां पृ. १८८. किया है। मातापिता के प्रति अनुराग, पति-पत्नी में अगाध प्रेम, अणहिलवाड पुरम्मि सिरिकन्नराहिवम्मि विजयन्ते ।" मित्रता का अटूट संबंध, राजा का प्रजा के प्रति उत्तरदायित्व, साधु महावीर चरियं (नेमिचंद्रसूरि) आत्मानंद सभा भावनगर वि. एवं संतों के प्रति श्रद्धा एवं विनयभाव तथा नैतिक मल्यों के प्रति स. १९७३ निष्ठा इन समस्त मानव मूल्यों के संबंध में नेमिचंद्रसूरि ने अपने (६) (क) गेरोला, वाचस्पति, संस्कृत साहित्य का इतिहास, अनुभव और ज्ञान को प्रकट लिया है । अतः वे सच्चे अर्थों में प्र. ९१५ लोकविद् थे । आचार्य नेमिचंद्रसूरि के व्यक्तित्व का एक पक्ष (ख) देसाई, वही, पृ. २२०. जैन हुकमचंद वही अनु. १ गा. उनका सशक्त कथाकार होना है । इसका प्रमाण इसीसे ज्ञात होता १२. है कि उनकी पांचों रचनाओं में से चार रचनाओं में विभिन्न कथाएँ (८) महावीर चरियं (नेमिचंद्र) ग्रंथ प्रशस्ति, गा. १४-१५. नई शैली में प्रस्तुत की गई हैं । लगभग तीन-चारसौ कथाएं (९) वही, ग्रंथ प्रशस्ति, गा. ७. (१०) जैन, हुकमचंद, "रयणचूडरायचरियं का आलोचनात्मक संपादन एवं अध्ययन अनु. ५ गा. ८४ बी.ए., ऑनर्स (संस्कृत), एम.ए. (११) वही, अनु. ३०, गा. ५५. (संस्कृत, इतिहास, प्राकृत (१२) वही, अनु. २६, पेराग्राम ४ गा. ४६. पी.एच.डी., बी.एड्., डीप्लोमा (प्राकृत एण्ड जैनोलॉजी) (१३) वही, अनु. ५६ पेरा १ गा. जन्म दिनांक : ५ फरवरी १९५२ ८६-८७ सम्प्रति - सहायक प्रोफेसर, जैन (१४) वही, अनु. २०, पेरा ८ विद्या एवं प्राकृतविभाग, सुखाडिया (१५) वही, अनु. २४, पेरा ३ विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.) (१६) वही, अनु. ८४ । (१७) वही, अनु. २४, पेरा ३. डॉ. हुकमचन्द जैन श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (९१) चिंता चोरी चाकरी, चंचल चतुरा चित । जयन्तसेन हरे सदा, तन मन वाणी वित्त ।। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE T जैन एवं मसीही-योग : तुलनात्मक अध्ययन TIE की आ Trotuar foto. I&IR 6 חומוס בקריות 517 (डॉ. एलरिक बारलो शिवाजी) PIR # DER FIR ST 所 单项 किश FRIES तुलनात्मक अध्ययन खतरे से खाली नहीं है क्योंकि मानव जब परिपूर्णता की ओर बढ़ता है तो अपने साथ वंशानुक्रम से प्राप्त संस्कारों को लेकर बढ़ता है और तुलनात्मक अध्ययन करने पर कभी-कभी उसके संस्कारों को आघात पहुंचता है फिर भी मानव प्रवृत्ति आरम्भ से ही ऐसी रही है कि वह अपने धर्म की अन्य धर्म से तुलना करता आया है और उत्तम विचारों को ग्रहण कर जीवन पथ पर आगे बढ़ता आया है। तुलनात्मक दृष्टि से किसी वस्तु अथवा विचार पर चिंतन करने पर एक तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी वस्तु अथवा विचार स्वयं में श्रेय अथवा अश्रेय, उचित अथवा अनुचित, सौंदर्ययुक्त अथवा असौंदर्ययुक्त नहीं होता किन्तु, मानव के चिन्तन का दृष्टिकोण उसे श्रेय अथवा अश्रेय, उचित अथवा अनुचित स्वीकार करने में सहायक होता है । उपरोक्त कथन के अनुसार जैनयोग, मसीही योग, पांतजलियोग, ज्ञान-योग, कर्मयोग, भक्तियोग नहीं होते हैं। मानव ने विभिन्न दृष्टियों से नामकरण का लेवल लगाने का कार्य किया है फिर भी मानव चिंतन, चिंतन है और वह जीवन शैली का निर्माण करता है कि स्वयं भी उस पथ पर चले और अन्य को भी चलने के लिए प्रेरित करें, इसी सन्दर्भ में हम जैन एवं मसीही योग का तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयास करेंगे। जैनधर्म में योग जैन के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथ उत्तराध्ययन (२९वें अध्याय) में यह बताया गया है कि शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्तियों का जो पूर्ण निरोध है, वह संबर है और वही योग है । वास्तव में यदि देखा जावे तो जैन धर्म में योग का विषय नीतिशास्त्र है । इसी कारण तत्वार्थ सूत्र में भी शरीर, मन एवं वाणी की क्रिया को योग कहा गया है (कायवाङ्मनः कर्मयोगः- तत्वार्थसूत्र ६ / १) । पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री का इस सम्बन्ध में यह कहना है कि "योग दर्शनकार चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैं, किन्तु जैनाचार्य समिति-गुप्ति स्वरूप उस धर्म व्यापार को योग कहते हैं, जो आत्मा के मोक्ष के साथ योग यानी सम्बन्ध कराता है ।" जैन धर्म में तपश्चर्या का स्थान अधिक है, जैसा कि डॉ. सम्पूर्णानन्द भी लिखते हैं इस सम्प्रदाय में योग की जगह तपश्चर्या को दी गई है ।"* श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण | - जैन-दर्शन में विशेषकर समाधियोग, ध्यानयोग, भावना योग आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है किन्तु, जैनधर्म अथवा दर्शन में सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को महत्व दिया गया है । तत्वार्थ सूत्र १/१/१ में इन्हें मोक्ष मार्ग कहा गया है । सम्यक ज्ञान के अन्तर्गत वास्तविकरूप उजागर होता है, जिसमें (१) द्रव्यानुयोग (२) गणितानुयोग (३) चरणकरणानुयोग और (we) जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ३, किरण २, वि. सं. १९९३, पृ. ५३ योग-दर्शन डॉ. सम्पूर्णा पू. २ E (४) धर्मकयानुयोग को लिया जाता है। सत्य के प्रति श्रद्धा की भावना रखना सम्यक दर्शन है, जो कि बौद्धिक आधार पर होता है । सम्यक् चरित्र मे मनुष्य पांच प्रकार के पापों हिंसा, असत्य, चोरी, दुष्चरित्रता और सांसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति से बच जाता है 'सम्यक् चरित्र के दो भेद हैं (१) संकुल जिसका । : व्यवहार सिर्फ मुनि करते हैं और (२) विकल जिसका व्यवहार गृहस्थ करते हैं। गृहस्थ पाप न करने का संकल्प करता है तथा कुछ अंशों में निवृत्त भी होता है किन्तु मुनि अपने संकल्प के अनुसार पूर्ण आचरण करता है । जैन-धर्म के ये तीन रत्न वास्तव में जैन धर्म की रीढ़ हैं और ये ही योग के साधन हैं हिन्दू धर्म में ज्ञान, कर्म और भक्ति में से कोई भी एक मार्ग मोक्ष के लिए यथेष्ट समझा जाता है किन्तु जैन धर्म में मोक्ष-लाभ के लिए सम्यक् दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक् चारित्र तीनों की आवश्यक मान्यता है | जैन धर्म दो प्रकार के साधक मानता है- (१) संसार साधक और जैन धर्म मे पंच महाव्रत का बहुत अधिक महत्व है । यह पंच महाव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हैं। इनके अतिरिक्त कई छोटे-छोटे व्रत और तपस्याएं है । जैन अनुयायी योग को बारह तपस्याओं के समतुल्य देखते हैं, जिसमें छः बाह्य है और छः आंतरिक, बाह्य में प्रथम अनशन अथवा उपवास है, दूसरा है अनोदरी, जिसका अर्थ है, कम भोजन करना। तीसरा है भिक्षा चारिका या वृत्ति संक्षेप, जिस में जीवननिर्वाह के साधनों में संयम बढता जाता है। चौवा है रस-परित्याग, जिसमें सरस आहार का परित्याग किया जाता है। पांचवा है कायक्लेश, जिसमें शरीर को क्लेश दिया जाता है और छठवीं बाहय तपस्या है प्रति संलीनता, जिसमें इन्द्रियों को अपने विषय से हटाकर अंतर्मुखी किया जाता है । आन्तरिक तपस्या में प्रथम है प्रायश्चित्त, जिसमें पूर्वकृत कर्मों पर पश्चात्ताप किया जाता है। दूसरी आन्तरिक तपस्या है विनय अथवा नम्रता। तीसरी तपस्या है। - वैयावृत्य जिसमें दूसरों की सेवा करने की आत्मा होती है। चौथी तपस्या है - स्वाध्याय । पांचवीं तपस्या ध्यान है जिसके द्वारा चितवृत्तियों को स्थिर किया जाता है। ध्यान के विषय में आगे वर्णन किया जायेगा। अंतिम है व्युत्सर्ग, जिसके द्वारा शरीर की प्रवृत्तियों को रोका जाता है । इस प्रकार जैन धर्म की प्राचीन व्यवस्था में योग के द्वादशांग का रूप है। पातंजल योग की तरह यहां अष्टांग व्यवस्था नहीं है । (९२) by (1) free f ए संस्कृति के चार अध्याय- एवधारी सिंह 'दिनकर' पृ. १२१ ध्यान योग रूप और दर्शन सम्पादन डॉ. नरेन्द्र भानावत HOTE दोष दृष्टि है स्वयं की, गुण दर्शन नहीं क्लेश । जयन्तसेन उपासना करता चित्त चकोर ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) निर्वाण साधक | संसार साधक भौतिक साधनों को, ऐश्वर्य योग विंशिका, योग शतक और षोडशक प्रमुख ग्रंथ हैं ।"३ को प्राप्त करने की साधना करता है जब कि निर्वाण साधक की आचार्य हेमचन्द्र का प्रसिद्ध ग्रंथ "योग शास्त्र हैं । शुभचन्द्रजी ने साधना कैवल्य प्राप्त करने हेतु होती है | इस स्थिति में जो ध्यान "ज्ञानार्णव" की रचना और यशोविजयजी के ग्रंथों में अध्यात्मसार, किया जाता है वह दो प्रकार का होता है (१) धर्मध्यान और अध्यात्मोपनिषद, योगावतार बत्तीसी प्रमुख हैं। (२) शुक्लध्यान । शुक्लध्यान के भी चार भेद हैं - (१) पृथक्त्व आचार्य हरिभद्रसूरिने 'योग-दृष्टि समुच्यय' में ओघदृष्टि और वितर्क (२) एकत्व वितर्क (३) सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति तिपाति आर योगदृष्टि पर चिंतन किया है । नथमल टाटिया उनकी पुस्तक और (४) व्यपरत क्रिया निवृत्ति । वैसे जैन धर्म में ध्यान के चार भेद 'Studies in Jaina Philosophy' में लिखते हैं कि प्रमुख किये जाते हैं (१) आर्तं (२) रौद्र (३) धर्म (४) शुक्ल | पंडित आध्यात्मिक और धार्मिक क्रियाएँ जो मोक्ष की ओर ले जाती हैं, कैलाश चंद्र शास्त्री इन ध्यानों पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि हरिभद्रसूरि के मतानुसार योग है।' इस ग्रंथ में योगिक विकास के आर्त और रौद्र को दुनि कहते हैं और धर्म तथा शुक्ल को आठ स्तर बताये हैं । सबसे महत्व पूर्ण सम्पर्क दृष्टि है, जिसका शुभ । इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग शारीरिक वेदना आदि आदि आठ स्तरोंपर विभाजन किया है - (७) मित्रा (२) तारा (३) बल सांसारिक व्यथाओं को कष्ट जनक मानकर उनके दूर हो जाने के (४) दीप्ता (५) स्थिरता, (६) कान्ता (७) प्रभा (८) परा । ये लिए जो संकल्प-विकल्प किये जाते हैं, उन्हें आर्तध्यान कहते हैं। आठ दृष्टिया हैं, जो कि पातंजल योगसूत्र के यम, नियम, आसन, जो प्राणी धर्म का सेवन करके उससे मिलने वाले ऐहलौकिक और प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि से साम्य रखती पारलौकिक सुखों की कल्पना में तल्लीन रहता है, जैनधर्म में उसे हैं । दूसरा वर्गीकरण, जो हरिभद्रसूरिने किया है, वह है - इच्छा भी आर्तध्यानी कहा गया है । हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और योग, शास्त्र योग, सामर्थ्य योग तथा तीसरा वर्गीकरण उन्होंने योगी परिग्रह इन पांचों के सेवन में ही जिसे आनन्द आता है वह रौद्र के भेदों द्वारा किया है, वह है - गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्त ध्यानी कहा जाता है । धर्म से संबंधित बातों के सतत चिंतन को चक्रयोगी और सिद्धयोगी । 'योग दृष्टि समुच्चय' में योग के तीन धर्मध्यान की संज्ञा दी गई है । इसके भेद हैं - 'पिण्डस्थ, पदस्थ, प्रकार बताये गये हैं । उद्देश्य द्वारा योग, जिसके बारे में उन्होंने रूपस्थ, रूपातीत । शुक्ल ध्यान का वर्णन ऊपर किया जा चुका है, लिखा है :जिसमें "प्रथम में वितर्क और विचार को पृथक अस्तित्व में देखना होता है, दूसरी स्थिति में दोनों को एकता के रूप में देखा जाता है, 19 "कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्य, ज्ञानिनोऽपि प्रमादतः । तीसरी स्थिति में केवल मानस की सूक्ष्म क्रियाएं रहती हैं और विकलो धर्मयोगो यः इच्छा योगः स उच्यते ॥ चौथी स्थिति में वे भी समाप्त हो जाती हैं।" उपर्युक्त श्लोक द्वारा यह बताया गया है कि वह व्यक्ति, जो जैन धर्म की प्राचीन व्यवस्था के अन्तर्गत 'योग' शब्द के धर्मशास्त्र को सुनता है, उनके निर्देशों को जानता है और उसके स्थान पर 'ध्यान' पर अधिक बल दिया गया है । दिगम्बर जैन अनुसार चलना चाहता है, इस योग को उद्देश्य द्वारा योग कहा सम्प्रदाय के 'ज्ञानार्णव' नामक ग्रंथ में ध्यान का सुन्दर विवेचन जाता है। प्राप्त होता है। दूसरा प्रकार है धर्मशास्त्र द्वारा योग । इस संबंध में मुनिश्री नथमलजी "जैनयोग" की प्रस्तुति में लिखते हैं कि हरिभद्रसूरि का कथन है - "जैनधर्म की साधना-पद्धति में अष्टांग योग के सभी अंगों की "शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञेयो, यथाशक्त्यप्रमादिनः' व्यवस्था नहीं है । प्राणायाम, धारणा और समाधि का स्पष्ट रूप स्वीकार नही है । यम, नियम, आसन, प्रत्याहार और ध्यान इनका शास्त्रस्यतीव्रबोधेन वचसाऽविकलस्तया ।। योग दर्शन की भांति क्रमिक प्रतिपादन नहीं है। इसी कारण वैदिक अर्थात् - वह व्यक्ति, जो शास्त्रों में श्रद्धा रखता हो और उसकी युग से चली आ रही प्राणायाम की मान्यता को जैन साहित्य में योग्यता के प्रति सचेत हो, धर्मशास्त्र को अच्छी तरह जानता हो समर्थन प्राप्त नहीं हुआ । हेमचन्द्र प्रभृति जैन दार्शनिकों ने और सब दोषों से मुक्त हो, उसे धर्म शास्त्र द्वारा योग कहा गया प्राणायाम का निषेध ही किया है। योग की दृष्टि से विचार करने है। तीसरे प्रकार का योग है "स्वयं के परिश्रम द्वारा योग", जो वाले आचार्यों में आचार्य हरिभद्रसूरि, आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य सबसे उत्तम है । इस विषय पर जिमणाला शुभचन्द्र और उपाध्याय यशोविजयजी का नाम उल्लेखनीय है। हरिभद्रसूरिजी का कथन है - आचार्य हरिभद्रसूरि की रचनाओं में योग-दृष्टि समुच्यय योग बिन्दु, "शास्त्रसंदर्शितोपायस्तदतिक्रांतगोचरः ।। डॉ. एलरिक बारलो शिवाजी शक्त्युद्रोदविशेषेण, एम.ए., दर्शनशास्त्र, पी.एच.डी. सामर्थ्याख्याऽययुत्तमः ।।" विभिन्न पत्र पत्रिकाओं तथा अभिनन्दन ग्रंथों में पचास 'स्वयं के परिश्रम द्वारा योग' दो लेखों का प्रकाशन | तीन ग्रंथ प्रकाशित। न प्रकार का है - (१) धर्म का सन्यास सम्प्रति - २७, रवीन्द्रनगर, उज्जैन. और (२) योग का सन्यास | धर्म श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण संकट औरन का हरे, परहित वारे प्राण । जयन्तसेन ऐसा नर, जग में बडा महान ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां पर क्षयोपाशिका की सद्वस्तु के लिए काम में लिया जाता है। और योग शारीरिक क्रियाओं के रूप में, जिसमें मन, वचन और शरीर सम्मिलित हैं। आचार्य हरिभद्रसूरिने 'योगबिन्दु' १/३१ में योग के पांच सोपान अथवा स्तर बताये हैं- अध्यात्म, भाव, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय इसके साथ ही योग के अधिकारी के रूप में चार विभाग किये हैं- अपुनवर्धक सम्यगदृष्टि, देश-विरति और सर्वविरति । योग बिन्दु के संबंध में "भारतीय संस्कृति में एवं विशेषतः जैन धर्म में निम्नलिखित वर्णन पाया जाता है : “योगबिन्दु में ५२७ संस्कृत पद्यों में जैन योग का विस्तार से प्ररूपण किया गया है। यहां मोक्ष व्यापक धर्म व्यापार को योग और मोक्ष को ही लक्ष्य बताकर चरम पुद्गल परावर्त-काल में योग की सम्भावना अपुनवर्धक, मित्रग्रंथि, देशविरत और सर्वविरत (सम्यगदृष्टि ) ये चार योगाधिकारियों के स्तर पूजा- सदाचार तप आदि अनुष्ठान, अध्यात्म, भावना आदि योग के पांच भेद; विष, गरलादि पांच प्रकार के सद् वा असद् अनुष्ठान तथा आत्मा का स्वरूप परिणामी नित्य बतलाया है। पांतंजल योग और बौद्ध सम्मत योग भूमिकाओं के साथ जैन योग की तुलना विशेष उल्लेखनीय है । योगविंशिका में हरिभद्रसूरि ने योग को पांच प्रकार का बतलाया है - (१) स्थान (२) उर्ण (३) अर्थ (४) आलम्बन (५) अनालम्बन स्थान योग में कायोत्सर्ग, पर्यक, पद्मासन आदि आसन आते हैं । उर्ण में शब्द का उच्चारण, मंत्र जप आदि का समावेश है । अर्थ में नेत्र आदि का वाच्यार्थ लिया जाता है । आलम्बन में, रूपी द्रव्य में मन को केन्द्रित करना होता है और अनालम्बन में चिन्मात्र समाधि रूप होता है । षोडशक ग्रंथ में 'हरिभद्रसूरि ने मस्तिष्क के प्राथमिक दोषों को बताया है, जिन को पृथक् करना आवश्यक होता है। वे आठ हैं :- (१) जड़ता (२) आकुलता (३) अस्थिरता (४) विचलिता (५) भ्रांति (६) किसी दूसरे को आकर्षित करना (७) मानसिक अशान्ति और (८) आसक्ति । आचार्य हेमचन्द्रसूरिजी ने योगशास्त्र में पांतजल योगसूत्र के अष्टांग योग की तरह भ्रमण तथा श्रावक जीवन की आचार साधना को जैन आगम साहित्य के प्रकाश में व्यक्त किया है । इस में आसन, प्राणायाम आदि का भी वर्णन है। पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का भी वर्णन किया है और मन के विक्षुप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन इन चार भेदों का भी वर्णन किया है, जो आचार्यजी की अपनी मौलिक देन है । " आचार्य हेमचन्द्र के पश्चात् आचार्य शुभचन्द्र का नाम आता है । "ज्ञानार्णव" के सर्ग २९ से ४२ तक में आपने प्राणायाम और ध्यान के स्वरूप और भेदों का वर्णन किया है । - योगशास्त्र के विकास में यशोविजयजी का नाम भी उल्लेखनीय है । उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद, योगावतार बत्तीसी, पांतजल योग सूत्रवृति, योग विंशिका टीका, योग दृष्टि नी सजझाय आदि महत्वपूर्ण ग्रंथो की रचना की है । अध्यात्मसार ग्रंथ के BIFFB श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण योगाधिकार और ध्यानाधिकार प्रमाण में गीता एवं पांतजलि योग सूत्रों का उपयोग करके भी जैन परंपरा में विश्रुत ध्यान के विविध भेदों का समन्वयात्मक वर्णन किया है। अध्यात्मोपनिषद में चिन्तन करते हुए योगवाशिष्ठ और तैतरीय उपनिषदों के महत्वपूर्ण उद्धरण देकर जैन दर्शन के साथ तुलना की है। योगावतार बत्तीसी में पांतजल योग सूत्र में जो साधना का वर्णन है, उसका जैन दृष्टि से विवेचन किया है और हरिभद्र के विंशिका और षोडशक्ति ग्रन्थों पर महत्वपूर्ण टीकाएँ लिखकर उसके रहस्यों को उद्घाटित किया है जैन धर्म में समाधि की भी चर्चा है। समाधि का अर्थ चित्त की चंचलता पर नियंत्रण करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। डॉ. भागचंद्र जैन का कथन है कि नायायम्म कहाओ (८, ६९ ) की अभयदेव टीका में समाधि का अर्थ चित्त स्वास्थ्य किया गया है । दशवैकालिक सूत्र (९-४-७-९) में समाधि मे दो भेद मिलते हैं तप समाधि और आचार समाधि । कर्म क्षय के लिए किया गया तप तप समाधि' है और कर्म-क्षय के लिए किया गया आचार का पाउन 'आचार-समाधि' है। जैन योग में कुंडलिनी के विषय में भी वर्णन किया गया है। इस संबंध में 'श्री नथमलजी टाटिया का कथन है कि "जैन परंपरा के प्राचीन साहित्य में कुंडलिनी शब्द का प्रयोग नहीं मिलता । उत्तरवर्गी साहित्य में इस का प्रयोग मिलता है। आगम और उसके व्याख्या साहित्य में कुंडलिनी का नाम तेजोलेश्या है।" एक विशेष तथ्य, जो जैन धर्म में दिखाई पड़ता है, वह यह है कि लौकिक फल की प्राप्ति के लिए योग की साधना करना निन्दनीय समझा जाता है । मसीहीयोग हिन्दू संस्कृति में विश्वास किया जाता है कि मनुष्य योग द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकता है भारतीय दर्शन के अनुसार योग का अर्थ जीव का परमात्मा से, ईश्वर से जुड़ना है, मिलना है । मसीही शास्त्र, बाइबल यह बताती है कि डेनियल, यहकेकलयशय्याह, संत पॉल और संत जॉन ने ईश्वर का दर्शन पाया था उनका प्रयास, उनका परिश्रम शारीरिक योगाभ्यास के द्वारा नहीं था । इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि मसीही योग भारतीय योग से भिन्न प्रकार का है। वैसे योग न मसीही होता है, न बौद्ध, न जैन और न भारतीय योग तो उस क्रिया का नाम है जिसका अभ्यास करने पर चिन्तन, मनन पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है । संत पौलस इन शारीरिक क्रियाओं के बारे में जानता था और इसी कारण वह लिखता है कि "शारीरिक योगाभ्यास के भाव से ज्ञान का लाभ तो है परन्तु शारीरिक, छालसाओं को रोकने में इन से कुछ भी लाभ नहीं होता ।"" योग से देहसाधना की जाती है, प्रवृत्तियों पर नियंत्रण किया जाता है किन्तु प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर को जानने के लिए पौलस स्पष्ट शब्दों में कहता है कि "क्योंकि देह की साधना से कम लाभ होता है, (९४) पर की ताकत अन्त में, करे सदैव निराश । जयन्तसेन निजात्म बल, पाओ सत्य प्रकाश ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर भक्ति सब बातों के लिए लाभदायक है ।"२ गलील को लौटना, जीवन के आनन्दायक रहस्य, दुखभरे रहस्य, मनुष्य भोग के माध्यम से सिद्ध बनना चाहता है । मसीही क्रोध से मुक्ति, खाली कुर्सी, इगनेशियन ध्यान, प्रतीकात्मक कल्पनाएं, धर्म की शिक्षाएं भी इस तथ्य को प्रकट करती है कि मनुष्य को दुःख पहुंचाने वाली स्मृतियों का अच्छा होना, जीवन का मूल्य, सिद्ध होना चाहिए जैसा कि कहा भी गया है - "इसलिए चाहिए जीवन के स्वरूप का देखना, अपने शरीर को त्यागते समय बिदा कि तुम सिद्ध बनो, जैसा तुम्हारा पिता सिद्ध है ।" सिद्ध बनने के कहना, तुम्हारी अन्त्येष्टि, मृतक शरीर की कल्पना और भूत, उपाय भी सुझाये गये हैं। परमेश्वर अब्राहम को कहता है, "मेरी भविष्य और व्यक्ति की चेतना की बात कही गई है । (४) चौथे उपस्थिति में चल और सिद्ध होता जा ।"" पौलस याकूब की पत्नी अभ्यास में 'भक्ति को लिया गया है जिस के अन्तर्गत बेनेडिक्टाइन से कहता है, "धीरज से मनुष्य पूर्ण और सिद्ध होता है ।"३ प्रकारों का समावेश है - जैसे कण्ठी प्रार्थना, प्रभुयीशु मसीही की प्रार्थना, ईश्वर के हजार नाम, मध्यस्थता कराने की प्रार्थना, यीशु नारायण वामन तिलक जो एक भारतीय थे और जिन्होंने मसीह उद्धारक है उसका निवेदन, पवित्र शास्त्र की आयतें, पवित्रमसीही धर्म स्वीकार कर लिया था, यह मानते थे कि प्रभु यीशु इच्छा केंदित ईश्वर प्रेम की जीवित आग, प्रशंसा की प्रार्थना मसीह योग का प्रभु है । उसने एक ऐसी यौगिक पद्धति बतलाई है आदि के रूप में अभ्यास बताया गया है। जो सरल और सहज है | भारतीय योग में योगी वैराग्य को अपनाकर वैरागी होता है जबकि मसीही योगपद्धति में मसीही फादर न्यूना के विचार :योगी को प्रभु यीशु मसीह का अनुरागी होना आवश्यक है । फादर न्यूना ने उनकी पुस्तक 'योग और मसीही ध्यानमें मसीही धर्म शारीरिक योगाभ्यास को नहीं किन्तु आत्म-योगाभ्यास निम्नरूप से अपने विचार व्यक्त किये हैं - को उत्तम मानता है जैसा कि लिखा है - "शारीरिक मनुष्य मा "मसीही धर्म और योग में विशेष भिन्नता है । मसीही धर्म में परमेश्वर के आत्मा की बातें ग्रहण नहीं करता क्योंकि वे उसकी ईश्वर से एक व्यक्तिगत सम्बन्ध है जो कि योग के स्वयं ध्यान, दृष्टि में मूर्खता की बातें हैं और न वह उन्हें जान सकता है क्योंकि उन्नति, परावर्तन और मनुष्य शक्ति से भिन्न है।" उनकी जाँच आध्यात्मिक रीति से होती है।" अप्पास्वामी के विचार :- मसीही योग के सम्बन्ध में कुछ विचार : अप्पास्वामी लिखते हैं कि हमें यह स्पष्टकर देना चाहिए कि भारतीय दष्टि को ध्यान में रखकर कुछ मसीही अनुयायियों कोर्ट मसीडीयोग और हिन्दयोग नहीं है। यह मानसिक अनुशासन ने मसीही योग को भारतीय संदर्भ में देखने का प्रयास किया है। है और किसी भी धर्म के अनयायी द्वारा काम में लिया जा सकता सर्वप्रथम हम जे. एम. डेचनेट के विचारों से अवगत होगें, जिन्होंने क्रिश्चियन-योग नामक पुस्तक की रचना की है। उन्होंने मसीही योग में चार प्रकार के अभ्यास बताये हैं - (9) पवित्रता को बाइबल में वर्णित चमत्कार :आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा पाना (२) प्रार्थना का अभ्यास कुछ व्यक्ति बाइबल में वर्णित चमत्कारों को योग द्वारा मानते (३) संगति का अभ्यास और (४) ईश्वर के सम्मुख प्रतिदिन की हैं। उदाहरण स्वरूप देखें तो बाइबल के पुराने नियम में एंलिशा उपस्थिति । प्रार्थना पर उन्होंने बहुत अधिक बल दिया है और इस नबी का वर्णन है। एक दिन एक-विधवा स्त्री एलिशा के पास सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि "एक मसीह को प्रार्थना में अपने जीव आई और उसने निवेदन किया कि मुझे महाजन का ऋण देना है। को खोजना नहीं पड़ता या पूर्वीय विद्वानों की तरह अपने को महाजन मेरी सन्तानों को बेच देने का भय दिखा रहा है । अतः भूलना नहीं पड़ता, परन्तु वह अपने आप को परमेश्वर के वचन के मेरी रक्षा कीजिये एलिशा ने पूछा - तुम्हारे घर में कोई सम्पति है सम्मुख उद्घाटित करता है क्योंकि इसी से वह अपने को खोज या नहीं, स्त्रीने उत्तर दिया कि एक छोटे से बर्तन मे केवल सकता है और उसका अस्तित्व है ।"लिका थोड़ासा तेल है। एलिशा ने उत्तर दिया - "जाओ अपने पड़ोसियों 1 एन्थोनी डी. मेलो के विचार :-रानी के घरों से मांगकर बड़े-बड़े जितने बर्तनों मिल सके, ले आओ और अपने इस तेल के बर्तन से तेल डाल-डालकर उन सब बर्तन को नाक एन्थोनी डी. मेलो एक कैथोलिक फादर है, वे साधना संस्था, भर दो, देखोगी जितना डालोगी उतना ही बढ़ता जायेगा । सब पूना के संचालक हैं। उन्होंने उनकी पुस्तक 'साधना - ए वे टू नका पुस्तक साधना - एव टू बर्तन भर जायेंगे, फिर उस तेल को बेचकर ऋण चुका देना और गॉड' में ध्यान पर अधिक बल दिया है और चार तथ्यों पर जो कुछ बच रहे उसे अपने निर्वाह के लिए रख लेना ।'' ऐसा ही अभ्यास करने को कहा है -(9) सावधानी जिसमें उन्होंने पांच हुआ । इसी प्रकार एक बार एलिशा अभ्यास बताये हैं - मौन की आवश्यकता, शारीरिक संवेदना, वश्यकता, शारारिक सवदना, ने सात सौ लोगों को भोजन करवाया शारीरिकसंवेदना और विचार नियंत्रण तथा श्वास-प्रश्वास था | प्रश्न उपस्थित होता है कि संवेदनाएं । (२) दूसरे को उन्होंने सावधानी और ध्यान कहा है। क्या एलिशा एक योगी था ? इसमें उन्होंने नौ अभ्यास दिये है - ईश्वर मेरी श्वास में, ईश्वर के साथ श्वास-संचार, शान्तता, शारीरिक प्रार्थना, ईश्वर का स्पर्श, को प्रभु यीशु मसीह के चमत्कार ध्वनि, ध्यानावस्था, सभी में ईश्वर को ढूंढना और दूसरों की तो बहुत प्रसिद्ध हैं । उन्होंने मुर्दो सचेतता | तीसरे अभ्यास को 'कल्पना' के अन्तर्गत रखा गया है को जिलाया, कोढ़ियों को शुद्ध किया, जिसमें यहां और वहां की कल्पना, प्रार्थना के लिए एक स्थान, पांच हजार लोगों को भोजन करवाया, पानी पर चले, हवा और तूफान को हैं। उदा वर्णन हैन किया श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण स्वच्छंदी मानव यहाँ, कभी न होत महान । जयन्तसेन निर्दयता, उस के घट में जान ।। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त किया, पानी को दाख-रस बनाया, अन्धों को आंखे दी आदि- है। जैन धर्म में 'अपरिग्रह' रीढ़ के समान है । मसीही धर्म और आदि । यह सब तथ्य उन के पूर्ण योग एवं निष्कलंक अवतार जैन धर्म दोनों में 'अपरिग्रह' को लेकर बहुत अधिक समानता है। होने के संकेत देते हैं । एलिशा और प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों ने मैं विचार करता हूँ कि इस प्रत्यय ने जहाँ मसीहियों को आध्यात्मिक भी चमत्कार किये किन्तु वे सब परमेश्वर के अनुग्रह के कारण थे रूप से ऊँचा उठाया है वहीं दूसरी ओर संसार में उन्हें गरीब बना और यही मसीही योग और भारतीय योग में अन्तर दिखाई देता . रखा है । गरीबी, धनवान बनने से श्रेष्ठ है | धनवानों के विषय में कहा गया है कि परमेश्वर के राज्य में धनवान के प्रवेश करने से जैन धर्म एवं मसीही धर्म में समानता : ऊंट का सूई के नाके में से निकल जाना सहज है। परम योग मानव जीवन को उठाने का साधन है, साध्य नहीं । इस जैन धर्म एवं मसीही धर्म में पहिली समानता यह है कि दोनों हेतु जैन मतावलाम्बियों ने पांतजल योग सूत्रों को पूर्ण रूप से धर्म हैं जिसे मानव को धारण करने की शिक्षा दी जाती है | जैन स्वीकार नहीं किया, न ही मसीहियों ने । जैसा कि आरम्भ में हम धर्म के अनुसार जैसे ही वस्तु का अपना धर्म है उसी प्रकार मानव देख चुके हैं कि "शारीरिक-योगाभ्यास के भाव से ज्ञान का लाभ का अपना धर्म है. स्वभाव है कि वह अपने को जाने यह परमतत्व तो है परन्त शारीरिक लालसाओं को रोकने में इन से काछ भी लाभ है. तो मसीही धर्म में परमेश्वर का सान्निध्य परम तत्व है जिसे नहीं होता ।" दोनो धर्म, जैन और मसीह, में समानता यही है कि योग की क्रिया द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। दोनों शारीरिक योग के स्थान पर आत्म-योग को प्रधानता देते हैं। जैन धर्म में तपश्चर्या पर अधिक बल दिया जाता है क्योंकि जैन धर्म में कषायों से मुक्ति मिल जाना ही कैवल्य है और तपश्चर्या भी योग है। इस तपश्चर्या में कर्म भी निहित है। इसी इसीलिये वह दिन प्रतिदिन इस ओर अग्रसर होता रहता है और प्रकार मसीही धर्म में पापों को स्वीकार करना तपश्चर्या है । यहां कर्मों के माध्यम से ईश्वर बन जाने की ओर, तीर्थंकर हो जाने की समानता इस बात में है कि जैन अनुयायी का विश्वास होता है कि ओर प्रयास होता है। तपश्चर्या द्वारा वह कैवल्य प्राप्तकर सकता है | मसीही धर्म में भी जैन और मसीही धर्म दोनों आन्तरिक शुद्धि पर बल देते हैं । बिश्वास की महत्ता है। विश्वास की साधना है | बिश्वास से ही मसीही धर्म में विश्वास और पश्चात्ताप द्वारा आत्म शुद्धि है वहीं तपश्चर्या का उदय होता है। दूसरी ओर जैन धर्म में संवर और निर्जरा का महत्व है । यहां भी जैन धर्म पंच महाव्रत का प्रतिपादन करता है । उसी प्रकार । हमें दोनो धर्मों में समानताः दृष्टिगोचर होती है। मसीही धर्म में प्रायश्चित्त के व्रत (प्रेरितों के काम २७:९), अठवारे जैनधर्म और मसीहीधर्म में अन्तर : के व्रत (मत्ती ९:१४) का विधान है | बाइबल बताता है कि मूसाने जैन धर्म के अनुयायी चौबीस तीर्थकंरों में विश्वास करते है। चालीस दिन का व्रत रखा था (१ राजा ३७:९) । प्रभु यीशु मसीह ऐसी मान्यता है कि अब आगे कोई तीर्थंकर नहीं होगा । मसीही ने भी चालीस दिन का व्रत रखा था (मसी ४:२, मरकुस १:१२- केवल प्रभ-यीश में विश्वास करते हैं और यह भी विश्वास करते हैं ३. लुभा ४:२) व्रत इस दृष्टि से रखा जाता है कि हम परमेश्वर कि इस संसार का अन्त होगा और प्रभ यीश मसीह न्याय के दिन का स्मरण करते रहे । व्रत रखना एक अभ्यास है । जैन धर्म में फिर आयेंगे और कर्मों के अनुसार समस्त व्यक्तियों का निर्णय जैसे पंच महाव्रतों का पालन करना अनिवार्य है । उसी तरह तप होगा । के अन्तर्गत एक मसीही को व्रत को साधन बनाते हुए मन फिराना अर्थात् पश्चात्ताप करना अनिवार्य है । मसीही धर्म में पश्चात्ताप जैनधर्म के अनुयायी केवल पूर्वकृत कर्मों पर पश्चात्ताप अपने पापों से करता है क्योंकि पाप के द्वारा ही मृत्यु है । जैनधर्म करता है, व्रत और तपस्याओं को मान्यता देता है किन्तु, मसीही में जहां त्रिरल के अन्तर्गत सम्यग् दर्शन सम्यग ज्ञान एवं सम्यग् धर्म में केवल पूर्वकृत कर्मों से ही पश्चात्ताप नहीं हैं वरन समस्त चरित्र के अन्तर्गत बाय एवं आन्तरिक सभी बातों का विधान पापों का प्रायश्चित किया जाता है । व्रत एवं तपस्याओं का जो उपस्थित है उसी प्रकार मसीही धर्म में विश्वास, प्रेम, नम्रता, सेवा शरीर से सम्बन्धित है कोई मूल्य नहीं है। की भावना निहित है । जैन अनुयायी वैयावृत सेवा की चर्चा करते जैनधर्म एवं दर्शन ने अपने तर्कशास्त्र को विवेचना के द्वारा हैं वही मसीहियों ने मानव सेवा को प्रभु की सेवा के रूप में बहुत अधिक बढ़ाया किन्तु मसीही धर्म ने तर्कशास्त्र को इतना स्वीकार किया है । यही कारण है कि मसीही मिशनरियों ने अपने महत्व नहीं दिया । उसने मसीही धर्म को 'विश्वास, आशा, प्रेम' जीवन का उत्सर्ग कर, मानव की सेवाकर, कीर्तिमान स्थापित किये। की भित्ती पर खड़ा किया जिसकी प्रेरणा वह मसीही धर्म के हैं । भारत में स्कूलों की स्थापना, अस्पतालों की स्थापना, नर्सेस प्रवर्तक प्रभु यीशु मसीह से, जो निष्कलंक अवतार हैं, प्राप्त करता ट्रेनिंग केन्द्रों की स्थापना कर इस बात को बता दिया है, और है। अन्य जातियों के लिए मार्ग प्रशस्त किया है । यह बात अलग है उपसंहार :कि सेवा के साथ-साथ उन्होंने मसीही धर्म का प्रचार भी किया जिस के कारण से कई दरिद्रनारायणों ने मसीही धर्म को स्वीकार जैन और मसीही, दोनों धर्मों कर जीवन में उन्होंने अपना स्थान बनाया है। मैं सोचता हूँ कि ने नीतिशास्त्र को महत्व दिया और मिशनरियों द्वारा धर्म परिवर्तन कर क्या पाया ? कुछ नहीं। हर मानव के व्यक्तिगत जीवन की ओर भारतीय है और अपनी मिट्टी से जडा हआ है. उसके ध्यान देकर मानव-मूल्य को समझने जीवन में सद्गुण की बहुलता है जो अन्य धर्मावलम्बियों में में योगदान दिया है। 'दृष्टिगोचर नहीं होती ।' यम के अन्तर्गत 'अपरिग्रह' का प्रावधान श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण मेकप करना छोडकर, चेकप करो जरूर । जयन्तसेन प्रबुध्द हो, गूंजे मंगल तूर ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "भगवान महावीर की जन-जीवन को देन" । (डॉ. शोभनाथ पाठक) अतीत के आलोक में भगवान महावीर के पांचव्रतों (सत्य, अहिंसा निउणा दिट्ठा - सव्वभूएसु संजमो । अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचय) के सम्बल ने उस युग को जावन्ति लोए पाणा - तस्य अदुव थावरा, इतना संवारा कि हिंसा को अहिंसा का दिशा निर्देश मिला, पाप को पुण्य के परखने की क्षमता मिली, और असत्य को सत्य के समझने लजाणमजाणं वा, न हणे नो वि घावए ।। (दश वै. सूत्र) की सीख मिली । अनेक आततायी, तथा असामाजिक तत्व, प्रत्येक प्राणी को सबसे अधिक प्रिय उसका प्राण होता है उसे दुष्कर्मों को त्याग कर सत्कर्मों की ओर उन्मुख हुए । भगवान गंवाना वह किसी कीमत पर पसंद नहीं करता फिर ऐसे अनमोल महावीर के आदर्श और उपदेश सामाजिक कल्याण के लिए उस प्राणों को किसी को लूटने का क्या अधिकार है ? तात्पर्य यह है युग में जितने उपयोगी थे उससे कहीं अधिक आज उनकी कि प्रत्येक प्राणी की रक्षा करना, मनुष्य का सबसे बड़ा कर्तव्य है आवश्यकता है। फिर भी वह उससे विमुख हो जाता है, आखिर क्यों ? इस प्रकार तथ्यतः आज के वैज्ञानिक-विकास तथा भौतिकता के भटकाव विश्वकल्याण के लिए भगवान महावीर का दिया हुआ "अहिंसा" में उलझी मानसिकता भले ही कृत्रिम साधनों की उपलब्धि से महामंत्र अत्यधिक उपयोगी है । इसके प्रचार-प्रसार की आज क्षणिक संतोष की अनुभूति करे किंतु रासायनिक अस्त्र, शस्त्रों की नितान्त आवश्यकता है। दौड़ तथा स्वार्थ और वैभव विलास की बढ़ती भावना मनुष्य को दूर संचार के साधनों से जहाँ आज हमें अनेक सुविधाएँ कहाँ ले जायेगी यह सब सोचकर रोमांच हो जाता है । आज-कल प्राप्त है वहीं अनेक असुविधाएँ भी हैं । आपसी आरोप प्रत्यारोपों जो हिंसा की नई लहर चारों ओर फैल रही है कि निर्दोष लोगों को से सामाजिक विषमता बढ़ती है कि आज एक देश दूसरे देश, और सरेआम मार दिया जाता है, यह निर्ममता की प्रवृत्ति अत्यधिक एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिपर झूठे आरोप लगाकर किसी के जीवन निन्दनीय है । अतः आज भगवान महावीर के आदर्श और उपदेश ___ में विष घोलता है । वास्तव में इस प्रवृत्ति को बदलने के लिए समस्त संसार के लिए वरदान स्वरूप हैं । अब केवल भारतीय भगवान महावीर के "सत्य" सिद्धान्त का सहारा लेना समाज के समाज के लिए ही नहीं, वरन विश्व के समस्त जीवों के लिए लिए अत्यधिक उपयोगी है | महावीर ने कहा है कि - भगवान महावीर के उपदेशों का प्रसार अति आवश्यक हो गया मुसावाओ यह लोगम्मि, सव्वसाहूहि गरिहिओ।। अविस्सासौ य मूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए ।। (दश. सू.) आज के हिंसा पूर्ण माहोल में जहाँ किसी का जीवन सुरक्षित नहीं है भगवान महावीर का यह उद्बोधन कितना उपयोगी सिद्ध संसार के सभी महापुरुषों ने असत्यवादन की घोर निंदा की हो सकता है जिसे आंकना आसान नहीं है, यथा : है, और बड़े से बड़ा विनाश भी असत्य से हुआ है - फिर भी मनुष्य असत्य बोलता है । स्वयं को व समाज को दूषित करता सव्वे पाणा पियाउया, है । कितना आश्चर्य है ? इसलिए महावीर ने हमेशा सत्य ही सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा । बोलने की सीख समाज को दी । उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि - पियजीविणो जीविउकामा "तं सच्चं भयवं" सत्य ही भगवान है । सव्वेसिं जोवियं पियं । (आचा. - सूत्र) तात्पर्य यह है कि सत्य बोलना, ईश्वर की प्राप्ति है हमारे राष्ट्र का अर्थात् सभी प्राणियों को अपने अपने प्राण प्रिय हैं । सब प्रतीक भी है "सत्यमेव जयते" अतः सत्य का सहारा ही समाज के सुख चाहते हैं, दुःख सहन करना कोई भी नहीं चाहता । सुखी लिए श्रेयस्कर है। जीवन जीने की सबकी अभिलाषा होती है, फिर किसी अन्य की 'अस्तेय' का भी महावीर के उपदेशों में प्रमुख स्थान है । हत्या करने या कष्ट पहुँचाने की ओर मनुष्य क्यों प्रवृत्त होता है ? सामाजिक विषमता में एक दूसरे क्या उसे किसी अन्य के पीड़ित करने में संकोच नहीं होता - दया की संपत्ति या साधनों का अपहरण, नहीं आती ? आखिर पाषाण हदय न पसीजने का कारण क्या चुराना, या दीनता, विकास की है ? यह समाज के लिए एक चुनौती है। प्रक्रिया में बाधक है इसलिए भगवान भगवान महावीर ने अहिंसा को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर महावीर ने कहा है किसभी प्राणियों के प्राण बचाने का आव्हान करते हुए लोगों को चित्तमंतयचित्तं का अप्पं वा उपदेश दिये कि - जइ वा वह त्थिमं पढमं ठाम, महावीरेण देसियं । दंतसोहणमित्तं वि, उग्गहंसि अजाइया । श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (९७) विचित्र गति है काल की , जान सका नहीं कोय । जयन्तसेन निडर रहो, होनहार सो होय ।। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं आप्पणा न गिण्हति, नो वि गिण्हावए परं ।। देवदाणवगंधव्वा जक्खरक्खसकिन्नरा। अन्नं वा गिण्हमाणंवि, नाणुजाणंति संजया । (दश. सूत्र) वभयारि नमसंति, दुक्करं जे करेतिति ।। (उत्त. सू.) अर्थात् कोई भी वस्तु चाहे सजीव हो अथवा निर्जीव, कम हो म अत्यन्त दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत की साधना करने वाले, ब्रह्मचारी या ज्यादा, यहाँ तक ही दांत कुतरने की सलाई की भांति भी छोटी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नरादि सभी देवी देवता, से छोटी वस्तु क्यों न हो, उसे बिना उसके मालिक से पूछे नहीं नमन करते हैं। आज के वैज्ञानिक युग में भी इस ब्रह्मचर्य व्रत की छूना चाहिए। यही नहीं बस कोई वस्तु न दूसरों से उठवायें, और वरीयता को बखानते हुए, मानवता के कल्याण हेतु इसे अपनाने न उठाने की प्रेरणा दे । इस प्रकार किसीभी व्यक्ति को किसी का की आवश्यकता पर बल दिया गया हैं।" कोई सामान नहीं लेना चाहिए। तथ्यतः भगवान महावीर के उपदेशों और आदर्शों को पूर्णतः - अपरिग्रह की उत्तमता को आंकते हुए संग्रह की प्रवृत्ति को अपनाने और विश्वस्तर पर प्रचलित-प्रसारित करने की आज स्वयं के लिए व समाज के लिए घातक बताया गया है भगवान नितांत आवश्यकता है | मानवता का मंगल भगवान महावीर के महावीर ने अपरिग्रह के आदर्श को अपनाने का आव्हान करते हुए उपदेशों पर चलने से ही संभव है। कहा कि:जे पापकम्मेहि घणं मणूसा, | मधुकर-मौक्तिक समाययत्ती अमई गहाय । पहाय ते पासपयहिए नरे, वस्तु का बन्धन ही संसार का बन्धन है, इसलिए वस्तु का बन्धन छूटा तो संसार का बन्धन भी छूटा। संसार का बन्धन वेराणुवद्धा णरयं उवेत्ति । (उत्त.) छूटा यानी हमने मुक्ति की और अपना कदम बढ़ाया। यदि हम जो मनुष्य धन को अमृत मानकर, अनेकविध पापकर्मों द्वारा सिद्ध-परमात्मा के विषय में कुछ सोचें तो हमें विदित होगा कि वे धनोपार्जन करता है वह कर्मों के दृढ़ पाश में बंध जाता है और सिद्ध हैं, हम असिद्ध हैं, वे छूट चुके हैं, हम बन्धन में हैं । हम अनेक जीवों के साथ बैरानुबन्ध कर अन्त में सारा धन ऐश्वर्य यहीं राग के बन्धन में बंधे हुए है, वे राग का बन्धन तोड़कर ऊपर पर छोड़ना पड़ता है अतः स्पष्ट होता है कि संग्रहकी प्रवृत्ति दुःखद चले गये हैं। भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य की वरीयता को बखानते हुए इसे स्वयं अपने जीवन में उतार कर समाज को अपनाने का आव्हान किया । ब्रह्मचर्य की महत्ता के मान में उन्होंने कहा कि - "बमचेर उत्तमतव-नियम-नाण-दंसण-चरियसम्मत विणयमूलं" अर्थात् ब्रह्मचर्य, उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय का मूल है | ब्रह्मचर्य की इतनी महिमा है कि - जैन शासन में व्यक्ति की बाय-शुद्धि का इतना महत्त्व नहीं है, जितना अंतरंग-शुद्धि का । यदि अंतरंग अशुद्ध है, तो केवल बहिरंग-शुद्धि से कोई लाभ नहीं | लक्ष्य अंतरंग-शुद्धि का होना चाहिये । अंतरंग-शुद्धि का लक्ष्य बना कर बहिरंग शुद्धि की ओर ध्यान देना चाहिये । यदि ऐसा होगा तो जीवन अवश्य ही महान् बन जाएगा। ज्ञानी कहते हैं कि यह जीव ज्ञाता-दृष्टा है । इसके ज्ञान और दर्शन पर आवरण छाया हुआ है। यदि यह आवरण हट जाए, तो जीव का मूल रूप प्रकट हो सकता है। यदि हम केवल देखें और जानें, तो हम भी ज्ञाता और द्रष्टा बन सकते हैं: पर हम देखने और जानने के अलावा इष्ट वस्तु के प्रति राग और अनिष्ट के प्रति द्वेष करने लगते हैं। ऐसा मोह और अज्ञान के कारण होता है; इसलिए हमारा जानना और देखना सही नहीं है, अतः आवश्यक है कि हम अपने को सुदृष्टा बनायें। -जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' भारत तथा मारिशस की प्रमुख पत्रपत्रिकाओं में लगभग तीन हजार लेख, निबंध आदि प्रकाशित । विविध विधाओं पर बीस पुस्तकों का प्रकाशन, दस प्रकाशनाधीन । अ.भा.प्राच्यविद्या परिषद के विगत अधिवेशनों में संबंधित विश्वविद्यालयों से शोधपत्र प्रकाशित | शोध-प्रबंध 'भगवान महावीर' के चतुर्थ संस्करण का हिंदी में प्रकाशन | डॉ. शोभनाथ पाठक सम्प्रति - म.प्र. शासन के एम.ए., (संस्कृत हिंदी), हरिजन, आदिम, पिछडा वर्ग, पी.एच.डी., साहित्यरल कल्याण विभाग के सांस्कृतिक साहित्यिक प्रतिष्ठान वन्या प्रकाशन भोपाल में पदस्थ । निवास पता : ४६, फतेहगढ़ भोपाल. C श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (९८) पवन वेग से जा रहा, पल पल जीवन जान । जयन्तसेन विज्ञ बनो, समझो काल वितान || Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-धर्म एवं योग - पासन, समीक्षक डॉ. वृन्दाव मानसिक एवं (डॉ. मायारानी आर्य) जैन - धर्म एक साधना - पद्धति में विश्वास करता है जिसमें केवल ईश्वर प्राप्ति ही नहीं हैं, अपितु योग उस क्रिया का नाम है, शरीर पर विशेष ध्यान दिया जाता है और 'योग' में भी शरीर पर जिसके द्वारा आभ्यन्तर तथा बाह्य जीवनका ऐसा परिपूर्ण उत्सर्ग काबू करके अपने चरम लक्ष्य पर पहुंचने का आग्रह है । जैन धर्म तथा परिवर्तन हो कि उसके द्वारा भगवान् चैतन्य की अभिव्यक्ति में योग की प्रतिष्ठा भगवान् महावीर के जीवनकाल से ही स्थापित ____ हो तथा वह स्वयं भी भगवत्-कर्म का एक अंग बन सके ।' हा चुका था। जन आगम ग्रन्था म ताथकर प्रातमाआ कानमाणी योग शब्द की उक्त परिभाषाओं तथा महापुरुषों द्वारा की गई की पद्धति में जो विशेषध्यान आसन पर दिया गया है जिनमें विभिन्न व्याख्याओं का मूल आशय एक ही है और वह है - "योग पद्मासन, खड्गासन और पर्यंकासन प्रमुख हैं । जैन मूर्तिकला के उस क्रिया का नाम है जो जीवात्मा का परमात्मा से मिलन कराता प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. वृन्दावन भट्टाचार्य ने लिखा है कि जैन मूतिया है. अर्थात जिस साधन द्वारा जीवात्मा और परमात्मा में एक्य साधना पक्ष में व्यक्ति के मानसिक एवं शारीरिक उत्थान के साथ स्थापित हो सके, वही 'योग' है। एकाकार होकर उसे निर्वाण या मोक्ष का मार्ग दिखाती हैं । यथार्थ में 'तीर्थंकर' बिम्ब के समक्ष साधक अपने शरीर एवं मन को जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्त और योग :एकाग्रचित्त करके मूर्ति में प्रकल्पित नासिकाग्र दृष्टि एवं भ्रूमध्य घा जैनधर्म व दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त 'स्याद्वाद' या दृष्टि को टिकाकर उन सभी गुणों की प्रादुर्भूति अपने शरीर में लाने 'अनेकांतवाद' है | जैन दर्शन के अनुसार वस्तु अनंत धर्मों से का प्रयास करता है। युक्त है और इन अनंत धर्मों का साक्षात्कार साधारण मानव नहीं जैन धर्म एवं दर्शन निवृत्तिप्रधान है, जिसमें शरीर को कर सकता । कैवल्यज्ञानसंपन्न योगी ही कर सकता है । साधारण तपश्चर्या की ऊष्मा में तपाकर जीवन की समस्त भौतिक संपदा मानव को वस्तु का आंशिक या सापेक्ष ज्ञान ही प्राप्त होता है. को नकारते हुए अपने अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने की व्यावहारिक अतः वह अपने इस ज्ञान के आधार पर यह नहीं कह सकता कि दीक्षा की सार्थकता को स्वीकारा गया है । ईसा पूर्व की छटी "वस्तु ऐसी ही है ।" यदि वह ऐसा कहेगा तो उसका यह कथन शताब्दी में चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर तक आते-आते प्रमाण का काटि में न आकर 'दुर्णय' की कोटि में चला जायेगा। शरीर को कठोर यातना देकर उसे अपने चरम लक्ष्य तक पहुँचाने इसीलिये 'स्याद् पद जोड़कर उसके द्वारा यह प्रकट किया कि का साधन स्वीकार कर लिया गया था । महावीर ने अपने जीवन "वस्तु स्यात् अर्थात् संभवतः ऐसी है" या "ऐसी नहीं भी है।" काल में ऐसी कई यौगिक क्रियाओं का सतत अभ्यास किया था, यह सिद्धान्त ही 'स्याद्वाद' है। जिनसे मन की चंचलता समाप्त होकर ध्यान की एकाग्रता आती मजीव की अपनी तय्यारी और उसे सतत अभ्यास द्वारा थी। महावीर स्वयं खड्गावस्था में अपने दांये अंगूठे पर छह माह अपने, दूसरों व ब्रह्माण्ड के विषय में जानकारी लेना ही जैनधर्म तक स्थिर खड़े रहे थे | बाद में बौद्ध धर्म में भी योग की क्रियाओं की मुख्य वैचारिकता है । योग के सिद्धान्त सर्वप्रथम जैनधर्म में ही का विशेष सम्मान होता रहा । ऐतिहासिक कालक्रम में महावीर ही दृष्टिगोचर होते हैं । जब महावीर के जीवन काल में ही जीवंतस्वामी योग के सर्वप्रथम उद्गाता थे। बाद में दूसरी शताब्दी ईसवी में की प्रतिमा बनी तो उसे खड्गासन प्रकल्पित किया । समानुपतिकता पतंजलि ने योगदर्शन को व्यवस्थित किया । में तीर्थकर प्रतिमा में शरीरयष्टि नितांत सधी हुई पुष्ट एवं योग का सामान्य अर्थ : इंद्रियजयी की शरीर छबि है | जैन प्रतिमाएँ साधक के लिए चिंतन के लिए एक आदर्श व उससे अनुकरण कर अपनी शरीरस्थ इंद्रियों योग शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'युज् समाधौ' धातु में की तय्यारी है ताकि उस तीर्थंकर प्रतिमा से अपने जीवन में 'घञ्' प्रत्यय लगाने से तथा 'युजिर् योगे' धातु में 'कर्तरि घञ्' व्यावहारिक ज्ञान उतारे, अपने को भी उसी भांति बनाने का प्रयास प्रत्यय लगने से हुई है । इस प्रकार इस शब्द के सामान्य अर्थ हैं - करे । साधक उस बिम्ब से अपना 'योग' करे और वैचारिक 'समाधि' तथा 'जोड़नेवाला' | पतंजलि के "योगभाष्य" के अनुसार उच्चता के सोपान कर चढ़ने का "योगः समाधिः स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्मः" अर्थात् योग प्रयास करे । इसीमें उसकी सार्थकता समाधि को कहते हैं जो चित्त का सार्वभौमधर्म है । दूसरे शब्दों में "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" अर्थात् चित्तवृत्तियों के निरोध का नाम ही योग है । गीता के अनुसार “समत्वंयोगउच्यते" अर्थात् वीतरागमुद्रा के विषय में जीवात्मा और परमात्मा के एकीकरण का नाम 'योग' है । तथा आचार्य शुभचंद्र के “ज्ञानार्णव" एवं दसरी व्याख्या गीताकार ने इसप्रकार दी है. "योगः कर्मसकौशलम" आचार्य हेमचंद्र के 'योगशास्त्र' में अर्थात् कौशल से किये कार्य को ही योग कहते हैं । इसी प्रकार विस्तार से चर्चा की गई है । जहां प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक अरविंद ने कहा है - "योग का अर्थ - साधक राग, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (९९) समय समय की बात है, समझे समय सुजान। जयन्तसेन समय बडा, जग में है बलवान ।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रासन, दण्डासन को ध्यान के वीरासन, सुखासन, शुभचंद्र में आदि से विरत होने की अनुभूति करता है । मूर्ति रूप के अनुरूप जैन प्रतिमाओं में तीन आसनों का अधिक उल्लेख हुआ है व साधक भी प्रशांत भाव से सुखासन में स्थित हो बांये हाथपर दांये उनका प्रकलन भी हुआ है वे हैं - - हाथको रखे । देह के प्रति अनासक्ता रखे इससे जीवन में दिव्य (१) पर्यंकासन - इसे पद्मासन मुद्रा भी कहा गया है । शांति एवं समाधि दशा का अनुभव होगा। यौगिक ग्रन्थों के अनुसार इसमें पैरों को इसप्रकार मोड़कर बैठा जैनदर्शन में योग शब्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग हुआ है। जाता है कि दाहिना पैर बांयी जंघा पर और बांयाँ दाहिनी जंघा पर उमास्वामी ने मन, वचन और कार्य की प्रक्रिया के अर्थ में रहता है, नेत्र नासाग्र पर स्थित रहते हैं। महावीर, ऋषभनाथ तथा योगशब्द का प्रयोग किया है ।' भट्ट अकलंक देव, वीरसेन आदि नेमिनाथ की प्रतिमाएँ इसी मुद्रा में बनाने का विधान किया गया के ग्रन्थों में आत्म-प्रदेशों के हलनचलन और आत्म प्रदेशों के संकोच विकोच के अर्थ में 'योग' शब्द प्रयुक्त किया है । जैनधर्म म "वीरः ऋषभः नेमिः एतेषां जिनानां पर्यङ्कासनम् में योगी के लिये आसन-विधान किया गया है । आचार्य शुभचंद्र ने पर्यकासन, अर्द्धपर्यंकासन वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन शेषजिनानां उत्सर्ग-आसनम् ।" और कायोत्सर्गासन को ध्यान के योग्य बताया है । हेमचंद्र ने (२) अर्द्धपर्यंकासन - इसमें एक पैर नीचे लटकता रहता है तथा भद्रासन, दण्डासन, उत्कटासन, गोदोहिकासन भी बड़े उपयोगी दूसरा पहले पैरकी जंघा पर रखा रहता है । इसे ललितासन भी बताये हैं | कहते हैं । जिन-प्रतिमाओं में यह आसन नहीं दिखाया जाता किन्तु इन आसनों से इंद्रियाँ वश में होती हैं व समाधि की अवस्था उनके यक्ष एवं यक्षी या यक्षिणी इस मुद्रा में बनाये जाते हैं। की ओर बढ़ना सरल हो जाता है । जो साधक योग नहीं जानता (३) खड्गासन - यह ध्यान की खड़ी मुद्रा है इसमें पैरों के मध्य उसे शरीर की स्थिर स्थिति नहीं प्राप्त होती । आसन करने वाले सामने की ओर लगभग तीन अंगुल की जगह रहती है, भुजाएँ योगी को आसनजयी यानी आसनों में दक्ष होना चाहिये । आचार्य ___ दोनों ओर घुटनों के नीचे तक स्पर्श करती रहती हैं या कभी स्पर्श शुभचंद्र एवं आचार्य हेमचंद्र ने योग के लिए प्राणायाम की भी नहीं करती झूलती रहती हैं । तीर्थंकरों की खड़ी प्रतिमाएँ इसी अनिवार्यता प्रतिपादित की है । रेचक, पूरक एवं कुंभक के साथ आसन में दर्शायी गई हैं । इस प्रकार योग का जैनधर्म में भस्त्रिका, भ्रामरी एवं योनिमुद्रा का भी उल्लेख किया है । प्राणायाम । अत्यधिक महत्व निरूपित किया गया है । साधक इन आसनों को से मन जीता जाता है और उसे स्थिर भी किया जाता है । जैन, मूर्तिशिल्प से सीख सकता है । जैन तीर्थंकर - प्रतिमाएँ मानव को लेखक ब्रह्मदेव कहते हैं कि कुंभक से शरीर निरोग हो जाता है। योग की ओर प्रवृत्त करने में सहायक हैं। जैन तीर्थकर अपने आचरण में एक ओर योगी थे तो दूसरी ओर धर्मोपदेशक । जैन मूर्तियों में यौगिक आसनों और मुद्राओं का ही प्रतिष्ठापन प्रतिबिम्बित होता है । जैन प्रतिमा - विज्ञान द्वारा मधुकर-मौक्तिक भी यह आसन पुष्ट हुए हैं कि साधक इन आसनों में बनी प्रतिमाओं के समक्ष बैठकर ध्यान करे व अपने को भी तीर्थंकर के कुछ आत्मवादी ऐसे होते हैं, जिन्हें अपने कोरे ज्ञान का बताये योगमार्ग का अनुसरणकर्ता बनावे । बड़ा घमंड होता है। वे दूसरे लोगों के धार्मिक क्रिया-कलापों का उपहास करते हैं। वे कहते हैं, इन बाहय क्रियाओं से सामायिक, प्रतिक्रमण से; मुनिलिंग धारण करने से, कुछ भी तत्वार्थ सूत्र ६१ नहीं होगा | ऐसे लोग अभी तक आत्मवाद को समझ नहीं तत्वार्थ वार्तिक ६१1१० पाये हैं। ये केवल तोते की तरह रटी-रटायी बातें बोलते हैं। जैन विषयों पर लगभग सच्चा आत्मवादी किसी की निन्दा नहीं करता-किसी का पचास शोधपत्र प्रकाशित । अपने उपहास नहीं करता । वह केवल ज्ञान से नहीं, पर ज्ञान और शोधकार्य के लिये सम्पूर्ण मध्यप्रदेश क्रिया दोनों से कार्य-सिद्धि मानता है। के जैन -शिल्प एवं स्थापत्य का -जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' अध्ययन किया । जैन संगोष्ठियों में जैन कला पर शोधपत्रों का वाचन । वर्तमान में जयसिंहपुरा जैन संग्रहालय एवं खारा कुआ उज्जैन की मूर्तियों एवं हस्तलिखित ग्रंथो पर विशेष अध्ययन । सिंधियाप्राच्यशोध -प्रतिष्ठान उज्जैन डॉ. मायारानी आर्य में उपलब्ध, जैन ग्रंथों की एम.ए., पी.एच.डी. प्रामाणिक सूची का निर्माण। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१००) आत्मा शाश्वत है सदा, चलित काल को मान । जयन्तसेन सयम सुधा, पाते विरले जान || Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-सिद्धान्त की त्रिवेणी : अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह | मिटट कापी (डॉ. दिव्या भट्ट) श किसीभी धर्म का प्रसार नव्य विचारों, संस्कारों एवं जीवन विवेकपूर्ण व्यवहार द्वारा व्यक्तिगत एवं समष्टिगत दुर्भावनाओं को की सुंसंबद्धता का प्रतीक है । ई. पूर्व ८०० से ई. पूर्व २०० वर्ष दूरकर एक स्वस्थ जीवन प्रणाली अपनाने की प्रेरणा देती है । इस तक का काल इतिहास का युग कहलाता है । यह युग विश्व संबंध में भगवान महावीर का कथन उल्लेखनीय है - इतिहास में युगपुरुषों की वैचारिक क्रांति से प्रभावित रहा । यूनान सयं तिवयए पाणे, अद्वन्नेहि घायए। में पैथागोरस, सुकरात और प्लेटो, ईरान में जरथुस्त्र, चीन में कन्फ्यूसियस तथा भारत में उपनिषद्कार, महावीर एवं बुद्ध जैसे हणतं वाणुजणाइ, वेरं वठ्ठर अप्पनो ।। विचारक एवं अध्यात्म क्षेत्र में क्रांति लानेवाले युग पुरुष इसी युग 3 अर्थात् जो मनुष्य प्राणियों की स्वयं हिंसा करता है, दूसरों से की देन हैं । महावीर इसी युग के पूर्वार्ध में आए एवं उन्होंने विश्व हिंसा करवाता है और हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है, को अहिंसा, अनेकांतवाद या स्याद्वाद तथा अपरिग्रह के आधार वह संसार में अपने लिए वैर को बढ़ाता है । यही कारण है कि पर संगठित कर एवं समन्वय, सहअस्तित्व तथा सौहार्द की भावना वैदिक युग में ऋषि-मुनि अहिंसा की स्थापना नहीं कर पाए । को जाग्रत कर एक आदर्श जीवन-प्रणाली को प्रस्तुत किया। उन्होंने स्वयं तो अहिंसा व्रत का पालन किया किंतु क्षत्रियों को यह अहिंसा जैन धर्म का मूल तत्व है। अहिंसा मात्र बाय अधिकार दिया कि वे हिंसा कर सकते हैं, इसीलिए जब ऋषि-मुनि आंगिक प्रक्रिया द्वारा संपन्न व्यापार का निषेध नहीं है वरन् अहिंसा यज्ञ करते तब क्षत्रिय यज्ञ की रक्षा के लिए सन्नद्ध रहते । क्षत्रियों का क्षेत्र हमारी आंतरिक प्रवृत्तियों से भी संबद्ध है । इसके अंतर्गत ने जब अपने अधिकारों का दुरुपयोग करना शुरु किया तो क्रोध, अहंकार, वासना आदि उन समस्त व्यापारों का उल्लेख है परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करने की प्रतिज्ञा ली किंतु जिनके द्वारा प्राणी-मात्र के हदय को ठेस पहँचती है। भगवान इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन करने के पश्चात भी वे हिंसा महावीर ने अहिंसा का प्रतिपादन कर विश्व में शांति तथा एक्यवृत्ति को रोक न सके । वास्तव में उन्होंने अहिसा की स्थापना की स्थापना करने का प्रयास किया । मानवीय स्वभाव के विभिन्न हिंसा द्वारा करने का प्रयास किया था और यहीं वे असफल रहे । पहलओं को मनोवैज्ञानिक रूप से चित्रित कर उन्होंने अहिंसा के भगवान महावीर ने अहिंसा के बाहय एवं आंतरिक रूप की चर्चा सिद्धान्त को रखा है । आवेश में, क्रोध में अथवा अन्य मानसिक कर, उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप का विश्लेषण कर अहिंसा की असंतुलन की स्थिति में मनुष्य उचितानूचित नहीं देख पाता और स्थापना अहिंसा द्वारा ही संभव है यह सिद्ध किया । इस प्रकार से उस अवस्था में वह शारीरिक या मानसिक रूप से किसी अन्य प्रस्थापित अहिंसा मनुष्य के हृदय को परिवर्तित कर उसे जीवन में प्राणी को क्षति पहुँचाकर हिंसा का भागी बनता है । इस प्रकार नई दिशा प्रदान कर एक नव्य आत्मशक्ति से उसे स्फूर्त करती है। भगवान् महावीर ने जीवन में संतुलित विचार पद्धति को अपनाने अनेकांतवाद या स्याद्वाद जैन धर्म का एक व्यापक सिद्धान्त की सलाह दी है । भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का है। संप्रति इसकी व्यापकता के संबंध में आचार्यों ने भी कहा है क्षेत्र अत्यंत व्यापक है उसमें इतनी शक्ति है कि वह विश्व को भी किसंगठित कर सकती है किंतु आज उनकी अहिंसा के बाहय रूप को आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । ही आचरण का विषय बनाकर जैन धर्मावलम्बी उसी में उलझ कर रह गए हैं । भगवान महावीर ने कहा भी है कि - "शस्त्र तलवार अर्थात् दीप से लेकर व्योम तक वस्तुमात्र स्याद्वाद की मुद्रा ही नहीं है, मनुष्य भी शस्त्र है और सही अर्थ में मनुष्य ही शस्त्र है में अंकित है । अनेकांतवाद या स्याद्वाद वस्तु के वास्तविक रूप और वह हर प्राणी शस्त्र है, जो दूसरे के अस्तित्व पर प्रहार करता के द्योतन हेतु अनेक दृष्टिकोण की संकल्पना स्वीकार करता है। अनेकांतवाद उन समस्त अपेक्षाओं को समन्वित कर चलता है जो एक वस्तु को मूर्त रूप में प्रतिपादित करती हैं । शुक पिच्छि के ससा स्थूल रूप से देखने पर अहिंसा की अपेक्षा हिंसा का पलड़ा लिए भगवान महावीर ने कहा है - भारी दीख पड़ता है । वास्तव में जोशीली युवा-शक्ति अहिंसा को, "व्यवहार नय की अपेक्षा से यह उसकी शक्ति को समझ ही नहीं पाती है । जबकि वास्तविकता रुक्ष और नील है पर निश्चय नय यह है कि अहिंसा की शक्ति के समक्ष हिंसा एक पग भी नहीं चल की अपेक्षा से पाँच वर्ण, दो गंध, पाती । वास्तव में अहिंसा कठोर संयम चाहती है । अहिंसा के पाँच रस व आठ स्पर्श वाले हैं।" अन्तर्गत वे सभी सूक्ष्म व्यावहारिक बातें आ जाती हैं जो शस्त्र इस प्रकार अनेकांतवाद के अनुसार द्वारा, वाणी द्वारा अथवा व्यवहार द्वारा प्राणी मात्र को दुःख वस्तु अनंत धर्मा है अर्थात् वस्तु के पहुँचाने का कारण बनती हैं । यही कारण है कि शरीर द्वारा इन्द्रियग्राह्य स्वरूप एवं वास्तविक अहिंसा का पालन, वाणी द्वारा अहिंसा के पालन की तुलना में स्वरूप की संकल्पना में अंतर होता सरल है । अहिंसा प्राणी मात्र के प्रति आत्मभाव रखने एवं विचार अपादित आपको भी है।" श्रीमद् जयन्तसेन सूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१०१) समय समय करते भला, बीत गया बहु काल । जयन्तसेन सुकार्य कर, दुर्गति दूर निकाल ।। Jain Education Interational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनिष्ठा व अनामि मिका बड़ी पूछा- दोनों में बडी है । अनेकांतवाद के अनुसार एक ही वस्तु में उत्पत्ति विनाश एवं प्रति एक अनूठी प्रवृत्ति है । वस्तुओं के संग्रह की वृत्ति एवं ध्रुवता जैसे परस्पर विरोधी धर्म विद्यमान रह सकते हैं । इस प्रकार अधिकारों के संग्रह की वृत्ति ही जब अपना अतिरूप लेकर प्रकट यह कहा जा सकता है कि वस्तु तत्व के निरूपण में या निर्णय में । होती है तब विवाद एवं परस्पर वैमनस्य की भावना बलवती होती जो वाद अपेक्षा की प्रधानता पर बल देता है वह स्याद्वाद या है और हमारी वैयक्तिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय व्यवस्था को अनेकांतवाद है। परिग्रह की यह प्रवृत्ति अव्यवस्थित कर देती है। आज चीन इसी वास्तव में स्याद्वाद या अनेकांतवाद नयों की बहुमुखी है, परिग्रह प्रवृत्ति की चपेट में आ गया है | अपरिग्रह का क्षेत्र भी जो मुख्य रूप से निश्चय नय एवं व्यवहार नय के आधार पर वस्तु मात्र भौतिक स्तर पर यथाशक्य संपत्ति के अल्पीकरण एवं के तात्विक एवं लोकव्यवहार में प्रचलित अर्थ को प्रतिपादित करता परित्याग पर ही आधारित न होकर वैयक्तिक, पारिवारिक एवं है। अनेकांतवाद को आचार्यों ने सरल रूप में इस प्रकार समझाया सामाजिक स्तर के परिसीमित दायरे में वस्तु एवं व्यक्ति विशेष के प्रति “ममत्व-विसर्जन" के रूप में भी हमारे सामने एक आदर्श स्थिति प्रस्तुत करता है । इस प्रकार सहज रूप से संपत्ति का "यथा अनामिकायाः कनिष्ठा दीर्घत्वं, विसर्जन, ममत्व का विसर्जन अपरिग्रह की देन है । अपरिग्रह भाव मध्यमामधिकृत्य इस्वत्वम् । न्यून परस्पर भौतिक एवं भावनात्मक स्तर पर समानता तथा समन्वयात्मकता - प्रज्ञासूत्रवृत्ति प्रस्थापित करता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- जब आचार्यों से पूछा गया कि सण जैन धर्म के ये तीनों सिद्धान्त “अहिंसा", "अपरिग्रह" एवं आपका अनेकांतवाद क्या है तो आचार्यों ने कनिष्ठा व अनामिका "अनेकांतवाद" आज प्रत्येक राष्ट्र के लिए अनुकरणीय है । सामने करते हुए पूछा - दोनों में बड़ी कौनसी है ? प्रत्युत्तर था - "अहिंसा" जहाँ शांति एवं आत्मिक तेज प्रदान कर जीवन को अनामिका बड़ी है । कनिष्ठा को समेटकर और मध्यमा को नया मोड़ देती है वहीं “अपरिग्रह" पूर्ण समानता एवं सहयोग की फैलाकर पूछा - 'दोनों अंगुलियों में छोटी कौन-सी है ? उत्तर भावना के साथ जीवन-पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देता है तथा मिला - अनामिका । आचार्यों ने कहा - 'यही हमारा स्यावाद या अनेकांतवाद या स्याद्वाद मानव के पारस्परिक समस्त वाद-विवादों अनेकांतवाद है जो तुम एक ही अंगुली को बड़ी भी कहते हो और का एक सही हल प्रदान कर किसी वस्तु को, किसी धर्म को, किसी छोटी भी । उपर्युक्त उदाहरण से अनेकांतवाद सहजगम्य है। कथ्य को देखने-सुनने एवं उसके निरूपण हेतु एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करता है | संप्रति आज की परिस्थिति में यह आवश्यक है 1 जैन आगमों में अनेकांतवाद के बीज उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, कि जैन धर्म अपने सिद्धांतों को सही रूप से प्रतिपादित करे । स्यादस्ति, द्रव्य, गुण, पर्याय, सप्तनय आदि विविध रूपों में बिखरे अहिंसा को सिर्फ "किचन पालिटिक्स" (खाद्याखाद्य) तकही सीमित पड़े हैं । भगवान महावीर ने अपने अनेकांतवाद के अन्तर्गत इन्हें न रख विश्व स्तर पर 'मनसा, वाचा, कर्मणा' के रूप में समन्वित एवं सुस्पष्ट रूप में रखकर इसे इस रूप में प्रतिपादित क्रियान्वित करे साथ ही अनेकांतवाद एवं अपरिग्रह के द्वारा एक किया है कि हम व्यावहारिक-जीवन में अनेक विवादों से बचकर नया दृष्टिकोण एवं एक नवीन व्यवस्था की स्थापना का प्रयास कर एक ऊर्ध्व-पथ की ओर गमन करें । भारतीय दर्शन को विवादों के जैन धर्म के वास्तविक रूप की सक्रिय स्थापना करे । आसन पर बैठकर काफी क्षति पहुँची है । जैन धर्म ने अपने अनेकांतवाद द्वारा समन्वय की भावना को सुदृढ़ता प्रदान कर एक माम अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह दरअसल एक सिद्धान्त के वैचारिक संतुलन की स्थापना की है। तीन पहलू हैं - अहिंसा का आचार, अनेकांत का विचार और अपरिग्रह का व्यवहार मनुष्य के जीवन को चेतना के ऊर्ध्वमुखी अपरिग्रह जैन धर्म की सामाजिक समानता की भावना के सोपानों पर स्थापित करता है | साधक की यह जीवनी शक्ति है जो सामान्य व्यक्ति के लिए जीवन शैली (way of life) है । महावीर जिन तत्वों की चर्चा करते हैं उन्हें उन्होंने अपनी जीवन साधना की कसौटीपर कसकर देखा है इसलिए काल की धूल और लेखिका : भाषाविज्ञान तथा राख उन सिद्धान्त वचनों की आग को ढक नहीं सकती । समय के शैलीविज्ञान में विशेष अध्ययन । परिवर्तन और प्रत्यावर्तन के साथ उसके नित नए अर्थ उद्घाटित सम्प्रति : व्याख्याता होते रहते हैं। (हिन्दी), विद्यालय, शहादा (धुलिया), महाराष्ट्र. डॉ. दिव्या एस. भट्ट एम.ए., पी.एच.डी. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१०२) समय गया आता नहीं, समझ मनुज नादान । जयन्तसेन सचेष्ट हो, कर जीवन उत्थान ।। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन में आत्मवाद सरकारसमक का डा. श्रीमती सरजमखी जैन IED 'दर्शन' शब्द दर्शनात्मक 'दृश्' धातु में करण अर्थ में ल्युट् संकोच विस्तार का गुण होने के कारण वह शरीर प्रमाण है।' प्रत्यय के योग से बना है जिसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है 'दृश्यते दीपक को जितने बड़े कमरे में रखा जाय, वह उस समपूर्ण कमरे अनेन इति दर्शनम्' अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाय, वह दर्शन है। को प्रकाशित करता है उसी प्रकार आत्मा को जितना बड़ा शरीर किन्तु देखना दर्शन शब्द का साधारण अर्थ है | दर्शनशास्त्र में मिलता है वह उसमें सम्पूर्ण रूप से व्याप्त होकर रहता है । मुक्त दर्शन शब्द का विशेष अर्थ है तत्त्व के प्रकृत स्वरूप का आत्मा उर्ध्व गमन स्वभाववाला है । निश्चय नय से आत्मा शुद्ध, अवलोकन ।' इस अनादि अनन्त संसार में संयोगवियोग सुख दुःख बुद्ध, मुक्त और ज्ञानी है, वह कर्ममल से रहित है अजर है, अमर की अविरत धारा में गोते लगाते हुए प्राणी थक कर शाश्वत सुख है ।" वह केवल अपने भावों का कर्ता है, वह रूप, रस, गन्ध, की खोज में जो हेय ज्ञेय उपादेय का अवलोकन करता है वही वर्ण से रहित निर्गुण निराकार है । वह मनरहित, इन्द्रिय रहित, दर्शन है। ज्ञानमय है, इन्द्रियागोचर है ।१२ वह ज्योतिस्वरूप है १३ , आनन्दमय डा. महेन्द्रकुमार जैन के अनुसार प्रत्येक दर्शनकार ऋषि ने पहले चेतन और जड़ के स्वरूप, उनका परस्पर सम्बन्ध तथा दृश्य स जैन दर्शन में आत्मा और शरीर दो भिन्नतत्त्व माने गये हैं। जगत की व्यवस्था के मर्म को जानने का अपना दृष्टिकोण बनाया, जिसप्रकार वस्त्र देह से सर्वथा भिन्न है, उसी प्रकार आत्मा भी पीछे उसीकी सतत चिन्तन और मनन धारा के परिपाक से जो शरीर से सर्वथा भिन्न है। जन्म, जरा, मरण, रोग तथा विभिन्न वर्ण तत्त्व साक्षात्कार की प्रकृष्ट और बलवती भावना हुई उसके विशद एवं लिंग आदि शरीर के होते हैं आत्मा के नहीं ।५ आत्मा शरीर और स्फुट आभास से निश्चय किया कि उनने विश्व का यथार्थ से सर्वथा भिन्न है । अतः शरीर के धर्म आत्मा के धर्म नहीं हो दर्शन किया है तो दर्शन का मूल उद्गम दृष्टिकोण से हुआ है और सकते हैं | मुनि रामसिंह कहते हैं कि आत्मा न गौरवर्ण है, न उसका अन्तिम परिपाक है आत्मसाक्षात्कार में | कृष्णवर्ण का न वह सूक्ष्म है, न स्थूल, न वह पंडित है न मूर्ख, न शि प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजी ने दर्शन शब्द का अर्थ सबल प्रतीति वह किसीका गुरु है न शिष्य, न स्वामी है, न भृत्य, न वह ब्राह्मण किया है। जैन दर्शन के अनुसार तत्त्वों के दृढ़ श्रद्धान को सम्यक् है, न वैश्य न क्षत्रिय है, न शूद्र, न वह पुरुष है, न स्त्री, न दर्शन कहा है ।" तत्व नौ हैं - 'जीव, अजीव पुण्य, पाप, आश्रव नपुंसक । वह तरुण, वृद्ध अथवा बाल भी नहीं है, न वह शूर है बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । दर्शन का प्रमुख तत्त्व जीव न कायर, न वह बौद्ध आचार्य है न जैन साधु न जटाधारी अर्थात् आत्मा है, जो अनादिकाल से कर्मों के बन्धन में बन्धासन्यासी | वह शुभ अशुभ भावों से परे है, अतीत आगत और हुआ, संसार में भटक रहा है और संवर तथा निर्जरा के द्वारा अनागत की सीमासे ऊपर है ।१६ मोक्षप्राप्त कर अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य जीवो उवओगमओ अमुक्तिकत्ता सदेहपरिमाणो । का स्वामी बन सकता है । अतः जैन दर्शन में आत्मज्ञान तथा भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्स सङ्कगई ॥ आत्मस्वरूप की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है । द्रव्यसंग्रह, गाथा २ आत्मविचार करने से शाश्वत् सुख की प्राप्ति होती है तथा अपने प्रदेशसंहार विसर्पाभ्याम् प्रदीपवत् स्वरूप को जान लेने पर आत्मा जन्म मरण के दुःख से छूट जाता तत्वार्थसूत्र, पंचम अध्याय, १६ है । अतः इस आत्मतत्त्व का ज्ञान आवश्यक है। द्रव्यसंग्रह, गाथा २ " परमात्मप्रकाश, ६८ परमात्मप्रकाश, ३१ ॥ आणंदा, २९ जैन दार्शनिकों ने व्यवहारनय तथा निश्चय नय इन दो नयों पाहुड़दोहा, ५७ १५ परमात्मप्रकाश, ७०,७१ की अपेक्षा से आत्मतत्त्व का विवेचन किया है । व्यवहार नय से हंउ गोरड हंउ सामलउ, हंउ उजु विभिण्णउ वण्णु । संसारी तथा मुक्त दो प्रकार की आत्माएं हैं । संसारी आत्मा अपने हंउ हणु अंगउ थूलुहंउ, एहउ जीव म मण्णि || णवि तुहु मंडिउ मुक्खुणवि, णवि ईसरु णवि णीसु । कर्मों का कर्ता तथा कर्म फल का भोक्ता है । अपने प्रदेशों के णवि गुरु कोइवि सीसु णवि, सव्वई कम्मविसेसु ।। हंउ वरु वंभणु णविवइसु णउ भारतीय दर्शन - ग. बी. एन. सिंह पृष्ठ १ री खत्तिउं णवि सेसु । पुरिसुणउंसउ इत्थु णवि एहउ आचारांग वृत्ति - १,१ जाणि विसेसु ।। जैन दर्शन डा. महेन्दकुमार जैन, पृष्ठ ३४ तरुणउ बूढउ बाव्यु हंउ, सूरउ न्याय कुमुदचन्द्र, द्वितीय भाग का प्राक्थन पंडिउ दिव्यु । तत्त्वार्थसूत्र, प्रथम अध्याय सूत्र २ खवणउ बंदउ सेवउउ, एहउ चिंति तत्वार्थसूत्र, दशम अध्याय, सूत्र २ म सब्बु ।। जं मुणि लहइ अणंत सुहु णिय अप्पा झायेतु । पाहुड़दोहा, रामसिंह तं सुहु इन्दु वि णवि लहइ, देविहि कोडि रमन्तु ।। २६,२७,३१,३२ १२ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१०३) समय बड़ा बलवान है, समझो चतुर सुजाण । जयन्तसेन जागृत रह, घरो हृदय शुभ झाण । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टिकोण से अनन्त आत्माएं हैं जो सभी परमात्मा बनने मिथ्यात्व के कारण वह तत्त्व को विपरीत समझता है और कर्मों से की क्षमता रखते हैं | द्रव्यदृष्टि से सभी आत्माएं परमात्मा हैं किन्तु निर्मित भावों को अपने समझता है | वह शरीर के सुख दुःख को पर्यायदृष्टि से उनमें अवस्था भेद होता रहता है । सामान्य तया अपने सुख दुःख तथा शरीर के सम्बन्धियों को अपने सम्बन्धी वह पौगलिक पदार्थों से घिरा रहने के कारण उनमें इतना आसक्त समझता है । अपने इस अज्ञान के कारण वह नाना योनियों में हो जाता है कि वह अपनी शक्ति और स्वरूप को भूल जाता है, भटकता तथा अनेक दुःख सहन करता है । साधारणतया प्रत्येक भेदज्ञान होने पर वह आत्मा और शरीर के अन्तर को समझने । आत्मा इसी स्थिति में रहता है । इसीसे सृष्टिक्रम चलाता है। लगता है और एक समय वह स्थिति आ जाती है कि वह स्वयं आत्मा की द्वितीय अवस्था का नाम अन्तरात्मा है । इसके परमात्मा बन जाता है । जैन दर्शन में किसी भिन्न नियामक तीन भेद हैं - उत्तम, मध्यम और जघन्य । अन्तरंग तथा बाह्य अथवा परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है और न परिग्रह रहित शुद्धोपयोगी, आत्मध्यानी, मुनि उत्तम अन्तरात्मा है, यह माना गया है कि आत्मा अपने अस्तित्व को समाप्त कर देशव्रती श्रावक मध्यम अन्तरात्मा तथा अविरत सम्यक्दृष्टि जघन्य परमात्मा में मिल जाता है । जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा अन्तरात्मा हैं । ये तीनों ही मोक्षमार्ग पर आरूढ़ माने गये हैं। की स्वतन्त्र स्थिति है और यह आत्मा ही ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा बन जाता है | अनन्त आत्माएं हैं | अतः परमात्मा भी अनन्त बन आत्मा की तृतीय अवस्था को परमात्मा कहा गया है । सकते हैं । उस अवस्था में भी प्रत्येक की अपनी स्वतंत्र सत्ता बनी परमात्मा के दो भेद हैं - सकल परमात्मा तथा विकल परमात्मा । रहेगी । सभी आत्माएं अनन्तप्रदेशी हैं, एक का प्रभाव दूसरे पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय चार घातिया कर्मों किंचित् भी नहीं पड़ता। को नष्ट करने वाले शरीर सहित अर्हन्त भगवान सकल परमात्मा हैं और ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों को नष्ट कर सभी देहादि परद्रव्यों शुद्ध निश्चय नय से तो सभी आत्माएं परमात्मा ही हैं किन्तु को छोड़कर नित्य, निरंजन, ज्ञानमय, परमानन्द स्वरूप, केवलज्ञान, व्यवहारनय से आत्मा की तीन अवस्थाएं मानी गयी हैं - बहिरात्मा, केवलदर्शन, केवलसुख तथा केवलवीर्य स्वभाववाला आत्मा विकल अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा आत्मा की प्रथम अवस्था है, परमात्मा है।" विकल परमात्मा ही सर्वाधिक विशद्ध और ध्यातव्य जिसमें आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को न पहिचान कर देह तथा इन्द्रियों को ही आत्मा एवं उनके सुख दुःख को ही अपना सुख दुःख समझता है तथा उन्हीं के पालन पोषण में रत रहता है । इस प्रकार पर्यायदृष्टि से आत्मा के तीन भेद हैं । किन्तु, निश्चयदृष्टि से वह एक ही है । एक ही आत्मा जबतक कर्ममल से दव्वसहावे णिचु मुणि, पज्जड विणसइ होई। आच्छादित रहता है, वह बहिरात्मा कहलाता है, वह स्वपर भेद को परमात्म प्रकाश, ५६ जानकर अन्तरात्मा हो जाता है और वही पूर्ण ज्ञानप्राप्त कर तथा एहु जु अप्पा सो परमप्पा, कम्म विसेसें जाणइ जप्पा । पूर्ण चारित्र का पालन कर परमात्मा बन जाता है । अतः आत्मा जामई जाणइ अप्पे अप्पा, तामइ सो जिसेव परमप्पा ।। परमात्मा में कोई तात्विक भेद नहीं है। परमात्म प्रकाश १७४ ते वंदउं सिरि सिद्ध गण, होसहिं जे वि अणंतु । (शेष भाग पृष्ठ १०९ पर) परमात्म प्रकाश २ तिपयारो अप्पा मुणाहि पउ अन्तरु बहिरप्पु । मैं सूखी दुखी मैं रंक राव मेरे धन गृह गोधन प्रभाव। स योगसार पृष्ठ ३६, ६ मेरे सुततिय मैं सवल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीण ।। देह जीव को एक गिने बहिरातम तत्त्व मुधा है। तम उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान | छहढाला, तृतीय ढाल दोहा ४ : रागादि प्रगट जे दुःख दैन, तिनहीको सेवत गिनत चैन । छहढाला, द्वितीय ढ़ाल ४,५ कुशाग्र बुद्धि, सर्वतोमुखी उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के अन्तर आतम सानी । प्रतिभासम्पन्न, मृदुव्यवहार तथा द्विविध संग विन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी ॥ कुशल प्रशासन से युक्त मध्यम अन्तर आतम हे जे देशव्रती अनगारी। व्यक्तित्व । जैन स्थानकवासी गर्ल्स जघन कहे अविरत समदृष्टि, तीनों शिवमगचारी || डिग्री कॉलेज बडौल के प्राचार्य नावि छहढाला, तृतीय ढाल, ४,५ पद का सुशोभन । 'बालादर्श' णिधु णिरजणु ण णमउ, परमाणं दसहाउ । पत्रिका का संपादन 'भारत छोडो जो एहउ सो संतु सिउ, तासु मुणि जहि माउ ॥ आंदोलन' में हिस्सेदारी | 'सादा के वलदं सण णाण माउ - जीवन - उच्च विचार' पर केवलसुक्खसहाउ। जीवन शैली | आपकी रचनाओं जो दंसणणाणमउ, केवलसूक्खसहाउ। का विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में केवलवीरिउ सोमुणहि, जो जिपराव डॉ. श्रीमती सूरजमुखी जैन प्रकाशन | वर्तमान में मुजफ्फर माउ । नगर में सरस्वती आराधना तथा एम.ए., पी.एच.डी. परमात्मप्रकाश, १७,२४ शोधकार्य में संलग्न । श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ | विश्लेषण (१०४) गया समय सत्कार्य में, वही सफल सुविचार । जयन्तसेन सफल समय, सुख दायक संसार ।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में आत्मवाद (डॉ. श्री पन्नालाल साहित्याचार्य) है आत्मा स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द से रहित होने के इन्द्रियां कारण हैं अतः आत्मा रूपकर्ता के बिना स्वयं क्रिया शील कारण इन्द्रियगम्य नहीं है अतः उसके अस्तित्व में न केवल चार्वाक नहीं हो सकतीं । स्तनपान आदि का संस्कार इस जीव की भव दर्शन भ्रान्त हुआ है अपितु आज का वैज्ञानिक भी भ्रान्त हो रहा शृंखला को सूचित करता है | जातिस्मरण आदि के अनेक प्रकरण है। जितने परलोकवादी दर्शन हैं उन सभी में शरीर से पृथक सामने आते रहते हैं जो परीक्षण के बाद सत्य सिद्ध हुए हैं इन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकृत किया गया है, 'आत्मा वा रे सबसे आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । मृत्यु के बाद जीव का श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यों आदि उपनिषद् वाक्यों ने आत्मा पार्थिव शरीर यहीं पड़ा रहता है संचालक-आत्मा के निकल जाने से को ही सुनने मनन करने और चिन्तन करने की प्रेरणा दी है। वह निश्चेष्ट हो जाता है । जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने प्रायः अपने सभी ग्रंथों में जैन दर्शन में आत्मा के भव्य और अभव्य के रूप से दो भेद आत्मा का स्वरूप एक ही गाथा के द्वारा स्पष्ट किया है - माने हैं । अभव्य वह है जो कभी भी सम्यक्त्व आदि गुणों को "अरसमरूबमगंध अव्वत्तं चेदणा गुणमसई । प्राप्त न होने से मुक्त नहीं हो सकता और भव्य वह है जो सम्यक्त्व आदि गुणों को प्रकट कर मुक्त हो सकता है । भव्य जाण अलिंग्गहणं जीव मणिद्धिट्ठसंठाणं ।।" (स.सा.) जीवों के भीतर भी 'दुरानु दूर भव्य' नामक एक ऐसा भेद है जो जो रस, रूप, गंध और शब्द से रहित हो, और स्पर्श से कभी मुक्त नहीं हो सकता । वर्जित हो, इन्द्रिय ग्राह्य नहीं हो, जिसका संस्थान-आकार अनिर्देश्य म संसार का जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चारों हो और चेतना गण से सहित हो तो उसे जीव-आत्मा जानो । यहाँ गतियों अथवा इन्हीं गतियों के विस्तत भेट स्वरूप चौरासी-लाख स्वरूपोपादान की अपेक्षा जीव का 'चेतना गुण' ही लक्षण है योनियों में भटकता रहता है । संसारी अवस्था में इस जीव ने क्योंकि अरस, अरूप आदि तो धर्म अधर्म आकाश और काल भी तेंतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु प्राप्त की है और श्वास के अठारहवें भाग प्रमाण सर्व जघन्य आयु भी प्राप्त की है | इस जीव कुन्दकुन्द ग्रंथों के प्रमुख टीकाकार अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा ने एक मुहूर्त के भीतर छयासठ हजार तीनसौ छत्तीस बार जन्म मरण किया है। "अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जितः स्पर्शगंधरसवर्णैः । जसमा जै नदर्शन में न केवल शरीर से पृथक् आत्मा का अस्तित्व गुणपर्यायसमवेतः समाहितः समुदयव्वय ध्रौव्यैः ।।" (पु.सि.) स्वीकृत किया है अपितु उसके क्रमिक विकास का वर्णन करते हुए उसे मोक्ष तक पहंचाया है। इस क्रमिक विकास को पूर्वाचार्यों ने पुरुष-आत्मा चैतन्य स्वरूप है स्पर्शादि से रहित है ज्ञान मिथ्यादृष्टि आदि १४ गुण स्थानों में विभाजित किया है । दर्शनादि गुण और नरनारकादि पर्यायों से सहित है तथा उत्पाद, मिथ्यादृष्टि, भूमि का स्वरूप प्रथम गुणस्थान है । यह भव्य और व्यय, ध्रौव्य से समाहित है । पूज्यपादाचार्य ने लिखा है - अभव्य दोनों को होता है पर सासादन आदि गुणस्थान भव्यजीव नाभावः सिद्धिरिष्टा न निजगुण स्तत्तपोभिर्न युक्तैः को ही प्राप्त होते हैं । इन गुणस्थानों के माध्यम से यह जीव अस्त्यात्मानादिबद्धः स्वकृतज फलभुक तत्क्षयान्मोक्षगामी । श्रावक और मुनिपद को धारण कर क्रमशः कर्मक्षय करता हुआ अरिहन्त और सिद्ध पद को प्राप्त होता है । इन गुणस्थानों में रहने ज्ञाता द्रष्टा स्वदेहप्रमितिरुपसमाहारविस्तारधर्मा वाले जीवों को पूर्वाचार्यों ने बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा के ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मा स्वगुणयुत इतोनान्यथा साध्य - सिद्धिः ॥ भेद से तीन भेदों में विभक्त किया है। (सि.म.) बहिरात्मा उसे कहा है जो शरीर को ही सबकुछ समझ रहा आत्मा है, अनादिकाल से कर्मबद्ध है, स्वकृत कर्मफल का है, शरीर से अतिरिक्त आत्मा के भोक्ता है, कर्मक्षय से मोक्ष को प्राप्त होता है, ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव अस्तित्व को स्वीकृत नहीं करता । वाला है, शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त शरीर के प्रमाण रहता है यह बहिरात्मा अवस्था प्रारंभ के संकोच विस्तार स्वभाव वाला है, उत्पाद, व्यय ध्रौव्य से यक्त है. तीन गुणस्थानों में रहती है । स्वकीय गुणों से सहित है, मुक्तिदशा में बौद्धदर्शन की मान्यता के अन्तरात्मा वह है जो शरीर के अन्दर अनुसार उसका नाश नहीं होता और वैशेषिक दर्शन के अनुसार रहनेवाले आत्मा के अस्तित्व को स्वकीय गुणों का नाश नहीं होता। स्वीकृत करता है । इसके जघन्य, स्वकीय शरीर में आत्मा का अस्तित्व स्वसंवेदन से होता है मध्यम और उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन और परकीय शरीर में अनुमान प्रमाण से होता है | स्पर्शनादि भेद हैं चतुर्थ गुणस्थान वाला जीव, श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१०५) अपने को समझा उसे, मिला समय का सार । जयन्तसेन विमल बना, उस की जय जयकार || .. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो आत्म तत्त्व की श्रद्धा तो रखता है परन्तु व्रताचरण नहीं करता जघन्य अन्तरात्मा है । पंचम गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं और बारहवें गुणस्थान वर्ती उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं । 9. परमात्मा के दो भेद हैं (१) सकल परमात्मा (२) विकल परमात्मा । त्रयोदश एवं चतुर्दश गुणस्थान वती अरिहन्त परमेष्ठी, जिनके कि चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं - सकल परमात्मा हैं एवं जिनके ज्ञानावरणादि आठों द्रव्य कर्म, रागादिक भाव कर्म और शरीर रूप नौ कर्म नष्ट हो चुके हैं वे सिद्ध भगवान विकल परमात्मा हैं। चतुर्दश गुणस्थान तक की भूमिका संसारी जीव की है और उसके बाद मुक्त जीव- शुद्ध जीव की भूमिका है। जैन दर्शन के अनुसार मुक्त जीव लोकाग्र पर १५७५ धनुष प्रमाण तनुवातवलय के उपरितन ५२५ धनुष के क्षेत्र में रहते हैं और संसार में कभी वापस नहीं आते । - जैन दर्शन के अनुसार मुक्ति प्राप्त करने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की युगपत् पूर्णता आवश्यक रहती है । यह पूर्णता चौदहवें गुण-स्थान में ही होती है अतः वहीं मुक्ति प्राप्त होती है। शरीर आदि से भिन्न ज्ञाता द्रष्टा स्वभाववाले आत्म तत्व का श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है उसी आत्मतत्व का समीचीन ज्ञान होना सम्यक्ज्ञान है और हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म तथा परिग्रह से विरक्त हो आत्मस्वरूप में सुस्थिर होना सम्यक्चारित्र है । ऊपर कहा जा चुका है कि परलोकवादी समस्त दर्शन आत्मा को मुक्त मानते हैं। यह बात भिन्न है कि उनमें मुक्ति के स्वरूप और मुक्ति के उपायों के विषय में विभिन्न मान्यताएँ है । उन मान्यताओं को गौणकर इतना माना जा सकता है कि आत्मा का पर से संबंध छूट जाना मुक्ति है । जैसे सांख्य दर्शन में प्रकृति से संबंध छूट जाना पुरुष का मोक्ष है, माया से ब्रह्म का संबंध छूट ROTEAL लगभग पैंतालीस ग्रंथों का सम्पादन व अनुवाद | कई मौलिक रचनाओं का प्रकाशन । भारतवर्षीय दि. जैन विद्वदुपरिषद के लगातार २० वर्षों तक मंत्री तथा उपरान्त अध्यक्ष | गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत विद्यालय में साहित्याध्यापक, प्राचार्य एवं श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन गुहकुल जबलपुर में निदेशक । आपकी सृजनशीलता पर म.प्र. शासन डॉ. (पं) पन्नालाल का मित्रपुरस्कार, राष्ट्रपति - साहित्याचार्य, पी.एच.डी. पुरस्कार, श्री वीर निर्याण ग्रंथ प्रकाशन समिति, भारत वर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद्, महावीर शोध संस्थान महावीरजी, अहिंसा इंटरनेशनल सोसायटी द्वारा विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित, सागर विश्वविद्यालय द्वारा पी.एच.डी. से अलंकृत । श्रीमद् जयन्तसेनरि अभिनन्दन ग्रंथ विश्लेषण 330 जाना वेदांत दर्शन का मोक्ष है और समस्त कर्म प्रकृतियों से आत्मा का छूट जाना जैन दर्शन का मोक्ष है। चार्वाक दर्शन पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के संसर्ग से उत्पन्न हुई शक्ति विशेष को आत्मा मानता है, स्वतन्त्र आत्मा के अस्तित्व को स्वीकृत नहीं करता इसलिए दृष्टि में परलोक - स्वर्ग, नरक मोक्ष आदि का भेद अस्तित्व नहीं है । पर अचेतन उपादान से चेतन की उत्पत्ति संभव नहीं है। आस्तिक दर्शनों में सभी ने इस मान्यता का खंडन किया है। कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने समयसार, प्रवचनसार नियमसार, पंचास्तिकाय तथा अष्ट पाहुड आदि ग्रंथों में इस आत्म तत्त्व का मनोहारी वर्णन किया है। शरीर मेरा नहीं है, ज्ञानावरणादि कर्म मेरे नहीं है। रागादिक भाव कर्म मेरे नहीं है, ज्ञान में प्रतिफलित होनेवाला ज्ञेय का आकार मेरा नहीं है। गुणस्थान मार्गणा, जीव समास पर्याप्ति और प्राण भी मेरे नहीं है । मेरा तो एक ज्ञान दर्शन स्वभाव ही है । इस तरह पर से भिन्न और स्वकीय गुण पर्याय से भी भिन्न आत्मा का जिसे बोध हो जाता है, श्रद्धान हो जाता है और उसीमें जो अविचलित हो जाता है तभी वह प्रतिबुद्धज्ञानी कहलाता है और जबतक शरीरादि पर द्रव्यों में अहंबुद्धि रहती है। तबतक अप्रतिबुद्ध-अज्ञानी रहता है। जीव की यह अज्ञान दशा ही चतुर्गति परिभ्रमण का कारण है । सब गतियों एवं योनियों में मनुष्यगति एवं मनुष्य योनि को ही यह योग्यता प्राप्त है कि वह पुरुषार्थ करे तो आत्मा के समस्त गुणों का पूर्ण विकास कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है । जैसे नदी नाले को पार करने के लिए तीर्थ घाट की आवश्यकता होती है, उसके बिना उन्हें पार नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार संसार सागर को पार करने के लिए तीर्थ घाट की आवश्यकता है और वह घाट कर्मभूमिज मनुष्य का औदारिक शरीर ही है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य को रागपरिणति से मुड़कर स्वकीय वीतराग परिणति से तन्मय होने का पुरुषार्थ करना चाहिए। पं. दौलतरामजी की निम्न पंक्तियों का बार बार चिन्तन करने से वीतराग परिणति प्राप्त की जा सकती है यह राग आग दहै सदा तातें समामृत सेइये, चिर भजै विषय कषाय अब तो त्याग निजपद वेइये । कहा रच्यो पर पद में न तेरो पद यह क्यों दुख सहें, अब 'दौलत' होऊ सुखो स्वपद रुचि दाव मत चूको यहै ॥ (छह ढाला) अतः साम्य-भाव रूपी अमृत का सेवन करना चाहिए । विषय कषाय का सेवन तो चिर काल से करता चला आ रहा है अब तो उन्हें छोड़ निज स्वभाव का वेदन अनुभव करना चाहिए । है प्राणी । तूं पर पदार्थों में क्यों रम रहा है । उन्हें छोड़, तेरा पद-स्थान ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव तो यह है अब स्वपद- स्वकीय स्वभाव में रचकर लीन होकर सुखी हो जा। इस अवसर को मत छोड़ । मनुष्य पर्याय का मिलना सुलभ नहीं है । (१०६) समय कभी नही एक सा, समय सदा पलटाय । जयन्तसेन समय सुखद, कर सुकृत मन लाय ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद की दृष्टि (डॉ. श्री स्वर्णकिरण) स्याद्वाद का अर्थ हैं वह दर्शन - सिद्धान्त जिसमें सर्व- हीनता के संबंध में एक साथ ही बोध होता है | घड़ा जब अच्छी देशीयता एवं सर्व प्रासंगिकता पर ध्यान दिया गया हो, जिसमें तरह से नहीं पकता है तो कुछ काला रह जाता है । जब पूरा पक एकांतवाद (Fallacy of Exclusive Particularity) से बचाव जाता है तो लाल हो जाता है । यदि पूछा जाए कि घड़े का रंग हो । इधर अमरीका के नव वस्तुवादियों (Neo-realists) द्वारा सभी समय में तथा सभी अवस्थाओं में क्या है तो इसका एक मात्र एकांतवाद का घोर विरोध एवं स्याद्वाद का मौन समर्थन किया सही उत्तर यही हो सकता है कि इस दृष्टि से घड़े के रंग के संबंध गया है, यह इस बात का द्योतक है कि स्याद्वाद् का सिद्धान्त में कुछ कहा ही नहीं जा सकता है 'स्यात् अवक्तव्यम्' का साधारण उपयोगी एवं कालिक चेतना के अनुकूल है। यहाँ हम किसी वस्तु, अर्थ यही है । 'स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम् च' का अर्थ हुआ कि किसी व्यक्ति, किसी घटना, किसी दृश्य पर 'सप्तभंगी न्याय' लागू किसी विशेष दृष्टि से हम घड़े को लाल कह सकते हैं | किन्तु जब करते हैं, सप्तभंगी तर्क से विचार कर निष्कर्ष निकालते हैं और दृष्टि का स्पष्ट उल्लेख नहीं हो, निर्देश नहीं हो तो घडे के रंग का भावी मनोमालिन्य या झगड़े को मिटा देते हैं, हटा देते हैं। वर्णन असंभव हो जाता है। अतः व्यापक दृष्टि से घड़ा लाल है 'सप्तभंगी न्याय' के अनुसार जो हमारा विचार होता है वह वस्तुतः । और अवक्तव्य भी है। पहले विचार में यहाँ चौथे विचार को मिला इस प्रकार है: दिया गया है । 'स्यात् नास्ति च अवक्तव्यम् च' अर्थात् स्यात् नहीं (१) स्यात् अस्ति अर्थात् स्यात् है। Emaibitgaoe), है और अवक्तव्य है दूसरे और चौथे विचार को क्रमिक रूप से मोड़ दिया गया है । इसी प्रकार तीसरे, चौथे विचारों को एक (२) स्यात् नास्ति अर्थात् स्यात् नहीं है। स्थान पर रख देनेपर सातवाँ विचार हो जाता है 'स्यात् अस्ति च - (३) स्यात् अस्ति च नास्ति च अर्थात् स्यात् है और नहीं भी है। नास्ति च अवक्तव्यम् च' अर्थात् स्यात् है नहीं है और अवक्तव्य भी (४) स्यात् अवक्तव्यम् अर्थात् स्यात् अवक्तव्य है । है। शुद्ध दर्शन की दृष्टि से 'सप्त भंगी न्याय' का चौथा विचार बहुत महत्वपूर्ण है । कारण सबसे पहले इससे यह बोध होता है कि (५) स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम् च अर्थात् स्यात् है और अवक्तव्य भिन्न-भिन्न अवस्थाओं या दृष्टियों के अनुसार ही किसी वस्तु का भी है। चाहे अलग-अलग या क्रमिक वर्णन हो सकता है । इस प्रकार (६) स्यात् नास्ति च अवक्तव्यम् च अर्थात् स्यात् नहीं है और अलग-अलग या क्रमिक वर्णन नहीं करके यदि परस्पर विरोधी धर्मों अवक्तव्य भी है। के द्वारा किसी वस्तु का हम युगपत् वर्णन करना चाहें तो सफल (७) स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् च अर्थात् स्यात् है, प्रयत्न नहीं होता और हमें लाचार होकर कहना पडता है कि वस्तु नहीं है, अवक्तव्य भी है। इस दृष्टि से अवक्तव्य है । दूसरी बात यह है कि सब समय किसी प्रश्न का सीधा अस्तिसूचक या नास्तिसूचक उत्तर दे देने में स्यात् का अर्थ है शायद । जैन दर्शनविद् विचार के पहले बुद्धिमत्ता नहीं है । बुद्धिमान लोगों के लिए यह समझना आवश्यक 'स्यात्' शब्द जोड़कर वस्तुतः यह बतलाते है कि कोई भी विचार है कि ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर नहीं दिया जा सकता । एकांत या निरपेक्ष सत्य नहीं है बल्कि सापेक्ष है, आपेक्षिक सत्य तीसरी बात यह है कि जैनतर्कविद् जैनतर्कशास्त्री तार्किक विरोध है | घड़े के संबंध में सप्तभंगी न्याय लागू करके हम ठोस उदाहरण को एक दोष मानते हैं अर्थात वे यह समझते हैं कि परस्पर विरोधी प्रस्तत कर सकते है । 'स्यात घटः अस्ति' में 'स्यात्' के घड़े के धर्म एक साथ किसी वस्त के लिए प्रयक्त नहीं हो सकते । स्थान, काल, रंग आदि का संकेत होता है । स्यात् घडा लाल है का पाश्चात्य तर्क-विज्ञान या तर्क-शास्त्र में अस्तिवाचक तथा नास्तिवाचक मतलब हुआ - घड़ा सब समय के लिए लाल नहीं है | बल्कि किसी विशेषण जोडकर विचार के दो रूप किये जाते हैं, पर यहाँ विशेष समय में या विशेष परिस्थिति में लाल है । यह भी बोध 'स्याद्वाद' में विचार के सात रूप रखे जाते हैं और सभी संभव है कि घड़े का लाल रंग एक विशेष प्रकार का है । घड़े के संभावनाओं को आत्मसात् किया जाता है । संबंध में नास्तिबोधक विचार इस प्रकार का होगा - स्यात् घड़ा उस कोठरी के अंदर कोई भी घडा नहीं है या कोई भी घडा नहीं रह उत्पाद और व्यय के ध्रुवक्रम सकता । 'स्यात्' शब्द इस बात का द्योतक है कि जिस घड़े के का नाम सत्ता है । कोई भी पदार्थ संबंध में विचार हुआ है वह घड़ा कोठरी के अंदर नहीं है । अर्थात् एकांत सत्य (Absolute truth) एक विशेष रंग-रूप का घड़ा विशेष समय में कोठरी के अंदर नहीं नहीं है । उसमें वृद्धि अथवा हास है । 'स्यात्' शब्द प्रयोग नहीं किया जाए तो किसी भी घड़े का की संभावना है । हमारे कर्म उर्ध्व बोध हो सकता है । घड़ा लाल है और नहीं भी है - इसका सामान्य मुखी तथा अधोमुखी होते रहते हैं । रूप स्यात् 'अस्ति च नास्ति च' अर्थात् 'स्यात् है तथा नहीं भी है, - हमारा शरीर (तत्वतः) है (आभासतः) होगा । घड़े या किसी वस्तु के अस्तित्व तथा अनस्तित्व, अस्तित्व नहीं है अतः यह शरीर है भी, नहीं श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१०७) गया समय आता नहीं, कभी लौट कर पास । जयन्तसेन विवेक रख, पाओ शीघ्र प्रकाश : Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी है । पर ऐसा वाक्य व्याघात नियम के अनुसार असिद्ध है। 'षड्दर्शन समुच्यय') अर्थात् दृष्टि भेद से घट भी है और नहीं भी कर्मफल के साथ भी हम यह तर्क लागू कर सकते हैं । 'षड्दर्शन है । एक दूसरा उदाहरण यहाँ अंधगजीयता अंधों का हाथीवाली समुच्चय' की टीका (रचयिता हरिभद्र सूरि तथा टीकाकार मणिभद्र कहावत से दिया जा सकता है | एक ही हाथी एक अंधे के लिए सूरि) में एकांत सत्ता अथवा नित्यता का खंडन करते हुए कहा ढूँढ जैसे गाजरनुमा या दूसरे के लिए दुम जैसा छडीनुमा और गया है - 'कोई वस्तु एकांत नित्य नहीं हो सकती ।' क्योंकि वस्तु तीसरे के लिए कान जैसा पापड़नुमा । सच पूछा जाए तो हाथी का लक्षण है : 'अर्थक्रियाकारित्व' और 'क्रियाकारित्व' का अर्थ ही गाजरनुमा, छडीनुमा और पापडनुमा है भी और नहीं भी है । है गतिशीलता और क्रमिकता पर जो नित्य है वह शाश्वत अक्रम विश्लेषणात्मक दृष्टि से तो है, पर संश्लेषणात्मक दृष्टि से नहीं है। और एक रूप है । अतः यदि वस्तु नित्य है तो उसमें क्रमिकता - वास्तव में, ऐसा करके जैन दार्शनिक, शंकराचार्य के मतावलम्बी नहीं, और क्रमिकता नहीं तो अर्थकारित्व नहीं, और अर्थकारित्व वेदांतियों के 'सत्य' और बौद्धों के शून्यः दोनों को 'अंधो का नहीं तो वह वस्तु ही नहीं । तात्पर्य यह कि जो नित्य है वह वस्तु हाथी' मानते हैं । आवश्यकता है व्यापक और उदार दृष्टि की नहीं है, और जो वस्तु है वह नित्य नहीं है । (तथापि अनेकांतवादकी - जिसमें एक नहीं, अनेक दृष्टिकोणों का समावेश वस्तुतस्तावदर्थक्रिया- कारित्वं लक्षणम् । तच्च नित्यैकान्ते न घटते । हो । स्वयं आचार्य शंकर सत्ता के तीन रूपों की कल्पना करते हैं - - अप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैके रूपो हि नित्ये :- 'षड्दर्शन सम्मुच्चय ।') पारमार्थिक व्यावहारिक तथा प्रातिमासिक । इनका समय जैन धर्म इस प्रकार सामान्य और विशेष में भी व्याघात है । भला कोई भी के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर से लगभग डेढ़ हजार वर्ष बाद का गौरव विरहित उसे व्यक्ति अथवा उसे व्यक्ति विच्छिन्न गौरव का है। क्या हम महावीर के ऋण को आचार्य शंकर के द्वारा सत्ता के उपपादन कर सकता है? कदापि नहीं । हर एक विशिष्ट गाय तीन रूपों की कल्पना में स्वीकार नहीं कर सकते ? (दृष्टव्यः अपनी गौरव जाति की प्रतिनिधि है, और हर गौरव जाति की विहारोद्भूत जैन दर्शन का समन्वयवाद, प्रो. धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी कल्पना विशिष्ट गौ से अनिवार्य रूप से संतुष्ट है । अतः एकमात्र शास्त्री, पृ. ७६-७७) स्याद्वाद का अनिवार्य परिणाम अज्ञानवाद सामान्य या एकमात्र विशेष की भावना 'अंधगजियता' है । (नहिं (Scepticism) में माना जाता है । अज्ञान, न कि ज्ञान, मोक्ष का क्वचित्, कदाचित्, केनचित्) किञ्चित्, सामान्य विशेष-विनाकृत- आवागमन के चक्र से मुक्ति का साधन समझा गया और इस मनुभूयते विशेषो वा तद्विनाकृतः । ... केवलं दुर्णयवत प्रभावित अज्ञानवाद के सप्तभंगी न्याय और नव तत्वों (जीवाजीवौ तथा प्रबलमतिव्यामोहादेकमपलप्यात्तद् व्यवस्थापयन्ति कुमतयः । सोऽयं पुण्यपापमास्त्रवसंवरौ । बन्धश्च निर्जरा मोक्षौ नवतत्वानि तन्मते मन्धगजन्यायः ! ... निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खर - विषाणवत् । अर्थात् जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा एवं सामान्यरहित्वेन विशेषास्तद्वद् हि । - ('षड्दर्शन समुच्यय' एवं मोक्ष - 'षड्दर्शन समुच्चय') के सहारे ६७ अपवाद माने गये । इस 'टीका' । मतलब यह कि जैन दर्शन में प्रत्येक वस्तु को 'है' और संख्या की व्याख्या इस प्रकार की जाती है- सप्तभंगी न्याय की 'नहीं' दोनों रूपों से रखा जाता है इससे समस्या का सुलझाव होता दृष्टि से नव तत्त्वों में से प्रत्येक के हिसाब से सात भेद । उदाहरण है । एकांत 'हां' या एकांत 'नहीं' न मानकर, प्रत्येक वस्तु को के लिए, जीव के हिसाब से - अनेकांत रूप से 'हां' या 'नहीं' मानना चाहिए । नयका जीव का कुमार स्याद्वाद की दृष्टि वास्तव में अनेकांतवादी दृष्टि है । 'यह घट है पर घट नहीं हैं' ('सर्वमास्तें स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च' - सत्व असत्व सदसत्व अवाच्यत्व सद्वाच्यत्व असद्वाच्यत्व सदसद्वाच्यत्व साहित्यालंकार, राष्ट्रीय | गीतकार, साहित्य मनीषी, विद्यासागर (डी.लिट्.) साहित्य श्री, विद्यालंकार, लघुकथाचार्य आदि उपाधियों से सन्मानित । लगभग २५ पुस्तकों का प्रकाशन | कई ग्रंथों का सम्पादन तथा अनुवाद । कई पत्र पत्रिकाओ में सम्पादक या उपसम्पादक के रूप में कार्यरत । आकाशवाणी से भी रचनाओं का डॉ. स्वर्णकिरण प्रकाशन | निबंध लेखन, कविता एम.ए., पी.एच.डी. लेखन, अभिभाषण आदि में पुरस्कृत । जैन समाज आरा द्वारा पुरस्कार प्रदान । अनेक भाषा विद्, परम्परा में प्रयोग, प्रयोग में परम्परा के हामी, मानवमूल्य के पदाक्षर एक उल्लेख हस्ताक्षर । इस क्रम से प्रकारतः नव तत्वों के हिसाब से ९ x ७ = ६३ उपभेद हुए । पर सत्व, असत्व, सद्सत्व और - अवाच्यत्व - इन चार दृष्टियों से नव तत्वों की उत्पत्ति का विचार करते हुए चार और उपभेद हुए । इस प्रकार अज्ञानवाद के ६३ + ४ = ६७ उपभेद हुए । अज्ञानवाद के ये भेद वस्तुतः जैन लोगों के समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचायक है। स्याद्वाद समन्वयवादी सिद्धान्त है - ऐसा स्वीकार करने में किसी तरह की हिचक का अनुभव नहीं होता । कर्मवाद को यहाँ महत्व दिया जाता है पर कर्मवाद से बढ़कर चरित्र निर्माण को समझा जाता है । जैन लोग यह मानते हैं कि जीव निसर्गतः अनंत-दर्शन अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य का भागी है । कर्म के परमाणु, जीव के श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१०८) काल चक्र चलता सदा, अमर रहा नहीं कोय । जयन्तसेन करो वही, सुख शान्ति नित्य होय ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय (वासनाओ) से मिलकर और उसके साथ चिपककर जीव में जैन दर्शनमें आत्मवाद का शेष भाग (पृष्ठ १०४ से) आ घुसते हैं (आस्त्रवन्ति) । कर्म के इस आ घुसने को ही जैन दर्शन में शक्ति की अपेक्षा आत्मा की एकता को स्वीकार 'आस्त्रव' कहा जाता है । पर हममें जो 'संवर' (तप और किया गया है किन्तु अभिव्यक्ति की दृष्टि से आत्माएं भिन्न भिन्न सच्चरित्रता) है (जिसकी विस्तृत व्याख्याएं जैन दर्शन में परिलक्षित हैं । मुनि रामसिंह पत्तियों, .पुष्पों तथा वनस्पतियों तक में उसी होती हैं) वह इस आस्त्रव को ढंक देने की चेष्टा करता है (सं + आत्मा की स्थिति मानते हैं जो मनुष्य के शरीर में है ।' इन्दु मुनि वृणोतीति संवरः) । परिणाम होता है जीव का 'निर्जर' - अर्जित कहते हैं - सभी जीव ज्ञानमय हैं, जन्म मरण से रहित है, जीवप्रदेश की अपेक्षा सभी समान हैं और गुणों की अपेक्षा वे एक कर्मों का क्षय एवं फल स्वरूप मोक्ष, आवागमन के चक्र से छुटकारा । (अमितकर्माभावान्निर्जरा हेतुसान्निध्येनार्जितस्य - कर्मणो अपने अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के द्वारा जैन दर्शन में जीव निरसनादात्यन्तिक कर्म मोक्षणं मोक्षः - सर्वदर्शन संग्रह ।) कर्म प्रदेश तथा गुणों की अपेक्षा सभी आत्माओं में समानता तथा सिद्धान्त से बढ़कर चरित्र - जीवन के व्यवहार रूप पर ध्यान जैन एकता स्थापित करते हुए भी अनन्त आत्माओं के अस्तित्व को लोगों को व्यवहारवादी सिद्ध करता है । जैन लोग सम्यग्दर्शन स्वीकार किया है, जो सभी आत्मज्ञान होने पर कर्ममल से विमुक्त सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को 'रत्नत्रय' के रूप में स्वीकार करते होकर परमात्मा बन सकते हैं। हैं और इन्हें मोक्ष का साधन समझते हैं। कुछ लोग इसे जैन लोगों जैन दर्शन में आत्मा को परमात्मा के समकक्ष घोषित किया का व्यवहारवाद कहते हैं । व्यवहारवाद और समन्वयवाद प्रायः गया है । इन्दु मुनि कहते हैं - हे योगी, जो ज्ञानमय परमात्मा है, साथ-साथ चलते हैं । इससे स्पष्ट है कि - जैन दर्शन समन्वयवाद वह मैं हूं और जो मैं हूं वही उत्कृष्ट परमात्मा है, ऐसा विचार को अधिक महत्व देता है | - लोक व्यवहार का तीव्र विरोध उसे कर । अन्यत्र वे बीज तथा वटवृक्ष के उदाहरण द्वारा भी आत्मा अच्छा नहीं लगता। तथा परमात्मा की एकता का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार वट के वृक्ष में बीज स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है और स्यादवाद की दृष्टि जैन धर्मावलंबियों को जागरूक एवं बीज में भी बट का वक्ष रहता है, उसी प्रकार देह में भी उस देव निष्पक्ष सिद्ध करती है । किसी समस्या किसी सिद्धान्त, किसी को विराजमान समझो ।' वे आत्मा को ही शिव, शंकर, विष्णु, व्यक्ति के संबंध में तर्क से बचना, तर्क से भय खाना इस बात का रुद्र, बुद्ध, जिन, ईश्वर, ब्रह्मा, अनन्त तथा सिद्ध आदि अनेक द्योतक है कि तर्ककरनेवाला सहम गया है, वह भय खाता है या नामो से निर्दिष्ट परमात्मा मानते हैं । हीन-भावना (Inferiority Complex) का शिकार बन गया है । 'साँच में आँच क्या' जैन दर्शन का उल्लेख तर्काधार है। जाँच से पत्रिय पाणिय दम्भतिल, सव्व ई जाणि सवण्ण । पाहुड़दोहा १५९ हिचकना पक्षपात का परिसूचक है । जैनी लोग कहते हैं - जीवा सयलवि णाणमय, जम्मणमरणविमुक्क । 'पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य जीवपसएसहि सयल सम, सयलवि समुणहिं एक्क ।। कार्यः परिग्रहः' अर्थात् न तो तीर्थंकर महावीर के प्रति पक्षपात का जो परमप्पा णाणमउ सो हंउ देउ अणंतु । भाव है न ही सांख्य दर्शन के पुरस्कर्ता कपिलमुनि के प्रति द्वेष जो हंउ सो परमप्पु पस, एहउ आवि णिमंतु ॥ भाव है । 'स्याद्वाद मंजरी-कार की यह घोषणा कि - अपक्षपातो परमात्मप्रकाश द्वितीय अध्याय १७५ जं वडमजकहं वीउ फुडु, वीयहं वडु विह जाणु । समय - स्तथोर्हतः' अर्थात् अर्हत् मार्ग निरपेक्ष है, अकारण नहीं तं देहहं देउ वि मुणहि, जो तइलोयपदाणु ॥ है । निष्पक्ष परीक्षण व्यक्ति विशेष की विद्वत्ता, उन्मुक्त दृष्टि एवं का योगसार, ७४ कालिक चेतना का परिसूचक है | स्याद्वादी जैनतर्कविद् सभी सो सिउ संकरु विण्हु सो सो रुद्ध वि सो बुद्ध व्यक्तियों, सभी मत मतांतरों को आदर की दृष्टि से देखते हैं' वे सो जिणु ईसरु वंमु सो, सो अणंतु सो सिद्ध । योगसार, १०५. केवल अपने मत को तो स्थापित करते ही हैं दूसरों के मत का अंध खंडन निकृष्ट कार्य समझते हैं। मधुकर-मौक्तिक हमारे लिए यदि कोई अच्छा काम करता है, तो उसे हम भूल जाते हैं। और यदि कोई हमारा बुरा करता है, तो वह हमें याद रह जाता है। मतलब यह कि हम अच्छाइयों का संग्रह नहीं करते, बुराइयों का संग्रह करते जाते हैं । बुराइयों का संग्रह जल्दी होता है और फिर उसका प्रदर्शन होने लगता है | हमारी दुकान मानव-मन की है। दुकान ऊँची है, पर अन्दर माल जो है, वह घटिया किस्म का है; ऊँचा नहीं है। दुकान में जो माल है, उसमें संख्यात्मक वृद्धि जरूरी है, पर गुणात्मक वृद्धि शून्य है। दुकान में भूसा-ही-भूसा भरा है, अनाज का दाना देखने को भी नहीं है। ऐसी दुकान किस काम की? - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१०९) समय बडा ही सूक्ष्म है, समय न जीता जाय । जयन्तसेन समय समझ, यही सुखद सदुपाय ।। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय साहित्य में जैन वाङ्मय का स्थान | (डॉ. पंडित श्री विष्णुकान्त) भारतीय वाङ्मय की धारा अनेक रूपों, अनेक भाषाओं में अजस्र रूप से प्रवाहित होती हुई अनन्त काल से विश्व में 'अपना अप्रतिम स्थान बनाए हुए है ।' अनेक मत, संप्रदाय और धर्मों के संपूर्ण साहित्य का हस्तलिखित और अप्रकाशित भण्डार अनुमान से भी कहीं अधिक है । भारतीय मनीषा विज्ञापन से दूर रही है, तटस्थता और अध्यवसाय से उसे प्रेम रहा है । यही कारण है कि अनेक विश्वविश्रुत लेखक - कवि आचार्य एकांत साधना में तो लीन रहे, किंतु अपने विषय में खुलकर कुछ भी कह नहीं सके । विदेशी लेखक - इतिहासकारों ने उनके विषय में जो कुछ लिखा, उसकी सीमा ईसा पूर्व और ईसा के पश्चात् की सीमाओं के आसपास ही मिलती है । (यद्यपि इस समय-सीमा से सहमति सभी स्थलों पर होना आवश्यक नहीं है।) भारत में इतिहास लेखन की परंपरा बहुत प्राचीन नहीं रही। संस्कृत प्राकृत-पालि-अपभ्रंश और हिंदी के साहित्य इतिहास ग्रंथों की संख्या आज भी सीमित ही है । जैन साहित्य के प्रति संस्कृतइतिहासकारों की आरंभिक दृष्टि उदासीनता को पूर्णतः छोड नहीं पायी । इसमें या तो उनकी अन्वेषक बुद्धि की मंथरगति कारण हो सकती है, या फिर "हस्तिना ताड्यमानोऽपि" ... जैसी संकीर्ण उक्तियाँ कारण हो सकती हैं । धर्म को लेकर अपने देश में भी अनाचार कम नहीं हुए । हो सकता है उसी धर्मान्धता ने उन लेखकों को जैन-साहित्य के प्रचार-प्रसार की ओर न जाने दिया हो। पिछले चार-पाँच दशकों में जैन धर्म, दर्शन और साहित्य का परिचय अनेक संस्थाओं और प्रकाशनों के माध्यम से लोगों तक पहुँचा है । और उन ग्रंथों से ही जैन साहित्य की अक्षुण्ण परंपरा की सूचना मिलती है । इस प्रकाशित साहित्य के अतिरिक्त अनेक ग्रंथ हस्तलिखित रूप में विविध ग्रंथ भण्डारों में रखे हुए हैं । वस्तुतः भारतीय वाङ्मय की पूर्णता जैन साहित्य के बिना मानी ही नहीं जा सकती । यहाँ जैन साहित्य का संक्षिप्त परिचय देकर अपनी बात स्पष्ट करना चाहेंगे । सुविधा की दृष्टि से जैन साहित्य को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है :- धर्म-दर्शन विषयक आगम साहित्य और आगमेतर साहित्य | आगम साहित्य में धार्मिक उपदेश, कर्म साहित्य, आचार, तत्व विचार, ज्ञानमीमांसा, दर्शन आदि पर विस्तारपूर्वक और स्पष्टरूप से विचार प्रस्तुत किये गये हैं। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, जैनाश्रम, हिंदुयुनिवर्सिटी वाराणसी द्वारा प्रकाशित साहित्य इस दृष्टि से अच्छी पहल है । "जैन धर्म का प्राचीन इतिहास" (पंडित परमानंद शास्त्री द्वारा लिखित) समग्र रूप में जैन धर्म और साहित्य की सूचना देने वाला ग्रंथ है। आगमेतर साहित्य की दृष्टि से जैन साहित्य का भण्डार किसी भी साहित्य की तुलना में हेय नहीं है । महाकाव्य, पुराण एवं पौराणिक महाकाव्य, गद्य काव्य, चंपू काव्य, कथाकाव्य - किसी भी विद्या में जैन साहित्य पीछे नहीं रहा । संस्कृत प्राकृत, एवं अपभ्रंश तीनों भाषाओं में अबाध गति से जैन लेखकों ने लिखा है । आधुनिक काल में भी जैन साहित्य लिखा जा रहा है। करामकाव्य एवं कृष्णकाव्य परंपरा में जैन साहित्य का अमूल्य योगदान रहा है । विमलसूरिकी परंपरा में उनका 'पउमचरिय' (प्राकृत, जैन महाराष्ट्री) रविषेण का 'पद्मपुराण' या 'पद्मचरित' शीलाचार्यकृत 'चउपन्नमहापुरिसचरिय' के अंतर्गत 'रामलक्खणचरिय' भद्रेश्वरकृत कहावली के अंतर्गत 'रामायणम्' भुवनतुंग सूरिकृत 'सीया चरिय' तथा 'रामलक्खणचरिय' हेमचंद्रकृत 'त्रिषष्ठीशलाकापुरुषचरित' के अंतर्गत "जैन रामायण" हेमचंद्रकृत 'योगशास्त्र की टीका' के अंतर्गत “सीतारावणकथानकम्" जिनदासकृत "रामायण" अथवा "रामदेवपुरान" पद्मदेव विजयगणिकृत 'रामचरित' सोमसे नकृत 'रामचरित' आचार्य सोमप्रभकृत, 'लघुत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' प्रमुख है । अपभ्रंश में स्वयंभूदेव कृत 'पउमचरिउ' अथवा "रामायण पुराण" और रइधूकृत 'पद्म पुराण' (अथवा बलभद्रपुराण), कन्नड में नागचंद्र (अभिनवपम्प) कृत "पम्परामायण" अथवा "रामचंद्रचरितपुराण' कुमुदेन्दुकृत "रामायण" देवप्पकृत 'रामविजय चरित' देवचंद्रकृत 'रामकथावतार' चंद्रसागरवर्णीकृत 'जिनरामायण' प्रमुख हैं। गुणभद्र की परंपरा में उनके 'उत्तरपुराण' कृष्णदास कविकृत 'पुण्यचंद्रोदयपुराण' अपभ्रंश में पुष्पदंतकृत "तिसढीमहापुरिसगुणालंकार' कन्नड में चामुंडरायकृत 'तिसष्टिशलाका पुरुषपुराण' बंधुवर्माकृत 'जीवन संबोधन' नागराजकृत 'पुण्याश्रवकथासार' के नाम लिये जा सकते हैं। यद्यपि यह निर्विवाद है कि रामकथा (भारतीय संस्कृत साहित्य में) सर्वप्रथम वाल्मीकि द्वारा निबद्ध की गयी, किंतु उपर्युक्त जैन कवियों द्वारा इसका विस्तार हुआ और आचार्य रविसेणने 'पद्मपुराण' लिखकर आगे आनेवाली कविपरंपरा को प्रभावित किया है । डॉ. रमाकान्त शुक्ल ने 'पद्मपुराण और रामचरितमानस' का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए अनेक बिंदुओं पर विचार किया है और तुलसीको 'क्वचिदन्यतोऽपि' के प्रकाश में रविषेण से प्रभावित माना है। यही नहीं आगे चलकर बीसवीं शताब्दी में हिंदी कवि मैथिलीशरणगुप्त के साकेत पर भी (सुलोचना प्रसंग में) रविषेण का प्रभाव दीख पड़ता है। कृष्णकाव्य परंपरा में जैन साहित्य का स्थान स्तुत्य रहा है। कृष्णचरित संबंधी आगमिक कृतियों . 'समवायांग सूत्र', ज्ञातृधर्मकथा, श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (११०) अवसर को समझा नहीं, किया न उस का ज्ञान । जयन्तसेन गया समय, कभी न आता जान || Jain Education Intemational Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अन्तकद्दशा', प्रश्नव्याकरण, “निरयावतिका" और उत्तराध्ययन, और पद्यकाव्य विषयक सूचना भी आधुनिक इतिहास ग्रंथों में के अतिरिक्त आगमेतर कृतियों का विवरण इस प्रकार है :- मिलने लगी है । आयुर्वेद, कोष, व्याकरण, अलंकार शास्त्रदर्शन पर संघदासगणि-धर्मदासगणिकृत 'वसुदेवहिण्डी' (प्राकृत, पाँचवीं भी जैन साहित्यकारों के योगदान अविस्मरणीय हैं। भी शताब्दी) आचार्य जिनसेनकृत "हरिवंशपुराण (संस्कृत, आठवीं रा अपभ्रंश साहित्य में महाकाव्य, खंडकाव्य, मुक्तक, गद्य एवं शताब्दी) स्वयंभूकृत 'रिट्ठणेमिचरिउ' (अपभ्रंश, आठवीं शताब्दी) कथा साहित्य के लिए डॉ. हरिवंश कोछड का 'अपभ्रंश-साहित्य' गुणभद्रकृत 'उत्तरपुराण' (महापुराण) (संस्कृत, नवीं शताब्दी) द्रष्टव्य है । 'भारतीय ज्ञानपीठ' द्वारा प्रकाशित "भारतीय ज्योतिष" पुष्पदंतकृत 'तिसट्ठी महापुरीसगुणालंकार' (अपभ्रंश, दसवीं शताब्दी) में जैन लेखकों का योगदान स्पष्ट है । मानसागर द्वारा रचित महासेन आचार्यकृत 'प्रद्युम्नचरित' (संस्कृत, दसवीं शताब्दी) “मानसागरी" ज्योतिष का अपूर्वग्रंथ हैं, जिसे सभी ज्योतिषाचार्य आचार्यसोमकीर्ति विरचित 'प्रद्युम्नचरित' (संस्कृत दसवीं शताब्दी) सम्मान देते हैं। ' .. हेमचंद्राचार्यकृत" त्रिपष्टिशलाका पुरुष चरित (संस्कृत, ग्यारहवीं आधुनिक युग में व्याकरण, दर्शन, कोष ज्योतिष आदि शताब्दी) धवलकृत 'हरिवंशपुराण' (अपभ्रंश, ११ वीं शताब्दी) विषयों पर यद्यपि बहुत ही कम लिखा जा रहा है तथापि काव्य के दामादरकृत णामिणाहचारउ' (अपभ्रश १३वा शताब्दा) दवद्रसूारकृत क्षेत्र में लेखनी अविराम गति से चल रही है । प्रसन्नता की बात है 'कण्हचरिय (प्राकृत १३वीं शताब्दी) यशः कीर्तिविरचित - कि हिंदी और अंग्रेजी भाषा में विपुल साहित्य का प्रकाशन होने 'हारवशपुराण' एव पाडवपुराण (अपभ्रश पद्रहवा शताब्दा) लगा है । अनेक शोध पत्रिका इस क्षेत्र में साहित्य की सेवा कर लखमदेवकृत 'नेमिनाहचरिउ (अपभ्रंश १५वीं शताब्दी उत्तरार्ध (लिपिकाल) श्रुतकीर्ति विरचित 'हरिवंशपुराण' (अपभ्रंश लिपिकाल १५वीं शताब्दी उत्तराध) कविसिंहकृत 'पज्जुण्णचरिउ' प्रतिलिपिकाल १९८८ में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित आचार्य विद्यासागर १५वीं शताब्दी, अंतिमदशक) रइधूकृत 'नेमिणाहचरिउ' (अपभ्रंश, का 'मूकमाटी' हिंदी महाकाव्य अपने प्रकार का एक अनूठा सोलहवीं शताब्दी) शुभचंद्रकृत 'पांडवपुराण' (संस्कृत), ब्रह्मजिनदास महाकाव्य है। और ब्रह्मनेमिदत्तकृत 'हरिवंशपुराण' रलचंद्रगणिकृत 'प्रद्युम्नचरित' म प्रस्तुत लेख में सूचनामात्र ही प्रस्तुत की गयी है । जैन देवप्रभसूरिकृत' पांडवपुराण (सभी १६वीं से १९वीं शताब्दी के आगमसाहित्य और आगमेतर साहित्य का सांगोपांग विवेचन और मध्य प्रसिद्ध हैं।) विवरण लेख की सीमा में समा पाना असंभव है । अभी हरिवंशपुराण और सूरसागर के तुलनात्मक अध्ययन के आवश्यकता है शोध और अन्वेषण की । शास्त्रभंडारों में शताब्दियों अवसर पर शास्त्रभंडारों में जाने का अवसर मुझे मिला है । से रखे चले आ रहे ग्रंथों की पूरी अनुक्रमणिकाओं को विस्तार देने राजस्थान के शास्त्र भंडारों में अनेक ग्रंथों की नामावली से कुछ की आवश्यकता है | साहित्य के क्षेत्र में संकोच या संकीर्णता हिंदी के नाम भी द्रष्टव्य हैं । (ये सभी रचनाएँ तेरहवीं शताब्दी से त्याज्य होती है । तभी तो साहित्य अपने वास्तविक अर्थ में सभी बीसवीं शताब्दी के मध्य लिखी/लिपिबद्ध की गयी हैं ।) : का हित कर पायेगा । जैन साहित्य रलाकर है, इसमें गोता लगाने वाले की क्षमता पर फल और रत्न की प्राप्ति निर्भर है। सुमतिगणिकृत 'नेमिनाथरास' कवि देल्हण (देवेंद्रसूरि) कृत 'गयसुकुमाल रास' कवि सच्चारूकृत 'प्रद्युम्नचरित' सोमसुन्दरसूरिकृत अंत में यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि रस अलंकार 'रंगसागरनेमिफागु' धनदेवगणिकृत "सुरंगाभिधनेमिफागु" छंद, काव्यभेद, दर्शन, धर्मशास्त्र, संगीत, कोष, कथा, पद्य, गद्य, ब्रह्मजिनदासकृत हरिवंशपुराण जयशेखरसूरिकृत 'नेमिनाथकागु' चंपू अनेकार्थ काव्य, पुराण, महाकाव्य, खंडकाव्य, हिंदी, संस्कृत, कविशोधीकृत 'बलिभद्रचौपाई' मुनिपुण्यरतनकृत "नेमिनाथरास" प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड आदि भाषाओं के रूप में जैन साहित्य ने ब्रह्मरायमल्लकृत 'बलभद्रबेलि' शालिवाहन कृत 'हरिवंशपुराण' भारतीय वाङ्मय के अंगप्रसंग को शक्ति दी है, उसे पुष्ट किया नरेंद्रकीर्तिकृत 'नेमिश्वर चन्द्रायण' कनककीर्तिकृत 'नेमिनाथ रास' है । कहीं कहीं तो जैन दर्शन का 'अहिंसावाद' भारत ही नहीं देवेंद्रकीर्तिकृत 'पद्युम्नबन्ध' मुनिकेसर सागरकृत 'नेमिनाथरास' विश्व साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखता प्रतीत होता है।" बुलाकीदास कृत 'पांडवपुराण' नेमिचंद्रकृत 'नेमीश्वररास' वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" जैसे वाक्यों के सामने जैन अहिंसा अजयराजपारसीकृत 'नेमिनाथ चरित्र' खुशालचन्दकालाकृत की विजय वैजयन्ती आज भी अलग 'हरिवंशपुराण' तथा उत्तरपुराण जयमलकृत 'नेमिनाथ चरित्र' ही फहरती हुई दिखाई पड़ती है । रतनभानुकृत 'नेमिनाथरास' विजयदेवसूरिकृत नेमनाथरास मनरंगलाल समग्रतः जैन साहित्य के बिना पल्लीवालकृत 'नेमचन्द्रिका' मन्नालालकृत 'प्रद्युम्नचरित' मुनिचौथमलकृत भारतीय साहित्य की पूर्णता की 'भगवाननेमिनाथ और पुरुषोत्तम कृष्ण (प्रकाशित) । उपलब्ध कल्पना गगन - कुसुमावचय के पुराण साहित्य की सूची पं. परमानंद शास्त्रीने अपने इतिहास में दी समान है। है । इसके अतिरिक्त महाकाव्यों का परिचय "संस्कृत साहित्य का इतिहास" में डॉ. वाचस्पति गैरोला ने प्रस्तुत किया । गद्यकाव्य श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१११) खाते-खाते दिन गया, सोते-सोते रात । जयन्तसेन मनन करो, क्या रहना निज हाथ ।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायों का क्लिष्ठ यौनर जिस के कारण अनादि से दापि पर्यन्त जीव कष्ट एवं भवोत्यात्ते के अतिरिक्त कुछ भी उपार्जन नहीं पाया । जबकि उस चोरवर शमन- उपशमन के बाद हुई सभ्यग दर्शन की उपाधि कर एवं भोल्पादक शक्तियों से मुक्ति मार्ग प्रदायिनी बनती है। दर्शन का एक अर्थ श्रद्धा भी है जो जैन शरान या जैनागमो का एक पारिभाषिक है। संसारस्थ जीव को श्रद्धा क्षजेह दामें अधिक होती है। उस की दर सणजोधी पदार्थ में ही सामेताजाने से शाश्वत श्रद्धा से वह अति दूर रह जाता है) शाश्वत श्रधा में जीव स्वयं को ही विस्मृत कर देन है म यो कहिये स्व यं खो बैठता है। दर्शन जब सभ्यग जाता है त न में जागृतत्त्व का प्रकटी करण अवश्यंभावी ले जाता है। वे जोन को जीवन का मत पान कराती है। सभ्यम् दर्शन की एवना इतनी गहराई है कि जिस के भीतर प्रविष्ठ ले कर te4 से तमसा वृक्ष जीव अपने आप को दकिक प्रकाश पुंज से अत कर देता है। सध्या दर्शन व्याक्त पाक्तत्व का परिचायक ही नहीं, उस की आन्तरिक स्थिति का राषक भी है। इसी दिये अन्य दधना की तुलना में सम्यग् दर्शन अपने आप में अत्यधिक श्रेष्ठत्व तिथे जैन धर्म में अभिषिक्त स्थिति को पाये हर है। सभ्यम् दर्शन आत्मिक वैभव प्रदायकता - प्रालि के अधिकार पत्र से संपन्न है। जहाँ तक सम्यग दर्शन नहीं वहाँ तक अतिभक व प्रासकर की मोरयता भी नहीं । यह तो स्वयं को स्वाभिमुख करने का श्रेष्ठतम सहारा है। भौतिक वैभव संपूर्ण जगत का अधिगत कर विभाजाय तथापि शून्य है और अगैकिक आत्मिक वैश्व प्रदायक सम्यग्दर्शन की प्रास शून्यावका के अंकोल से अलंकृत करती है शत्य की अंक नहीं बनता किन्तु अंह पर प्रत्येक शून्य की शक्ति उत्तरोत्तर प्रबनवती बन जाती है । दस, शत, हजार, लाख एवं उस से भी अधिक बन जाती हैं। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण मंत्र शिरोमणी है धुरि, महामंत्र नवकार। जयन्तसेन जपो सदा, उतरो भवजल पार My Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _age वेदव्य ॥श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ॥ Jain Education Intemational Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BB ૬:33 3 3 3 3 3 3 વૈશ્ય 2016 @ # % ° ° ૮. ૧૫. ૧૬. ૧૭. ૧૮. ૧૯. ૨૦ ૨૧. ૨૨. ૨૩. ૨૪. ૨૫ ૨૬. ૨૭ ૨૮. ૨૯. 30. ૩૧. ૩૨. ૩૩. ૩૪. ૩૫ ૩૬. ૩૭. ૩૮. ઘોડેક આ મહાન ગ્રંથ વિષે વાત્સલ્યમૂર્તિ આચાર્યદેવ મહાસાગર ની છીપ નું મોતી ગુરૂ ગુણ ગલી ગુરૂદેવ ને સદા મોરી વદના પાવન ભૂમિ થરાદ ની મહાન ઉપકારી ગુરૂદેવ સમાજ ઉત્થાન અને પૂજ્ય ગુરૂદેવ શ્રી પેપરાલનું પુષ્પ શાસન પ્રભાવક પ્રભાવી જૈનાચાર્ય અમર રહો વીર પાટ ગુરૂવર પ્યારે મંજિલ તરફ પૂ. ગુરૂદેવ જયંતસેનસૂરિ થરાદ પૂજ્ય ગુરૂદેવની જન્મભૂમિ પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી જયંતસેનસૂરિજ મારી નજરે એવું છે ભાઈ થરાદનું પાણી ભાંડવપુર તીર્થોદ્ધારક આચાર્ય શ્રી જયંતસેનસૂરિ પૂજ્ય ગુરૂદેવની બાલપણની ઝલક મારગડો મુક્તિ તણો સ્વાાદ એક રાધીકા એકાન્ત એટલે વિનાશ, એકાંત એટલે વિકાસ મહાવીરમાર્ગ માત્ર આત્મકલ્યાણ નો જ ભગવાન મહાવીર નો સ્યાદ્વાદ જૈનધર્મ માં યોગદ્ધિ બીસ પરિષદ ભગવાન મહાવીરની વાણી જૈન દર્શન અને મહાત્મા મોલીનસ – આગમ સાહિત્યનું અનુશીલન પ્રાચીન જૈન લેખનક્લા અને ચિત્રકલા માં મંત્રી વાચ્છાક નું ક્રાંતિકારક પ્રદાન ભારતીય સાહિત્ય માં જૈન વાડમયનું સ્થાન આત્મભાવના 7 E E S D C D E S D E C D E C D E C D E C D E D :3 33 38 જ્ઞ જૈન ધર્મ અને પ્રતિક્રમણ પર્યાવરણ અને પરિગ્રહ પરિણામ T બદલો બુરા ભલા નો આહીં નો આહીં મળે છે . માનવી, એક શાકાહારી પ્રાણી કલિકાલસર્વજ્ઞ શ્રી હેમચન્દ્રચાર્ય ની સાહિત્યનિધિ 7 - O શ્રી શ્રી નિલાલ હાચંદ હોસ ગણિવર શ્રી વિમલવિજય શ્રી કનિલાલ હાલચંદ વોરા શ્રી હાલચંદભાઈ તનશીભાઈ યોગ શ્રી ગગલાસ ખેમચંદભાઈ મુનિરાજ શ્રી મુક્તિચંદ્રવિજયજ મુનિરાજ શ્રી હેમરવિજયજી સાધ્વી શ્રી સ્વયંપ્રભા શ્રીજી સાધ્વી શ્રી મોક્ષગુણાશ્રીજી સાધ્વી શ્રી અનંતાશ્રી સાધ્વી શ્રી ઈશનકાકીજ શ્રી પુનમચંદ નાગરલાલ દોશી સાધ્વી શ્રી વનકલાથીજ શ્રી હિમતલાલ વી. યોગ શ્રી વાઘજીભાઈ ગગલદાસ વોરા શ્રી નવીન સંઘવી ડો. પ્રહલાદ પટેલ શ્રી પૂનમચંદર્ભે,સંઘથી શ્રી શાંતિલાલ કેશવલાલ શ્રી પોપટલાલ ધરૂ મુનિરાજ શ્રી પ્રશાંન્ત અવિજયજી શ્રી માવજી કે. સાવલા શ્રી રોહિત શાહ શ્રીમતી ગીતા જૈન શ્રી. જયેન્દ્ર ભાઈ શાહ શ્રી પરેશકુમાર ડી. શાહ શ્રી રસીકભાઈ સોમાભાઈ વડીલ ડૉ. નાનક કામદાર શ્રી નેમચંદ એમ. ગાલા શ્રી પ્રવીણચન્દ ભોગીલાલ રોઠ શ્રી ગુલાબ દેઢિયા શ્રી. પુનમચંદ નાગરલાલ દોશી ડૉ. શિલ્પા નેમચંદ ગાલા ડૉ. અમૃત ઉપાધ્યાય શ્રી રસીકલાલ સી. શેઠ શ્રી રાજેન્દ્ર સારાભાઈ રાબ ડૉ. આર પી. મહેતા ગ્રંથનાયક કે નિજ ક્ષોં સે લિખિત * * ૩ * * o * * * * * * * ? 0 0 ૨૫ ૨૭ ૩૩ ૪૧ ૪૫ ૫૦ ૫૩ ૫૭ ? પણ છે કે ” ૨ ૪ ૪ ૪ ૪ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થોડુંક આ મહાન ગ્રંથ વિષે | અમારા એટલે કે ગુજરાતના અહોભાગ્ય તેમજ વિશેષ કરીને અને તે પુસ્તકો પણ કેટલાં સાત્વિક અને લોકભોગ્ય હતા કે જે થરાદના અહોભાગ્ય છે કે થરાદ પરગણાના પેપરાલ ગામના એક પુસ્તકોની બીજી, ત્રીજી, ચોથી અને કોઈ કોઈ પુસ્તકની તો આઠમી બાળકે સં. ૨૦૧૦ માં પ.પૂ. વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ પ.પૂ. આવૃત્તિ બહાર પાડવી પડી છે (આ લખાય છે ત્યાં સુધીમાં). તેવા ગુરુદેવશ્રીમદવિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી પાસે સિયાણા (રાજસ્થાનમાં). વિદ્વાન મુનિરાજશ્રી ઉપર સમસ્ત બૃહદતપાગચ્છિય ત્રિસ્તુતિક જૈન દિક્ષા લીધી. ત્યારે આ બાળકની ઉંમર ફક્ત ૧૭ વરસ હતી પરંતુ મૂર્તિપૂજક શ્રી સંઘની નજર હતી. અને તે માટે શ્રી સંઘની હિરાની પરખ ઝવેરી જ કરી શકે એ કહેવત અનુસાર પ. પુ.. મુનિમંડળની મીટિંગો થવા લાગી અને છેલ્લે દક્ષિણના મહાન તીર્થ ગુરુદેવશ્રીએ આ અણમોલ રતનને સં. ૨૦૦૪ ના થરાદ ચાતુમસ કુલપાકજીમાં સમસ્ત શ્રી સંઘે પ. પૂ. શાંતમૂર્તિ મુનિરાજશ્રી પ્રસંગે પારખ્યું હતું જે સમયે પેપરાલ નિવાસી ધરૂ સરૂપચંદ શાંતવિજયજી મહારાજશ્રીની પ્રેરણાથી પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી દેવચંદના (TIN AGER) સુપુત્ર થરાદમાં ભણતા હતા. અને પૂ મહારાજ ‘મધુકર” ને આચાર્ય પદવી પ્રદાન કરવાનો નિર્ણય કર્યો આચાર્યદિવના વ્યાખ્યાનમાં દરરોજ આવતા હતા. પૂર્વના પૂન્યાનુબંધી અને તે આચાર્ય પદવી ભાંડવાજી તીર્થમાં આપવાનું નક્કી થયું કર્મ હોય તો સદ્ગુરુનો યોગ મળે છતાં પણ એ યોગનો લાભ પરંતુ પ. પૂ. મુનિરાજશ્રી દક્ષિણમાં હોવાથી ત્યાંથી સમેતશિખરજી ઉઠવવાની તક તો મહા પુન્યશાળી જ ઝડપી શકે છે. દરરોજ છ'રી પાળતો સંઘ લઈ પ્રયાણ કરી ગયા હોવાથી રાજસ્થાન વ્યાખ્યાન શ્રવણ કરતાં કરતાં આ અગ્યાર વરસના બાલ પૂનમચંદને આવતા સમય તો લાગે જ અને એટલેજ સં. ૨૦૩૬ માં શ્રી. વૈરાગ્યનો રંગ લાગવા માંડ્યો રમવા ખેલવાની આ ઉમરમાં વૈરાગ્યની સંઘમાં પડેલો શૂન્યાવકાશ ચાર વરસ બાદ સં. ૨૦૪૦ માં પૂરો ભાવના થવી ઘણી દુર્લભ છે તે વખતે ઘણાય વડીલ - પુખ્ત યુવાન થયો. સં. ૨૦૪૦ ના મહા સુદ ૧૩ ના દિવસે પ.પૂ. મુનિરાજશ્રીને ભાઈ-બ્લેનો વ્યાખ્યાનમાં આવતા હતાં પરંતુ સંસાર શું છે - સંસાર સમસ્ત શ્રી સંઘે આચાર્ય પદવી અર્પણ કરી. પ. પૂ. છે તો એ અસાર કઈ રીતે છે તેનું અંતરમાં મોટાઓને ભાન ન વર્તમાનાચાર્યશ્રીમદવિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી નામે ઘોષિત કર્યા થાય ત્યાં આટલી બાલ્યાવસ્થામાં સંસારની અસારતાનું જ્ઞાન થવું (જે આચાર્ય પદવી અપણના મહાન મહોત્સવનો અહેવાલ આ એ એક મહાન યોગની વાત છે અને એ થયા પછી પણ પ. પૂ. ગ્રંથમાં અન્યત્ર છે). ગુરુદેવશ્રીએ એ બાળકમાં રહેલી યોગ્યતાની પારખ કરી અને - આ બીજમાંથી કળી અને કળીમાંથી ફુલ બની સમસ્ત શ્રી પોતાની પાસે રાખવાનો નિર્ણય કરવો એ કંઈ જેવી તેવી બાબત સંઘની ધુરા ઉપાડી અને સમસ્ત ત્રિસ્તુતિક સંઘનું સફળતા પૂર્વક નથી. તે સંચાલન કરતાં પ. પૂ. આચાર્યદિવશ્રીમદ્ વિજય જયંતસેન સૂરીશ્વરજીનો e એ પ.પૂ આચાર્યદિવશ્રીએ પારખેલું પેપરાલ-થરાદનું મહામુલું જન્મ સં. ૧૯૯૩ માં થયેલ અને સં. ૨૦૪૩ માં તેમની ઉમર ૫૦ રતન એક દિવસ સમસ્ત જૈન સમાજ ઉપર પ્રકાશ પાથરશે અને - વરસ થયેલ એટલે તે સમયે તેઓશ્રીનું ઋણ અદા કરવા માટે એક સમસ્ત બૃહદતપાગલ્શિય ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘની ધુરા ઉપાડશે સુંદર ગ્રંથ પ્રગટ કરી તેઓશ્રીને અર્પણ કરવાની શ્રી સંઘની ઈચ્છા એવી કલ્પના તો ક્યાંથી થાય અને જે કલ્પનામાં ન આવે તે બન્યું. હતી તે ઈચ્છા પૂર્ણ કરવા માટે એક સંપાદક સમિતિનું ગઠન પૂ. સ્વ. આચાર્યદિવશ્રીમદ્ વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજીનાં દેહાવસાન કરવામાં આવ્યું અને સંપાદક મંડળે જૈન જૈનેતર વિદ્વાનો પાસેથી બાદ શાંતમૂર્તિ શ્રીમદવિજય વિદ્યચંદ્રસૂરીશ્વરજી તેમના પટ્ટધર જૈન દર્શન - તત્વજ્ઞાન - ઈતિહાસ પુરાતત્વ ના લેખો અને પ. પૂ. બન્યા. (સં. ૨૦૨૧) અને સં. ૨૦૩૬ માં શ્રી મોહનખેડા તીર્થમાં આચાર્યદિવશ્રીના જીવન વિષેના લેખો મેળવવાની કાર્યવાહીનો આરંભ કાળધર્મ પામ્યા. જે સમયે આપણા અમૂલ્ય રત્ન સમાન પૂનમચંદભાઈ કર્યો. જે સંપાદક મંડળમાં ગુજરાતી વિભાગની જવાબદારી મને સં. ૨૦૧૦ માં મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી બન્યા હતા. તેઓશ્રી સોંપવામાં આવી. દક્ષિણના વિહારમાં હતાં. મારા અહોભાગ્ય કે થરાદનો એક હીરો જે સમસ્ત ત્રિસ્તુતિક પ.પૂ. આચાર્યદેવશ્રીમદ્ વિજય વિદ્યાચંદ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ શ્રી સંઘના મુગટનો મણી બની ઝળહળી રહયો હતો તે પ.પૂ. સાહેબના દેહાવસાન બાદ સમસ્ત સંઘમાં શૂન્યાવકાશ છવાઈ ગયો વર્તમાન આચાર્યદિવશ્રીમદવિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી •અભિનંદન ગ્રંથના અને ત્વરિત ચતુર્વિધ શ્રી સંઘના માથેથી છિનવાઈ ગયેલ ગુરુદેવશ્રીનું સંપાદક મંડળમાં સ્થાન મળ્યું અને મારાથી બનતા પ્રયત્નોએ સારા શિરછત્ર અન્ય વિદ્વાન મુનીવરને આચાર્ય પદવી આપી સ્થાપિત ગુજરાતી વિદ્વાનોનાં લેખો મેળવી બની શકે એટલો ગુજરાતી કરવાનું કાર્ય શ્રી સંઘે કરવાનું હતું. વિભાગ સમૃધ્ધ બનાવવા પ્રયત્ન કર્યો. જો કે હિન્દીની તુલનામાં in સં. ૨૦૧૦ માં દિક્ષિત પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી ગુજરાતી વિભાગ ઘણો નાનો છે પ.પૂ. આચાર્યદિવશ્રી ગુજરાતી છે. મહારાજના દિક્ષા કાળને આ સમયે પૂરા પચ્ચીસ વરસ થયા હતા. એટલે ખરેખર તો ગુજરાતી વિભાગ મોટેર હોવી જોઈએ પરંતુ અને પચીસ વરસમાં તો તેમણે અનેક જૈન શાસ્ત્રોનો અભ્યાસ કરી પ.પૂ. આચાર્યદિવશ્રીનાં ભક્તો હિન્દીભાષી, રાજસ્થાન, મધ્યપ્રદેશમાં પ્રખર વિદ્યા પ્રાપ્ત કરી હતી જેના ઉદારહરણ રૂ૫ આટલા સમયમાં મોટા પ્રમાણમાં છે અને એટલું ચોક્કસ કહીશ કે એ રાજસ્થાન તેઓશ્રીએ અનેક પુસ્તકો હિન્દી-ગુજરાતીમાં પ્રકાશિત કરાવ્યા હતા. ગુજરાતના ભ તા ગુજરાતના ભક્તોએ અમારા ગુજરાતે આપેલા-થરાદે આપેલા- પેપરાલ * રન જ જાણ जन सेवा की भावना, करे सदा कल्याण । जयन्तसेन सुखद विभव, निज पर का उत्थान || Jain Education Interational Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગામે આપેલા શુદ્ધ ગુજરાતી આચાર્ય ભગવંતને હિન્દીનાં રંગે એવા અને આ ગ્રંથના કાર્યમાં એક સંપાદક તરીકે યકીંચીત પણ તો રંગી નાખ્યા છે કે જ્યારે જ્યારે પ.પૂ. વર્તમાન આચાર્યશ્રી કામ કરી પ.પૂ. આચાર્યદિવશ્રી પ્રત્યેની મારી થોડીક પણ ફરજ મધ્યપ્રદેશ કે રાજસ્થાનમાં હોય ત્યારે અમો પણ ઘડીભર શંકામાં અદા કર્યાનો મને સંતોષ છે અને એ માટે પ. પૂ. આચાર્યદિવશ્રી પડી જઈએ છીએ કે અમારા આચાર્યશ્રી ગુજરાતીમાંથી રાજસ્થાની તથા પ. પૂ. મુનિરાજશ્રી નિત્યાનંદવિજયજી મહારાજ સાહેબનો ઋણી મેવાડી કે માળવી બની ગયા લાગે છે. જયારે તેઓશ્રી તે પ્રદેશની છું કે જેઓશ્રીએ મને આ કામ માટે પસંદ કર્યો. રાત વ્યક્તિઓ સાથે વાત કરતા હોય અને તે પ્રદેશમાં વ્યાખ્યાન અંતે ગુજરાતી વિભાગમાં અને સમગ્ર અભિનંદન ગ્રંથમાં આપતા હોય ત્યારે અમોને લાગતું જ નથી કે પ. પૂ. આચાર્યદિવ અમારી નજર ચુકથી - પ્રેસદોષથી કંઈ પણ ભૂલ ચૂક છપાઈ હોય ગુજરાતી છે અને એટલે ગુજરાતી વિભાગ નાનો જ થાય ને ? તો તો તે ક્ષમા કરવા વિનંતી અને જો કંઈ પણ શાસ્ત્ર વિરુધ્ધ છપાયેલ આ અભિનંદન ગ્રંથ માટે મુખ્યત્વે કરીને પ.પૂ. વર્તમાન હોય તો તે બદલ મિચ્છામી દુક્કડમ્ ! આચાર્યશ્રીના પ્રથમ શિષ્ય પ. પૂ. મુનિરાજશ્રી નિત્યાનંદ વિજયજીની | આ ગ્રંથના હિન્દી અંગ્રેજી વિભાગના સંપાદનનું શ્રી સુરેન્દ્રભાઈ ગ્રંથને સુંદર અને સાત્વિક બનાવવા માટેની અવાર-નવાર મળતી લોઢાએ કરેલ કાર્ય અને તે પાછળ કરેલ અથાગ પરિશ્રમ તેમજ સૂચનાઓ અને ગ્રંથ બને એમ જલ્દી પ્રગટ કરવા માટેની અગાધ અન્ય સંપાદકોએ કરેલ મહેનત તેમજ આ ગ્રંથની સુંદર અને. મહેનત ખરેખર પ્રશંસનીય છે, સંપાદક મંડળની અવાર-નવાર સુવ્યવસ્થિત છપાઈ માટે સંપાદક મંડળના જ સભ્ય શ્રી જે. કે. તેઓશ્રીના સાનિધ્યમાં મીટિંગો બોલાવી આ ગ્રંથ માટે તેઓશ્રીએ સંઘવીની અવિરત મહેનત દાદ માંગી લે છે તે દરેકને મારાં અપૂર્વ માર્ગદર્શન આપ્યું છે, ગ ઈ અભિનંદન ( ત્રિસ્તુતિક સંપ્રદાય ગુજરાતમાં થરાદ અને ધાનેરા પ્રદેશ છેલ્લે ગુજરાતી વિભાગ માટે અથાગ મહેનત કરી સુંદર અને જેટલો જ સિમિત હોવાથી આપણા સમાજના વિદ્વાનોના લેખો સાત્વિક લેખો મોકલવા બદલ મારા લેખક મિત્રોનો આભાર ઓછા પ્રમાણમાં મળ્યા છે. એ જ રીતે આપણા પૂ. સાધુ-સાધ્વીજી માનવાનું કેમ ભૂલાય ? સમુદાયમાં પણ હિન્દીભાષી વધુ હોવાથી અને ગુજરાતી હોવા છતાં કીર્તિલાલ હાલચંદ વોરા હિન્દી બની ગયા હોવાથી ગુજરાતી હોય તેમના તરફથી પણ ગુજરાતી લેખો અલ્પ પ્રમાણમાં મળ્યા છે. છતાં હિન્દી વિભાગ ગાંધીધામ ગુજરાતી વિભાગના કરી વિશાળ બન્યો હોવાથી ગુજરાતી વિભાગ માટે આટલાથી સંતોષ માનું કે માનવો પડે છે. શ્રીમદ્દ જયંતસેનસૂરિ અભિનંદન ગ્રંથ તા ૨૮-૮-૧૯૯૦ રામ વાત્સલ્ય મૂર્તિ આચાર્યદેવ (પૂ ગણિવર્ય શ્રી વિમળવિજય (ડહેલાવાળા.) ) Julgaj પૂજ્ય આચાર્ય દેવેશ શ્રીમદ્ જયંતસેનસૂરીશ્વરજી મ. સા.નાં સહર્ષ સ્વીકાર કરી. કોઈપણ જાતની સંકુચિત વૃત્તિ કે એક વાર ચાલુ વિહારમાં દર્શન સાંપડ્યા. ગચ્છભેદને સ્થાન ન આપતાં પધાય. એ પ્રસંગે ખરેખર ! મારૂં પ્રતિભાશાળી પ્રતિભા હૈયું પુલકિત થઈ ગયું. છે. અપૂર્વ સ્નેહની સરિતા થરાદથી જીરાવલાજી તીર્થનો છ' રિ પાલક સંઘ આપની. નિશ્રામાં આવેલ. તે વખતે અમે પણ મંડારથી ધાનેરા જતા હતા. પૂજ્યશ્રીનો મુનિ પ્રેમ જોઈ મારૂં તો મસ્તક ઝૂકી ગયું થોડાક રસ્તામાં પૂજ્યશ્રીના પાવન દર્શન થયા. સહવર્તી મુનિ-સાધ્વી ગણ, સમય પશ્ચાતુ ધાનેરા (બ.કાં) માં પૂજ્યશ્રીને વંદના કરવાનો શ્રાવક-શ્રાવિકા સમુદાય પણ આશ્ચર્યચકિત થઈ ગયા. પૂજ્યશ્રીના અવસર પ્રાપ્ત થયો. એક મુમુક્ષુ બહેનની આહતી પ્રવજ્યા પ્રસંગે શિષ્યોમાં પણ આજ પ્રકારની ખૂબીનું દર્શન થાય છે. મને પણ આપશ્રીની સાથે પાટ પર બેસાડી વિધિ સૂત્રોનો સપ્રેમ આદેશ અપ્યું. | સ્વર્ણ જયંતિ પ્રસંગે પૂજ્યશ્રીના કરકમલ દ્વારા શાસનને દીપાવનાર કાર્યો અવિરત પણે ચાલે. મુનિ ગણ પ્રત્યે પ્રેમની ગંગા ' પૂ. રામસૂરિજી ડેહલાવાળાના સમુદાય વર્તી શ્રમણીની પ્રેરણાથી.. અખૂટ વહે. તેઓના જેવી સરળવૃત્તિ અને સાહજીકતા અમોને એક સંયમા કાક્ષિણી બ્લેનની દીક્ષા પ્રસંગે પૂજ્યશ્રીને વિનંતિ કરી. સમર્પે એ જ શુભેચ્છા સહ કોટી વંદના. -द्वेष द्वार से नीति का, जो करता नित हास । . जयन्तसेन नेता नहीं, व्यर्थ करे बकवास ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | મહાસાગરની છીપનું મોતી | (પૂ. વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ્ વિજય જયંતસેન સૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવન ચરિત્ર) કીર્તિલાલ હાલચંદ વોરા, થરાદ દાગ ધરાવે . પણ એક નાનકડું ગામડું આ બાળવયે શ્રીજીનેશ્વર ભગવાનનાં દર્શન પૂજા કરવાની ભૂખ નામ એનું પેપરાલ લાગી. પણ પેપરાલમાં જૈન દહેરાસર હોતું નજીકમાં નજીક જૈન દહેરાસરવાળું ગામ ગણો તો જેતડા. જેતડા પેપરાલથી ચાર પાંચ તેમાં રહે એક જૈન શ્રાવક છે ) કીલોમીટર છેટું છતાં દરરોજ પગે ચાલીને પૂનમચંદ પેપરાલથી. અટેક એમની ધ૩ I જેતડા સવારના પહોરમાં આવે શ્રી જીનેશ્વરદેવનાં દર્શન પૂજા કરે થરાદ (થીરપુર)ને વસાવનાર થીરપાલ ધરૂના વંશ અને આત્મ સંતોષ માને. પ્રારંભિક શિક્ષણ પૂરું થયું. સ્વરૂપચંદ ધરૂ નામ અને પ્રાથમિક શિક્ષણ માટે સ્કૂલ ગણો તો થરાદમાં. અને થરાદ એટલે પેપરાલુથી ૨૦ કીલો મીટર થાય.. પાર્વતિબેન (પારૂબેન) એમનાં ધર્મપત્ની |ી પૂનમચંદનાં માતાપિતાને થયું આ પુત્ર ધાર્મિક સંસ્કારો લઈને સંવત ૧૯૯૩ ની સાલ જન્મેલ છે. પૂર્વનાં કોઈ પૂન્યોદયે આવો પુત્ર રત્ન પ્રાપ્ત થયો છે તો. કારતક માસ અને વદ ૧૩ નો દિવસ તેનો દરેક રીતે વિકાસ થાય એ જરૂરી છે. એક શુભ ચોઘડિયે પારૂબેને પુત્રરત્નને જન્મ આપ્યો પરંતુ દરરોજ તો પેપરાલથી થરાદ-૨૦ કીલોમીટર એક નાનો - સ્વાતિ નક્ષત્રમાં વરસાદનાં ટીપાં છીપ માછલીના મુખમાં બાળક આવે જાય કઈ રીતે ? તે વખતે તો આવો બસ વ્યવહાર સીધા પડે તો તેમાંથી મોતી પાકે એવાજ એક શુભ નક્ષત્રમાં જન્મ પણ ન્હોતો ઊંટ ઘોડાં અને ગાડાં તે વખતે એક ગામથી બીજે ધારણ કરેલ આ બાળક ભવિષ્યમાં એક મહાન જૈનાચાર્ય બનશે ગામ જવા માટેનાં સાધન હતાં અને આ પ્રકારના સાધનોમાં જવા. એવી તો કલ્પના કોણ કરી શકે ? આવવામાં પણ ઘણો સમય જાય અને તે દરરોજ પોષાય પણ છતાં એ. હકીકત બની. નહિ. તો પછી બાલ - પૂનચણંદના શિક્ષણનું શું કરવું ? 0 શ્રી સ્વરૂપચંદ ધરૂના ધર્મપત્ની પારૂબેનની કુક્ષીએ જન્મ માતપિતા વિમાસણમાં પડ્યા - વિચાર કરવા લાગ્યા પેપરાલમાં. પામનાર એ પુત્ર રત્નનું નામ પાડ્યું પુનમચંદ ધીરધારનો ધીકતો ધંધો છોડાય કેમ ? માતાની કુખ ઉજાળનાર પૂનમચંદનું પ્રારંભિક શિક્ષણ પેપરાલમાં એક બાજુ ધીકતા ધંધાની સારી એવી કમાઈનો ત્યાગ બીજુ થયું. એ જમાનામાં ગામઠી સ્કલો. (સરકારી નહિ પરંતુ ખાનગી) બાજા સુપુત્રના શિક્ષણનો સવાલ ? કોઈ થોડું ઘણું ભણેલ વ્યક્તિ પોતાના ઘેરે બાળકોને ભણાવે. માત પિતાના વાત્સલ્ય પ્રેમનો વિજય થયો ધંધાને બંધ કરી માસ્તર ગણાતી. આવી વ્યક્તિ બાળકોને લેવા જાય અને ઘરે ઘરે માત પિતા બંને આવ્યા થરાદ, ભાડાનું લીધું મકાન અને રહેવા ફરી બાળકોને લઈ આવે અને ભણાવે સવારના ૯ વાગ્યાથી લાગ્યા. સાંજના પ વાગ્યા સુધી આવી ગામઠી સ્કૂલમાં પ્રારંભિક શિક્ષણ, આ પુત્રના શિક્ષણને ખાતર ધંધાને અવગણી થરાદમાં વસનાર લેનાર બાળકો ભણવામાં ઘણા. હોંશિયાર શ્રી સ્વરૂપચંદ ધરૂ અને તેમનાં ધર્મપત્ની પારૂબેને હવે પોતાનું થાય. આવી જ ગામઠી શાળામાં સંપૂર્ણ ધ્યાન પુત્રના અભ્યાસ અને સંસ્કાર તરફ વાળ્યું. સંપૂર્ણ ધ્યાન પૂનમચંદે પ્રારંભિક શિક્ષણ લીધું. વ્યવહારિક શિક્ષણ સાથે ધાર્મિક અભ્યાસ પણ ચાલુ થયો. અને તેની સાથે વ્યવહાર-ધર્મની થોડી. પૂર્વભવનાં પુણ્યાનુબંધી પુણ્યનું ભાથુ ભરીને જન્મ લેનાર પૂનમચંદનો. થોડી સમજ પૂનમચંદને આવી. જીન આત્મા તો ઉજળો અને ધમનુિરાગી હતો જ. ત્યાં વળી. મળ્યું દશ ન-પૂજા-ધામિક -અભ્યાસ -જે વી ધાર્મિક શિક્ષણ અને સામાયિક પ્રતિક્રમણ દેવ દર્શન પૂજા નો પણ લાગણીઓ અને ભાવનાઓ એ સુંદર યોગપૂનમચંદના દિલમાં સ્થાન લીધું અને એટલેજ થરાદ એક પુરાણું શહેર સંવત ૧૦૧ માં પૂનમચંદના વવા શ્રી થીરપાલ ધરુએ જ ભીનમાલથી. આવી વસાવેલુંકીર્તિલાલ હ. વોરા Iોથી વજા રોલસણિયા, ચમારીયાણા चलित चक्र संसार का, कायम रहता कौन । जयन्तसेन सरल बनो, रह तन मन से मौन ।। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સુવણાક્ષરે આગમ સુત્રો લખાવનાર આભુ સંઘવી જેવા અને અંતરમાં ઉતરેલા પૂ. ગુરુદેવના વ્યાખ્યાનના આ સંસારની શ્રેષ્ઠીઓ જ્યાં થયા હતાં તેવું થરાદ, દેલવાડાનાં ઐતિહાસિક- અસારતાને વર્ણવતા વૈરાગ્યમય વાક્યોએ પૂનમચંદના આત્માને કલામય જિનાલયોના બંધાવનાર - વસ્તુપાલ તેજપાલનું મોસાળ તે ઢંઢોળી નાખ્યો સંસાર અસાર છે. સગા સહુ સુખનાં સંગાથી છે. થરાદ આવ્યા એકલા-જવાનું એકલા છે, સાથે આવશે તો પુણ્ય અને પાપ ‘પંચ કોડીને ફૂલડે જેનાં સિધ્ધાં કાજ’ એવી સુંદર ભાવનાથી વ્હાલાં તે વ્હાલાં શું કરો, વહાલાં વોળાવી વળશે શ્રી જીનેશ્વર ભગવાનની પૂજા કરનાર અને તે પૂજા કરીને તેના ફળ હડાલા તે વનનાં લાક. તે તો સાથે જ વાળો સ્વરૂપે અઢાર દેશના અધિપતિ (રાજા) બનનાર શ્રી કુમારપાળે જ્યાં ૧૪૪૪ સ્તંભનું એક ભવ્ય-વિશાળ જિનાલય બંધાવ્યું હતું તેવું અને પૂનચણંદ નાની વયે પૂ. ગુરુદેવશ્રીનાં સાંનિધ્યમાં વધુને થરાદ (આ જિનાલય મહામદ ગજનીએ તોડી નાખેલ જેના અવશેષો વધુ સમય ગાળવા લાગ્યો. અને મૂર્તિઓ વિ. આ જિનાલય જ્યાં હતું તે ‘ઝેરાલીંબડી' ના અને એ પુણ્યશાળી આત્માને ગુરુદેવશ્રીએ પણ ઓળખ્યો. કહેવાતા સ્થળમાંથી આજે પણ મળી આવે છે.) એમને થયું આ બાળક જરૂર સંસાર છોડી દીક્ષા લેશે અને એક તે એક કસાઈને તેનો હિંસાનો ધંધો છોડાવવા અનસન લેનાર જ્ઞાની સાધુ બની પોતાનું જીવન સફળ કરશે અને અન્યનો ઉપદેશ દ્વારા ઉધ્ધાર કરશે અને એટલે જ એ બાલ-પૂનમચંદ તરફ પૂ. નથુ વારીયા જેવા સુપુત્રોનું વતન થરાદ. ગુરુદેવની અમી દ્રષ્ટિ પડી અને પૂ. ગુરુદેવે તેને વૈરાગ્યના રંગે જેના નામ પરથી શ્રી થારાપદ્રિય ગચ્છની ઉત્પતિ થઈ તેવું રંગવા માંડ્યો, પૂર્વના અનેક ભવોથી વૈરાગ્યના રંગે રંગાયેલ એ જૈન સંસ્કૃતિથી ભરેલું ગામ તે થરાદ. આત્મા હવે વૈરાગ્યમાં ડૂબી ગયો. સંસારની અસારતાને એણે જાણી. - અનેક જૈનાચાર્યો એ જ્યાં પદાર્પણ કરેલાં. એવી પુણ્ય ભૂમિ અને એનું મન સંસાર ત્યાગ કરવા ઊચું-નીચું થવા લાગ્યું. અને થરાદ અને હજુ સો વરસ પહેલ્થ જ પ. પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ પૂનચર્મદે હવે રાત- દિવસ પૂ. ગુરુદેવશ્રીના સાંનિધ્યમાં રહેવા વિજય રાજેન્દ્ર સૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબના ઉપદેશથી થરાદથી માંડ્યું. ઘરનો-ઘરનાં સગાં સ્નેહીઓનો નાતો છોડવાની તૈયારી સિદ્ધાચળનો 'છ' રી પાળતો સંઘ કાઢનાર પારેખ અંબાવીદાસ આરંભી દીધી. સંવત ૨૦૦૪ અને ૨૦૦૫ નાં પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્ મોતીચંદનું ગામ એટલે થરાદ. વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજનાં બંને ચાતુમસ થરાદનાં છે અને આવા થરાદમાં આજે પણ ઘણા જૈન વસે, શેરીએ ઈતિહાસમાં સુવર્ણાક્ષરે લખાયાં. શ્રી મહાવીર સ્વામી અને શ્રી. શેરીએ શિખરબંધી જિનાલયો, એવા બાર શેરીના બાર દેરાસરો આદીશ્વર દાદાનાં જુના જિનાલયો જે જીવસ્થામાં હતા. અને જ્યાં અને બે વિશાળ સંઘના દેરાસર ધરાવતા શહેરમાં આવી. વસનારા ભગવાનની પ્રતિમાઓ પરોણા દાખલ બીરાજમાન કરેલ હતી. તેને પૂનમચંદના પુણ્યોદયે તેનામાં ધાર્મિક વિચારો અને સંસ્કારોનું બદલે એક ભવ્ય શિખરબંધી જિનાલય બનાવવામાં આવ્યું અને ત્યાં સિચન પૂર્ણ ગતિથી થવા માંડ્યું અને ધાર્મિક શિક્ષણ સંદર રીતે ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામી અને શ્રી આદીશ્વર દાદા એક શ્રી. કરાવનાર ગુરુનું નામ પણ પૂનમચંદ (શ્રી પૂનમચંદ નાગરલાલ મહાવીર પ્રભુની ઊભી પ્રતિમા હતી તે ત્રણ અને એક શાંતિનાથ દોશી) અને એ રીતે ગરુ પૂનમચંદને શિષ્ય પણ મળ્યો પનમચંદ પ્રભુની મોટી પ્રતિમાં તથા એક ઊભા શ્રી શાંતિનાથ ભગવાનની બે પૂર્ણચંદ્ર ભેગા થયા. ૧૧-૧૨ વરસનાં પૂનમચંદનો ધાર્મિક પ્રતિમાઓ બનાવી મૂળનાયક શ્રી મહાવીર પ્રભુ અને તેની બંને અભ્યાસ પૂરજોશથી ચાલવા લાગ્યો પંચ પ્રતિક્રમણ-નવસ્મરણ–અર્થ. બાજા એક એક ઊભા ભગવાન અને એક એક બેઠેલા ભગવાનની સહિત શીખતાં વાર ન લાગી- શ્રી જૈન તત્વજ્ઞાન વિદ્યાપીઠ દ્વારા પ્રતિમાઓની પ્રતિષ્ઠા કરવામાં આવી. આ પ્રસંગે અનેક નવી લેવાની વાર્ષિક પરીક્ષાઓ. પ્રારંભિક પ્રવેશ વિ. પણ આપી સારા પ્રતિમાજીઓને અંજન શલાકા પણ કરવામાં આવી. આ પ્રસંગ નંબરે પાસ થનાર પૂનચમંદને હવે નવ યોગ સાંપડ્યો- પ. પૂ. થરાદનાં ઈતિહાસનો યાદગાર પ્રસંગ હતો અને તે સમયે પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદવિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજીનો. સંવત ૨૦૦૪નું ગુરુદેવશ્રી સાથે પૂ. તપસ્વી મુનિરાજશ્રી હર્ષવિજયજી તથા પૂ. ચાતુર્માસ પૂ. ગુરુદેવશ્રીનું થરાદમાં, થરાદનાં તે વખતના શ્રેષ્ઠી મુનિરાજ શ્રી વિદ્યાવિજયજી આદિ વિશાળ મુની મંડળ હતું અને અને આગેવાન ગણાતા શ્રી ભુદરભાઈ ત્રીભુવનદાસ ઝવેરીએ આ બંને ચાતુમાસમાં ઉપધાન તપારાધના – બંને પર્યુષણ પવરાધના કરાવેલું અને એ માટે ખાસ વિશાળ મકાન પણ બનાવેલ જે આજે - નવકાર મંત્ર આરાધન- નવપદની શાશ્વતી ઓળીઓ વિ. ધર્મકાર્યો પણ ઝવેરીના વંડા તરીકે ઓળખાય છે ઘણાજ ઉત્સાહ અને ધામધૂમપૂર્વક થયાં જેની સાક્ષી રૂપે આજે શ્રી. રૂષભદેવ ભગવાનનાં મંદિરની બાજુમાં જ શ્રી મહાવીર સ્વામીનું વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ શ્રી અભિધાન રાજેન્દ્ર કોષ જેવાં મહાન ગ્રંથોને વિશાળ મંદિર અડીખમ ઊભેલું છે જે મંદિરમાં પૂ. ગુરુદેવશ્રીમદ્ પ્રકાશિત કરાવવા માટે અથાગ મહેનત કરનાર પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી તથા પૂ. ગુરુ શ્રી ગૌતમ સ્વામીની પ્રતિમાઓ વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબના વ્યાખ્યાનની વૈરાગ્યમય પણ પ્રતિષ્ઠિત કરવામાં આવી. સુંદર તીર્થસ્થાનોના પટ મૂકવામાં વાણી સાંભળવા દરરોજ આવનાર બાર વરસનો બાળક એકાગ્રતાથી આવ્યા. એક પ્રાચીન થરાદ અવાચીનતા ધારણ કરવા છતાં તેનો પૂ. ગુરુદેવનું વ્યાખ્યાન સાંભળે અને અંતરમાં ઉતારે એ આ ધર્મનો રંગ ચુક્યું નથી તેનો આ એક ધરખમ પૂરાવો છે. અને પૂનમચંદ. FREણ ક Iિ. . પણ છે. રીતે सत्ता नहीं है शाश्वती, सपना नहीं साकार । जयन्तसेन सत्ता निधि, नहीं सुखद संसार ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આજ ચાતુંમાંસમાં થરાદમાં શ્રી રાસિયા શેરીમાં શ્રી અભિનંદન ઉદ્યોગ ઉપર એની પકડ છે. રાજસ્થાન-મારવાડના વતની મારવાડીની સ્વામી જિનાલયની પ્રતિષ્ઠા પણ કરવામાં આવી. આવા ઘણા એક ખાસિયત છે કે તે કમાય છે ઘણું અને ધર્મના કામમાં ખર્ચે છે. પ્રસંગો આ. બે ચાતુમસ પ્રસંગે બન્યા. જે પ્રસંગો આપણા આ પણ ઘણું. દીક્ષા, પ્રતિષ્ઠા જેવા મહોત્સવો ઉપર મારવાડી. જૈન જે લેખના. નાયક પુનમચંદના આત્માને ધર્મના રંગે રંગવામાં ઘણા ખર્ચ કરે છે. તે ખર્ચ ઘણી વખત તો ગજા ઉપરાંતનો દેખાય છે. કારણભૂત બન્યા. આ બધા પ્રસંગોએ પૂનમચંદે ઉત્સાહપૂર્વક ભાગ ધાર્મિક અનુષ્ઠાનમાં મારવાડી જેન પોતાની સર્વ સંપત્તિ હોડમાં લીધો અને પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજીની વધુ નજીક મૂકતાં લેશ પણ ગભરાતો નથી. અને આવો ખર્ચ કર્યા પછી પાછું આવ્યા. ‘સાધુ તો ચલતા ભલા’ ચાતુમતિ પૂર્ણ થતાંજ પૂ. ગુરુદેવશ્રીનો તે ધંધા ઉદ્યોગમાં કરેલા ખર્ચ કરતા પણ વધુ મેળવી લેવા જેટલો અન્યત્ર વિહાર નો કાર્યક્રમ નક્કી થયો અને હવે પૂનમચંદે નક્કી કાર્યકુશળ છે ખાવાપીવા.- કે રહેણી કરણી અને પહેરવેશમાં મારવાડી. કર્યું. પૂ. ગુરુદેવશ્રીનો સંગાથ છોડવો નથી. નાર ભલે સામાન્ય લાગે પરંતુ દરિયાવ દિલનો-ધણી. અઢળક સંપત્તિ મા-બાપ-ભાઈઓ વિ. ઈચ્છતા હતા કે પૂનચમંદને છોડવો પેદા કે ઈઓ વિ ઈચ્છતા હતા અનાદર હો તો પેદા કરે છે અને ખર્ચે છે ધાર્મિક કાર્યોમાં. નથી. પણ આ સંસારની અસારતાને નાની ઉંમરે પારખી જનારા પર આવો મારવાડના સિયાણી નગરમાં આજે ચારે તરફ ધાર્મિક પૂનમચંદ મક્કમ હતો. અને મક્કમ રહયો. ઘરવાળો છેવટે ઢીલા. ભાવનાની સુવાસ પ્રસરી ગઈ હતી. આજો.-બીજાના અનેક ગામોમાંથી. પડયાં. પૂનમેદની. વૈરાગ્ય ભાવનાને છેવટે તેમણે જાણી-પીછાંણી. અસંખ્ય ભાવુકો સિયાણા પ્રતિ આવવા માંડ્યા હતા. હકડેઠઠ અને પૂ. ગુરુદેવશ્રી. સાથે જવાની રજા આપી. અહી ભરાઈ ગયું હતું નહિ, પરંતુ ઊભરાઈ ગયું હતું માનવ મહેરામણથી. 2 અને પછી તો પૂનમચંદને મળી ગયું મોકળું મેદાન, સિયાણાધર્મકલ્પવૃક્ષની અપૂર્વ છાયા- પૂ.ગુરુદેવ શ્રીમવિજય થરાદના જૈનોમાંથી વ્હેનોએ દીક્ષા લઈ ચારિત્ર પાલનના. યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજીની અસીમ કૃપા અને માર્ગદર્શન અને રોકેટ મહાન માર્ગે પ્રયાણ કરવાના ઘણા દાખલા છે પરંતુ પુરુષોમાં દીક્ષા ગતીએ પૂનમચંદ ધર્મના રસ્તે આગળ વધવા લાગ્યો – લેનારા ઘણા ઓછા છે. આજ પર્યત થરાદમાંથી દીક્ષા લેનાર ધર્મ-અધર્મનો ભેદ જેણે સમજ્યો છે - જાણ્યો છે એજ ધર્મના પુરુષોમાં પૂ. મુનિરાજશ્રી તત્વવિજયજી, પૂ મુનિરાજશ્રી કાંતીવિજયજી, ખરા રસ્તે પ્રયાણ કરી શકે છે. પૂ. મુનિરાજશ્રી ચારિત્રવિજયજી કે પછી એકાદ બીજા કોઈ હશે અને તેમાં પણ પૂ. ગુરુદેવશ્રી સાથે છ-છ વરસ રહી પૂ. ગુરુદેવશ્રીની ( સંવત ૨૦૦૪ અને સંવત ૨૦૦૫ પછી બે વરસ બાદ વળી શ્રી. થરાદ શ્રી સંઘના પુણ્યોદયે સં. ૨૦૦૮નું ચાતુમસ પણ પૂ પરીક્ષામાંથી પસાર થઈ દીક્ષા લેનાર ૨૦ વરસનો નવયુવક તો મને લાગે છે કે પૂનમચંદ પહેલો જ હશે. સોનું શુધ્ધ કરવા માટે આચાદિવ શ્રીમદ્વિજય યતીન્દ્રસુરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબે પોતાના શિષ્યો સાથે થરાદ કર્યું. અને તે વખતે પણ પૂનમચંદ તો પૂ. અગ્નિમાંથી પસાર થાય છે અને તેમાં રહેલા અન્ય અશુધ્ધ ધાતુનો. ભાગ અલગ થઈ જતાં સુવર્ણ શુધ્ધ બને છે તેમ પૂ. ગુરુદેવશ્રી. ગુરુદેવશ્રી સાથે જ હતા. ધાર્મિક સુત્રો અને ગ્રંથોનો અભ્યાસ યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાથે રહી આવી જ અગ્નિ પરીક્ષામાંથી. પંડિતો પાસે ચાલુ જ હતો અને સં ૨૦૦૮ માં ધર્મની ધજાને વધુ પસાર થયેલ પૂનમચંદને દીક્ષા આપવાનો મહા-મહોત્સવ મંડાયો. મજબૂત કરી પૂ. આચાર્યદેવશ્રી. એ થરાદથી વિહાર કર્યો અને તે હતો રાજસ્થાનના સિયાણા શહેરમાં પછી ચાતુમતિ સંવત ૨૦૦૯ અને સં ૨૦૧૦ રાજસ્થાનમાં કરી દરેક સ્થળે અપર્વ ધમ[રાધના કરાવી સં ૨૦૦૪ થી સં ૨૦૦ છે અને સં ૨૦૧૦ ના મહાસુદ ૪ ના દિવસે સંસારના સર્વ સુધીનાં પાંચ-છ વરસ ૫. ગુરુદેવશ્રીના સાનિધ્યમાં રહેનાર પનમચંદના વળગણીને ફગાવી દઈ- સગા સ્નેહીનાં સગપણને છોડી દઈ. માતા આત્મા ઉપરથી. સંસારના રંગનું પૂરેપૂરું ધોવાણ થઈ ગયું અને પિતા ભાઈ બહેન વિ. કુટુંબીજનોના સ્નેહ પ્રેમને ત્યાગીને બન્યા તેઓ દીક્ષા લેવા તલપાપડ બન્યા. મુનિશ્રી જયંતવિજયજી મહારાજ અને શિષ્ય બન્યા પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજના. રાજસ્થાનનું સિયાણા નગર જેને અપૂર્વ અવસર સાંપડ્યો. શ્રી. પૂનમંચદ ધરૂની દીક્ષાના મહોત્સવનો. આપણે પણ હવે પૂનમચંદને ભૂલી મુનિરાજશ્રી જયંત વિજયજીના ત્યાગમય જીવન વિષે જાણવા - આગળ ધપીશું. સોળે કળાએ ખીલ્યું હતું. નગર સિયાણા ચોપાસ પ. પૂ. ગુરુદેવની સાથે સાથે પૂનમચંદની દીક્ષા તણો હતો અવસર ખાસ - પ. પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી ઉગ્ર વિહારી. મરૂધર એટલે મારવાડ-રાજસ્થાન, થરાદના જૈનોના પૂર્વજોની. હતા સાથે વિદ્વાન શિષ્ય સમુદાય હતો અને રાજસ્થાન-મધ્ય પ્રદેશ માતૃભૂમિ. આપણા શ્રી પૂનમચંદ ધરૂના વડવા શ્રી થીરપાલ. ધરૂ અને ગુજરાતનાં ગામ-નગર વિહાર કરતા કરતા સં ૨૦૧૨ માં પૂ. જ્યાંથી આવ્યા હતા-થરાદ વસાવ્યું હતું) તે પ્રદેશ એટલે રાજસ્થાન જેમ ગુજરાતી વ્યાપાર ધંધામાં પાવરધા છે તેમ રાજસ્થાનનો ગુરુદેવશ્રી. મધ્યપ્રદેશના રાજગઢ શહેરમાં પધાર્યા. છે માનવી તેનાથી પણ ચાર ચાસણી ચડે એ રીતે વેપાર ધંધાની જ ગુજરાતમાંથી દાહોદ રસ્તે મધ્ય પ્રદેશમાં પ્રવેશ કરતાં જ કળામાં કુશળ છે અને હિન્દુસ્તાનના ખુણે ખુણે વેપાર ધંધા અને ઝાબુઆ શહેરથી રાજગઢ જવાય છે. રાજગઢની બાજુમાં જ શ્રી. Aણીયાના જામિન જરા વિભાગ कषाय बुरी बला समझ, इससे इज्जत हान । जयन्तसेन निर्मल मति, सद्गति का पंथान ।। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મોહનખેડા તીર્થ છે આ તીર્થની વિખ્યાતી એટલા માટે છે કે બાંધવામાં આવ્યો હતો કે જ્યાં હજારો માણસો બેસી શકે. બધી જ ત્રિસ્તુતિક સંપ્રદાયના પ્રખર પ્રચારક પ. પૂ. પ્રાતઃ સ્મરણિય તૈયારી કરવામાં મધ્ય-પ્રદેશ-રાજસ્થાન અને ગુજરાતના માણસો ગુરુદેવ શ્રીમદ્વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીનો કાળધર્મ રાજગઢમાં થયો લાગી ગયા હતા. દરેક કાર્ય માટે સમિતિઓની રચના કરવામાં હતો અને તેમને જ્યાં અગ્નિ સંસ્કાર આપવામાં આવ્યો તે સ્થળે આવી હતી. તે વખતના પૂ. વર્તમાન ગુરુદેવશ્રીમદ્ વિજય તેમના વિદ્વાન શિષ્ય રત્ન ઉપાધ્યાય શ્રી મોહનવિજયજીના નામ યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ તેમજ તેમના પટ્ટધર પૂ. મુનિરાજશ્રી. ઉપરથી ત્યાં માહેનખેડા તીર્થની સ્થાપના થઈ. આજે રાજગઢ ક્યાં વિદ્યાવિજયજી મહારાજ - પૂ. મુનિરાજશ્રી સાગરવિજયજી મહારાજ આવ્યું તે પૂછીએ તો સૌ કોઈ કહશે કે શ્રી મોહનખેડા તીર્થ પાસે અને આપણી કથાના પૂ. મુનિરાજ શ્રી દેવેન્દ્રવિજયજી મહારાજ રાજગઢ આવ્યું. એક વખત રાજગઢ પાસે પૂ. સ્વ ગુરુદેવનો જ્યાં નાયક મુનિરાજ શ્રી જયંતવિજયજી મહારાજાદિ મુનિ મંડળ પણ આ અગ્નિ સંસ્કાર થયો તે સ્થળે ગુરુમંદિર બનાવી એક નાના સરખા કાર્ય માટે દોરવણી આપવા ખડે પગે મહેનત કરી રહયું હતું. બધી. તીર્થની સ્થાપના થઈ તે તીર્થ આજે એટલું વિશાળ અને વિખ્યાત જ તૈયારી થઈ ચુકી હતી. પચીસ હજારથી વધુ માણસો આવવાની બની ગયું કે બાપના નામે બેટો ઓળખાય તેના બદલે બેટાના નામે ધારણા હતી. રહેવા તથા નાવા ધોવાની મુખ્ય સગવડો પાછળ બાપ ઓળખાય તેવી સ્થિતિ રાજગઢ-મોહનખેડાની થઈ આજે એક બધા જ લાગી ગયા હતા. ત્યાં ખબર પડી કે આટઆટલા માણસો ભવ્ય જિનાયલ - અને ગુરુ મંદિરોનો સંકુલ. તેમજ યાત્રાળુઓ માટે આવે ત્યારે પાણી પુષ્કળ જોઈએ. અને ત્યાં પાણી માટે કુવો એક વિશાળ ધર્મશાળા-ભોજનશાળા ધરાવતું આ મોહનખેડા. તીર્થ દર જ હતો અને તેમાં પાણી પણ ઘણું જ અલ્પ પ્રમાણમાં હતું. હવે પોષ સુદ ૭ ના દિવસે જ્યારે પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્વિજય પાણી માટે શું કરવું? બધા વિમાસણમાં પડ્યા. પાણી માટે ઠેકઠેકાણે રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી કાળધર્મ પામ્યા હતા (સં ૧૯૬૩ ના પોષ સુદ પાઈપ લાઈનો નાખવામાં આવી હતી પરંતુ આ પાઈપોમાં ભરપુર ૭) તે દિવસે જૈન જૈનેતર યાત્રાળુઓ થી ઉભરાઈ જાય છે - આખા પાણી ક્યાંથી લાવવું. વ્યવસ્થાપકોની વિમાસણ જોઈ પૂ. ગુરુદેવ દેશમાંથી આ પવિત્ર દિવસે અસંખ્ય યાત્રાળુઓ મોહનખેડા આવી શ્રીમદ્વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજીએ પૂછ્યું કેમ બધા વિચારમાં પડી. પહોંચે છે. ગયા છો ? ( સં. ૧૯૬૩માં કાળધર્મ પામનાર પૂ. ગુરુદેવશ્રીમદ્ વિજય | ત્યારે બધા વ્યવસ્થાપકોએ પાણીની સમસ્યાની વાત કરી. પૂ. રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજના કાળધર્મ પામ્યાને સં ૨૦૧૩ માં ગુરુદેવશ્રી કુવા પાસે ગયા અને કાંઠા ઉપરથી આંગળી ચીંધી કહયું પચાસ વરસ પૂરા થયા હતા. તે પ્રસંગે અર્ધશતાબ્દી મહોત્સવ કે સામેનો પથ્થર હટાવો પાણી મળી આવશે. અને વ્યવસ્થાપકોએ ઉજવવાનું સમસ્ત ત્રિસ્તુતિક સંઘે પૂ. વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ્વિજય એ નાનકડો પથ્થર હટાવવા પ્રયત્ન કરવા માંડ્યો. ઘણી જ મહેનત યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજીનાં ઉપદેશથી નક્કી કર્યું અને આ પ્રસંગે આપણા પછી એ પથ્થર હટ્યો અને પાણીનો ફુવારો ઉડ્યો અને તે એટલો આ કથાના. નાયક પૂ. મનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી મહારાજ પણ પૂ. કે કુવાને તળીયેથી ઉડેલ ફુવારો કાંઠા સુધી ઊંચો ઉડ્યો. અને ગુરુદેવશ્રી સાથે માહેનખેડા. માં હતા. બધાએ હર્ષના પોકારો કર્યા પાણી અખૂટ રીતે કુવામાં આવવા શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ અર્ધશતાબ્દી મહોત્સવ લાગ્યું અને તે એટલા પ્રમાણમાં કે કુવામાંથી ગમે એટલું પાણી. નીકળે પરંતુ કુવામાંનું પાણી ઓછું થાય જ નહિ. આજે પણ આ શ્રીમદૂવિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી અર્ધશતાબ્દી મહોત્સવને આજે બત્રીસ બત્રીસ વરસ વીતી ગયા અને આપણે પૂ. ગુરુદેવશ્રીનાં અખૂટ પાણી ધરાવતો કુવો મોહનખેડામાં છે. શતાબ્દી મહોત્સવની ઉજવણી તરફ આગળ વધી રહડ્યા છીએ. આ અર્ધશતાબ્દી મહોત્સવ પ્રસંગે એક ગ્રંથ બહાર પાડવામાં ત્યારે પણ એ અર્ધ શતાબ્દી મહોત્સવનો આંખે દેખ્યો અહેવાલ આવ્યો જે ગ્રંથનું નામ શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ અર્ધશતાબ્દી સ્મારક ગ્રંથ આજે પણ મારી નજર સામે તરવરે છે. કારણ આ પ્રસંગે હું પણ હતું. આ ગ્રંથ જૈન સાહિત્યનાં એક અમૂલ્ય ખજાના રૂપ છે તેમાં આ મહામહોત્સવની તૈયારીના કામમાં મોટાંઓની સાથે એકાદ જૈન અને જૈનેતર સાહિત્યકારોના હીન્દી-અંગ્રેજી-ગુજરાતી અને મહીના જેટલું રાજગઢમાં રોકાયો હતો. આ સંસ્કૃત ભાષામાં લખેલા લેખો નિબંધો-કાવ્યો વિ. પ્રગટ કરવામાં આવ્યા છે. જૈન આગમ શાસ્ત્રોનાં આધારભૂત લેખો અને જૈન | મોહનખેડા તીર્થ આ વખતે ઘણું નાનું હતું (આજે તો વિશાળ ઈતિહાસના નમુના રૂપ ચિત્રો પણ પ્રગટ કરવામાં આવ્યાં છે. આ છે) તે વખતે યાત્રાળુઓને ઉતરવાની કે જમવાની વ્યવસ્થા પણ ગ્રંથ તૈયાર કરવામાં અને તેને પ્રકાશિત કરવામાં શ્રી અગરચંદજી અપુરતી હતી. જિનાલય અને ગુરુ મંદિર પણ નાનાં હતા, જે આજે નાહટા - શ્રી દોલતસિંહજી લોઢા - શ્રી રાજમલજી લોઢા. વિશાળ છે, તે વખતે તો અર્ધ શતાબ્દી મહોત્સવ પ્રસંગે જંગલમાં શ્રી બાલાભાઈ વીરચંદ દેસાઈ ‘જયભિખુ' જેવા સાહિત્યકારોએ મંગલ થયું હતું એમ જ કહી શકાય. રાજગઢના. પાદરે આવેલ અગાથ મહેનત કરી છે તે આ દળદાર ગ્રંથ જ કહી આપે છે. મોહનખેડા તીર્થની આસપાસની વિશાળ જગ્યાને સાફસુફ કરાવી. ત્યાં તંબુઓ બાંધવામાં આવ્યા. આઠ દિવસનો મહોત્સવ હતો. દેશ | અર્ધ શતાબ્દી મહોત્સવ પ્રસંગે જે જે સાહિત્યકારોનાં બહુમાન પરદેશમાંથી અસંખ્ય ગુરુ ભક્તો આવવાના હતા. ગાદલા - વાસણ. કરવામાં આવેલ તેમાં શ્રી લાલચંદ્ર ભગવાનદાસ ગાંધી વડોદરા. રસોઈ ઘર અને અર્ધ શતાબ્દી ઉજવવા માટે વિશાળ સામિયાણો વિગેરે હતા. તેમજ થરાદના શ્રી સંઘના આગેવાન શ્રી ગગલદાસ થી મારી રીએિ. , એ સાબિતારી ईO आग प्रचंड है, करे सदा बेचैन । जयन्तसेन तजो इसे, पावो सुख अरु चैन । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . હાલચંદભાઈ સંઘવીને પણ જૈન રત્ન' ના ખિતાબથી નવાજ તેમનું બહુમાન કરવામાં આવ્યું હતું. આ મહોત્સવને સફળ બનાવવા માટે થરાદના શ્રી ચંદુલાલ દલસુખભાઈ પરીખનું પણ ઘણું સારું યોગદાન હતુ તે ઉપરાંત આ મહોત્સવ સફળ બનાવવા માટે મધ્ય પ્રદેશરાજસ્થાન અને ગુજરાત સર્વે સંઘોના પ્રતિષ્ઠિત ગૃહસ્થોએ સારી જહેમત ઉઠાવી મહોત્સવને સફળ બનાવવા માટે સારો ફાળો આપ્યો હતો. એકવીસ ટાઈમની નવકારશી અને દશ દિવસનો મહોત્સવ ઘણા જ આનંદ ઉત્સાહ સાથે પૂર્ણ થયો હતો. આ આયોજન પાછળ પૂ. ગુરુદેવશ્રીમદ્વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબના શિવદિ ધાર્યા કરતાં ઘણી વધુ સફળતા મહોત્સવને મળી હતી. પૂ. મુનિરાજશ્રી વિદ્યાવિજયજી મહારાજે આ પ્રસંગને સફળ બનાવવા અથાગ પરિશ્રમ કર્યો હતો. અર્ધશતાબ્દી મહોત્સવ પ્રસંગે પૂ. સ્વ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીયારનું જીવનચરિત્ર ગુજરાતીમાં પ્રસિદ્ધ થયેલ ન હોઈ આ લેખના લેખક કીર્તિલાલ હાલચંદ વોરાએ લખીને વિરલ વિભૂતિ' નામથી પ્રકાશિત કર્યું. જેનો સંપૂર્ણ ખર્ચ થરાદના પરીખ શ્રી ચંદુલાલ દલસુખભાઈ પરીખે આપ્યો હતો. એ ‘વિરલ વિભૂતિ પુસ્તક આજે ઉપલબ્ધ નથી. મોત્સવ વખતે તેનું મહદ્ અંશે વિતરણ થઈ ગયુ હતું (હવે એ પુસ્તક વિસ્તૃત રૂપે સંખીને પ્રકાશિત થશે) રાજગઢ નિવાસી દરેક સંપ્રદાયના જૈન ભાઈઓ અને જૈનેતર ભાઈઓએ પણ આ મહોત્સવને સફળ બનાવવા માટે ઘણી જહેમત ઉઠાવી રાત દિવસ માનત કરી હતી. ઇન્દોર, ઉઇન, ભોપાલ, રતલામ, મંદસૌર, નિમ્બાહેડા ઝાબુઆ, ધાર, ખાચરોદ, કુકશી, જાવરા, વિ. સ્થળોએથી પણ ઘણા જૈન ભાઈઓ આ પ્રસંગે આવી ખડે પગે મહેનત કરી રહ્યા હતા આ લેખમાં શ્રીમદ્વિજય - રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી અર્ધશતાબ્દી મહોત્સવનું ટુંક વિવરણ એટલા માટે લખ્યું છે કે સં ૨૦૧૦ માં શ્રી ભાગવતી પ્રવજ્યા (દીક્ષા) અંગીકાર કરી ત્રણ જ વરસ પછી આપણા કથા નાયક મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી મહારાજને આવો મહાન પ્રસંગ સાંપડ્યો કે જે પ્રસંગે પૂ. વર્તમાનાચાર્યશ્રીના માર્ગદર્શન હેઠળ તેમને આવા મહોત્સવો ઉજવવાનો અનુભવ મળ્યો (જે અનુભવના આધારે આવા ઘણા પ્રસંગો તેમણે પાર પાડ્યાનું આપણે આગળ ઉપર જોઈશું) શ્રી જયંત વિજયજી - જયંત - મધુકર પૂ. વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ્ વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ પૂ મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજીને 'જયંત' ના હુલામણા નામે સંબોધન કરતા અને પોતાનાં અંગત લખવાના કાર્યો પત્રવ્યવહાર વિ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજીને સોંપવામાં આવ્યું. પૂ. મુનિરાજશ્રી દેવેન્દ્રવિજયજી પણ તેમના સરખી ઉંમરના ગુરુભાઈ હતા. પૂ મુનિરાજશ્રી દેવેન્દ્ર વિજયજી પોતે પણ પૂ. વર્તમાનાચાર્યની નિશ્રામાં ધર્મશાસ્ત્રોનો અભ્યાસ કરતા હતા અને પૂ. ગુરુદેવશ્રીની આજ્ઞા મુજબ દરેક કાર્યોમાં રસ લેતા હતા. પૂ. મુનિરાજશ્રી દેવેન્દ્રવિજયજી શ્રી. જયશ્વસેનસૂરિ અપના ગંગુજરાતી વિભાગ fers them the top into th તથા પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી બંને ઉપર પૂ. ગુરુદેવશ્રીને ઘણી આશાઓ હતી. (પરંતુ પૂ. મુનિરાજશ્રી દેવેન્દ્રવિજયજી મહારાજ નાની ઉમરે કાળધર્મ પામ્યા જેથી પૂ. વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ્વિજય યતીન્દ્રસૂરીારા પછી પૂ. મુનિરાજશ્રી વિધાવિજયજી મહારાજ 'પથિક' જેઓ પૂ. ગુરુદેવશ્રીના પટ્ટશિષ્ય હતા તેમને આચાર્ય પદવી એનાયત કરવામાં આવી અને તેમનાં કાળધર્મ બાદ આપણા કથા નાયક મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી મહારાજને આચાર્ય પદવી સમસ્ત શ્રી ત્રિસ્તુનિક સંધે આપી. ડિ પૂ. મુનિરાજ શ્રી જયંતવિજય મૃદુભાષી અને શાસ્ત્રમાં લગની ધરાવતા હોવાથી તેમણે પૂ. વર્તમાનાચાર્યશ્રીની હાજરીમાં શાસ્ત્રોનો સારો એવો અભ્યાસ કર્યો. અમદાવાદમાં ખાસ પંડિતો પાસે રહીને ધાર્મિક શાસ્ત્રોનો ગહન અભ્યાસ કરી - ભમરી. જેમ દરેક ફૂલમાંથી મધ ચુસતો જાય છે છતાં ફુલ જેમનું તેમ રહે છે એવા 'સાચું એ મારું" ના સિધતિ ને વનમાં ઉતારી જૈન સિદ્ધાંતોના સત્યરૂપ મધને ગ્રહણ કરનાર આપણા કથા નાયકે જે “મધુકર' નુ ઉપનામ ધારણ કર્યું તે ખરેખર યોગ્ય જ પુરવાર થયું જયંતવિજય એટલે મધુકર અને મધુકર એટલે જયંતવિજય એવો શબ્દ પર્યાય પ્રત્યેક જૈન સ્ત્રી પુરુષોના દીલમાં વસી ગયો એવા પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી ‘મધુકર' અર્ધશતાબ્દી મહોત્સવ પછી પૂ. ગુરુદેવ સાથે જ વિચરવા લાગ્યા. - પૂ. ગુરુદેવશ્રી સાથેના વિહારો- ચાર્તુર્માસ અને મહોત્સવ પ્રસંગો 514 સે. ૨૦૧૪ માગશર મહિનામાં મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજીને આહોર નગરમાં ધામધૂમપૂર્વક વડી દીક્ષા આપવામાં આવી અને તે પછી મુનિરાજશ્રી પોતાના ગુરુદેવની વૈયાવચ્ચનો અપૂર્વ લાભ મેળવતા મેળવતા પૂ. ગુરુદેવશ્રીને સાહિત્યોપાર્જનમાં સહાયક બનવા લાગ્યા. અને એ રીતે ખરેખર તો પૂ. ગુરુદેવશ્રીના અંતેવાસી શિષ્ય તરીકે તેઓની પ્રતિભા ઉપસી આવી અને પૂ. ગુરુદેવશ્રીના તેઓશ્રીને અખંડ આશીવિંદ હતા. અને એ આશીર્વાદ જે કામ કર્યું તે આજે આપણે પ્રત્યક્ષ જોઈ રહ્યા છીએ- પૂનમચંદમાંથી મુનિશ્રી જતવિજયજી અને મુનિશ્રી યંત્તવિજયમાંથી પૂ. વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ્ વિજયજયંતસેનસૂરીશ્વરજી રૂપે આજે સમસ્ત અખિલ ભારતીય બૃહત્તપાગચ્છિમ ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘનું સતાપૂર્વક નેતૃત્વ સંભાળી ઉગ્ર વિહાર કરતા સમગ્ર દેશમાં જૈન શાસનનો - જૈન દર્શનનો - તત્વજ્ઞાનનો પ્રચાર કરી રહ્યા છે. સ ૨૦૧૪ - મોહનખેડા તીર્થની નજીકમાં જે આવેલ રાણાપુર. ગુજરાત મધ્ય પ્રદેશની સરહદ પર લગભગ આવેલ છે. અને અર્ધશતાબ્દી મહોત્સવમાં પ.પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજીની સાથે અથાગ મહેનત ઉઠાવી મહોત્સવની સફળતા થઈ તેમાં કરેલ પરિશ્રમથી થાકેલ પૂ. ગુરુદેવશ્રી સાથે આપણા વર્તમાનાચાર્યશ્રીનું સં ૨૦૧૪ નું ચાતુર્માસ રાણાપુરમાં થયું જે પ્રસંગે ધર્મના અનેક તપ જપ કરાવી જૈન જૈનેતરમાં ધર્મની અભૂતપૂર્વ જાગૃતિ લાવી.સં ૨૦૧૫ જ્યાં આપણા પ્રાતઃ સ્મરણીય ईर्ष्या द्वेष बढ़ा जहाँ, बात बात में क्लेश । जयन्तसेन मिले नहीं, वहाँ आत्म सुखलेश ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ. પૂ. ગુરુ ભગવંત રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજે ક્રિયોધ્ધાર કરી નામની આણ જે ગુજરાત-મધ્યપ્રદેશ અને રાજસ્થાન પુરતી સીમિત યતી ધર્મનાં માનદ્ ઉપકરણો છોડી પાલખીનો ત્યાગ કરી સંવેગી હતી તે સમસ્ત હિન્દુસ્તાનમાં ફેલાવી રહયા છે, જે આપણે ક્રમશ: દીક્ષા ધારણ કરી જે નગરને પાવન કર્યું તે મધ્ય પ્રદેશના જાવરા જોઈશું. સ. ૨૦૧૮નું ચાતુર્માસ અતિ ઉલ્લાસભેર નિમ્બાહેડા નગરમાં. વાજતે ગાજતે અપૂર્વ ઠાઠમાઠપૂર્વક ચાતુર્માસ પ્રવેશ કરી | (રાજસ્થાન)માં કરી ધર્મધજા ફરકાવતાં પહેલાં રાજસ્થાનમાં આવેલ પ. પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજીએ ધર્મની જ્યોતને | સુરા નગરમાં શ્રી સંઘમાં વરસોથી ચાલી આવતા મતભેદ મીટાવી અનેક ગણી ચમકાવી તે વખતે આપણા વર્તમાનાચાર્યશ્રી પણ સંઘમાં એકરાગતા લાવી નવું જિનાલય બનાવરાવી તેની પ્રતિષ્ઠા તેઓશ્રી સાથે હતા. અતિ ધામધૂમપૂર્વક કરાવી અને ચાતુમસ વાગરા (મ.પ્ર.) કર્યું. સં. સં ૨૦૧૬ અને ૧૭ આ બે વરસનું ચાતુર્માસ પ. પૂ. આચાર્યદેવશ્રી ૨૦૧૯માં રાજગઢ નિવાસી ધનરાજજી સમરથમલજીને ઉપદેશ મદ્વિજય યતિન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાથે આપણા વર્તમાનાચાર્યશ્રીનું આપી પોતાના ગુરુદેવોની સ્મૃતિરૂપ ભૂમિ મોહનખેડા રાજગઢથી પણ રાજગઢમાં થયું. કારણ ? પ. પુ. આચાર્યદિવશ્રીમદવિજય પાલીતાણા - શ્રી. સિધ્ધાચલનો છ'રી પાલીત સંઘ કઢાવ્યો અને યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજની તબિયત વૃધ્ધાવસ્થાના કારણે નરમ અનેક પ્રકારની ધામધૂમપૂર્વક અનેક ગામ નગર પદયાત્રા કરતો તે રહેવા લાગી અને તેમને થયું કે હવે દેહત્યાગ નજીક આવી રહયો સંઘ જ્યારે પાલીતાણા પહોંચ્યો ત્યારે ધર્મનો જયજયકાર થયો. સં. છે. તો જ્યાં મારા ગુરુદેવ શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસુરીશ્વરજી કાળધર્મ ૨૦૨૦ -૨૦૨ ૧ ૨૦૨૨ ના ત્રણ વરસના ચાતુમસિ અમદાવાદમાં પામ્યા. અને જે સ્થળને પવિત્ર કર્યું તેજ સ્થળે શા માટે દેહ ન થયા - અમદાવાદ એટલે જાણે જોઈ લ્યો થરાદ - અમદાવાદમાં થયા - અમદાવાદ એટલે જા છોડવો. ? અને એવા કોઈ મનના નિર્ણય સાથે પ. પૂ. આચાર્યદિવ એક પણ સ્થળ એવું નહિ હોય કે જ્યાં થરાદ નિવાસી કોઈક ને શ્રીમદ્વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ સં ૨૦૧૬ અને ૨૦૧૭ કોઈક ન રહેતું હોય. જ્યાં જાઓ ત્યાં પૂછો કે અહીં થરાદનું કોઈ રાજગઢ રહયા અને તેમની અપૂર્વ સ્નેહા સુશ્રુષા વૈયાવચ્ચ કરવાનો રહે છે, તો તરત જ કોઈક તો મળી જ રહેશે. આજે થરાદના જૈનો અપૂર્વ યોગ પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજીને મળ્યો. પૂ. ગુરુદેવની થરાદ કરતાં અમદાવાદમાં વધુ છે રતનપોળનો કાપડનો ધંધો મોટા સેવા કરતા કરતા રાજગઢમાં રહડ્યા. અને એક દિવસ એવો આવ્યો પાયે થરાદવાળાના હાથમાં છે આજે અન્ય સ્થળોએ પણ થરાદવાળાનો કે દેશભરનાં સંદેશા વ્યવહાર સાધનો ધણધણી ઉઠયા એ દિવસ પગપેસારો ઘણો. થઈ ગયો છે વળી. અમદાવાદની નજીક આણંદ - હતો. સં ૨૦૧૭ ના પોષ સુદ -૨ નો પૂ. ગુરુદેવશ્રીની નાજુક નડિયાદ - પાલનપુર - મહેસાણા વિ. સ્થળોએ પણ પોતાની હાલત થતાં તેમના ભક્તો અનુયાયીઓ જ્યાં જ્યાં વસતા હતા વિદ્ધતાનો લાભ આપવા ત્રણ વરસના સળંગ ચાતુમતિ અમદાવાદ ત્યાં સંદેશાઓ પહોંચવા લાગ્યા અને ચોવીસ કલાકમાં તો રાજગઢ કર્યા જે વખતે શ્રી રાજેન્દ્રસૂરી. સાહિત્ય પ્રકાશન મંદિર નામની - મોહનખેડા માનવ મહેરામણથી. ઉભરાઈ ગયું અને પોષ સુદ -૩ ધાર્મિક પુસ્તકો પ્રકાશીત કરવા માટેની સંસ્થાની સ્થાપના કરી જે ના દિવસે પ. પૂ. ગુરુદેવશ્રીએ દેહ છોડયો - આપણા વર્તમાનાચાર્યને સંસ્થાએ આજ સુધી અનેક ધાર્મિક પુસ્તકો હિન્દી તથા ગુજરાતી બાલ્યાવસ્થામાં પારખનાર અને ભવિષ્યના આચાર્ય થવાના લક્ષણને માં છપાવી પ્રસિધ્ધ કર્યા છે અને આજ અરસામાં વચ્ચે રાજગઢ ઓળખનાર અને એ દ્રષ્ટિએ પૂનમચંદ ધરૂને ભાગવતી દીક્ષા આપી. | (મ. પ્ર.) જઈ રાજગઢથી શ્રી શત્રુંજ્ય મહાતીર્થનો (પાલીતાણા) જયંતવિજયજી બનાવનાર પૂ. ગુરુદેવશ્રીના દેહાવસાનથી આપણા ‘છ'રી. પાલિત સંઘ શ્રી રૂપચંદજી કેશરીમલજી અંબોર તરફથી. વર્તમાનાચાર્ય તે વખતના મુનિશ્રી. જયતવિજયજીના કાળજામાં કરમો. કઢાવ્યો જે છ' રી પાલિત પદયાત્રી સંઘ આપણા વર્તમાનાચાર્ય માટે ધા. વાગ્યો. સંસારીના મા-બાપ અને ત્યાગી સાધ મહાત્માના ગરુ પ્રથમ હતો અને જે સંધ નગ૨ ગામ ફરતો ફરતો અતિ ઉત્સાહપૂર્વક એમના બાળકોના. - શિષ્યોના મનમાં હૃદયમાં મહત્વનું સ્થાન ધરાવે શ્રી શત્રુંજય તીર્થ પહોંચી તીથાધિપતિ શ્રી આદિશ્વર ભગવાનના છે. મા-બાપ ભાઈ-હેન સગા સ્નેહી. સર્વે સંસારી સગાં નો ત્યાગ દશન પૂજા કરી પાવન થયો અને શ્રી સંઘપતિને વરમાળા પહેરાવી કરી જે ગુરુને પોતાના બનાવ્યા હતા અને જે ગુરુએ પોતાને તેમના જેનું વર્ણન વિસ્તારથી કરવા માટે એક પુસ્તક થઈ જાય જ્યારે આ બનાવ્યા હતા તે ગુરુનો વસમો વિયોગ કેવી મનોવેદના પેદા કરે છે ગ્રંથમાં લખવા માટેની મર્યાદા છે. અને સં ૨૦૨૨ માં આણંદ તે તો. જેને વિતી હોય તેજ જાણે છતાં પણ સંસારી અને ત્યાગી શહેર કે જ્યાં થરાદવાળાનાં પચીસેક ઘર છે. ત્યાં પ. પૂ. મુનિરાજશ્રી. વચ્ચે મનની સ્થિતિમાં રાત-દિવસ નો ફરક હોય છે. સંસારી ટેડ જયંતવિજયજીએ ઉપદેશ આપી. શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસરિ જ્ઞાનમંદિર સંબંધના સગા હોય છે જ્યારે ત્યાગી આત્મસ્વરૂપને ઓળખી એ ક (ઉપાશ્રય)ની સ્થાપના કરાવી. આણંદમાં એક ધાર્મિક સ્થળનો ઉમેરી બીજાના આત્મા સાથે પ્રીત કરનારા હોય છે પ. પૂ. સ્વ. ગુરુદેવ કયાં. શ્રી.યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજના અગાધ આશીવદ પૂ. મુનિરાજ અને એ જ વરસમાં. સં. ૨૦૨૨ માં અમદાવાદમાં સિયાણા. જયંતવિજયજી ઉપર હતા અને જેના ફળ સ્વરૂપે આજે આપણે નિવાસી. રતનબેનને દીક્ષા આપી તેમને પૂ. સાધ્વીજી શ્રી. જોઈ રહયા છીએ કે પૂ. ગુરુદેવશ્રીના આશીવદિ પૂનમચંદમાંથી લાવણ્યશ્રીજીનાં શિષ્યા તરીકે પ્રસિધ્ધ કય. આ દીક્ષા પ્રસંગ પણ. મુનિશ્રી જયંતવિજય “મધુકર” અને મધુકરમાંથી વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ્ પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી મહારાજના હાથે પહેલો જ હતો. વિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી આપણા સમસ્ત - ત્રિસ્તુતિક સંઘના અને આ રીતે પ્રતિષ્ઠા-દીક્ષા-‘છ'રી પાલિત સંઘ એવાં શાસન વડા થયા છે અને પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીના પ્રભાવના માટેનાં કાર્યો કરવા પ. પૂ. સ્વ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજય लोभ मोह मद वासना, सभी नरक के द्वार । जयन्तसेन तजो सदा, बढ़े नहीं संसार ॥ Jain Education Interational Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પતીન્દ્રસૂરીશ્વરજીના કાળધર્મ પછી આપણા પૂ. વર્તમાનાચાર્ય ના પ્રાથે થવાની શરૂઆત થઈ ગઈ. જો કે ફ્રી ક્રિક ૨ ૨૦૨૨નું માસિ અમદાવાદમાં કરી પૂ. મુનિરાજ શ્રી જયંતવિજયજીએ. વળી પાછો મધ્ય પ્રદેશ તરફ વિહાર કર્યો. કોણ જી ડેમ પણ તેમને તેમના ગુરુવશ્રીની નિવસિ ભૂમિ તરફ જવાનું મન થઈ જતું હતું, પરંતુ તેઓ શ્રી રાજગઢ મોહનખેડા પહોંચે તે પહેલાં રસ્તામાં આવતા ઝાબુઆ અને રાણાપુરે એમને રોકી રાખ્યા. ઝાબુઆ નિવાસી શ્રી સાગરમલજી લાલચંદજી ભંડારીની છરી પાબિત સંઘ કાઢવાની ભાવના થતાં આપણા પૂ. મુનિરાજ શ્રી જયંતવિજયજીને ઝાબુમાં રોકી. પ. પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજીના સદુપદેશે જે તીર્થની કાયાપલટ કરી તે લક્ષ્મણી તીર્થનો છ'રી પાલિત સંઘ ઝાબુઆ નગરથી વાજતે ગાજતે નીકળી અને સાનંદ શ્રી લક્ષ્મણીજી પહોંચ્યો જ્યાં તીર્થ યાત્રા કરી શ્રી સંઘપતિને સંધમાળા પહેરાવી શ્રી સંઘમાં આનંદ મંગળ વર્તાવ્યો અને વળી પાછા આપણા કથાનાયક મુનિરાજશ્રી જે રસ્તે આવ્યા હતા તેજ રસ્તે પાછા ફર્યા શા માટે ? શિષ્ય બનાવવા કોઈ યુવકને પણ શોધવો જોઈએ ને ? અને ન માત્ર દોડતું આવે તેમ રાણાપુરમાં બંશીલાલ નામનો એક યુવાન દીક્ષા અંગીકાર કરવા થનગની રહ્યો હતો. અને પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજીની રાહ જોતો ઉભો જ ન હોય તેમ જ્યારે પૂ. મુનિરાજશ્રી રાણાપુર પધાર્યા કે બંશીલાલની બંશી વાગવી શરૂ થઈ ગઈ. અને સં ૨૦૨૩ ના ચૈત્ર વદ ૨ ના દિવસે ખૂબ સમારોહપૂર્વક બંશીલાલને શ્રી ભાગવતી પ્રવજ્યા (દીક્ષા) અંગીકાર કરાવી પ. પૂ. મુનિરાજ જયંતવિજયજીએ પોતાના પ્રથમ શિષ્ય તરીકે મુનિરાજશ્રી નિત્યાંનવિજયજી નામે ઘોષિત કર્યા જે આજે પૂ. વર્તમાનાચાર્યશ્રી સાથે વિચરતા પૂ. આચાર્યશ્રીના ઉપદેશ દ્વારા થતાં અનેક ધાર્મિક અનુષ્ઠાનોમાં અથાગ પરિશ્રમ કરી પૂ. વર્તમાનાચાર્યશ્રીને મદદ કરે છે. 164 સં. ૨૦૨૪માં થરાદ જેમણે વસાવ્યું તે થીરપાલ ધરૂ જે નગરના હતા તે ભીનમાલ નગર નિવાસી શ્રી ઉકચંદજી લલ્લુજીને ઉપદેશ આપી થરાદના ભાીજ વસ્તુપાળ તેજપાળે બંધાવેલ આબુ દેલવાડા તીર્થનાં દર્શન કરવા ભીનમાલથી આબુ કુંભારીયાનો છ'રી પાળતો સંઘ કઢાવ્યો. જે સંઘમાં સાધુ સાધ્વી અને અનેક શ્રાવક શ્રાવિકાઓ હતાં અને પૂ. મુનિરાજશ્રીના પ્રથમ શિષ્ય નવોદિત દીક્ષિત મુનિરાજશ્રી નિત્યાનંદવિજય પણ સાથે હતા. અને આબુ વરસ સંવત ૨૦૨૪નું પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી ને પોતાનું વતન યાદ આવ્યું. વતનના જૈનોને ધર્મનો રંગ ઉતરે નહિ પરંતુ વધુ ચઢે એ માટે સં. ૨૦૨૪નું ચાતુમિસ થરાદમાં કર્યું. સં. ૨૦૨૦માં તેનાવા ગામમાં શ્રી સંઘમાં ચાલતા વૈમનસ્યને દૂર કરી એક બીજાના અંગત રાગદ્વેષને મીટાવી મહા સુદી ૧૩ ના દિવસે ૫. પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય વિદ્યાચંદ્રસૂરીષરના વરદ હસ્તે નૂતન જિનાષની પ્રતિષ્ઠા કરાવી. સં. ૨૦૨૫નું ચાસિ રાજસ્થાનના ભીનમાલ નગરમાં થયું. અને તે જ વરસમાં આકોલીમાં શ્રી જયસેનસૂરિ અભિનદન ગ્રંથ ગુજરાતી વિભાગ 2 પબુબાઈ ને દીક્ષા આપી તેમને સાધ્વીજી શ્રી કુસુમશ્રીનાં શિષ્યા તરીકે સાધ્વીજી શ્રી હર્ષપૂર્ણાશ્રીજને નામે ઘોષિત કર્યાં. દડા અને આવ્યું વરસ ૨૦૨૬નું પૂ. મુનિરાજશ્રીને પોતાની દીક્ષા ભૂમિ ઉપર અનન્ય પ્રેમભાવ હોય જ અને એટલેજ સં. ૨૦૨૬નું ચાતુર્માસ સિયાણામાં કરી ધર્મની જ્યોત જગાવી અને ચાતુર્માસ પૂર્વ સં. ૨૦૨૬માં બાગ નિવાસી શ્રી કેશરીમલજી ચાદમલજી રાજમલજી ને ઉપદેશ આપી બાગથી સિધ્ધાચલ તીર્થ નો છ' રી પાળતો સંઘ કઢાવ્યો જેનું સફળ નેતૃત્વ આપશ્રીએ કર્યું અને સં. ૨૦૨૬ના સોનેરી વરસમાં પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંત વિજયજીએ આકોલી (રાજસ્થાન)માં ત્રણ કુમારીકાને દીક્ષા આપી ને નીચે મુજબ છે... yo yo Bick શાહ સાંવલ મીશ્રીમની સુપુત્રી લક્ષ્મીકુમારી મેંગલવા સાધ્વીજી શ્રી લાવવશ્રીના શિષ્યા સુધીકરણો શ્રી શાહ સાંવલજી મીશ્રીમલજીની સુપુત્રી શાન્તાકુમારી મેંગલવા સાધ્વીજી શ્રી લાવણ્યશ્રીના શિષ્યા શ્રી સર્વોદયાશ્રી સાધ્વી $ શાહ ભાભૂતમલજીની પુત્રી લીલાકુમારી આકોલી સાધ્વી શ્રી લાવણ્યશ્રી છના શિષ્યા સાધ્વીશ્રી સ્નેહલત્તા શ્રીજી અને આવી રીતે ત્રણ બહેનોને સંવગી દીક્ષા આપી સ. ૨૦૨૬ના વર્ષ ને ઘણું જ ઉત્કૃષ્ઠ બનાવ્યું. સં. ૨૦૨૭નું ચાતુમા મધ્ય પ્રદેશની ઉજ્જૈન નગરીમાં કર્યું. જે રાજાભોજના વખતની પ્રખ્યાત નગરી ગણાય છે અને જ્યાં શ્રી અવંતિ પાર્શ્વનાથ ભગવાનાદિના જિનાલયો છે અને ચાતુર્માસ પૂર્વ ભીનમાલ નિવાસી શ્રેષ્ઠી શ્રી બૈરીમલજી પૂનર્મદઃ સૌનરાજજી ને ઉપદેશ આપી શ્રી ભીનમાલ નગરથી ભાંડવાજી તીર્થનો છ રી પાર્જિત સંઘ કાળો કે ભાંડવા નીર્યનો સંપૂર્ણ હિમાં આગળ આપવામાં આવશે - બીનમાલથી પ્રયાસ કરી શ્રી સંઘ પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંત વિજયજી આદિ મુનિવરો સાધ્વીજી સમુદાય અને અનેક શ્રાવક શ્રાવિકાઓ સાથે સાજન માજન સહ ભાંડવાજી આવી તીર્થ યાત્રા પૂજા કરાવી સંઘપતિશ્રીને સંઘ માળ પહેરાવી ઉપકૃત બન્યો. અને ૨ ૨૦૨૦ની સાલનો એક સુવર્ણમય અવસર પ. પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજીના સાનિધ્યમાં થયો તે હતો. ગુજરાતના બનાસકાંઠામાં થરાદ પાસેના વાસણા ગામમાં ગુરુમંદિરની સ્થાપના પ્રતિષ્ઠા અંજનશલાકા કરાવી વાસણા ગામ થરાદથી ડીસા જતાં આવતા લાખણી ગામેથી જવાય છે જ્યાં જૈનો ના થોડાં જ ઘર હોવા છતાં પ. પૂ. સ્વ. મુનિરાજ શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી પ્રત્યે અપાર શ્રધ્ધા ધરાવનારા છે અને પ. પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયના સદુપદેશથી ત્યાં એક ભવ્ય ગુરુ મંદિર બનાવવામાં આવ્યું અને તે ગુરુ મંદિરમાં પ. પૂ. સ્વ. આચાર્ય ભગવંત શ્રીમદ્વિજય રાજેન્દ્રસુરીશ્વરજી મહારાજશ્રીની તેમજ ૫. પૂ. સ્વ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્વિજય થતી.વસુરીશ્વરજી મહારાજની ભવ્ય પ્રતિમાઓની ભવ્ય અંજનશલાકા કરાવી અતિ ધામધૂમપૂર્વક મહોત્સવ કરી પ્રતિષ્ઠિત કરવામાં આવી અને એ રીતે પૂ. મુનિરાજશ્રી એ ગુરુમંદિરો अविरति अरु मिथ्यात्व है, कषाय योग प्रमाद । जयन्तसेन तजे बिना, जीवन हो बरबाद ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બનાવરાવવાની શુભ શરૂઆત વાસણાથી કરી. ઉંદરાણા ગામ થરાદથી ધાનેરા જતાં વચ્ચે આવે છે જ્યાં સં. ૨૦૧૭નું બીજા સુવર્ણ પૃષ્ઠ તે ગુજરાતના ધાનેરા | જૈનોનાં ઘર ઓછાં પણ ભાવિક છે. આ ગામમાં સં. ૨૦૧૮માં શ્રી. પાસેના નેનાવા નગરમાં એક ભવ્ય જિનાલયનું નિર્માણ કરવાની રાજેન્દ્ર સૂરિ શાન મદિર (ઉપાશ્રય) બનાવરાવી ધાર્મિક ક્રિયા માટેનું શરૂઆત કરાવી, તેનો પાયાવિધિ સમારોહ સાથે કરાવી અને આ એક સુંદર સ્થાન ઉંદરાણા શ્રી સંઘે આપણા પ. પૂ. મુનિરાજશ્રી. રીતે શ્રી જિનમંદિર બનાવવાનો આ પ્રસંગ ૫. મનિરાજશ્રીના હાથે જયંત વિજયજી મહારાજ સાહેબના સદુપદેશે તૈયાર કર્યું જેની. બીજો પ્રસંગ હતો. નેનાવા નગરમાં જૈનોનાં ઘર ઓછાં છે છતાં ' ઉદ્ધાટન વિધિ આદિ ધામધૂમપૂર્વક થઈ. બધા જ જૈનો અતિ ધનાઢ્ય અને દેવ ગુરુ પ્રત્યે અપાર શ્રધ્ધાવંત અને વળી આવ્યું પાછું થિરપુરનગર - થરાદ જ્યાં આપણા છે અને તેમાં પણ આપણા પ. પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંત વિજયજી પૂ. મુનિરાજશ્રીનો બાલ્યકાળ વ્યતીત થયો છે અને એમણે પ્રાથમિક તરફ નેનાવાનો શ્રાવકગણ અપૂર્વ ભાવ ધરાવે છે અને એટલેજ પૂ. અને ધાર્મિક શિક્ષણ મેળવ્યું છે' એવા થરાદને પૂ. મુનિરાજશ્રી. મુનિરાજશ્રી પણ નેનાવા નગર પ્રત્યે ઘણા આકર્ષિત છે કે જેમના અંતરમાં કાયમ રાખી જ મૂકે છે. થોડા થોડા સમયે થરાદને દ્વારા નેનાવા નગર એક જૈન નગરી બની ગયું છે નેનાવા ગામ આગણે પ.પૂ. સ્વ. ગુરુ ભગવંત શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી ધાનેરાથી નજીક છે પરંતુ નેનાવા પછી રાજસ્થાન શરૂ થતું હોવાથી એ પ્રગટાવેલ ધર્મજ્યોતને વધુ ને વધુ પ્રજ્વલિત કરવા માટે નેનાવાની. સંસ્કૃતિ, રાજસ્થાની છે અને ત્યાંની ભાષા પણ ગુજરાતી આપણા પૂ. મુનિરાજશ્રી પધારે છે અને થરાદ જૈન સંઘ પણ એ કરતાં રાજસ્થાનીને વધુ મળતી આવે છે. માટે એમનો સદાય ઋણી છે અને રહેશે. (થરાદ નગર અને તેના સવંત ૨૦૨૮માં તાલનપુર નગરમાં પ. પૂ. ઉપાધ્યાય શ્રી સંઘની વિગત આગળ ઉપર અન્ય પ્રસંગને અનુલક્ષીને આવશે) મોહન વિજયજી મહારાજ કે જેઓ પ. પૂ. સ્વ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્ અને એટલે જ એ ૨૦૧૮નું ચાતુર્માસ પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંત વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી ના વિદ્વાન શિષ્ય અને પ. પૂ. | વિજયજી એ થરાદમાં કરી જૈન ધર્મ નો ડંકો વગડાવ્યો અને ત્યાંથી આચાર્યશ્રીમદ્વિજય ધનચંદ્ર સૂરીશ્વરજી ના ઉપાધ્યાય હતા તેમની પાછા પૂ. મુનિરાજશ્રીએ નેનાવા નગર તરફ વિહાર કર્યો. જ્યાં પ્રતિમાની પ્રતિષ્ઠા એક સુંદર ગુરુ મંદિર બનાવરાવી કરાવી. તેમના સદુપદેશે તૈયાર થયેલું શ્રી જિન મંદિર પ્રતિષ્ઠા મહોત્સવની. પ્રતિક્ષા કરી રહયું હતું. અને સંવત ૨૦૨૯માં નેનાવા નગર અને હવે આવ્યું થરાદડીસા રોડ ઉપરનું લાખણી. ગામ નાનું ધમધમી ઉઠ્યું. નેનાવાના ધંધાર્થે બહાર વસતા બધાજ જૈન ભાઈઓ વસતિ ઓછી અને તેમાં પણ જૈનોનાં ઘર પાંચ સાત પરંતુ પ. પૂ. | નેનાવામાં આવી ગયા અને અન્ય સ્થળોએથી પણ સંખ્યાબંધ મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજીની જન્મભૂમિ પેપરાલ અને ઉછેરભૂમિ ભાવિકજનો નેનાવાના અનેરા પ્રતિષ્ઠા મહોત્સવને માણવા ઉમટી. થરાદની વચ્ચે આવેલ લાખણીના જૈનોને દહેરાસરની તાતી જરૂર પડ્યા. સુંદર વ્યવસ્થા સાથે અતિ ધામધૂમપૂર્વક પ્રતિષ્ઠા મહોત્સવ જણાતી હતી. અને એટલે જ આપણા મુનિરાજશ્રીના ઉપદેશથી સં. સંપન્ન કરી. પ. પૂ. મુનિરાજશ્રીને થરાદના જૈનો પાછા થરાદમાં ૨૦૨૮ માં ત્યાં એક સુંદર ઘર દહેરાસર બનાવરાવી પ્રથમ તીર્થંકર લાવ્યા. જ્યાં શ્રી રાજેન્દ્ર નગર સોસાયટી (જે એક નવી જૈન નગરી. શ્રી રૂષભદેવ ભગવાનની પ્રતિમાજી બિરાજમાન કર્યા અને લાખણીના જેવી છે) કે જે થરાદ ને અડીને પશ્ચિમે ઊભી કરવામાં આવી છે. થોડા પણ જૈન કુટુંબોની જૈન દહેરાસરની જરૂરિયાત સંતોષાણી. ત્યાં એક ભવ્ય શિખરબંધી જિનાલય અને એક ભવ્ય ગુરુમંદિરનું સવંત ૨૦૨૦ની સાલ પણ મુનિરાજ શ્રી જયંતવિજયજી નિમણિ પૂ. મુનિરાજશ્રીના સદુપદેશે થયું હતું. અને વરખડી નામે મહરાજશ્રી માટે અનેક પ્રકારનાં ધાર્મિક અનુષ્ઠાનોમાં અતિ પ્રવૃતિમય ઓળખાતી પૂણ્યભૂમિ જ્યાં પ.પૂ. તપસ્વી મુનિરાજશ્રી હર્ષવિજયજી બની જેની ટુંક વિગત નીચે મુજબ છે આદિ મુનિવરોને કાળધર્મ પછી અગ્નિસંસ્કાર આપવામાં આવ્યો થરાદની નજીક આવેલ ગામ દુધવા જે ગામ ઉપર ૫. પૂ. સ્વ હતો. તેમ જ હજારો વરસ પૂર્વ ત્યાં વરખડીના એક ઝાડ નીચ શ્રી. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય ધનચંદ્રસૂરીશ્વરજીના અપાર આશીવદિ ઉતય પાર્શ્વનાથ પ્રભુના પગલાં હતાં, એક નાની દેરી હતી. તેનો જીર્ણોદ્ધાર હતા અને જે કારણે દુધવા ગામ ઘણું સુખી થયું. કહેવાય છે કે કરાવી બાજુમાં જ પ.પૂ. તપસ્વી મુનિરાજશ્રી હર્ષવિજયજીનાં પગલાં બનાસકાંઠા. આખામાં દુષ્કળ હોય તો પણ દુધવામાં દુષ્કાળ પડતો પ્રતિષ્ઠિત કરી એક બાજી દરી બનાવરાવા. તમજ માતા દહેરાસરમાં. નથી એવા દુધવા ગામે એક ગૃહ મંદિરબનાવરાવી ત્યાં શ્રી ધ્વજાદંડ પ્રતિષ્ઠા મહોત્સવ કરાવ્યો અને ત્યાંથી વિહાર કરી મહાવીર પ્રભુની ભવ્ય પ્રતિમા સુંદર સમારોહ અને મહોત્સવ પૂર્વક રાજસ્થાન સ્થિત સાયલા નગરમાં નૂતન જિનમંદિરની પ્રતિષ્ઠા બીરાજમાન કરાવી. અંજનશલાકા કરાવી સાયલાને પાવન કર્યું. ત્યાંથી વિનોતા ગામમાં - પ. પૂ. સ્વ. આચાર્યદેવ સાહિત્ય વિશારદ શ્રીમદ્ વિજય એક ભવ્ય ગુરુમંદિર બનાવરાવી પ.પૂ. સ્વ. ગુરુદેવ શ્રીમવિજય ભૂપેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજની જ્યાં વડી દીક્ષા પ. પૂ. આચાર્ય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીની ભવ્ય પ્રતિમાની પ્રતિષ્ઠા અતિ ધામધૂમપૂર્વક ભગવંત શ્રીમદ્વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીના હસ્તે થઈ હતી તે કરાવી રાજસ્થાનના નવાગામ (કેશરપુરા)માં પણ એક ભવ્ય ગુરુમંદિર અલીરાજપુરમાં એક ભવ્ય ગુરુમંદિર બનાવરાવી તેમાં સ્વ. ગુરુ બનાવરાવી પ.પૂ. સ્વ. ગુરુદેવશ્રીની ભવ્ય પ્રતિમા અનન્ય સમારોહ ભગવંત શ્રીમદ્વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીની ભવ્ય પ્રતિમાજી બિરાજમાન પૂર્વક પ્રતિષ્ઠિત કરાવી, અને એ રીતે એક પછી એક ગુરુમંદિરોનો કરાવી એક ગુરુમંદિરનો વધારો કર્યો. ઉમેરો કરવા માંડ્યો. ગુરુદેવના ઋણની ચુકવણી આ રીતે આપણા ધીર જોશીનગરિ બિના છે.કાજરાતી વિભાગ ૧૦ कपट मित्रता संग में, रहे नहीं संसार । जयन्तसेन कपट रहित, सन्मति सार्थक सार । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂ. મુનિરાજશ્રી કરવા માંડ્યા. અને પ.પૂ. સ્વ ગુરુદેવ શ્રીમદ્વિજયરાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીના આદેશનો ભવ્ય પ્રચાર-પ્રસાર તેમણે કરવા માંડ્યો. ફિટ અને આવી સંવત ૨૦૩૦ની સાલ, આ વરસનું ચાતુર્માંસ રાજસ્થાનનાં જોધપુર શહેરમાં થયું. જોધપુર શહેર રાજસ્થાનનું એક સમૃદ્ધ અને ઐતિહાસિક શહેર છે. ત્યાં ધર્મની ધજા ફરકાવવા ચાતુર્થાંસ કરતાં પહેલાં અન્ય ધાર્મિક કાર્યો કરતાં કરતાં ૫.પૂ. મુનિરાજશ્રીએ જોધપુર આવવું પડ્યું જે કાર્યો નીચે મુજબ છે. Gu હરિ પાલીતાના શાશ્વતા શ્રી સિદ્ધાચલ તીર્થની પવિત્ર ભૂમિ જૈ શ્રી આદિશ્વર ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામી - શ્રી વારાપૂજ્ય સ્વામી અને શ્રી નૈમનાથ ભગવાન સિવાયના ૨૦ તીર્થંકરીની નિવૃષ્ટિ ભૂમિ છે. ત્યાં પાલીતાણાના સુંદર પર્વત ઉપર એક અતિ ભવ્ય અને અસંખ્ય જિનાલયોનો સંકુલ છે. જ્યાં કાર્તિકી પૂર્ણિમા, અજાય તૃતીયા, અષાઢ સુદ ૧૪ અસંખ્ય જૈનો યાત્રા અર્થે આવે છે. અને આ સમયે પાલીતાણામાં રહેલ સેંકડો ધર્મશાળાઓ ખીચોખીચ ભરાઈ જાય છે. જ્યાં શ્રીમદ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી દાદાવાડી - જેવી વિશાળ ધર્મશાળાઓ છે છતાં પ્રસંગોએ યાત્રાળુઓને રહેવાની ઉતરવાની પડતી અગવડ નિવારવા શ્રી પત્તીન્દ્ર જૈન ભવનનું નિર્માણ પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી મહારાજના સદુપદેશે કરવામાં આવ્યું. તેનું ભવ્ય ઉદ્દઘાટન સં. ૨૦૭૦માં એક ભવ્ય સમારોહપૂર્વક કરવામાં આવ્યું. સં. ૨૦૨૭ - ૨૮ - ૨૯ ના ત્રણે ચાતુર્માસ પ.પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય વિદ્યાચંદ્રસૂરીશ્વરજીની સાથે કર્યા અને ત્રણે ચાતુર્માસમાં અને તે પછી મેઘનગર (૨) માં ગુરુમંદિરનું નિર્માણ કરાવ્યું. વિદ્વાન વયોવૃદ્ધ આચાર્યદેવશ્રીને ધર્મ પ્રચાર પ્રસાર માટે સહયોગ આપ્યો. જોધપુર શહેરમાં શ્રી રાજેન્દ્રપૂર જ્ઞાન મંદિર (ધર્મશાળા)નું નિર્માણ કરાવી ધર્મીક્રયાઓ માટે એક સુંદર સ્થળની પૂર્તિ કરી. અને આ વરસના પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજીના ચાતુર્માસ માટેની એક અનોખી સગવડ પણ જોધપુર શહેરના જૈનોએ અગાઉથી કરી જેથી આ વરસનું ચાતુર્માસ પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી જોધપુર કરે એવી ગણત્રી મનમાં રાખી. Buy Ber મધ્યપ્રદેશના ખાચરોદ શહેર કે જ્યાં પ.પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદ વિજય નચંદ્રસૂરીશ્વરજીને વડી દીક્ષા આપવામાં આવી હતી. તેમજ ઉપાધ્યાય પદવી પણ અહીં જ આપવામાં આવી હતી. તેમ પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી મહારાજના ગુરુદેવ અને આપણા પરમ ઉપકારી પૂ. ગુરુદેવશ્રીમદ્દવિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબ રામરનમાંથી મુનિરાજ શ્રી તિવિજય બન્યા હતા. ૫.પૂ. સ્વ. ગુરુભગવંત શ્રીમદ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીના વરદ હસ્તે દીક્ષા લઈ તેમના શિષ્ય બન્યા હતા. તે ખાચરોદ ગામને આપણા પૂ. મુનિરાજશ્રી. કેમ ભૂલી શકે ? આવા ખાચરોદ શહેરમાં ભટેવરા સમાજ દ્વારા સંચાલિત શ્રી આદિશ્વર જિનમંદિરમાં ધ્વજા દંડ આરોપણ કરાવી. પ.પૂ. સ્વ. ગુરુદેવશ્રીની ભવ્ય પ્રતિમાની પ્રતિષ્ઠા કરાવી ખાચરીને ઉજમાળ કર્યું. શ્રીમદ્ જયન્તીમરિનન્દન થિજરાત વિભાગે 1801001 xxxii9T1KT બાલોદા-ધબ્બામાં ભવ્ય પ્રતિષ્ઠા જનશલાકા કરાવી આ શહેરને પાવન કર્યું. મધ્યપ્રદેશના ઝાબુઆ શહેરમાં ગુરુદેવશ્રીની મૂર્તિની પ્રતિષ્ઠા ૧૧ કરાવી. પ.પૂ. સ્વ. ગુરુદેવશ્રી પતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજના સદુપદેશે જે તીર્થ ભાંડવાજીનો ભવ્ય કાયાકલ્પ (જીર્ણોદ્વાર) થયો તે તીર્થમાં શ્રી પાવાપુરી જલમંદિર (આબેહૂબ અસલ પાવાપુરી જલમંદિર જેવું) ઊભું કરાવી તેની ભવ્ય પ્રતિષ્ઠા કરાવી. ગો અને વળી પાછા પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજપજી મધ્ય પ્રદેશથી પોતાની જન્મ ભોમકા ગુજરાત તરફ વળ્યા. અને થરાદની પાસે આવેલ પીલુડા ગામ કે જ્યાં આપણા પૂ. મુનિરાજશ્રીનાં કુટુંબીજનો (ધરૂ કુટુંબ) મુખ્યત્વે રહે છે. ત્યાં શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ જ્ઞાન મંદિર (ઉપાય)નું નિર્માણ કરાવી તેનું ઉદ્ઘાટન અતિ ધામધૂમપૂર્વક કર્યું. અને પીલુડામાં ધાર્મિક ક્રિયા કરવા માટેના સ્થાનની પૂર્તિ થઈ. અને એ જ અરસામાં નારોલી ગામમાં એક પ્રાચીન જિનમંદિર નો 997દ્વાર કાળો અને સ. ૨૦૩૦નું ભવ્ય ચાનુમિસ જોધપુર શહેરમાં કરી. જોધપુરનાં જૈનોની ઈચ્છા પુરી કરી, ધર્મની જ્યોત પ્રગટાવી. જે નૈનાવા ગામમાં શ્રી સંઘમાં વરસોથી ચાલ્યો આવતો મતભેદ મટાડી નૈનાવાના પ્રત્યેક જૈનને પ્રેમની સાંકળથી બાંધી નાખનાર આપણા પ.પૂ. મુનિરાજ જયંતવિજયને સ. ૨૦૩૧નું ચાતુર્માંસ કરવા નૈનાવા નિવાસીઓ લઈ આવ્યા. પ્રેમનું બંધન તે આનું નામ. અને આ ચાસમાં સર્વ સૈનાવા નિવાસીઓએ પૂ મુનિરાજશ્રી પાસેથી પૂર્વ ધર્મદેશના સાંભળી અવનવી તપસ્યાઓ અને ધાર્મિક અનુષ્ઠાનો કરી ૨૦૩૧ ના વરસને ઉજ્જવલ બનાવ્યું. સં. ૨૦૩૨ નું ચાતુર્માસ પૂ. મુનિરાજશ્રીએ રીંગણોદમાં કર્યું અને ત્યાં ધર્મની જ્યોત સદાય ઝળહળતી રહે એવો પ્રભાવિક ઉપદેશ આપ્યો. અને સં. ૨૦૩૩ ના પોષ સુદ ૬ ના પવિત્ર દિવસે બાગરા નિવાસી શ્રી પુખરાજ્યને અતિ ધામધૂમપૂર્વક બાગા નગરમાં દીક્ષિત કરી મુનિરાજશ્રી જયકીર્તિવિજયજી નામે ઘોષિત કરી પોતાના શિષ્ય બનાવ્યા. સં. ૨૦૩૩ માં બીજા બે મહાન કાર્ય કરાવ્યાં અને તેમાં એક આહીર નિવાસી સંઘવી કુન્દનમલ ભૂતાજી (શાશ્વત ધર્મના માનદ્દ સંપાદક શ્રી જે. કે. સંઘવી જાગરાજ ના પિતાશ્રી) ને સદુપદેશ આપી તેમના દ્વારા આહોર નગરથી શ્રી પાલીતાણા-સિદ્ધાચલ તીર્થ નૌ છરી પાળતી સંઘ કઢાવ્યો. ઐતિહાસિક મહોર નગરનો આપણા ઉપર અગણિત ઉપકારો છે. જેમ કે ૫.પૂ. આચાર્યદેવ પરમ યોગીરાજ પ્રભુ શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજને આચાર્ય પદવી આહોરમાં અર્પિત થઈ હતી. પ.પૂ. શાસ્ત્ર વિશારદ્દ આચાર્યદેવશ્રીમદ્દ વિજય ભૂપેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજની વડી દીક્ષાનું काम क्रोध मद लोभ की, दिल में लगी दुकान । जयन्तसेन हुआ सदा, नष्ट भ्रष्ट ईमान ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શુભ-સ્થળ અહોર હતું. પ.પૂ. વ્યાખ્યાને વાચસ્પતિ આચાર્ય દેવ શ્રવણ કરવાનો અપ્રતિમ લાભ લેવાં નક્કી કર્યું. પરંતુ આપણાં. શ્રીમદ્ વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજને વડી. દિક્ષા આહારમાં પ.પૂ. મુનિરાજશ્રીને થરાદના વારૈયા કુટુંબના શ્રી વાઘજીભાઈ આપવામાં આવી તેમજ તેઓશ્રીને આચાર્ય પદવી અર્પણવિધિનો અનોપચંદની આગ્રહપૂર્વક વિનંતી હતી કે તેમને થરાદથી શંખેશ્વર લાભ પણ આહોર નગર નિવાસી.ઓએ જ લીધો હતો અને આ તીર્થનો છ'રી પાળતો સંઘ કાઢવાની. ઘણા. સમયની ભાવનાને હવે રીતે અનેક મહાન પ્રસંગો અને પૂર્વાચાર્યોનાં અનેક ચાતુમસો તો પૂર્ણ કરવી. અને એટલે જ પૂ. મુનિરાજ શ્રી થરાદ પધાર્યા અને આહોરમાં થયાં હતાં તેવા આહોર નગર શ્રેષ્ઠીવર્ય શ્રી કુન્દનમલ થરાદથી ઘણાં વરસો બાદ ફરી છ'રી પાળતો સંઘ કાઢવાની ભૂતાજી (જેઓ દોઢસો વરસથી થાણા-મુંબઈ) માં વ્યવસાય અર્થે તડામાર તૈયારીઓ આરંભાઈ ગઈ અને સાજનમા જન સહ શુભ વસે છે તેમના દ્વારા નીકળેલ આહોર - સિદ્ધાચલ ના છ'રી પાળતા મુહર્તે શ્રી ચતુર્વિધ સંઘ થરાદથી શ્રી શંખેશ્વર તીર્થમાં મહા. સંઘમાં ઘણા યાત્રીઓ હતા અને ઠાઠમાઠ પૂર્વક પૂ. ગુરુદેવ - પ્રભાવિક શ્રી પાર્શ્વનાથ પ્રભુના દર્શન કરવા ઉમટ્યા. શ્રી વાઘજીભાઈ મુનિમંડળ સાધ્વીજી સમુદાય અને શ્રાવક શ્રાવિકાઓ સહિત ચતુર્વિધ વારૈયા થરાદની બાજુના જ ગામ વડગામડામાં થઈ ગયેલ શ્રી નથુ સંઘે આનંદ મંગલ પૂર્વક શ્રી શંત્રુજય તીર્થનાયક શ્રી આદિશ્વર વારીયાના વંશ છે. શ્રી નથુ વારીયાએ એક કસાઈને તેનો ધંધો ભગવાનનાં દર્શન પૂજન કરી જીવન સાર્થક કર્યું. આહાર-સિદ્ધાચલ છોડાવવા અનશન લઈ તે સમયે જીવન સાર્થક કર્યું હતું તેનો પણ તીર્થના છ'રી પાળતા સંઘનું સંપૂર્ણ શ્રેય શ્રી કુન્દનમલ ભૂતાજીના મોટો ઈતિહાસ છે, તે શ્રી નથુ વારીયાના વંશ શ્રી વાઘજીભાઈએ સુપુત્રો શ્રી જાગરાજજી તથા કાન્તિલાલજી તેમજ પૌત્ર મહેન્દ્રકુમાર પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી મહારાજાદિ મુનિમંડળ અને સાધ્વીજી ને ફાળે જાય છે. જેમણે પોતાના પિતા દાદાના પગલે પગલે છે'રી સમુદાય સહ થરાદથી શ્રી શંખેશ્વર મહાતીર્થનો સંઘ કાઢી જીવન પાળતો. સંઘ કાઢી પુણ્યોપાર્જન કર્યું. અને આ પ્રસંગે પ.પૂ. ધન્ય બનાવ્યું. મુનિરાજશ્રીએ શ્રી શાંતિનાથ પંચકલ્યાણક પૂજાની રચના કરી જે અને ફરી પાછા રતલામ. સં. ૨૦૩૪નું ચાતુમસિ. શ્રી. પાછળથી પુસ્તક રૂપે પ્રકાશિત કરવામાં આવી. રતલામ જૈન સંઘની વિનંતીને માન આપી પૂ. મુનિરાજશ્રીએ ત્યારબાદ મધ્યપ્રદેશનાં મેઘનગરના શ્રેષ્ઠી. શ્રી મહેન્દ્રસિંહજી રતલામ કરી અનેરી ધમદશના આપી રતલામને અનેક પ્રકારના વરધીચંદજીને ઉપદેશ આપી. મેઘનગરથી. ગુરુનિવણિ, ભૂમિ મોહનખેડા ધર્મના રંગે રંગ્યું. તીર્થ નો છ'રી પાળતો સંઘ કઢાવ્યો અને મોહનખેડા તીર્થની યાત્રા સં. ૨૦૩૫માં રતલામથી થરાદ પધાર્યા અને થરાદમાં કોશિલાવ કરી. સંઘપતિ ને સંઘમાળ પહેરાવી (સં. ૨૦૩૩). નિવાસી શ્રી ધનરાજજીને અતિ ધામધૂમપૂર્વક દીક્ષિત કરીને પોતાના જે ગામ પ.પૂ. મુનિરાજશ્રીના કારણે પ્રખ્યાત થયું તે નેનાવા શિષ્ય તરીકે મુનિરાજશ્રી. વિરેન્દ્ર વિજયજી નામે ઘોષિત કર્યા અને ગામ પાસેના જ ધાનેરામાં પણ શ્રી સંઘને ઈચ્છા થઈ કે પૂ. ત્યાંથી પૂમુનિરાજશ્રી ઘાનેરા પધાર્યા. જ્યાં ધાનેરા નિવાસી કું. મુનિરાજશ્રીનું ચાર્તુમાસ કરાવવું અને તેમની આ ઈચ્છા સં. ૨૦૩૩ ચંદ્રાબેનને મહાન મહોત્સવપૂર્વક દીક્ષા આપી. સાધ્વીજી સ્વયંપ્રભાશ્રીના માં પરિપૂર્ણ થઈ. સં. ૨૦૩૩નું ચાર્તુમાસ ધાનેરા કરી ધાનેરા શિષ્યા તરીકે સાધ્વીજી શ્રી હિતપ્રજ્ઞાશ્રીજી નામે જાહેર કર્યા. નિવાસીઓને ધર્મના રંગે રંગી ધન્ય બનાવ્યા. | અને હવે ગુજરાતનું પાટનગર અમદાવાદ. સં. ૨૦૩પનું મ.પ્ર. નું મોટું શહેર રતલામ જ્યાં જૈનોની વિશાળ વસતી ચાર્તુમાસ પ.પૂ. મુનિરાજ શ્રી જયંતવિજયજીનું અમદાવાદ થયું અને અને મ.પ્ર. એટલે જૈન સંસ્કૃતિથી ચારે તરફ રંગાયેલો પ્રદેશ અમદાવાદના થરાદ અને થરાદના આજુબાજુના ગામડાના (રાજ્ય) પ.પૂ. મુનિરાજશ્રીએ સં. ૨૦૩૪ ના ધાનેરાથી મ.પ્ર. તરફ નિવાસીઓના હૈયા હિલોળે ચઢ્યા. ચાતુમસ પ્રવેશથી ચાતુમસિની. પદપિણ કર્યા. અને ગુજરાત છોડી મધ્ય પ્રદેશમાં પ્રવેશતાં જ પૂર્ણાહુતિ સુધી એક એક થરાદવાસી ધર્મના રંગે એવા તો. રંગાઈ રાણાપુરમાં રાણાપુર નિવાસી શ્રી રોહિત કુમારને અતિ ધામધૂમ ગયા કે રંગ ઉતરવાની વાત જ ક્યાં રહી? રંગ જરાય ઝાંખો પડે પૂર્વક દીક્ષા આપી પોતાના શિષ્ય તરીકે મુનિરાજશ્રી ધર્મરત્ન એમ નથી. વિજયજી નામે જાહેર કર્યો. અને એ રીતે પોતાના શિષ્ય સમુદાયમાં અમદાવાદનું ચાતુર્માસ પૂર્ણ થતાં પ.પૂ. વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ્ એક શિષ્યનો ઉમેરો કરી શિષ્યની સંખ્યા ત્રણ કરી. રાણાપુરથી પૂ. વિજય વિદ્યાચંદ્રસૂરીશ્વરજીની ઈચ્છા હતી કે દક્ષિણમાં જૈન ધર્મના મુનિરાજશ્રી રતલામ પધાર્યા ત્યાંના શ્રેષ્ઠીવર્યશ્રી દાડમચંદ કાલુરામજીને પ્રચાર અને પ્રસાર અર્થે કોઈકે જવું જોઈએ અને તેમની એ ઈચ્છા ઉપદેશ આપી તેમના દ્વારા રતલામથી શ્રી, નાગેશ્વર તીર્થનો છ’રી પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજીને જણાવી અને પૂ. મુનિરાજશ્રીએ તે પાળતો સંઘ કઢાવ્યો. જે સંઘ ગામ નગર શ્રી જીનેશ્વર ભગવંતોના. સહર્ષ સ્વીકારી દક્ષિણ તરફ વિહાર આરંભ્યો. નડિયાદ - આણંદ - દર્શન પૂજન કરતો કરતો. નાગેશ્વર આવ્યો અને શ્રી નાગેશ્વર સુરત - નવસારી વિ. સ્થળોએ ગુજરાતમાં ધર્મ દેશના આપતાં પૂ. તીવધિપતિનાં દર્શન પૂજન કરી પાવન થયો. મુનિરાજશ્રી મહારાષ્ટ્રના, પરંતુ હિન્દુસ્તાનના હૃદય સમા મુંબઈ પરંતુ રતલામ શ્રી સંઘે પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી ને આટલાથી ન શહેરમાં પધાયાં. પચરંગી મુંબઈ શહેર, હિન્દુસ્તાનના દરેક પ્રદેશની. છોડ્યા. તેમણે તો સં. ૨૦૩૪નું ચાતુમસિ પણ રતલામમાં જ પ્રજા અહીં વ્યવસાય અર્થે રહે અને તેમાં પણ ગુજરાત રાજસ્થાન કરાવવાનું અને અનેક પ્રકારે પૂ. મુનિરાજશ્રીના પવિત્ર મુખે ધમદશના મધ્ય પ્રદેશના જૈનાના હાથમાં મુંબઈ શહેરનો વ્યાપાર મુખ્યત્વે છે. કાર મિનારાયણ ૧ ર द्वार प्रगति का है खुला, कर लो दूर कषाय । जयन्तसेन विपुल विभव, जीवन भर सुख पाय ।। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ એવા. મુંબઈમાં પરમ પૂજ્ય પ્રભુ શ્રીમદ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વર મહારાજની નામના ચોમેર પ્રસરેલી તો હતી જ. રાજસ્થાન, મ.પ્ર. કે ગુજરાત થરાદના કોઈ પણ જૈનની દુકાને કે ઓફિસે જાવ ત્યાં પ્રભુ શ્રીમદ્દ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીનો ફોટો તો હોય જ અને દરેક જૈન પહેલાં આ ફોટામાં પૂ. ગુરુદેવને પ્રત્યક્ષ સમજી દર્શન કરી પછી જ ધંધાની શરૂઆત કરે. આજ પર્યંતના આપણા પૂર્વિચાર્યો સુરત સુધી જ આવેલા અને થોડાંક વરસો પહેલાં પ.પૂ શ્રી મદ્વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજીના શિષ્ય મુનિરાજશ્રી ન્યાયવિજય પહેલા જ મુંબઈ આવ્યા હતા. અને પાયધુની શ્રી આદિશ્વરની ધર્મશાળામાં ચાનુમિસ કર્યું હતું. તે પછી ઘણાં વરસો બાદ આપણા વિદ્વાન મુનિરાજ શ્રી જયંતવિજયજીનાં પદાર્પણ મુંબઈ થતાં મુંબઈમાં વસતા ત્રિસ્તુતિક શ્રી સંઘના અનુયાયીઓમાં અનેરો ઉત્સાહ વ્યાપ્યો અને પૂ. મુનિરાજશ્રીએ સં. ૨૦૩૬ નું ચાતુર્માસ મુંબઈ કર્યુ. જ્યાં ધાર્મિક શિબિરો, જાહેર ધાર્મિક વ્યાખ્યાનો દ્વારા મુંબઈના સમસ્ત જૈન સમાજનાં દિલમાં સ્થાન મેળવ્યું હતું અને ચાનુસિ પૂર્વ સં. ૨૦૩૬ ના મહાસુદ ૧૫ ના દિવસે ધાનેરા નિવાસી શ્રી કનૈયાલાલન નામના ગૃહસ્થને વૈરાગ્ય પંથે વાળી ધામધૂમપૂર્વક દીક્ષા આપી પોતાના શિષ્ય તરીકે મુનિરાજશ્રી હેમરત્નવિજયજી નામે પોષિત કર્યા. અને મુંબઈ અને મુંબઈ ના ઉપનગરો ભીવન્ડી, કલ્યાણ, થાણા, ભાયંદર, મલાડ, અંધેરી, બોરીવલી, વિ. સ્થળોએ વિચરના અને ઉપદેશ આપી ભાવિકજનોને ધર્મના રંગે રંગના પૂ. મુનિરાજશ્રી મહારાષ્ટ્રમાં વિહરવા લાગ્યા અને તે દરમ્યાન સં. ૨૦૩૭ માં પંચગીની વસતા આકોલી નિવાસી શ્રેષ્ઠી શ્રી હજારીમલજી રૂપાજીને ઉપદેશ આપી પંચગીનીથી શ્રી કુોજગીરી તીર્થનો છરી પાળતો સંઘ કઢાવ્યો. અને સંઘપતિને ધન્ય બનાવ્યા. અને પૂ. મુનિરાજશ્રીએ મહારાષ્ટ્રમાંથી મદ્રાસ તરફ ઉંચ વિાર આવ્યો અને સ. ૨૦૩૭નું ચાતુર્માસ મદ્રાસમાં કર્યુ. મદ્રાસમાં ખાસ કરીને આપણા સંપ્રદાયના રાજસ્થાન નિવાસી જૈનોનાં ઘણાં ઘર છે અને બીજા અન્ય પણ જૈનોની સારી એવી વસતી છે. દરેક જૈનોએ પૂ. મૂનિરાજશ્રીના ચાતુર્માસમાં ઉલ્લાસભેર ભાગ લઈ મુનિરાજશ્રીની અમૃતવાણી રૂપી પવિત્ર પાણી પી ધર્મની પ્યાસ બુઝાવી. તે દરમ્યાન મુંબઈ પદાર્પણ કરતાં પહેલાં પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી મહારાજના દિને હચમચાવી મૂકે તેવો આંચકો આપતા સમાચાર મળ્યા કે શ્રી મોહનબૈડા તીર્થમાં બિરાજમાન પ.પૂ. વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ વિજય વિદ્યાચંદ્રસૂરીશ્વરજીનો કાળધર્મ થયો અને શ્રી સંઘના શિરેથી શિરછત્ર છિનવાઈ ગયું છે જેમના આદેશથી દક્ષિણ તરફ વિહાર કર્યો અને દક્ષિણમાં પહોંચતા પહેલાં તો તેમણે દેહત્યાગ કરી પોતાને દૂર રાખ્યા એવી શ્રી ગૌતમસ્વામી જેવી લાગણી આપણા મુનિરાજશ્રીનાં મનમાં થઈ. પૂ. વર્તમાનાચાર્યશ્રીની છેલ્લી અવસ્થાની સેવા કરવાનો પોતાને લાભ ન મળ્યો તેનો એમને મન હતો અફસોસ. પરંતુ થયેલ વસ્તુ મિથ્યા થતી નથી. જન્મ જરા અને મૃત્યુ તો નિર્માણ થયેલાં જ હોય છે. એટલે આ બીજા આંચકાને પચાવ્યા સિવાય બીજો કોઈ રસ્તો જ નહોતો. પરંતુ વાત આટલેથી પતી ન્હોતી જતી. ત્રિસ્તુતિક શ્રી સંઘને માથેનું શિર છત્ર છીનવાઈ જતાં અન્ય વૃતથી સંકળ વચાર કય પાલિત ય વિભાગ GITA ૧૩ મુનિરાજશ્રીને આચાર્યપદે સ્થાપિત કરવાનું જરૂરી હતું અને તે માટે આપણા પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજીની ભાવના તેમના મોટા ગુરુભાઈ વિદ્વાન મુનિરાજશ્રી દેવેન્દ્રવિજયજી તરફ હતી. પરંતુ પૂ. મુનિરાજશ્રી દેવેન્દ્રવિજયજી રાજસ્થાન હતા. અને પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંત વિજયા બઈ નજીક હતા. જે કાર્યો જે થવાનું હશે તે થશે.' એવી ભાવના સાથે પૂ. મુનિરાજશ્રી નો પ. પૂ. સ્વ. આચાર્યદેવશ્રીમવિજય વિધાદ્રસૂરીશ્વરના અંતિમ આદેશને માન આપી દક્ષિણમાં આગળ વધ્યા અને એ દક્ષિણના વિહાર દરમ્યાન જ એમને ત્રીજા આઘાત જનક સમાચાર મળ્યા કે તેમના વડીલ ગુરુબંધુ મુનિરાજશ્રી દેવેન્દ્રવિજય રાણી (રાજસ્થાન) પાસે વિહાર કરતાં કરતાં અચાનક આવેલા હાર્ટએટેકથી કાળધર્મ પામ્યા. કુદરતની ગતિ ન્યારી છે. જેમને શિરે આચાર્ય પદવી આરોપણ કરવાની ઈચ્છા-ભાવના હતી તે નવયુવાન ગુરુબંધનો વિયોગ પ.પૂ. મુનિરાજશ્રીથી સહન ન થયો તેઓશ્રી ઘણા અસ્વસ્થ થયા અને હવે તો પાછા વળી ગુજરાત રાજસ્થાન જવું જોઈએ એવી ઈચ્છા પણ થઈ પરંતુ સ્વ. આચાર્યદેવ શ્રીમદવજય વિદ્યાચંદ્રસૂરીજીની અંતિમ આજ્ઞાનું પરિપૂર્ણ પાલન કરવાની તીવ્ર ઈચ્છાને વશ દક્ષિણનો પ્રવાસ પૂરો કરવાની ઈચ્છાથી આગળ વધ્યા. તે દરમ્યાન આંધ્રના કુલપાકજી તીર્થમાં સમસ્ત ત્રિસ્તુતિક શ્રી સંઘ ભેગો થયો અને શ્રી સંઘ ઉ૫૨થી છિનવાઈ ગયેલ શિરછત્રને ધારણ કરવા માટે શ્રી સંઘે સર્વાનુમતે ઠરાવ કરી પ.પૂ. જયંતવિજયજી મહારાજને આચાર્ય પદવી માટેની કામળી ઓઢાડી અને શુભ મુહુર્વે યોગ્ય સ્થળે સ્વતિ આચાર્ય પદવી આપવાનું નક્કી થયું (જે પાછળ થી પ.પૂ. સંયમ સ્થવિર મુનિજથી શાંતિવિજય મહારાજની ઈચ્છા મુજબ શ્રી ભાંડવાજી તીર્થમાં આચાર્ય પદવી અર્પણ સમારોહ થયો તે આપણે આગળ જોઈશું.) સં. ૨૦૩૬ના મહાસુદ ૧૦ ના પવિત્ર દિવસે રોહી.ડા(રાજસ્થાન) નિવાસી શ્રી ભરતકુમારને પૂ. મુનિરાજશ્રીના ઉપદેશ દ્વારા અસાર સંસાર તરફ વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થતાં તેમને અતિ ધામધૂમપૂર્વક દીક્ષા આપી મુનિરાજશ્રી વિશ્વરત્ન વિજયજી નામે પોતાના શિષ્ય તરીકે જાહેર કર્યાં. અને તે પછી પૂ. મુનિરાજશ્રીએ કર્ણાટક તરફ વિહાર કર્યો. કર્ણાટક રાજ્યનું મુખ્ય શહેર બેંગલોર - ત્યાં પણ આપણા રાજસ્થાન નિવાસી અનુયાયીઓ મોટા પ્રમાણમાં વસે છે. ત્યાં સં. ૨૦૩૮નું ચાતુર્માંસ કરી પ્રભુશ્રી રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીના નામનો ડંકો વગડાવી ધર્મ ધજા લહેરાવી. દક્ષિણના રાજ્યોમાં મહારાષ્ટ્ર - મદ્રાસ અને કર્ણાટક પછી બાકી રહ્યું આંધ. ૫. મુનિરાજશ્રી જયંત વિજયા દક્ષિણમાં પધાર્યાં છે તેની જાણ થતાં જ વિજયવાડા ગુંટુર નેલોર વિ. સ્થળોએ વસતા રાજસ્થાનના ત્રિસ્તુતિક ભાઈઓને પોતપોતાના સ્થળે પૂ. મુનિરાજશ્રીને લાવવાની તાલાવેલી લાગી અને ચાતુમાસ કરાવવાની ભાવનાની લગની લાગી પરંતુ ગુજરાત છોડે ત્રણ ત્રણ વરસ થવાથી પૂ. મુનિરાજશ્રી ગુજરાત રાજસ્થાન તરફ વિહાર કરવા ઈચ્છતા હોવા છતાં આંધવાળા એમને આંધ્રમાં લઈ ગયા. અને આંધ્રના અનેક નાના-મોટા શહેર તથા ગામોમાં ધર્મદેશનાનો લાભ આપી સં. ૨૦૩૯ નું ચાનુસિ વિજયવાડા કર્યું અને આજુબાજુના શહેર રાજમહેન્દ્રી, તેનાલી, કેટલ राष्ट्र भक्ति का भाव हो, नहीं बदले का भाव । जयन्तसेन सत्य कथन, राजनीति सद्भाव ॥ www.jairelitrary.org Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગેટર, નેલોર વિ. સ્થળોએ અનેક ભાવિકજનો હતા. જેમણે પૂ. મુનિરાજશ્રીનાં પદાર્પણ તેમના ગામે કરાવ્યા હતા. પરંતુ ચાતુમાસ કરાવી શકયા ન હતા તે બધા ધર્મ ક્રિયાઓ ક૨વા વિજયવાડામાં ઉભરાવા લાગ્યા અને ચાતુર્માંસ દરમ્યાન વિજયવાડામાં અનેક પ્રકારે ધર્મક્રિયાઓ કરાવી આંધ્રવાસીઓના જીવન ધન્ય બનાવ્યા અને વિજયવાડા સ્થિત સિયાણા નિવાસી શ્રેષ્ઠી શ્રી કપુરચંદજી જેઠમલાને સદુપદેશ આપી વિજયવાડાથી શ્રી સમેતિશખરજ મહાતીર્થ અને ત્યાંથી ભાંડવાજી સુધીનો અતિ લાંબો છ'રી પાળતો સંઘ કઢાવ્યો જે છ'રી પાળતા સંઘના ઈતિહાસમાં સૌથી લાંબો (વધુ કીલોમીટરનો) સંઘ હતો. અને યાત્રિકોની સંખ્યા પણ ઘણી હતી. પરંતુ પૂ. મુનિરાજશ્રીના આશીર્વાદ અને શ્રી સંપતિની અનેરી વ્યવસ્થાના કારણે આનંદ પૂર્વક પૂર્ણ થયો. સ. ૨૦૩૭ મદ્રાસ શહેરમાં ધોબીપેટમાં શ્રી જિન મંદિરની પ્રતિષ્ઠા એજનશાળ કરાવી અને મદ્રાસમાંજ (અગ્રામ)માં પણ શ્રી જિનમંદિરની પ્રતિષ્ઠા અંજનશલાકા કરાવી સં. ર૩૮માં નેલોરમાં પણ મળ પ્રતિષ્ઠા અંજનશલાકા કરાવી. દક્ષિણને ત્રણ ત્રણ નૂતન જિનાલયોની ભેટ ધરી. અને એ રીતે પૂ. મુનિરાજશ્રી ફરી પાછા છ'રી પાલિત સંઘ સાથે રાજસ્થાન પધાર્યા. શ્રી માંડવાળ તીર્થમાં અતિ ઉલ્લાસપૂર્વક શ્રી સંઘપતિને સંઘમાળ પહેરાવી પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી સિયાણા પધાર્યાં. ત્યાં પોષ વદ ૧૧ ના પવિત્ર દિવસે કચનારા નિવાસી શ્રી. અશોકકુમારને ભાગવતી દથા આપી તેમના શિષ્ય તરીકે મુનિરાજશ્રી પદ્મરત્ન વિજયજી નામે ઘોષિત કર્યા અને તેજ દિવસે સિયાણા નિવાસી કે, કમલાકુમારી અને કુ. મંજુલાબેન ને દીક્ષિત કરી અનુક્રમે પૂ. સાધ્વી શ્રી પૂણ્યપ્રભાશ્રીજી અને પૂ. સાધ્વીજી શ્રી પૂર્ણદર્શનાશ્રીજી નામે ઘોષિત કર્યા. જે બંને અનુક્રમે પૂ. સાધ્વીજી શ્રી સૂર્યકિરણાશ્રીજીનાં અને પૂ. સાધ્વીજી શ્રી મહાપ્રભાશ્રીના શિષ્યા તરીકે જાહેર થયા. અને હવે આવ્યું સં. ૨૦૪૦નું એક અતિ યાદગાર વસ- શ્રી ભાંડવાજી તીર્થ કે જ્યાં પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંત વિજયજીને આચાર્ય પદવી અર્પત થઈ જેનો આંખે દેખ્યો અહેવાલ આ રહ્યો - આચાર્ય પદવીદાન સમારંભ ૫.પૂ. વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ વિજય વિદ્યાચંદ્રસૂરી૨જી મહારાજ કાળધર્મ પામતાં સમાજમાં ઉત્પન્ન થયેલા શૂન્યાવકાશને દૂર કરવા કોઈ પણ મુનિરાજશ્રીને આચાર્ય પદવી આપવી જ પડે, અને એ માટે શ્રી સમસ્ત ત્રિસ્તુતિક સંઘના પ્રમુખશ્રી ગગલદાસ હાલચંદભાઈ સંઘવીના પ્રમુખ પદે અમદાવાદમાં શ્રી સૌધર્મ બૃહતપાગલ્ક્યિ અખિલ ભારતીય સંમેલન બોલાવવામાં આવ્યું. જે સમયે શાંતમૂર્તિ મુનિરાજશ્રી શાંતિવિજય પણ અમદાવાદ હતા. આ સંમેલન બોલાવવા માટે તેમની પણ શુભ પ્રેરણા હતી. તા. ૧૦-૧૦-૮૧ અને ૧૧-૧૦-૮૧ ના બે દિવસના આ સંમેલનમાં ઠરાવવામાં આવ્યુ કે વર્તમાનમાં આચાર્ય પદવી માટે ચાલી રહેલા વિવાદ ને દૂર કરવા સર્વાનુમતે આચાર્ય પદવી કોને આપવી તેનો નિર્ણય લેવા એક સમિતિની રચના કરવી અને આ માટે એક સમિતિ બનાવવામાં આવી આ સમિતિની પ્રથમ બેઠક નિમ્બાહેડા રાજસ્થાનમાં થઈ મુદ્ ાવનારોના > મહત્ત્વન એક ગુજરાતી વિભાગ are fro ૧૪ અને તો પણ નક્કર પરિામ ન આવ્યું પરંતુ કાર્યને વેગ જરૂર મળ્યો. આ સમય દરમ્યાન પૂ. મુનિરાજશ્રી નો દક્ષિણમાં ડંકી વગાડતા હતા. એટલે દક્ષિણ ભારતીય ત્રિસ્તુતિક સંઘના અધ્યક્ષશ્રી પન્નાલાલજી રામાણીના આમંત્રણથી અખિલ ભારતીય શ્રી સૌધર્મબૃહતપાગચ્છિપ ત્રિસ્તુતિક શ્રી સંઘનું સંમેલન તા ૨૬-૨૭ નવેમ્બર ૧૯૮૨માં પરમ પાવક તીર્થ કુલપાકમાં રાખવામાં આવ્યું. આ સંમેલનમાં ૧૩૦ ગામના શ્રી સંઘોએ ભાગ લીધો અને આ સંમેલનમાં સર્વાનુમતે એકી અવાજે પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજીને આચાર્ય પદવી. આપવાનુ નક્કી કરવામાં આવ્યું. શ્રી પન્નાલાલજી રામાણી દ્વારા ઠરાવ મુકવામાં આવ્યો. અને શ્રી જે. કે. સંઘવી અને શ્રી પ્રેમસિંહજી રાઠોડ દ્વારા આ ઠરાવને અનુમોદન આપવામાં આવ્યું. આ સમયે પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી વિજયવાડામાં હતા. કરાવ પસાર થતાં ટેલીફોનની ઘંટડીઓ રણકી ઉઠી. અને અનેક ગામ નગરે ફોન કરી આ ઠરાવની જાણ કરવામાં આવી. પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી જયંત વિજયજીને પણ શ્રી સંઘ દ્વારા થયેલ આ ઠરાવની જાણ કરવામાં આવી અને વિસ્તૃતિક સંધમાં આચાર્ય પદવીની અવનવી આગાહીનો અંત આવ્યો અને એ રીતે કાવતી (અમદાવાદ) માં શરૂ થયેલ ચર્ચા વિચારણાએ કુલપાકજીમાં નક્કર સ્વરૂપ પકડ્યું અને સમસ્ત શ્રી ત્રિસ્તુતિક સંઘમાં આનંદની લહેર છવાઈ ગઈ અને પછી અનેક પ્રકારે વિચારવિમર્શ પછી પ.પૂ. મુનિરાજશ્રીને જેમ બને એમ જલ્દી ગુજરાત રાજસ્થાન તરફ પધારવા વિનંતી કરવામાં આવી અને પૂ. મુનિરાજશ્રી ઉંચ વિહાર કરી વિજયવાડા - સમેતિશખરજી થઈ ભાંડવા નીર્વ પધા ત્યારે તો આચાર્ય પદવીદાન સમારંભ માટેની તૈયારીઓનો પ્રારંભ થઈ ચૂક્યો હતો એ પ્રારંભ-મધ્યાહન અને પૂર્ણાહુતિનો હવે આવે છે સુવર્ણ અવસર. વિજયવાડા - સમેતશિખરજી અને સિયાણા ભાંડવાજી છ'રી પાલિત સંઘની આનંદપૂર્વક સફળતા પ્રાપ્ત કરી પૂ. મુનિરાજશ્રી એ સ. ૨૦૪૦ નું ચાતુર્માસ રેવતડા કર્યું. એમની મુનિ અવસ્થાનું છેલ્લું ચાર્મિંસ હતું અને તે ચાતુમાસ પૂર્ણ થતાં પૂ. મુનિશજશ્રી ભાંડનપુર તીર્થ પધાર્યા. સં. ૨૦૪૦ માસ ૧૩ બુધવાર તા ૧૫૨-૧૯૮૪ની દિવસ ઈતિહાસના પાને વક્ષરે લખાયો. જે દિવસે પ.પૂ. મુનિરાજશ્રીને ભાંડવાજી તીર્થ મુકામે સમસ્ત ત્રિસ્તુતિક શ્રી સંઘે આચાર્ય પદવીથી વિભૂષિત કરી પ.પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ વિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી નામે ઘોષિત કર્યા. obje આંખે દેખ્યો સંક્ષિપ્ત અહેવાલ આચાર્ય પદવી દાન સમારંભ એ કોઈ નાની સુની વાત નથી સમસ્ત ત્રિસ્તુતિક સંઘના નાયક તરીકે એક વ્યક્તિની નિયુક્તિ થાય ત્યારે સંઘમાં ચારે તરફ આનંદ ઉલ્લાસનું વાતાવરણ પેદા થાય જ અને આ પ્રસંગે મોટો માનવ મહેરામસ. ઉપસ્થિત થશે એ વસ્તુસ્થિતિને ધ્યાનમાં લઈને આ મહોત્સવનું આયોજન ઘણી અને વસ્થિત મહેનત માગી લે છે અને એટલેજ એ માટે ગુજરાત, રાજસ્થાન, મધ્ય પ્રદેશના હિન્દુસ્તાનને ખૂણે ખૂણે વસતા ત્રિસ્તુતિક સમાજના અગ્રણીઓની મીટીંગ બોલાવી મહોત્સવના આયોજન માટે अंजलि जल ज्यों जा रहा, क्षण क्षण जीवन काल । जयन्तसेन सुपथ चलो, पग पग पर सम्भाल ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અનેક પ્રકારની સમિતિઓની રચના કરવામાં આવી અને દરેક તા. ૧-૪-૨-૮૪ મંગળવાર સમિતિમાં નિયુક્ત થયેલ વ્યક્તિઓને શિરે એક એક પ્રકારની નવકારસી સવાર - ચોરાઉ નિવાસી શ્રી માદાજી પાલરેચા પરિવાર વ્યવસ્થાનો ભાર સોંપવામાં આવ્યો, જેમકે રહેઠાણ સમિતિ-ભોજન | નવકારસી સાંજ - કોશિલાવ નિવાસી શ્રી લખમાજી બલદહિયા વ્યવસ્થા સમિતિ-સીક્યુરીટી સમિતિ-મંડપ સમિતિ-વાહન વ્યવહાર પરિવારની એક સમિતિ, જળ વ્યવસ્થા સમિતિ-આરોગ્ય સમિતિ-સ્વયં સેવક ગણ, અને બધી સમિતિઓએ આઠ દિવસનાં આ મહાન મહોત્સવમાં / તા. ૧૫-૨-૮૪ બુધવાર રાત દિવસ જોયા વગર કામ કર્યું. પદવીદાન સમારંભના બે મહિના ફલે ચુંદડી (ઝાંપા ચુંદડી) સુરાણા નિવાસી હાલે જાલોર શ્રીમાલાજી અગાઉથી. દરેક સમિતિઓએ પોતાને સોંપાયેલ કાર્યની સંપૂર્ણ કાંકરીયા પરિવાર સફળતા માટે કાયરિંભ કરી દીધો હતો. જ્યાં પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી તા. ૧૬-૨-૮૪ ગુરુવાર શાંતિવિજયજી, પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી. નિત્યાનંદવિજયજી આદિ મુનિવરોનું નવકારસી સવાર - રેવતડા નિવાસી શ્રી ભગાજી વેદ મુથા પરિવાર માર્ગદર્શન વખતો-વખત મળતું રહયું અને મહોત્સવનો મંગળ તેમજ નવ દિવસના નવાહિકા મહોત્સવ દરમ્યાન પ્રભુજીની પ્રારંભ થયો. માતા અંગરચના - બપોરે પુજા - રાત્રે ભાવના. વિ. નું સુંદર આયોજન નવ દિવસના મહાન મહોત્સવની શરૂઆત તા. ૮-૪-૮૨ થી કરવામાં આવેલ. જેમાં અગંરચના તથા પૂજા નીચે મુજબ ભાવિકજનો. થઈ અને દિન પ્રતિદિન શ્રી ભાંડવાજી તીર્થમાં નર-નારી અને તરફથી રાખવામાં આવેલ. બાળકોનાં ટોળાં ઉમટવા માંડ્યાં. આ નવે દિવસ સવારમાં ચા તા ૮-૨-૮૪ બુધવાર પાણી, નાસ્તો અને બપોરે સાંજે બન્ને ટાઈમ જમવાની સુંદર શ્રી મહાવીર પંચ કલ્યાણ પૂજા. - બાગરા નિવાસી શ્રી જેઠમલજી વ્યવસ્થા ગોઠવવામાં આવી હતી જેનો લાભ અલગ અલગ ખુમાજી પરિવાર પ્રભુજી • ની અંગરચના - સુરાણા નિવાસી શ્રી. વ્યક્તિઓએ લીધો હતો જે નીચે મુજબ છે. | હેજાજી પરિવાર છે ? તા. ૮-૨-૮૪ મહા સુદ - ૬ બુધવાર તા. ૧૦-૨-૮૪ શુક્રવાર તા . સવારની નવકારસી - થરાદ નિવાસી ધરૂ સરૂપચંદ દેવચંદ પરિવાર શ્રી સમક્તિ અષ્ટ પ્રકારી પૂજા - ઘાણસા નિવાસી શ્રી પૂનમચંદજી સાંજની નવકારસી - સુરાણા નિવાસી ગોદાજી ગાંધીમુથા - પરિવાર સંઘવી પરિવાર પ્રભુજીની અંગરચના - સાયલા નિવાસી શ્રી. છોગાજી કલદી પરિવાર તા. ૯-૨-૮૪ મહા વદ ૭ ગુરુવાર તા. ૧૧-૨-૮૪ શનિવાર 1 સવારની નવકારસી - સાયલા નિવાસી. ગાંધીમુથા કુલાજી ગેનાજી 1 પરિવાર શ્રી નવપદજીની પૂજા - રેવતડા નિવાસી શ્રી સુખરાજજી સરૂપાજી સાંજની નવકારસી - રેવતડા નિવાસી સરેમલજી વેદ મુથા પરિવાર સંઘવી પરિવાર શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ અષ્ટ પ્રકારી પૂજા - સિયાણા નિવાસી શા લકમાજી તા. ૧૦-૨-૮૪ મહા સુદ ૮ શુક્રવાર પરિવાર સવારની નવકારસી - થરાદ નિવાસી સંઘવી વીરચંદ સરૂપચંદભાઈ પરિવાર પ્રભુજીની અંગરચના - દાદાલ નિવાસી શ્રી દરઘાજી પરિવાર સાંજની નવકારસી - દાદાલ નિવાસી. સંઘવી પારસમલજી ભરમાજી તા. ૧૨-૨-૮૪ રવિવાર પરિવાર, શ્રી પાર્શ્વનાથ પંચકલ્યાણક પૂજા - જીવાણા નિવાસી શ્રી સાંકલચંદજી તા. ૧૧-૨-૮૪ મહા સુદ ૯ શનિવાર બાગરેચા પરિવાર નવકારસી સવાર - રેવતડા નિવાસી શ્રી સદાજી હિરાણી પરિવાર પ્રભુજીની અંગરચના . થરાદ નિવાસી ધરૂ ભાઈચંદ તલકશી નવકારસી સાંજ - જીવાણા નિવાસી શ્રી મીશ્રીમલજી તારાજી . પરિવાર પરિવાર તા. ૧૩-૨-૮૪ સોમવાર તા. ૧૨-૨-૮૪ મહા સુદ ૧૦ રવિવાર શ્રી આદિનાથ પંચકલ્યાણક પૂજા - કોમતા નિવાસી શ્રી તેજરાજજી. નવકારસી સવાર= શ્રી. સૌધર્મબૃહતપાગલ્શિય થરાદ જૈન છે. સંઘવી પરિવાર મૂર્તિપૂજક સંઘ, અમદાવાદ પ્રભુજીની અંગરચના - થરાદ હાલે અમદાવાદ નિવાસી વોરા નવકારસી સાંજ - સાયલા નિવાસી શ્રી જુહારમલજી પરિવાર નાગરદાસ કેવળચંદ પરિવાર તા. ૧૩-૨-૮૪ સોમવાર મહા સુદ ૧૧ તા. ૧૪-૨-૮૪ મંગળવાર નવકારસી સવાર - સંઘવી પરિવાર નેનાવા નિવાસી ની શ્રી શાંતિનાથ પંચકલ્યાણક પૂજા - આહીર નિવાસી સંઘવી કુન્દનમલ નવકારસી સાંજ - જીવાણા નિવાસી શ્રી વગતાજી બાગરેચા પરિવાર ભૂતાજી પરિવાર શ્રી રાજારની નિષ્ઠઃ પાણી વિભાગ ૧૫. न्याय नीति का नाश हो, जहाँ हो स्वार्थ भाव । जयन्तसेन अनीति से, बढता पाप प्रभाव ।। Jain Education Intemational Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રભુજીની અંગરચના - મેંગલવા નિવાસી શ્રી હિમતાજી સકલેચા અવ્યવસ્થાનું નામ દેખાતું નહોતું અને વિધિ વિધાન સાથે પાટોત્સવની પરિવાર વિધિ ચાલુ થઈ. ટેલીવીઝન સરકીટથી અનેક સ્થળોએ ગોઠવેલ તા. ૧૫-૨-૮૪ બુધવાર ટી.વી. સેટમાં દરેક વ્યક્તિ આ વિધિ નજરે નિહાળી શકતી હતી. અને એકાએક આકાશમાં ઘર૨૨ અવાજ થયો અને હેલીકોપ્ટર દ્વાદશ વ્રત પૂજા : માંડવલા નિવાસી શ્રી કપૂરચંદજી પરિવાર , ફરતું ફરતું આવ્યું અને ત્રણ વખત પુષ્પ વર્ષા કરી અને સાથેજ પ્રભુજીની અંગરચના મેંગલવા નિવાસી શ્રી કુન્દનમલજી બાલગોતા. પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી શાંતિવિજયજી એ આપણા પૂ. મુનિરાજશ્રી પરિવાર જયંતવિજયજીને પૂ. આચાર્ય દેવ શ્રીમદવિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી તા. ૧૬-૨-૮૪ ગુરુવાર નામે ઘોષિત કર્યા અને જનમેદનીએ એકી અવાજે પ્રચંડ પડઘો પાડી ગુરુદેવશ્રીનો જય જયકાર બોલાવ્યો. શ્રી બૃહદ્ અષ્ટોતરી શાંતિ સ્નાત્ર મહાપુજન જીવાણા નિવાસી શા. ગીરદારજી પરિવાર | આજ દિવસે થરાદ નિવાસી દેસાઈ કાળીદાસ હકમચંદની પુત્રી કુ. મંજુલાબેનને અતિ ધામધૂમ અને સમારોહપૂર્વક દીક્ષા. પ્રભુજીની અગંરચના:- થરાદ નિવાસી. વોરા ભૂખણદાસ ભાઈચંદ આપવામાં આવી અને તેમને સાધ્વીજી શ્રી રત્નપ્રભાશ્રીજીનાં શિષ્યા પરિવાર ઉપર મુજબ નવ દિવસની સવાર સાંજ નવકારસી- બપોરે તરીકે સાધ્વીજી શ્રી મોક્ષગુણાશ્રીજી નામથી જાહેર કર્યા. પૂજા અને પ્રભુજીની આંગી. તેમજ રાત્રે ભવ્ય ભાવનામાં આવેલ અવનવી સંગીત મંડળીઓએ રમઝટ જમાવી હતી. અને જૈન તે રાજસ્થાનનું જીવાણા ગામ નાનું પણ મોટા મનવાળાઓનો ધર્મનાં વૈરાગ્યમય નાટકોના મનોહર દ્રશ્યો રજુ કર્યા હતા. ભાંડવાજી ત્યાં વસવાટ પૂ. ગુરુદેવશ્રીની આચાર્ય પદવી ભાંડવાજી તીર્થમાં તીર્થમાં વિશાળ મંડપમાં એક બાજુ પૂવચાર્યોનાં જીવનનાં દ્રશ્યો પટ સંપન્ન થતાં જીવાણા નિવાસીઓએ પૂ. ગુરુદેવશ્રીને જીવાણામાં મહાન ઉપધાન તપની આરાધના કરાવવા માટે પધારવા વિનંતી. રૂપે રજુ કરવામાં આવ્યા હતાં અને દિવસે દિવસે વધતા જતા કરી. માનવ મહેરામણને સુવા બેસવા માટે અનેક તંબુઓ બાંધવામાં આવ્યા હતા. અને તેમાં વિભાગો પાડવામાં આવ્યા હતા. જેમકે અને પૂ. ગુરુદેવશ્રી શિષ્યગણ સહિત જીવાણા પધાર્યા અને થરાદ વિભાગ-રાજસ્થાન વિભાગ-મધ્યપ્રદેશ વિભાગ અને દરેક ઉપધાન તપની આરાધના વિધિ વિધાન અને ધામધૂમ પૂર્વક શરૂ વિભાગમાં અનેક તંબુઓ હતા. જેના નંબર આપી સુંદર વ્યવસ્થા થઈ અને તેજ સમયમાં ૧૮ સાધુ સાધ્વીજીઓને વડી દીક્ષા પણ કરાઈ હતી. સવારમાં ચા નાસ્તો: દરેકને આપવામાં આવતો હતો. જીવાણામાં આપવામાં આવી અને સં. ૨૦૪૦ ના ચૈત્ર સુદ ૬ અને બંને ટાઈમની નવકારસી હોવાથી આવેલ પ્રત્યેક વ્યક્તિ શનિવારે અતિ ધામધૂમપૂર્વક ઉપધાન તપની માળારોપણ વિધિ આચાર્ય પદવીદાન સમારંભના પ્રત્યેક કાર્યક્રમમાં ભાગ લેતી હતી. કરવામાં આવી. સવારે પહેલા પૂ. ગુરુદેવ સાથે પ્રભાત ફેરી અને સામુહિક જિનદર્શન, | ત્યાંથી વિહાર કરી પૂ. ગુરુદેવશ્રી ચૌરાઉ પધાય અહીં એક ચૈત્યવંદન થતું હતું. ત્યાર બાદ વ્યાખ્યાન અને બપોરે પૂજા અને ભવ્ય પ્રતિષ્ઠા અંજનશલાકા મહોત્સવ કરાવવાની ચૌરાઉના શ્રી. રાત્રે ભાવના વિ. વ્યસ્ત કાર્યક્રમો હતા. ઊંઘવાની તો કોઈને પડી. સંઘની ઘણી વખતની ઈચ્છાની પૂર્તિ કરવા માટે ૩૦૫ જિનજ હોતી. મોડી રાત સુધી ધાર્મિક નાટક ચાલતાં હતાં અને મોટો બિંબોની અંજનશલાકા પ્રતિષ્ઠા કરવાનું ભવ્ય આયોજન કરવામાં માનવ મહેરામણ જોવાનો પણ એક લ્હાવો હતો અને સાથે સાથે આવ્યું. અને ભવ્ય અઠ્ઠાઈ મહોત્સવ કરી સં. ૨૦૪૦ ના વૈશાખ શ્રી ચતુર્વિધ સંઘના તેમજ શ્રી ભાંડવાજી તીર્થના દર્શનનો લાભ સુદ-૬ રવિવારના દિવસે શ્રી ધર્મનાથ પ્રભુ સહિત ૩૦પ જિનબિંબોની. લેવાનું કોને મન ન થાય ? પાણીના રેલાની માફક ભક્તો આવતા ધામધૂમપૂર્વક પ્રતિષ્ઠા અંજનશલાકા મહોત્સવની પૂર્ણાહુતિ થઈ. જ ગયા અને પાટોત્સવને દિવસે એ પાણીનો રેલો સમુદ્ર બની આ વળી પાછા પૂ. ગુરુદેવશ્રી ભાંડવપુર પધાર્યા. પ.પૂ. વિશ્વવંદ્ય ગયો. જંગલમાં મંગલ સરખા ભાંડવાજી તીર્થમાં કોઈ વ્યક્તિ સંપૂર્ણ પ્રભુ શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીના સદુપદેશે. જે તીર્થનો ઉદ્ધાર જોઈ શકાતી. જ હોતી. ફક્ત માથાં જ દેખાતા હતા. આકાશના થયો તે તીર્થને અનેક પ્રકારે મહાન બનાવવાની પૂ. ગુરુદેવશ્રીની તારા કોઈ ગણી શકે તો આ માનવમેદનીને ગણી શકાય એવી ભાવના હતી અને તે માટે ત્યાં એક વિશાળ કીર્તિસ્વરૂપ ગુરુમંદિર સ્થિતિ હતી. તા. ૧૫-૨-૮૪ બુધવાર અને સં. ૨૦૪૦ ના બનાવવાની ઈચ્છા થતાં તેનું ખાત મુહુર્ત સં. ૨૦૪૦ના વૈશાખ સુદ મહાસુદ ૧૩નો સુવર્ણ દિવસ સૂર્યનાં સોનેરી કિરણો સાથે ઉગ્યો ૧૦ ગુરુવાર તા. ૧૦-પ-૮૪ના શુભ દિવસે અતિ ધામધૂમ પૂર્વક અને ભાંડવાજીમાં આવેલ. ગુરુભક્તોના દિલમાં આનંદની હેલી હજારો ગુરુ ભક્તોની હાજરીમાં કરવામાં આવ્યું (જે ગુરુ મંદિર ઉપડી. સુંદર ઈલેકટ્રીક વ્યવસ્થા. સુંદર પાણીની વ્યવસ્થા અને શ્રી આજે એક ઐતિહાસિક ઈમારત જેવું લાગે છે) ત્યાંથી પૂ. ગુરુદેવશ્રીએ રાજેન્દ્રનગર, શ્રી ધનચંદ્રનગર આદિ પૂવચાર્યોના નામ ઉપર અલગ ઉગ્ર વિહાર આરંભ કર્યો. અને ભીનમાલ નગરમાં માઇકોલોનીમાં અલગ પડાવોને નામ આપવામાં આવ્યા હતા. અખિલ ભારતીય જિનબિમ્બોની પરોણા દાખલ પ્રતિષ્ઠા કરાવી વાગરા પધાર્યા. ત્યાં રાજેન્દ્ર જૈન નવયુવક પરિષદ અને શ્રી અખિલ ભારતીય કુ. પુષ્પાબેનને ભાગવતી દીક્ષા આપી. સાધ્વીજી શ્રી દિવ્યદર્શનાશ્રીજી બૃહતપાગચ્છિય ત્રિસ્તુતિક સંઘની સુંદર વ્યવસ્થા. કોઈ પણ સ્થળે નામથી ઘોષિત કર્યો અને પૂ. ગુરુદેવશ્રી પોતાની માતૃભૂમિ થરાદ થીમ પાસેની અવિનાનાં હથિ વિમલવારી વિભાગ हीन भाव की वृद्धि हो, हो सद्भाव प्रणाश । जयन्तसेन अनीति से, मिले न शुद्ध प्रकाश || www.jainelibrary org Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પધાય. થરાદમાં વામી નિવાસી વોરા નરપતલાલ નાગરદાસ માગશર સુદી ૬ ને ગુરુવારના દિવસે આકોલીમાં ભગવાન કેવળદાસ તરફથી જૈન વિદ્યાર્થીઓને રહેવા-જમવા માટેની એક જૈન કુન્થનાથ આદિ જિનબિમ્બો. અને શ્રી ગૌતમસ્વામી. તેમજ પ.પૂ. બોડીંગનું નિમણિ કરવામાં આવેલ, તેનું ઉદ્દઘાટન ત્રિસ્તુતિક શ્રી. ગુરુદેવશ્રીમદવિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી આદિની પ્રતિમાઓની. મહાન સંઘના પ્રમુખ અને થરાદ નિવાસી. સંઘવી ગગલદાસ હાલચંદભાઈનાં મહોત્સવ પૂર્વક પ્રતિષ્ઠા કરાવી શભ હસ્તે કરવામાં આવ્યું એ દિવસ હતો. સં. ૨૦૪૦ જેઠ સુદી . સિયાણામાં દીક્ષાભિલાષી શ્રી મિલનકુમારને અતિ ધામધૂમ ૧૧. શનિવારનો. અને આ દિવસોમાં થરાદમાં મહાન અઠ્ઠાઈ મહોત્સવનું - પૂર્વક દીક્ષા આપી. મુનિરાજશ્રી સિધ્ધરત્ન વિજયજી નામે ઘોષિત આયોજન દેસાઈ જીતમલ ત્રિકમભાઈ તરફથી કરવામાં આવ્યું હતું, કર્યા અને તેજ વખતે કુ. મીનાબેનને દીક્ષા આપી સાધ્વીજી શ્રી. કારણ દેસાઈ જીતમલ ત્રિકમભાઈના પૌત્ર બાબુલાલ. ગગલદાસ સ્વયંપ્રભાશ્રીજી નામથી વિભૂષિત કર્યા - ગુરુસપ્તમી પોષ સુદ ૭ દેસાઈના ધર્મપત્ની લીલાબેન દીક્ષા લેવાની ભાવના થતાં કુટુંબીજનોની. આ દિવસ તો પ્રતિ સાલ અનેક ગુરુભક્તોની હાજરીમાં અતિ આશા લઈ તેઓ પૂ. ગુરુદેવશ્રી પાસે દીક્ષા ગ્રહણ કરવાના હતા ઉલ્લાસ પૂર્વક ઉજવાય છે એ રીતે પ્રાચીન કોરટાજી તીર્થમાં પૂ. અને એ માટે જ ખાસ પૂ. ગુરુદેવશ્રીને થરાદ પધારવા વિનંતી થતાં ગુરુદેવ શ્રીમદવિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજની સ્વગરિોહણ તિથિ પૂ. ગુરુદેવશ્રી થરાદ પધાર્યા હતા. અતિ-ધામધૂમ પૂર્વક મહોત્સવ ઉજવવામાં આવી અને તે નિમિતે પંચાન્ડિકા મહોત્સવનું ભવ્ય કરી અને સં. ૨૦૪૦ જેઠ સુદ ૧૨ રવિવારના દિવસે શુભ મુહુર્તે આયોજન કરવામાં આવ્યું. શ્રીમતિ લીલાબેનને પૂ. ગુરુદેવે દીક્ષા આપી સાધ્વીજી શ્રી આ અખિલ ભારતીય શ્રી રાજેન્દ્ર જૈન નવયુવક પરિષદ એ હવે રત્નયશાશ્રીજી નામથી વિભૂષિત કર્યો અને એ રીતે થરાદની દીક્ષિત સાધ્વીજીઓમાં એકનો વધુ ઉમેરો થયો. ત્રિસ્તુતિક જ નહિ પરંતુ અખિલ ભારતીય સ્તરે એક મહાન જૈન સંસ્થા બની છે અને પ.પૂ. આચાર્યદિવશ્રીમદ્ વિજયયતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી | સિયાણા નગર જે પૂ. ગુરુદેવશ્રીનું દીક્ષા સ્થળ છે. સંસારીમાંથી એ સ્થાપિત કરેલ આ સંસ્થાના કુમળા છોડને વર્તમાન ગુરુદેવે સાધુ જે પવિત્ર સ્થળે પ.પૂ. ગુરુદેવશ્રીમદવિજય યતીદ્રસૂરીશ્વરજીના અમૃતમય વાણીરૂપ પાણીનું સિંચન કરી વટવૃક્ષ બનાવી છે. અને વરદ હસ્તે બન્યા. પૂનમચંદમાંથી. જ્યાં મુનીરાજ જયંતવિજયજી તેની વડવાઈઓ રૂપ અનેક શાખાઓ ભારતભરમાં કાર્યરત બની. થયા. તે સ્થળ તરફ પુ. ગુરુદેવશ્રીને આકર્ષણ હોય તે સ્વાભાવિક છે તે સંસ્થાની કાર્યવાહી પૂ. ગુરુદેવશ્રીની હાજરીમાં વરસમાં બે છે અને એટલે જ સં. ૨૦૪૦ નું ચાતુર્માસિ તઓશ્રીએ સિયાણા શ્રી ત્રણ વખત તો થાય છે. અને એ રીતે આ વખતે ભાંડવપુર તીર્થમાં સંઘની વિનંતીથી સિયાણા કર્યું. સં. ૨૦૪૮ ના અષાઢ સુદ ૩ આ પરિષદનું ૧૩મું અધિવેશન ભરવામાં આવ્યું અને પરિષદના રવિવારના સુપ્રભાતે પૂ. ગુરુદેવશ્રીનો મુનિમંડળ અને સાધ્વીજી કાર્યક્ષેત્રને વિસ્તારવાનો નિર્ણય પૂ. ગુરુદેવશ્રીના સદુપદેશે લેવામાં સમુદાય સહિત ભવ્ય ચાતુમતિ પ્રવેશ થયો અને સિયાણામાં ધર્મનો ન આવ્યો. “શાશ્વતધર્મ”નું પ્રકાશન થાણા મુંબઈથી સુંદર રીતે કરવાનું મંગળદીપ પ્રગટ થયો અનેક પ્રકારની ધમરાધનાઓ ચાતુમતિ આયોજન - ધાર્મિક શિક્ષણ હેતુ ‘શિબિરોનું આયોજન - નેત્રયજ્ઞ. દરમ્યાન થઈ. પોલીયો કેન્દ્ર વિ. શરૂ કરવાના નિર્ણયો આ અધિવેશનમાં કરવામાં પ.પૂ. આચાર્યદિવશ્રીને ભાંડવાજી તીર્થમાં જે ભવ્ય મહોત્સવપૂર્વક આવ્યા અને ભાંડવાજી તીર્થમાં જ શ્રી વર્ધમાન રાજેન્દ્ર ચિકિત્સાલય આચાર્ય પદવી અર્પણ કરવામાં આવેલ તેનો સચિત્ર અહેવાલ શરૂ કરવામાં આવ્યું. જેનું ઉદ્દઘાટન જાલોર જીલ્લાનાં કલેક્ટરશ્રીના. દર્શાવતો શાશ્વત ધર્મનો વિશેષાંક પ્રગટ કરવામાં આવેલ તેનું હસ્તે કરવામાં આવ્યું અને પરિષદ દ્વારા પ્રકાશિત જૈન ધર્મના વિમોચન અહીં કરવામાં આવ્યું. તેમજ અખિલ ભારતીય સૌધમ પાઠ્યપુસ્તકોની પુસ્તીકાઓનું વિમોચન પણ આ વખતે થયું. બૃહતપાગચ્છિય ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘની કાર્યવાહક સમિતિની બેઠક | બપોરે ખુલ્લા અધિવેશન પછી અખિલ ભારતીય પણ અહીં મળી હતી અને એ રીતે ચાતુર્માસ પૂર્ણ થતાં સં. સૌધર્મબૃહતપાગચ્છિય ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘના બે દિવસના ૨૦૪૧ ના કારતક સુદ ૧૫ ના ચાતુમસ પરિવર્તનના દિવસે અધિવેશનમાં જૈન રત્ન થરાદ નિવાસી સંઘવી ગગલદાસ સિયાણાની નજીકમાં જ આવેલ કાણોદર તીર્થની ચતુર્વિધ સંઘ હાલચંદભાઈની શ્રી સંઘના પ્રમુખ તરીકે ફરી વરણી કરવામાં આવી સહિત યાત્રા કરી ચાતુમસ પરિવર્તન કરવામાં આવ્યું. ત્યાંથી પૂ. અને મહામંત્રી તરીકે શ્રી. પ્રેમસિંહજી રાઠોડને નિયુક્ત કરવામાં ગુરુદેવશ્રી વિહાર કરી જાલોર શહેરમાં પધાય ત્યાં માગસર વદ ૯ આવ્યા અને અન્ય સભ્યોને કાર્યવાહક સમિતિમાં નિયુક્ત કરવામાં શનિવાર તા. ૧૭-૧૧-૮૪ ના દિવસે જનરલ હોસ્પીટલની મુલાકાત આવ્યા. અને આ અધિવેશનમાં એક મહત્વનો નિર્ણય એ લેવામાં લઈ દર્દીઓને દર્શન - આશીવાદ આપી - દૂધ - ફળાદિનું વિતરણ આવ્યો કે પ.પૂ. આચાર્ય ભગવંત શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીની કરાવ્યું અને સં. ૨૦૪૧ માગસર વદ ૧૦ રવિવાર તા. ૧૮-૧૧ જન્મભૂમિ ભરતપુરમાં એક કીર્તિમંદીરની સ્થાપના કરવી અને એ ૮૪ ના દિવસે સ્વર્ણગીરી જાલોરના દુર્ગની ચતુર્વિધ સંઘ સાથે માટે કાર્યવાહી કરવા એક સમિતિની રચના કરવામાં આવી. (જે યાત્રા કરી જેનો લાભ શ્રી કાનરાજજી મુથાએ લીધો. કીર્તિમંદિર બનાવવાની કાર્યવાહી. આજે ચાલી રહી છે) આ. | સં. ૨૦૪૧ નું વરસ પણ પૂ. ગુરુદેવશ્રી. માટે અતિ પ્રવૃતિમય અધિવેશનમાં ગુજરાત. મ.પ્ર., રાજસ્થાન, મહારાષ્ટ્ર, કર્ણાટક, આંધ્રપ્રદેશ તામીલનાડુ વિ.ના ૧૦૮ શ્રી સંઘના લગભગ ૩૫00 ૨હયું. તમારા મિત્રને મારી खुद कुछ कर सकते नहीं, करे उसी पर द्वेष । जयन्तसेन दुर्गुण यह, देत सदा हि क्लेश। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રતિનિધિ ઉપસ્થિત રહયા હતા.. | સાધ્વીજી સુમદાય સાથે ધાનેરા પધાર્યા, જ્યાં શાહ ભીખાજી. મહાસુદ ૧૩ રવિવારે સ્વર્ણગીરી જાલોરમાં શ્રી જિનમંદિર ભુરાજી વરદીચંદજી પરિવાર તરફથી. અષ્ઠાહિકા મહોત્સવનું આયોજન તથા ગુરુમંદિરની પ્રતિષ્ઠા અંજનશલાકા મહોત્સવપૂર્વક કરવામાં કરવામાં આવેલ તે મહોત્સવ પૂ. ગુરુદેવશ્રીની હાજરીથી સુશોભિત આવી. અને જાલોરમાં જ કુચનગીરી વિહારમાં પણ શ્રી શંખેશ્વર થયો. પાર્શ્વનાથ ભગવાન તેમજ પ.પૂ. ગુરુદેવશ્રીમદ્ વિજયરાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી | સં. ૨૦૪૧ જૈઠ સુદ ૪ શુક્રવાર તા. ૨૪-૫-૮પના શુભ આદિ બિંબોની પ્રતિષ્ઠા ધામધૂમપૂર્વક કરવામાં આવી દિવસે ધાનેરામાં શ્રી શાંતિનાથ ભગવાનનાં મોટા દહેરાસરમાં ફાગણ સુદ ૩ શુક્રવાર રાજસ્થાનના રાણી સ્ટેશન પર ભગવાન શ્રી વાસુપૂજ્ય સ્વામી અને પૂ. ગણધર શ્રી ગૌતમસ્વામીની નવનિર્મિત શિખર બંધી જિનમંદિરમાં ભગવાન શ્રી કુન્થનાથ પ્રતિમાઓની મહોત્સવ પૂર્વક પ્રતિષ્ઠા કરવામાં આવી. અને આ ભગવાનાદિ જિનબિંબોની અંજનશલાકા પ્રતિષ્ઠા તેમજ પ.પૂ. સમયે ધાનેરા નિવાસી શ્રી ત્રિકમભાઈના પરિવાર તરફથી શ્રી ગુરુદેવશ્રીમદ્દવિજયરાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજની પ્રતિમાની પ્રતિષ્ઠા રાજેન્દ્રસૂરી જ્ઞાનમંદિર બનાવી શ્રી સંઘને અર્પણ કરવાનો નિર્ણય અને પ.પૂ. વર્તમાન આચાર્યશ્રીના ગુરુબંધુ પૂ. મુનિરાજશ્રી. કરવામાં આવ્યો. દેવેન્દ્રવિજયજી મહારાજ કે જેઓશ્રી. યુવાન વયે રાણી પાસે જ ધાનેરાથી થરાદ - આ સમયે પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી નિત્યાનંદ કાળધર્મ પામ્યા હતા, તેઓશ્રીનાં પગલાંની પ્રતિષ્ઠા કરવામાં આવી. | વિજયજી મહારાજ થરાદમાં હતા. અને તેઓશ્રીના ઉપદેશથી થરાદમાં. | અને ત્યાંથી પૂ. વર્તમાનાચાર્યશ્રી. - અનેક પ્રકારનાં ધાર્મિક | બાળકોને ધર્મ સંસકાર મળે એ હેતુથી ધાર્મિક શિબિરનું આયોજન કાર્યો કરાવતા. - મહિદપુર - જુના - જોગાપુર અને શ્રી જીરાવલા. કરવામાં આવેલ તે શિબિરની પૂર્ણાહૂતિ પ્રસંગે અને ઈનામ વિતરણ તીર્થ વિ. સ્થળોએ વિહાર કરતા ગુજરાતમાં પધાર્યા. સમારંભમાં પૂ. ગુરુદેવશ્રી ઉપસ્થિત રહ્યા હતા એ નિમિત્તે પોતાની માતૃભૂમિને પાવન કરી હતી. તે પાલનપુર બનાસકાંઠાનું મુખ્ય શહેર ત્યાં થરાદ નિવાસી તેમજ રાજસ્થાન નિવાસી ગુરુભક્તોનો નિવાસ એટલે પૂ. ગુરુદેવશ્રી થરાદમાં પધારેલ બડનગર (મ.પ્ર.) શ્રી સંઘના મહાનુભાવોને પાલનપુર પધારતાં પાલનપુરમાં ગુરુમંદિર બનાવવાનો શુભ નિર્ણય બડનગરમાં ઉપાશ્રય જીર્ણોદ્ધાર માટે ખાતમુહુર્ત આપવામાં આવ્યું. કરવામાં આવ્યો અને ગુરુમંદિર નિમણિ માટે જમીન પોતાના જેઠ વદ ૭ રવિવાર તા ૯-૬-૮૫ ના રોજ થરાદમાં રાશિયાની તરફથી લઈ આપવાની ઈચ્છા શ્રી ચીમનલાલ. ડુંગરશીભાઈએ. શેરીમાં શ્રી અભિનંદન સ્વામી જિનાલયમાં શ્રી સુમતિનાથ ભગવાનની વ્યક્ત કરતાં તેનો સ્વીકાર કરવામાં આવ્યો. | પ્રતિષ્ઠા મહોત્સવ પૂર્વક પૂ. ગુરુદેવશ્રીના સાનિધ્યમાં થઈ. “અભિધાન રાજેન્દ્રકોષ' વિશ્વના કોષોમાં પ્રથમ સ્થાન પામનાર આ સં. ૨૦૪૧ ના જેઠ વદ ૧૦ ગુરુવાર તા. ૧૩-૬-૮૫ નો. માગધી - સંસ્કૃત - પ્રાકૃતનો મહાન ગ્રંથ જેની રચના પ.પૂ. સુવર્ણ દિવસ જે થરાદને આંગણે ઉગ્યો હતો. તે દિવસે થરાદની. આચાર્ય ભગવંત શ્રીમદ્ વિજયરાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીએ કરેલ અને તેનું સાત કુમારીકાઓને દીક્ષા. આપવામાં આવી. જે દિવસ જૈન ઇતિહાસમાં પ્રકાશન કરવા પ.પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદવિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી . સુવર્ણાક્ષરે અંકાશે. એ ભવ્યાતિભવ્ય દીક્ષા મહોત્સવ મેં નજરે મહારાજે રતલામમાં તે માટે ખાસ એક પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ ઊભું કરાવ્યું નિહાળ્યો તેની આછી ઝલક, હતું. તે અભિધાન રાજેન્દ્રકોષનાં ગ્રંથો હવે ઉપસ્થિત ન હતા પરંતુ થરાદ શહેરમાં સાત-સાત કુમારીકાઓને દીક્ષા આપવામાં તેની માંગણીઓ આવતી હતી. એટલે આ વરસના ભાંડવપુર આવનાર હતી. તે નિમિત્તે અઠ્ઠાઈ મહોત્સવનું આયોજન કરવામાં તીર્થના અધિવેશનમાં તેના પુનઃ પ્રકાશનનો નિર્ણય કરવામાં આવેલ. આવ્યું હતું. થરાદ આખું ઉતરથી દક્ષિણ મંડપથી આચ્છાદિત તેનું પ્રકાશન કરવાનું કાર્ય સં. ૨૦૪૧ ચૈત્ર સુદ ૯ રવિવારના શુભ કરવામાં આવ્યું હતું. થોડા-થોડા અંતરે શણગારેલી સુવાક્યોથી. દિવસે રવિ પુષ્ય નક્ષત્રે કરવાનો પ્રારંભ થયો અને ગ્રંથ પુનઃ મુદ્રણ. મંડિત કમાનો ઊભી કરવામાં આવી હતી. થરાદવાસી જ્યાં-જ્યાં માટે પ્રેસમાં ગયો. વસતા હતા, ત્યાંથી થરાદ આવી ગયા હતા. માનવ મહેરામણથી. ચૈત્ર વદ ૬ ને બુધવાર તા. ૧૦-૪-૮૫ દિવસે પૂ. વર્તમાન થરાદ ઉભરાઈ ગયું હતું એક સાથે સાત બહેનોને દીક્ષા આપવાનો આચાર્યશ્રી મુનિમંડળ સહિત શ્રી શંત્રુજય તીર્થ મંડિત પાલીતાણા. આ પહેલો જ પ્રસંગ હતો આ સાતે બહેનોની પૂ. આચાર્યદિવશ્રીની. શહેરમાં પધાર્યા જ્યાં પૂ. સાધ્વીજીશ્રી કનકપ્રભાશ્રીજી તેમજ પૂ. નિશ્રામાં મેં મુલાકાત લઈ તેમના ધાર્મિક અભ્યાસની અને વૈરાગ્ય સાધ્વીજી અનંતગુણાશ્રીજીને વરસીતપના પારણા નિમિત્તે અષ્ઠાન્તિકા. ભાવનાની ચકાસણી કરવા પ્રશ્નો પૂછયા હતાતે ઉપરથી મને મહોત્સવનું આયોજન કરવામાં આવેલ અને તે મહોત્સવમાં પૂ. પ્રતીતિ થઈ કે સાતે બહેનો ખરેખર આ સંસારને અસાર સમજતી. ગુરુદેવશ્રીને વિનંતી થતાં પૂ. ગુરુદેવશ્રી પધાર્યા હતા અનેક થઈ ગઈ હતી અને કેટલાક સમયથી પૂ. સાધ્વીજી મહારાજ સાથે ભક્તગણોની હાજરીમાં વરસીતપ પારણાનો મહોત્સવ સંપન્ન થયો. રહીને ધાર્મિક સૂત્રોનો અર્થ સહિત સારો એવો અભ્યાસ કર્યો હતો સં. ૨૦૪૧ ના જેઠ સુદી ૧ સોમવાર તા ૨૦-૫-૮૫ના અરે એમ કહું તો ચાલે કે હું એમને પ્રશ્ન પૂછવા માટે યોગ્ય દિવસે પાલી.તાણા.થી. ઉગ્ર વિહાર કરી પૂ. ગુરુદેવશ્રી. મુનિમંડળ અને નહોતો. એ સાત બહેનોની દીક્ષાના આગળના દિવસે હાથી રથ શણગારેલાં. વાહનોમાં વરસી તપનો વરઘોડો નીકળ્યો ત્યારે વરઘોડાને ગાયનાસો.ના અભિવાદન કરવામાં વિમાન S राग द्वेष हो चित्त में, अन्तर भरा अज्ञान । जयन्तसेन दूषित मन, पाता कब सद्ज्ञान ।। www.jainelibrary org Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ચાલવાની જરૂર લાગતી હોતી. કારણ થરાદના એક છેડેથી બીજા છે કે તેઓશ્રીની દ્રષ્ટિ નેનાવા ત૨ફ તો હોય જ અને નેનાવાવાસી છેડા સુધી વરઘોડો જ વરઘોડો હતો બેન્ડના મધુર સૂરો વચ્ચે પણ. હરવખતે પૂ. ગુરુદેવશ્રીની આજ્ઞામાં હાજર હોય એવા નેનાવા થરાદની. જૈન ભાવિક જનતા આનંદ વિભોર થઈ હતી. અને બીજે વાસીઓ પૂ. વર્તમાન ગુરુદેવશ્રીને સં. ૨૦૪૧ નું ચાતુમસ કરાવવા દિવસે જનતા હાઈસ્કૂલના વિશાળ પટાંગણમાં દીક્ષા આપવાની નેનાવા લાવીને જ જંપ્યા. ક્રિયા ચાલુ થઈ ત્યારે હાઈસ્કૂલનું વિશાળ કમ્પાઉન્ડ નાનું પડતું હતું. સં. ૨૦૪૧ ના અષાઢ સુદ ૯ ગુરુવાર તા ૨૭-૬-૮૫ ના. હાઈસ્કૂલના કમ્પાઉન્ડમાં જેટલી મેદની હતી તેનાથી વધુ મેદની. મંગળ પ્રભાતે અતિ ધામધૂમપૂર્વક પૂ. આચાર્યશ્રીનો નેનાવા નગરમાં હાઈસ્કૂલની બહાર ઊભી હતી અને પૂ. ગુરુદેવશ્રીમદ્ વિજય ચાતુમતિ પ્રવેશ થયો. અને નેનાવા નગર કે જ્યાંનાં થોડાં જૈન ઘર જયંતસેનસૂરીશ્વરજી મહારાજ મુનિમંડળ અને સાધ્વીજી સમુદાય તે પણ લગભગ બંધ હતા. નેનાવા નિવાસીઓ વ્યવસાય અર્થે સાથે હાઈસ્કૂલના મંચ ઉપર બિરાજમાન હતા. અને એક પછી એક મુંબઈ કે અન્ય સ્થળે વસે છે. તે બધાજ પોતાના વ્યવસાયને ચાર એમ સાત ઓંનો લાઈનબંધ શણગાર સજીને ઊભી હતી. જે માસ માટે તાળાં મારી નેનાવામાં આવી ગયા અને સમગ્ર નેનાવામાં શણગાર થોડાક જ સમય પછી ત્યાગવાના હતા અને ગુરુદેવશ્રીના | હલચલ મચી ગઈ અને નેનાવામાં ચાતુર્માસ દરમ્યાન પૂ. ગુરુદેવશ્રીની જય જયકાર સાથે દીક્ષા પ્રદાન વિધિ ચાલુ થયો દીક્ષા વિધિ પ્રસંગે ઉપદેશથી નીચે મુજબ કાર્યો થયા. દીક્ષાના ઉપકરણો વ્હોરાવવાના ચડાવા બોલાયા અને સમગ્ર જૈન જૈનેતર પ્રજાના જય જયકારના ધ્વની સાથે સાતે બ્લેનોને દીક્ષા. | ચાતુમસિ દરમ્યાન ઉપાસક દશાંગસુત્ર તેમજ ભીમસેન ચરિત્રનું પ્રદાન કરવામાં આવી એ સાતે વ્હેનોનાં સંસારી નામ અને દીક્ષા વાંચન કરવામાં આવ્યું ગ્રહણ કર્યા પછીનાં નામ નીચે મુજબ છે. અખિલ ભારતીય સૌધર્મબૃહતપા.ગચ્છિય જૈન સંઘની કાર્યવાહક સંસારી નામ/દીક્ષા ગ્રહણ કર્યા પછીનું નામ સમિતિની બેઠક પૂ. ગુરુદેવશ્રીના સાનિધ્યમાં મળી. મારા કુ. ગુણીબેન સોજાલાલ સંઘવી સાધ્વીજી શ્રી દિવ્યદ્રષ્ટાશ્રી પુરી | આસો સુદ ૧૪ રવિવારના શુભ દિવસે ઉપધાન આરાધનાની. શરૂઆત થઈ. ઉપધાનમાં મોટી સંખ્યામાં તપસ્વીઓ જોડાયા. અને કુ. રમીલાબેન હાલચંદ અઘણી સાધ્વીજી શ્રી અનુપમદ્રષ્ટાશ્રી નેનાવા શ્રી સંઘે ઉપધાન માટે સુંદર વ્યવસ્થા કરી . કુ. રમીલાબેન ચીમનલાલ વોરા " " શ્રી. અવિચલદ્રષ્ટાશ્રી - ગુરુ મંદિરમાં પ.પૂ. ગુરુ ભગવંત શ્રીમદવિજય કુ. કાંતાબેન વાઘજીભાઈ બલુ, " " શ્રી અનુભવદ્રષ્ટાશ્રી - રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીની પ્રતિમાની પ્રતિષ્ઠા કરવામાં આવી. કુ. મંજુલાબેન ચીમનલાલ વોરા " " શ્રી અમીતદ્રષ્ટાશ્રી | ઉપધાન તપારાધકો તરફથી પ૪ છોડનું ઉજમણુ કરવામાં કુ. રસીલાબેન ડાહયાલાલ વોરા " " શ્રી અનંતદ્રષ્ટાશ્રી આવ્યું કુ. વિમળાબેન મફતલાલ વોરા " " શ્રી વિધતગુણાશ્રી - માગસર સુદી ૩ શનિવારે ઉપધાન તપની મહોત્સવપૂર્વક આ સાતે સાધ્વીજી મહારાજો. આજે થરાદનું નામ ઉજ્જવલ પૂણહુિતિ કરવામાં આવી અને તપસ્વીઓને માળરોપણનો મહાન કરતાં પૂ. વર્તમાન ગુરુદેવશ્રીની આજ્ઞામાં આત્મકલ્યાણના માર્ગે કાર્યક્રમ થયો. ઉદ્યમવંત છે. આ દીક્ષા પ્રસંગને પૂરી લખવાનું અહીં ઉચિત નથી કારણ આ પ્રસંગ સંપૂર્ણ વિગતે લખવામાં એક પુસ્તકનું રૂપ ધારણ અને આટલી બધી ધર્મ જાગૃતિ નેનાવામાં કરી નેનાવા કરે એવો છે જ્યારે અહીં લખવા માટે પાનાની મર્યાદા છે. નિવાસીઓને ધર્મના રંગે પૂરેપૂરા રંગી પૂ. ગુરુદેવશ્રી. ભાંડવપુર તીર્થ પધાર્યા જ્યાં પોષ સુદ ૭ ના દિવસે પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ દીક્ષા અર્પણ વિધિ પછી અઠવાડીયામાં પણ વર્તમાન ગુરુદેવશ્રીએ. વિજયરાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીની. સ્વગરિોહણ તિથિ (ગુરુ સપ્તમી)ની એક વિહાર કરી થરાદની બાજુના દૂધવા ગામમાં જિન મંદિરની બનાવવાની | ભવ્ય આયોજનપૂર્વક ઉજવણી કરી. ભાંડવપુર તીર્થથી શ્રી મોહનખેડા બંધ પડેલ કાર્યવાહી ફરી ચાલુ કરાવી. પીલુડામાં ઘર દેરાસર તીર્થ સુધીનો ૫૧ દિવસનો છ'રી પાળતો સંઘ કાઢવાનું આયોજન બનાવવા માટે પીલુડાના જૈન ગૃહસ્થોની એક સમિતિ બનાવી કરવામાં આવ્યું. કાયરિંભ કરાવ્યો. નારોલીમાં ઉપાશ્રયનો જિર્ણોધ્ધાર કરાવવા સમિતિની સ્થાપના કરાવી. અને એ રીતે અનેક પ્રકારના ધર્મકાર્યોથી શરૂઆત I અને આ સમય ગાળા દરમ્યાન વચ્ચે પૂ. ગુરુદેવશ્રી.ના કરાવતા પૂ. ગુરુદેવશ્રી નેનાવા નગર પધાર્યા. ઉપદેશ દ્વારા જમુનિયાકલામાં ઉપાશ્રય અને જિનમંદિરનો જીર્ણોદ્ધાર નેલ્લોરમાં શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ કીર્તિમંદિર નિર્માણ માટે શુભારંભ - ગુરુ | નેનાવા ગામ નાનું જૈનોનાં ઘર પણ આંગળીએ વેઢે ગણાય ભૂમિ ભરતપુરમાં કીર્તિમંદીરની સ્થાપના માટે જમીનની પ્રાપ્તિએટલાં. પણ નેનાવાના પ્રત્યેક જૈનના હૃદયમાં પ.પૂ. વર્તમાન ધાનેરામાં ગુરુમંદિર નિર્માણ આરંભ-થરાદમાં જૈન ભોજનશાળા, ગુરુદેવશ્રી.એ. નેનાવા ગામનો જૈનો વચ્ચેનો મતભેદ મીટાવી. જે ધર્મશાળા, વધમાન જૈન આયંબિલ શાળા વિ.ના સંચાલન માટે સ્થાન પ્રાપ્ત કર્યું છે તે અવિસ્મરણિય છે. અને નેનાવાના ગુરુદેવશ્રી. કમીટીઓની રચના - શ્રી. ધનચંદ્રસૂરી જૈન પાઠશાળા ચલાવવા પ્રત્યેની ભક્તિથી તરબોળ ભક્તજનો ઉપર પણ પ.પૂ. વર્તમાનાચાર્ય સ્થાઈ ફેડની વ્યવસ્થા - પાંજરાપોળ સંચાલન માટે ટ્રસ્ટીઓની. શ્રીમદ્ વિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજીની કોણ જાણે કેટલી અસીમ કૃપા નિમણુક અને ચલાવવા માટે ફંડની વ્યવસ્થા. - ભાંડવપુર તીર્થમાં શ્રી જયનાલેના બલિન્દ થાજવાદી વિભાગ • ૧૯ ऐसी वृत्ति नहीं भली, होत स्वयं को क्लेश । जयन्तसेन अवर मनुज, करे कभी ना द्वेष ।। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અલૌકિક અદ્વિતિય ગુરુસ્મારકનું નિમણિ કાર્ય આરંભ વિ. કાર્યો શ્રી જે.કે સંઘવી-સંપાદક ‘શાશ્વત ધર્મ' દ્વારા સંપાદિત ‘સ્તવન સુધા’ થયા અને શ્રી ભાંડવપુર તીર્થથી શ્રી મોહનખેડા તીર્થનો છ'રી પુસ્તકનું વિમોચન, પાળતો. શ્રી સંઘ અતિ ધામધૂમપૂર્વક નીકળ્યો. એ દિવસ હતો સં. નવકાર મંત્ર આરાધકોના પરિચય વાળી. પુસ્તિકા ‘આરાધક ૨૦૪૨ ના. ફાગણ સુદ ૩ ગુરુવાર તા. ૧૩-૩-૮૬નો, આ સંઘમાં પરિચાયિકા' નું વિમોચન, પ૦૦ યાત્રીઓ હતા. અને તેમાં રાજસ્થાન, મહારાષ્ટ્ર, તામીલનાડુ, કણટિક, આંધ્રપ્રદેશ, ગુજરાત, મધ્યપ્રદેશ વિ. સ્થળોના હજારો આસો વદ ૧૩ બુધવાર તા. ૧૫-૧૦-૮૬ના રોજ મહાન ઉપધાન ગુરુભક્તો સાથે ચતુર્વિધ શ્રી સંઘે ચૈત્ર વદ ૧૨ સોમવાર તા. પ વધ શ્રી સંઘે જૈન તર અ તા. સા . તપનો આરંભ, પ-૮૬ના રોજ શ્રી મોહનખેડા તીર્થમાં ભવ્ય પ્રવેશ કર્યો. રસ્તામાં અખિલ ભારતીય સૌધર્મ બૃહતપાગચ્છિય ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘની અનેક સ્થળે શ્રી સંઘનું બહુમાન કરવામાં આવ્યું અને ચૈત્રવદ ૧૩ કાર્યવાહક સમિતિની બેઠક. મંગળવાર તા ૬-૫-૮૬ના રોજ આ સંઘના આયોજક ૨૫ * આ સપના આવાજીક ૨૫ કારતક વદ ૩ બુધવાર તા. ૧૯-૧૧-૮૬ના શુભ દિને સંઘપતિઓને તીર્થમાળ પહેરાવી બહુમાન કરવામાં આવ્યું. અને પુ. ઉપધાન તપ પૂર્ણાહુતિ અને તપારાધકોને માલારોપણ અને અષ્ઠાનિકા ગુરુદેવશ્રી સરદારપુ૨ વિ. સ્થળે વિહાર કરી ઈન્દોર પધાર્યા, ત્યાંના મહોત્સવપૂર્વક જિનમંદિર ઉપર ધ્વજ દંડારોપણ અને તે પછી શ્રેષ્ઠી શ્રી શાહ કેશરીમલજી, રૂપચંદજી, ચાંદમલજી, રાજમલજી ચાતુમસિ પુર્ણ થયું હોવાથી પૂ. ગુરુદેવશ્રીએ ગુજરાત તરફ ઉગ્ર પરિવારને ઉપદેશ આપી ઈન્દોરથી નાગેશ્વર તીર્થનો છ'રી, પાળતો વિહાર કરી અમદાવાદને આંગણે પદાર્પણ કર્યું, કારણ ત્યાં થરાદ સંઘ કઢાવ્યો, જે સંઘનું પ્રસ્થાન વૈશાખ સુદ ૧૦ સોમવાર તા. ૧૧- નિવાસી સંઘવી કીર્તિલાલ ભીખાલાલની સુપુત્રી. કુ. અલકાબેનને ૫-૮૬ ના રોજ ઈન્દોર શહેરથી દબદબાપૂર્વક થયું અને વૈશાખ માગસર સુદ ૭ શનિવારના રોજ આપવાની હતી. તે મહોત્સવ સુદી ૧૦ સોમવાર તા. ૨-૬-૮૬ ના રોજ શ્રી નાગેશ્વર તીર્થમાં પૂર્વક દીક્ષા આપી માગસર સુદ ૮ ના શુભ દિવસે નવા વાડજ સંઘપતિને ધામધૂમપૂર્વક તીર્થમાળ પહેરાવી બહુમાન કર્યું. અને પૂ. (અમદાવાદ) માં નવનિર્મિત રાજેન્દ્રસૂરિ જ્ઞાન મંદિરનું ઉદ્દઘાટન ગુરુદેવશ્રીએ ત્યાંથી ઉગ્ર વિહાર આરંભ કર્યો જે સમયે નીચે મુજબ પોષ સુદ ૭ નો ગુરુ સપ્તમીનો દિવસ મનાવવા પૂ. ગુરુદેવશ્રી ધમનિષ્ઠાનો પૂ. ગુરુદેવશ્રીના સદુપદેશથી થયાં. ઝડપી વિહાર કરી અમદાવાદથી ભાંડવપુર તીર્થ પધાર્યા અને | મહિદરપુરમાં નવનિર્મિત ભવ્ય શિખરબંધી જિનાલયમાં ભગવાન હજારો ગુરુ ભક્તોની હાજરીમાં ગુરુ જયંતિનો ભવ્ય મહોત્સવ શ્રી સુવિધિનાથ આદિ જિનબિંબો અને પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદવિજય- મનાવ્યો અને ત્યાંથી પાછો પૂ. ગુરુદેવશ્રીએ થરાદ તરફ વિહાર રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીની પ્રતિમાની પ્રતિષ્ઠા પંચાન્ડિકા મહોત્સવ સાથે આરંભ્યો. કરવામાં આવી.. - સં. ૨૦૪૩ ના મહાસુદ ૩ ના દિવસે થરાદ રંગ રંગીલું બની. બોરખેડામાં શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ જ્ઞાન મંદિરનું ઉદ્દઘાટન ગયું હતું. આ શુભ દિવસે ત્રણ વ્હેનોને અતિ ધામધૂમપૂર્વક દીક્ષા ખાચરોદમાં શ્રી પાર્શ્વનાથ જિનાલયમાં ધ્વજદંડારોપણ આપવામાં આવી જેમના નામ નીચે મુજબ છે. થાંદલામાં પૂ. ગુરુદેવશ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીની પ્રતિમાની. સંસારી નામ દીક્ષા અંગીકાર કર્યા પછીનું નામ પ્રતિષ્ઠા કુ. અલકાબેન સાધ્વીજી શ્રી દર્શનકલાશ્રીજી - થાંદલામાં માંગલિક ભવનની ખાતમુહુર્ત વિધિ પ્રસંગે સાંનિધ્ય કુ. સુરેખાબેન સાધ્વીજી શ્રી દર્શિતકલાશ્રીજી નાગદામાં નવપદજીની આયંબિલની ઓળીની આરાધના અને ત્યાંથી ક. શિલ્પાબેન સાધ્વીજી શ્રી. દર્શિતગુણાશ્રીજી વિહાર કરી પૂ. ગુરુદેવશ્રીએ મુનિમંડળ સહ પારા તરફ વિહાર અને આજ સમયે થરાદમાં આંબલી શેરીમાં આવેલ શ્રી. આરંભ્યો કારણ સં. ૨૦૪૨ નું ચાતુમસ પારા શ્રી સંઘની વિનંતીથી. ત્યાં કરવાની જય બોલાવવામાં આવી હતી. સુપાર્શ્વનાથ જિન મંદિરમાં ધ્વજદંડારોહણ મહોત્સવપૂર્વક થયો તેમજ સુથારા શેરીમાં નૂતન વર્ધમાનતપ આયંબિલ શાળા ભવનનું ઉદ્દઘાટન સં. ૨૦૪૨ના અષાઢ સુદ-૬ રવિવાર તા. ૧૩-૭-૮૬ ના ભણસાલી કાંતિલાલ મણીલાલના વરદ હસ્તે કરવામાં આવ્યું. શુભ દિવસે સુપ્રભાતે પૂ. ગુરુદેવશ્રીએ મુનિમંડળ સહિત અતિ શણગારેલા-પારા નગરમાં વાજતે ગાજતે પધાયાં ચાતુર્માસ દરમ્યાન | સં. ૨૦૪૩ મહાસુદ ૧૩ ના રોજ ધાનેરામાં કુ. સુશીલાબેનને ભાગવતી દીક્ષા પ્રદાન કરી સાધ્વીજી શ્રી. વસંતમાલાશ્રીજી ના નીચે પ્રમાણે ધર્મકાર્યો પૂ. ગુરુદેવશ્રીના ઉપદેશથી પારામાં થયા. શિષ્યા તરીકે સાધ્વીજીશ્રી રંજનમાલાશ્રીજી નામે ઘોષિત કર્યા અને ચાતુમસિ દરમ્યાન ઉતરાધ્યયનસૂત્ર અને વિક્રમ ચરિત્રનું વાચન, શ્રીમતિ ઢાપુબેન ચીમનલાલ દ્વારા નવનિર્મિત શ્રી રાજેન્દ્રરિ. ‘શાશ્વત ધર્મના પ્રતિનિધિઓની બેઠક. જ્ઞાનમંદિરના ઉદ્દઘાટન પ્રસંગે ઉપસ્થિત રહયા. નવકાર મંત્રની ૯ દિવસની આરાધના જેમાં ૪૯૫ આરાધકોએ સં. ૨૦૪૩ મહાસુદ ૧૪ ડીસામાં નવનિર્મિત ગુરુમંદિરમાં ભાગ લીધો, પ.પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદવિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજશ્રીની. પ્રતિમાજીની પ્રતિષ્ઠા કરાવી. ૨૦ राग द्वेष हो चित्त में, उपजे निशदिन पाप । जयन्तसेन मार्ग विषम, देता है संताप ।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થયાં છે કે 13; સં. ૨૦૪૩ ફાગણ સુદ ૩ શનિવાર તા. ૨૦-૧૨-૮૭ નો. મહા વિદ્યાલયના પટાંગણમાં રામકૃષ્ણ આશ્રમ રાયપુરના’ અધિષ્ઠાતા શુભ દિવસે સિયાણા નગરે શL હજારીમલજી નથમલજી ગાંધીમુથાની સ્વામી આત્માનંદજીના વરદ હસ્તે લોકાર્પ, - - સુપુત્રી કુ. શકુન્તલાબેનને દીક્ષા પ્રદાન કરી સાધ્વીજી શ્રી. - અને સં. ૨૦૪૩ના અષાઢ સુદ ૧૦ સોમવારના દિવસે શાસિનતાશ્રીજી નામથી ઘોષિત કર્યા અને ભગવાન શાંતિનાથ મંગળ પ્રભાતે મુનિમંડળે. અને સાધ્વીજી સમુદાય સહિત ખાચરોદા આદિ અનેક જિનબિંબોની અંજનશલાકા કરાવી તેમજ મુનિરાજશ્રી કરાવી તેમજ મુનિરાજશ્રી. . નગરમાં ભવ્ય ચાતુમસિ. પ્રવેશ થયો જે ચાતુર્માસ દરમ્યાન ખાચરોદમાં સિધ્ધરત્ન વિજયજી, સાધ્વીજીશ્રી દિવ્યદર્શનાશ્રીજી, રત્નયશાશ્રીજી. નીચે મુજબ ધર્મકાર્યો અને ધમરાધના થઈ. : ૨ સૌભાગ્યગુણાશ્રીજી, કૈવલ્યગુણાશ્રીજી, વિધુતગુણાશ્રીજી, ત શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ જનરલ હોસ્પીટલ બનાવવાનો નિર્ણય... !!! અક્ષયગુણાશ્રીજી, દર્શિતકલાશ્રીજી, દર્શિતગુણાશ્રીજી, વિ. ને મોટી દીક્ષા આપવામાં આવી અને આ રીતે પૂ. ગુરુદેવશ્રીએ પોતાના પૂ. ગુરુદેવશ્રી દ્વારા લખેલ નવકાર ગુણગંગા' ની સાતમી દીક્ષા. સ્થળ સિયાણાને અપૂર્વલાભ આપ્યો. 1િ , ' આવૃત્તિનું વિમોચન અને નવકાર આરાધના પ્રાંરભ – આ આરાધનામાં ૬૧૦ આરાધકોએ ભાગ લીધો. '.” | સિયાણાથી વિહાર કરી પૂ. ગુરુદેવશ્રી વ્ર સુદ ૧ પના થી મોહનખેડા તીર્થ પધાર્યા. જ્યાં પરિષદની કાર્યવાહક સમિતિની શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ જનરલ હોસ્પીટલ અને શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ બેઠકનું આયોજન થયું અને પૂ. ગુરુદેવશ્રીનું ૨૦૪૩ નું ચાતુમતિ તે સાતમસ ધદાવાડીની શિલાન્યાસ વિધિ. આ - - ખાચરોદ નક્કી થયું હતું એટલે ખાચરોદ તરફ વિહાર આરંભ કર્યો. પંચાનિકા મહોત્સવ પૂર્વક સાધ્વીજીશ્રી શાસનકલાશ્રીજી અને જે વિહારમાં વચ્ચે નીચે મુજબ ધર્મકાર્યો પૂ. ગુરુદેવશ્રીના સાનિધ્યમાં સાધ્વીજીશ્રી તત્વકલાશ્રીજીને વડીદીક્ષા. અપણ., ના ઉપર મુજબ . ધર્મકાર્યો કરાવી ચાતુર્માસ પૂર્ણ થતાં પૂ. ( બોરીમાં જિનમંદિર ધ્વજ કલશ દંડારોહણહારી વાત ! ગુરુદેવશ્રીએ ખાચરોદથી વિહાર કર્યો અને ભાદ્ય ચલાનામાં ધ્વજ 0 ટાંડામાં પરિષદ ના કાર્યકર્તાઓની બે દિવસની પ્રશિક્ષણ કલશ દેડારોપણ પૂર્વક પ્રતિષ્ઠા મહોત્સવ કરાવ્યો શિબિરનું આયોજન કરવાથી | ડિર ધાનાણુતામાં પ્રતિષ્ઠા મહોત્સવ , આ બાગમાં જિન મંદિરમાં ધ્વજ દંડારોહણ, તેમજ મહારાણા. ગુરુદેવશ્રી રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીની મૂર્તિની પ્રતિષ્ઠા તેમજ નાન્ટેચા પ્રતાપ માનવી સંસ્કાર ભવનની આધારશીલા આરોપણ વિધિ ફતેહચંદજી ધવરચંદજી પરિવાર તરફથી. શ્રી નાગેશ્વર તીર્થનો છ'રી. પ્રસંગે ઉપસ્થિતિ માં | પાળતો સંઘ કાઢી. તા ૧૬-૧૧-૮૭ ના તીર્થમાળ પહેરાવી સંઘપતિનું | શ્રી લક્ષ્મણજી તીર્થમાં પંચાહિકા મહોત્સવ સાથે નવનિર્મિત બહુમાન કર્યું. ગુરુમંદિરમાં પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદવિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી આદિ. નાગદામાં શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ જ્ઞાનમંદિરનું ખાતમુહુર્ત અને ભૂમિપૂજન પ્રતિમાઓની પ્રતિષ્ઠા અને તીર્થનો અર્ધ શતાબ્દી મહોત્સવ સંપન્ન - મહિદપુરમાં શાંતિસ્નાત્ર મહોત્સવ ખાચરોદ ચાતુમસિની જય બોલાવી અલીરાજપુરમાં શ્રી આદિનાથ જિનાલયમાં પ્રભુ પ્રતિષ્ઠા અને ધ્વજ કલશ દંડારોહણ નિમિત્તે ઈન્દોરમાં શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ ઉપાશ્રય ગુરુમૂર્તિની પ્રતિષ્ઠા પંચાત્વિકાં મહોત્સવ. ઈન્દોરમાં પાનાથ સોસાયટીમાં જિનમંદિર તેમજ ગુરુમંદિરની. ઠંડામાં શ્રી સમીરમલજી તલેસરા પરિવાર દ્વારા એમના પ્રતિષ્ઠા. પિતાશ્રી. સ્વ. મીશ્રીમલજીની યાદગીરી રૂપે નિર્મિત જનસેવાલયની. ગુરુ સપ્તમી સં. ૨૦૪૪ :-, રાજ્ય શાસનને અર્પણ વિધિ પ્રસંગે હાજરી. સ્વ. પ.પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદવિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજની દસાઈમાં શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ જ્ઞાનમંદિરનું ઉદ્દઘાટન સ્વગરિોહણ તિથિ આ વખતે પૂ. ગુરુદેવશ્રીની જન્મભૂમિ ભરતપુરમાં ઝાબુઆમાં શ્રી આદિનાથ બાવન જિનાલયમાં ધ્વજ કલશ પહેલી જ વાર મનાવવાનું વિશાળ આયોજન કરવામાં આવ્યું અને દંડારોપણ નિમિત્તે અઢાર અભિષેક અને પંચાન્ડિકા મહોત્સવ. તે અનુસાર પૂવર્તમાન ગુરુદેવશ્રી મુનિમંડળ સહિત ભરતપુર પધાર્યા અને ભારતભરમાંથી ગુરુ સપ્તમી ઉજવવા આવેલા અનેક રતલામમાં શ્રી મોતીલજી સુરજમલજી ભૂટવેરાની સુપુત્રી. કુ. ભક્તજનોની હાજરી પ્રશંસનીય હતી. પૂ. ગુરુદેવશ્રીએ શ્રી નવકાર રેણુકાબેનને ભાગવતી દીક્ષા આપી. સાધ્વીજી શ્રી તત્વલતા.શ્રીજી મહામંત્ર ઉપર આપેલ વ્યાખ્યાનોના સંગ્રહ રૂપે ‘નમો મનસે નમો નામે ઘોષિત કર્યા.. તનસે’ પુસ્તકની વિમોચન વિધિ કરવામાં આવી તેમજ પૂ. સ્વ. ગુરુ - ઈન્દોરમાં શ્રી. અભિધાન રાજેન્દ્રકોષની બીજી આવૃત્તિ અર્પણ ભગવંતના જન્મ સ્થળમાં તૈયાર થનાર શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ જ્ઞાનમંદિરની માટે વિદ્વાનો સાથે પરામર્શ અને ત્યાં જ અષાઢ સુદ ૨ રવિવાર તા. | કાર્યવાહીને પણ વેગીલી બનાવવામાં આવી. અને એ રીતે ગુરુ ૨૮-૬-૮૭ ના દિવસે અખિલ ભારતીય ત્રિસ્તુતિક સંઘના નિર્ણય સપ્તમીની ઉજવણી કરી પૂ. આચાર્ય દેવશ્રી શિષ્ય સમુદાય સહિત મુજબ મહાન અભિધાન રાજેન્દ્રકોષની બીજી આવૃત્તિની વૈષ્ણવ ભરતપુરને ભરપુર લાભ આપી વિહાર કર્યો. તે Eી કરનાર ના शिख चढे अभिमान की, करे ओर उपहास । जयन्तसेन रहे सदा, उस जीवन में त्रास ।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થરાદ ચાતુમસ (સં. ૨૦૪૪) આ વખતે પૂર્ણ થઈ અને લગભગ ૭૦૦ યાત્રિકો અને સાધુ પૂ. વર્તમાન ગુરુદેવશ્રીની જન્મભૂમિ અને કર્મભૂમિ થરાદ સાધ્વીજીઓ સહિત વાજતે ગાજતે હાથી ઘોડા રથ અને જિનમંદિર આજે થનગની રહયું હતું. આજે સં. ૨૦૪૪ની અષાઢ સુદ -૧ સહિત થરાદથી પ્રસ્થાન કરી સંઘ એક મહિને પાલીતાણા પહોંચ્યો. હતી. આવતી કાલે વ્હેલી પરોઢે પૂ. ગુરુદેવશ્રી મુનિમંડળ તેમજ શ્રી સિધ્ધાચલ તીર્થનાં દર્શન કરી સંઘપતિને સંઘમાળ પહેરાવી સાધ્વીજી સમુદાય સહિત થરાદમાં ચાતુમસિ પ્રવેશ કરવાના હતા. બહુમાન કર્યું. આખું થરાદ અનેક પ્રકારના સુશોભિત વસ્ત્રોથી કલામય રીતે I અને પૂ. વર્તમાનાચાર્યશ્રી ઉગ્ર વિહારનો થાક ઉતારવા અને શણગારવામાં આવ્યું હતું. મુંબઈની વિખ્યાત ગોડીજી બેન્ડ ખાસ પાલીતાણuમાં બંધાયેલ શ્રી યતીન્દ્રભવન ધર્મશાળાને વ્યવસ્થિત બોલાવવામાં આવ્યું હતું. મુંબઈ-અમદાવાદ-સુરત આણંદ કે અન્ય કરવા થોડો સમય રોકાણા. જે સમયે અાવતા ચોમાસાની વિનંતી. સ્થળે વ્યવસાય અર્થે વસતા બધા જ થરાદવાસીઓ આજે થરાદમાં કરવા અનેક સ્થળોએથી સંઘના આગેવાનો આવ્યા હતા. તેમાં આવી ગયા હતા. થરાદની બજાર માનવ મહેરામણથી તો ઉભરાઈ ખીમેલના ખીમાવત બંધુઓ પણ હતા અને ખીમેલ ચાતુમતિ ગઈ હતી પરંતુ આજે થરાદવાસીઓ પાસે પોતાનાં એટલાં વાહનો કરવાની જય બોલાવવામાં આવી છે કે એ વાહનોથી આખી બજાર ભરાઈ ગઈ હતી. ગાડીઓ પાર્ક ખીમેલ ચાતુમતિ સં. ૨૦૪૫ કરવાની ગામમાં ક્યાંય જગ્યા ન હતી. [ ખીમેલ ગામ રાજસ્થાનમાં રાણી સ્ટેશન પાસે આવેલ છે અને શ્રી થરાદ જૈન સંઘની અપૂર્વ વ્યવસ્થા અને આનંદ ઉલ્લાસ રાણકપુર પંચતીથી પણ. રાણીથી કરી શકાય છે તે ખીમેલ ગામમાં સાથે ભવ્ય સામૈયું કરવામાં આવ્યું અને જય જયકારના નારા વચ્ચે વરસો પહેલાં પ.પૂ. સ્વ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી પૂ. ગુરુદેવશ્રીનો અપૂર્વ ચાતુર્માસ પ્રવેશ થરાદમાં થયો. (આ મહારાજ સાહેબે ચાતુમસ કર્યું હતું. અને તે ચાતુમસ કરાવનાર ચાતુમાસનો સંપૂર્ણ અહેવાલ દશવિતી પુસ્તિકા ‘યુગ-યુગની યાદ’ ખીમેલનો ખીમાવંત પરિવાર હતો. અને આજે પણ એજ ખીમાવત પ્રકાશિત કરવામાં આવેલ છે. પરિવારની પૂ. વર્તમાન ગુરુદેવશ્રીનું ચાતુમસ કરાવવાની ભાવના. આ ચાતુમસિમાં થરાદમાં અનેક પ્રકારનાં ધર્મકાર્યો થયા જે થતાં વિનંતી કરવા ખીમાવત બંધુઓ થરાદ આવ્યા તે પછી. નીચે મુજબ છે. પાલીતાણા ગયા જ્યાં તેમની વિનંતીનો સ્વીકાર કરવામાં આવ્યો. નવકાર મંત્ર આરાધન જેમાં અનેક આરાધકોએ ભાગ લીધો. અને એ રીતે પૂ. આચાર્યદેવશ્રીનો શિષ્ય સુમદાય સહિત ખીમેલ નગરે ભવ્ય ચાતુમસ પ્રવેશ થયો. આ ચાતુર્માસ દરમ્યાન પણ શ્રી રાજેન્દ્ર જૈન નવ યુવક પરિષદની કાર્યવાહ સમિતિની પ્રત્યેક ચાતુમસની જેમ જ અનેક પ્રકારનાં ધાર્મિક અનષ્ઠાનો બેઠક. કરાવી ખીમાવત બંધુઓને પૂ. વર્તમાનાચાર્યશ્રીએ અપૂર્વ લાભ થરાદના મોદી કુટુંબના શ્રી ફોજાલાલ ચુનીલાલ મોદીના આપ્યો. અને ખીમેલવાસીઓને ધર્મમાં તરબોળ કય. ખીમેલના આ સુપુત્ર જયેશકુમારને દીક્ષા અર્પણ કરી મુનિરાજશ્રી પ્રશાંતરત્નવિજયજી સં. ૨૦૪૫ ના ચાતુમસમાં ખીમાવત બંધુઓએ અઢળક દ્રવ્ય નામે ઘોષિત કર્યા. વાપરી ચાતુમતિ આરાધના રૂડી રીતે કરાવી, અને ખીમેલનું ' દોશી કુટુંબના શ્રી વિમલનાથ ભગવાનનું જિનાલય નવું ચાતુમતિ પૂર્ણ થતાં જ પૂ. ગુરુદેવશ્રીએ ત્યાંથી વિહાર કરી ગુજરાત શિખરબંધી બની જતાં તેની પુનઃ પ્રતિષ્ઠા. ધ્વજ કલશ દેડારોપણ આવી અમદાવાદથી આણંદ જઈ ત્યાં નિવાસ કરી રહેલાં થરાદ અતિ ધામધૂમપૂર્વક કરવામાં આવી જે સમયે ૧૭ ટાઈમની નવકારસી. નિવાસીઓ દ્વારા બનાવવામાં આવેલ નૂતન જિનાલયમાં શ્રી જિનેશ્વર કરવામાં આવી હતી ભગવાનની અને ગુરુ મંદિરમાં પૂ. ગુરુદેવશ્રીની પ્રતિમાઓની અતિ ધામધૂમપૂર્વક પ્રતિષ્ઠા કરાવી જે સમયે થરાદ - અમદાવાદ સુરત - સોનારાશેરીના શ્રી પાર્શ્વનાથ ભગવાનનાં દહેરાસરમાં પૂ. મુંબઈ વિ. સ્થળોએ વસતા. થરાદવાસી ભક્તોનો આણંદમાં મેળો ગુરુદેવશ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ આદિ ગુરુવરોની પ્રતિમાની પ્રતિષ્ઠા, થરાદ જામ્યો હતો. અને પ્રતિષ્ઠાના ચઢાવવામાં મોટી ઉપજ થઈ હતી. નજીક દૂધવા નૂતન જિનાલયની પ્રતિષ્ઠા, અને ત્યાં પ્રતિષ્ઠા કાર્ય સંપન્ન કરાવી. પૂ. ગુરુદેવશ્રી. થરાદની બે - વોરા બાદરમલ ન્યાલચંદ પરિવાર તરફથી થરાદથી શ્રી કુમારિકાઓના દીક્ષા પ્રસંગે અમદાવાદ આવી. નવા વાડજમાં દીક્ષાનો જીરાવલા, તીર્થનો છ'રી પાળતા સંઘનું સફળ આયોજન, પ્રયાણ પ્રસંગ પતાવી પાનસર તીર્થ પધાર્યા જ્યાં એક જૈન શિક્ષણ અને પૂર્ણાહુતિ વખતે સંઘપતિને માળારોપણ કરી બહુમાન કર્યું. શિબિરનું આયોજન કરવામાં આવેલ હતું. આ શિબિરનું ઉદ્દઘાટન ‘યુગયુગની યાદ’ પુસ્તિકાનું વિમોચન. ગુજરાતના રાજ્ય કક્ષાના ગૃહ પ્રધાન શ્રી નરહરી અમીને કર્યું હતું અને તે ૧૦ દિવસના ધાર્મિક શિબિરમાં ૧૫૦ વિદ્યાર્થીઓએ ભાગ થરાદથી પાલીતાણાનો છ'રી પાળતો સંઘ કાઢવામાં આવ્યો તે લીધો હતો આ કામ પતાવી પૂ. ગુરુદેવશ્રી રાજસ્થાનનાં આકોલી. સંઘ કાઢનાર પૂ. વર્તમાનાચાર્યશ્રીના સંસારી. કુટુંબીજનો ધરૂ કુલચંદ શહેરમાં એક કુમારિકાને દીક્ષા આપવાની હોવાથી ત્યાં જઈ દીક્ષા પાનાચંદ પરિવાર હતો. તેના પરિવારના ધરૂ પૂનમચંદ હાલચંદ કે કાર્ય સંપન્ન કરી જ્યાં સં. ૨૦૪૬ નું ચાતુમસ કરવાની જ્ય જેમની છ’રી પાળતો સંઘ કાઢવાની ઘણા સમયની ઈચ્છા હતી. તે ગીર જારી રીતે કરવા મારા अहं भरा हृदय में, नम्र भाव हो दूर । जयन्तसेन दुःखद यही, जीवन में भरपूर ।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બોલાવી હતી. તે ગુજરાતના પાટનગર અમદાવાદ તરફ આવવા લાગ્યા. સં. ૨૦૪૬ના અષાઢ સુદ ૧૦ ના સુપ્રભાતે અમદાવાદ વસતા થરાદ નિવાસીઓ પૂ. ગુરુદેવશ્રીનો ચાતુર્માસ પ્રવેશ રંગે ચંગે કરાવવા હઠીભાઈની વાડી પાસે માનવ મહેરામણ રૂપે ઊભા હતા. ત્રણ-ત્રણ બેન્ડ વાજાં સાથે કુમારીકાઓ સુંદર વાભૂષસ પહેરી માથા ઉપર કલાત્મક સામૈયા લઈ ગુરુદેવશ્રીની પ્રતિક્ષા કરતી હતી અને પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્દ વિજયજયંતસેનસૂરીશ્વરજી જે હઠીભાઈની વાડીમાં આગળના દિવસે સાંજે આવી ગયા હતા તે અષાઢ સુદ ૧૦ ના પ્રભાતે ૬-૧૫ વાગે શ્રી હઠીભાઈની વાડીના જિનાલયમાં જિનદર્શન વંદન કરી શિષ્ય સુમદાય સાથે બહાર પધાર્યા ત્યારે થરાદની જૈન જનતા જયજયકાર કરી રહી હતી અને થરાદનાં નવયુવકો અબીલ ગુલાલ ઉડાડતા નાચી રહ્યા હતા. ગુરુભક્તિમાં લીન નાબાલ વૃધ્ધો પૂ. ગુરુદેવશ્રી સાથે અમદાવાદના અનેક રસ્તાઓ પરથી પસાર થઈ રહ્યા હતા ત્યારે અનેક સ્થળે પૂ ગુરુદેવશ્રીની ભાવભરી રહેણીઓ કરવામાં આવી રહી હતી સવારે ૬ વાગે નીકળેલ ચાતુર્માસ પ્રવેશનો આ ભવ્ય વરઘોડો પાંચ કલાકે નતપોળ હાથીખાના શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ જ્ઞાનમંદિર પહોંચ્યો ત્યારે હાથીખાના ચોકઠું તો ટચૂકડું લાગતું હતું. સમગ્ર જનતા જ્યાં જ્યાં સ્થાન મળ્યું ત્યાં ઊભી હતી. હાથીખાના-ગોલવાડની બધીજ ગલીઓ ચિક્કાર થઈ ગઈ હતી અને રતનપોળનો મુખ્ય માર્ગ પણ માણસોથી વિડિયારા માર્ક ઊભરાઈ ગયો હતો. આ પ્રસંગે પૂ. ગુરુદેવશ્રીનું સ્વાગત કરવા ગુજરાતના મુખ્ય પ્રધાન શ્રી ચીમનભાઈ પટેલ પુરવઠા પ્રધાન શ્રી. અશોક મકે, રાજ્ય ગૃહપ્રધાન શ્રી નરહરીભાઈ અમીન બનાસકાંઠાના લોકસભાના સભ્ય અને ગુજકોમાસાલના ચેરમેન તેમજ દિલ્હીમાં પણ પુરવઠા ખાતાનો હવાલો સંભાળનાર વડા (બનાસકાંઠા) ગામના જૈન અગ્રેસર શ્રી જયંતિલાલ વીરચંદભાઈ શાહે હાજરી આપી આ પ્રસંગને દીપાળો હતો અને ચાતુમાસ પ્રવેશ પ્રસંગને દીપાવવા થરાદવાસીઓએ અપૂર્વ જહેમત ઉઠાવી હતી અને વાજતે ગાજતે ચાતુમાસ પ્રવેશ કરી પૂ. ગુરુદેવશ્રીએ માંગલિક સંભળાવ્યું અને દરેક પોત-પોતાના ઘેર ગયા. આ ચાતુમાસ પ્રવેશ પ્રસંગે સ્વામી વાત્સલ્યનું આયોજન કરવામાં આવેલ તે પ્રસંગે લગભગ ૭૦૦૦ થરાદવાસી અમદાવાદમાં છે તેની પ્રતીતિ થઈ હતી. સાતહજાર માણસો માટે જમવાની સુંદર વ્યવસ્થા કરવામાં આવી હતી. અને આ રીતે અમદાવાદનું ચાનુમિસ શરૂ થતાં જ અનેક પ્રકારના ધર્મકાર્યોની શરૂઆત થઈ ગઈ. "શ્રીમદ રાજેન્દ્રસૂરિ ચિકિત્સાથ' થરાદ વાસીઓએ અમદાવાદમાં ઊભું કર્યું જેમાં થરાદનાં યુવાનોનો માટે ફાળો છે અને આ ચિકિત્સાવ્ય જૈનો માટે દરેક પ્રકારની મત સેવા આપે છે. શ્રી અખિલ ભારતીય શ્રી રાજેન્દ્ર નવયુવક પરિષદની બેઠક અમદાવાદ માં ભોગાવવામાં આવી જેમાં ભારતભરમાં સ્થપાયેલ આ સંસ્થાની શાખાઓના પ્રતિનિધિઓએ હાજરી આપી બેઠકને સફળ બનાવી શ્રીમદ્ જયસેન ગામનન્દને ઘરગજરાતી વિભાગ શ્રીમદ્દ જયંતીનસૂરિ અભિનંદન ગ્રંથના સંપાદકોની પણ એક બેઠક પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી નિત્યાનંદ વિજયજીની નિશ્રામાં મળી અને સંપાદકોએ એકત્રિત કરેલ સાહિત્ય સુવ્યવસ્થિત કરી છાપવા માટે પ્રેસમાં આપવાની શરૂઆત કરી. પ.પૂ. મુનિરાજશ્રી નિત્યાનંદવિજયજીનો આ અભિનંદન ગ્રંથ પ્રકાશન માટે અપૂર્વ ઉત્સાહ અને લગન તેમના પૂ. વર્તમાનાચાર્યશ્રી પ્રત્યેના અનહદ ભાવની પ્રતીતિ આપતો હતો. ૧૦૦ અને આવ્યા પર્યુષણ મહાપર્વ પર્યુષણ આવતાં પહેલાજ મહાન સિધ્ધિતપ-માસક્ષમણ - ૨૧ ઉપવાસ ૧૯ ઉપવાસ - ૧૬ ઉપવાસ - ૧૨ ઉપવાસ - ૧૦ ઉપવાસનાં પચ્ચખાણ લેવાવા માંડ્યા અને પર્યુષણ પર્વના પ્રથમ દિવસે અઠ્ઠાઈ તપના કેટલા પચ્ચકખાણ લેવામાં તેની તો ગણત્રી જ થઈ શકે તેમ નાની એકંદરે અાઈ અને મકાઈ ઉપરની ૮૦ તપસ્યાઓ થઈ હતી. અને બીજા આઠસો આરાધકોએ છઠ્ઠ અઠ્ઠમ વિ. તપ કર્યા હતા. રતનપોળ આખી જ પર્યુષણના આઠ દિવસ ધંધો ભૂલી ધર્મને વળગી હતી અને ભાદરવા સુદ ૫ ના પારણાના દિવસે થરાદવાસીઓ કોને શાતા પૂછી અને કોને ન પૂછી તેની પાર્ટીમાં અટવાઈ ગયા. કત્તા જે મળે તેને શાતા પૂછતાં તે નપરસ્ત્રી જ નીકળતું હતું રસ્તે આવતા દરેક ઘરમાં બેચાર તપસ્વીઓ જરૂર હોય જ. શાતા પૂછનાર ઓછા લાગતા હતા. તપસ્વીઓ વધુ લાગતા હતા અને સુદ-૬ ના દિવસે માસક્ષમણ કરનાર વોરા રસીકલાલ કાળીદાસ દંપતિ તરફથી સ્વામી વાત્સલ્ય ક૨વામાં આવ્યું જેની સુંદર વ્યવસ્થા અમદાવાદ રહેતા થરાદના યુવાનોએ ઉપાડી લીધી હતી. આ સ્વામી વાત્સલ્યનો લગભગ ૮૦૦૦ ભાઈ બ્યુનોએ લાભ લીધો હતો. સુદ ૭ ના દિવસે થરાદના સંઘવી ગગલદાસ હાલચંદભાઈ તરફથી તેમને ત્યાં થયેલ તપસ્યાઓ નિમિત્તે અપૂર્વ ભક્તામર પૂજન ભણાવવામાં આવ્યું અને સુદ-૮ તા.૨૮-૯-૯૦ના દિવસે તપસ્વીઓનો ભવ્ય વરવો નીકયો. અનેક પ્રકારનાં શણગારેલ વાહનોમાં તપસ્વીઓ બેઠા હતા. ચાંદીના ભવ્ય રથમાં ભગવાનની પ્રતિમા લઈ અમુક તપસ્વીઓ બેઠા હતા. બેન્ડ ઢોલ નગારાં શરણાઈના સુરો સાથે પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્દવિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી તેમના શિષ્ય પરિવાર સાથે તેમજ પૂ. સાધ્વીજી સમુદાય આ વરઘોડાની કલગી રૂપ ચાલી રહ્યા હતા. અને આવી ભવ્ય રીતે અમદાવાદના આંગણે અનેક પ્રકારનાં તપ કરાવી પપણ મહાપર્વની પૂર્ણતિ થઈ પણ ચાનુસિ તો ચાલુ હતું, નવા ધર્મકાર્યોની યોજનાઓ થઈ રહી હતી. ૨૩ – અષ્ઠાનિકા મહોત્સવનું આયોજન કરવામાં આવ્યું હતું અને આસો માસમાં નવપદની શાશ્વતી ઓળી કરાવવાની હતી. આ પર્યુષણ મદ્યપર્વની ઉજવણી માટે થરાદ-ડીસા-પાલનુપરમહેસાણા, કલોલ, હિંમતનગર, નડિયાદ, આણંદ, વડોદરા, સુરત, નવસારી અને મુંબઈથી અનેક પ્રકારનાં તપનાં પચ્ચક્ખાણ લઈને પણ ઘણા તપસ્વીઓ અમદાવાદ આવ્યા હતા અને એટલેજ અમદાવાદના દરેક માર્ગો ઉપર થરાદવાસીઓ જ દેખાતા હતા. अहंकार से बढे तरु, फले आवत झुक जाय । जयन्तसेन नम्र बनो, जीवन भर सुख पाय ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " . . ! થરાદવાસીઓએ મન મુકીને આ મહાપર્વને માણવા પૂ. 1. અને આ રીતે પૂ. વર્તમાન ગુરુદેવ શ્રીમદ્ વિજયજયંતસેન ગુરુદેવશ્રીના સદુપદેશથી અઢળક દ્રવ્યનો ખર્ચ કર્યો હતો. અને એ સૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબે અમદાવાદને આંગણે જૈન શાસનનો રીતે દરેક થેરાદેવાસી, પોતાને કૃતાર્થ માનતા હતા. આ ચાતુમસિ ડંકો વગાડ્યો હતો. અને પોતાની જન્મભૂમિ થરાદના વાસીઓને પ્રસંગે રાજસ્થાન, માળવા, મહારાષ્ટ્ર, આંધ્ર, કર્ણાટક, તામિલનાડુ અપૂર્વ ધર્મલાભ આપ્યો હતો. જેમાં છે. આજે !! વિ. સ્થળોએથી હજારો ગુરુભક્તો પૂ. ગુરુદેવશ્રીનાં દર્શન વંદન માટે - આ ચાતુમસિ પ્રસંગે શ્રીમદ્ જયંતસેનસૂરિ અભિનંદન ગ્રંથના અવિરત આવતા જ રહ્યા હતા. અમદાવાદ સ્થિત થરાદના શ્રી ગુજરાતી વિભાગના સંપાદક તરીકે તેની સામગ્રી તૈયાર કરવા અને સંઘે પૂ. ગુરુદેવશ્રીના દર્શન વંદન માટે આવતા દરેક ભક્તો માટે લખવા માટે અમદાવાદ રહેવાનું થયું અને એ રીતે પણ હું આ અષાઢ સુદ ૧૪ થી જ રસોડું ચાલુ કરી સાધર્મિક ભક્તિનો અપૂર્વ પાવક પ્રસંગે હાજર રહી પાવન બન્યો. તેથી મારી જાતને હું ધન્ય લાભ લીધો હતો. આ રસોડાની વ્યવસ્થા પણ સુંદર હતી અને માનું છું અને મારા ઉપર પૂ. વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ્દ જયંતસેનસૂરીશ્વરજી રસોડું ઉપાશ્રયની બાજુમાં જ હોવાથી ગુરુદેવશ્રીનાં દર્શને આવનારા મહારાજ સાહેબે કરેલ ઉપકારો બદલ ઋણી છું અને તે ઋણ કોઈને પણ લેશમાત્ર અગવડ પડતી નહોતી દરેકના રહેવા બેસવી. ચુકવવા માટે શાસનદેવ મને શક્તિ આપે એજ પ્રાર્થના સાથે વિરમું માટેની અપર્વ વ્યવસ્થા કરવામાં આવી હતી કે કે જી. ' સંપાદક કે , (અનુસંધાન પાના ૪, ૩૦ ઉપરથી) , , , !! | 11 | ઝાર ક ક , પંચાચારના ઉત્કૃષ્ટ પાલન રૂપ પારિજાતમાં શાસન પ્રભાવનાનાં આપશ્રીના જીવ્હાઝે તો સરસ્વતીએ વાસ કર્યો છે.. મા ગુલાબ જળથી સૌરભ મેળવતાં એક સુવર્ણ દિને અવશ્ય તીર્થંકર નિ સ્વસ્વભાવમાં સ્થિત સાધુપદના ધ્રુવતારક જેનો આત્મ-સ્વભાવ નામકર્મ ઉપાર્જન કરો. સમવસરણના તૃતીય ગઢ રત્ન સિંહાસને છે, એવા આપશ્રી જાણે છેલ્લા સૈકામાં આપશ્રીના ગુરુદેવોની અરિહંત બની વિરાજીત થાઓ. સેંકડો આત્માઓના માર્ગદર્શક પ્રતિસ્પર્ધામાં વિજ્ય લક્ષ્મી વરતા હોય તેમ શુરવીરપણે શોભી.. બની આપશ્રીનો આત્મા એક સુવર્ણ પળે શિવરમણીનો સ્વામિ બની. રહયા છો. સિદ્ધશિલા પર આદિ અનંત માર્ગે બિરાજમાન થાઓ. દ નાના-મોટા ગામોમાં ઉપધાન, જ્ઞાન મંદિર, જ્ઞાન ભંડાર ભવની ભાવઠ ભાંગનારા ! વાત્સલ્ય વારિધિ કરૂણા સાંગર કરાવવા તે આપશ્રીની શ્રુત જ્ઞાનની ભક્તિનાં પ્રતીક સમ છે. પ્રાણ પ્યારા ગુરુદેવ ! મુજ બાલ પર વરસાવી દો આશિષની અમી. ભાંડવપુર તીર્થનો જીર્ણોદ્ધાર કરાવી તેને યાત્રાનું આકર્ષક સ્થાન વર્ષો ! વહેવડાવી દ્યો વાત્સલ્યના ધોધ ! જેમાં હું સ્નાન કરી પાવન બનાવ્યું તે આપશ્રીની તીર્થ ભક્તિનું પ્રતિક છે. છ' રી’ પાલક સંઘ થાઉ અને જીન મંદિરની પ્રતિષ્ઠા તથા અંજનશલાકા, તે આપશ્રીની દર્શન અરે ઓ શાસને ગગને દિવાકર ! આટલું વધુ પડતું હોય તો. ભક્તિનું પ્રતીક છે. વૈરાગ્ય નીતરતી વાણીમાં રહેતી. દેશના માણસના આપશ્રીનું માત્ર એક રહેમભરી દ્રષ્ટિનું કપાકિરણ ફેંકવા દિલદાર મનને કેવું ભીંજવી દે છે તેનું પ્રતીક આપશ્રીનો વિશાલ ભક્ત ગણ. બનો. વિશ્વવ્યાપી ઉપકાર સાગરમાં મારા આ નાનકડા ઉપ કૌર ઝરણાને સમાવી દો. - જ્ઞાન રૂપ દૂધમાં વિજય રૂપ સાકર અને વિવેક રૂપ એલચી : આપશ્રીની હજારો માઈલો ફેલાતી જીવન-પ્રભા અમ સૌને ભેળવી સમકિતીને દુગ્ધામૃતનું પાન કરાવતાં અને તેમાંના સારભૂત તપ-ત્યાગ-સેવા સુધી અને સદાચારોનાં અમીનું દાન કરો. અનુભવરૂપ નવનીતનો અનેક જીવોને સ્વાદ ચખાડતા એવા આપનો - આપશ્રીની જીવન સુવાસે અમારા મનને ભર્યું છે. તેમ યશસ્વી સૂર્ય દિન પ્રતિદિન સહસ્ત્ર ગણો વૃદ્ધિને વરતો અમર રહો. વાચકના મનને પણ ભરે એજ અભ્યર્થના. પરમેષ્ઠિ પદના તૃતીય પદે આરૂઢ થયેલ તેવો આપશ્રીનો આત્મા મધુકર-મૌક્તિક ‘વ’ વ્યાપાર, વાણિજય કરવા અને ખૂબ સંપત્તિ મેળવવી. કમાવવું અને એકત્રિત કરવું. શું કમાવવાનું ? કેવી રીતે કમાવવાનું ? આનો ખૂબ દીર્ઘદ્રષ્ટિએ વિચાર કરવાનો છે. સાવધ નહિ, નિરવઘ સંપત્તિ મેળવવાની છે, બાહચ નહિ અત્યંતર ધન કમાવવાનું છે. વ્યવહાર ટકાવી રાખનાર નહિ પરંતુ આત્મધર્મને પુષ્ટ કરનાર પામવાનું છે. આત્મધનનું અર્જન કરવાનું છે. જ્યાં અને જયારે એ ધન પ્રાપ્તિના કાર્યની શરૂઆત થાય છે ત્યાં અને ત્યારે ભાવનો આવિર્ભાવિ સ્વાભાવિક થતો જણાય છે. કઈ) જ્ઞાન થોડું મેળવીને જ્યારે અહંકાર સતાવે ત્યારે અંતર્મુખ થયેલ સાધક સંપૂર્ણ જ્ઞાનના ઘણી એવા સર્વજ્ઞો પ્રતિ મીટ માંડે છે અને મનને તે તરફ વાળતાં સમજાવે છે. તેને થોડામાં ઘણો અહંકાર અને અપૂર્વ અનંતના ઘણીને અંશમાત્ર પણ નહિ ત્યારે તું શું ગણત્રીમાં છે ? એ સાગર છે, તું ખાબોચિયા જેવો છે અને એમાં ય તને આટલો અહંભાવ છે ? - જૈનાચાર્ય શ્રીમદ્ જયન્તસેનસૂરિ “મધુકર” ૨૪ चिन्ता आग समान है, करे बुद्धि बल नाश । जयन्तसेन चिन्तन कर, फैले आत्म प्रकाश ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગુરુ ગુણગહેલી શ્રી હાલચંદભાઈ રતનશીભાઈ વોરો થરાદ | (રાગ : સુણો. શાંતિ જિણી સાભાગ) - 15 અને -14s પE Id i 2) ડિ, 15 [ 9 ક જ પર I - ht બધી જયંતસેન સુરિ પ્યારા, આપ શાસનના શિણગારા 2 .t, se) - I s 'પુણ્ય દર્શન ગુરુજીનાં મળીયાં, પાપ પડળ સવી દૂર ટળીયાં | પy (ા , , - પ્રેમે વંદન સ્વીકારો અમારાં, આપ શાસનના શિણગારા અg // ૧ || || || 1:21CCC 11. • - જન્મ પેપરાલ ગામે પાયા, ધન્ય ધરૂકુળ અજવાળ્યા press II ગુણો બાલ વયે પણ સારા, આપ શાસનના શિણગારા f, ને || ૨ || IL મા I 0 વુિં , ઉછઉં 1 ( , 3 ક પિતા સરૂપચંદ સદ્ભાગી, માતા પારૂબાઈ બડભાગી... .. કહી પુનમચંદ હલરાયા, આપ શાસનના શિણગારા I I 35 36 આ || ૩ કે કે સંસ્કારી શિશુવયે જ્ઞાની, સુણી સૂરિ યતીન્દ્રની વાણી થયા બાલવયે અણગારા, આપ શાસનના શિણગારા || 8 || IL કેવી શાંત સુધારસ વાણી, સુણતાં મિથ્યાત્વ થાય ધુળધાણી ભવિજીવોના તારણહારા, આપ શાસનનાં શિણગારા //પ || કાવ્યો શાસન સેવાનાં કરતાં, વીરવાણીનાં ડંકા દીધા પુરા ધર્મ રંગ, રંગાયા, આપ શાસનના શિણગારા || ૬ || જ્યાં જ્યાં કરો આપ ચોમાસાં, થાય લાભ ઘણાય ખાસા વરતે. સંઘમાં જયજયકાર, આપ શાશનના શિણગારામ | I // ૭ // ગુરૂદેવ ને સદા મોરી વંદના પ. પૂ. આચાર્ય દેવ શ્રીમદ્ વિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબ એટલે અમારા ગામનું એક અનમોલ રતન. જે ગામ માં આવા મહાન આચાર્ય નો જન્મ થયો છે. તે ગામ નો હું પોતે છું તેનું મને ગૌરવ છે. હું કોઈ સાહિત્યકાર કે લેખક નથી. કે પ.પૂ. વર્તમાનાચાર્યશ્રી માટે છપાતા ‘શ્રીમદ્ જયંતસેનસૂરિ અભિનંદન ગ્રંથ’ માટે મોટું લખાણ લખી શકું. આ અને એટલેજ આ સ્થળે ફક્ત શ્રી શાસનદેવ ને પ્રાર્થના કરીશ કે અમારા આ થરાદ ના અનમોલ. તેજસ્વી-પ્રકાશમાન રતન ને વરસો સુધી ચમકતું રાખે અને તેઓશ્રી ની હાજરીમાં શાસન પ્રભાવના ના અનેક કામો થતાં રહે. રાડ પાડી g - ગગલદાસ ખેમચંદભાઈ (થરાદ) ગગલદાસ ખેમચંદભાઈ पर निंदा तुम ना करो, निंदा से गुण नाश । जयन्तसेन इसे तजे, पायें आत्म प्रकाश ।। www.jainelibrary org Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પાવનભૂમિ થરાદની | (પૂ. મુનિરાજશ્રી મુક્તિચંદ્ર વિજયજી મ.) જે શ્રીમદ્ વિજય તા. થરાદનું છે વાવનાર બંધુ બેલડી રોના પેપરાલ ગામનું ધરૂ કુટુંબ સં. ૧૦૧માં વસેલ થરાદ-થીરપુર હું પણ પૂ.ગુરુદેવશ્રી સાથે હતો. અપૂર્વ આયોજનપૂર્વક ગુજરાતનગર સાથે વણાયેલું છે. કારણ સં. ૧૦૧માં થીરપાલ ધરૂ નામના રાજસ્થાન-માળવા-મહારાષ્ટ્ર-કણટિક-તામિલનાડુ અને આંધ્રમાંથી આવેલ. શેઠે ત્યાંના રાજાના જૈન સિદ્ધાન્તની વિરૂધ્ધના આદેશ સામે બગાવત ભક્તોનાં ભાવ વિભોર હૈયાં તે વખતે નાચી ઉઠ્યા હતાં. કરી ભીનમાલ છોડી થરાદ થીરપુર નગર વસાવ્યું તે થીરપાલ. I અને આચાર્ય પદવીદાન સમારંભ પછી પ.પૂ. આચાર્ય દેવ ધરૂના વંશમાં ઘણા વિરલા પાક્યા પરંતુ એક વિરલ વિરલો પાક્યો. શ્રીમદવિજય જયંતસેનસરી મરજીએ શાસન પારૂબેનનો પુત્ર પ્યારો, સ્વરૂપચંદનો સુત, વેગ લાવી, અનેક તીર્થોના છ'રી પાળતા સંઘ, જિનમંદિરોની કુળદીપક આ ધરૂ વંશનો, જૈન શાસન સ્કંધ પ્રતિષ્ઠા-જૈન ઉપાશ્રય, જ્ઞાન મંદિરની સ્થાપના વિ. કાર્યો કર્યા અને સં. ૨૦૪૪નું થરાદનું ચાતુમસ ઐતિહાસિક બનાવ્યું. આ ચાતુમસિ. અરે ઓ સૂરીશ્વર પ્યારા જયંતસેનસૂરિ અમારા એટલે પ.પૂ. પ્રભુ શ્રીમદ્ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સુવણક્ષિરે આગમસુત્રો લખાવનાર આભુસંઘવી, થરાદના હતા.. થરાદનું પ્રથમ ચાતુર્માસ એ ૧૯૪૪ પછી બરાબર ૧૦૦ વરસ અને દેલવાડાના ભવ્ય જૈન મંદિરો બંધાવનાર બંધુ બેલડી વસ્તુપાળ બાદનું ચાતુમસિ હતું અને શતાબ્દી પછી પોતાનો પુત્ર પારંગત તેજપાળની માતા કુમારદેવી થરાદની સુપુત્રી હતી. છત્રીસ આચાર્યો થઈ જૈન ધર્મની અપૂર્વ કમાણી કરીને આચાર્ય બનીને પોતાના પંદરસો દશ જિન પ્રતિમાઓ સાતસો જિનમંદિરો અને અગણિત દાદાગુરુના ચાતુમસ પછીના ૧૦0/વરસ પછી થરાદે આવે ત્યારે જૈન યાત્રિકો સાથે હાથી ઘોડા-૨થે સાથે એક વિશાળ છ'રી પાલતો કેટલો આનંદ હોય તે કલ્પના બહારની વાત છે પ.પૂ. સંઘ થરાદથી શ્રી સિદ્ધચલતીર્થનો કાઢનાર આભુ સંઘવીની. તે વર્તમાનાચાર્યશ્રીના સં. ૨૦૪૪ના ચાતુમતિમાં ભવ્ય તપશ્ચયીઓ. વખતે થરાદમાં કેટલી જાહોજલાલી હશે તેની આ ઉપરથી કલ્પના થઈ ત્રેવીસ સ્વામિ વાત્સલ્ય થયાં. એક ઝાંપા ચુંદડી (ગામ કાંટો) જ કરવી રહી.. થઈ અને થરાદ આ ચાતુમસિમાં હર્ષના હિલોળે ચડી ગયું જે 'યુગ થરાદ માટે આ ગ્રંથમાં અન્યત્ર ઘણું લખાયું છે અને મારી યુગની યાદ' પુસ્તિકો વાંચવાથી સવિસ્તર ખ્યાલ આવશે. માતૃભૂમિ થરાદ છે એટલે જો ઘણું જ લખીશ તો તે આત્મશ્લાઘા એવા વર્તમાન ગુરુદેવ શ્રીમદ્ વિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી કહેવાશે એટલે વધુ લખતો નથી પરંતુ મારા ગુરુદેવ શ્રીમદ્ વિજય મહારાજ હજુ પણ જૈન શાસનની અપૂર્વ સેવા કરવા આરોગ્યમય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી મહારાજ થરાદની બાજુના જ પેપરાલ ગામના દિઘયુિ ભોગવે એવી શાસનદેવને પ્રાર્થના કરી પ.પૂ. ગુરુદેવ ને છે તે માટે હું ગૌરવ અનુભવું છું અને આજે મને એમનું ઉત્કૃષ્ટ વંદન કરી વિરમું છું. સાંનિધ્ય મળ્યું છે તેને મારાં અહોભાગ્ય માનું છું સં. ૨૦૧૦માં ૧૭ વર્ષની યુવાન વયે દીક્ષા લઈ જૈન (મધુકર-મૌક્તિક શાસ્ત્રોનો તનતોડ અભ્યાસ કરી દીક્ષા કાળના ૨૩ વરસ ગામ નગરે ઉગ્ર વિહાર કરતા કરતા જૈન શાસનનો ડંકો વગાડનાર પ.પૂ. ભાવ જેમ જેમ વધે તેમ તેમ ભવની સ્થિતિ ઓછી મુનિરાજશ્રી જયંતવિજયજી મહારાજને સં. ૨૦૪૦માં ભાંડવાજી થવા માંડે છે. સૂર્યની ગરમીથી જેમ ભરેલાં તળાવમાં પાણી તીર્થમાં સમસ્ત ત્રિસ્તુતિક શ્રી સંઘે આચાર્ય પદવી આપી પ.પૂ. સુકાઈ જતાં હોય છે, તેમ ભાવરૂપ સૂર્યની ઉષ્ણતાથી જન્મ આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી નામે જાહેર કર્યા તે મરણનાં તળાવો શુષ્ક થઈ જાય છે. જ્યારે ભવનો અંધારાં દિવસોનું દ્રશ્ય તો આજે પણ આંખ ઓસરવા માંડે છે. ત્યારે તિમિરાછત્ર પથ પણ પ્રકાશમય થઈ જતો જણાય છે. સામે તરવરે છે. લાખોની માનવ મેદની ભવ્ય આચાર્ય પદાર્પણ મહોત્સવ, તૃષ્ણતાથી ભવનાં વ્હેણ પૂર જોશથી વહે છે. જ્યારે ભાવિકોના પુલકિત હૈયા અને હૈયે હૈયુ નિરોધથી ભાવની ગંગા દ્વિગુણીત સતેજ થાય છે. વિવિધ દળાય એવો માનવ મહેરામણ અને પ્રકારી મનોભાવને સાકાર તદાકાર રૂપ આપવા માટે હેલીકોપ્ટરમાંથી થયેલી પુષ્પવર્ષા સાથે ઈચ્છાઓની લાંબી માળાનું સર્જન થઈ જાય છે. અને આચાર્ય પદાર્પણ મંગળ વિધિ જેણે. સઅસદુનો વિચાર ન કરવાથી ભાવોની માળાનો વ્યુત્સર્ગ જેણે જોઈ તે બધા પાવન બની ગયા થઈ જાય છે. અને હું પણ મારી જાતને એટલે જ - જૈનાચાર્ય શ્રીમદ્દ જયન્તસેનસૂરિ મધુકર” મુનિરાજશ્રી મુક્તિચંદ્રવિજયજી ધન્ય માનું છું કે આ મંગળમય અવસરે દીમદ ભારોભારા અમિ,મદન, જાતી વિભાગ ૨૬ न्यायनीति रखे नम्रता, छोड सकल अभिमान । जयन्तसेन अवश्य हो, जीवन का उत्थान । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મહાન ઉપકારી ગુરુદેવ (પૂ મુનિશ્રી હેમરત્ન વિજયજી મહારાજ) ૧ મનુષ્ય ભવની સફળતાનો માર્ગ. લીધું અને દીક્ષા આપવા આવવા માટે ગુરુદેવને વિનંતી કરી અને ૨ સફળતાના માર્ગે જનાર ગુરુદેવ જયંતસેન સૂરીશ્વરજીનું જીવન. સ્વીકારી લીધી મારી દીક્ષા નક્કી થઈ એટલે પરિષદના ભાઈઓ ૩ તેઓશ્રીમાં રહેલ અનેક ગુણો તરફથી દીક્ષાર્થી તરીકે મારું પહેલું બહુમાન કરવામાં આવ્યુ હતું. ત્યાર પછી. પરિષદ નું કામ પતાવી તુરત વિહાર કરી ગુરુદેવ ૪ મારા ઉપર કરેલ ઉપકાર મલાડ પધારી ગયા અને પછી મલાડ (ઈસ્ટ) દેવચંદ નગરમાં મનુષ્ય ભવની સફળતાનો માર્ગ : અઠ્ઠાઈ મહોત્સવ ચાલુ થયો અને તેમાં કુટુંબીઓ સગાંવહાલા તેમજ pી મનુષ્ય ભવને સફળ કરવાનો માર્ગ હોય તો તીર્થકર ભગવંતોએ ધાનેરાના સંઘે તેમજ મલાડ દેવચંદ નગરના સંઘે સારો એવો લાભ આરાધેલ ઉપદેશેલ રત્નત્રયીની સાધના છે. એ જ્યારે સમજાય છે લીધો અને દરેકના સહકારથી સં. ૨૦૩૬ ના માહ સુદ ૧૫ ના ત્યારે ઓત્મામાં વિર્ષોલ્લાસ પ્રગટે છે. આ દિવસે દીક્ષા સારી રીતે થઈ. અને સાધુપણાનું મારું નામ હેમરત્ન મોહ ને મારવાના, રાગદ્વેષ દૂર કરવાનો, કર્મ ક્ષય કરવાનો વિજય રાખવામાં આવ્યું અને તેઓશ્રીના શિષ્ય તરીકે બની રહયો. માયા મમતા છોડવાનો, સર્વે જીવોને અભય આપવાનો અને મનુષ્ય ત્યાર પછી મારા ભાવ પણ ઘણા ઉંચા બન્યા. જીવનનો સાર કોઈ હોય તો ચારિત્ર જ છે. ચારિત્ર વિના મોક્ષ (૩) આપશ્રીના મહાન ગુણો. માર્ગ નથી. - (૧) નીડરતા (૨) સહનશીલતા (૩) સમતા. છે ચારિત્ર એટલે નિષ્પાપ વિરતિમય જીવનની ઉપાસના એ જ ' (૧) જ્યારે સમાજ, ધર્મ અને ગચ્છ સંબધી કોઈ પણ પ્રશ્ન કોઈ એ સમજાવ્યું છે. પાપ છોડ્યા વિના અને ઘાતિ પણ વ્યક્તિ તરફથી પૂછાય તેનો નીડરતાથી જવાબ આપવો. કર્મોના નાશ માટે પ્રબળ પુરુષાર્થ કર્યા વિના સંપૂર્ણ આત્મશુદ્ધિ .. સ. મ.ભ.શ્વ (૨) ગમે ત્યારે સમાજ-સંઘનું કામ કરવા માટે નક્કી કરી લીધું તો. થતી નથી. તે કાર્ય યોગ્ય સમયે પુરું કરવું અને કરાવવું ગમે તેટલી મુશ્કેલીઓ e પ્રતિજ્ઞાની વાત આવે ત્યારે ઘણા સાધકો અટકી જાય છે. વચ્ચે પણ સહન કરીને વખતસર પુરું કરાવવું. આત્માને જાણનારા મોહને મહા દુશ્મન સમજે છે જ્યારે અંદરથી (૩) આપશ્રી માટે ગમે તે વ્યક્તિ સાધુ યા શ્રાવક શ્રાવિકા કાંઈપણ. પ્રબળ શક્તિ પ્રગટે ત્યારે આ અસાર સંસારને છોડવાનો પ્રબળ કંઈ પણ કહી જાય તો પણ આપશ્રી તે વાતને શાંતિથી સાંભળી પુરુષાર્થ આદરે છે. અને જીવનની-સંયમની ઉપાસના પ્રતિજ્ઞા પૂર્વક લો અને પછી શાંતિ અને સમતાથી સમજાવીને કામ પતાવી લેવું કરે છે. અને સાધનાના માર્ગે આગળ વધવા પુરુષાર્થ કરતો રહે છે અને ગુસ્સો ન કરવો તે મહાન ગુણ સમતાનો છે. જ્ઞાન ક્ષેત્રમાં ત્યારે જીવન સફળ બની શકે છે. પૂ. જયંતવિજયજી મહારાજશ્રી આપે ઘણો વિકાસ કર્યો છે. પુસ્તકો લખવા, ચૈત્યવંદન, સ્તુતી, વિહાર કરી અને અમદાવાદ સુરત નવસારી વિગેરે થઈને મુંબઈ સ્તવન, સઝાય અને ગુરુ સ્તુતિ આદિમાં પણ ઘણું કામ કર્યું છે પહોંચ્યા અને મુંબઈ ત્રિસ્તુતિક સંઘે વિનંતી કરી અને તેમની વિનંતીને માન આપી ચૌમાસુ આદિશ્વરજી ધર્મશાળામાં થયું અને પણ તેમાં અભિમાન ન આવવું તે પણ મહાન ગુણ છે. સંઘે ચૌમાસુ ઘણી સારી રીતે કરાવ્યું ત્યાર પછી પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્ આપશ્રી મુખ્ય આચાર્યના સ્થાન ઉપર હોવા છતાં સાધુ વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીની. ગુરુ જયંતિ પણ ત્યાં ઉજવાઈ અને સમાજમાં દરેક સાથે સુંદર એવો વ્યવહાર રાખી લઈને ચાલવું.. ત્યાર પછી વિહાર આંરભ્યો અને વચ્ચે ભીવંડીમાં પરિષદની વડીલો પ્રત્યે પૂ. ભાવ રાખવો નાનાઓ પ્રત્યે વાત્સલ્ય ભાવ રાખવો. મિટિંગ રાખેલી તે દરમ્યાન મારા ભાવ ચારિત્ર લેવા માટે થયા. ગમે તેની ગમે તેવી ભૂલો થાય તો પણ દરેકને સમજાવીને કામ ત્યારે ઘરમાં તથા સગાવહાલા સંબધી વિગેરેને બોલાવી ચારિત્ર કરાવી લેવું અને ગુસ્સો ન કરવો તે મહાન ગુણ છે તેવીજ રીતે માટેની વાત મુકી ત્યારે દરેકે જે કંઈ મને કહેવું હતું તે બધું કહ્યું સાધ્વી મંડળના પણ ઘણા પ્રશ્ન ઊભા થાય છે તે વખતે સાધ્વી. કે આ જીવનનો કોઈ સાર હોય તો ચારિત્ર જ છે અને એટલે મને મંડળને કે મુખ્ય સાધ્વીજીને કહેવામાં આવે છે કે દરેકને સાથે સંસારની કોઈ પ્રવૃત્તિમાં રસ નથી તેમ લઈને આપણો વતવિ યોગ્ય રાખવો તેથી આપણા તરફથી. કોઈ કહીને ચારિત્રની મહત્તા સમજાવી. ગમે પણ આત્માને દુઃખ પહોંચે નહી અને દરેકે પોતપોતાના સ્થાન ઉપર તેવી તકલીફ વચ્ચે પણ દરેકે અનુમતિ રહી પોતાની યોગ્ય ફરજ સમજીને ચાલવું તેવી રીતે યોગ્ય આપી અને તે પણ રાજીખુશીથી એટલે શિખામણ આપી દરેકને શાંતિમય વાતાવરણ બની રહે તેવી રીતે તે જ વખતે ભીવંડી ગુરુદેવ પાસે શ્રાવક શ્રાવિકાને પ્રત્યક્ષ પણ એજ રીતે યોગ્ય શિખામણ આપી પહોંચી ગયો. સગાંવહાલાઓને સાથે તેમને સ્થિર કરવાં તે આપશ્રીનો મહાન સમતા ગુણ છે. લઈને ગયો અને તે જ વખતે ત્યાં (૪) મારા ઉપરનો મહાન ઉપકાર.. મુહૂર્ત કઢાવ્યું આ બધું કામ એક જ આપશ્રીએ મને પ૪ વર્ષની વૃધ્ધ ઉમરે દીક્ષા આપી મારા દિવસમાં પતી ગયું અને મુહૂર્ત મહા ઉપર મહાન ઉપકાર કર્યો છે. અને તે રીતે આપ મને સંભાળી. સુદ ૧૫ નું આવ્યું અને તે નક્કી કરી મુનિશ્રી હેમરત્નવિજયજી મ. . (અનુસંધાન પાના ક્ર. ૩૬ ઉપર) મળી નહોrtવ રિરિન ઇન કરી રહી છે. મારી ૨૭ तन धन मिलता पुण्य से, अहं तजो इन्शान । जयन्तसेन फलदा तरु, नम्र सदा मतिमान ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સમાજ ઉત્થાન અને પૂ. ગુરુદેવશ્રી (પૂ. સાધ્વીજીશ્રી સ્વયંપ્રભાશ્રીજી મ.સા.) (પૂ. સાધ્વીજીશ્રી સ્વયંપ્રભાશ્રીજી મ.સા.) પરમ - જે સ્વરૂપ સમજ્યા વિના, પામ્યો દુઃખ અંનત. સમજાવ્યું તે પદ નમું શ્રી સદ્ગુરુ ભગવંત. (૧) રે દેહ છતાં જેની દશા, વર્ષે દહાનીન, Au *$$$ તે જ્ઞાનીના ચરણમાં, 1 નંદન અગલિત. (૨) ૪. પરમ પુરુષ પ્રભુ સદ્ગુરુ, પરમ જ્ઞાન સુખધામ, જેણે આપ્યું ભાન નિજ, તેને સદા પ્રણામ. (૩) આપણા ત્રિસ્તુતિક સમાજના ગચ્છાધિપતિ વર્તમાન યુગનાં સાહિત્યમનિષી, પ્રેરણાસ્ત્રોથી, તીર્થોદ્વારક, ૫.પૂ. વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ્વિજય જયન્તસેનસૂરીશ્વરજી મ.સા. સત્યમાર્ગનું દ્રષ્ટિબિંદુ પ્રદર્શક કરતાં ફરમાવે છે કે સ્વપ્ન જોનારો પોતાનાં સ્વરૂપને ભૂલી જાય છે. ખોટું સ્વપ્ન દુઃખ આપે છે. જે સૂતેલાં છે તેને સ્વપ્ન દેખાય છે. જાગનારને પરમામાં દેખાય છે, અને સત્ય વસ્તુનું યથાર્થ સ્વરૂપ સમજાય છે. માટે કે મહાનુભાવો મોહનદ્રામાં સનેલાં એવા તમે જા મોહનેહાની કાંટાળી શય્યા પર સૂતેલાં આપણને સંપમનાં સુંવાળા માર્ગ તરફ દોરતાં અને જૈનશાસનની મહત્તા સમજાવતાં પ.પૂ. મહાપ્રતાપી ગુરુદેવ કહી રહ્યા છે કે જૈન શાસન હરહંમેશ ત્યાગને પ્રધાનતા આપતું આવ્યું છે. રાગ સાથે એને મેળ નથી. વિરાગ સાથે એને સૌ સૌ જુગનું સગપણ છે, જૈનશાસનની કોઈપણ ક્રિયા, કોઈપણ અનુષ્ઠાન, રાગની સાથે સગપણ તોડી વિરાગ સાથે પ્રીત જોડી વૈરાગ્યનું માધ્યમ જ વીતરાગ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરવા માટે છે. **** જૈનશાસનના પ્રીતીયોગ, ભક્તિયોગ, જ્ઞાનયોગ, ક્રિયાયોગ કે બધાય યોગો આત્માને સંસારમાંથી ખેંચી કાઢી અસંસારી અવસ્થામાં માટે જ છે. મૂકવા મહાન ઉપકારી એવા પૂ. ગુરુદેવ એમની અમૃતવાણીમાં સમજાવતાં કહી રહ્યા છે કે, આધુનિક શિક્ષણથી મગજનો ખાં બનેલો નવો ફાલ મા-બાપની બધી સમજાવટ પર પગ મૂકી ઘરે મિશનની પ પ્રેમ આધુનિક સાધનો વસાવવાની ધુનમાં જ રમતો નજરે ચડે છે. આ બધી અનર્થની પરંપરાના મૂળમાં ધર્મ મહોત્સવો પણ ભાગ ભજવી જાય છે એ ખરેખર ખૂબ જ દુઃખની વાત છે, ધર્મના મહોત્સવો અને અનુષ્ઠાનોને, ધર્મના સ્થાનોને અધર્મના સાધનોથી જેટલાં આપણે વેગળા રાખશે. એટલી ધર્મસ્થાનોની તાકાત વધશે. કોઈ પણ ધર્મસ્થાન એ ઉંટ-મટોડીનું કે સીમેન્ટ સાધ્વીજીશ્રી સ્વયંપ્રભાશ્રીજ કોક્રેટનું ઊભું કરેલું એક મકાન છે. . P શ્રીમક ોનો યુજરાતી વિભાગ Ab એ આપણી ભૂલ છે. ધર્મસ્થાનો તો પ્રત્યેક ધર્મ-પ્રેમી આત્માઓને આદર્શો અને ઉપદેશોના સંદેશા પહોંચાડનારી પાર્લમેન્ટો છે. ધર્મસ્થાન એ તરવાના સ્થાન છે. તરવાનાં સ્થાનોમાંથી આપણે તારક શક્તિ જ લૂંટી લેશું તો એ સ્થાનો માત્ર દેખાવના જ ધર્મસ્થાનો રહેશે. આ લક્ષ્ય જ્યાં સુધી નહિ આવે ત્યાં સુધી બધા પ્રશ્નોનો કોઈ ઉકેલ આવે એ શક્ય લાગતું નથી. આ રીતે પ.પૂ. વર્તમાનાચાર્ય પોતાની મધુરભાષી વ્યાખ્યાનશૈલી દ્વારા ગામ નગરે વિચરતા સત્ય વસ્તુનો બોધ પાડી રહ્યા છે. જેમની વ્યાખ્યાન શૈલીનાં પ્રભાવે જૈનેત્તરો પણ તેમનાં સંસર્ગમાં આવ્યા. પૂ. ગુરુદેવે પ્રબળ પુરુષાર્થ કરી ઘણા જૈનેત્તરોને જૈન બનાવ્યા. આમ આજે પણ પૂ. ગુરુદેવ શાસન અને સમાજનાં મહાન કાર્યો. કરી રહ્યા છે. એવા પૂ. ગુરુદેવનાં જીવનચરિત્ર દ્વારા મને તેમનામાં રહેલા ગુણો, તીનદ્ધિ અને એમનાં કાર્યો જોતાં મને એમ જ થાય છે કે હું ક્યા ગુણોનું વર્ણન કરૂં ? જો કે તેમનાં ગુણો વાણી દ્વારા અવર્ણનીય છે લખવું તે મારી શક્તિ બહારની વાત છે, છતાં પણ પૂ. ગુરુદેવનાં ગુણનું વર્ણન કરવા ઉત્સુક બનેલી એવી હું યથાશક્તિ વર્ણન કરૂં છું. પૂ. વર્તમાનાચાર્ય, ગંભીર ગચ્છાપતિ પ.પૂ. પતિન્દ્રસૂરીશ્વરજ મ.સા.ની નિશ્રામાં રહી શાનાભ્યાસ કરતાં હતા. પૂ. વર્તમાનાચાર્થમાં વિનયનો અજોડ ગુણ હોવાનાં કારણે સમુદાયમાં સર્વેને પ્રિય બન્યા. ગુરુદેવની આજ્ઞા, ગુરુદેવની સેવા, અને તેમનો વિનય એ જ તેમનાં જીવનનો શ્વાસ છે. તેઓ કદી ગુરુદેવથી દૂર બેસતાં ન હતા. જ્યાં ગુરુદેવની દ્રષ્ટિ પડે ત્યાં જ બેસતા હતા. વિનયની મહત્તા અને અર્પણતાનો મહિમા અજોડ છે. જીવનમાં સર્વ સિદ્ધિઓ હસ્તગત કરવાની અને ગુરુભગવંતોના હ્રદય ખજાનો ખોલી રત્નત્રય પ્રાપ્ત કરવાની ચાવી હોય તો તે વિનય છે. વિનય એ સમસ્ત ગુણોનો શણગાર છે. સમસ્તગુણો વિનયને આધીન છે. સરળતા નમતા નિરાભિમાનતા, અને ભક્તિભાવ, સહનશીલતા, સેવ, શાસન અને સમાજ ઉત્થાન કરવાની ભાવના વિ. સર્વ ગુણો વિનયમાંથી ઉદ્ભવે છે. વિનય જેવી બીજો ગુષ્ઠ અર્પણના છે. પૂ. વર્તમાનાચાર્યનાં જીવનમાં સમર્પિતભાવ અને વિનયણ અણુએ અણુમાં વ્યાપી ગયો છે. જેનાથી પૂ. ગુરુદેવનું જીવન આવી અર્પણનાના અત્તરની સૌરભથી મહેકતું રહ્યું છે, અને વિનયની અદ્ભુત પ્રભાથી પ્રકાશિત છે. પૂ.ગુરુદેવ યતિન્દ્રસુરીશ્વરજી મ.સા.ના સાંનિધ્યમાં રહી તેમણે સંસ્કૃત,પ્રાકૃત, ન્યાયશાસ્ત્રોનું અજોડ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યુ છે. ક્યારે પણ ગુવિજ્ઞાનું ઉલ્લંઘન કર્યુ નથી. ૫.પૂ.વર્તમાનાચાર્ય પોતાનાં સ્વાનુભવથી કહે છે કે, વિનયનાં આસન વિના જ્ઞાનનાં બેસણા ન હોય !” આવા છે અમારા શાસનોધ્ધારક પરમ નાકે સંયમ ના.પ.પૂ. ગુરુદેવ ! - પૂ. વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ્વિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજીના વ્યાખ્યાનના અંશો ૨૮ इच्छाओं का जगत में, कभी न होता अन्त । जयन्तसेन अनादि से, कहते ज्ञानी सन्त ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પેપરાલનું પુષ્પ (જે પુષ્પની સુગંધ સમગ્ર જૈન સંઘમાં પ્રસરી) (પૂ. સાધ્વીજી શ્રી મોક્ષગુણાશ્રીજી મ.) * સંસ્કૃતીમાં ન પુરુષો આ વિભુતીઓનો આ ભરત ભૂમિના આભુષણ રૂપ અને પુણ્ય લક્ષ્મીએ જ્યાં બન્યો. સંઘ પાસે સાધુ સમુદાયમાં જ્ઞાની. ત્યાગી. દુરદર્શી અને નિવાસ કર્યો છે, એવા ગુજરાત નામે પ્રદેશ છે. તે ગુર્જર પ્રદેશમાં સમર્થ વિદ્વાન મુનિ શ્રી યંતવિજયજી હતા. જેથી સમસ્ત ત્રિસ્તુતિક જૈન ચૈત્યો વડે સ્ત્રી પુરુષોને આનંદ આપનારી લક્ષ્મીથી ભરપુર સંઘની આંખ એમના ઉપર મંડાણી.. સંઘે તેઓશ્રીને આચાર્યની સર્વ સુખના સ્થાન રૂપ સુંદર થરાદ (થીરપુ૨) નગરી છે. મહાન જવાબદારી સ્વીકારી નેતૃત્વ પુરું પાડવા વિનંતી કરી, - તે નગરીની અંદર સ્થાને સ્થાને આકાશને સ્પર્શ કરતાં તમારા તેઓશ્રીએ સંઘના આદેશને શિરોમાન્ય ગણ્યો. અને સમસ્ત ચતુર્વિધ ચૈત્યોના શિખરપર સુવર્ણના કળશો રહેલા છે. તેની કાંતિવડે જાણે સંઘની ઉપસ્થિતિમાં રાજસ્થાનના ભાંડવપુર મુકામે સંવત ૨૦૪ ના તે સુનિ પણ ઉલ્લંઘન કરતા હોય તેમ નિરંતર શોભે છે. તેવી મહાસુદી ૧૩ ના દિવસે અતિ ઉત્સાહ સાથે આચાર્ય પદવી પ્રદાન થરાદ નગરીને આંગણે ધર્મ પ્રત્યે શ્રધ્ધાનો અમર દીપ જલી રહયો કરવામાં આવી સમસ્ત સંઘની મહાન જવાબદારી સોંપવામાં આવી. આચાર્ય પદવી મળતાંની સાથે તે જ વખતે જેમ સોનામાં સુગંધ ભળે તેવો પ્રસંગ બન્યો. નુતન આચાર્ય શ્રી યંતસેનસૂરીશ્વરના આપણું ભારત વર્ષ એ સંતો સાધુઓ અને મહાન વિભુતીઓનો હસ્તે થરાદની બાલિકા. મંજુલાબેનને દીક્ષા આપવામાં આવી, અને દેશ છે. ભારતે વિશ્વને અનેક મહાન પુરુષો આપ્યા છે. આવા મોક્ષગુણાશ્રી એવું નામ આપી પ્રસંગને વધુ દિપાવ્યો. ધર્મગુરુઓએ જ ભારતીય સંસ્કૃતીમાં પ્રાણ પૂર્યા છે. સમાજ અને ધર્મક્ષેત્રે આચાર્યશ્રી નું પ્રદાન :જૈન ધર્મના ઈતિહાસમાં પણ અનેક મહાન પુરુષો ધર્મના કાર્યમાં વેગ આપી, પ્રજાને ધર્મમય રાખી શિષ્ટ સાહિત્યનું સર્જન કાશમીરથી કન્યાકુમારી સુધી ઉગ્ર વિહાર કરી જૈન ધર્મની કરી અમર બન્યા છે. યુગે યુગે આવા ધાર્મિક પુરુષો મેળવવાને ધજા ફરકાવી જિનાલયોનો જિર્ણોધ્ધાર ધાર્મિક શિક્ષણને વેગ એમનો. સમાજ ભાગ્યશાળી બન્યો છે. વર્તમાન યુગમાં ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘ જીવન મંત્ર બન્યો. એમના વ્યાખ્યાનથી પ્રભાવિક અનેક કુમાર આવાજ એક મહાન વિભુતી આચાર્ય શ્રી યંતસેનસૂરીશ્વરને પ્રાપ્ત કુમારીકાઓ પ્રવજ્યા અંગીકાર કરી ભાગ્યશાળી બન્યા છે. શાંત કરી ગૌરવ અનુભવે છે. સ્વભાવ, મીત ભાષી, ઊંડી હૈયાસુજના કારણે સમાજના અનેક જટિલ પ્રશ્નો ઉકેલી સમાજને વધુ સુવ્યવસ્થિત બનાવ્યો. ભાંડવપુર, સંયમી જીવન : શંખેશ્વર જેવા તિર્થોમાં જિન મંદિરો અને ગુરુમંદિરોનું સર્જન | બાળપણથી જ સુસંસ્કારો, માતા પિતા તરફથી મળેલા જ કરાવ્યું. આજે પણ સમાજને નેતૃત્વ પુરું પાડી રહયા છે અને હતા. અને એમાં ગુરુનો સમાગમ થયો. પછી તો દુધમાં સાકર ભળે પાડતા રહેશે. તેમ શ્રી યંતવિજયજી સાધુ સમુદાયમાં અને સંઘમાં પ્રિય બન્યા એમની આગવી સુજ નવું ઘન પ્રાપ્ત કરવાની તત્પરતા અને મધુકર-મૌક્તિક સેવાના ગુણોએ એમની પ્રગતિને વેગ આપ્યો. સાધુ જીવનમાં તેઓશ્રીએ વ્યાકરણ કોશ અલંકાર અને સિધ્ધાન્તના ગ્રંથોનું અધ્યયન | ભાવની શક્તિ પ્રગાઢ થઈ જાય છે. ત્યારે ભવની કર્યું. તેમજ દર્શન અને જ્યોતિષ શાસ્ત્રનો પણ ઊંડો અભ્યાસ શૃંખલા પણ ક્ષીણ થઈ જાય છે, તેમાં કોઈ સંદેહ નથી, કર્યો. સાધુ જીવનમાં જ તેઓ શ્રી. સાધુ સમુદાય સાથે સ્વતંત્ર પ્રગૂઢ ભાવોના અન્તસ્તલને સ્પર્શવા પૂર્વમાં કહેવાયું છે કે 'ચાતુમસિ કરી એમના જ્ઞાનનો લાભ સંઘોને આપવા લાગ્યા. અને પ્રાર્થના પરમ સહાયક થઈ શકે છે. જેના સામે ભવ એ રીતે ધર્મ પ્રભાવના વધારતા. શક્તિનો હ્રાસ થઈ જાય છે.” વધારતા તેઓશ્રી એમની પ્રગતિને પણ | ક્રોધનો દાવાનળ એને બાળતો રહે છે. એટલું જ નહિ વેગ આપતા રહયા. પરંતુ સર્વ નાશના તરફ પ્રેરે છે. ભયંકર જંગલમાં લાગેલો આચાર્ય જીવન - દાવાનળ રાક્ષસની પેઠે જેમ સર્વ નાશ કરી દે છે, તેવી જ રીતે જીવનપ્રદેશના ગુણાઢ્ય વૃક્ષને ક્રોધનો એ દાવાનળ દરેક સંઘને નેતૃત્વ પુરું પાડે તેવા ભસ્મીભૂત કરી નાંખે છે. જો સમય અને શક્તિઓ વેડફી પ્રભાવશાળી જ્ઞાની ધર્મમય અને ત્યાગી નંખાઈ અને તેને ઉપશાન્ત ન કરાયો તો પછી સાધક ગુરુની આવશ્યકતા રહે, જે સંઘને માનની અંધારી કોટડીમાં ફરતો જાય છે. હવાતીયાં મારે. ધર્મમય સુવ્યવસ્થિત રાખે. આચાર્ય શ્રી છતાં તે કંઈ પણ દેખી શકતો નથી. તેને નથી સમજાતું કે વિદ્યાચંદ્રસૂરીશ્વરજીના કાળ ધર્મ બાદ, હું શું કરી રહચો છું ? પૂ. સાધ્વીજી શ્રી ત્રિસ્તુતિક સંઘ આચાર્યશ્રીની ગાદી ઉપર - જૈનાચાર્ય શ્રીમદ્ જયન્તસેનસૂરિ મધુકર” મોક્ષગુણાશ્રીજી મ. લાયક સાધુને સ્થાપિત કરવા ચિંતાતુર ૨૯ पर के छिद्र न देख तू, अपनी कमियां देख। जयन्तसेन विमल सदा, लगे लेख पर मेख ।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શાસન પ્રભાવક (પૂ. સાધ્વીજી અનંતદૃષ્ટાશ્રીજી મ.) ગુરુ કલ્પતરુ સારિખા, સોહે શાસન બાગ, કરતાં વિરતિ રમણીના સ્વામિ પાંચ મહાવ્રત રુપ પંચ મેરૂના. વીરાગ પુષ્પોને વેરતો અંતરમાં નહી દાગી ભારને ખેદ રહિત પણે વહન કરતા. પકાયની રક્ષારૂપ જિન પર ઉપકાર તે પર્ણ છે. ઉપશમ રસની વેલ. જન્માભિષેકની છ-છ શિલાઓ સહિત સર્વત્ર નિમલ ભાવનાની પુષ્કરીણી સહિત કષાયનું નિકંદન કરનારી નવ બ્રહ્મચર્યની વાડ રૂપ આશિષ અપ આપના, છુટે કર્મની જેલ. . નવ ફૂટ રૂપ સહિત વિરાગ વેલાથી વિંટાયેલ અનુભવના ઝૂલે ઝુલી મિથ્યાત્વ અને અવિરતિ રૂપ રજનીના ઘોર અંધકારથી રહયા છે. આપને વિષે સમભાવ રૂ૫ સમતુલા છે. મંદરાચલના બી.ડાયેલા હૃદય કમલોને સમ્યકત્વરૂપ પરોઢ પ્રગટાવી, શ્રદ્ધા રૂપ શિખરે દિવાકર અને નિશાકર વતુ આપ કાંત ગુણથી યુક્ત છો. પ્રકાશના પુર રેલાવી સર્વ રુપેણ ખીલવનારા શાસન દિવાકર, ધાતુઓમાં સર્વ શ્રેષ્ઠ ચારિત્ર નામની સુંદરી. સાથે પાણિ ગ્રહણ કરી સત્યને પરમ મંત્ર માનનાર, સત્ય માટે સર્વસ્વનું બલિદાન કરવાને પીત વર્ણ મય બની. મેરુ ગિરિને પણ ટપી જાઓ છો. સસજજ. અન્યાય રૂ૫ શિયાળો. સામે સિહની ત્રાડ ગર્જના કરનાર. ઓ શાસન ગનના નિષ્કલંકી ચાંદ શુ આપશ્રીને ગુગનાંગણે. શાસન સેવાને પરમ ધર્મ લખી સહસ્ત્ર મલ્લને પણ હંફાવે તેવું પ્રતિષ્ઠિત ચાંદલીયાની ઉપમા આપું ! ના, ના, ના રાત્રિને વિષે જ મરદાનગી ભર્યું જીવન જીવનાર, અહિંસાના ભેખધારી, શૌર્યના પ્રકાશ વેરનાર રાહથી ગ્રસિત ચંદ્રમામાં તો કલંક છે. જ્યારે પૂજારી, વિશ્વ પ્રેમી, પંચમ ગણધરની. ૭૩મી પાટે વિરાજીત, આપશ્રી તો સર્વ કાળે શીતલતાની. અમીવર્ષ કરતા કુવાહી રૂપ ગુરુદેવશ્રીની યશ પતાકાનો. વાવટો દશે દિશામાં લહેરાવતા, ત્રિતિક રાહુથી અગ્રસિત શાસનની. સંધ્યાએ સોળ કલાએ નિખરી ઉઠેલા. સમાજના લાડીલા અગણ્ય-ઉપકારોની અમરધારા હેલી વરસાવતો, નિષ્કલંકી કલાનિધી છો. સિદ્ધિતપના સંદેશ વાહક, તૃતીય પદ ભોક્તા, અધ્યાત્મ સમ્રાટ હે ઈન્દ્રિય વિજયી ! ઈન્દ્રિયોના બેલગામ ઘોડા પર લગામ પ.પૂ. ગુરુદેવ શ્રી યંતસેનસૂરીશ્વરજી મહારાજા જયવંતા વર્તી - - - - - - વિજયવંતા વ - યુગ યુગ સુધી અમર રહો. સર કરી વૃત્તિઓ પર ગજબનાક વિજય મેળવી રહયા છો. - જ્ઞાનાચારમય પર્ણ, દર્શનાચારમય પુષ્પ, ચારિત્રાચારમય ફળ, - - - - હે આ વિજય સામે તો નરેન્દ્રો, દેવેન્દ્રો અને ચક્રવર્તીઓના તપાચારમય શાખા અને વીચારમય પ્રશાખાથી સુશોભિત, સંસારની | વિજય પણ વામણા. ભાસે છે. અગ્નિ વાલાથી સંતપ્ત જીવોને શીળી છાંયની દેન કરી આશ્રય અરે ઓ ઉગ્ર વિહારી સદા ઝંઝાવાતો સામે ઝઝૂમતા. આપ સ્થાન બનનાર હે શાસન બાંગ કલ્પતરુ! ઘનઘોર આકાશ પટમાં. બળે વિપ્નો નિવારતા અને માર્ગ કાપતા જીવન વિગ્રહની પાવનકારી. માર્ગ ભૂલ્યા કો. માનવીને વીજળીનો એકાદ ચમકારો પણ દીવાદાંડી જ્વાળાઓમાં પોતાની રહી-સહી કાલિમાને ઓગાળી. કુન્દન સ્વરૂપે બની. હર્ષની ભેટ ધરે છે. તેમ આપશ્રીના પ્રથમ પરિચય કિરણે જ બહાર લાવતાં અન્યને તેજસ્વિતા અને પ્રેરણાનું પાન કરાવતાં આપના અનંતગુણ રૂપ મેઘને જોતાં મન મયુર નાચી ઉઠ્યો ભવ્યજનોના પથદકિપી. વિહાર ભૂમિને આપશ્રીના ચરણારવિદથી ભવાટવીમાં ભૂલી પડેલી મને સત્યરાહ બતાવી શીળી છાંયડીની પાવન કરી રહયા છો. બક્ષિસ કરી. જિન શાસનના વિજય ધ્વજને અણનમ રાખનારા ઓ જિન | હે સમતારસ ભોગી. ! આપશ્રીની અલૌકિક તેજ ભરી શાસન મશાલચી ! આપશ્રીના. લોહીનાં અણુ-અણુમાં જિનશાસનનો સમતાસહ વંદના કૃતિ સામે દેવાંગનાઓના રૂપ પણ પાણી ભરે છે. અવિરત રાગ ઉછળી રહયો છે. શાસનની આરાધના-પ્રભાવના માટે પાણી. અને સૂર્ય પણ ઝાંખા પડે છે. તે પ્રતિભાના તેજ કણ | જીવન નિઃશેષ નીચોવી. રહયા છો. શાસન રક્ષા કાજે આપશ્રીના. વિણવાને અશક્ત હોવા છતાં અક્ષરમાં અમર કરવાને હું લાલચી હૃદયદીપ વડે ચિંતવનની ચિનગારી જ્વલંત પણે વસે છે. સિદ્ધાંતની. બની. છું. જલતી મશાલ. હાથમાં રાખી ધર્મવીર યોદ્ધા બની. કર્મ ભૂમિમાં હે મંદર ગિરિને મહાત કરનારા લડાયક ભાવોથી કોઈની પણ શેહ-શરમમાં આવ્યા વિના નિડરતાથી મહારથી. ! આપશ્રીના જીવનકવનમાં અદ્ભુત, અપૂર્વ શાસન પ્રભાવના પૂર્વક વિરાટ અને ભવ્ય કાર્યોને વિનય, વિવેક અને વિરતીની ત્રિજ્યાની સાંગોપાંગ પાર ઉતારતા જૈને જયંતિ શાસનમ્ ના. દિવ્ય-નાદનો જેમ વળી. જ્ઞાન રૂપ ભદ્રશાલવન દર્શન સુઘોષા ઘંટ દિગંતમાં ગજાવી રહ્યા છો. રૂપ, નંદન વન ચારિત્ર રૂપ સોમનસ I આપશ્રીનો પુન્ય પ્રકર્ષ અભૂત હોવાથી શ્રીમન્તો અને વનની જેમ ત્રિવેણીનું સંગમ સ્થાન રૂપ | સતાધીશો પ્રત્યે આપશ્રીની. અપ્રતિમ છાપ પડે છે. પડતો. બોલ. પ્રયાગ આપશ્રીનું જીવન છે. વળી તેના કદી ઉથાપાતો નથી. આપશ્રીના વચને લક્ષ્મીના વરસાદ વર્ષે છે. શિખરે કલશ સમાન પાંડુક વનમાં અને ફળ રૂપ ગુણ રાશી. જેનો સાગરથી યે વિશાળ છે. એવા જ્ઞાનામૃતનું પાન કરતાં, ધર્મધ્વજને ધારણ ગંભીરતા પૂર્વકના જ્ઞાન ગુણથી, આંબાની. માફક લચી રહેલા (અનુસંધાન પાના ક્ર, ૨૪ ઉપર) શ્રીમદ્દ જયારેનરિ અભિનન્દન થિ, રાજરાતી વિભાગ GO लोभ मोह अरु राग हि, उत्पादक हैं द्वेष । जयन्तसेन अनुचित यह, करना त्याग हमेश ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I || પ્રભાવી જૈનાચાર્ય || (પૂ. સાધ્વીજી શ્રી દર્ષિત કલાશ્રીજી મ.) | દર્શન તેં દૂષિત નાશ, ભક્તિન તેં ભવ ત્રાસ વ્યસની ગુરુદેવની ગૌરવપ્રદ જ્ઞાનસાધના ! પ્રવચનાદિ દ્વારા તેમના. વન્દન તે વાંછિત મિલે, આલોકિત ફલે આશ | મુખારવિંદથી વાણીસુધાનું પાન કરવું એટલે જીવનનો અનુપમ લ્હાવો ! બૃહસ્પતિ કે વીરવાણી. સરસ્વતીનો જાણે સાક્ષાત્કાર ! શરદઋતુનું સોનેરી પ્રભાત ! મનને મહેકાવતો સુમધુર સમીર! જ્ઞાનરસિયા જીવોને ખવડાવી-પીવડાવી તૃપ્ત કરે તેવો ‘જીવન ઐસા. પંખીઓનો મીઠો કલરવ ! ચોમેર છાયેલી લીલી હરિયાળી ! ઉગતા હો', ભગવાન મહાવીરે શું કહયું ? વગેરે અનેક પુસ્તકો ગ્રંથો. રૂપ સૂરજના સોનેરી પ્રકાશથી. હસતી પ્રકૃતિ ! સહસા એક નજર સામે કસાયેલી કલમે ભેટ કરેલો રસવંતીનો રસથાળ ! ‘સતસઈ’ અને ગઈ આશ્ચર્ય ! આ શું ? આભનો સૂરજ ધરતી પર ! ના. તો ? ' ચિપ્રવાસી’ રૂપ ચિંતનનું ચૂર્ણ ! ‘ભક્તિસંગમ' 'તીર્થવન્દના', આ કોણ ? આ તો પેપરાલના પૂનમચંદ ! મિથ્યાત્વને હરનારા *પ્રીતિબાંધી. પ્રભુ સાથે’ વગેરે રૂપ પ્રાચીન-અર્વાચીન ગેય ભાષામાં ધરતીના સૂર્ય ! વિ. સં. ૧૯૯૩ની કાર્તિક કૃષણા. ત્રયોદશીએ પ્રગટેલ. વાણી સુધાનું સર્જતા વિદ્વાન લેખક અને આશુઃકવિની વાણીને ધરૂકુલ દિનમણિ. ! પંચમંગલ મહાશ્રુતસ્કંધના પરમાનંદમાં મશગૂલ અંતરમાં ઉતારનાર. પાર્વતીનન્દન ! સ્વસ્વરૂપને મેળવવા સોળ વર્ષની સુકુમારવયે સંયમી, થયેલ સ્વરૂપચંદજીના લાલ ! વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ ગુરુવર્ય સાહિત્ય મનિષી. ગુરુદેવનો સર્જન સાથે સંશોધન પ્રકાશનમાં યતીન્દ્રસૂરીજીના સુવિનય શિષ્યરત્ન મોહ-મમતાના મારક મુનિરાજ | ય અદ્વિતીય ફાળો, દાદા ગુરુદેવશ્રી કૃત દેવવંદન માળા. એ તેમનું શ્રી જયંત વિજયજી ! વરમાળાને વરતાં. જિન શાસન દિવાકર જ સંશોધન ! ‘અભિધાન રાજેન્દ્રનું પુનઃ પ્રકાશન તેનો અદ્વિતીય આચાર્ય શ્રી જયંતસેન સૂરિ ! નમૂનો! ‘શાશ્વત ધર્મ' માસિકની પ્રગતિ-પ્રસિદ્ધિમાં પણ તેમની જ | પ્રેરણાનું પ્રાધાન્ય ! પૂજ્ય ગુરુદેવશ્રી. એટલે જ્ઞાનનું હાલતું ચાલતું કેવી પ્રસન્ન મુખમુદ્રા ! પ્રશમરસનું પ્રદાન કરતી. પાવન ‘વારિગૃહ’ ઉગ્રવિહાર વચ્ચેય અવિરત સાહિત્ય-સર્જન ! મોહનખેડાપ્રતિભા ! સૌમ્ય છતાં તેજસ્વી વદન જાણે શીતલ પ્રકાશ વેરતાં ભાંડવપુર, ઝાલોર, પાનસર આદિ તીર્થોમાં યોજાયેલ યુવાશિબિરો, સહસ્ત્ર કિરણો ! નિર્વિકાર નયનોમાંથી નીતરતું તેજ જાણે. શાનદાનની પરબનું સુંદર પ્રતીક ! છ'રી પાલક તીર્થયાત્રા સંઘ અને અમૃતધારા ! હૃદય તો જાણે વાત્સલ્યનો મહાસાગર શાસન સેનાનીનો સંસ્કાર-સંસ્કૃતિની સુરક્ષાની જાગૃતિના બેનમૂન સાક્ષી ! ઉત્કૃષ્ટ સુંદર ગણવેશ ! આત્મધનને ઉજ્જવલ બનાવવાની મૂક પ્રેરણા જ્ઞાન-ધ્યાનની સાથે જ ઉત્તમ કોટિની તપસ્યાનાં સ્વામી ! દૈનિક આપતાં. ખાદીનાં જીણું પ્રાય : સ્વેત વસ્ત્ર ! સાદું જીવન અને ઉચ્ચ વીસ-વીસ કલાકની પ્રવૃત્તિથી ભરેલું જીવન ! તોય છઠ-અટ્ટમ વિચાર એ ઉક્તિનું સચિત્ર દર્શન કરાવતી ચિત્ર પ્રદર્શની ! પ્રથમ અઠ્ઠાઈ-દસ ઉપવાસની તપશ્ચય ન કોઈ ઈચ્છા ન મૂચ્છ[ ! નજરે જ દર્શકનું દિલહરે તેવી. મનોહર મૂર્તિ ! ચંચળ ચિત્ત સ્તબ્ધ તૃષ્ણા તો લવલેશ નહિ ! જેના દર્શનથી દુરિત નષ્ટ થઈ જાય. જૈન થઈ જાય ! બહારથી ય અધિક મનમોહક આંતર વ્યક્તિત્વ ! તો શું જૈનેતર પણ અનુસરે ! માનવમાત્ર શું તિર્યંચ પણ પામી. અનુપમ જ્ઞાન-ધ્યાન-તપ-ત્યાગના અજોડ સાધક ! અનુશાસન અને જાય ! નિયમિતતાનાં ચુસ્ત આગ્રહી. શાસ્ત્રનિષ્ઠસમતાના સાધક ! નમ્રતા અને સરળતાની મૂર્તિ સૂરિમંત્રના આરાધક, પાસનાય, ધ્યાનસ્થ | સ્વ-પરનાં. આત્મકલ્યાણ હિતેચ્છુ ગુરુદેવશ્રીને જ્યારે જોઈએ. ગુરુદેવને જોતાં જ યાદ આવે પૂર્વના ઋષિ-મુનિઓ ! વનવગડે ત્યારે એક જ ચિંતન ! એક જ મનન ! એક જ ધ્યેયને ધ્યાન ! ધ્યાન ધરતાં. મહર્ષિઓ ! પરમષિઓ ! . સંઘ અને સમાજની હિતની જ એકમાત્ર ધૂન ! કેવી રીતે આ સંસારના સવિજીવ શાસન રસી થાય ? આત્મકલ્યાણનાં પરમપંથને બાલ્યવયથી આજ સુધી અનેક શાસ્ત્રોનો અભ્યાસ ! આગમ | પામે ? એજ ઝંખના ! એજ તમન્ના ! પૂજ્યશ્રીની નિશ્રામાં થતી સિધ્ધાંત, શાસ્ત્ર, ન્યાય-કોશ, વ્યાકરણ, ‘નવકાર આરાધના’ તેની અલિપ્ત તસ્વીર ! “યુગ યુગની યાદ’ જ્યોતિષ કોઈ વિષય બાકી. નહિ ! આપે તેવું સ્વ વતન થીરપુરમાં વિ.સં ૨૦૪૪ નું શાસન પ્રભાવક ગીતા, રામાયણ, મહાભારત, વેદ, કુરાન, ચાતુમતિ પ્રાચીન અવચિી.ન વિકાસ, જિનમંદિર, જ્ઞાનમંદિર, બાઈબલ વગેરે જૈનેતર ગ્રંથોનું યે ગરુમંદિર જ્ઞાન ભંડાર, પાઠશાળ ઉપાશ્રય વગરની સ્થાપના., તલસ્પર્શી જ્ઞાન ! સ્વ-પર તત્રવિદ્ ! પ્રતિષ્ઠા, ઉદ્ધાટનનું સાહજિક વ્યસન ! માત્ર પાંચ-છ વર્ષના. પદર્શનના. જ્ઞાતા ! ગુજરાતી, હિન્દી, સૂરિપદ પયયિમાં. મનને મંત્રમુગ્ધ કરનારી ૧000થી વધુ જિનબિંબોની. મારવાડી, માલવી, મરાઠી, કન્નડ, તેલુગુ, અંજનશલાકા પ૦ થી ય વધુ પ્રતિષ્ઠાઉદ્ઘાટન, જિર્ણોધ્ધાર, તમિલ બંગાળી, બિહારી, પંજાબી, સાહિત્ય-વિમોચન વિ. એમાંય અથાગ પ્રતીતિ કરાવતી. દૂધવા, ફારસી, અંગ્રેજી, ઊદ્ વગેરે અનેક થરાદ અને ભાંડવપુર ચતુર્મુખ ગુરુમંદિરની પ્રતિષ્ઠાઓ ! મસ્તક ભાષાઓ પર પણ માતૃભાષા. તુલ્ય ઝકાવતી. ભરતપર ‘કીતિ મંદિર' અને શંખેશ્વર ‘નવકાર મંદિર’જવી. પૂ. સાધ્વીજી શ્રી દષિત કાબૂ. પ૩ વર્ષની પ્રૌઢવયે પણ સતત ભાવિ યોજનાઓ ! સામાજીક ક્ષેત્રે પણ શાળા, કોલેજ, દવાખાનાં, કલાશ્રીજી મ.. - વાંચન-લેખન, ચિંતન, વગેરે દ્વારા વિધા. પાંજરાપોળ આદિની અંદર પ્રેરણા ! ૩૧. बाहर से अनुनय करे, भीतर राखे द्वेष । जयन्तसेन कुटील की, इसी नीति से क्लेश ।। www.jainelibrary on Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ માત્ર સ્થાવર જ નહિં કિન્તુ જંગમતીર્થ માટે પણ અમૂલ્ય ભીંગ ! પાંચ જ વર્ષમાં પાંત્રીસથી ય વધુ આત્માઓને પ્રવજ્યાનાં પુનિત પંથે વાળી અનેકને વૈરાગ્યવાસીત બનાવતા ‘દીક્ષા દાનવીર’ વ્યસનીઓને ય વ્રત-નિયમના ધારક બનાવવાની અજોડ સિધ્ધિ. ઉગ્રવિહાર દ્વારા ભારત વર્ષને ખૂણે ખૂણે ફરી વીરવાણીની રસલ્હાણ વરસાવનાર ! દિન-ધૂની રાગ ચૌગૂની રીતે ફૂલતો ફાલતો ગુરુગચ્છ પૂજ્યશ્રીનાં પરિશ્રમનું જ ફળ. સુવિશાલ સંઘ સમાજ અને સમુદાયના સંગઠન માટે સતત પ્રયત્નશીલ ગુરુદેવ ! મૃદુવાણી વર્લ્ડ વેર-વૈમન્વસ્થને મિટાવવાની અજોડ કા ! દૂધવા પ્રતિષ્ઠાનો તાજેતરનો જ નમુનો ! સમાજ સંગઠન માટે સ્વ.પૂ. ગુરુદેવ પીન્દ્રસૂરિ સ્થાપિત અખિલ ભારતીય રાજેન્દ્ર નવયુવક પરિષદ' ના પ્રાણ ! પરિષદના માધ્યમે, પોતાના માર્ગદર્શન હેઠળ સમાજને સુશિક્ષિત, સુસંગઠિત સમૃદ્ધ અને સુદ્દઢ બનાવવા સતત પ્રેરણા ! વ્યસન-ફેશનમાં ફસાયેલી યુવાપેઢીની દીવાદાંડી ગુરુદેવ ! નિખાલસ પ્રકૃતિ મીનભાષી ગુરુદેવે યુવાનોનાં દિલને વશ કર્યું એટલુંજ નિહ TUE 1918 (રાગ- ધળી માનો કાગળ) પાર્વતીબાનો પુત્ર પનોતો. સ્વરૂપચંદનો નંદ રૂડો રૂપાળો ને દેવ દૂધારો રઢિયાળો પૂનમચંદ ગજાવતો ધર્મવારીનો ધોધ વહાવતો. વીર વાણી નો બોધ ભરતભૂમિના પશ્ચિમ કોણે છે સરહદનું ચોકીયાત બબ્બે સાહસ વરસો પુરાણું, ધીરપુર નગર પ્રખ્યાત પાક્યા જીવો પૂન્યતા હીરા ! શુરા ને સંત બહુ વીરા ૨ સંત ભૂમિ કહો, શૌર્યભૂમિ કહો કહોને વીર ક્ષેત્ર વિશાળ, થીરપુર સ્થાપક થીરપાળ ધરૂનું કુટુંબ વસે પીપરાળ, વસે જીહાં વડવા દેવચંદ નસ કુળમાં પાક્યો પરમાનંદ ૩) – ઓગણી ત્રાણુંની કાતી અંધારી, તેરશ ભલી ઉંમાલ, કુળદીપક આ વિનએ આવ્યો. સંધનો તારણહાર બાહ્ય વધુ ધીરપુર ગાળ્યો. ૪ ભણતરમાં જ્ઞાનોદય ભાળ્યો બાર વરસના બાળકને લાગ્યો જૈન શાસનનો રંગ યતીન્દ્રસૂરિના ચાતુતિ ઝાલ્યો ગુરુવરનો સંગ સંસ્કારો પૂર્વના જાગ્યા છ છ વરસ વિહારે લાગ્યા ૫ દોય સહસ ને દેશમાં દીક્ષા, લહાવો અનેરો લીધ, માઘની ઉજ્જવળ દશમી શિયાણે, જયંતવિજય પરસિધ પ્રીલ માસમાં મન જરાતી વિભાગ Instant D 'યુવાકય સપ્રાટ' ગુરુવર પ્રત્યે યુવાનોનું પણ અનોખું આકર્ષણ, એક જ અવાજે ઉઠનારાં પરિષદનાં દશ હજાર-થીય વધુ કાર્યકર્તા અને ચતુર્વિધ સંઘને જોનાર દંગ જ થઈ જાય | અમર રહો વીરપાટ (શ્રી પૂનમચંદ નાગરલાલ દોશી, થરાદ) સકલ સંઘ હર્ષ હિલોળે જય જયકાર પડઘા બોલે ફૂલે ફૂલે ફરી મધુ સંચય કરે, ભ્રમર મધુકર કહેવાય, “મધુકર” નામ પણ સાર્થક ધાર્યું, જ્ઞાન મેળવતા જાય ગઘ પદ્ય સાહિત્ય સેવા નિરભ્ર આકારો તારલીયામાં ચંદ્રમાની જેમ શિષ્યમાં વીંટળાયેલા મુનિગણના મહારાજા' મધુકર’જીનું કેટલુંય વર્ણન કરીએ, એ તો ગંગાજળનું એક આચમન ! ધન્ય હો ! બહુમુખી પ્રતિભા સંપન્ન, નિર્મળ જીવનગંગાના સ્વામી, ઝળઝળ જયવત્ત જ્યોતિ, જગત્ પૂજ્ય, તીર્થ પ્રભાવક જૈનાચાર્ય શ્રીમદ્ વિજય જયન્તસેનસૂરીશ્વરને કોટિશ ! વંદન ઘો વિશ્વ વત્સલ વિભૂતિને ! “પ્રસન્ન દ્રષ્ટિ પ્રશમરસ તપ તેજથી ભરી, અમીની ધારાઓ વહેતી, જગ કલ્યાણકરી. જયન્તસેન સૂરિ ચરણે, તો વંદના ભાવધરી; પ્રદર્શીત પાવન પંથે, આશિષ જસ કલ્યાણ કરી." 15 મળે જેથી મુક્તિના મેવા ભાંડવપુર શ્રી સંઘે મળીને, સોંપ્યું શ્રી ગચ્છ સુકાન ગચ્છાધિપતિ જયંતસેનસૂરીશ્વર, પષ્ઠિ પાટના ભાણ સહસ બે ચાલીશ રમઝમ Be pa માઘસુદ ત્રયોદશી ઉત્તમ ८ ઉપધાન ઉજામણાં પ્રતિષ્ઠા આદિ, વિવિધ તપશ્ચર્યા મનોહાર પગપાળા સંઘોની તીરથ યાત્રા, કર્મો ખમાવણ હાર નિશ્રા દેઈ, ભવ્યોને જોડે ભવભવનાં બંધનો તોડે ૯ શિષ્ય પ્રશિષ્ઠાદિ સુન્ન પરિવારે શ્રમણ વૃંદ સુધીર ગુર્જર મરૂધર મેવાડ ગાજે, શાંતિ વિજય થવીર વિજય નિત્યાનંદ વડેરા ૩૨ મુનિ મંડળમાં શોભે અનેરા ૧૦ અમર રહો જૈન ધર્મનો ઝંડો, અમર રહો વીર પાટ અમર રહે ગુરુ રાજેન્દ્ર પ્યારા, સંધની એહ અભિલાષ શિશે પૂનમ ઉર્ધ્વળ થાતો ગુણો નિત ગાઈ હરખાતો ૧૧ भेदभाव को छोड़कर, संप सूत्र दिल धार । जयन्तसेन रहो सदा, हिल मिल कर संसार । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગુરુવર પ્યારે (પૂસાધ્વીજી શ્રી જીવનકલાશ્રીજી મ.) પ્રતિ વરસ ભરાતો મેળો જોવા આવેલ એક યુવાનીને ઓટલે | તત્વજ્ઞાન વિષે અભ્યાસ કરવા લાગ્યા. અને સં ૨૦૧૦ મહાવદ પગ મૂકતો યુવક થરાદમાં આવ્યો અને તેને મનમાં પ્રેરણા થઈ જૈન ૪ના શુભ દિવસે રાજસ્થાનના સિયાણા નગરમાં એમને અતિ તીર્થોની યાત્રા કરવાની- એને એ પ્રાથમિક જ્ઞાન સાથે થોડુંક પણ ધામધૂમપૂર્વક દીક્ષા આપવામાં આવી અને તેમને પૂ.મુનિરાજશ્રી. ધાર્મિક જ્ઞાન ધરાવનાર પરંતુ સંસ્કારી માત-પિતાના સુસંસ્કારોથી. જયંતવિજયજી નામે ઘોષિત કર્યા. જે વખતે પૂ. આચાર્યદિવ સિંચાયેલ એ યુવક. પેપરાલથી થરાદ આવેલ યુવકનું નામ પૂનમચંદ | શ્રીમદ્વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજીના એ નાનામાં નાના શિષ્ય હતા. અને દેખાવે પણ પૂનમના ચાંદ જેવો, માતા પારૂબેનની કૂખે પરંતુ શિષ્ય કેટલી મહાનતા પ્રાપ્ત કરશે એની. કોઈને કલ્પના. અવતરેલો સરૂપચંદ ધરૂનો સુપુત્ર એ યુવક થરાદમાં આવ્યો ત્યારે નહોતી. તેના આત્મામાં વૈરાગ્યના રંગોની રંગાવલી ઘૂંટાઈ રહી હતી. સં ૨૦૧૦ થી સં ૨૦૧૭ સુધી પૂ. ગુરુદેવશ્રી સાથે રહી. અસુચી કાયા, ક્ષણભંગુર જીવન-સ્વાર્થના સગા-સ્નેહીઓ-મનુષ્ય જેવો. ગુરુદેવશ્રીની વૈયાવચ્ચ અને જૈન સિધાંતો અને શાસ્ત્રોનો અભ્યાસ અમૂલ્ય ભવ મળ્યા પછી, જો હું આત્મકલ્યાણ ન કરી શકું તો ફરી. અને પૂ. ગુરુદેવશ્રીને લેખનમાં મદદ આવાં કાર્યો પૂ. મુનિરાજશ્રી ક્યારે મનુષ્ય ભવ મળશે ? અને આવી. વૈરાગ્યમય સમજ સાથે જયંત વિજયજી કરતા હતા અને એટલે જ તેઓ શ્રી જૈન સિદ્ધાંતોનું માતા પિતાને પગે લાગી પૂનમચંદ થરાદ આવ્યો. કહયું છે કે એવી. ગહન અધ્યયન કરી. સંસ્કૃત પ્રાકૃત વિ.માં પારંગત થયા અને સં. કોઈ પળ હોય છે કે જે સમયે છીપમાં આસમાનમાંથી પડતું પાણી. ૨૦૪૦ની સાલમાં પ.પૂ. આચાવિ શ્રીમદ્વિજય વિદ્યાચંદ્ર મોતી. બની જાય છે. અને એવી એ પુણ્યશાળી પળ પૂનમચંદ પામી. સૂરીશ્વરજીના કાળધર્મ પછી રાજસ્થાનના ભાંડવાજી તીર્થમાં લાખો ગયો. ભક્ત જનોની હાજરી વચ્ચે મહાન મહોત્સવ પૂર્વક સમસ્ત ત્રિસ્તુતિક | ગુરુ ગોવિંદ દોનું ખડે, કીસકો લાગું પાયા શ્રી સંઘે પ.પૂ. મુનિરાજ શ્રી જયંત વિજયજીને આચાર્ય પદવી. બલહારી ગુરુદેવ કી જેણે ગોવિંદ દિયો બતાય અર્પિત કરી અને શાંતમૂર્તિ તપસ્વી મુનિરાજશ્રી શાંતિ વિજયજીએ. તેઓશ્રીને વર્તમાનાચાર્ય શ્રીમદ્વિજય જયંતસેનસૂરીશ્વરજી મહારાજ અને પૂનમચંદને પૂર્વના પુણ્યોદયે થરાદ આવતાં જ સં. નામે ઘોષિત કયાં આજે વર્તમાનમાં પણ પૂ. વર્તમાનાચાર્યશ્રી ૨૦૦૪ની સાલમાં ચાતુમસિ બિરાજમાન વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ પ.પૂ. મરુધર માલવા અને ગુજરાતમાં જ્ઞાન પિપાસુ ધમત્મિાઓને પોતાની. આચાર્ય શ્રીમદ્ વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ મળી ગયા, અમૃત વાણીનું પાન કરાવે છે અને દક્ષિણમાં પણ મહારાષ્ટ્ર-કણટિક જેમણે પૂનમચંદ રૂપી પાણીને પારખી છીપના ગર્ભમાં સમાવી. મોતી. આંધ-તામિલનાડુ અને બિહાર યુ.પી. વિ સ્થળોએ પણ વિહાર બનાવી નાખ્યું. પ.પૂ. ગુરુદેવના પ્રથમ વ્યાખ્યાન શ્રવણથી જ કરી ચાતુમસ કરતા ધર્મોપદેશ આપે છે અને પોતાના પ.પૂ. સ્વ. પોતાના સંસાર વિરક્ત આત્માને પુષ્ટિ મળી. અને પૂ. ગુરુદેવશ્રીનું એટલું તો આકર્ષણ થયું કે તેણે તો ત્યાં જ અડ્ડો જમાવી દીધો ગુરુદેવનું અધુરૂ રહેલ કાર્ય કરી રહયા છે. . અને પૂ. ગુરુદેવશ્રીએ પણ આ યુવક પૂનમચંદની વૈરાગ્ય ભાવનાને તે પ્યારે ગુરુદેવ જાગ જુગ જીવો. ચકાસવા પ્રશ્નો પૂછડ્યા અને તેના જે જવાબ મળ્યા તેનાથી તેમને ખાત્રી થઈ કે ખરેખર આ બાળક એક દિવસ જૈન શાશનનો. 1 મધુકર-મૌક્તિક સિતારો બનશે. અને એટલેજ તેમણે પણ પૂનમચંદના માતપિતા અને ભાઈઓને સમજાવ્યા. સંસારની અસારતા સમજાવી અને | સ્વાર્થની આ શ્યામલતા મારા નિર્મળ આત્માને કલંકિત શાસનના આકાશમાં પૂનમચંદ જેવો એક કરી રહેલ છે અને હું ભવના તરફ ઘસડાતો રહયો છું. અનેક સિતારાઓ વચ્ચે ચમકતો ચાંદ અધઃપતનને આમંત્રણ આપું છું. માનની એ ભયંકર અંધારી જૈન સમાજને મળશે અને તે આપણી. કોટડીમાં ભમતો રહીશ તો મારી કેવી કફોડી દશા થશે ? પરંતુ ગચ્છ પરંપરાનો પ્રચાર અને પ્રસાર ભવાભિનંદીપણામાં મનોવૃત્તિ પતિત થઈ જાય છે તેની પણ તેને કરી મહાનતા પ્રાપ્ત કરશે અને એ દરકાર રહેતી નથી. રીતે માતપિતાનું અને કુટુંબનું નામ | સ્વાર્થની આ અટવીમાં માયાએ પોતાની જાળપાશ પાશ્રીને ઉજાળશે માટે હવે એને વૈરાગ્યના માર્ગે તૈયાર રાખેલી છે અને એક પછીની એક એ આંકડીઓમાંથી વળવા દો અને પૂ. ગુરુદેવશ્રીની ઉત્કૃષ્ટ પસાર થવું ઘણું કપરૂં થઈ જાય છે. ભવનું વૃક્ષ આગળ જતાં વાણી અને ભવિષ્યવાણીથી પ્રેરાઈને ધીમે ધીમે શાખાઉપશાખાઓથી પલ્લવિત થતું જાય છે. માતપિતા અને ભાઈઓએ પૂનમચંદને પરિણામતઃ બદ્ધ, અષ્ટ યા નિકાચિત કર્મ સ્થિતિના પરિપાકની અનુભૂતિ ભવાંત૨માં પણ જીવાત્માને કરવી પડે છે. દીક્ષા લેવા રજા આપી અને પૂનમચંદ પૂ. સાધ્વીજી શ્રી જીવન કલાશ્રીજી મ. હવે પૂ. ગુરુદેવ સાથે રહી જૈન દર્શન - જૈનાચાર્ય શ્રીમદ્ જયન્તસેનસૂરિ મધુકર” મીના નામથી જાણીતા ૩૨ माया ममता से भरा, सारा यह संसार । जयन्तसेन केवट बिन, कैसे उतरे पार || Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મંઝિલ તરફ (શ્રી હિંમતલાલ વી. વોરા, બેન્કર) સમગ્ર જગતમાં ચારેકોર નજર કરીશું તોય આપણને ખ્યાલ તે પંથે પગલા ભરતા ભરતા. જ્ઞાન, ધ્યાન, તપ ત્યાગ, વિનય આવ્યા વગર રહેશે નહિ કે, છેક એકેન્દ્રિયથી માંડીને પંચેન્દ્રિય વૈયાવચ્ચ આદિની અંદર જીવનને એવું જોડી દીધું કે, અનેકાનેક સુધીના તમામ જીવો સમગ્ર જગત પર ઉપકારોનો વરસાદ વરસાવી | ઉત્તમ તીર્થભૂમિઓની સ્પર્શના દ્વારા પૂજ્ય ગુરુદેવના આર્શિવચનથી. રહયા છે ! નદીઓ પીવા માટેનું સુંદર પાણી આપે છે આગ્રાદિ સમ્યગુદર્શન નિર્મળ કરી ધીરે ધીરે જીવન ધન્ય બનાવ્યું. આ છે વૃક્ષો ખાવા માટે મધુર ફળ આપે છે સાથે સાથે મીઠી, મધુર છાંય જૈન સંયમ જીવનની મહાન બલિહારી ! ત્રિસ્તુતિક જૈન સમાજના આપે છે. તીવ્ર મંદ ગતિએ વહેતો પવન તો જગતના સઘળા બંધુઓને જાગૃત કરી, ગામોગામ “પુજ્ય આચાર્ય ભગવંત જીવોનું જીવન જ છે, અને જતન કરે છે. પણ સૂર્ય ચંદ્ર અને શ્રીમદ્વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી” મહારાજ સાહેબનો સંદેશો ગુંજતો મેઘરાજાની મહેરબાની જો ના હોયતો સમગ્ર વિશ્વમાં તેમજ સમગ્ર કરતા ઠેરઠેર વિચરણ કરતા રહયા. જાતિમાં કેવી ઉથલપાથલ મચી જાય ? | સમયની ગતિ ફરતાં ફરતાં ‘‘આચાર્ય ભગવંત વિદ્યાચંન્દ્ર | સમગ્ર વિશ્વ પર સહુ કોઈના ઉપકારો દ્રષ્ટિ ગોચર થાય છે. સૂરિ" ના સ્વર્ગવાસ પછી શ્રી સમસ્ત ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘ દ્વારા પરંતુ એ બધામાંથી મનુષ્ય એક માત્ર બાકાત રહી જાય છે. સહુ સંવત ૨૦૩૯ ની સાલમાં એકી અવાજે કુલપાકજી તીર્થમાં મનોનિત. કોઈ અન્ય પ્રાણીઓ, વનસ્પતિ, જગતને જે કંઈ ઉપયોગીતા અર્પે આચાર્ય તરીકે તેમના નામની ઘોષણા કરેલ. છે, એ પણ વિચારણા માગી લે છે, મનુષ્ય શું અર્પે છે ? આ. વિજયવાડાથી પુજ્ય ગુરુદેવના સાનિધ્યમાં “સમેતશીખરજી” જગતમાં ધર્મ દર્શનકારોએ માનવ દેહના તો પેટ ભરીને ગુણગાન છ'રી પાલક સંઘનું સુંદર આયોજન થયેલ, ચાર રાજયોની મંઝિલ ગાયા છે અને એને અમુલ્યમાં અમુલ્ય કહયો છે. તો પછી તેનો પૂરી કરતા કરતા, હર્ષવિભોર શ્રી સંઘનો સમેતશીખરજીમાં પ્રવેશ પરમાર્થ શું હોઈ શકે ? ઋષિ ભગવંતોએ પણ માનવ જન્મની. થયો. પૂર્વ ભારતની મંઝિલ પૂરી કરી ગુજરાત તરફ ધીરેધીરે મહત્તા વિષે ઘણું ઘણું, કહેલ છે, માનવ આ. જીવનમાં જગત ઉપર આગમન થયું, ત્યારે મારવાડ, માળવા તેમજ ગુજરાત ભરના જે ઉપકાર તેમજ સૌ કોઈના કલ્યાણ અર્થે કરી શકે છે, તે કોઈ | સમસ્ત ત્રિસ્તુતિક જૈન સમાજના ધર્મપ્રેમી, ગુરુભક્ત, ભાઈઓ કરી શકતું નથી, પરોપકારની ઝડી પૂરબહારમાં તે જ વરસાવી શકે તથા બહેનોએ એકી અવાજે, હર્ષવિભોર, આનંદમય બની પુજ્ય છે. જે સર્વપ્રથમ ‘સ્વોપકાર’ નું કાર્ય કરી શકે એના ઉપર અહીં ગુરુદેવના પાટોત્સવની તૈયારી કરી અને અમદાવાદ નગરમાં પુજ્ય પુજ્ય આચાર્ય ભગવંત “શ્રીમદ્વિજય યતિન્દ્રસૂરીશ્વરજી” ના શિષ્ય તપસ્વી શાન્તભૂતિ શ્રી શાન્તિવિજય મહારાજ સાહિબના સાનિધ્યમાં રત્ન, તીર્થ પ્રભાવક, મધુર વ્યાખ્યાતા, સાહિત્ય મુનિષિ, સરલ શ્રી સંઘના સંમેલનનું સુંદર આયોજન કરી નક્કી કરેલ રાજસ્થાનની સ્વભાવિ, સાક્ષાત મંગલમૂતિ સમાં વર્તમાન આચાર્ય ભગવંત પુણ્યભૂમિ ઉપર, જાલોદર જીલ્લાના ‘ભાંડવપુર' તીર્થમાં હજારો સાધર્મિક જયંતસેન સુરીશ્વરજી "મધુકર” નું જીવન દર્શન આપણે સૌ અચૂક બંધુઓના તેમજ શ્રાવિકાઓના સાનિધ્યમાં પૂજ્ય ગુરુદેવને આચાર્ય કરીશું. પદવી. સંવત ૨૦૪૦ ના મહાસુદી ૧૩ ને બુધવાર તા. ૧૫-૨-૮૪ ગુજરાતમાં થીરપુર નગર સમીપે પેપરાળ ગામ એ તેમનું ના રોજ આપી, અખિલ ભારતીય ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘના ગચ્છાધિપતિ જન્મસ્થળ, જન્મ દિવસ સંવત ૧૯૯૩ કારતક વદી ૧૩ પિતા. તરીકેની ઘોષણા થઈ અને સમસ્ત ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘની ધૂરા સ્વરૂપચંદ ધરૂ અને માતા પાર્વતિબાઈ તેમના ઘરનું આ અપ્રગટ તેમના શીરે આવી. રતન તે નામે પુનમચંદભાઈ. | પૂજ્ય ગુરુદેવે અત્યાર સુધી ૮0000 કીલો મીટર ની લાંબી તેમની દીક્ષા પૂજ્ય આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય યતિન્દ્રસૂરીશ્વરજી મંઝિલ પૂર્ણ કરી સમાજોપયોગી અનેક કાર્યોમાં સંપૂર્ણ વ્યસ્ત બની. ના વરદ હસ્તે થયેલ, તેઓશ્રીનો દીક્ષા દિવસ છે સવંત ૨૦૧૦ ગદ્ય, પદ્ય, પ્રવચન વિગેરે વિષયો પર ૭૦ થી વધારે પુસ્તકોનું મહાસુદી ૪ દિક્ષાનું શુભસ્થળ સિયાણા (રાજસ્થાન) નગર, પૂનમચંદ પ્રકાશન કરી, શાસન શોભા તેમજ સર્વ જગતમાં પૂજ્ય ગુરુદેવનું ભાઈ મટી જયંત વિજયજી ના નામની ઘોષણા થઈ અને મુનિભગવંત નામ રોશન કરી શ્રી. ત્રિસ્તુતિક જૈન સમાજને ચારોતરફ જાગૃત બન્યા. કરેલ છે તે કદાપી ભૂલી નહિ શકાય, પૂજ્ય ગુરુદેવનું આચાર્ય | સંયમ જીવન એ આત્મસાધનાનો મંગલમય માર્ગ છે. આ પદવી પછીનું “થીરપુર નગર” નું ચાતુમસ ઐતિહાસિક બની. મંગલમય માર્ગ સ્વીકાર્યો કે તરત મંઝિલ આવી જાય એવું કોણે રહેશે તે અમો કદાપિ વિસરી નહી શકીયે, આવા અહિંસા, પ્રેમ કીધું ? પરંતુ દીક્ષા ગ્રહણ કરી ત્યારથી મનમાં નક્કી કરી લીધેલ. અને ત્યાગ સન્માર્ગ પ્રેરક, મધુર મિલન સ્વભાવીને યાદ કરતાં શ્રી અને મુક્તિની મંઝિલે પહોંચાય નહિ ત્યાં સુધી સતત જાગૃત રહી, સૌધર્મ બૃહત. તપાગચ્છીય સંઘ માટે નહિ પરંતુ સમગ્ર જૈન સમાજ અદમ્ય ઉત્સાહ સાથે એના લક્ષ્ય ભણી ધીમી છતાં ચોક્કસ ગતિએ માદ માટે ગૌરવનો વિષય છે. શાદી ૧૩ જન સંઘના વધની ધૂરા શ્રીમદ્દ થનાર્સન . મહિનાનું, રજવાડી વિભાગ ૩૪ माया दुःखदा है सदा, माया करे विकार । जयन्तसेन संयम रख, फानी यह संसार ।। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂ. ગુરુદેવ જયંતસેન સૂરિ (શ્રી વાઘજીભાઈ ગગલદાસ વોહરા) - જીવન એક મહાકાવ્ય આપશ્રીની સૌથી મોટી વિશેષતા એ છે કે આપ, અનેક બચપણથી. સાદગીપૂર્ણ, સુસંસ્કારો સંપન્ન, આત્માભિમુખ અને ભાષાઓ જાણો છો- હિન્દી, ગુજરાતી, સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી, અંગ્રેજી, કુશાગ્ર બુધ્ધિ વાળા હતા. આપે આ સમયે જૈન દર્શનના કર્મગ્રંથ, પ્રાકૃત, તેલગુ, ઉપરાંત માળવી, મેવાડી અને મારવાડી ભાષા પર પંચ પ્રતિકમણાદિ સુત્રો વિગેરે ધર્મગ્રંથોનો અભ્યાસ કર્યો આ પણ. આપનું પ્રભુત્વ છે. પરિણામે ગુજરાત મારવાડ માળવા દક્ષિણ અભ્યાસથી જેમ જેમ ધર્મમાં ઊંડા ઉતરતા ગયા તેમ તેમ ત્યાગનું ભારત ઉત્તર ભારત ઐક્ય સાધવામાં આપને સફળતા સાંપડી છે. સાચું સ્વરૂપ સમજવા લાગ્યા જ્ઞાની ભગવંતોએ બતાવેલ મોક્ષ | આપ મનુષ્ય સ્વભાવના પરિચિત છો સંઘ તથા સમાજના માર્ગને સમજવા લાગ્યા. “સંસાર હેય છે” (છોડવા જેવો) મોક્ષ. ધાર્મિક વિગેરે કાર્યોમાં ક્યા ક્ષેત્રના. અને ઉણા સ્વભાવના લોકોને ઉપાદેય છે (મેળવવા જેવો) એ જીવનમાં વણાઈ ગયું હતું. જેના કેવું તથા કઈ રીતે કાર્ય સોંપવુ જેથી કાર્યમાં સારી સફળતા મળે એ કારણે ૧૭ વર્ષની તરૂણ વયે સિયાણા મુકામે ગુરુદેવશ્રી. | આપ સારી રીતે જાણો છો આમ સંઘ તથા સમાજના ઉત્કર્ષ માટે યતિન્દ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા. ની, પાવન નિશ્રામાં જ્ઞાન ગર્ભિત વૈરાગ્યથી. | લોક સંપર્ક મહત્વનો બની રહે છે. સપ કંચુકી. વત ભાગવતી, કલ્યાણકારી દીક્ષા અંગીકાર કરી, આપની વ્યાખ્યાન શૈલી અદ્ભુત છે. ભાષા સહજ, સ્વભાવી, ત્યારથી આપશ્રીનું મુખ્ય લક્ષ્ય કઠોર સાધના, લોકોપયોગી સુચન. સુમધુર અને સુપ્રભાવિ છે. આપના પ્રવચનમાં હંમેશાં સ્વદેશ સમાજ સેવા અને આત્માનું ઉત્થાન રહ્યાં છે. ભક્તિ તથા સંસ્કાર શુધ્ધિ હોય છે. આપની. વાણી સમયગુતાનાશ્રિત, “સ્વાધ્યાય કરતાં ગુરુ પરત્વેનો સમર્પિત ભાવ શિષ્યને બોધવાળી આધ્યાત્મમાર્ગનું અનુકરણ કરાવનારી, સમ્યગ જ્ઞાનનું મહાન બનાવે છે”. એ ઉક્તિ અનુસાર આપ ગુરુદેવ યતિન્દ્રસૂરીશ્વરજી પાન કરાવનારી મિથ્યાત્વને દૂર કરવાવાળી. તથા ચારિત્ર ધર્મનું પાન મ.સા.ના સંઘ તથા સમાજના પ્રત્યેક નાના મોટા કાર્યમાં સાથ કરવાવાળી છે. જેથી આ ઉપદેશ અમૃતનું પાન કરીને કેટલાય સહકાર આપતા, ગુરુ આજ્ઞા શિરોધાર્ય માનતા ગુરુદેવની સેવા જીવોએ સંયમ પંથે વિચરવાનું નક્કી કર્યું.ધન્ય છે આપની આધ્યાત્મિક સુશ્રુષામાં અગ્રેસર રહેતા, આ જ ગુરુ પ્રત્યેના સમર્પિત ભાવની વાણીને, ધન્ય છે આપની. વ્યાખ્યાન શૈલીને. સાક્ષી પુરે છે. આપ, આપનાથી વિશેષ જ્ઞાનીનો ગુણાનુવાદ કરો છો આપ ગુરુદેવ યતિન્દ્રસૂરિ પણ પોતાના શિષ્ય (જયંત વિજય) ની એક વિદ્વાન સંત છો. આપના સંપર્કમાં ભારતભરના લગભગ ભાવિના ગતાંની ભવ્યતા પારખી, ગચ્છના ભારને વહન કરવાની ૧૦૦ થી વધારે વિદ્વાનો આવ્યા છે. તેઓનો પરિચય કેળવ્યો છે શક્તિ અને સંઘનું સુકાન સંભાળી શકે એવા પરમ શિષ્ય જયંત તથા તેમની સાથે અનેક ગામોમાં વિદ્વત ગોષ્ઠી પણ કરી છે. જેમાં વિજય મ.સા.ના અહોભાવથી નિહાળી ખૂબ જ હર્ષિત થતા આમ અમદાવાદ, ભાંડવાજી, ઈન્દોર મુખ્ય ગામો છે. આપે આપના ગુરુદેવ (યતિન્દ્ર સૂરિ) ની અસિમ કૃપા મેળવી. ગુરુદેવ યતિન્દ્રસૂરીશ્વરજી મ. સાહેબે રાજેન્દ્ર જૈન નવયુવક આપની વાણીમાં. મધુરતા, ગંભીરતા, સૌમ્યતા, ઓજસ્વીતાં, પરિષદની સ્થાપના કરી. જેની અત્યારે લગભગ ૨૫૦૧ જેટલી નિખાલસતા અને તેજસ્વીતા છે આપની ભગવંત ભક્તિ, જ્ઞાન શાખા છે. આ સંસ્થા સેવા, સંગઠન અને સમાજ વ્યવસ્થા ધાર્મિક પિપાસા, અવિરત શક્તિ, દરેક વિષયોને જાણવાની જિજ્ઞાસા વૃતિ, વિગેરે કાર્યો ધર્મના મુલ્યોને લક્ષમાં રાખીને કરે છે અને જૈન ઉત્કૃષ્ઠ ધમરાધના, ઉપાસના, જિતેન્દ્રીયતા, એવા પરમ ગુણોથી દર્શનના સનાતન સિદ્ધાન્તોને પ્રદર્શિત કરવાનું એક માસિક ‘શાશ્વત. શોભાયમાન આપ દરેકના મન જીતી લો છો આરાધનામાં સરળતા ધર્મ’ પણ ચલાવે છે એ આપશ્રીના (જયંતસેન સૂરિ) ના સદ્ છે, વિરાધના નિરર્થક છે, આરાધનામાં વાસ્તવિક જીવનની સફળતા ઉપદેશ સુયોગ્ય માર્ગદર્શનને આભારી છે પરિષદને વિશેષ કાર્યવંત છે. મમતામાનવ જીવનની વિફળતા બનાવનાર આપ છો.. છે, સમતાથી શાંતિ મળે છે એ આપનાં | આપ, ઘણું કરીને સાહિત્ય, હિન્દી તથા ગુજરાતી ભાષામાં જીવન સુત્રો છે. આપ મૈત્રીભાવ, લખો છો આપ કથા, સાહિત્ય, કાવ્ય સાહિત્ય, ચિન્તનાત્મક પ્રમોદભાવ, માધ્યસ્થ ભાવ અને સાહિત્ય, ભક્તિ સાહિત્ય, તાત્વિક, તથા આધ્યાત્મિક સાહિત્ય કરૂણાભાવથી સભર છો. આપ જ્ઞાન, લખો છો. દર્શન ચારિત્ર રત્નત્રયીના પરમ આરાધક છો, અને આચાર્યના છત્રીસ ગુણોથી આપની સાહિત્ય કૃતિઓ અજોડ છે આપ “મધુકર’ના ઉપનામથી. સુશોભિત છો. આપ અનેક ગુણોથી સંકલન કરો છો. આપનું સાહિત્ય મનુષ્ય માત્રને પ્રેરણા, ધર્મ યુક્ત એવું આપનું જીવન એક મહા સંદેશ, જીવન ઉત્થાન અને આત્માર્થી બનવા આપે છે. આપના કાવ્ય છે. પુસ્તકો સમ્યગુ જ્ઞાનાશ્રિત, તાત્વિક અને ગંભીર અર્થવાળા છે. શ્રી વાઘજીભાઈ ગ. વોહરા અને લોક શૈલી તથા તળપદી ભાષાના આધારે લખાયેલ છે જેથી કિરીટરિન્દ કીલિયા) ૩૫ मान करे अपमान हो, मान हरे सन्मान | जयन्तसेन अहं तजे, वह नर देव समान ।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આપની ચાહનાને ચાર ચાંદ લાગ્યા છે. આપશ્રીએ કાવ્ય કલામાં એક સિધ્ધિ પ્રાપ્ત કરી છે. પરમાત્મ્ય ભક્તિ અને આત્માને ઉપદેશ તલ્લીન થઈ જાઓ છો ત્યારે ખાવા પીવાનું પણ ભુલી જાઓ છો. આપની કૃતિઓ નીચે મુજબ છે રાજેન્દ્રકોષમાં આ ઉપર, ભવ ભાવ સ્વભાવ, ભક્તિ સુધા, ભક્તિ સંગમ, પ્રભુગુણ પુષ્પાંજલી, પારસમણી, ભગવાન મહાવીરે શું કહ્યું, જયંતસેન સતસઈ નમો તનસે, નમો મનસે, પાનસર ઇતિહાસ આમ આપે લગભગ ૫૦ પુસ્તકોનું લેખન કાર્ય કર્યું છે. આપની એક કૃતિ જયંતસેન સતસઈ ખુબજ પ્રેરણા દાયક છે તેનો એક દૂહો નીચે મુજબ છે. જૈન, હિન્દુ યા શિખ હો; યા હો મુસલમાન દેહ ભેદ, જયંતસેન આતમ એક સમાન. બીજા એક શ્રેષ્ઠ કૃતિ ભગવાન મહાવીરે શું કર્યું તેમાં જિનમત પ્રદર્શિત શાશ્વત સત્ય સિધ્ધાંતનો ટુંક સાર છે. અને ભવ ભાવ સ્વભાવની કૃતિમાં ભક્તને ભગવાન મેળવવાની તાલાવેલી અને ભક્તનો ઉત્કટ ભાવ પ્રદર્શિત કરે છે આમ આપની દરેક કૃતિઓ કંઈને કઈ વિશિષ્ટતા લઈને આવે છે. આપશ્રીને ગુરુદેવ શ્રીમદ્ વિજયરાજેન્દ્રસૂરિની સમાચારી તથા તેઓના અમુક ગ્રંથોને પ્રકાશીત કર્યા છે તેમાં ‘રાજેન્દ્ર જયોતી’ તથા તેમના ઉપરના કાવ્યો સ્તવનો, થોયો અને તેઓશ્રીનું કથાગીત તથા ગુરુગુણએકવીશા વિગેરે પ્રકાશીત કરી ગુરુદેવ રાજેન્દ્ર સૂરિનું નામ અબાલ વૃદ્ધ જૈન જૈનેતરના હૈયામાં વહેતું મુક્યું છે, અને ગુરુદેવ રાજેન્દ્ર સૂરિ રચિત અભિધાન રાજેન્દ્ર કોષના પુનઃમુદ્રણનું મહાન કાર્ય કરાવી જગત ભરના વિદ્વાનોની જ્ઞાન તૃષાને છીપાવી. છે. સાદગીપૂર્ણ જીવન એ પૂજ્ય ગુરુદેવ (મધુકર) નું ધ્યેય છે. વિચારોમાં ઉચ્ચતા છે. શાંતિ અને ગંભીર મુખ મુદ્રા આ આપનો ચિર સ્થાયી ભાવ છે. પ્રતિકુળ વાતાવરણમાં પણ આપ હંમેશાં પ્રસન્ન ચિત રહો છો. આપ શ્રમણ સંસ્કૃતિ સભ્યતા ધર્મના પ્રતિક છો. આધ્યાત્મ માર્ગમાં આપની ઘણી રિચ છે. શ્રમણ સંસ્કૃતિની રક્ષા એ આપનું પરમ ધ્યેય છે. સ્ક્રિન વાણી તથા અન ભક્તિનું મહત્વ છે વિદ્યા, વિનય, વિવેક, અને સાધુ જીવનની સૌમ્યતા આપનામાં ભરેલી છે. જીવોની રક્ષા કરવી એ આપનું લક્ષ્ય છે, ઈન્સાનમાં આવી માનવતાનું દર્શન કરાવવું. પાશવી પ્રવૃત્તિઓ રાગ, દ્વેષ, ઈર્ષ્યા, લોભ, મોહ, માયા, મત્સર, વિગેરે અઢાર પાપ સ્થાનક જીવનમાંથી હટાવીને સદ્કાર્ય ધર્મ કાર્યમાં લોકોને પ્રવૃત્ત કરવા. ઉપદ્યાન, તપ, જૈન ધર્મ, વિદ્યા પ્રચાર, જાતી સુધાર, દહેજ મનાઈ ભુત અદ્ભુત, ઉંચ નીચ, અસ્પૃશ્યતાને દૂર કરીને દરેક જીવને સદાચાર, સમભાવ, સમાજવાદ, મૈત્રી ભાવ, તથા ધાર્મિક પંથે વાળવા પ્રયત્નશીલ રહેલા છો. આપશ્રી અનેકાન્તવાદ ધર્મના પ્રખર હિમાયતી છો. વનની સુરક્ષા માટે આયુર્વેદનો ઉપદેશ સ્વાસ્થ્યના નિયમોની જાણકારી, સ્વદેશી વસ્તુઓનું ગ્રહણ કરવું ખાદી પ્રચાર, દેશ ભક્તિ, પ્રભુ ભક્તિ, સાધર્મિક સેવા. જાની ભાવ મિટાવીને વિગેરે સમાજ તથા ધાર્મિક ઉપયોગી અનેક કાર્યો કરાવીને રાષ્ટ્રના કલ્યાણકારી કાર્યોમાં ધનિક તથા ધાર્મિક વર્ગને અગ્રેસર બનાવવો. દરેક ગામમાં પાઠશાળા, કન્યા વિદ્યાલય, જૈન ધર્મ વિદ્યાલય, છાત્રાલય, ગુરુ કુળ, પરબ, હોસ્પીટલની સ્થાપના કરવી વિગેરે જન ઉપયોગી કાર્ય કરાવવું અને ઉપરોક્ત દરેક કાર્યમાં રૂચિ રાખવી એ શ્રીપર્ક સ્વાસ સહિર નિકાવાગુજરાતી વિભાગ FOOT FORG આપનું કર્તવ્ય છે. નમસ્કાર મહામંત્રની આરાધના કરવી કરાવવી આપનું પરમ લક્ષ્ય છે. આટલું મહત્વપુર્ણ કાર્ય કરવા છતાં પ્રાતઃકાલ ઉઠીને પ્રભુ સ્મરણ, નમસ્કાર મહામંત્રનું આરાધન, સ્વાધ્યાય સુત્રો, ધાર્મિક ગ્રંથોનું અધ્યયન, મૌન વ્રત, બપોરના ટાઈમે અધ્યયન કરવું શિષ્યોને ભણાવવા અને જ્ઞાની વિદ્વાનો સાથે ધર્મની ચર્ચા તથા પર્વના દિવસોમાં ઉપવાસ આયંબિલની તપશ્ચર્યા વિગેરે અનેક સ્વકલ્યાણની ક્રિયાઓ પણ કરો છો આમ આપ, સ્વ પર કલ્યાણના પરમ હિતેચ્છુ છો. એ સંઘ તથા સમાજના, તથા રાષ્ટ્રના અભ્યુદય ઉત્થાન અને ઉત્કર્ષ માટે આર્નિશ જાગૃત એવા આપશ્રીને પુજ્ય ગુરુદેવ રાજેન્દ્રસૂરિની સતત પ્રેરણા તથા શાસન દેવની સહાય મળતી રહે એજ મનો કામના. '' આપ શાસક પ્રભાવક છો. આપે કેટલાંય જિન મંદિર તથા ગુરુમંદિર વિગેરેની પ્રાણ પ્રતિષ્ઠા તથા અંજનશલાકા કરાવી છે. ઉપધાન, છરી પાર્ક સંઘ, ધાર્મિક શિબિર, નમસ્કાર મહામંત્રનું આરાધન, ચાતુર્માસ દરમિયાન ભા. તપની આરાધના, મંદિરો તા. નીર્થોના જિર્ણોદ્વાર વિગેરે અનેક ધાર્મિક લોકપયોગી કાર્યો કરાવ્યા આમ આપે ભારતભરમાં લગભગ ૮૦૦૦૦ (એસી હજાર કીલોમીટર નો) પગપાળા (પગે ચાલીને) પ્રવાસ કરી ભગવાન મહાવીરનો સંદેશો ઘેર ઘેર પહોંચતો કર્યો અને પૂજય ગુરુદેવ રાજેન્દ્રસૂરિનું નામ લોકોના હૈયામાં મઢી દીધું. ધન્ય છે આપના પ્રભાવશાળી જીવનને (અનુસંધાન પાના ૪. ૨૭ ઉપરથી) રહ્યા છો, અને હું આપશ્રીનો શિષ્ય હોવા છતાં આપશ્રી મને ઉંમરની દૃષ્ટિથી વડીલ તરીકે માની આપશ્રીનું વ્યક્તિગત કોઈ કાર્ય કરવા દેતા નથી તે આપશ્રીની મહાનતા છે. આપશ્રી સાથે આઠ ચોમાસા થયા અને છે. ચોમાસા પૂ. મુક્તિર્ય વિજય સાથે કરવાનો પ્રસંગ આવ્યો. મારી ફરજ શિષ્ય તરીકે આપશ્રીની સેવા કરવાની છે. પણ તે ન કરવા દેવી તે આપશ્રીની મહાનતા છે પણ હું તો આપશ્રીનો ઋણી છું. તેવી જ રીતે મારા વડીલ અને લઘુ ગુરુ ભ્રાતાઓ મારી સાથે વડીલ તરીકેના સંબધ સાચવે છે તે પણ તેઓશ્રીની પણ મહાનતા છે. આપશ્રીએ મને આપશ્રી સાથે રહેવાનું કહ્યું છે તો મારી પણ ભાવના આપશ્રી સાથે રહેવાની છે અને તે માટે મારી ટુંકી ઉંમરમાં મારું શ્રેય કેમ થાય તે જવાબદારી આપશ્રીની છે માટે મને યોગ્ય માર્ગદર્શન આપી મારૂં કલ્યાણ ક૨વામાં સહાયભૂત બનશો તેવી ખાત્રી છે, મારી અત્યાર લગી આપશ્રી સાથે રહેતાં કંઈ પણ ભૂલ અવિનય થયો હોય તો માફી ચાહું છું અને આપશ્રી માફી આપજો. વડીલ યા લઘુ ગુરુ પાતાઓ પ્રત્યે કોઈ પણ જાતનો દુર્ભાવ થા અવિનય થયો હોય તો માફી ચાહું છુ અને તેઓશ્રી મને માફ કરશે. · આપશ્રીની નિશ્રામાં રહી સમાધિ મરણની પ્રતીક્ષા કરૂં એવી ભાવના નમસ્કાર મહામંત્રની આરાધના અને આપશ્રીના આશીર્વાદ થી જરૂર સફળ થશે એવી આશા રાખું છું. સાધુ યા સાધ્વી સમાજમાં પણ મને જે કોઈ સહાયભૂત બન્યા હોય તેમનો હું ઋણી છું. આપશ્રી બધા કાર્યો કરવામાં સફળતા પ્રાપ્ત કરો અને આપશ્રી દીવધુ ભોગવી તેવી અભિલાષા સેવું છું verb e ૩૬ माया देखत फँस गया, देह रूप कंकाल । जयन्तसेन जग में वह रहा सदा कंगाल || Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થરાદ પૂ. ગુરુદેવની જન્મભૂમિ | કરી ર (શ્રી નવીન સંઘવી, થરાદ) 15 0 ) , આચાર્ય થયા. તેમનાથી . થરાદ એટલે ધર્મક્ષેત્રમાં વીર, ધર્મવીરોનું ધર્મક્ષેત્ર અને ગુરુભક્ત નાચતી જ રહી, ત્યારે જ્ઞાનબળે તેણીએ જાણ્યું કે આચાર્યશ્રીનું વીરોનું વીરક્ષેત્ર. જેનાં નામ માત્રથી ધર્મ પ્રત્યેની અખૂટ ભાવના, આયુષ્ય હવે અલ્પ છે, માટે ગચ્છની જાળવણી અન્યને સોંપી ધર્મનાં કામ પ્રત્યેની રગે રગમાં ભરાઈ ગયેલી લાગણી તેમજ ગુરુ આત્મ કલ્યાણ કરી લેવાની સુચના આપવા તે રાત્રીના સમયે પ્રત્યેની ગુરુભક્તિ અને વેપાર માટેની. શૌર્ય શક્તિની કલ્પના મૂર્તિ થરાદનાં ઉપાશ્રયમાં આવી અને આચાર્યદિવને ચેતવ્યા. આથી. નજર સમક્ષ ઉપસ્થિત થાય છે. તેની ભૂમિનો પ્રત્યેક ભાગ જેટલો આચાર્યશ્રીએ ત્યાંથી ગિરનાર જઈ અનશન કર્યું અને સંવત ૧૦૯૬ ઉજજડ અને વેરાન લાગે છે તેટલો જ ભાગ ધર્મ ગુરુઓ, ધર્મ ના જેઠ સુદ - ૯ ને મંગળવારે આયુષ્ય પુરૂં થતાં સ્વર્ગવાસી બન્યા. આરાધકો મહામુનિઓ, શૌર્યવીરો અને દાનવીરોનાં પેદા થવાથી ઈતિહાસ પ્રસિદ્ધ દેલવાડાના દહેરા બંધાવનાર જૈન સમાજના મહાક્ષેત્ર જેવો લાગે છે. આ ભૂમિનાં પેટાળમાંથી એવા મહા રત્નો અમુલ્ય નવ રત્નો વસ્તુપાલ-તેજપાલ બાંધવ બેલડી પણ આ થરાદ પાક્યા છે અને પેદા થયા છે જેણે પોતાની ધર્મશક્તિ અને શૌર્ય ગામના ભાણેજ થાય. તેમની માતાનું નામ કુમારદેવી ! શ્રેષ્ઠીવર્ય શક્તિ વડે કાંઈક મેળવ્યું છે, સમાજને ઘણું આપ્યું છે, અને આભૂસંઘવીની પુત્રી ! થરાદમાં આચાર્યદિવ ચાર્તુમાસ પ્રસંગે હમેશા ઈતિહાસને કાંઈક બતાવ્યું છે, અને આવતી ભવિષ્યની પેઢીને કાંઈક નિયમાનુસાર સંધ્યા ગુરુવંદન કરવા જતાં દૈવી. સંકેત અનુસાર બતાવશે. આવી આ ભૂમિ કે જેને આપણે થરાદ ગામનાં નામથી કુમારદેવીની કુક્ષિએ ધર્મને ઉઘાત કરનાર મહાન જૈન નરરત્નોની ઓળખીએ છે એ હાલ વર્તમાન સમયમાં ગુજરાતના બનાસકાંઠા ઉત્પત્તિ થશે એવી આગાહી. મળતા આચાર્ય દેવની સંમતિથી. જીલ્લામાં ઉત્તરે આવેલું છે. પુરાણો રાજ રજવાડાનો ઈતિહાસ તેને કુમારદેવીએ પાટણના નગરપતિ સાથે લગ્ન કરેલ હતા. અને થીરપર, થિરાદ થપ્રદ અને થિરપ્રદથી. ઓળખતો હતો.. ઈતિહાસ. મહાન રત્નોની માતા કુમાર દેવીનું પિયર એટલે થરાદ, પ્રસિદ્ધ આ ભૂમિને ‘લઘુ કાશ્મીર’ નું બિરૂદ મળેલ છે. કે ધર્મ અને વીરતા ભરેલી આ ભૂમિના શ્રેષ્ઠીવર્ય શ્રી આભૂસંઘવી ધરતીનું કોઈ ધણી નથી, જે થયા તે રહયા અને ગયા, અને એક દિવસ પોસહમાં હતા, એ સમયે બહારથી કોઈ સંઘ ગામમાં ધરતી અહીંની અહીં જ રહી. શ્રી મહાવીર સ્વામી ભગવાનની દર્શનાર્થે પધારેલ. આ સમયે સંઘના સાધર્મિકોની. સ્વામી ભક્તિ શિષ્ય પરંપરામાં વજ શાખાનાં ચંદ્રકુળમાં વટેશ્વર નામે મહાન અને સન્માન તે સમયે શેઠના નોકરે કરેલ. આવા આ મહાન આચાર્ય થયા. તેમનાથી વિરપ્રદ નામે ગચ્છ પ્રસિધ્ધિ પામ્યો. આ શ્રેષ્ઠીવર્યે સંવત ૧૩૪૦ માં થરાદથી. શંત્રુજયનો મોટો સંઘ કાઢેલ. ગચ્છની ઉત્પતિ થરાદમાં થયેલ. તેમાં અનેક વિદ્વાન આચાર્યો પૈકી. તે સમયે તેમને પશ્ચિમ માંડલીકનું બિરૂદ મળેલ. વળી. ત્રણસો. શ્રી. શાંતિસૂરિ નામે એક મોટા આચાર્ય થયા હતા. જેઓએ ઉત્તરાધ્યન સુત્ર ઉપર પ્રાકૃત ટીકા લખવાનું અનુપમ કાર્ય પણ કર્યું જ્વલંત ઉદાહરણ પુરૂં પાડેલ છે. તેમજ તેઓશ્રીએ ત્રણ કરોડ ટૅક હતું. તેઓનો જન્મ રાધનપુર પાસે ઉણ ગામે ધનદેવ શ્રેષ્ઠીને ત્યાં એ વખતનું નાણું ખર્ચીને સર્વ આગમની એક એક પ્રત સુવણક્ષિરે - થયો હતો. તેમણે થારાપદ્રિય ગચ્છના વિજય સિંહસૂરીશ્વરજી પાસે તેમજ બીજી સર્વ ગ્રંથોની એક એક પ્રત શાહીથી. લખાવી હતી. આ દીક્ષા લીધી હતી. પાટણમાં રાજા ભીમદેવની સભામાં કવિન્દ્ર અને કિર્તીશાળી. દાનવીર પુર્વજો આ ભૂમિમાં થયા. તે ખરેખર ગૌરવપ્રદ ચક્રવર્તીની પદવી પ્રાપ્ત કરી હતી. ગણી શકાય.. થારાપદિય ગચ્છના શાંતિસૂરિના શિષ્ય નમી સાધુ સવંત આજ સમય આસપાસ માંડવગઢથી. પેઠડશાહ અને નાગોરનાં ૧૧૨૫માં વિદ્યમાન હતા. તે સાલમાં નમી. સાધુએ રૂદ્રટનાં બનાવેલ. પુનડ શ્રાવક જેવા સંઘપતિઓએ થરાદનાં આંગણે થઈને સંઘ સાથે કાવ્યાલંકાર નામના સાહિત્ય ગ્રંથ પર ટીપ્પણ કરેલ. નમી સાધુએ.. પ્રયાણ કરેલ, જેમાં લાખો માણસોની સાધર્મિક ભક્તિ કરવાનું શ્રેય સંવત ૧૧૨૨માં ષડ આવશ્યક નામનો ગ્રંથ રચ્યો છે. થરાદ સંઘને મળેલ. - ઈ.સ. અગ્યારમી સદીમાં જ ધારા નગરીના રાજા લઘુભોજની શ્રી જીનેશ્વરસૂરિની પાટે શ્રી જિનપ્રબોધ સૂરિ થયા. એમનું સભામાં વાદીવેતાળ શાંતિસૂરિએ પોતાની સાથે શાસ્ત્રાર્થની ચચમિાં મૂળ નામ પર્વતસિંહ હતું. તેમના પિતાનું નામ શ્રી.વંદ અને માતાનું ૮૪ મિથ્યાત્વવાદીઓને હરાવીને ચોરાશી લાખ માળવી રૂપિયા નામ સીરીયાદેવી હતું. તેમનો જન્મ સંવત ૧૨૫૫માં થયો હતો. મેળવ્યા હતા. તેની કિંમત બાર લાખ સાઈઠ હજાર ગુજરાતી તેમને દીક્ષા થરાદની ભૂમિ ઉપર જ આપવામાં આવી હતી. નાણામાં થતી હતી. તેમાંથી. તેઓએ થરાદમાં ચૈત્ય અને દેવકુલીકાઓ. બંધાવી હતી. થરાદના ઉપાશ્રયમાં બિરાજમાન આચાર્યશ્રી | થરાદ વસ્યા બાદ આભુસંઘવી ના સમયમાં થરાદ પ્રગતિની. શાંતિસૂરીશ્વરજીનાં વ્યાખ્યાનમાં નિત્ય ‘નાગીની દેવી’ આવીને નૃત્ય પરાકાષ્ઠાએ હતું. એ સમયમાં ઘણાં શ્રીમંતો હતા અને જૈનો તેમજ કરતી. અને તેને આચાર્ય દેવ આસન ઉપર બેસવા આજ્ઞા કરતા. જૈન ધર્મનું એક અગ્રસ્થળ હતું ગામનાં સ્થાપક થિરપાલ ધરુની. તો તે અદ્રશ્ય રૂપે બેસી વ્યાખ્યાન સાંભળીને જતી. પરંતુ એક બહેન હરકુબેન ધ બહેન હરકુબેને ઘેરા લીમડીનાં ૭૫૦૦૦ ચો. ફૂટ મેદાનમાં ૧૪૪ દીવસ આચાર્યશ્રીનાં વિસ્મરણે તેણી સારો સમય આસન પર સ્તંભયુક્ત બાવનજીનાલય મંદિર બનાવેલ હતું. (જેનો જીર્ણોધ્ધાર તેમાં અનેક વિદ્વાન આચાયો તે = , ભાઈઓને તેમણે પોતાનો સર ત્રણ કરોડ ટેક ની નારી ૩૩ अहंकार करता सदा, तन घन मति का नाश । जयन्तसेन विनय विभव, देता ज्ञान प्रकाश || Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પાછળથી કુમારપાળે કરાવેલો) શ્રી શંખેશ્વર તીથી સવંત ૧૯૩૭ માં પુજ્ય આચાર્ય મહાન જયોર્તિધર ગુરુદેવ (૨) સંવત ૨૦૪પમાં વોહરા ચમનલાલ બાદરમલ ન્યાલચંદ તરફથી. શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિનું ચાતુમસિ ધાનેરા મુકામે હતું. તે સમયે ચાતુમસિ થરાદ થી જીરાવલા તીર્થ પુર્ણ થતાં કડવા ગચ્છના યતિ શ્રી લાધા સાજીએ પુ. ગુરુદેવને | (૩) ધરુ ફૂલચંદ પાનાચંદ ત૨ફથી, થરાદ થી પાલીતાણા થરાદ પધારવા વિનંતી કરી. થરાદ અને રાધનપુરમાં પાટ ધરાવતો કડવા ગચ્છ ત્રિસ્તુતિક માન્યતા ધરાવતો હતો. અને ત્રિસ્તુતિક આ ઉપરાંત આચાર્ય જયંતસેનસૂરિજીના શુભ આશીર્વાદથી. સંપ્રદાય પ્રચારક પુજ્ય ગુરુદેવ શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિને આ જાણકારી સવંત ૨૦૪૬ નાં કારતક સુદી-પ ના દિવસે થરાદ નિવાસી થાય એ માટે થરાદ પદાર્પણ કરાવ્યું. પુજય ગુરુદેવનું થરાદમાં અદાણી કુંવરજી દેવરાજ તરફથી બસ માર્ગે થરાદ-અમદાવાદ થી. આગમન થરાદ સંઘ માટે ઉજવળ ભાવીની એંધાણી સમું દેખાઈ જીરાવલા તીર્થનો મહાન વિરાટ ૧૦૨ બસ ગાડીનો સંઘ નીકળેલ. રહયું હતું. ગુરુદેવ શ્રી થરાદ પધાર્યા ત્યારે તપ, ત્યાગ, અને ઈતિહાસમાં વર્તમાન સમયમાં એકજ સમુદાયમાં એક જ કુટુંબે ચારિત્રનાં અનુયાયી સરસ્વતી પુત્ર સમાં ગુરુદેવનાં ચરણે શ્રી માન કાઢેલ આ રીતનો સંઘ ગૌરવપ્રદ બાબત ગણાય. સાજીજીએ અને સંપૂર્ણ સંઘે સ્વયંને સમર્પિત કર્યા અને ગુરુદેવ શુન્યમાંથી સર્જન થાય તેવું જ થરાદ અને થરાદવાસીઓ માટે પાસેથી શુધ્ધ સમ્યકત્વ પામી શ્રી. બૃહતપાગચ્છીય ત્રિસ્તુતિક કહી શકાય. કે જે ભૂમિએ મહાન ધર્મગુરુઓ, ધર્મ સેવકો, ધર્મ સંઘના અનુયાયી બન્યા. શ્રી સંઘે પોતાનું સમસ્ત ધમ જીવન મુનિઓ, ધર્મ ભક્તો, તેમજ સાહસિક વેપારીઓને પેદા કર્યા છે. ગુરુદેવની ભક્તિનાં માર્ગે વાળ્યું. સંવત ૧૯૪૪ નું ગુરુદેવનું આ ભૂમિમાં જન્મ પામેલ દરેક વ્યક્તિ થરાદવાળાના નામથી ચાર્તુમાસ થરાદ ગામમાં થયું. આજે પણ થરાદ એ એક જ એવું ઓળખાય છે. આ ભૂમિમાં ૨૦ વર્ષની આજુબાજુની વયવાળા. ગામ છે જયાં વસનાર દરેક જૈન ત્રિસ્તુતિક છે અને પોતાનાં સાહસિક વેપારીઓ પણ પેદા થયા છે, જેમણે પરદેશની ખેપ ખેડી મનમંદિરમાં ગુરુદેવની છબી છે, હૈયે અખૂટ શ્રધ્ધા છે અને અઢળક નાણા મેળવ્યાં છે. થરાદ બહાર વસેલો દરેક થરાદવાસી. અંતરમાં બસ, ગુરુદેવ જ છે. માટે જ થરાદની ગુરુભક્તિ પ્રખ્યાત દરેક જગ્યાએ થરાદવાળા તરીકે જ ઓળખાય છે, આ પ્રતાપ છે. છે. આ ચાર્તુમાસ દરમ્યાન ગુરુદેવશ્રીની નિશ્રામાં પારેખ અંબાવીદાસ આ ભૂમિનો, આ ભૂમિની હવાનો આ ભૂમિનાં પાણીનો. મોતીચંદે થરાદથી પાલીતાણાનો છ'રી પાળતો ભવ્ય ઐતિહાસીક આવી કીર્તિશાળી, શૌર્યવાન પૂર્વજોની ભૂમિમાં જન્મ પામવાનું સંઘ કાઢેલ. આ સંઘમાં હાથી, ઊંટ, પાલખી, સાથે સાધુ, સાધ્વી સદ્ભાગ્ય ખરેખર જીવન જીવવાનો લ્હાવો છે. આ ભૂમિમાં ખરેખર તેમજ હજારો યાત્રાળુ, વિભિન્ન ગચ્છનાં ૧૨૫ સાધુ સાધ્વી હતા. જીંદગી જીવવાની જડીબુટ્ટીઓ ઉગે છે જેમાંથી અહીંનો દરેક માનવી તે કઠણ સમયમાં પણ આવા સંઘ કાઢીને થરાદ સંઘે ધર્મક્ષેત્રે કાંઈક મેળવે છે. ૧૯૪૫ વર્ષ પુરાણી આ ભૂમિને સાચે જ વીરક્ષેત્ર ગૌરવ વધારેલ. - ધર્મક્ષેત્ર કહી શકીએ તેમાં જરા પણ અતિશયોક્તિ નથી. પ્રભુશ્રીમદ્વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી પ્રત્યેની અખૂટ ગુરુશ્રધ્ધા તરફ પ્રેરાઈને કેટલાય આત્માઓએ તેમની પાસે દીક્ષા અંગીકાર કરી. વર્તમાન સમયમાં તેમની છઠ્ઠી. પાટે આચાર્ય પદે બિરાજમાન મધુકર-મૌક્તિક આચાર્ય જયંતસેન સુરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબ પણ. થરાદ ગામનાં સ્થાપક થીરપાલ ધરુનાં વંશ જ છે. પ. પૂ. ગુરુદેવશ્રી યતીન્દ્રસૂરિનાં માયાદેવીની સુંવાળી, ચમકતી અને ભભકાવાળી વરદ્ હસ્તે તેઓએ સંવત ૨૦૧૦ ના મહાસુદી ૪ ના રોજ ચમકમાં આવીને જો ચમકી ગયા તો પછી રાક્ષસવૃત્તિ સિયાણા (રાજસ્થાન) માં દીક્ષા ગ્રહણ કરેલ. અને આચાર્ય શ્રી જેવો લોભ પ્રગટ થઈ જશે, અને પછી સર્વ પ્રકારના વિદ્યાચંદ્ર સૂરિજીના કાળધર્મ બાદ સંવત ૨૦૪૦ ના મહાસુદ-૧૩ અનિષ્ટકારી વિચારોનું સામ્રાજ્ય વધી જશે. પરિણામે ભાંડવપુર તીર્થમાં આચાર્ય પદ પામેલ. અને આચાર્ય દુર્વિચારોના અંકુરા ફાલી-ફૂલીને આત્મપ્રદેશને સુગંધહીન જયંતસેનસૂરીશ્વરજી મહારાજના નામે ઘોષિત થયેલ. બનાવી જશે. વર્તમાનાચાર્ય પુ. ગુરુદેવનું સંવત ૨૦૪૪ નું ચાર્તુમાસ થરાદ ( કષાયની ચોકડીએ જાળ પાથરી દીધી છે. એના ગામે થયેલ. આ ચાર્તુમાસમાં ન કલ્પી શકાય તેવી ધર્મઆરાધના થઈ. ઘેર ઘેર તપનાં તોરણ બંધાયાં. ધર્મના સાથિયા પુરાયા અને ઉપર બેસવાથી ફૂલોની કોમળ શય્યાનો અનુભવ થતો ગુરુભક્તિના દીવડાં પેટાવ્યા. નાની મોટી વ્યક્તિએ આઠ ઉપવાસ નથી પરંતુ તિક્ષ્ણ ધારવાળી શુળો દેહપીંજરમાં પ્રવેશી થી બાવન ઉપવાસની તપશ્ચર્યા કરી. તેમજ દરરોજની દવાની ૨૦ ભોંકાઈ રહી છે. સુખના બદલે અકથ્ય દુઃખને આપે છે.. ટીકડીઓ લેતા શ્રી નરપતલાલ વીરચંદે ૪પ દિવસના ઉપવાસની સ્વાર્થ જે ભવોત્પાદન માટેનું કારખાનું છે, જેના વડે ઉગ્ર તપશ્ચર્યા કરી. જે પ્રતાપ પૂ. વર્તમાનાચાર્યની વાણીનો હતો. જન્મ અને જરાના સાથે આધિ, વ્યાધિ અને ઉપાધિઓ આ સમય દરમ્યાન સંઘવી વીરચંદ સરૂપચંદ તરફથી ઐતિહાસિક વધતી રહે છે. એના સંકજામાં જે વ્યક્તિ ઝડપાઈ જાય છે ઝાંપા ચૂંદડી થઈ, જે થરાદનાં ઈતિહાસમાં સુવણક્ષિરે લખાશે. તે નિબળતાનો અનુભવ કરે છે. મન, વચન અને કાયાથી પૂજ્ય વર્તમાન આચાર્યની નિશ્રામાં કેટલાયે છ'રી પાળતા સંઘ અકર્મણ્ય બની જાય છે. નીકળેલ છે. તેમાંથી થરાદમાંથી નીકળેલ સંઘ નીચે મુજબ છે. - જૈનાચાર્ય શ્રીમદ્ જયન્તસેનસૂરિ મધુકર (૧) વારીયા વાઘજીભાઈ અનોપચંદ ત૨ફથી, થરાદથી TIકારોની ૩૮ बनी बिगडती जिंदगी, करे अहं नर कोय । जयन्तसेन बिनम्रता, सुखदायक नित होय ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IT IS પૂ. આ. જયન્તસેનસૂરીશ્વરજી મારી નજરે (ડૉ. શ્રી પ્રહલાદ પટેલ, વડનગર) સતાં સંદભ સગઃ કથમપિ હિ પુજ્યેન ભવતિ સાનોનો સર્જનો સાથેનો સંગ કોઈક પુષ્પ યોગે જ થાય છે. – ભવભૂતિ એક ધરી. આવી ઘડી આવી મેં ભી આધ તુલસી સંગત સંત કી, કટે કોટિ અપરાધ પૂ. આચાર્ય શ્રી જયસેનસૂરીશ્વરને વાંદવાનો મળવાનો સુયોગ મારા જીવનની અવિસ્મરણીય ઘડીઓમાંની એક ઘડી છે. સંસારની ઘણી ઓછી વ્યક્તિઓની આંતરિક તેજસ્વિનાથી હું આકર્ષાયો છું, પણ જેની આત્મિક આભા મને સ્પર્શી ગઈ એ પરમ આધ્યાત્મિક સંત છે - પૂ. આચાર્ય જયન્તસેનસૂરીશ્વરજી મ પ્રાયઃ વિ. સં. ૨૦૪૦ના ચાતુર્માસમાં મારા પરમોપકારક પૂ. પં. અભયસાગરજી મહારાજશ્રી પાટણમાં સાગરના ઉપાશ્રયે બિરાજતા હતા. એક દિવસ તેમનો આદેશ મળ્યો કે “પાટણ આવો, ‘તીર્થંકર’ના સંપાદક ડૉ. શ્રી નેમીચંદ્ર જૈન સાથે આચાર્યશ્રી જયન્તસેનસૂરી ને મળવા નેનાવા જવાનું છે”. મારે મન તીર્થ ભૂતા હિ સાધવઃ' સાધુ વંદનાનો મોહ તો હતો જ. ઉપરાંત એક સમર્થ વિદ્વાન સાથેનો સહવાસ ! પાટણથી નેનાવા ૧૧૦ કિલો મિટર દૂર, સાંજના સમયે નીકળ્યા તેથી નેનાવા પહોંચવામાં મોડું થયું. પ્રતિક્રમણનો સમય હતો, અંધકારભયિ ઉપાશ્રયમાં પૂજશ્રીને સ્પષ્ટ નિયળી શકાય તેમ ન હતું. આમ પણ અજ્ઞાન અંધકાર ભર્યા સંસારમાં આપણે સાચા સંતોને ક્યાં ઓળખી શકીએ છીએ ? પરંતુ આ અંધકારમાં ૫ એક અલૌકિ વાતાવરણની અાસાર હતો, અંધકારથી પેલે પારનું કંઈક વિશેષ અનુભવાતું હતું. ડૉ. નેમીચંદ્રજીને ‘તીર્થંક૨’ હિન્દી સામયિકના “પૂજા વિશેષાંક” માં પૂજયશ્રીનું “અષ્ટ પ્રકારી પૂજા” ઉપરનું વક્તવ્ય ટેપ કરવાનું હતું હું તો માત્ર શ્રોતા જ હતો. પરંતુ પરમ સામીને લીધે એ અંધકારમાં પણ વક્તવ્યમાંથી આંદોલિત થતી તેમના આત્માની દિત્યનાની સ્પર્ધા થતો હતો. વક્તવ્ય પ્રશ્નોત્તર રૂપે હતું. ડાઁ નેમીચંદ્રજીના બુદ્ધિ અને તત્વજ્ઞાનને સ્પર્શતા પ્રશ્નો અને એવા જ શાસ્ત્રીય-જ્ઞાનની અનુભવની અગાધતા દર્શાવનારા પૂજયશ્રીના ઉત્તરો મારે મન આ બધું એક અણજાણ્યા જ્ઞાન પ્રદેશની યાત્રા રૂપ હું પરમ તૃપ્તિ નો અનુભવ થયો. વક્તવ્યને અંતે મારા પરિચય પછી મારી સાથેના મિતાક્ષરી વાર્તાલાપમાં જાણે પુરાણી આત્મિકતાનો રણકો હતો. તેમણે મને કહ્યું: “તમે અને હું (સ્થૂળ રૂપે) ઉત્તર ગુજરાતન અને આપણી મુલાકાત ન થાય એ કેમ ચાલે ? ફરી એક વાર જરૂર આવી". બસ, આ ઈજનથી કે તેમના આંતરિક સૌંદર્યથી ખેંચાવી અને સદાનો ડૉ. શ્રી પ્રહ્લાદ પટેલ શ્રીમદ્દ બનીનસૂરિ અભિનદનગ્રંથગુજરાતી વિભાગ = h ૩૯ This F ગુણાનુરાગી બની ગયો. -Sha ત્યાર પછી તો ડીસા, થરાદ સર્વત્ર વંદનાર્થે કંઈક પામવાના ભાવે જવાનું થતું રહ્યું. માર્ગદર્શન તથા સાહિત્યિક કાર્યો માટે પત્રવ્યવહાર થતો રહ્યો અને આત્મીયતા વધતી ગઈ. ગરવા શાનોપાસક ઉપાધ્યાય યશોવિજયજી એ શાન-મહિમા ગાતાં કહ્યું છે કે– પીયુષમસમુદ્રોદ્ઘ રસાયનમનૌષધમ્ । અનન્યાપેક્ષમૈશ્વર્યં જ્ઞાનમાહુર્મનીષિણઃ (જ્ઞાનસાર.) શાન તો સમુદ્ર વગર ઉત્પન્ન થયેલું અમૃત, ઔષધ નહીં તેવું રસાયણ, અપેક્ષા રહિત મહાન ઐશ્વર્ય છે. એક અજૈન તરીકે કહી શકું કે પૂજયશ્રીની નોંધપાત્ર લાક્ષણિકતા તે જ્ઞાન-પીયૂષની એમની અદમ્ય ઝંખના. એક સાંપ્રદાયિક સંત તરીકે પોતાના સાંપ્રદાયિક મહા-ગ્રંથોનું અધ્યયન તો તેમણે કર્યું જ છે; પણ એથી અદ-કેરી વાત એ છે કે આ સંતને જ્ઞાનના ક્ષેત્રમાં સાંપ્રદાયિકતાના સીમાડા નહ્યા નથી. ન હિ જ્ઞાનેન સદર્શ પવિત્ર મિહ વિદ્યતે ।' ના દ્રષ્ટિકોણથી તેઓશ્રી પોતાનાં પ્રવચનોમાં, સાહિત્ય સર્જનમાં, ધાર્મિક ઉપદેશમાં, નવયુવકોની શિબિરોમાં સમગ્ર ભારતીય સંસ્કૃતિના ઉત્કૃષ્ટ ગ્રંથોમાંથી તેમજ અન્ય સંપ્રદાયમાંથી દ્રષ્ટાંતો સહજતાથી ઉષ્કૃત કરે છે. આ માટે તેમના બે સંગ્રહો વિશેષ નોંધપાત્ર છે. રાજેન્દ્ર કોષ મેં “અ” અને “જીવન હો તો ઐસા આ બંને સંગ્રહોમાં પૂજયશ્રીએ જૈનેતર એવી વૈદિક અને બૌદ્ધ પરંપરાઓમાંથી ઉદ્ભવળ જ્ઞાન ધરીને આત્મસાત્ કરીને દ્રષ્ટાંતો સ્વરૂપે સ્વીકારી છે એ એમના હૃદયની વિશાળતાની સૂચક છે. તેમજ જ્ઞાન માટેની સનતાના પ્રતીકરૂપ છે. ‘આન્ને ભદ્રાકત્વો’ યનું વિશ્વતઃ (ગ્વેદ) સર્વ દિશાઓમાંથી અમને સારા વિચારી પ્રાપ્ત થાઓનું વૈચારિક સ્વાતંત્ર્ય પૂજયશ્રીના જીવનમાં પ્રતિબિંબિત થયું છે. ઉપરોકત બંને સંગ્રહો ઉપરાંત અન્ય પ્રવચન સંગ્રહો પ્રતિ દ્રષ્ટિપાત કરતાં એમાં પ્રાપ્ત થતાં પ્રસંગ વિરૂપો, શ્લોકો, કેશિકાઓ ભારતીય સાહિત્યની વિશાળતામાં કરેલા અવગાહનના સાક્ષીરૂપ છે. પરિણામે એમનાં પ્રવચનો સર્જનો જૈનેતરી માટે પણ આવકાર્ય અને આસ્વાદ્ય રહ્યા છે. પ્રસન્નતા. ગાંભીર્ય અને સૌમ્યતા-સોમા સંત પૂજયશ્રીના સંતત્વમાં સાંપ્રદાયિક સંકુચિતતા નથી પણ એક આધ્યાત્મિક સંતની અખિલાઈન દર્શન થાય છે. એક વાર્વિલાપમાં તેમણે કહેલું કે : “મારા હિન્દી ભાષી પ્રવચનોથી લોકો પ્રશ્ન કરે છે કે આપ ક્યાના ?” તો તેમને જવાબમાં કહેલું કે– “અમને સંતોને તો આખું વિશ્વ અમારું છે. સુીય તુમ્ I' સર્વ પ્રદેશોની ભાષાકીય તેમજ હવારિક લાથમિકતાઓને આત્મસાત્ કરનાર પામી જનાર આ સંત ગુજરાત, મહારાષ્ટ્ર, મધ્ય પ્રદેશ, રાજસ્થાન, દક્ષિણ ભારત સર્વ પ્રદેશોમાં શ્રદ્ધેય બન્યા છે. અને સૌ પ્રદેશોને-સમાજોને આત્મીય લાગ્યા છે. સમભાવયુક્ત સંતની જેમ, પોતાની ભવ્યોવલ ગુરુ પરંપરા मैं मैं करना छोड़ दे, मत कर नर अभिमान । जयन्तसेन बडे बडे, छोड़ चले निज प्राण www.jairtelitrary.org Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાપ્ત જ્ઞાનધારાના ઉત્તરાધિકારી તરીકે તથા જીવનની અર્ધશતાબ્દી. પાશ્ચાત્ય સંસ્કૃતિની પ્રભાવક અસરને લીધે અને વિજ્ઞાન ને આંબતી સ્વસોધનાથી સંપન્ન ધર્મ-અનુભવામૃતને સામાન્ય જનને વાદની પ્રબળતાને પરિણામે આપણી. વર્તમાન પેઢીમાં આર્ય સંસ્કૃતિ સુલભ કરવા માટે તેમણે ચાતુમસિ-સ્થિરતા ગુજરાત કરતાં ગુજરાત પ્રત્યે ઔદાસીન્ય પ્રવર્તે છે. આજની યુવાપેઢી આપણાં પ્રાચીન બહારના સ્થળોએ. વધુ પ્રમાણમાં કરી છે. આ બાબત પ્રાંતીયતાથી સંસ્કૃતિ - ધર્મ તત્વજ્ઞાન પ્રત્યે સૂગની નજરે જુએ છે. પૂજયશ્રીની પર ઉઠતી તેમના હૃદયની વિશાળતાની દ્યોતક છે. | વેધક દ્રષ્ટિમાંથી આ વાત છટકી નથી. પરિણામે યુગનો તકાજો | તેમની બીજી એક લાક્ષણિકતા એ છે કે એક પ્રબુદ્ધ - જાગૃત સમજીને, આધુનિકતા તરફ નિહાળીને, સમગ્ર પરિસ્થિતિનું આમૂલ સંત તરીકે તેમની મુખ મુદ્રા ઉપર સદૈવ અપ્રમત્તતાનો ભાવ નીતય ચિંતન કરીને યુવા પેઢીને સન્માર્ગે દોરવા “અખિલ ભારતીય રાજેન્દ્ર કરે છે. તેમણે જીવતરની પ્રત્યેક ક્ષણ જાગૃતિમાં વિતાવી. છે જૈન નવયુવક પરિષદ” જેની સ્થાપના પ.પૂ.આચાર્ય દેવ શ્રીમદ્ વિતાવી રહયા છે. ભગવાન મહાવીરનું કથન સમય ગામ ! માં વિજય યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબે કરેલ છે, તેને સતત એમાયએ હૈ ગૌતમ | ક્ષણ માત્ર પણ પ્રમાદ કરીશ નહીં. પૂજયશ્રીનું પ્રેરણા આપી રહ્યા છે. જીવન જાણે. આ કથનનું મૂર્તિમંત સ્વરૂપ ! કાલો ન યાતો વયમેવ દ્રષ્ટિવંત, ધ્યેયયુક્ત, આગામી પેઢીના ઘડતરના પાયારૂપ આ યાતા સમય જતો નથી, આપણે જ જઈએ છીએ. એ. ભતૃહરિ પરિષદને અપાતી પ્રેરણાથી પૂજ્યશ્રીની દૂરંદેશીતાનો ખ્યાલ આવી ભાગ્યું સૂત્ર અપાવનાર સંત અવિરત શ્રેયની પ્રવૃત્તિમાં જ રમમાણ. જાય છે. પથ્થરમાંથી કુશળ શિલ્પી વિશ્વવંદ્ય પ્રતિમાઓ-આદરપાત્ર રહે છે. કલાકૃતિઓનું સર્જન કરે છે તેમ આ પરિષદ દ્વારા પૂજયશ્રી. માગુસે વહુ કુર્જરું – મનુષ્ય જન્મ દુર્લભ છે એ ન્યાયે યુવાપેઢીનું નિમણિ કરી રહયા છે. પોન: ટુર્ણપ: સાચા નિયોજકો પૂજયશ્રીએ જીવતરની પ્રત્યેક પળ સાર્થક્યના પુણ્ય સ્પર્શથી જ મળવા મુશ્કેલ છે. આ પરિષદને સતત પ્રેરણા આપીને તેઓ શ્રી વ્યતીત કરી. છે. બાહa આર્યંતર જીવન સહજ યોગમય બની સાચી મોજક બન્યા છે. ચૂક્યું છે. પ્રવૃત્તિ એમની પૂરક છે, ચિંતન-મનન એમનો કુંભક છે, | આજની યુવાની કેટલીક બાબતોમાં નિંદાયેલી છે. ડી પ્રવૃત્તિ-અંતર ( અન્ય પ્રવૃત્તિ હાથ ધરવી) એ એમનો રેચક છે. વોવને ધનસંપત્તિ મુવમવિવિતા | | | ગુરુ ભક્તિ-લોક સંગ્રહનો પર્યાય કે 'મારી 15 પીર ! ક્રમણના, શિમુજs વતw | | | , નોર્વેના એક લેખકે ગાંધીજીને “વર્દે" કહયા છે. “વર્દે" યૌવન, ધનસંપત્તિ, સત્તા અને અવિવેક -એક એક પણ અનર્થકારી ત્યાંની સંસ્કૃતિનું એક લાક્ષણિક પ્રતીક છે. નોર્વેના ઉત્તરીય પ્રદેશના છે તો પછી જ્યાં ચાર એકત્ર હોય ત્યાં તો વાત જ શી કરવી ? અડાબીડ જંગલોમાં પ્રવેશીને ભૂલા પડનાર મુસાફરને રસ્તો જડવો. આ બધાના સમૂહ રૂપ યૌવનને દોરવું એ કપરું છતાં અનિવાર્ય કપરું કામ છે, તેથી ત્યાંની પ્રથા પ્રમાણે મુસાફરોને માર્ગદર્શન | કાર્ય છે. વ્યર્થતા તરફ ધકેલાતા આ યુવાધનને સાચી દિશાનું સૂચન આપવા માટે નિશ્ચિત રીતે મુકાયેલા પથ્થરોના ઢગલા-વદેમાં આવનાર કરવું એ માત્ર વર્તમાન પેઢી પર જ નહીં પરંતુ ભાવિ પેઢી. પર પણ મુસાફર ગોઠવતો જાય છે. આ રીતે ઉન્નત થયેલા ઢગલા- વર્દે ઉપકાર કરવા સમાન છે. દ્વારા. ત્યાંથી પસાર થનાર મુસાફર ને અનાયાસે દિશાસૂચન મળી जो दे सके व्यर्थ को अर्थ । જાય છે કે આટલા સુધી તો માનવ પગરવ શક્ય બન્યો છે. ' પૂજય ગુરુદેવ શ્રીમદ્રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી પ્રત્યે અપાર ભક્તિ वही सिद्ध और समर्थ || ભાવને લીધે પૂજયશ્રીએ સ્થાપિત કરેલાં ગુરુ મંદિરોની પરંપરા વ્યર્થતા. ઘેય યુવા ધનને અર્થ–સાર્થકતા દેનારી. આ પરિષદને પાછળની ભાવના ઘણી જ ઉત્કૃષ્ટ છે. તેમાં ગુરુ પરંપરાની, ભક્તિ અમુલ્ય પ્રેરણા આપનાર પૂજયશ્રી સમગ્ર રાષ્ટ્રની વંદનાની અધિકારી, ભાવના તો છે જ પરંતુ એથી વિશેષ તો પ્રવર્તમાન જન-સમાજ છે એમ કહેવામાં અતિશયોક્તિ નથી. પરંતુ વાસ્તવિકતા છે. પ્રત્યેની કરુણા. દ્રષ્ટિ છે. આજના અવસર્પિણી કાળમાં યોગ્ય ધાર્મિક પ્રાચીન-અર્વાચીન સાહિત્ય સંગમે “મધુકર” માર્ગદર્શનના અભાવે સતત જાગૃતિ પૂર્વકનું ધાર્મિક માર્ગદર્શન પ્રાચીન સાહિત્યના ઉત્તમોત્તમ ગ્રંથોનું અધ્યયન તથા મહામેળવવા જીવન સમક્ષ કોઈક આદર્શ હોવો અતિ આવશ્યક છે. મનીષી આર્ષદ્રષ્ટાઓની. ઉપદેશ સરવાણીનું આકંઠ પાન કર્યું છે. અને તે પોતાના ગુરુદેવ સિવાય અન્ય કોણ હોઈ શકે ? સાંપ્રદાયિક સંકુચિતતાથી પર રહીને સદાય સત્યશોધની ઝંખના. ગુરુ પ્રતિમાને નિત્ય વંદના-સ્તવનાદિ કરવાથી તેમના ધાર્મિક કરી છે. પરિણામે આપણા પૂર્વ સૂરિઓની જેમ જ સર્જનાત્મક જીવનમાંથી સતત પ્રેરણા પીયષ પામતાં સૌ સંસારી જીવોની ધર્મ સાહિત્યમાં વિશિષ્ટ દ્રષ્ટિ રાખીને પ્રાચીનતાના સથવારે અવચિીન વાટિકા. નવપલ્લવિત રહેતાં કષાય માર્ગોના ઉકળાટથી બચી જવું પદ્ધતિએ સાહિત્ય સર્જન ક્ષેત્રે પણ પ્રવેશ કર્યો છે. સહજ બને છે. આવી અતિ ઉદાત્ત ભાવનાથી પૂજયશ્રીએ અનેક ભારતીય સાહિત્યના વિશાળ ફલક ઉપરથી ઉત્તમતાનું મધુ વગેરે સ્થળોએ વિશ્વવંદ્ય પૂ. ગુરુદેવ શ્રીમદ્વિજય રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજીની એકત્ર કરીને તથા પોતાની સર્જનાત્મક પ્રતિભાના ફળ સ્વરૂપે પ્રતિમા પધરાવીને ગુરુ મંદિરોની-તીર્થોની સ્થાપના કરી છે. આમાં સાહિત્ય સર્જનનાં મધુ બિંદુઓ સમાજને સમર્પ “મધુકર” ઉપનામને ભલે કોઈ વ્યક્તિ પૂજા કે વ્યક્તિ દોષ જુએ, પરંતુ તેની પાછળની સાર્થક કર્યું છે. ભાવના અતિ ઉત્કૃષ્ટ હોઈ gો દિ ઢોષ મMતિ TTTસન્નિપાતે || | તેમના સમગ્ર સાહિત્ય સર્જનનો વિચાર કરવાનો અહીં ઉપક્રમ ગુણ સમૂહમાં આ દોષ નષ્ટ થાય છે. નથી. પરંતુ કેટલીક કૃતિઓ ગાંભીર્ય અને સત્વશીલતાની દ્રષ્ટિએ અતીત-વર્તમાનના વાર્તિક કાર રાષ્ટ્રીય સંત ઉત્કૃષ્ટ” ની છાપની અધિકારિણી છે. આ ઉપરાંત સાહિત્યનાં કોઈ પણ સંતની ભાવના તો આત્મોત્થાનની-મોક્ષની મંજીલે કેટલાંક પરંપરાગત સ્વરૂપો દ્વારા પણ તેમનું કથન-પ્રાવીણ્ય નોંધપાત્ર પહોંચવાની હોય છે, પરંતુ ભારતનું સદ્ભાગ્ય છે કે આ કોટિના છે. જેમ કે ભગવાન મહાવીરની લઘુ કથાઓ, પ્રસંગ કથાઓ, રૂપક સંતો -તત્વજ્ઞાતાઓ માત્ર “સ્વ” માં જ રમમાણ હોતા નથી. પરંતુ કથાઓ, (Allegoricot toles) દ્વારા ઉપદેશનું આધુનિક સંસ્કરણ. સ્વની આસપાસના જનસમુહને અસીમ કરણાથી જોતા હોય છે. તેમની કેટલીક કૃતિઓમાં જોવા મળે છે. સને ય શ હૈ ? અને સૌના ઉત્થાન-કલ્યાણ-હિતની ચિંતા કરતા હોય છે. આવી લઘુ કથાઓ, પ્રસંગ કથાઓના સ-રસ સંગ્રહ છે. આ ૪૦ तन धन बल अरु बुद्धि का, उचित नहीं अभिमान । जयन्तसेन मिले सदा, कदम कदम अपमान ।। Jain Education Interational Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાચીન સ્વરૂપમાં પણ આધુનિક રીતનું કથા નિતવ્ય તીક્ષ્ણ રૂપે जैन हिन्दु या सिक्ख हो या हो मुसलमान । ઉપસી આવે છે. તો બીજી બાજુ ‘રાનેન્દ્ર ઢોષ મેં ‘'' ' કૃતિમાં ઢહ મે નયસેન, તમ ઇવ સમાન // એક એક અક્ષર ઉપર પ્રવચન – કદાચ ચિંતન મનન ક્ષેત્રે આ ક્યાંક યુગની માગ અનુસાર ચિંતનને પણ અવકાશ છે કારણ. નવીન દિશાને દ્વારોદઘાટન છે. અને છેલ્લે વિન્નર્સન - સતત 2 કોઈ પણ સર્જક પોતાના જમાનાની પ્રવર્તમાન અસરોથી મુક્ત હિન્દી દુહા સંગ્રહ પૂ. “મધુકર” ના જીવનની અર્ધશતાબ્દીના દા ના રહી શકતો નથી. આજના યુગમાં - રાજનીતિના હૃાસોન્મુખ અનુભવોનો નિચોડ અને “દેય” ના સાર રૂપ કૃતિ છે. શુભ સમયમાં નેતાગીરી અંગેનું તેમનું ચિંતન કેટલું યથાર્થ અને માર્ગદર્શક અશુભની, હેય ઉપાદેયની, શ્રેય પ્રેયની સીમા રેખા આંકનાર રત્નકણિકાશી સુરમ્ય કૃતિ છે. 35+ 4 014 योग्य अगर नेता मिले, व्यसन विषय से मुक्त । છે ક ા આરાધનાના “અ” થી શરૂ કરીને “મંગલ કામના” સુધીના ૫૧ વિષયોમાં પૂ. મધુકરજીએ માનવ જીવનને સ્પર્શતા મહત્વના जयन्तसेन प्रगति बढे, देश बने युक्त ॥ તમામ વિષયો આવરી લીધા છે. તેમાં કબીર તલસી, દાદ. રહીમ રાજનીતિની સાથે હૃદય સ્પર્શી સમાજ પ્રેમને પણ પોતાના દહાઓનો બિહારી જેવા મહાન સંતો-કવિઓના ઉપદેશનો સંસ્પર્શ છે. ક્યાંક વિષય બનાવીને તેને છેવટે તો ધર્મની-મોક્ષની છાવણી સુધી લઈ ચિંતન, ક્યાંક ઉપદેશ તો ક્યાંક ઉન્નત રાષ્ટ્ર પ્રેમ પણ પ્રકટી ઉઠે જવામાં અદ્દભૂત સંતત્વ અને કવિત્વની સાર્થતા કેવી ઝળકી ઊઠે છે. કબીરનું કેથમિતવ્ય પરંતુ “મધુકર” ની મોહક ભાષામાં વ્યક્ત થાય છે. વાટે ટ ારી #ા, રે સ્વંય દોષ , શહે વીર સુખ રે મોડું , जयन्तसेन ऐसा नर, कभी न पाता मोक्ष बोलनहार न मुसलमान न हिन्दु । પૂજયશ્રી સ્વાથ્યપુર્ણ દીઘયુિષ્ય દ્વારા રાષ્ટ્ર-સમાજને માર્ગદર્શન કબીરનો આ જ ભાવ જુઓ, પણ ભાષા “જયંતસેની” માં આપતા રહો એ જ શુભ કામના. • 3 કિ I એવું છે ભાઈ થરાદનું પાણી USL USUS | કઇ લાડ કરી ને આ કાર (ગુરુવર વંદના) - 1 0 0 (શ્રી પનમચંદ ખેમચંદ સંઘવી થરાદ) ક્યાંક મીઠું ક્યાંક ભાંભરૂ, ભલે ક્યાંક હોય ખારું વર્તમાન સમયે જે બિરાજે, સૂરિ રાજેન્દ્રની પાટે સૌ કોઈ જનની તરસ છીપાવી, સુખ શાંતિ દેનારું . સૂરિ જયંતસેનની આજે, કીર્તિ જગમાં. ગાજે જાણે જોઈ લ્યો જલ તરંગની લહાણી. થરાદની પ્રજા ભાવ વિભોર થઈ સાંભળે અમૃત વાણી એવું છે ભાઈ થરાદનું પાણી ** એવું છે ભાઈ થરાદનું પાણી “દુ" જ્યાં જ્યાં વસે થરાદવાસી, થરાદ જેવું ત્યાં લાગે ધરૂ કુટુંબમાં જન્મ ધરીને, સફળ કરે છે જન્મારો ગુરુદેવનાં દર્શન વિના એનું, ધંધે મન ન લાગે સૂરિ યતીન્દ્રનો શિષ્ય બનીને, દેશ આખામાં ફરનારો ‘સૂરિ રાજેન્દ્ર’ના પવિત્ર પગલે ધરતી જે ખુંદાણી. ધખાવી જેણે જૈન ધર્મની અખંડ ધૂણી એવું છે ભાઈ થરાદનું પાણી પી. સૂરીશ્વર જયતસેન પણ છે. થરાદનું પાણી. “૭” ગુરુદેવ ના પગલે પગલે સૂરિ ધનચંદ્ર પણ આવ્યા થરાદ નગરે થયું ચોમાસું શ્રી જયંતસેન સૂરીશ્વરનું સૂરિ ભૂપેન્દ્ર યતીન્દ્ર બંને, થરાદને મન ભાવ્યા સંવત બે હજાર ચુંમાલીસે થરાદ બન્યું ધન્યવંતું હર્ષ વિજયજીની થરાદે સાંભળી અપૂર્વ વાણી. અગણિત થઈ તપસ્યાઓ ઉલ્લાસ મનમાં આણી. એવું છે ભાઈ થરાદનું પાણી ‘‘૩” એવું છે ભાઈ થરાદનું પાણી શ્રી વિદ્યાચંદ્રસૂરીશ્વરજીએ લાભ ઘણો જ દીધો એવો લ્હાવો ફરીથી લેવા સૌને લગની લાગી શ્રી જયંતસેનસૂરિનું સ્વાગત કરી, થરાદે લ્હાવો લીધો અમદાવાદ ગુરુદેવને લાવી સૌ જનોની ભૂખ ભાંગી પેપરાલ ગામે જન્મ થયો ને, ધન્ય ધરતી કહેવાણી સાંભળવા સૌ જન ઉમટે, સૂરિજયંતસેનની વાણી એવું છે ભાઈ થરાદનું પાણી એવું છે ભાઈ થરાદનું પાણી. ધરૂ સરૂપચંદનો સુપુત્ર, પારૂબાઈનો દુલારો પ્યારો પૂનમચંદ પણ અમદાવાદમાં, ભાવધરી ગુરુને વંદે પાંચ ભાઈ અને એક બહેનનો, લાડકવાયો ન્યારો કાવ્ય આ ગુરુ ચરણે ધરીને, આનંદે ભાવ ઉમંગે જેણે પીધું મન ભરીને વીરભૂમિ થરાદનું પાણી વીરભૂમિ થરાદની જનતા શૂરવીર ભલે કહેવાણી. એવુ છે ભાઈ થરાદનું પાણી એવું છે ભાઈ થરાદનું પાણી “૧૦” | “હું” अहंकार में अंध हो, करे सदैव प्रपंच । जयन्तसेन मनुज वही, खोता सद्गुण संच ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ભાંડવપુર તીર્થોધ્ધારક આચાર્ય શ્રી જયંતસેનસૂરિ (સિધ્ધાંત પાક્ષિક પંડિત શ્રી શાંતિલાલ કેશવલાલ, અમદાવાદ) હાલમાં શ્રી ત્રિસ્તુતિક સંઘે જેમને પોતાની પરંપરાનુસાર શ્રી માધ્યસ્થ બનવાથી જ ઉભય પક્ષે આરાધકતા છે કેમ કે પ. પંચ પરમેષ્ઠિ પદાનંતર-ત્રીજા આચાર્ય પદે સ્થાપ્યા છે. તેઓ શ્રી પૂ. શ્રી આનંદધનજી ના વચનાનુસારે એક બીજાથી આત્માર્થ જયંતસેનસૂરીશ્વરજીની પાટ પરંપરા નીચે મુજબ છે : - સાધક ભાવો નો લાભ પ્રાપ્ત કરી શકાશે. (૧) પરમ પૂજય આચાર્ય ભગવંત શ્રી રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી આચાર્ય () જે ગચ્છ (સમુદાય) પોતે જ સાચા આરાધક છે. એમ માને I પદ સં ૧૯૨૪, સ્વર્ગવાસ સં. ૧૯૬૩ છે અને તે મુજબનો વ્યવહાર બીજા પ્રત્યે કરે છે. તેઓને (૨) આચાર્યદિવ શ્રીમદ્ વિજયધનચંદ્રસૂરીશ્વરજી આચાર્ય પદ સંવત શાસ્ત્રમાં સ્પષ્ટપણે વિરાધક જણાવ્યા છે. આ અર્થ સબંધે | ૧૯૬૫, સ્વર્ગવાસ સં. ૧૯૭૭ પરમ પૂજય શ્રી આનંદધનજી એ જણાવ્યું છે કે (૩) આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજયભૂપેન્દ્રસૂરીશ્વરજી આચાર્ય પદ સં. “વસ્તુ વિચારે રે દિવ્ય નયણતણો રે વિરહ પડ્યો નિરધાર ૧૯૮૦, સ્વર્ગવાસ ૧૯૯૩ તમતમ યોગે રે તરતમ વાસના રે, વાસિત બોધ આધાર” (૪) આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજયયતિન્દ્રસૂરીશ્વરજી આચાર્ય પદ સં. પંથડો નિહાલું રે, બીજા જીન તણો રે ૧૯૯૫, સ્વર્ગવાસ ૨૦૧૬ આમ હોવા છતાં આજે જ્યારે વિજ્ઞાનના જોરે સમસ્ત જન (૫) આચાર્યવિ શ્રીમદ્ વિજયવિદ્યાચંદ્રસૂરીશ્વરજી આચાર્ય પદ સં. સમુદાયનું જીવન વિકૃત (શાસ્ત્ર વિરુધ્ધ) બની ગયું છે, અને તેને ૨૦૨૧, સ્વર્ગવાસ ૨૦૩૬ જ પેટ પોષણીયા-પંડિત-પુરોહિત અને સંતો વિશેષ મહત્વ આપી(૬) વર્તમાન આચાર્યદિવ શ્રીમદ્ વિજયજયંતસેનસૂરીશ્વરજી આચાર્ય અધર્મમાં-ધર્મતત્વની સ્થાપના કરી રહયા છે. ત્યારે સાચા મોક્ષ પદ સં. ૨૦૪૦. માર્ગ (સમ્યક+દર્શન જ્ઞાન ચારિત્રાણિ મોક્ષ માર્ગ. એ સૂત્રાથીની. આજના વર્તમાન હુંડા અવસર્પિણી. કાળમાં આજથી ૨૫૧૫ રુચિ-શ્રધ્ધા અને આચરણવાળા જીવોનો યોગ પ્રાપ્ત થવો ખૂબ જ વર્ષ પૂર્વે છેલ્લા ચોવીસમા તીર્થંકર પરમાત્માશ્રી મહાવીર સ્વામિ મુશ્કેલ છે. આ માટે સમસ્ત શ્રી સંઘ (જૈન શાસન) પ્રતિ વિનય મુરકલ છે. આ મોક્ષે ગયા પછી ૩-૧/૨ વર્ષ પછી પાંચમો આરો બેઠેલો છે. તેમાં બહુમાનની આવશ્યકતાનું સાચું જ્ઞાન ભાને ખૂબ જ જરૂરી છે. મુખ્ય શ્રી મહાવીર ભગવંતની પાટ્યપરંપરાનો ઐતિહાસિક - વિચ્છેદ | જૈન શાસન માં પ્રથમથી જ “ગુણા પૂજા સ્થાન ન ચ લિગ ન થયેલો છે. એમ નવાંગી ટીકાકાર શ્રી અભયદેવ સૂરિજીએ સ્પષ્ટ ન ચ વયઃ” એ વચનાનુસારે પંચ પરમેષ્ઠિ ભગવંતોના ૧૦૮ ગુણો. જણાવેલ છે. આમ છતાં આજે વીર વચનાનુસારે મોક્ષ માર્ગના વર્ણવ્યા છે. તેમજ શ્રાવક શ્રાવિકા વર્ગના પણ બાર વ્રતોવાળું આરાધક (સાધુ-સાધ્વી-શ્રાવક શ્રાવિકા) ગણ પ્રત્યક્ષ જોવાય છે. જીવન તેમજ સમ્યકદ્રષ્ટિઓનું સડસઠ બોલવાળું જીવન આલંબનીય એજ આજે તો ખરેખર આત્માર્થી આત્માઓ માટે મહા-પુણ્યોદય જણાવ્યું છે અન્યથા અગ્યાર પ્રકારની પાપસ્થાનકની કરણીને હેય રૂપ છે. કેમ કે આથી આત્માર્થી આત્માઓને આત્માર્થ સાધવાની | (ત્યાય) જણાવી છે. આજના પાંચમા આરાના વિષમ-કાળમાં પણ સુગમતા પ્રાપ્ત થતી | હાલમાં ત્રિસ્તુતિક જૈન સંઘમાં વર્તમાન આચાર્ય શ્રી જંયતસેન રહે છે. આ હકીકત નિર્વિવાદ સત્ય હોવા છતાં વિષમ કાળના સૂરીશ્વરજી દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ-ભાવ સાપેક્ષ. સમસ્ત જૈનોને ઉપર જણાવેલ પ્રભાવે કેટલાંક મૂઢ આત્માઓ દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ અને ભાવ સાથે રાહે દોરી રહડ્યા છે. તે બાબતે તેઓશ્રીનો સવિશેષ પરિચય કરવો. (ગચ્છ) સમાચારી ભેદમાં જ આગ્રહી બની આત્માર્થ સાધવાના જરૂરી છે. અન્યથા મિથ્યાદ્રષ્ટિ જીવ તો પોતાની દ્રષ્ટિ મુજબ જ લક્ષથી અળગા થતા હોય છે. આ માટે નીચેની ચૌભંગી આત્માર્થી જગત સ્વરૂપને જોનારો હોય છે. જ્યારે સમ્યુકદ્રષ્ટિ જીવો તો શ્રી આત્માઓએ વિચારવી જરૂરી છે. જીનેશ્વર ભગવંતોએ જગતનું જેવું યથાર્થ અવિરુધ્ધ સ્વરૂપ જણાવ્યું (૧) પ્રત્યેક આત્માએ વ્યવહારથી છે. તે મુજબ જ જગતને જાણતા જોતા હોય છે. પોત-પોતાના ગચ્છ (સમુદાયની) સમાચાર આચરવી જરૂરી છે. જેથી મધુકર-મૌક્તિક આરાધના નિર્વધ્ધ કરી શકાય. બધુંય પામ્યાનો નશો જ્યારે ચડી જાય છે ત્યારે (૨) નિશ્ચયથી પોતાની સમાચારી સાધક વક્રગતિવાળા મનને કહે છે કે તે શું પામ્યું છે ? (આચરણા) તે જ સાચી છે એમ અંતમાં તો ભમવું જ છે. જેને હવે ભમવાનું નથી રહયું આગ્રહ પૂર્વક કહેવું નહિ. તેઓ જરૂર બધું જ પામ્યા છે, બધુંય મેળવ્યું છતાં સંતોષ કેટલો છે ? છે તારામાં આનો અંશાત્મક પણ સંતોષ ? (૩) પ્રત્યેક પરગચ્છીય (સમાચારી. શ્રી શાંતિલાલ કેશવલાલ ભેદવાળા) આત્માઓને એક બીજા પ્રતિ - જૈનાચાર્ય શ્રીમદ્ જયન્તસેનસૂરિ મધુકર” શ્રીમદ જયનસેનસૂરિ મિલન સંથારાની વિમાગ ૪૨ अहंकार अज्ञान का, भरा हुआ भंडार । जयन्तसेन उस नर का, कभी न हो उद्धार ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂ. ગુરુદેવની બાલપણની ઝલક | ત્યારે જુના અલગતા પચંદ ધરૂ છે આશા અને અને ભાઈઓને ઘેર થશે રત્નો હંમેશા સામાન્ય કુટુંબમાં જ પેદા થાય છે. પંકજ પરિવર્તન લાવ્યું. આ સંસાર અસાર છે તેમ સમજી લીધું નાની કાદવમાં પેદા થાય છે. આપણા પૂજનીય વર્તમાન આચાર્ય દેવશ્રી | વયમાં ! અમારા ઘરમાં અમારી પિત્રાઈ બબી બહેન અમારા જયંતસેનસૂરીશ્વરજીનો જન્મ સામાન્ય કુટુંબમાં થયો છે. ભરત ભાઈઓની અલગતાના જીવનની વાતો માતા પાર્વતી બહેનને કહે ક્ષેત્રમાં ભારત દેશમાં ગુર્જર પ્રદેશમાં બનાસકાંઠા જીલ્લાના થરાદ ત્યારે પૂનમચદભાઈએ પોતાનો હિસ્સો ન ગણવા નાની વયમાં જ તાલુકાના પેપરાળ ગામમાં શ્રેષ્ઠીવર્ય શ્રી. સરૂપચંદ ધરૂને ઘેર થયો જણાવી દીધું. પિતાશ્રીએ પૂનમચંદભાઈને અંગ્રેજીમાં વધુ શિક્ષણ, છે. નાના ભાઈનું નામ મોહનલાલ હતું. બંને ભાઈઓમાં પ્રેમ અને મળે તે માટે શ્રી ડાહ્યાભાઈ મોદીને ભલામણ કરી અને તેઓને ઘેર સંપ હતો. સરૂપચંદભાઈની આજ્ઞા અને મર્યાદામાં તેઓનું આખું અભ્યાસ આપવા વ્યવસ્થા કરી. કુટુંબ હતું. સરૂપચંદ ધરૂ દીર્ઘદ્રષ્ટિ ધરાવતા હતા. તેઓ કોઈપણ અમે બંને ભાઈઓ થરાદમાં અભ્યાસ કરતા હતા. નાની કાર્ય પોતાની અગમ બુધ્ધિથી કરતા હતા. તેઓની પાસે ગામના વયમાં નિયમિત દેવ દર્શને જવાની અને જીનેશ્વરદેવની પૂજા કરવાની લોકો અને સગા સંબંધી સલાહ લેવા આવતા અને સાચી સલાહ ટેવ પાડેલી ! સવંત ૨00૪ માં પૂજય આચાર્યદિવશ્રી યતિન્દ્રસૂરીશ્વરજી આપવી અને નિસ્વાર્થે લોકોનાં કામ કરવાં એજ ભાવના ! આસપાસના મહારાજ સાહેબનું ચાર્તુમાસ થયુ. સાધુ મુનિરાજોના સંપર્કમાં અમે ગામોમાં સરૂપચંદભાઈની જાહોજલાલી હતી. માતાનું નામ પાવતી બંને ભાઈઓ આવ્યા. પૂનમચંદભાઈનું મન સ્કુલ શિક્ષણથી બદલાયું બહેન ! માતા પણ ધાર્મિક સ્વભાવના હતાં ગામડામાં રહે પરંતુ અને સ્કુલના અભ્યાસમાં ધ્યાન ઓછું કરી ધાર્મિક શિક્ષણમાં મન ધાર્મિક વ્રત અને નિયમ પાળે ! સાસુ અને સસરા અને દેરાણી પરોવ્યું. પૂ. આચાર્ય ભગવંત પાસે નિયમિત જવાનું પૂ. મુનિરાજશ્રી. સાથે સંપીને રહે. દેવ દર્શન માટે પાસેના જેતડા ગામે તહેવારના કાંતિવિજયજી સંસારી સંબંધે અમારા સગા થતા. તેથી તેઓની દિવસે જવાનું. માતા પાર્વતીને આઠ સંતાનો થયા ! સાત પુત્રો અને પાસે બેસવાનું. પૂ. આચાર્ય ભગવંતે પૂનમચંદ ભાઈમાં તેજસ્વી. એક પુત્રી ! પરંતુ નાની વયમાં એક પુત્ર અને પુત્રી એ વિદાય લક્ષણો જોયા.. પૂ. ગુરુદેવે અગાઉથી ભવિષ્ય જોઈ લીધું. પૂ. લીધેલી પાછળથી રહેલા છ પુત્રો તેમાં પાંચમાં પુત્રનું નામ પૂનમચંદ આચાર્ય ભગવંતનું ચાર્તુમાસ પૂરું થતાં. પૂ. ગુરુદેવનો વિહાર ! માતા અને પિતાના સંસ્કારી નાની ઉંમરમાં વારસાગત મળેલા ! ધાનેરા તરફ થયો. રસ્તામાં જ ડોડીઆ ગામ આવે ! પિતાશ્રીએ. પોતાના પૂર્વ ભવના કર્મનો ઉદય ! પૂનમચંદભાઈની ઉંમર નાની પૂ. ગુરુદેવને ગામમાં દર્શનનો લાભ આપવા વિનંતી કરી, પૂ. હતી. તે સમયે સરૂપચંદ ભાઈ (પિતાશ્રી) જેતડાના જાગીરદાર ગુરુદેવ મડાલથી વિહાર કરી ડોડીઆ પધાય ! અખેરાજજી સાથે લેણદેણમાં બોલચાલ થવાથી ઠાકોરે પિતાશ્રી ઉપર ગોળી વિંઝી. ! પિતાશ્રીનું મન ગામમાં રહેવાનું ઉઠી ગયું ! | ડોડીઆ ગામ નાનું, ગામમાં કોળી ઠાકોર રહે. પૂ. ગુરુદેવે દાદા દેવચંદભાઈએ પેપરાળથી થરાદમાં રહેવા નક્કી કર્યું. પિતાશ્રી કોળી ઠાકોરને ઉપદેશ આપ્યો. કોળી ઠાકોરોએ પોતાનાથી વ્રત પોતાના કુટુંબ સાથે થરાદ આવી ઠાકોર ભીમસીંહજીના પરગણામાં નિયમો પાલન થાય તેવા સોગંદ લીધા. બપોરના સમયે પિતાશ્રીને રહેવાનું ચાલુ કર્યું. થરાદમાં આવ્યા પછી પિતાશ્રીએ પૂનમચંદને વિરાજી કોળીના ઢાળીએ બોલાવ્યા. પિતાશ્રી વિનયપૂર્વક વંદન કરી શિક્ષણ માટે ગામઠી સ્કુલમાં બેસાડયા. ગામઠી શાળામાં માસ્તર પાસ પૂ. ગુરુદેવ સમીપે બેઠા. પૂ. ગુરુદેવે જણાવ્યું- સરૂપચંદજી તારી મોહનલાલે બાળપણનું શિક્ષણ અને સંસ્કારો આપવા શરૂ કર્યા. સમક્ષ એક માગણી કરું છું. અનાદર કરીશ નહી. પિતાશ્રીએ પૂ. પૂનમચંદભાઈની યાદશક્તિ સારી હોવાથી જ્ઞાન જલ્દીથી પ્રાપ્ત ગુરુદેવને જણાવ્યું કે આપ ફરમાવો ! પૂ. ગુરુદેવે જણાવ્યું કે તારો થયું. ગામઠી શાળામાંથી થરાદ કુમાર શાળામાં ધોરણ ૩ માં દાખલ પૂનમચંદ મને આપ ! પૂનમચંદ તારા ઘરમાં રહેશે નહિ. તે કોઈ કય. ધોરણ ૪ સુધી થરાદ કુમાર શાળામાં શિક્ષણ લીધું. ધોરણ ૫ મહાન વ્યક્તિ થશે. સાધુ જીવન ગાળશે. બીજા ગચ્છમાં જાય તેના થી ગલબીબાઈ મીડલ શાળામાં શિક્ષણ કરતાં તું ઘરમાં આપ ! મારા કરતાં સવાયો થશે. તારું નામ માટે દાખલ થયા. શિક્ષણમાં તેજસ્વી દીપાવશે. ગુરુ ગુચ્છનો પાટ દીપાવશે. પિતાશ્રી સંકોચાયા, પૂ. હતા. સારા માર્ક્સ મેળવી, અને પ્રથમ ગુરુદેવની વાણીને પાછી ઠેલવી તે બરાબર નથી. પિતાશ્રી.એ. નંબરે પાસ થયા. તેઓ વર્ગ શિક્ષકને જણાવ્યું કે જો દીક્ષા અપાવીશ તો ગુરુ ગચ્છમાં જ અપાવીશ. કહેતા કે અમારા સહાધ્યાયીઓ કોઈ પરંતુ પૂનમચંદ નાનો છે. બાળક બુધ્ધિ છે. ધાર્મિક અભ્યાસ કરેલો છૂટે નહીં. અલગ પડીએ નહીં. દરેકને નથી. તેથી પિતાશ્રી વિમાસણમાં પડ્યા. પૂ. મુનિરાજ શ્રી પાસ વગ મળે તે પ્રમાણે ધ્યાન વિધાવિજયજી અને પૂ. મુનિરાજશ્રી સાગર વિજયજીએ પિતાશ્રીને આપવાની નાની વયમાં જ ઉદારતા ! સમજાવવા માટે એક તરફ લઈ ગયા. પિતાશ્રીના મનમાં વાત ધાર્મિક અભ્યાસ, પાઠશાળામાં જવાનું ! ઉતરી ગઈ. શ્રી પૂનમચંદભાઈ દોશીએ ધાર્મિક | બીજા દિવસે વહેલી સવારે પૂ. આચાર્ય દેવનો વિહાર ડોડીયાથી શ્રી પોપટલાલ ધરૂ શિક્ષણથી પૂનમચંદભાઈના જીવનમાં થયો. પૂનમચંદભાઈ પૂ. ગુરુદેવ સાથે ધાનેરા ગયા. પિતાશ્રીએ પૂ. દીપાવ, વાણીને પાછી વાળ તો ગુરુ ધાર્મિક અભ્યાસ વિનાનાદિ દિન પર વિમાની ૪૩ वृत्ति विनय की है नहीं, घट में भरा गुमान । जयन्तसेन अशक्य है, मानवता का ज्ञान || www.jainelibrary org Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગુરુદેવ પાસે જઈને જણાવ્યું કે પૂ. ગુરુદેવ પૂનમચંદ ને ઘેર મૂકો. પૂનમચંદ ભાઈની દીક્ષા સાથે જાવરા નિવાસી ભેરુ મલજીના સુપુત્ર હું આપના ચાર્તુમાસમાં અભ્યાસ માટે મોકલીશ. પૂનમચંદભાઈ ઘરે કાંતિલાલજીને પણ દીક્ષા આપવા નિર્ણય થયો. દીક્ષાર્થી પૂનમચંદ આવ્યા. ડોડીઆથી માતા પાર્વતીબાઈ થરાદ અમોને સાથે લઈને અને દીક્ષાર્થી કાંતિલાલને સિયાણાના નગરજનો તરફથી વાનોળા. આવ્યા. પૂનમચંદભાઈએ ઘેર આવ્યા પછી પાઠશાળામાં ધાર્મિક - વરઘોડા સાથે આપવામાં આવ્યા. તે સમયમાં સિયાણા નગર શિક્ષણ તરફ જ લક્ષ આપ્યું. અમે બંને ભાઈઓ બોલીએ મને શણગારવામાં આવ્યું. થરાદથી. પિતાશ્રી. મોટાભાઈ શાંતિલાલ માતુશ્રી. અભ્યાસમાં ધ્યાન આપવા ઘણુ કહે ! પિતાશ્રીએ પૂનમચંદભાઈને નાનાભાઈ પોપટલાલ અને કુટુંબીજનો સિયાણા આવ્યા. દીક્ષાનો પૂ.આચાર્યદિવનાં ચાર્તુમાસ વાલી (રાજસ્થાન) અભ્યાસ માટે મોકલી દિવસ છે. માતા પિતા. હર્ષથી ઘેલા છે. શ્રીમાન સરેમલજી સંઘવીના આપ્યો. ઘેર પૂનમચંદભાઈનો દીક્ષા પ્રસંગ રાખવામાં આવેલ છે. વાજતે પરમ પૂ. આચાર્યદવ તરફથી પૂનમચંદભાઈને ધાર્મિક ગાજતે શ્રીમાન સરેમલજી સંઘવીના ઘેરથી દીક્ષાર્થી પૂનમચંદભાઈનો અભ્યાસમાં ધ્યાન પૂરતું આપવામાં આવ્યું. નાની વયમાં લોચનાદિ વરઘોડો ચઢાવવામાં આવેલ છે. દીક્ષા સિયાણા ગામની પૂર્વ કષ્ટ સહન કર્યા. એટલું જ નહીં પૂ. ગુરુદેવે પોતાના શ્રાવક દિશાએ પસાર થતી નદી કિનારે વડલા નીચે રાખવામાં આવેલ. કુન્દનમલજી ડાંગી પાસે પૂનમચંદ ભાઈને ધાર્મિક અભ્યાસ માટે હતી. જગ્યા ઉપર દીક્ષાર્થીઓના વરઘોડા આવી પહોંચ્યા. દીક્ષા. અને મનોબળની. ઉત્કૃષ્ટતા જોવા મોકલ્યા. પૂનમચંદભાઈએ ડાંગીજી વિધિ ચાલુ થઈ. માતા અને પિતાની આંખોમાં હર્ષના આંસુ પાસે, થોડા માસ રહી. એ.કલક્ષી અભ્યાસ કર્યો. ડાંગીજી પૂ. ગુરુદેવ આવ્યા. પૂ. ગુરુદેવે માતા અને પિતાને બોલાવી પૂનમચંદને વહોરાવવા. યતીન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજ પાસે સિયાણા ચાર્તુમાસ દર્શનાર્થે પધાર્યા. જણાવ્યું. માતા અને પિતાએ ઉજ્જવળ મનથી આજ્ઞા આપી. સિયાણા તેઓએ તેમનો. અંગત અભિપ્રાય રજુ કર્યો ગુરુદેવ પાસે, નગરજનોનાં હૃદય આંનદઘેલા બન્યાં. નામકરણ વિધિથી પૂનમચંદ પૂનમચંદભાઈનો ! ગી ભાઈનું નામ પૂ. મુનિશ્રી જયંતવિજયજી રાખવામાં આવ્યું. પૂ મુનિરાજશ્રી ચારિત્ર વિજયજી અને પૂ. મુનિરાજશ્રી કાંતિ વિજયજીએ. - પૂ. ગુરુદેવનું સ્વાચ્ય બરાબર રહેતું ન હોવાથી પૂનમચંદને | પિતાશ્રીને પોતાની બાજુમાં બેસાડ્યા. પિતાશ્રી અને માતુશ્રી, ગદગદ દીક્ષા અપાવવા માટે સરૂપચંદ ભાઈને કાગળ લખી સિયાણા કંઠના થઈ ગયા. બીજા દિવસે ઉતારાના મુકામ ઉપર પૂ. મુનિશ્રી. બોલાવ્યા. પૂનમચંદભાઈને દીક્ષા અપાવવામાં કોઈ તકલીફ નથી. જયંતવિજયજીને પગલાં કરવા પૂ. ગુરુદેવશ્રીને વિનંતી કરી અને પૂનમચંદને જોઈતો અભ્યાસ થએલ. છે. મનોબળ મક્કમ છે. તારું | આજ્ઞા આપી. પુ. મુનિશ્રી જયંતવિજયજી પધાય અન્ય મુનિરાજો નામ ઉજ્જવળ કરશે. તું જલ્દી દીક્ષા અપાવે તેમાં સારું, પૂનમચંદે સાથે પિતાશ્રીના મુકામ ઉપર યથાશક્તિ વહોરાવી. લાભ લીધો. પણ પિતાશ્રીને દીક્ષા જેમ બને તેમ જલ્દી અપાવવા પત્ર લખેલ. | પિતાશ્રીએ પોતાના પુત્ર પૂનમચંદ જે પૂ. મુનિશ્રી જયંતવિજયજીને હતો. સરૂપચંદભાઈએ જણાવ્યું કે હું થરાદે જઈ મારા કુટુંબીજનોને જણાવ્યું કે પૂ. મુનિરાજશ્રી અમારા કુળની અને ગામની અને મારા પૂછીને જણાવીશ. આપ પૂનમચંદને ઘેર મળવા મોકલો. ઘેર કુટુંબની આબરૂ વધારજો. ચારિત્ર ખાંડાની ધાર છે. આપ સારી. દીક્ષાર્થીને દરેક મળી શકે પૂ. ગુરુદેવની આજ્ઞા લઈ પૂનમચંદ થરાદ રીતે નિભાવજો. . આવ્યા માતા-પિતા અને વડીલ ભાઈઓ, દાદીમાં, દરેકની પાસે દીક્ષા અપાવવા આજ્ઞા માગી. દરેકનાં હૈયા હર્ષના આંસુથી ઉભરાઈ - કોને ખબર હતી કે પૂનમચંદ દીક્ષા લેશે. અમારું નામ ગયાં. દીપાવશે અને આજની કક્ષાએ પૂ. ગુરુદેવની પટાવલી શોભાવશે. કોટિકોટિ પ્રણામ હો તીર્થ પ્રભાવક પૂ. આચાદિવશ્રી જયંતસેન | સવંત ૨૦૧૦ નું વર્ષ મહા સુદ ૪નો દિવસ દીક્ષા માટે નક્કી સૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબને ! થયો. દીક્ષા. સિયાણા નગરે આપવા. નિર્ણય કરવામાં આવ્યો. ( થરાદ જ થવા પત્ર લખ સાથ ને મળવા જાઉંટુંબીજનોને પિતા (અનુસંધાન પાના ૪, ૪૬ ઉપરથી) મયણા સુંદરી નો રાસ” વંચાય છે. આપણે સાંભળીએ છીએ કે નથી. પછી પરિભ્રમણની આ શૃંખલાને ભેદવાનો માર્ગ તો શું શ્રીપાળે સંકટના સમયમાં શ્રી સિદ્ધચક્ર ની આરાધના કરી. અને એ - સુઝશે ? આપણે પણ ભક્ત છીએ. વીતરાગના અને - વીતરાગે આરાધનાના પ્રભાવે સિદ્ધચક્રનો સેવક વિમલેશ્વર દેવ શ્રીપાળની જેમ કર્મસત્તાને ઓળખી, પારખી તેમ આપણે પણ એજ કમસત્તાની સેવામાં હાજર થયો. શ્રીપાળે વિમલેશ્વરની સ્તુતિ કરી હોતી ? સામે આપણા જીવનમાં ધર્મસત્તા ને ગોઠવશું તો અવશ્ય મુક્તિમાર્ગે ખુમારી. જોઈએ અરિહંતના આરાધકમાં-ઉપાસકમાં- અરિહંતની અગ્રેસર થઈશું. ભક્તિની ! જ્યારે જીવ રાંકડો બને છે ત્યારે કર્મસત્તા તેની ઉપર સવારી ધનવાનની સેવા કરતાં સેવક ધનવાન થાય ગુણવાનના ગુણો. કરે છે. સંસારના રંગમંચ ઉપર નાચ નચાવે છે. જો જીવ પોતાની. ગાતાં ગાયક ગુણવાન થાય તેમ અરિહંતની ભક્તિ કરતાં ભક્ત અપૂર્વ શક્તિનો પરિચય એકવાર કર્મસત્તાને બતાવી દે તો. કોઈ પણ અવશ્ય અરિહંત બને જ તેમાં કોઈ શંકાને સ્થાન જ નથી. તાકાત નથી કે કર્મ જીવની સામે મોરચો માંડે. આખરે તેને વિદાય લીધે જ છુટકો. તાકાત જોઈએ, આપણામાં તેને હરાવવાની, હંફાવવાની. ‘ગાવાં તારા ગીતડાં ને સંસારે છે રાગ’ બસ પછી તો વિજય કર્મસત્તાની સામે આત્માનો જ નિશ્ચિત એ રાગ જે સંસારનો છે. તે છોડવો જ પડશે. રાગની દશામાં ભાન ભૂલવાથી. આત્માને પરિભ્રમણનું સાચું કારણ પણ સૂઝતું | છે. ટીમની સેનાીિમિળ, પથિ ગુજરાતી વિભાગ असभ्य बन कर मानवी, क्यों करता अभिमान । जयन्तसेन सभ्य बनो, जीवन बने महान ।। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152165777 ***** મારગડો મુક્તિ તણો get or gajjar (પૂ. મુનિરાજશ્રી પ્રશાંતરત્ન વિજયજી) Kam felis irrefe 38 HTTPS HOME વાત્માની ઢિ ગતિમય પ્રવૃત્તિ છે. એક તો સંસારની અને બીજી સિહત્વપણાની, સંસાર એટલે આત્માનો કર્મ સત્તાથી સંબંધ. અને એજ સંબંધનો વિચ્છેદ અન કર્મોથી મુક્તપણાની અવસ્થા એજ સિદ્ધગતિ. સંસારથી સિદ્ધિ પામવામાં અવરોધક તત્વ માત્ર કર્મસત્તા જ છે. સંસારમાં પણ દેખાતી તમામ વિષમતાઓનો જો કોઈ સર્જનહા૨ દુનિયામાં વિદ્યમાન છે તો તે માત્ર કર્મ જ છે. કર્મની જ તો આ બધી લીલા છે. વિચિત્રતા છે બલિહારી છે ! જુઓ ને. એક વિદ્યાર્થી શાળામાં જ ભણીને પ્રથમ નંબરે આવે છે. જ્યારે એજ શાળામાં બન્નીને, પ્રાયવેટ ટ્યુશન્સ કરીને પરીક્ષાના સમયે રાત્રિ જાગરણો કરવા દ્વારા અથાગ પરિશ્રમ કરે છતાં બીજાનું પરિણામ નિષ્ફળતામાં સાંપડે ! એક જીવ સંસારના વિવિધ રંગ-રાગમાં રાચે, માર્ચ, વિવિધ દ્રશ્યોને દર્શની મનમોહક સ્થાનોને નિશ્વળતો મસ્ત થઈને ફ બીજો જીવનભર અંધ થઈને બીજાને બોજારૂપ બની જીવન વ્યતીત કરે. કંઈ જ મહેનત ન કરનાર શેઠ માત્ર પેઢીની ડનલોપની ગાદી પર બેસીને આરામ કરે અને છતાંય કરોડો રૂપીયાની આવક કરે. બીજો દિવસભર પરસેવાનાં ટીપાં પાડીને સાંજે માંડ બે ટંક પેટ ભરવા પુરતું ય ન પામી શકે ! એક જીવનમાં મેળવેલી સાધન, સામગ્રીઓ ટી.વી., ફ્રીઝ, ફેન, ફર્નિચર, ફિયાટ, ફોન, સોફાસેટ, જેવી અદ્યતન સામગ્રીઓના ભોગ વિલાસમાં ચકચૂર બને. બીજાને મળેલી એજ સામગ્રીઓ છતાંષે અશાંતિ સતાવ્યા જ કરે. એક જીવ સંસારમાં જન્મ લેતાં પૂર્વે જ વિદાય થાય. કોઈ જન્મ લઈ મજેની નાનકડી જીંદગી જીવી જાય. જાતિય અપૂર્વ આહલાદ મેળવી જાય. કોઈ જીવ ઘણી લાંબી જીંદગીના પાછળના કાળમાં બીજાનો સહારો લઈ બોજરૂપ થઈ મરતાંી સહા ડાબી ભોગવતો થવાય કરતો કરતો વિદાયગીરી લે. કોઈકને સંસારમાં યે સ્વર્ગનાં દર્શન થાય ! એજ સંસાર કોઈકને નરકના કારગાર મ બોઝીલ બની રહે. કોઈ પુત્ર પત્ની - પરિવાર મળવા છાંય સુખી ન થાય. ઊઈક વર્ગી પુત્ર-પત્ની અને પરિવાર 1 પામવાની ઝંખનામાં દુઃખી થઈ જાવ એકને માટે કારી વાડી ને ગાડી ર ામાં હાજર એકને દરરોજ ચા ના ફટકાની માર ! આવું બધુ ષમ વાતાવરણ મુનિરાજશ્રી પ્રશાંતરત્નવિજયજી પીપર, બાય, અજરાતી વિભાગ epis) reht fi ૪૫ for his muje for the Gue 13 The 1-Elis & 1993 HERE Tips -beg ht S bhoj ful In this hb Di B કોણ સર્જે છે ? કોઈ નથી બીજો ? સ્વયંની વિષમતા કે સમતાનો સર્જક તો સ્વયં જ છે. આ દ્રષ્ટિ મળી નથી. આપણને માટે તો સંસારનાં દુઃખો ને ભોગવવા માટે પુન : પુન : આવાગમન કરવું પડે છે ! ચૌદ રાજલોકમાં કર્મની વાર્ષો તો ઠાંસી ઠાંસીને ભરેલી છે. તેને કર્મબંધના હેતુઓથી જીવ સ્વયં ગ્રહણ કરે છે. પોતાનાં જ નિર્માણ કરેલા શુભાશુભ અદ્યવસાયોના જોરે સુખો અને દુઃખોને નિમંત્રણ અપાય છે. કર્મબંધ જીવ ક્યાં - ક્યાં કારણોથી કરે છે. મિથ્યાત્વ અવિરતિ પ્રમાદ કષાય અને યોગ. આજ પાંચ કારણો છે. કર્મનો બંધ થવામાં શ્રી જિનેશ્વર ભગવાનની પ્રરૂપિત વાણીમાં, શ્રદ્ધા ન થવી, અથવા ઉલટી શ્રદ્ધા થઈ જવી. અથવા શ્રદ્ધા કે અશ્રદ્ધા કાંઈ પણ ન થવું તેજ મિથ્યાત્વ કહેવાય. તેના આભિપ્રતિક અનાભિપ્રકિ આભિનીવેશિક - સાંશિયક અને અનાભોગિક એમ પાંચ ભેદ છે. હિંસાદિ દુષ્ટ પ્રવૃત્તિમાં આપણી પ્રગતિ તે અવિરતિ- અવરિત પાંચ ઈન્દ્રિય, છઠ્ઠું મન, અને ષટ્કાયના જીવોની વિરાધના રૂપ બાર ભેદની હોય છે. ધાર્મિક અનુષ્યનો કરતાં ઉત્સાહનો અભાવ. કે આળસ વિ. ને કારી ભાવની મંદતા તે પ્રમાદ, માદક પદાર્થોનું સેવન, ઈન્દ્રિયના વિષયની કંપટના, કાર્યોમાં પ્રવૃત્તિ, નિા અને ચાર વિકથા એમ પાંચ ભેદે જીવ પ્રમાદાચરણનું સેવન કરે છે. ક્રોધ-માન-માયા અને લોભ રૂપ ચારેય કષાયો તથા મન-વચન અને કાયાના યોગોથી જીવ કર્મની પ્રકૃતિઓને ગ્રહણ કરી તેનાં ફળ ભોગવે છે. આજ પાંચ બંધ ઋતુધી જીવ ચૌદ રાજલોકમાં સ્થિત ઔદારિક, વૈક્રિય, આહારક, શ્વાસોશ્વાસ, ભાષા, મનઃ, તેજસ અને કાણ વગરાઓને ગ્રહણ કરે છે. શત્રુ કરેલી કામ વર્ગાઓ નિશ્ચિત્ત સમય સુધી તો પોતાની સતા જમાવે છે. સમયનો પરિપાક થવાથી કર્મસત્તા જીવ પર સવાર થઈ જાય છે. પછી આ જીવ રાંકડો થઈને સંસારમાં કર્મોનાં કટુ ફળોને ભોગવતો જ જાય છે. પછી નથી તેને માટે છુટવાની કોઈ બારી કે નથી કર્મોની નાગચૂડમાંથી બાર નીકળવાનો માર્ગ, માટે તો મહાપુરુષો આપણને વારંવાર Warning દેતાં કહે છે બંધ સમય ચિત્ત ચૈનીચે 3-ઉદય શો સના કરેલાં કર્મો ત્રણ પ્રકારનાં હોય છે ? મા સર્વવાની, દેશપાતી અને અપાતી. ને સધાતી દેશપાતી અને અપાતી કર્મો આત્મા ઉપર પોતાની અસર કેવી બતાવે છે. તેની થોડીક વિચારણા કરી લઈએ. સર્વઘાતી કર્મો સૂર્યને જેમ રાહુ ગ્રસી લે છે. અને રાહુનું करो नहीं व्यवहार में, निज पर का अपमान । जयन्तसेन मिले सही जीवन का सज्ञान ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગ્રહણ થતાં જ કાળો ભમ્મર રાહુ સુર્યને આવરી લે છે. ત્યારે પૃથ્વી. | સહજ સુખને વરે છે. દુનિયાના પદાર્થોમાં સુખનું સંવેદન તથા પટ પર ઘોર અંધકાર છવાઈ જાય છે. દિવસે પણ રાત્રિની જેમ દુઃખોનું આવવું તે વેદનીય કર્મને આધીન છે. મધુલિપ્ત તરવારની આકાશમાં તારામંડલ દ્રશ્યમાન થાય છે. સૂર્યનો પ્રકાશ ક્યાંય ધાર સમાન આ કર્મ છે. પ્રથમ ક્ષણે મધુના આસ્વાદનથી. સુખ થાય વિલીન થઈ જાય. દિવસ કે રાત્રિની ઓળખ પણ મુશ્કેલ થાય છે. અને પછી પરિણામની ભયંકરતાના દર્શન થાય છે. તેનો પણ એવી રીતે સર્વઘાતી કર્મો આત્માના અનંત ગુણોનો એવો જબ્બરજસ્ત આપણા આત્મા સાથે વધુમાં વધુ ૩૦ કો. કો. સા. અને ૧૨ ઘાત કરે છે કે આત્મા અનંતગુણોનો સ્વામી છે, તેવું તેને સહેજેય મુહૂર્ત ઓછામાં ઓછો સબંધ ધરાવે છે. આયુ કર્મ-બેડી સમાન છે. પ્રતીત થતું જ નથી. આયુષ્ય રૂપ બેડીથી બંધાયેલો જીવ જ્યાં સુધી આયુષ્ય પુર્ણ ન દેશઘાતી કર્મો હજા, સર્વઘાતી કરતાં કંઈક હળવી કોટીનાં થાય ત્યાં સુધી ક્યાંય જઈ શકતો નથી. અક્ષય સ્થિતિ નામનો. જરૂર કહી શકાય. જેમ વર્ષાઋતુમાં સૂર્યની ફરતે વાદળો ઘેરાઈ આત્મગુણ હોવા છતાં. આત્માને આ કર્મ જન્મ-મરણના ચકરાવે જાય અને સૂર્યના પ્રકાશને દબાવી દે સૂર્યનું સ્પષ્ટ દર્શન ન થવા દે ચડાવી દે છે. વધુમાં વધુ આયુષ્ય સવથિસિધ્ધિ અનુત્તર વિમાનવાસી છતાંયે અંશત. : પ્રકાશથી રાત્રિ કે દિવસ નો ભેદ તો છતો થઈ તથા સાતમી નરકનું છે. જ્યાં ૩૩ સાગરોપમ સુધી જીવને વાસ જાય. આત્માના અનંત ગુણોનો અંશતઃ દિશથી) ઘાત કરે. પણ તે કરવો પડે છે. અને ઓછામાં ઓછું અંતઃ મુહૂર્તનું પણ આયુષ્ય ગુણોને સર્વતઃ છાવરી દે નહિં. અઘાતી કર્મો આત્માના મુલ જીવ બાંધી લે છે. ગુણોનો કોઈપણ રીતે ઘાત ન કરે. છતાં આત્માની મુક્તિ તો ન જ ગૌત્ર કર્મ- કુંભાર સમાન છે. જેમ કુંભાર પણ બે પ્રકારના થવા દે. જેમ આપણી અને સૂર્યની વચ્ચે વહેતો સમીર (પવન) સૂર્ય સારા અને ખરાબ ઘડા બનાવે છે. તેમ જીવ પણ ઉચ્ચ અને નીચ દર્શન થવામાં વિઘ્ન નથી કરતો તેવાં અઘાતી કર્યો છે તે પણ કુળમાં જન્મ ધારણ કરે છે. આત્મા તો અગુરૂ લઘુ ગુણનો સ્વામિ આત્માનાં મૂળ ગુણોને દબાવી ન શકે.. છે. છતાં આ કર્મથી. તેમાં ઉચ્ચ-નીચ કૂળનો વ્યવહાર થાય છે. આ સર્વ તથા દેશઘાતીમાં મૂળ આઠ કર્મોમાંથી ૪ કર્મોનો જ કર્મનો સંબંધ જીવ સાથે વધુમાં વધુ ૨૦ કોડાકોડી સાગરોપમ સમાવેશ થાય છે. ઓછામાં ઓછો ૮ મુહૂર્ત સુધી રહે છે. અઘાતી કર્મનું છેલ્લું નામ | જેમ પાટો વચ્ચે આવવાથી સામે રહેલી ચીજનું સ્પષ્ટ દર્શન કર્મ ચિત્રકાર જેવું છે. જેમ ચિત્રકાર વિવિધ ભાંતિના ચિત્રોને ન થાય તેમ જ્ઞાનાવરણીય કર્મ એ આંખ પર બાંધેલા પાટા જેવું છે. ચિત્રિત કરે છે તેમ અરૂપીપણાના ગુણવાળા ચેતનને ગતિ, જાતિ, તે આત્માના અનંતજ્ઞાન ગુણનો ઘાત કરી આત્માને અજ્ઞાન દશામાં શરીર વિ- જુદાજુદા પ્રકારનાં નિમણિ કરી આપે છે. રખડાવે છે. તે વધુમાં વધુ ૩૦ કોડા કોડી સાગરોપમ સુધી. - શરીરમાં રહેલી તમામ વિકૃતિ જે રચના સંબંધી છે તેનો. આત્માની સાથે ચોંટી રહે છે. ઓછામાં ઓછું અંતઃ મુહૂર્ત. સર્જક નામ કર્યુ છે. દર્શનાવરણીય કર્મ - તે પાળીયા એટલે કે દ્વારપાળ જેવું છે. તે જેમ તેની સ્થિતિ પણ ગોત્ર કર્મ જેટલી છે. આવી. ગહનતમ રાજાના દર્શન કરવામાં વિરોધી બને છે તેમ વસ્તુને સામે રહેલી કર્મસત્તાનો તાગ કોઈક વિરલા પુરુષો જ પામી શક્યા છે. માટે તો. વસ્તુનું સામાન્ય દર્શન પણ થવા ન દે. અનંત દર્શન જે આત્મગુણ એક કવિ પણ કહે છે - છે તેની વાત કરે છે. ૩૦ કોડાકોડી સાગરોપમ વધુમાં વધુ અને કર્મ કરો જરા શોચ કે, ઈન કર્મો કી બડી બુરી માર હૈં ઓછામાં ઓછું અંતઃ મુહૂર્ત સુધી આત્માની સાથે સંબંધ ધરાવે છે. નહીં બચ કા હૈ પરમાત્મા, તો ઔરોં કા ક્યા એતબાર હૈ. | મોહનીય કમ મદિરા સમાન છે. મદિરા પીનાર વિવેકભ્રષ્ટ | કર્મ ને કરતાં પહેલાં જ ખૂબ વિચાર કરી લો કરેલાં કર્મો તો. થઈ સારાસારનો વિચાર નથી કરી શકતો. તેમ આ કર્મથી. આત્મા. પરમાત્મા જેવા દિવ્ય આત્માઓને પણ ભોગવવાં જ પડ્યાં છે. ને હેય, ઉપાદેયનો વિવેક નથી રહેતો. આત્માનો ગુણ સમ્યક્ત્વ આ દુનિયામાં કર્મતણો જ વેપાર છે. ત્યાં નથી. કોઈ નાના કે અને અનંત ચારિત્ર છે તેનો ઘાત કરે છે. આઠેય કર્મોમાં સૌથી વધુ મોટા, શેઠ શાહુકાર, સ્વામિ કે સેવકનો ભેદભાવ- કર્મ વિજ્ઞાનની ઘનિષ્ઠતા ૭૦ કો. કો. સા. ની સ્થિતિ આ કર્મ ધરાવે છે. જે સુક્ષ્મતા આપણને શ્રી જિનેશ્વર ભગવંતોએ બતાવી છે. તેવી. ઓછામાં ઓછી. અંતઃ મુહૂર્તની. ચોથું અંતરાય કર્મ જે ભંડારી જેવું ઝીણવટભરી સમજણ દુનિયાનો બીજો કોઈ દેવ દેશવિી શકે તેમ છે જેમ દાન દેવાની ઈચ્છા હોવા છતાં તેનો ભંડારી દેવામાં વિઘ્ન નથી. અરિહંત જેવા કર્મ વિજેતા દેવ આપણને મળ્યા છે છતાં કરે, ન દેવા દે. અનંત શક્તિનો ધારક આ ચેતન છે છતાં અત્યારે ફળ્યા નથી તેનું શું કારણ ? એ અતુલ સમર્થતાનો અનુભવ ન થવા દેનાર આજ કર્મ છે. દેવમાં રહેલી દિવ્યતાનું દર્શન આપણને થયું નથી. એ દેવમાં અનંતવીય રૂપ આત્મગુણ નો ઘાત કરે છે. આપણો ભરોસો નથી ! માટે જ તો દુનિયાના બીજા દેવ-દેવીઓને તેનો જીવ સાથે રહેવાનો વધુ માં વધુ ૩૦ ક. કો. સા. શોધવા જવું પડે છે. જો આપણા જ અરિહંત દેવમાં આપણને અને ઓછામાં ઓછો. અંતઃ મુહૂર્તનો સમય છે. આ તો થઈ પુરેપુરો વિશ્વાસ બેસી જાય તો પછી બીજા દેવી-દેવલાંની આશા વિચારણા. સર્વ તથા દેશઘાતીનાં ચાર કર્મોની, હવે કરીએ ચચ શીદને કરવી ? પૂર્વના મહાપુરુષોના જીવન જુઓ જે સ્વયંનું આત્મ અઘાતી કર્મોની. કલ્યાણ સાધી ગયા. તેઓમાંથી કોણે જઈને દેવી-દેવતાને પ્રસન્ન અઘાતી કર્મો પણ ચાર કર્મીમય છે. કર્યા હતા ? દર વર્ષે આપણે ત્યાં પરમ્પરાનુસાર બે વખત “શ્રીપાળ વેદનીય કર્મ-આત્માનો ગુણ અવ્યાબાધ અનંત સુખ છે. (અનુસંધાન પાના. ક્ર. ૪૪ ઉપર) આત્મા કોઈપણ ભૌતિક વસ્તુની અપેક્ષા વિના પણ સ્વાભાવિક વિજારોમ સાહિબિનકાઇ મશરા રાણી પિંભા करो आचारण सत्य का, सुनो सभी उपदेश । जयन्तसेन मिले सदा, जीवन सौख्य विशेष ।। www jainelibrary org Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્યાદ્વાદ : એક સમીક્ષા ( સ (શ્રી માવજી કે. સાવલા, ગાંધીધામ) જગતના દર્શન શાસ્ત્રમાં સ્યાદ્વાદ એ જૈન દર્શનનું એક ઉચ્ચારીએ છીએ યા વિધાન કરીએ છીએ એ માત્ર આંશિક સત્ય આગવું અને મૂલ્યવાન પ્રદાન છે. સ્યાદવાની સમજ વગર જૈન હોવાનું અને એની સત્યતા એના ‘નય' પર આધારિત હોય છે. દર્શનની જ્ઞાન મીમાંસા અને દ્રવ્ય મીમાંસાને સારી રીતે સમજી સાદ્વાદમાં આ સિધ્ધાંતને સમજાવવા માટે “અંધ - હસ્તિ - શકાય જ નહિં. ‘સ્યાદ્વાદ મંજરી'ના ટીકાકાર હૈમચંદ્રાચાર્ય સ્વાવાદ | ન્યાય' નું પ્રસિધ્ધ ઉદાહરણ આપવામાં આવે છે. છ અંધ વ્યક્તિ ની પરિભાષા કરતાં કહે છે કે ' અનંત ગુણાત્મક દ્રવ્યું '; એટલે કે | હાથીના જુદા જુદા અંગનો સ્પર્શ કરીને હાથીનું. જે વર્ણન કરે એ વસ્તુઓમાં નિત્યતા, અનિત્યતા આદિ અનેક ગુણોની ઉપસ્થિતિ વર્ણન કદી પણ હાથીના આખે આખા આકાર કે સ્વરૂપ સમજવામાં હોય છે દ્રવ્યમાં માત્ર અનંત ગુણોની ઉપસ્થિતિ હોય છે એટલું જ ઉપયોગી થાય નહિ અને હાથીના વર્ણન અંગે એ અંધ વ્યક્તિઓ. નહિ પણ એક-મેક થી વિરૂધ્ધ પ્રકારના ગુણોની ઉપસ્થિતિ હોવાનું વચ્ચે મતભેદ ચાલતો જ રહે. જુદી-જુદી. દાર્શનિક ધારાઓ. પણ જૈન દર્શન સ્વીકારે છે. આ રીતે દ્રવ્યની બાબતમાં જૈન વચ્ચેના મતભેદોનું કારણ પણ કંઈક આવા જ પ્રકારનું હોય છે. ' દર્શનનો અનેકાન્તવાદનો સિધ્ધાંત સ્યાદ્વાદની નક્કર ભૂમિકા બની આથી જૈન દાર્શનિકો એવું સૂચવે છે કે પ્રત્યેક વાક્ય કે નય રહે છે. (Judgement) ની આગળ ‘સ્યાદ્ શબ્દ મૂકવો જોઈએ. ‘સ્યાદ્' ડૉ. રાધાકૃષ્ણને જૈન દર્શનને Pluralistic Healism કહયું છે; શબ્દને કારણે એવું સૂચિત થાય છે કે એની સાથે જોડાયેલા અટલે કે જૈન દર્શન બહુ સત્તાવાદી છે તેમજ વાસ્તવવાદી છે; વિધાનની સત્યતા અમુક અપેક્ષાએ જ એટલે કે કોઈ એક ચોક્કસ કારણ કે જૈન દર્શન પ્રત્યેક આત્માનાં એકમેકથી. ભિન્ન એવા દ્રષ્ટિકોણ પુરતી સીમિત છે. એ વિશેષ દ્રષ્ટીકોણ સિવાયની બાબતમાં અસ્તિત્વને સ્વીકારે છે અને જગતના અસ્તિત્વને પણ એક વાસ્તવિક એ વિધાન મિથ્યા પણ હોઈ શકે. હકીકત તરીકે સ્વીકારે છે. આની સામે સાંખ્ય દર્શન માત્ર પુરુષ - અહિં એમ જણાય છે કે જૈનોના પંચમહાવ્રતમાં મૃષાવાદ પણ અને પ્રકૃતિ એવાં બે જ તત્ત્વોનું અસ્તિત્વ માન્ય કરતું હોવાથી એક મહાવ્રત છે વાણીના બારામાં મૃષાવાદનો દોષ ન લાગે એ માટે દ્વૈતવાદી કહેવાય છે ; જ્યારે વેદાન્ત દર્શન એક માત્ર બ્રહ્મતત્વની. આ પ્રકારની સ્યાદ્વાદની જૈન દાર્શનિકોની વ્યવસ્થા સુસંગત જ છે. સત્તા - અસ્તિત્વ માન્ય કરે છે તેથી એકતત્વવાદી, Monistic | એક ઓરડાના ખૂણામાં પડેલા લાલ રંગના ઘડાને જોઈને “ઘડો છે” કહેવાય છે. એમ કહેવાને બદલે “અમુક અપેક્ષાએ (સ્યા) ઘડો છે” એમ કહેવું. આ રીતે તાત્ત્વિક પદાર્થોના બારામાં જેવી રીતે જૈનદર્શન બહુ જોઈએ, કારણ કે ‘સ્વાદુ’ શબ્દથી એ સ્પષ્ટ થાય છે કે ઘડાનું સત્તાવાદી છે, એવી જ રીતે જ્ઞાન મીમાંસામાં પણ જૈન દર્શનનો અસ્તિત્વ કાળવિશેષ, સ્થાનવિશેષ તેમજ ગુણવિશેષની અપેક્ષાએ. દ્રષ્ટીકોણ અનેકવાદી Pluralistic છે. એટલે કે દ્રવ્યના બારામાં જૈન દર્શનનો અનેકાન્તવાદ અને જ્ઞાનની બાબતમાં સ્યાદ્વાદ એ સ્યાદ્વાદ સિધ્ધાંતનો ભાવાર્થ એવો પણ થઈ શકે છે કે એક જ સિક્કાની બે બાજાઓ સમાન છે એમ કહી શકાય. જૈનોની દ્રષ્ટી મતમતાંતર બારામાં ઉદારવાદી છે. સ્યાદ્વાદ દ્વારા. | આપણે જોયું કે વસ્તુમાં અનંત ગુણો છે; સામાન્ય રીતે અન્ય દાર્શનિક ધારાઓની ઉપેક્ષા કરવાને બદલે આવી જે તે મનુષ્ય કોઈ એક જ સમયે વસ્તુનું નિરિક્ષણ એક ચોક્કસ. દ્રષ્ટીકોણથી દાર્શનિક ધારામાં અમુક અપેક્ષાએ સત્યતા હોઈ શકે એવું ગૃહિત જ કરી શકે. પરિણામે એનું આવું દર્શન - અવલોકન આંશિક જ થઈ શકે છે. વળી. કોઈ પણ એક વિચારને પૂર્ણ પણે સત્ય લેખવાનું ' હોય. બીજા શબ્દોમાં કહીએ તો સાદુવાદની દ્રષ્ટીએ સ્વીકારી શકાય નહિ, કારણ કે એમ કરવાથી. વસ્તુઓમાં અનંત ગુણોનું હોવું અને એમાં તાર્કિક દ્રષ્ટિએ એકાંતવાદનો (Fallacy of exclusive માનવ શાનેન્દ્રિયો ની સીમિત particularity) દોષ આવે. અહિં એ પણ નોંધવું જોઈએ કે ગ્રહણશક્તિના કારણે આ બાબત પાશ્ચાત્ય તત્ત્વચિંતનમાં આધુનિક નવ્યવસ્તુવાદિઓ (Neo-Realists) અનિવાર્ય પણે એક હકીકત બની રહે પણ હવે એકાંતવાદનો વિરોધ કરતા થયા છે. એકાંતવાદના દોષથી. છે. આથી એક ચોક્કસ સમયે એક મુક્ત થવા માટેનો સ્યાદ્વાદ જેવો સિધ્ધાંત અન્ય કોઈ દર્શનોમાં વિશેષ દ્રષ્ટીકોણથી વસ્તુના થતા આંશિક જોવામાં નથી આવતો. જ્ઞાનને જૈન દાર્શનિકો ‘નય’ કહે છે સપ્તભંગી નય : આથી એ સ્પષ્ટ થાય છે કે કોઈપણ પાશ્ચાત્ય તર્કશાસ્ત્રમાં વિધેયવાચક અને નિષેધવાચક શ્રી માવજી કે. સાવલા બાબતમાં આપણે જે અભિપ્રાય (Affirmative and Negative) એમ બે પ્રકાર ભેદ વિધાન મીરનારારિ બિના, , રાતી વિભાગ ४७ मानवता का मूल्य क्या? इस का करो विचार । जयन्तसेन सफल बने, जीवन का व्यवहार ।। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્વીકારવામાં આવ્યા છે. સ્વાદુવાદ અનુસાર નય-પરામર્શ અને અભાવ એવા પરસ્પર વિરોધી ગુણોનું એક સાથે હોવું (Judgement) સાત પ્રકારના હોવાનું સ્થાપિત કરવામાં આવે છે. સંભવિત જ નથી. આવા ટીકાકારો કહે છે કે પ્રકાશ અને અંધકાર કોઈપણ વસ્તુ વિષે યા તો એ વસ્તુના ગુણ વિષે આમ જાદા-જાદા સાથોસાથ રહી શકે જ નહિ. બૌધ્ધ શ્રમણ ધમકીર્તિએ કહ્યું છે કે, સાત પ્રકારે વર્ણન થઈ શકે છે. આવા પ્રત્યેક નયની આગળ “જૈનોના આવા પરસ્પર વિરોધી વિધાનો ગાંડપણ માત્ર છે.” ‘સ્યાદ્ શબ્દ જોડવાને કારણે એ નય એકાંતિક યા નિરપેક્ષપણે સકારાચાર્યે પણ આવી જ ટીકા કરી છે. રામાનુજાચાર્યે સ્યાદ્વાદની સત્ય નથી એવી સ્પષ્ટતા સૂચિત થાય છે. ટીકા કરતાં કહયું છે કે, “અસ્તિત્વ અને અભાવ એવા પરસ્પર આ સાતે - સાત નયને ચાર આધારોની સંદર્ભમાં પણ વિરોધી ગુણો પ્રકાશ અને અંધકારની જેમ કદી પણ સાથોસાથ સમજવાના હોય છે. આ ચાર આધાર છેઃ (૧) દ્રવ્ય (૨) ક્ષેત્ર (૩) રહી શકે નહિ.” વેદાંતીઓની એક ટીકા એવી પણ છે કે જો બધા. કાળ અને (૪) ભાવ. જ નય માત્ર સંભવિતતા જ હોય તો સ્યાદ્વાદના સિધ્ધાંત અનુસાર સપ્તભંગી નયનું નિરૂપણ કરવા માટે જૈન દાર્શનિકોએ ઘડી. જ સ્યાદ્વાદ પોતે પણ એક સંભાવના માત્ર - એક આંશિક સત્ય નું દ્રષ્ટાંત પસંદ કર્યું છે. આ સાત પ્રકારના નયનું અહિં આપણે માત્ર બની જાય છે. માત્ર સંક્ષેપમાં જ. નિરૂપણ કરીશું; કારણ કે જૈન મુનિવરો અને દેખીતી રીતે જ જણાઈ આવે છે કે આવી ટીકાઓ તર્કસંગત વિદ્વાનો એનાથી સારી રીતે પરિચિત જ છે : નથી અને સ્ટાદ્વાદનું હાર્દ સમજયા વગર માત્ર પૂર્વગ્રહોથી પ્રેરાઈને (૧) સાદું ઘડો છે : આનો અર્થ એટલો જ થાય આવી ટીકાઓ થઈ છે. ઈસ્વીસનની ચોથી સદી પછીનો પાંચેક કે અમુક અપેક્ષાએ એટલે કે સદીઓનો કાળ જૈન દર્શન સામે બૌધ્ધો અને વેદિક દર્શનોનો ભારે એક ચોક્કસ સ્થળે એક તીવ્ર હરિફાઈનો સમય ગાળો હતો એટલે પણ આવી ટીકાઓ. નિર્ધારિત સમયે અમુક આકાર અપેક્ષિત જ હોય. પ્રકારના ઘડાનું અસ્તિત્ત્વ છે. ના પદાર્થમાં પરસ્પર વિરોધી ગુણો હોવાની વાત ટીકાકારોની (૨) સાદું ઘડો નથી : એટલે કે ચોક્કસ સ્થળે અમુક સ્ટાદ્વાદની અધકચરી સમજનું જ પ્રમાણ છે. પ્રત્યેક નય દ્રવ્ય, આકાર પ્રકારના ઘડાનું ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની અપેક્ષાએ છે એ વાત ટીકાકારોના ધ્યાનમાં. અસ્તિત્વ નથી. જ નથી આવી. વળી ‘દિવા તળે અંધારું'નું ઉદાહરણ દેશવેિ છે કે (૩) સ્યાદ્ ઘડો છે-અને ઘડો નથી : દાત. ઓરડામાં ઘડો છે પરંતુ એક જ સમયે પ્રકાશ અને અંધકાર નું અસ્તિત્વ હોઈ શકે પણ આ અગાશીમાં નથી, માટીનો ઘડો ઉદાહરણમાં ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અંધકાર અને પ્રકાશ સાથોસાથ નથી. છે, પરંતુ સોનાનો ઘડો નથી. એ પણ નય થકી સ્પષ્ટ છે. (૪) સાદુ ઘડો અવર્ણનીય છે : ઘડો કાચો હોય ત્યારે લાલ સ્યાદ્વાદ અનિશ્ચિતતાનું પોષક છે અને પરિણામે એ ‘સંશયવાદી રંગનો હોય, પાક્યા પછી બની જાય છે એવી ટીકા કેટલાક પશ્ચિમના વિદ્વાનો કરે છે. આવી. કાળો રંગ હોય – અથવા ટીકા પણ પાયા વગરની છે. ઉલટાનું સાત જુદા-જુદા નય થકી તો અંધકાર ને કાંરણે ઘડાના પ્રત્યેક નય દ્વારા પ્રસ્તુત વિધાન વધુ સ્પષ્ટ, નિશ્ચયાત્મક અને એક રંગનું ચોક્કસ વર્ણન થઈ શકે ચોક્કસ પરિસ્થિતિને કેન્દ્રમાં (Focus) મૂકનારું બની રહે છે. નહિ.. * સાદ્વાદના સિધ્ધાંત દ્વારા જ સ્યાદ્વાદ પોતે એક આંશિક બાકીના ત્રણ નય ઉપરોકત ચાર નયના જુદા-જાદાસંયોજનો સત્ય બની જાય છે એવી શંકરાચાર્યની ટીકાનું અસરકારક પરિક્ષણ જેવા જ છે, જે નીચે મુજબ છે. થવું જ જોઈએ. અહિં એમ જણાઈ આવે છે કે સ્યાદ્વાદને માત્ર (૫) સા ઘડો છે અને ઘડો અવર્ણનીય છે. શબ્દોના ચોકઠાંમાં સમજી શકાય નહિ. સ્યાદ્વાદના. હાર્દને સમજ્યા. (૬) સાદું ઘડો નથી –અને ઘડો અવર્ણનીય છે. તે પછી જ એની. સ્વસ્થ ટીકા થઈ શકે. એમ ટીકા કરવી. જ હોય તો (૭) સાદું ઘડો છે– ઘડો નથી—અને ઘડો અવર્ણનીય છે. કહી શકાય કે સ્યાદ્વાદના ખંડન માટે સ્યાદ્વાદનો જ આધાર દા. ત. ઘડો ઓરડામાં છે લેનાર વેદાંતી એક તર્ક-પદ્ધતિ તરીકે સ્યાદ્વાદનો સ્વીકાર કરે છે અને તો પછી એ જ સ્યાદ્વાદ અનુસાર એમનું પોતાનું દર્શન ઘડો છે પણ સોનાનો ઘડો | (વેદાન્ત દર્શન) પણ માત્ર આંશિક સત્ય બની જાય છે. નથી. ઘડાના રંગ વિષે | સ્યાદ્વાદ દ્વારા માનવ મનની, માનવ બુધ્ધિની, આપણી. ચોક્કસ કહી શકાય એવું જ્ઞાનેન્દ્રિયોની મયદાઓ અને સીમિત શક્તિઓનો સ્વીકાર કરવામાં નથી.. આવ્યો છે. આમાં કેન્દ્ર સ્થાને ‘સત્ય' આંશિક હોવાની વાત નથી. સમીક્ષા : પરંતુ આપણી મયદાઓ થકી થતું સત્યનું દર્શન આંશિક હોવાની. | ખાસ કરીને બૌધ્ધો અને વેદાંતીઓએ સાદ્વાદની ભારે સંભાવનાની વાત છે. સ્યાદ્વાદ પોતે કંઈ ‘પરમ સત્ય’ (Reality) આકરી ટીકા કરી છે. એમનું કહેવું છે કે એક જ વસ્તુમાં અસ્તિત્વ નથી, પરંતુ સત્યના દર્શન માટેની એક વિવેકયુક્ત રેખા છે. વેદાન્ત વિનાશકારી નિવારણ ૪૮ चुगली खाना है बूरा, अच्छा नहीं स्वभाव । जयन्तसेन नष्ट सदा, होता पुण्य प्रभाव ।। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દર્શન જ્યારે બ્રહ્મને જ એક માત્ર સત્ય કહીને જગતને માયા ગણાવે છે ત્યારે આ સિધ્ધતિ સમજાવવા જુદા-જુદા તર્કો અને ઉદાહરણોનો આશ્રય લે છે અદ્વૈતવાદના આ પ્રતિપાદન માટેના તર્કો એક અર્થમાં જુદા જુદા નય જ કેમ ન ગણી શકાય ? આ રીતે જ વેદાન્ત દર્શન જગતની સાપેક્ષ સત્યતા સ્વીકારે પણ છે. આજે વિશ્વના કેટલાક મહાન ગણાતા ધર્મોમાં પણ કંઈક એવું કહેવામાં આવે છે કે, "મારા ધર્મને કારણે આવશે એનો જ મોક્ષ થી." –બાકીનાઓ સાથેને માટે દોઝમાં સબડકી. જૈન દર્શન આવી કશી જ ઈજારાશાહીને સમર્થન આપતું નથી. જૈન દર્શનમાં સિધ્ધના પંદર પ્રકારનાં ભેદોમાંનો એક ભેદ સ્વયંબુધ્ધ સિધ્ધ' નો પણ છે (જુઓઃ નવતત્વ પ્રકરણ ગાથા ૫૮) અને એ માટે શ્રાવસ્તિ નગરીના કપિલ બ્રાહ્મણનું દ્રષ્ટાંત આપવામાં આવેલ છે. ભારતીય તત્વચિંતનમાં જે ઊંડાણ અને સૂક્ષ્મ તપાસણી છે એનો પશ્ચિમના તત્ત્વચિંતનમાં ઠીક ઠીક એવો અભાવ છે; આ વાતનો પાશ્ચાત્ય વિદ્વાનો વિનાપણે સ્વીકાર કરે છે. ચિંતનમાં ઊંડાણ અને સુક્ષ્મતાનું કારણ એ દેખાય છે કે આપશે ત્યાં ઠંઠથી શાસ્ત્રાર્યની એક વૈજ્ઞાનિક અને તંદુરસ્ત પરંપરા ચાલતી આવી છે.વાદે વાડે જાયંતિ તત્ત્વોધઃ' એવું સૂત્ર આ શાસ્રર્થની પરંપરાના પાયામાં છે. શાસ્ત્રાર્થનું લક્ષ્ય જ્ઞાનપ્રાપ્તિનું અને નહિ કે વિતંડાવાદ નું. મહાવીર સ્વામિએ એમના થનાર ગણધર ગૌતમનું સમાધાન આ પરિપાટીથી જ કરેલ. શંકરાચાર્ય અને મંડનિમશ્ર વચ્ચેની શાસ્ત્રાર્થની કથા પણ પ્રસિધ્ધ જ છે. પાશ્ચાત્ય તર્કશાસ્ત્રમાં John stuart Mill એ આપેલ એક તર્ક પધ્ધતિ Mill's Methods તરીકે ઓળખાય છે. આજે Mill ની આ પતિ વૈજ્ઞાનિક સંશોધનોમાં પણ અનુસરવામાં આવે છે. મિલની આ તર્કપધ્ધતિના પાંચ પગથિયાં નીચે મુજબ છે. (અનુસંધાન પાના ક્ર. ૬પ ઉપરથી) તેના શરીરનો ગંધ અને તેનું સર્વે પણ વર્તન ચંદનનાં વાસની જેમ સર્વત્ર સુગંધ વિસ્તારનાર થાય છે. સામર્થ્ય યોગનો જે બીજો ભેદ યોગ સન્યાસ નામનો પ્રાપ્ત થાય. ચૌદમાં અયોગી કેવલી ગુણસ્થાન પ્રાપ્ત કરીને પરમપદને મેળવે છે. કર્મભારાયો કર્મના શુભ આશયો જે ક્રિયાશુદ્ધિના હેતુ છે. તે પાંચ છે. યોગને અંગે કેટલી પ્રગતિ થઈ છે. તેના દર્શક તરીકે તેની ઘણી અગત્યતા છે. કર્મ શુભાશયો (૧) પ્રણિધાન (૨) પ્રવૃત્તિ (૩) વિઘ્નજય (૪) સિધ્ધિ (૫) વિનિયોગ (૧) પ્રવિધાન - ક્રિયા નિર્ણ, જે જે ક્રિયાઓ બતાવવામાં આવેલી હોય છે. તે કરવામાં આવે, પોતાના ધર્મસ્થાનથી નીચેના સ્થાનમાં રહેલા પ્રાણી ઉપર દ્વેષ ન આવે પણ કરુણા ઉપજે, તેઓ પર દયાના ભાવો ઉત્પન્ન થાય પણ તેના પર વૈરબુદ્ધિ ન થાય. (૨) પ્રવૃત્તિ ઃ- ધર્મ વિષયમાં પોતે જ પ્રયત્ન કરતો હોય તેનાથી શ્રીમદ્ વીનર અભિનંદન ગ્રંથગુજરાતી વિભાગ ITI Tr (૧) (૨) (૩) (૪) (૫) Method of Agreement Method of Difference Joint Method of Agreement and Difference Method of concomitant variation Method of Resictue મિલની આ તર્ક પધ્ધતિના પ્રથમ ત્રણ પગથિયાં સપ્તભંગનીયના પ્રથમ ત્રણ નય જેવાં જ છે એ દેખીતું છે. સ્યાદ્વાદ એ પોતે કોઈ હકીકત કે પરમ સત્ય નથી પરંતુ સત્ય પ્રતિ લઈ જનાર એક વિવેક યુક્ત સાધન છે, હકીકતોની ચાસણી માટેની એક પધ્ધતિ છે. સ્યાદ્વાદનું હાર્દ છે, સમભાવ, અન્યના વક્તવ્ય કે વિચાર પ્રત્યે ધીરજપૂર્વકનો આદર સાથોસાથ પોતાની જાત-તપાસ (Self enquiry) માટે પૂર્વગ્રહ રહિત પણે સદા ખુલ્લાપણું. oliver wendell holmes ના એક સુત્ર થી આ લેખનું અહિં સમાપન કરીએ. [], "The mark of a civilized man is his willingness to re-examine his most cherished beliefs." આધાર સંદર્ભો : • pis Indian Philosophy Vol.1 - Dr.S.Radhakrishnan (2) A Critical Survey of Indian Philosophy by Chandradhar sharma (3) An Introduction to Indian Philosophy by Chaterjee and Datta Joy An Introduction to Inductive Logic-V.V. Akolkar નવતત્ત્વ પ્રકરણ. (4) (5) અધિક અધિક પ્રયત્ન કર્યાં કરે. (૩) વિઘ્નજયઃ- બાહ્ય અંતર વ્યાધિ અને મિથ્યાત્વપર જય મેળવવા માટે બને તેટલો વધુ પ્રયત્ન પુરુષાર્થ કરે. રાિ (૪) સિદ્ધિ આત્માનું આત્મા વડે આત્માનું જ્ઞાન થાય હીન આત્મા પર કૃપા દયા, મધ્યમ પ્રાણી પર ઉપકાર અને ઉત્તમ આત્મા તરફ વિનયાદિ ક૨વાની રુચિ થાય. (૫) વિનિયોગઃ- પોતાથી વ્યતિરિક્ત પ્રાણીને ધર્મમાં જોડવાની બુદ્ધિ અને તે માટે દ્રઢ પ્રયત્ન કરવો તેનું નામ વિનિયોગ આ પાંચ પ્રકારના આશય વગર ગમે તેટલી ક્રિયા કરવામાં આવે તે કિયા ધર્મ પ્રાપ્તિ માટે થતી નથી. આ પ્રકારે દૃષ્ટિની વિચારણા ઘણી ટુંકમાં કરી છે. લાંબી વિચારણા માટે પૂર્વ પુરુષો ઘણું ઘણું સાહિત્ય આપી ગયા છે. પૂજ્ય હરિભદ્રસૂરીશ્વરજીએ યોગદ્રષ્ટિ સમુચ્ચય. કલિકાલ સર્વજ્ઞ ભગવંત હેમચંદ્રસૂરીશ્વરજીએ યોગ શાસ્ત્ર અને પૂજ્ય યશોવિજયજીએ એવા અનેકાનેક ગ્રંથોનું સર્જન કર્યું છે. || ૪૯ मानवता बढती रहे, बढता रहे सुकर्म । जयन्तसेन फिरा जगत, इस से बड़ा न धर्म ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ એકાન્ત એટલે વિનાશ, અનેકાન્ત એટલે વિકાસ (શ્રી રોહિત શાહ, અમદાવાદ) એક વખત ભગવાન મહાવીરને ગણધર ગૌતમે સહજ શકતો નથી. જિજ્ઞાસાથી પ્રશ્ન પૂછ્યો. : વિરોધી સત્યોનું સહ અસ્તિત્વ તો પ્રકૃતિનો મૂળભૂત નિયમ “પ્રભુ ! તત્ત્વ એટલે શું ?”. છે. આ નિયમ કોઈ વ્યક્તિએ બનાવેલો નથી. એ નિયમનું ભગવાન મહાવીર બોલ્યા, “ભન્ત, ઉત્પન્ન થવું એ તત્ત્વ છે." પૃથક્કરણ કરીને, તેની વ્યાખ્યાઓ બનાવીને તેને સમજવાનો પ્રયત્ન કરવામાં આવે છે. અને એ પ્રયત્ન એટલે જ અનેકાન્ત. ગણધર ગૌતમ આ જવાબથી. મૂંઝાયા. માત્ર ઉત્પન્ન થવું એ જ સત્ય હોય તો અનેક સમસ્યાઓ ઊભી થઈ જાય ! તેમણે - અનેકાન્તમાં કોઈ નિયમ બનાવવાનો હોતો નથી, પરંતુ મૂળ ફરીથી પૂછ્યું, “પ્રભુ તત્ત્વ શું છે ?” નિયમને સમજવાની સાધના કરવાની હોય છે. વ્યાખ્યાનું સત્ય હોઈ શકે, પણ સત્યની કોઈ વ્યાખ્યા ન હોઈ શકે. વ્યાખ્યાઓમાં ભગવાને કહયું, અવિચળ રહેવું તે તત્ત્વ છે. પોતાના અસ્તિત્વમાં અટવાઈશું તો સત્ય નહિ મળે. સ્થિર અને ધ્રુવ રહેવું એ તત્ત્વ છે. ગણધર વિશેષ મુંઝાયા, પ્રભુના સંદિગ્ધ જવાબ સમજાતા હોતા, એમણે વળી પાછું પૂછ્યું : “પ્રભુ અનેકાન્ત અને સત્ય ભિન્ન નથી. અનેકાન્ત અને સાધના ! તત્ત્વને જાણવાની મારી જિજ્ઞાસા છે.” ભિન્ન નથી. અનેકાન્ત અને અહિંસા ભિન્ન નથી. અનેકાન્ત અને “ભન્ત, તત્ત્વ એટલે નિઃશેષ થવું તે. વિનષ્ટ થવું તે તત્ત્વ છે. અપરિગ્રહ પણ ભિન્ન નથી. અનેકાન્ત એટલે અભિન્નતાની આરાધના. અનેકાન્ત એટલે દ્વતમાંથી અદ્વૈતમાં જવાની. આરાધના. વિરોધી અસ્તિત્વનું વિલોપન એ તત્ત્વ છે.” સત્યના સહઅસ્તિત્વનો નિયમ નહિ સ્વીકારીએ, ત્યાં સુધી જ બધા. ગણધર ગૌતમને હવે પ્રભુની રહસ્યવાણીનો મર્મ સમજાયો. સંઘર્ષો છે. જે ક્ષણે વિરોધી. સત્યનો સમન્વય સ્વીકારી લીધો, એ જ ઉત્પન્ન થવું, અવિચળ રહેવું અને વિલોપન પામવું આ ત્રણે બાબતો ક્ષણે તમામ સંઘર્ષો ખતમ થઈ જશે. મળીને પૂર્ણ તત્ત્વ બને છે. ઈન્દ્રનો પુત્ર જયંત ગુરુ બૃહસ્પતિ પાસે વિદ્યાભ્યાસ કરતો તત્ત્વ સ્વયં પર્ણ સત્ય છે હતો. જયંતનો કંઈક અપરાધ થયો. બૃહસ્પતિએ તેને શિક્ષા કરી. અને સત્ય એક જ હોવા છતાં તેનો સાક્ષાત્કાર ભિન્ન ભિન્ન જયંતને ખૂબ માનહાનિ થયા જેવું લાગ્યું. તેણે ઈન્દ્ર પાસે જઈને સ્વરૂપે થતો હોય છે. જે વ્યક્તિ સત્યના એક જ સ્વરૂપને વળગી ફરિયાદ કરી. “પિતાજી ! ગુરુ બૃહસ્પતિ એવા તે મોટા કોણ છે કે રહે છે તે વ્યક્તિ પૂર્ણ સત્યથી અનભિન્ન રહી જાય છે. સદીઓથી જે મને - એટલે કે ઈન્દ્રના પુત્રને શિક્ષા કરી શકે ? માનવી સત્યના સ્વરૂપને સમજવાનો પુરુષાર્થ કરતો રહયો છે, અને - ઈન્દ્ર શાંત અને સ્વસ્થ રહીને બોલ્યા, “બેટા, તું- એટલે કે તો ય પૂર્ણ સત્યને એ પામી શક્યો નથી કારણ કે તેનો પુરુષાર્થ ઈન્દ્રનો પુત્ર - એવો તે કેવો, કે જેને શિક્ષા કરવી પડે ?” એકાન્તિક રહૃાો છે, એ પૂર્ણ સત્ય પામવા માટે પહેલી શરત છે : અનેકાન્ત. ' જયંત સત્યની. એક બાજુને જોતો હતો. એના પિતાએ એને એ જ સત્યની બીજી બાજુનું દર્શન કરાવ્યું અને એના મનનો સંઘર્ષ જગતના તમામ ધર્મોમાં જૈન ધર્મ એક જ એવો છે કે જેણે પળમાત્રમાં ખતમ થઈ ગયો. અનેકાન્તનો સૌથી વધુ આદર કર્યો છે. વિરોધી સત્યનો સ્વીકાર કર્યા વિના મૂળ સત્યને સમજવાનું અપૂર્ણ સત્ય માનવીને ક્યારેક આવેશ તરફ ધકેલે છે. જ્યાં સંભવિત નથી.. સત્ય તો સત્ય છે જ, અપૂર્ણતા છે ત્યાં સંઘર્ષ છે. અને સંઘર્ષ છે ત્યાં આવેલ છે. પણ અસત્ય પણ સત્ય છે. જ્ઞાન સત્ય પ્રજ્ઞાશીલ વ્યક્તિ પોતાની અપૂર્ણતાને ઓળખવામાં વિલંબ નહિ છે, તો અજ્ઞાન પણ સત્ય છે. મૂચ્છ કરે. મૂર્ખ માનવી પોતાની અપૂર્ણતાને જ સર્વસ્વ સમજીને ચાલશે. સત્ય છે તો જાગૃતિ પણ સત્ય છે. પૂર્ણતાને પામવા માટે અપૂર્ણતાને ઓળખવી અનિવાર્ય છે અને દુઃખ સત્ય છે તો સુખ પણ સત્ય છે. અપાન માળામવા માટે એક બાર કેળવવી આ દ અપૂર્ણતાને ઓળખવા માટે અનેકાન્ત દ્રષ્ટિ કેળવવી આવશ્યક છે.. ગતિ સત્ય છે તો સ્થિતિ પણ સત્ય | એક વખત એક નગરમાં ધોધમાર વરસાદ તૂટી પડ્યો. છે. ચેતન સત્ય છે તો અચેતન પણ. માણસો અને મકાનો પણ તણાવા લાગ્યાં. પતિ-પત્નીનું એક યુગલ. સત્ય છે. તેમાંથી કોઈ એકનો સ્વીકાર અને તેમનાં ત્રણ બાળકો તૂટેલા વૃક્ષના એક થડ ઉપર બેસી ગયાં. કરનાર, પૂર્ણ સત્ય સુધી કદીય પહોંચી. થડ પણ તણાઈ રહયું હતું. સૌથી નાનું બાળક બોલ્યું“આપણે શ્રી રોહિત શાહ શિરીરામિડની વિગત - પ૦ 'य' का भेद विष विषय में, विष मारे इक बार । जयन्तसेन विषय सदा, हनन करे हरबार ।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વહી રહયા છીએ !” બીજા બાળકે તેની ભૂલ સુધારતાં. કહયું. કેવી વિચિત્ર છે. આ વાત ! પોતાનો બાપ બીમાર હોય તો ‘આપણે થડ ઉપર સ્થિર બેઠાં છીએ, આ થડ તણાઈ રહયું છે !” રજા લેવી જરૂરી બને અને બીજાનો બાપ બિમાર હોય તો એને ત્રીજા બાળકે કહયું, “તું પણ ખોટું કહે છે. ખરેખર તો આ નદી રજા ન મળે ! વહી રહી છે !” ત્રણ બાળકોનો આવો સંવાદ સાંભળીને તેમની | પોતે જ્યાં નોકરી કરતા હોઈએ ત્યાં, ઑફિસ છૂટવાના સમય માતા બોલી, “બેટા. નદી તો કદી વહી જ ના શકે. નદીનું જળ પછી બસ આપણને રોકાવાનું કહે તો આપણે કહીશું, કે બોસ બહુ વહી રહયું છે. જે નદીમાં જળ ના હોય, તે શી રીતે વહી શકે ?” ખરાબ માણસ છે, શોષણ કરે છે. પરંતુ આપણા ઘેર કોઈ કામ છેવટે બાળકોના પિતાએ કહયું, “તમે સૌ પાગલ છો. તમે માત્ર માટે માણસ રાખ્યો હોય તો એને થોડો વધુ સમય રોકીને ય પોતાના સત્યને જ વળગી રહ્યાં છો. ખરેખર તો જળ પણ વહી આપણે આપણું કામ પૂરું કરાવવાનો આગ્રહ રાખીએ છીએ ! રહયું છે. નદી પણ વહી રહી છે, થડ પણ વહી રહયું છે અને એકાન્ત દ્રષ્ટિ માનવીને આત્મકેન્દ્રી અને સંકુચિત મનોવૃતિવાળો આપણે સૌ. પણ અત્યારે તો વહી રહયાં છીએ. વળી બીજી રીતે વિચારીએ. તો નદીનું જળ ઢાળ તરફ જઈ રહયું છે. નીચાણની બનાવે છે. પોતાને માટેના તેમજ અન્યને માટેના માપદંડો, ધોરણો. અને આગ્રહો વચ્ચે તે ભેદ કરે છે. દિશામાં વહી રહયું છે. જળ દરેક વખતે વહન કરતું નથી. સરોવરનું જળ વહી જતું નથી. એને જ્યારે ઢાળ-નીચાણ તરફ ભેદદ્રષ્ટિ સત્યની વિરોધી છે. જવાના સંયોગો મળે, ત્યારે જ તે વહે છે." - એકાન્તદ્રષ્ટિ અસમાનતાની જનેતા છે. તે | અધ્યાત્મની વાત હોય કે ધાર્મિક ખ્યાલોની, દુન્યવી વ્યવહારની વિરોધી સત્યમાં રહેલો વિરોધ ટાળવા માટે ‘અનેકાન્ત’ સિવાયના વાત હોય કે પ્રકૃતિના રહસ્યની- જો એકાદ્રષ્ટિથી. તેને પામવા તમામ ઉપાયો વ્યર્થ છે. અનેકાન્ત કોઈ વાદ નથી. અનેકાન્ત કોઈ ગયા, તો અપૂર્ણતા અને મિથ્યાત્વ જ મળશે. પંથ નથી. અનેકાન્ત કોઈ તત્વદર્શન નથી. અનેકાન્તને જૈનો એકાન્ત દ્રષ્ટિએ જોનારને સંસાર તો શું, ધર્મશાસ્ત્રો પણ સ્યાદ્વાદ પણ કહે છે. મિથ્યા જ લાગશે. એક ધર્મમાં ચુસ્ત શ્રદ્ધાવાદી વ્યક્તિ બીજાના અનેકાન્ત એટલે વ્યાપક છતાં સહજ જીવનદર્શન. ધર્મશાસ્ત્રોની વિરોધી બની જાય છે. ખરેખર તો શાસ્ત્ર કે સિદ્ધાંત - એકાન્તને સીમાઓ છે, પણ અનેકાન્ત તો નિસીમ-અસીમ મિથ્યા પણ ન હોઈ શકે અને સમ્યફ પણ ના હોઈ શકે. જોનારની છે. એકાન્તમાં મતાગ્રહ છે. અનેકાન્તમાં મુક્તાગ્રહ છે. એકાન્તની - નજર અનેકાન્તની હોય, તો પેલો હૃદ્ધ રહેશે નહિ. મિથ્યાત્વને દિશા વિનાશની છે. એટલે એમાં વિકૃતિ છે. અનેકાન્તની દિશા જોનારી આંખ અને સમ્યને જોનારી આંખ અલગ અલગ છે. પણ વિકાસની છે, એટલે એમાં સંસ્કૃતિ છે. અનેકાન્તની આંખ સમન્વય સિવાય બીજું કાંઈ જોતી નથી ! અનેકાન્તનો વિશિષ્ટ અર્થ છે ‘સમન્વય'. ભગવાન મહાવીર અનેકાન્તના પુરસ્કત હતા તેથી તેમનું સમન્વય હોય ત્યાં સંઘર્ષ ટકી શકે ખરી ? વ્યક્તિત્વ અવિરોધાત્મક રહયું. ગણધર ગૌતમ દ્વારા તેમને પુછાયેલા તમામ પ્રશ્નોના, તેમણે આપેલા ઉત્તરો અનેકાન્ત દ્રષ્ટિથી પરિપૂર્ણ એક મૅનેજર તેની ઑફિસે પહોંચ્યો, તો ટેબલ ઉપર એક છે. એક વખત તેમને પૂછવામાં આવ્યું કે સાધના જંગલમાં થઈ ટેલિગ્રામ પડ્યો હતો. તેમાં લખ્યું હતું કે ‘તમારા પિતાજીની શકે કે નગરમાં ? પ્રભુએ કહયું. ‘સાધના જંગલમાં થઈ શકે અને તબિયત અત્યંત ખરાબ છે. તરત આવી પહોંચો.’ મેનેજર વિક્ષુબ્ધ નગરમાં પણ થઈ શકે, એટલું જ નહિ, સાધના જંગલમાં પણ ના. થઈ ગયો. તરત કાગળ-પેન લઈને રજાનો રિપોર્ટ લખવા માંડ્યો. થઈ શકે, અને નગરમાં પણ ના થઈ શકે !' રિપોર્ટ લખીને એ મેનેજર, પોતાના બૉસની કેબિનમાં જતો હતો. એકાન્ત દ્રષ્ટિથી જોતાં સ્થળ અને સાધના ભિન્ન દેખાશે. ત્યાં જ એનો એક પટાવાળો ત્યાં આવીને બોલ્યો, “સાહેબ ! મારા અનેકાન્ત દ્રષ્ટિથી જોતાં સ્થળ અને સાધના અભિન્ન થઈ જશે. ગામડેથી તાર આવ્યો છે. મારા પિતાજી અત્યંત બીમાર છે. મારી એ તાર મેં આપના ટેબલ ઉપર મૂક્યો હતો. મારે થોડા દિવસની વસ્તુસ્થિતિને તેના પૂર્ણ સંદર્ભો સહિત જ મૂલવી શકાય. જો. રજાઓ લેવી પડે તેમ છે...” આંશિક સંદર્ભો ઉપરથી સમગ્રનું તારણ પામવા જઈએ તો આપણે. અસત્ય કે અર્ધસત્ય. જ પામી શકીએ. અર્ધસત્ય વાસ્તવમાં અસત્ય “શું એ તાર તારો હતો ?" કરતાં વિશેષ જોખમી છે. નાસ્તિક વ્યક્તિ કરતાં અંધશ્રદ્ધળુ વ્યક્તિ ''જી, સાહેબ !'' વધુ ખતરનાક છે. નાસ્તિક માનવી પોતે મંદિરે નહિ જાય કે પાઠ“ઓહ !” મૅનેજરને નિરાંત થઈ. પોતાનો બાપ બીમાર નથી! પૂજા નહિ કરે એટલું જ પરંતુ અંધશ્રદ્ધાવાળા લોકો તો ક્યારેક પોતે લખેલો રજાનો રિપોર્ટ ફાડી નાખ્યો. ઝનુનથી. પ્રેરાઈને બીજા ધર્મનાં મંદિરો કે ધર્મસ્થાનો તોડવા પણ તૈયાર થઈ જાય. બીજા ધર્મના સિદ્ધાંતોને સમજ્યા વગર જ એનો પટાવાળાએ પૂછ્યું, “સાહેબ ! મારી રજાઓ મંજૂર કરશોને ?” | વિરોધ કરવા લાગી જાય છે ! આ જગતને મિથ્યાદ્રષ્ટિવાળા “ના. અત્યારે ઑફિસમાં કામકાજનું ભારે દબાણ છે. કોઈને નાસ્તિકોએ જેટલું નુકસાન નથી પહોંચાડ્યું તેટલું નુકસાન રજા નહિ મળી શકે !” મૅનેજરે કહયું. - URL થયા લિ ., कूड कपट जिस में सहज, माया मान पड़ाव । जयन्तसेन उस देहि की, डूबे जीवन नाव ।। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ એકાન્તરષ્ટિવાળા અંધશ્રદ્ધા લોકોએ પહોંચાડ્યું છે ! 31 વ્યાધિને જાણવી જરૂરી છે. ભોગવવી નહિ. માં ઓલા વ્યાધિને જાણનાર તેને દૂર કરી શકે છે, તેને ભગવનાર તો તેમાં વૃદ્ધિ જ કરશે ! અનેકાન્ત ‘જાણવાની' ક્રિયા છે. એટલે કે જાગવાની ક્રિયા છે. અનેકાન્ત એટલે જાગૃતિ અને એકાન્ત એટલે મૂર્છા. એકાગ્રતા કરતાં અનેકાન્ત વિશેષ કલ્યાણકારી છે. એકાગ્રતા તો બગલામાં અને ચોરમાં ય ક્યાં નથી હોતી ? અનેકાન્તદ્રષ્ટિ વિનાની એકાગ્રતા ય કોઈ વાર માનવીને અનિષ્ટ પરિણામ તરફ વાળી દે FIR Wiese છે. અનેકાન્તની સમન્વય દ્રષ્ટિ માત્ર ધર્મોને જ નિહ. સંસારના ક્ષેત્રે પણ અત્યંત મહત્વની છે. ખરેખર તો એમ કહેવું જોઈએ કે સંસારમાં જ અનેકાનો વિશેષ અગત્યની છે. એક બહેન સૌને કહેતાં હતાં કે, મારી દિકરીને તેના સાસરે ભરપૂર સુખ છે. મારી દીકરી તો સાસરે ય સ્વર્ગનું સુખ ભોગવે છે ! સવારે નવ વાગ્યા સુધી નિદ્રા માણે છે ! એનો પતિ એનો પડ્યો બોલ ઉપાડે છે ! ગમે તેટલા પૈસા ખરચે તો ય કોઈ એને પૂછનાર નથી !" દાઉદ PSIPS એ જ બહેનનો દીકરો પરણ્યો અને ઘરમાં નવી વહુ આવી. પછી થોડા દિવસ બાદ એમણે બળાપો કાઢવાનું શરૂ કર્યું. “મને વહુ સારી ના મળી ! ખૂબ આળસુ છે. સવારે નવ વાગ્યા સુધી પથારીમાં ઘોઈ જ કરે છે ! મનાવે તેમ ખર્ચ કરે છે. સાથે ઉડાઉ છે. એનો પતિ, એટલે કે મારો દીકરો સાવ વહુઘેલો છે ! એની વહુને એ કાંઈ કહેતો જ નથી !" k પોતાની દીકરી માટે અને પોતાની પુત્રવધૂ માટે સમાન બાબતોમાં આવો વિરોધી અભિપ્રાય આપનાર એ બાર્ડનની સંકુચિત દ્રષ્ટિ જ એમના ઘેરા વિષાદનું કારણ હતું ! 38 માત્ર સાસુઓ જ એવી હોય છે તેવું પણ નથી. પુત્રવધૂઓ પણ તેમની સાસુ અને પોતાની માતા પ્રત્યે આવો જ ભેદનીતિવાળો વ્યવહાર કરતી હોય છે. પોતાનો દીકરો ભણવામાં પ્રથમ નંબર લાવે તો તેની માતા ગૌરવથી કહેશે કે, “અમારો દીકરો તો પહેલેથી જ ભણવામાં ખૂબ હોશિયાર છે. તમામ વિષયોમાં એ આગળ જ હોય. મને તો ખ્યાલ હતો જ કે તેનો પ્રથમ નંબર જ આવશે !" પરંતુ જો પોતાનો દીકરો નાપાસ થાય અને પાડાશીનો દીકરો પ્રથમ નંબર મેળવે તો એ તરત જ કાણું મોં કરીને કહેશે, "જવા દોને વાત હવે... એનો દીકરો તો પરીક્ષામાં ચોરી કરવામાં ખૂબ ચાલાક છે ! ને એનો બાપ પણ પૈસા આપીને પોતાના દીકરાનો પહેલો નંબર ખરીદી આવ્યો છે !” એકાન્તરિષ્ટ આપણી સહિષ્ણુતાને પીંખી નાખે છે. પછી તો બીજાનું સુખ પણ આપણા માટે અસહ્ય બની જાય છે. આપણી પાસે મોટ૨ નથી. એની આપણને કશી વેદના નથી. પણ પાડોશીને ત્યાં મોટર આવે એટલે આપણો બળાપો અને અજંપો શરૂ થઈ શ્રી નવતરોના િઅખિલ ગુજરાતી વિભાગ ADIP BH પર જાય છે ! અરે, આપણે ત્યાં જે સુખ છે, તે સુખ ઉપર પણ આપણે નીં એકાધિકાર ભોગવામાં માગીએ છીએ ! સંપત્તિ સુખનું સાધન છે એવો એક સામાન્ય ખ્યાલ છે. પણ કોઈ વ્યક્તિ ધન-સંપત્તિ લઈને જતી હોય અને કોઈ ગુંડો તે પડાવી લેવા માટે તેની હત્યા કરે તો એ સંપત્તિ એના સુખનું સાધન બની કે એના મૃત્યુનું નિમિત્ત બની ? અથવા તો ઇન્કમટેક્સ વગેરેના પ્રશ્નોને કારણે તેને અનિદ્રાનો ઉપદ્રવ લાગુ પડે તો એની સંપત્તિ એના માટે તો દુઃખનું જ સાધન બની ગણાય ને ! સુખ કોઈ વસ્તુ, પદાર્થ, પરિસ્થિતિ કે સંયોગોમાં નથી. સુખ કોઈ સ્થળ વિશેષમાં પણ નથી. સુખ તો સમાધાનમાં છે. સમન્વયમાં જે સુખ છે, તે અન્યત્ર ક્યાંય નથી ! એક પુરુષને બે પત્નીઓ હતી. પુરુષ હમેશાં એક પત્નીની છે ગેરહાજરીમાં બીજીની પ્રશંસા કરતો અને બીજીની ગેરહાજરીમાં પહેલીની પ્રશંસા કરતો. ધીમે ધીમે બન્ને સ્ત્રીઓને આ વાતનો ખ્યાલ આવી ગયો. બન્ને સાથે મળીને પતિ પાસે ગઈ અને પૂછ્યું કે, “અમારા બેમાંથી કોણ વિશેષ ગુણવાન છે તે સ્પષ્ટ કર્યો.” સંઘર્ષની માત્ર આવી ગઇ. હવે શું કરવું ? પતિએ તરત જ સમાધાનનો અભિગમ સ્વીકારી લેતાં કહ્યું, “ તમે બન્ને પરસ્પર કરતાં અધિક ગુણવાન છો. તમે બન્ને મને પરસ્પર કરતાં વધુ પસંદ છો !” પત્નીઓ શું બોલે ? Burle સંઘર્ષની ક્ષણ પસાર થઈ ગઈ. કોઈ વિકલ્પ જ ન રહ્યો, પછી કોઈ શું બોલે ? આપણે જ્યારે કોઈ એક શાસ્ત્રને, કોઈ એક વ્યક્તિને કે કોઈ એક સત્યને અનુસરીએ છીએ ત્યારે અનેક વિકલ્પો રહી જાય છે, વિકલ્પો વિરોધ જગાડે છે. અનેકાન્ત દ્વારા નિર્વિકલ્પ કક્ષાએ પહોંચી શકાય છે. પછી કો વિરોધ રહેતો નથી. આપણે અવિરોધને પામીએ છીએ ! અવરોધ રહિત થવાથી જ આપણા કલ્યાણનો પંથ સરળ બને ને ! વિરોધથી મોટો કોઈ અવરોધ નથી. અને તમામ વિરોધોનો એક માત્ર ઉપાય છે. · અનેકાન્ત. 17397 મધુકર-મૌક્તિક જો કે કામ ઘણું કઠણ છે. છતાં પરિણામ ઘણું જ સુખદ આવે છે. વ્યાઘ્રમુખી પ્રવૃત્તિ દેખીને ગભરાવવાની જરૂર નથી. જ્યારે જેટલા પ્રમાણંમાં કટુતા કૂચ કરતી જશે ત્યારે તેટલા પ્રમાણમાં તેના સ્થાને મધુરતા વધવા માંડશે અને એનો જેમ જેમ વિકાસ થતો જશે તેમ તેમ મૃદુતાનો આવિર્ભાવ થયો. અને સાથે જ સ્થિીકરણ થવા માંડશે. પછી ... સહજમાં જાગૃત્તિ આવશે. Je dé જૈનાચાર્ય શ્રીમદ્ જયન્તસેનસૂરિ ‘મધુકર’ माया ममता में रहा, तज समता का साथ । जयन्तसेन जग से वह जाता खाली हाथ ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મહાવીર માર્ગ - માત્ર આત્મકલ્યાણનો જ? | (શ્રી ગીતા જૈન, મુંબઈ) * સહનાવવતુ સહનૌ ભુનક્ત, સહ વીર્ય કરવાવહૈ ! છે – એ પણ ધર્મસાધનાનું એક મહત્ત્વનું અંગ છે. તેજસ્વિનાડવધીતમસ્તુ , મા વિદ્વિષાવહૈ / - આપણા સમાજ જીવનમાં વિઘ્ન રૂપ બનતી બાબતો જેમકે અથતિ આપણે બધા એક બીજાની રક્ષા કરીએ. આપણે ધૃણા, વિદ્વેષ, હિંસા, શોષણ, સ્વાથધતા વગેરે અધર્મરૂપ છે. પ્રાપ્ત સાધનોનો સાથે મળીને ઉપભોગ કરીએ, આપણે સાથે મળીને સમાજ જીવનને પુષ્ટ અને પ્રફુલ્લીત કરતી. બાબતો જેમકે પરોપકાર, પરાક્રમ કરીએ, આપણું અધ્યયન તેજસ્વી થાઓ, આપણે પરસ્પર સેવા, કરૂણા, દયા વગેરે ધર્મ છે. આ ઉચ્ચતમ મૂલ્યોથી જ સમાજ દ્વેષ ન કરીએ. રક્ષાય છે. માનવી સમાજમાં રહે છે - એકલો, અટુલો રહી શકતો. વિશ્વના સાંસ્કૃતિક ઈતિહાસ પર આપણે નજર માંડીએ તો. નથી. વ્યક્તિત્વતા એ દરેક માનવીનું આગવું | અનિવાર્ય અંગ દ્રષ્ટિગોચર થાય છે કે સમયે સમયે અનેક મહાપુરુષોએ જન્મ હોવા છતાં એ સમાજજીવન પર આધારિત હોય છે. વ્યક્તિત્વનું | લઈને સમાજને કલ્યાણકારી માર્ગ બતાવ્યો છે. તેમજ ફેલાયેલી સુનિમણિ સમાજી જીવનને લીધે જ શક્ય બની શકે. માનવી સમાજમાં પશુતાને ફગાવીને ઉર્ધ્વગામી બનાવવાનો માર્ગ ચીંધ્યો છે. આવા જ જન્મીન/રહીને પોતાનો વિકાસ સાધી શકે છે – નિર્જન ટાપુમાં મહાનુભાવો કોઈ એક દેશ, ક્ષેત્ર, સમાજ, ધર્મના સીમાડાના કેદી, ફસાઈ પડેલા માનવીની કે જંગલમાં પશુઓ વચ્ચે ઉછરેલા બાળકની નહોતાં વિશ્વવ્યાપી માનવજાતિનાં યુગપુરુષો હોય છે. કાળનાં વાત આપણે સૌ જાણીએ છીએ. એ વરૂ બાળની કથનીથી કોણ ગર્ભમાં અનેક મહાપુરુષોના ઈતિહાસ ધરબાયેલા છે. પણ એમણે. દુઃખી નહીં થયું હોય ? અને એ વાતથી એ પણ સાબિત થયું છે કે આપેલાં જીવનમૂલ્યો આજે પણ અમર છે. આપણા ૨૪મા તીર્થંકર ‘પરસ્પરોપગ્રહો જીવાનામ્” (તત્વાર્થ સૂત્ર પ/ર૧) મૂળભૂત લક્ષણ શ્રી મહાવીર પણ યુગપુરુષ છે. ૨૫૦૦ વર્ષ પૂર્વે વિષમ સામાજીક છે જ. આપણે જે કંઈ પણ બનીએ છીએ કે જે કંઈ પણ વિકાસ પરિસ્થિતિમાં થયેલા ભગવાન મહાવીરે સમાજને આપેલી મૂલ્યોની. | સાધી શકીએ છીએ તે આપણા સામાજીક વાતાવરણને લીધે હોય ધમની ભેટ અમૂલ્ય છે. • છે. એમાં પોતપોતાની વ્યક્તિગત રુચિ / આવડત / બુદ્ધિ / એમનાં વખતમાં માનવી - માનવી. વચ્ચેનું અંતર વધી ગયું જિજ્ઞાસા / ગ્રહણ શક્તિ | તત્પરતા. | કુશળતા ભળે છે અને હતું. વર્ગભેદ તીવ્ર જોર પકડીને સમાજમાં ઘર્ષણ ફેલાવતો હતો. અલગઅલગ વ્યક્તિત્વો નિખરે છે પણ એ સમાજાધારિત જ છે. મુંગા પ્રાણીઓનો બલિ દેવામાં કોઈ નાનમ હોતી અનુભવાતી - સમાજથી બહાર રહીને માનવી વિકાસ ન સાધી શકે. ઉલટું પ્રતિષ્ઠાનું પ્રતિક ગણાતું. આવા સમયે સ્ત્રીઓની સ્થિતી. તો. સંત રબના શબ્દોમાં કહીએ તો ----- ખૂબ જ દયનીય થઈ ગઈ, એ. વધુ ને વધુ ગુલામીમાં જકડાતી. * રબ બુંદ સમન્દ કી, કિત સરકે કહ્યું જાય | જતી હતી. ગરીબ | લાચાર માનવીઓનું ભયંકર શોષણ થવા ' સાઝા સકલ સમન્દ સો, હૂં આતમ રામ સમાય || લાગ્યું હતું. માનવોનાં મૂળભૂત અધિકારો પર શક્તિશાળી લોકો એટલે કે - - - - - અગાધ અને અનંત પાણીથી ભરેલા આડેધડ પ્રહાર કરતાં હતા. ચારેકોર ફેલાયેલી. આ અરાજકતાથી. સમુદ્રનું એક ટીપું / બુંદ ભલે ક્યાંય પણ સરકી જાય, ચાલી જાય જનતા / પ્રજામાં ભય | ડર | અશાંતિ | લાચારી પ્રસરી હતી. પણ તે સમુદ્રનો જ ભાગ બની રહે છે એ જ પ્રમાણે વ્યક્તિ આવા સમયે મહાવીરનો જન્મ ખરે જ, પ્રજા માટે આર્શિવાદ સમો ટીપાની જેમ છે અને સમાજ સમુદ્રની જેમ. નીવડ્યો. આપણા. વિકાસમાં મહત્તમ ફાળો. - આ રીતે જોતાં એમ લાગે છે કે ભગવાન મહાવીરે સામાજીક ભજવતા આ સમાજને નિયંત્રિત અને ઉન્નતિ | વિકાસ | શાંતિ / સમૃદ્ધિમાં ફાળો આપ્યો. જ્યારે બીજી વ્યવસ્થિત કરવા માટે સમાજ વ્યવસ્થા તરફ જોઈએ તો જૈનધર્મ વ્યક્તિનિષ્ઠ અને નિવૃત્તિ પ્રધાન લાગે છે. ગોઠવવી પડે છે. સમાજના સભ્યો અને એનો મૂળભૂત હેતુ આત્મ-સાક્ષાત્કાર અને મોક્ષપ્રાપ્તિ જ છે. થતુકિંચિત્ રૂપે એને યથાવત રાખવામાં પણ આનાથી. એમ સ્વીકારી લઈએ કે જૈન ધર્મ અસામાજીક છે તો. પોતાનો ફાળો આપતા રહે છે – નહીં ભ્રમ ઠરશે. જૈન સાધના આધ્યાત્મિક વિકાસની સાથે જ સામાજીક તો અરાજકતા અને અંધાધૂંધી ફેલાઈ કલ્યાણ પણ વિચારે છે. ફક્ત આધ્યાત્મિક કલ્યાણની જ અહીંઆ જાય, અને માનવીનો વિકાસ રૂંધાઈ વાત નથી - અને સામાજીક ઉપેક્ષાની બાબત પણ નથી જ. જૈનધર્મ જાય. એટલે કે સમાજ વ્યવસ્થા સ્વીકારે છે કે સાધનાથી પ્રાપ્ત થયેલી સિદ્ધિનો ઉપયોગ સામાજીક શ્રી ગીતા જન નિભાવવી એ આપણો ધર્મ બની રહે કલ્યાણમાં કરવો જોઈએ. ભગવાન મહાવીરે પણ એ કર્યું જ છે. મહાનગર ની રજા વિભાગ પ૩ जयन्तसेन विभ्रम मति, कैसे करे बचाव ।। धर्म सहायक चलन में, धर्म विधायक जान । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વીતરાગતા અને કેવલજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થયા બાદ એ નિષ્ક્રિય નહોતા. પણ સુખ જ ઈચ્છે છે. આ જ દ્રષ્ટિથી અહિંસા, ધર્મ અને રહડ્યા. નૈતિકતાનો વિકાસ થતો રહે છે. સમ્યક્દર્શન ત્યારે જ પ્રાપ્ત થાય રાજભવનમાં રહીને પરહિત | લોકહિતની વાતો કરવી વ્યર્થ કે જ્યારે સર્વે પ્રત્યે સમભાવ આવે. બીજાની પીડા | દુઃખ પોતીકાં લાગતાં એમણે સ્વજનોનો વ્યાપ વધારવા, પ્રાણી માત્રના કલ્યાણની લાગે – જ્યારે બીજાની પીડા પોતાની બની જાય ત્યારે આપોઆપ વાત વિચારવા ) અમલમાં લાવવા. દીક્ષા લીધી.. સેવાભાવનાનો ઉદય થાય છે. સ્વયં પ્રકટ થયેલી આ સેવામાં | સાડાબાર વર્ષ સુધી અનેક ઉપસર્ગો સહીને પણ એઓએ સ્વાર્થભાવ નથી રહેતો. સમ્યક્દર્શનની પ્રાપ્તિથી ઉત્પન્ન થયેલી આત્મતત્ત્વની ઓળખ મેળવી જ. પોતાનું સ્વરૂપ ઓળખવા માટે આત્મવત્ દ્રષ્ટિ હિંસક બુદ્ધિનો નાશ કરી દે છે અને સેવાભાવના એમણે ખૂબ કઠીન પરિક્ષાઓ પસાર કરી. વિરોધી | દુશ્મનો | સહજ સ્વીકાર્ય સાધના બની રહે છે. ઉપસર્ગો પ્રત્યે પણ વેરભાવ | ટ્વેષભાવ ન જગાવતાં સમભાવ | આજે જૈનધર્મને અન્ય ધર્મના લોકો વ્યક્તિનિષ્ઠ અને નિવૃત્તિધારણ કર્યો. પ્રધાન ગણે છે. અસામાજીક કે સ્વાર્થી ધર્મ તરીકે પણ ક્યારેક એને | સાધના દ્વારા પ્રાપ્ત થયેલી સિદ્ધિઓ ફક્ત પોતાના માટે જ ન નિંદવામાં આવે છે. ફક્ત પોતાનું જ આત્મકલ્યાણ કરવાનો આગ્રહ રાખતાં સમાજ હિત માટે વહેતી કરી. એમનાં મનની ભાવના કેટલી સેવતા ધર્મ તરીકે ઓળખવામાં આવે છે. રાગદ્વેષથી પર થવાની ઉદાત્ત કે એમણે પોતાનો દિવ્ય ઉપદેશ લોકોની બોલીમાં આપ્યો વાત પર ભાર મૂકીને કંઈ પરોપકાર કે લોકકલ્યાણની વાતનો છેદ અને જેનાથી આચાર શુદ્ધિ આણીને વ્યક્તિ સુધાર દ્વારા સમાજ નથી ઉડાડવામાં આવ્યો. પણ અનેક લોકો, અરે ! ક્યારેક તો ચુસ્ત સુધારનો માર્ગ કાયમ કર્યો. જૈનો પણ આ બાબતે એવું જ સ્વીકારતા હોય છે કે રાગદ્વેષ ન એમનાં ઉપદેશમાં જગતનાં સ્વરૂપની વ્યાખ્યા, આત્મવિકાસના કરવો એટલે કોઈની પ્રત્યે લાગણી. | મોહ | પ્રેમ ન રાખવો. દયા - માર્ગનું પ્રતિપાદન, આત્મા. અને કર્મની વિસ્તૃત છણાવટ, વ્યક્તિ સેવા ભાવના અને કરૂણા - વાત્સલ્ય જેવા ગુણો વિકસાવવામાં આ અને સમાજનાં વિકાસની વાતો તેમજ હિંસા - અહિંસાનું વિવેકભાન અણસમજતાને લીધે વિક્ષેપ પડે છે. આને લીધે એક ભ્રમણા ફેલાય વગેરેનું વિવેચન કરવામાં આવ્યું છે. છે કે જૈનીઓ સ્વાર્થી છે. ફક્ત પોતાનો જ / પંડનો જ વિચાર ભગવાન મહાવીરે તત્વ અને ધર્મના વાસ્તવિક સ્વરૂપની કરવાની છૂટ આપતાં ધર્મ તરીકે એને ગણવામાં આવે છે. રાગ વ્યાખ્યા કરીને આત્મકલ્યાણનો માર્ગ સર્વે માટે ખૂલ્લો મૂક્યો હોવાથી દ્વેષથી પર થઈએ તો જ સમભાવ આવે અને સમભાવથી ઉત્પન્ન આપણે એમને વ્યક્તિ | માનવ તરીકે નહીં પણ વિચાર રૂપે થતી સેવા જ ખરા અર્થમાં લોક કલ્યાણકારી બની શકે. અન્યથા ઓળખીએ છીએ. એમણે સર્વેને સમાન ગણ્યા - પ્રાણી માત્રનો ભેદ સેવા એ તો મેવા માટેનું સાધન બની રહે. ક્યારેક જૈનીઓને નહોતો રાખ્યો. મહાવીરનાં ઉપદેશની વૈચારિક ક્રાંતિ બૌદ્ધિક, ધર્મઝનુની તરીકે પણ દર્શાવવામાં આવે છે કારણ કે સંન્યાસ / ધાર્મિક, આર્થિક, સામાજીક અને રાજનૈતિક જીવનને સંપૂર્ણ રીતે ક્રિયાકાંડો | આત્મલક્ષી. વિચારો પર ખૂબ જોર આપવાથી અસર કરે છે. સમભાવ | સહિષ્ણુતા અને સેવાની ભાવના ગૌણ થતી દેખાય છે. એમને બીજાઓની પીડા, દુઃખ, તકલીફોને નીવારવાનો જે બીજાનો વિચાર નહીં કરવાનો – ફક્ત પોતાનાં આત્મ સાક્ષાત્કાર માર્ગ સાધનાનાં ઉગ્રક્રમ બાદ મળ્યો હતો તેને પોતાના પૂરતો જ ન માટે જ પ્રયત્નશીલ રહેવાનું આ માન્યતાને લીધે ઘણીવાર બીજા રાખતાં એઓએ બધા માટે ખૂલ્લો મૂક્યો એમના ઉપદેશનાં આ જીવોની ઉપેક્ષા થઈ જાય છે. પરિશ્રમમાં એમની બીજાઓ પ્રત્યેની આત્મીયતાનાં દર્શન થાય છે. આજે આપણી અહિંસા મારો નહીં | હણો નહીં પૂરતી નિઃસ્વાર્થતાનું ઉમદા ઉદાહરણ એમણે પૂરું પાડેલ છે. સ્વાર્થીપણું મર્યાદિત થતી. ગઈ છે. આ નકારાત્મક ઘોષણાની ભ્રાંતિથી ગેરસમજ આપણા જેવાનાં જીવનમાં હોય છે. જો આપણા જીવનમાં બીજાનું ફેલાવા લાગી છે. સેવાભાવ વગરની અહિંસા અને સંન્યાસ બંને દુઃખ આપણું ન લાગતું હોય તો આપણે સમજી લેવું જોઈએ કે નિષ્ક્રિય છે. આ ત્રણેના સુમેળથી જ પૂર્ણ બની શકાશે. અહિંસા આપણે અધર્મનું આચરણ કરી રહ્યા છીએ, બીજાની વેદનાને અને સેવા અભિન્ન છે. અહિંસક હોવાનો બીજો અર્થ છે સેવાના પોતાની સમજી એના પ્રત્યે જાગૃત જવાબદારીનો અહેસાસ થાય, ક્ષેત્રમાં સક્રિય થવું. માનવતા વગરની. અહિંસા હોઈ શકે ? આમ એ જવાબદારી નીભાવીએ નહીં તો ધાર્મિક ક્રિયાકાંડો એ નર્યો ઘરમાં કીડી પણ ન મરવા દઈએ, પાણીને પણ ગાળ્યા સિવાય ન દેભ / પાખંડ જ છે. ધાર્મિકતાની મૂળભૂમિ સમ્યક્દર્શનનાં પાંચ વાપરતા હોઈએ અને આપણા માંદા નોકરો કે અન્ય પ્રાણીઓ. અંગોમાં સમભાવ અને કરૂણાને સૌથી વધુ મહત્વનાં ગણવામાં પ્રત્યેની માનવતા મનમાં ન ઉઠતી હોય તો એ અહિંસા. શું. આવ્યા છે. આ સમભાવનો સામાજીક દ્રષ્ટિએ અર્થ કરીએ તો કામની ? ક્યારેક અમુક લોકો (અનેક કારણોસર) ઝુંપડપટ્ટી બીજાને પોતાના જેવા જ - સમ સમજવા. કેમકે અહિંસા અને વગેરેમાં પોતાનાં સ્વાર્થ માટે આગ લગાવી દેતા હોય છે. ઘી જેવા લોકકલ્યાણની આંતરભાવનાનો મૂળ ઉદ્દગમ જ આ છે. આચારાંગ અન્ય ખાદ્ય પદાર્થોમાં માંસાહારી ભેળસેળ થતી રહે છે. તો પછી. સૂત્રમાં આવે છે ને કે જે રીતે હું જીવવા માંગું છું, અને મરવાનું છેતરામણી. / ઉપરછલ્લી. અહિંસામાં માનવતા / સેવા ભાવના. ક્યાં પસંદ કરતો નથી એજ રીતે સંસારનાં દરેક પ્રાણી. મૃત્યુથી ડરે છે. રહી ? અને જીવવાની ઈચ્છા રાખે છે. જેમ હું સુખ ઈચ્છું છું એમ જ બધા નેપોલિયને વિયેના પર ચડાઈ કરી, ત્યારે વિયેના હારવાની. બીમારીમારીની સારવાર પ૪ जयन्तसेन विदितवान्, करते निज उत्थान ।। करो धर्म आराधना, छोडो विषय विकार । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અંતિમ ક્ષણોમાં હતું અને નગરનું દ્વાર ખોલીને એક દૂત સંધિનો પલાયનવૃત્તિનું નથી પણ એ સમસ્યાઓનો સ્થાઈ અને આધારભૂત ધ્વજ લઈને બહાર આવ્યો. એણે નેપોલિયનને કહયું ‘‘આપની. ઉકેલ શોધવાનો સંઘર્ષ અવિરત પણે. તેઓ કરતા રહયા.. તોપોથી રાજ મહેલની નજીકમાં જ ગોળા પડી રહયા છે. રાજા | ઈતિહાસ સાક્ષી છે કે તેઓ નિઃસ્વાર્થ ભાવે સતત સામાજીક મહેલમાં સમ્રાટની રાજકુંવરી બિમાર હાલતમાં છે. થોડો વધુ સમય મૂલ્યોનાં નિમણિનાં કાર્યમાં વ્યસ્ત રહયા. અટક્યા વગર | વણથંભે તોપમારો ચાલુ રહેશે તો સમ્રાટને પોતાની બિમાર પુત્રીને વલવલતી ચાલતા રહયા. મહાવીર સ્વ અને પર, હું અને તું નો સમન્વય મૂકીને ભાગી છૂટવું પડશે.” ત્યારે નેપોલિયનના સેના નાયકે કહયું સાધીને આત્મકલ્યાણ અને સમાજ કલ્યાણ બંનેનાં જીવતા જાગતા “આપણે થોડી જ વારમાં વિજય પ્રાપ્ત કરવાનાં છીએ ત્યારે યુદ્ધ ઉદાહરણ રૂપ છે. આ બંને માર્ગ પર ચાલતા રહીને એમણે. નીતિ અનુસાર નગરની વચ્ચોવચ્ચ તોપગોળા પડવા આવશ્યક મૂળભૂત સામજિક મૂલ્યોનું રહસ્ય સમજાવ્યું અને એ છેઃ - “ અહિંસા – અપરિગ્રહ – અનેકાન્ત ”. પણ નેપોલિયને કહયું “ યુદ્ધ નીતિની વાત યથાર્થ તો છે જ આ ત્રણેય મૂલ્યો, સિદ્ધાંતો, જીવનને સમાજોપયોગી બનાવવાના. પણ અત્યારે માનવતાનો તકાજો એ છે કે બિમાર રાજકુમારી પર આધારસ્થંભો, ઉપરાંત સુખી થવાના માર્ગનાં આ ત્રણ માઈલ દયા કરવી જોઈએ.” અને પોતાના નિશ્ચિત વિજયને સંદિગ્ધ સ્ટોન, અને વિશ્વશાંતિ માટેના આ મિસાઈલ્સ એમનાં સામાજીક બનાવવાનો ડર સેવીને પણ નેપોલિયને તોપોને ત્યાંથી હઠાવી લીધી અનુસંધાનનાં પરિણામ રૂપ જ નીપજ્યાં છે. પોતાની આત્માનુહતી. અહીં આપણને યુદ્ધની. હિંસામાં પણ અમીરી માનવતાનો ભુતિ બાદ એ નિષ્ક્રિય બનીને બેસી રહયાં હોત, પોતાનામાં જ દર્શન થાય છે. લીન બન્યાં હોત કે પછી એ અનુભુતિને સમાજની સમસ્યાઓનાં ભગવાન મહાવીરે ફક્ત આત્મ કલ્યાણનો માર્ગ જ ન ચીંધતા. ઉકેલનાં સંઘર્ષમાં જોડીને આત્મચિંતન ન કર્યું હોત તો આ દિવ્ય સમાજ કલ્યાણનો માર્ગ પણ ચીંધ્યો જ છે. રાજા-મહારાજાઓ સાથે ત્રણ મૂલ્યો આપણને મળી શકત ? આમ એમણે પોતાની. એમની. ચર્ચા થતી. ત્યારે એમને લોક શાસનનાં નિયમો / જાણકારી આત્માનુભુતિને સમાજ સાથે એકરસ કરી અને એનાં પરિપાક રૂપે જ્ઞાન આપતા. ખેડૂતો, વ્યાપારીઓ કે કારીગરોની પણ એમણે મળેલા આ મૂલ્યો આજે ય એટલાં જ સમાજ માટે ઉપયોગી છે. આજીવિકા માટે પ્રામાણિક રહેવાની વાત કહી છે – અપ્રમાણિક વિશ્વ શાંતિ, સહઅસ્તિત્ત્વ અને સહઐક્ય આ માર્ગ વગર શક્ય થવું એટલે બીજાનાં હક્કો પર તરાપ મારવી આની મનાઈ કરીને બનશે ? પોતાની આત્મસાધનામાં મહાવીરે લૌકિક વ્યવસ્થાના. એમણે સદાચારનો માર્ગ ચિંધીને જીવન જીવવાની જે કળા શીખવી આધારભૂત તત્વોની ઉપેક્ષા કરી હોત તો ? એ સમાજ કલ્યાણના હેતુથી જ તો ! આમાં પણ અહિંસા વણાઈ અહિંસાની પ્રતિષ્ઠા દ્વારા એમણે સમાજમાં વ્યાપેલા ભેદ ગઈ ! ઊંચ-નીચ, છૂત-અછૂત વગેરેને નાબૂદ કર્યા છે. એમણે નોંધ્યું કે - જ્યારે જ્યારે એમણે નારી સમાજ વિશે વાતો કરી છે ત્યારે આવા ભેદ જ હિંસાની પરાકાષ્ઠા છે. પ્રત્યેક મનુષ્યનું અસ્તિત્વ પણ પોતાની શક્તિ ઓળખવા માટેની પ્રેરણા નારીઓને આપી. સમાન રીતે ગૌરવવંતુ છે. સૌની ગરિમા જળવાય તો જ અહિંસાની. જીવનનાં દરેક ક્ષેત્રમાં નારીના વિકાસની સંભાવનાઓ પર એમણે સુંદર બંસરી વાગે . વર્ગશોષણના પક્ષપાતી. સમાજને અહિંસક કહી. પૂરતો પ્રકાશ નાંખ્યો છે. શકાય ? દલિતમાં દલિત લોકોને પણ એમણે સમાન ગણ્યા. એમણે એક જગ્યાએ કહયું છે. હરિકેશી ચાંડાલને ગળે લગાવીને તો એમણે અહિંસાનું પૂર્ણ દર્શન જે અંગે જાણઈ સે સર્વે જાણઈ, કરાવ્યું. જે સર્વે જાણઈ સે અંગે જાણઈ, મહિલાઓને પણ એમણે પુરુષ જેટલો જ સમાનાધિકાર ( આમાં વ્યષ્ટિ અને સમષ્ટિનો અન્યોન્યાશ્રમ સંબંધ બતાવ્યો આપીને એમણે એ વખતનાં સમાજમાં અહિંસાનું શિરમૌર ઉદાહરણ છે. વ્યક્તિ એ સમાજનું જ ઘટક હોઈ આત્મવિકાસના માર્ગની પૂરું પાડ્યું. એમણે આદરેલો આ અહિંસાનો પ્રયોગ દરેકે દરેક સાથે જ સમાજ વિકાસનાં માર્ગના મૂળ મંત્રોને આપણી સમક્ષ મૂકી ક્ષેત્રમાં કાર્યમાં પોતાની વિશિષ્ટ રીતે આદરાતો ગયો – અને એમણે જીવનની સવગણતા પ્રત્યે આપણું ધ્યાન દોર્યું છે. આ બંને એમાંય લોકભાષાનો ઉપયોગ કરીને એમણે પોતાના પ્રયોગને એક માર્ગ વિરોધી ન હોઈ એકબીજાના સહયોગી / પૂરક છે. બહુમૂલ્ય પ્રમાણ બક્યું. કોઈને ન સમજાય તેવી ભાષામાં બોલીને | મહાવીરનું જીવન આપણને એક બીજી હકિકત તરફ પણ રોફ છાંટવો એ પણ હિંસા જ છે. પોતાના જીવન જેટલી જ ધ્યાન દોરે છે કે આત્મસાધના પછી જ સામાજીક મૂલ્યોનું સૃજન મહત્વપૂર્ણ બાબત પોતાની ભાષાભિવ્યક્તિ હોય છે. સૌને પોતાની કરી શકાય છે. એમણે પોતાની ધ્યાન સાધના પૂર્ણ થયા બાદ – ભાષાનું ગૌરવ હોય છે. ભાષા છીનવી લેવી એટલે કે જીવન જ સાડા બાર વર્ષની ઉગ્ર તપસ્યાની ફળશ્રુતિ રૂપે, આત્મતત્ત્વની છીનવી લેવું – આ બધા મૂલ્યો એમણે ૨૫૦૦ વર્ષ પહેલાં પ્રાપ્તિ બાદ જ પ્રતિબોધ | ઉપદેશ આપ્યો. આ હકિકતમાં તેઓ સ્થાપિત કરીને લોકબોલીમાં જ જનસંપર્ક કર્યો. દઢ સમર્થક રહયાં છે. પણ હાં, આત્માનુભુતિની પ્રાપ્તિ બાદ એઓ આ તો થઈ મનુષ્યમાં – સમાજમાં અહિંસાનાં પ્રતિપાદનની અટક્યા નથી, વિરામ કે નિવૃત્તિ નથી સ્વીકારી. એમનું બાકીનું વાત, પણ ભગવાન મહાવીર આટલેથી ન અટકતાં પ્રાણીમાત્ર પણ જીવન સમાજની સમસ્યાઓથી દૂર છૂટવાનું કે ભાગી જઈને આખરે તો સમાન જીવ જ છે અને વનસ્પતિ પ્રત્યે પણ એ જ થીમ થકારોનટરિનામદદ કરો, ઇરાદી વિભાગ, પુપ जयन्तसेन सतर्क रह, नैया सुख से पार || जीव मात्र से प्रेम हो, नहीं किसी से द्वेष । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભાવ દશવિીને અહિંસામાં પરસ્પર મૈત્રી, ઐક્યતા. અને કરૂણાને ભેદ સુધી. સ્વીકારી ન શકાય. ઈન્સાને વિચાર્યું મનભેદથી ફક્ત સંમિશ્રિત કર્યા છે. ભગવાન મહાવીરનાં સમયમાં અનેક પ્રકારનાં સંઘર્ષ જ થાય છે એવું નથી એથી વિકાસમાં પણ. રૂકાવટ આવે છે. ભેદભાવોથી સમાજ ખદબદતો હતો. ત્યારે આ વિષમતા દૂર કરવા | મહાવીરની આપેલી આ સામાજીક ભેટ ‘અનેકાન્ત દ્રષ્ટિ’ એ. એમણે સમતાનો માર્ગ દેશવ્યિો. ભગવાનની સભામાં રાજા-રંક, દીર્ઘદ્રષ્ટિ અને સમાજ કલ્યાણની ભાવનાનું પરમ | ઉન્નત શિખર જાતિભેદ-વર્ણભેદ વગેરેનાં ભેદ ન હતા. અહીંઆ સર્વે એક સમાન છે. અહિંસા અને અપરિગ્રહ હોય તો જ સમાજકલ્યાણ શક્ય બને રહેતા હતા. અહિંસાનાં મૂલ્યની સમાજનાં દરેકે દરેક પાસા / છે તેમ જો અનેકાંતવાદ હોય તો જ સમાજમાં સુખ - શાંતિ અને તબક્કા અને હકીકતો પર સ્થાપના કરીને એમણે સમાજકલ્યાણ સંતોષ રહે, અન્યથા સંઘર્ષમય સમાજ મનભેદથી ઊભી થયેલી કર્યું. જેથી સમાજમાં સુખ-શાંતિ બીજા.ના ભોગે ન મેળવાય. વિષમતાઓમાં અટવાઈ પડે. - એમનાં સમાજ સાથેનાં ઊંડા સંબંધો, એ વિષેનું ગહરૂં મહાવીર ભગવાને શીખવ્યું કે વસ્તુ એકપક્ષીય ન હોય ચિંતન-મનનથી તેઓ સારી રીતે સમજી શક્યા કે આર્થિક અસમાનતા અનેકપક્ષીય છે. આનાથી મનુષ્ય પોતાની દ્રષ્ટિની સાથોસાથ બીજાની. અને આવશ્યક વસ્તુઓનાં અતિ સંગ્રહથી સમાજમાં ભેદ પ્રસરશે. દૃષ્ટિ | વિચારોને પણ સમજવાનો પ્રયાસ કરવા લાગ્યો. અને સમાજજીવન અસમતોલ બની જશે. આને કારણે જ શ્રીમંત વર્ગ બીજાને સમજવાનો પ્રયાસથી પોતાનાં તુચ્છ અહમૂનું વિઘલન કરવા ગરીબોનું શોષણ કરે, ગુલામપ્રથા અમલમાં આવે- વગેરેને કારણે લાગ્યો. અને આમ આ ત્રણેય મૂલ્યોને અપનાવીને એ સમાજ – એમણે આ અસમાનતાને દૂર કરવા ‘અપરિગ્રહ’નો આદર્શ કલ્યાણ કરતો જાય તો સાથોસાથ માનસિક શાંતિ પ્રાપ્ત કરે, અને આપ્યો. પરિગ્રહથી હિંસાની જેમ જ સમાજમાં ઘર્ષણ, કડવાશ, વેર- એ શાંતિ આત્મકલ્યાણ ભણી દોરી જાય કે નહીં ? આમ ઝેર, શોષણ, સંગ્રહ વગેરે ઉદ્ભવે છે. અપરિગ્રહના સામાજીક સમાજકલ્યાણ અને આત્મકલ્યાણના સુપેરે માર્ગે ચાલવાનો માર્ગ મૂલ્યની સ્થાપના તેમણે એટલા માટે કરી કે જેથી સમાજમાં ધનની ભગવાન મહાવીરે ત્રણ અતિ મહત્વના મૂલ્યો સ્થાપીને દર્શાવ્યો મર્યાદા, વસ્તુઓની મર્યાદા, આવશ્યકતા નક્કી થાય. અમૂક થોડાં અને એમનું સમગ્ર જીવન એ દશવિ છે કે એમણે સમાજકલ્યાણને હાથોમાં થતાં ધનના એકત્રીકરણથી સમાજનો મોટો ભાગ અવિકસીત આત્મકલ્યાણ જેટલું જ મહત્વનું ગણ્યું હતું. તેઓ એકનિષ્ઠ, રહી જાય છે. જીવનોપયોગી વસ્તુઓ માટે અમુક લોકો ટળવળે એકાંતવાદી, કે નિવૃત્તિમૂલાક નકારાત્મક જીવન નહોતા જીવ્યા. ' અને અમુક લોકો પાસે નાશ કરવો પડે એટલો સંગ્રહ થઈ જાય એ | દરેક વ્યક્તિ સત્યના નવા નવા પાસાંને શોધી શકે છે. પણ હિંસા જ થાય ને ! આમ અહિંસા અને અપરિગ્રહ એ બંને કોઈપણ એક જ દ્રષ્ટિ | બાજુથી વસ્તુને જોઈ સ્વીકારી લેવું એ પણ એક સિક્કાની બે બાજુની જેમ સંયુક્તપણે રહે તો જ સમાજનો એક હિંસા થઈ. આપણે તો સતત અનેક દ્રષ્ટિથી એની શોધ કરતાં ઉદ્ધાર થાય એ એમણે સમજાવ્યું. રહેવાનું છે. નવા નવા સત્યો લાધતાં જશે તેમ તેમ સમાજ વધુ ' ભગવાન મહાવીરે અહિંસા. અને અપરિગ્રહનાં મૂલ્યો સ્થાપીને સમૃદ્ધ થતો જશે. શાંતિ સ્થપાશે. માનવી વૈચારિક સંઘર્ષથી દૂર વ્યક્તિગત, માનવીય અને આર્થિક અસમાનતાને તો દૂર કરી જ ન થઈને એકબીજાને સહયોગ કરતો જશે તેમ તેમ આપણે સમજીશું હતી. પણ આટલેથી જ એઓ અટક્યા નહીં. એમની કાંત | દીર્ઘ કે અનેકાન્ત, સમાજને વૈચારિક ગતિ આપનારો સિદ્ધાંત છે અન્યથા દ્રષ્ટિ – વૈચારિક મતભેદથી. જે દ્રુદ્ધ ઊભા થાય એ પ્રત્યે પણ – સમાજની ગતિ અટકતાં વિકાસ / પ્રગતિ ઠપ્પ થઈ ગયા હોત. સજાગ રહી, અને ભગવાને આપણને અનેકાન્ત દૃષ્ટિની નવાજેશ અંતે આપણે એમ જાણી શક્યા કે મહાવીરનું સમગ્ર જીવન કરી. જેને આપણે સમન્વયાત્મક દ્રષ્ટિકોણ પણ કહી શકીએ. આત્મસાધના પછી. સામાજીક મૂલ્યોની સ્થાપનામાં | વિકાસમાં | એકાંત દ્રષ્ટિથી રચનાત્મક પ્રવૃત્તિઓ કુંઠિત થઈ જાય. માનવમાં અમલીકરણમાં જ લીન રહયું. અને એટલે જ મહાવીરને આપણે રહેલી સુજનાત્મક માનસિક શક્તિને લીધે વૈચારિક મતભેદ ઊભા દેશ / જાતિ / સમાજનાં સીમાડામાં ન બોધતાં માનવ જાતિનાં એક થાય છે. ગૌરવ / આદર્શ વિચાર રૂપ પ્રતિષ્ઠિત કરીએ છીએ. અસ્તુ....... પણ જો એને પૂરી રીતે સમજવામાં આવે તો આપણી મતભેદથી. ઊભા થતાં સંકુચિત સંઘર્ષ નિવારી શકાય અને સમાજની લેખ લખાતાં લખાતાં યાદ આવેલ શેર ને ટપકાવી લઉં ! શક્તિને વિઘટિત થતી બચાવી શકાય. બડી મુશ્કિલ સે પૈદા એક વહ આદમજાત હોતા હૈ - સમાજનાં આ મતભેદના વલણને બરોબર આત્મસાત્ કરીને જો ખુદ આજાદ, જિસકા હર નફસ આજાદ હોતા હૈ // મહાવીરે અમૂલ્ય એવા અનેકાંતવાદનાં સિદ્ધાન્તને પ્રતિપાદન કર્યો. • ખંજર ચલે કિસી પર તડપતા હૈ મેરા દિલ જેનાથી. મતભેદને પણ સત્યથી જોવાની દ્રષ્ટિ ખીલી, માનવી કિ સારે જહાં કા દર્દ મેરે જિગર મેં હૈ | સમજવા લાગ્યા કે મતભેદ દ્રષ્ટિ વિચારભેદ સુધી સ્વીકારાય, મન | પ્રભુ મહાવીરે પણ આવી જ અનુભૂતિ કરી હશે ? થીમ બજારમાં બિરાજમાન जयन्तसेन धर्म सरल, देता यह सन्देश ।। अहिंसा सत्य अचौर्य हि, ब्रह्मचर्य सन्तोष । Jain Education Interational Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભગવાન મહાવીરનો સ્યાદ્વાદ | (શ્રી જયેન્દ્રભાઈ શાહ, મુંબઈ) | ભરતક્ષેત્રમાં આ અવસર્પિણી કાળના ચોવીસમાં તીર્થકર છે. ' ચાતું ' એટલે અમુક અપેક્ષાએ, અને વાદ એટલે કથન. ભગવાન મહાવીર દેવે અગાઉના તીર્થકરોના બોધની પરંપરામાં અપેક્ષા પૂર્વક કથન એટલે સ્યાદવાદ. અનેકદ્રષ્ટિ યુક્ત કથન, એટલે અહિંસા અને અનેકાન્તવાદની વિશ્વને આપેલી ભેટ અમૂલ્ય છે. ભિન્ન ભિન્ન દ્રષ્ટિએ જે કથના તે અનેકાન્તવાદ. અહિંસા અને અનેકાન્ત-વાદ પરસ્પર આધારિત છે. અનેકાન્ત દ્રષ્ટિ ઉત્પાદ - વ્યય - ધ્રૌવ્ય. વિના અહિંસાનું પૂર્ણ પાલન અસંભવિત છે. સૂક્ષ્માતિ સૂક્ષ્મ જીવસૃષ્ટિ, સંપૂર્ણ જીવદયા, કમબંધ અને મોક્ષની મીમાંસા, અનેક દ્રષ્ટિકોણથી. વિશ્વવંદ્ય વિશ્વ વિભુ સર્વજ્ઞ ભગવાન મહાવીરદેવે, પ્રત્યેક વસ્તુ સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન, એ પ્રભુ મહાવીરની વિશ્વને મળેલી પદાર્થના મુખ્ય ત્રણ ધર્મો કહયા છે. ઉત્પાદ, વ્યય અને ધ્રૌવ્ય. અમૂલ્ય અને અદ્વિતીય બોધ સંપત્તિ છે. પ્રસ્તુત લેખમાં વસ્તુને ઉત્પાદ એટલે ઉત્પત્તિ, વ્યય એટલે નાશ અને ધ્રૌવ્ય એટલે સ્થિતિ. અનેક દ્રષ્ટિકોણથી સમજવાની ચાવાદ કે અનેકાન્તવાદની વ્યાપક શ્રી તત્વાર્થસૂત્રમાં સૂત્ર છે કે , “ ઉત્પા-વ્યય-ધ્રૌવ્યયુવા સત્ ' આ દ્રષ્ટિ જૈન દર્શનમાં કેવી રીતે વ્યક્ત થઈ છે ? વ્યવહાર તેમજ સૂત્રને દ્રષ્ટાંતની મદદથી સમજીએ તો, સોનાની કંઠીને તોડીને અધ્યાત્મમાં આ દ્રષ્ટિનું શું મહત્વ છે? તે જોઈએ. એમાંથી કુંડલ બનાવવામાં આવે છે. ત્યારે કંઠીનો નાશ અને કુંડલની ઉત્પત્તિ થઈ કહેવાય. પરંતુ કંડલની ઉત્પત્તિ. નવી નથી. કલિકાલ સર્વજ્ઞ આચાર્ય શ્રી હેમચંદ્રસૂરિજી “ સિદ્ધ હેમ કંઠીનો આકાર બદલાયો. અને કુંડળનો થયો. કંઠી. અને કુંડલ બંને શબ્દાનું શાસન " માં સ્યાદ્વાદની વ્યાખ્યા આ રીતે આપે છે. સુવર્ણરૂપમાં તો એક જ છે. કુંડલ રૂપે ઉત્પત્તિ. કંઠી રૂપે નાશ અને ‘‘ચાત્'' - ટૂજ્યવ્યયમ્, નેત્ત પોતક્રમુ, તતઃ ચાલ્વાડું: સુવર્ણની સ્થિતિ, એ ત્રણેય બાબતો. આ ઉદાહરણમાં સ્પષ્ટ થઈ. જે अनेकान्तवादः नित्या नित्या धनेक धर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति મૂળ વસ્તુ સ્થાયી છે, તેને જૈન પરિભાષામાં ' દ્રવ્ય ' કહેવામાં આવે યાવિત | - સાત એ અવ્યય છેજે અનેકાન્ત અર્થનું ધોતન કરે છે અને જેની ઉત્પત્તિ અને નાશ થાય છે તેને ' પયયિ ' કહેવામાં છે. એ ઉપરથી સ્વાવાદ એટલે અનેકાન્તવાદ. એટલે કે, નિત્ય આવે છે. દ્રવ્યથી દરેક પદાર્થ નિત્ય છે અને પર્યાયથી. એટલે અનિત્યાદિ અનેક ધર્મોનો એક વસ્તુમાં જે સ્વીકાર કરવો, તેનું નામ અવસ્થા ભેદથી દરે ક પદાર્થ અનિત્ય છે. આમ વસ્તને એ કાન્ત સ્યાદ્વાદ કહેવાય. પંડિત સુખલાલજીએ નોંધ્યું છે કે, ‘અને કાન્ત નિત્ય કે અનિત્ય નહિ માનતાં નિત્યાનિત્યરૂપે જોવાની. રૌલી એ વિચારસરણીનો ખરો અર્થ એ છે કે સત્ય દર્શનને લક્ષ્યમાં રાખી, સ્યાદ્વાદ છે. તેના બધા અંશો. અને ભાગોને એક વિશાળ માનસ વર્તુળમાં યોગ્ય રીતે સ્થાન આપવું. વસ્તુના અનંત ધર્મો છે. ભિન્ન ભિન્ન વસ્તુ માત્ર મૂળ દ્રવ્ય રૂપે સ્થાયી યાને નિત્ય છે. અને દ્રષ્ટિબિંદુઓથી એકબીજાના વિરોધી દેખાતા ધર્મોનો સ્વાવાદમાં અવસ્થા ભેદે અનિત્ય છે. આનો પણ સાર એ છે કે દ્રવ્યની સ્વીકાર થાય છે. દા. ત. એક જ પુરુષ જાદી જાદી અપેક્ષાએ અપેક્ષાએ દરેક પદાર્થ નિત્ય અને સ્થાયી છે અને પર્યાયિની. સંબંધ વિશેષે પિતા, પુત્ર, કાક, ભત્રીજો, મામો, સસરો, જમાઈ અપેક્ષાએ પરિવર્તનશીલ છે. વસ્ત્રના તાકામાંથી કોટ પાટલૂન બનાવ્યા હોય તો ત્યાં તે વસ્ત્રના તાંતણાના અણુઓ પરમાણુઓ મૂળ દ્રવ્ય તરીકે ઓળખાય છે. રૂપે કાયમ છે, કારણ કે પરમાણુઓનો કદાપિ નાશ થતો નથી. કોટ હાથીના એક એક અવયવને ઓળખીને તેને હાથીનું પૂર્ણરૂપ પાટલૂનના રૂપમાં તે ઉત્પન્ન થયું છે. તાકો અને કોટ પાટલૂન એ સમજી હાથીનું વર્ણન કરનારા અંધજનો, આંશિક જ્ઞાનને પૂર્ણ જ્ઞાન વસ્ત્રનાં અવસ્થાંતરો થયાં. એક જ માણસ બાળક મટીને યુવાન, માનતા હતા, તેથી તેમનો અભિપ્રાય યુવાન મટીને વૃદ્ધ થાય છે. માણસ તરીકે બધી અવસ્થામાં સમાન ખોટો હતો. એક ઢાલની એક બાજુ એક બાજુ છે. એ રીતે આત્મા મૂળ દ્રવ્ય રૂપે નિત્ય છે. તેની અવસ્થાઓમાં સોનાની. અને બીજી બાજુ ચાંદીની પરિવર્તન થતું હોવાથી પાયિની દ્રષ્ટિએ અવસ્થા ભેદે આત્મા મઢેલી છે. તેને બે બાજુ જોનારા જુદા અનિત્ય છે. એક મનુષ્ય મટીને દેવ થયો. બંને અવસ્થામાં તે જાદા માણસો જુદી રીતે જાએ, તે આત્મા રૂપે એક જ છે. આ આત્માના મનુષ્ય પયયનો નાશ થયો. અપૂર્ણ દર્શન છે. બંને બાજાએ જોનારનું અને દેવ પયયિની ઉત્પત્તિ થઈ, એમ કહેવાય. આ રીતે જૈન દર્શન પૂર્ણ દર્શન છે. વસ્તુના અનેક દર્શનમાં આત્માને નિત્ય અને અનિત્ય, યાને પરિણામી માનવામાં ધર્મોના વિચાર વિનિયમથી તેનું જ્ઞાન આવ્યો છે તો, જો આત્માને માત્ર નિત્ય જ માનવામાં આવે તો સંપૂર્ણ બને છે. અનેક ધર્મોના. તેમાં સુખ દુઃખની ભિન્ન ભિન્ન અવસ્થાઓ, જુદાં જુદાં પરિવર્તનો સમન્વયથી વસ્તુ સ્વરૂપ સાચું સમજાય સમજાવી શકાશે નહિ. આત્માને નિત્ય માનીને પણ જો. પરિણામી શ્રી જયેન્દ્રભાઈ શાહ પીવાનાર છે. નાભિનદનથી વિભાગ પ૭ काम विषय आशक्ति में, मिले नहीं आराम । जयन्तसेन इसे तजे, जीवन सुख का धाम ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - એક ક્ષના માનીએ તો જ, સુખદુઃખાદિ ભિન્ન અવસ્થાઓ અને પરિવર્તનો તેમજ પુણ્ય-પાપ, બંધ-મોક્ષ આત્મામાં ઘટી શકે છે. જો આત્માને એકાન્ત અનિત્ય માનવામાં આવે તો, એક ક્ષણના પર્યાય જે કાર્ય કર્યું, તેનું ફળ બીજી ક્ષણના પર્યાયને મળ્યું. આને કૃતનાશ અને અકૃતાગમ દોષ કહેવામાં આવે છે, કૃતનાશ એટલે જે કર્યું હોય તેનું ફળ કરનારને મળે તે. અકૃતાગમ એટલે જેણે જે કર્યું નથી તેનું ફળ તેને મળવું. એકાન્ત ક્ષણિકવાદમાં સુખ-દુઃખ, પુણ્ય-પાપ અને બંધ-મોક્ષ આત્મામાં ઘટી શકતાં નથી કલિકાલ સર્વજ્ઞ શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય મ. શ્રી ' વીતરાગ સ્તોત્ર ' માં આ બંને પક્ષોનો યોગ્ય સમન્વય આ રીતે સમજાવે છે. गुडोऽपि कफ हेतु स्यान् - नागरं पित्तकारणम् । द्वयात्मनि दोषोऽस्ति ગુડનાર મેષને || ૬ || ગોળ કફ કરે છે. સૂંઠ પિત્ત કરે છે. પરંતુ તે બંનેનું યોગ્ય મિશ્રણ થાય તો કોઈ દોષ રહેતો નથી. તેમ એકાન્ત નિત્યવાદ કે એકાન્ત અનિત્યવાદ સદોષ છે. નિત્પાનિત્યવાદ નિર્દોષ છે. એ કવિત થાય છે. દુનિયાના તમામ દોષોને નાબુદ કરવાની તાકાત અનેકાન્તવાદમાં સમાયેલી છે. તમામ વાદોના અંત લાવવાની અમોઘ શક્તિ સ્યાદવાદમાં છે. ગોળ કફનું કારણ છે અર્થાત્ ગૉળ કફોત્પાદક છે. સુંઠ પિત્તનું કારણ છે. અર્થાત્ પિત્ત કરે છે, જ્યારે આ બંને જુદા જુદા હોય, ત્યારે દોષપ્રદ બને છે, પરંતુ જ્યારે બંનેનું એકીકરણ થાય છે ત્યારે બંનેના દોષો નાબુદ થાય છે. અલગતા દોષ છે ત્યારે ઐક્ય દોષઘ્ન બને છે. સપ્તભગી જૈન દર્શનમાં કોઈ પણ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં જુદી જુદી સાત કથનરીતિઓનો આશ્રય લેવાય છે. તેને ‘ સપ્તભંગી કહેવામાં આવે છે. તે આ પ્રમાણે છે. ૧. ‘અસ્તિ' એટલે છે. ૨. નાસ્તિ’ એટલે નથી. ૩ અસ્તિ-નાસ્તિ’ એટલે છે, છતાં નથી. ૪. 'લવક્તવ્ય’ એટલે ન કહી શકાય તેવું ૫. ‘સ્તિ-વ્યવક્તવ્ય એટલે છે, એમ કહી શકાય તેવું નથી. ૬. “નાસ્તિ-પ્રવક્તવ્ય એટલે નથી, એમ કહી શકાય તેવું નથી. ૭. ‘ગસ્તિ-નાસ્તિ ઝવવક્તવ્ય' એટલે છે, કે નથી કે છે એ કહી શકાય તેવું નથી. આ સાતેય કથનરીતિઓ સાથે ‘કંચિત્’ એટલે અમુક અપેક્ષાએ એ શબ્દ જોડવો પડે છે. શ્રીપદ યસન અભિનેત્રી રાની વિભાગ . પ્રથમ ભંગથી વસ્તુ શું છે ? તે દર્શાવાય છે જેમકે વસ્તુ 'અસ્તિ સ્વરૂપે જ છે પરંતુ અમુક અપેક્ષાએ એટલે કે સ્વદ્રવ્ય સ્વક્ષેત્ર, સ્વકાલ અને સ્વભાવથી છે. દ્વિતીય ભંગથી વસ્તુ શું નથી ? એ દર્શાવાય છે, જેમ કે વસ્તુ નાસ્તિ જ છે પણ અમુક અપેક્ષાએ, એટલે કે પદ્રવ્ય પરક્ષેત્ર પરકાલ અને પરભાવથી નથી. ત્રીજા ભંગથી વસ્તુ શું છે ? અને શું નથી ? તે અનુક્રમે દર્શાવાય છે. ચતુર્થ ભંગથી વસ્તુ અવકતવ્ય છે તેમ દર્શાવાય છે. વસ્તુના કેટલાક ધર્મો અજ્ઞાત હોય છે. અનુભવમાં આવી શકે છતાં થોગ્ય શબ્દોમાં વ્યક્ત ન થઈ શકે તેવા હોય છે, તેથી વન અમુક ત્યારે અસ્તિ અપેક્ષાએ અવકતવ્ય છે, એમ કહી શકાય છે. અવકતવ્યની સાથે અસ્તિ મળવાથી પાંચમો ભંગ થાય છે. અવકતવ્યની સાથે નાસ્તિ મળવાથી છઠ્ઠો ભંગ થાય છે, અવક્તવ્યની સાથે અસ્તિ નાસ્તિ બંને મળવાથી સાતમો ભંગ થાય છે. શ્રી ભગવતી સૂત્રમાં “ સિઅ અત્યિ સિઅ નત્યિ સિઞ અવત્તત્ત્વે " એમ ત્રણ ભંગ દર્શાવાયા છે. સપ્તભંગી એ આ ત્રણ ભંગની વિશેષ વ્યાખ્યા છે. જીવને આશ્રીને-ઉદ્દેશીને સપ્તભંગી નું ઉદાહરણ આપણે જોઈશું. ૧. ‘જીવ સત્ છે' (સ્વ દ્રવ્યાદિની અપેક્ષાએ) ૨. ‘જીવ અસત્ છે’ (પરદ્રવ્યાદિની અપેક્ષાએ) ૧. વ તુ છે અને અસત્ છે. ૪. જીવ સત્ અસત્ બંને યુગપત્ છે, પરંતુ બંને ધર્મ યુગપત્ એકીસાથે કહી ન શકાય, તે માટે અવકતવ્ય છે. ૫. “જીવ સત્ હોવા છતાં એક સાથે સતુ અસત્ હોવાથી સતુ અવકતવ્ય છે. ૬. જીવ અસનુ હોવા છતાં એક સાથે સતુ અસનુ છે, માટે અસત્ અવકતવ્ય છે. ૭. જીવ ક્રમે કરી સત્ અસત્ હોવા છતાં સત્ અસત્ છે માટે સત્ અાનું અવકતવ્ય છે. • વિધિ-નિષેધ પ્રકારની અપેક્ષાએ વસ્તુના દરેક પવિષ (પગ) માં સાત અંગોનો જ સંભવ છે, કેમકે દરેક ધર્મ અંગે સાત જ પ્રશ્ન થઈ શકે, એથી વધારે નિહ. એટલે વસ્તુના પ્રત્યેક ધર્મ એક, એમ અનંત ધર્મ અંગે અનંત સપ્તભંગી થઈ શકે. છે. ( પ્રમાણ નય નવાબીકાળુંકાર ૭-૩૮, ૩૯ ) પાંચ સમવાય કારણો જૈન દર્શનમાં કાર્યકારણનો સિદ્ધાંત, સ્યાદ્વાદને સુંદર રીતે પ્રકટ કરે છે. કોઈ પણ કાર્ય માટે પાંચ સમવાય કારણોનો સ્વીકાર, એ કાર્ય કારણનો સિદ્ધાંત છે. ૧ કાળ ૨ સ્વભાવ ૩ (પૂર્વ) કર્મ ૪ ઉદ્યમ ૫ નિયતિ. ૧ કાળ એટલે ? કાર્ય સિદ્ધિ માટે કાળ મર્યાદા. કરેલા શુભાશુભ કર્મો કાળ પાકે ત્યારે ઉદયમાં આવે છે. દા. ત. આંબો વાવ્યા પછી ફળ માટે સમયની રાહ જોવી પડે છે. ૨ સ્વભાવ- એટલે ? વસ્તુનો સ્વભાવ, જડ અને ચેતન પોતાના સ્વભાવ મુજબ વર્તે છે. દા. ત. બાવળનું ઝાડ વાવ્યુ હોય તો બાવળ જ ઊગે, આંબો નહિ. ૩ પૂર્વ કર્મ- એટલે ? પ્રાણીઓની સુખ દુઃખની ભિન્ન ભિન્ન પરિસ્થિતિઓ પાછળ કામ કરતો કર્યોદય કર્મની અસરથી જ રાજા ને ટ્રંક, મૂર્ખ ને બુધ્ધિમાન બળવાન ને નિર્બળ,રોગી ને નિરોગી, એવા જુદા જુદા ભેદો જોવા મળે છે. ૪ ઉદ્યમ– એટલે જીવની પ્રવૃત્તિ. જીવ શુભાશુભકર્મ બાંધે છે તેમાં તેનો ઉદ્યમ રહેલો છે. અશુભ કર્મ શુભકર્મમાં અને શુભ કર્મ અશુભમાં ફેરવાય છે. તેમાં પણ જીવનો ઉદ્યમ જ રહેલો છે. જીવની પુરુષાર્થ શક્તિ તેને મોક્ષ સુધી પહોંચાડે છે. વર્તમાન યુગની ભૌતિક વિજ્ઞાનની શક્તિ જીવની ઉદ્યમ શક્તિનું ઉદાહરણ છે. ૫ નિયતિ- એટલે ? જે બનવાનું નક્કી જ છે તે ભાવિભાવ. ધાર્યું પરિણામ આવે તેવી તમામ સંભાવના હોય છતાં, છેલ્લી ૫૮ भोगी बन कर मानवी पाता कष्ट महान | जयन्तसेन तन बल धन, तीनों खोवत जान ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઘડીએ ન ધારેલું બને, દા. ત. રામચંદ્રજીનું વનગમન, અચાનક લૉટરી લાગી જતાં ગરીબનું ધનવાન બની જવું. અવશ્ય સુખ કે દુઃખ આપનારું કર્મ જૈન પરિભાષામાં ‘નિકાચિત’ કહેવાય છે. નિયતિ એ નિકાચિત કર્મનું પરિણામ બતાવતું કારણ છે. અન્ય ઉદાહરણથી આ પાંચ સમવાય કારણો વધુ સ્પષ્ટ થઈ શકે તેમ છે. એક વિદ્યાર્થી યુનિવર્સિટીની ડીગ્રી. પ્રાપ્ત કરવા ઈચ્છે છે. તે માટે અભ્યાસની કાળ મદિા સ્વીકારવી પડે છે, વિદ્યાર્થીના સ્વભાવનો સ્વીકાર કરવો પડે છે, અનુકૂળ કર્મ અને નિયતિનો પણ સ્વીકાર કરવો પડે છે. ઉદ્યમનો પણ સ્વીકાર કરવો પડે છે. કોઈ પણ કાર્ય પાછળ આ પાંચેય કારણો અવશ્ય વિદ્યમાન હોય છે. તેમાં કોઈ કારણ ગૌણ કે કોઈ મુખ્ય હોઈ શકે છે, પરંતુ કોઈ કારણનો સર્વથા અભાવ તો ન જ હોય. ૫. પૂ. આચાર્ય શ્રી સિદ્ધસેનદિવાકરસૂરિજી સન્મતિ તર્ક ' માં લખે છે કે कालो सहाव नियई पुव्वकयं पुरिस कारणेगंता। મિચ્છાઁ તે , સમાસનો હોત્તિ સમત્ત || ૩ - ૫૩ || કાલ, સ્વભાવ, નિયતિ, પૂર્વ કર્મ ઉદય એ પૈકી કોઈ એકનો એકાન્ત પક્ષ કરવામાં મિથ્યાત્વ છે. એ પાંચેયને યોગ્ય રીતે સ્વીકારાય તે સમ્યક્ત્વ છે. તે જ્ઞાનક્રિયાનો સમન્વય મુક્તિની સાધના માટે જ્ઞાન અને ક્રિયા બંનેનો સમન્વય આવશ્યક ગણાય છે. વિશેષાવશ્યક ભાષ્ય’ માં કહયું છે કે, ક્રિયા વિનાનું જ્ઞાન હણાયેલું સમજવું અને જ્ઞાન વગરની ક્રિયા હણાયેલી સમજવી. ઉદાહરણ તરીકે દેખવા છતાં પાંગળો અને દોડવા છતાં આંધળો બંને બળી મૂઆ, જ્ઞાન અને ક્રિયા બેના સંયોગથી જ ફળસિદ્ધિ થાય છે. અન્યના ખભા પર પંગુ બેસે અને પંગુના કહેવા પ્રમાણે અન્ય ચાલે તો નગરે પહોંચી શકાય. તરવાની વિદ્યા જાણનાર તરવાની ક્રિયા વિના પાર ઉતરી શકે નહિ. જ્ઞાન વિહુણી ક્રિયા આંધળી છે અને ક્રિયા વિનાનું જ્ઞાન પાંગળું છે. બંને ભળવાથી રથના બે પૈડાની જેમ મોક્ષરૂપી ઈષ્ટ નગરે પહોંચી શકાય છે. નિશ્ચય અને વ્યવહાર દ્રષ્ટિ જીવના શુદ્ધ સ્વરૂપની પ્રાપ્તિ, એ જૈનધર્મમાં અંતિમ ધ્યેય મનાયું છે. જે દ્રષ્ટિ વસ્તુના મૂળ કે તાત્ત્વિક સ્વરૂપને સ્પર્શે છે, તે નિશ્ચય દ્રષ્ટિ કહેવાય છે. વસ્તુની વ્યાવહારિક અવસ્થાને સ્પર્શતી દ્રષ્ટિ તે વ્યવહાર દ્રષ્ટિ કહેવાય છે. વ્યવહાર દ્રષ્ટિ ક્રિયાયુક્ત છે. નિશ્ચય દ્રષ્ટિ જ્ઞાન યુક્ત છે. નિશ્ચય દ્રષ્ટિથી ધ્યેય નક્કી થાય છે. વ્યવહાર દ્રષ્ટિથી સાધનાનો ક્રમ સેવાય છે. “નિશ્ચય દ્રષ્ટિ હૃદયે ધરી પાળે જે વ્યવહાર, પુણ્યવંત તે પ્રાણીઆઈ લેશે ભવનો રે પાર” (ઉપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી મ.) નિશ્ચય ધ્યેય બતાવે છે અને વ્યવહાર ધ્યેય લક્ષ્ય સુધી પહોંચાડે છે, માટે બંને શ્રી વીતરાગ શાસનને માન્ય છે. એકલા જ્ઞાનથી મોક્ષ નથી, તેમ એ કલી ક્રિયાથી પણ મોક્ષ નથી. બંને પરસ્પર સાપેક્ષ છે. અને જ્યાં અપેક્ષા છે ત્યાં સ્યાદ્વાદ છે, એ નક્કર સત્ય છે. પ્રમાણ અને નય પ્રમાણ એટલે જ્ઞાન અને નય એટલે પ્રમાણ ભૂત જ્ઞાનનું અંશરૂપ જ્ઞાન વસ્તુના સમગ્ર રૂપે થતા બોધને જૈન પરિભાષામાં ' પ્રમાણ ” કહેવાય છે. અંશે થતા બોધને ‘નય’ કહેવાય છે. પ્રમાણના પાંચ પ્રકાર છે. ૧. મતિજ્ઞાન ૨. શ્રુતજ્ઞાન ૩. અવધિજ્ઞાન ૪ મન:પર્યવ જ્ઞાન પ. કેવલ જ્ઞાન. જૈન દર્શનમાં અવધિ, મન : પર્યાવ અને કેવલ એ ત્રણ જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ જ્ઞાન છે, જ્યારે મતિ ને શ્રુત બંને પરોક્ષ જ્ઞાન છે. સમુદ્રનું બિંદુ સમુદ્ર ન કહેવાય, તેમ અસમુદ્ર પણ ન કહેવાય, કિંતુ સમુદ્રનો અંશ કહેવાય. તે પ્રમાણે નય પ્રમાણનો અંશ છે. જેટલા વચનના પ્રકારો થઈ શકે, તેટલા નયના પ્રકારો થાય. પરંતુ જૈન દર્શનમાં બહુ જાણીતા એવા સાત નયો છે. મુળ રૂપે તો નયના મુખ્ય બે ભેદ છે ૧. દ્રવ્યાર્થિક નય અને ૨. પયયાર્થિક નય. મૂળ પદાર્થ ને ‘ દ્રવ્ય ' કહેવામાં આવે છે. મૂળ દ્રવ્યમાં થતા ફેરફારને પયય કહેવામાં આવે છે દ્રવ્યાર્થિક નય એટલે વસ્તુના મૂળ દ્રવ્ય પર લક્ષ્ય આપતો વિચાર. પયયાર્થિક નય એટલે વસ્તુના પરિવર્તન પર લક્ષ્ય આપતો વિચાર દ્રવ્યની પ્રધાનતા. માનનારો નય તે દ્રવ્યાસ્તિક કે દ્રવ્યાર્થિક નય કહેવાય, અને પયિની પ્રધાનતાવાળો જે નય તે પયિાસ્તિક કે પયયાર્થિક નય - કહેવાય. દ્રવ્યાર્થિક નયના નૈગમ નય, સંગ્રહ નય અને વ્યવહાર નય એમ ત્રણ ભેદો પડે છે. પાયયાર્થિક નયના ઋજુ-સૂત્ર-નય, શબ્દ નય, સમભિરૂ નય અને એવભૂત નય. એમ ચાર ભેદો પડે છે. એ રીતે સાત નય કહેવાય છે. ૧. નૈગમન - વસ્તુમાત્રમાં સામાન્ય અને વિશેષ અંશરૂપ ધર્મ હોય છે. તે તે અપેક્ષાએ વસ્તુ સામાન્ય રૂપે તેમ જ વિશેષ રૂપે જણાય છે. આ કાર્ય નૈગમ નય કરે છે. દા. ત. વસ્ત્ર, વસ્ત્ર તરીકે તે સામાન્ય છે, પરંતુ ખમીસ તરીકે તે વસ્ત્ર વિશેષ છે. એમાંયે બીજાં ખમીસની સાથે આ ખમીસ સામાન્ય છે પરંતુ સફેદ હોવાથી બીજા રંગીન કરતાં એ વિશેષ છે. આ રીતે સામાન્ય તેમજ વિશેષરૂપે જ્ઞાન નૈગમ નયથી થાય છે. ૨, સંગ્રહ નય- આ નયથી વસ્તુ માત્રને સામાન્ય રૂપે જાણી શકાય છે. દા. ત. ચર્મ ચક્ષુથી દેખાતા જગતના સઘળા પદાર્થો અનિત્ય છે. જેની ઉત્પત્તિને વિનાશ સંભવે તે અનિત્ય ગણાય. અને જેની ઉત્પત્તિ કે વિનાશ કોઈ કાળે થતો નથી, તેમજ એક સ્થિર સ્વભાવ જેનો છે, તે નિત્ય પદાર્થ છે. આ સંગ્રહ નય વિશ્વનાં સઘળા પદાર્થોને પોતાના ઉદાર પેટાળમાં સમાવે છે. સત્તા રૂપે બધાય પદાર્થને એકરૂપે આ નય માને છે. સામાન્ય સ્વરૂપે માને છે. નદી સમુદ્ર કુવો તળાવ બધુંજ જળ છે, અહીં સમગ્રને સામાન્ય તરીકે જાણ્યું તે સંગ્રહ નયજ્ઞાન ૩. વ્યવહાર નય - આ નય લોકવ્યવહાર મુજબ વસ્તુને વિશેષ રૂપે જાણે છે. સતું રૂપ વસ્તુને જડ અને ચેતન એમ બે પ્રકારે દર્શાવી આ પ્રકારોનું અનેક ભેદો પૂર્વક વિસ્તૃત વિવેચન કરવાનું આ નયનું કામ છે. આ નય પૃથકરણ કરે છે. સંગ્રહ નયમાં એકીકરણનો મનોવ્યાપાર કરે છે, વ્યવહાર નયમાં પૃથક્કરણનો પિતાના સેના, રવિ દાદની રાજધાની માગણી | પ૯ अज्ञानी बनकर फॅसा, किया बहुत संभोग । जयन्तसेन बिना दमन, उदित हो कई रोग ।। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છે. મનોવ્યાપાર છે. ઉત્સર્ગ તેમજ અપવાદ એ બંને માર્ગોનું અવલંબન સ્વ પરના ૪. શા સૂત્ર નય – વસ્તુ માત્રના વર્તમાન પયિ તરફ આ. કલ્યાણનું લક્ષ્ય રાખીને લેવાનું કહેવામાં આવ્યું છે, ઉત્સર્ગ એટલે નયનું લક્ષ્ય છે. દા. ત. ભૂતકાળમાં ખોવાયેલું કે ભવિષ્યમાં રાજમાર્ગ કે કાયદો; અપવાદ એટલે આપધર્મ યાને ઉલટું આચરણ. મળનાર ધનને લક્ષ્યમાં લેતાં, હાલમાં જે ધન છે તેને અનુસરીને ઉત્સર્ગના પ્રસંગે ઉત્સગ બળવાન છે. અને અપવાદના પ્રસંગે માણસનું ધનવાનપણું ગણવું. આ નય કેવળ વર્તમાન પયિને માને અપવાદ બળવાન છે. ઉત્સર્ગના પ્રસંગે અપવાદ માર્ગે ચાલનારો વિરાધક છે, અને અપવાદના પ્રસંગે ઉત્સર્ગ માર્ગે ચાલવાનો આગ્રહી પણ વિરાધક છે આ વાત ખાસ ખ્યાલમાં રાખવા જેવી છે. ૫. શબ્દ નય – આ નય પર્યાયવાચી શબ્દોને એકાર્યવાચી માને ઉત્સર્ગ અપવાદમાં પણ સ્યાદ્વાદ સમાવિષ્ટ છે. છે, પરંતુ કાળ લિંગ વગેરેનો ભેદ પડતો હોય તો એકાÁવાચી શબ્દનો પણ અર્થ ભેદ માને છે. આ નય લિંગ વચન જાદાં પડતાં - ચાર નિક્ષેપ - શબ્દનો અર્થ પ્રયોગ જૈન દર્શનમાં ચાર રીતે થાય વસ્તુને જાદી કહે છે. દા. ત. ઘડો, કળશ, કુંભ એ સમાન વસ્તુ છે. નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય અને ભાવ. દા. ત. રાજા, કોઈનું નામ છે. પરંતુ ઘડી, લોટી, ગાગર એ પેલાથી જુદી વસ્તુ છે, એમ માને રાજા હોય ને તેને તે નામથી બોલાવવાનો વ્યવહાર થાય છે તે નામ નિક્ષેપ, રાજાની મૂર્તિ, છબી કે ચિત્રને પણ રાજા તરીકે ઓળખવામાં આવે છે તે સ્થાપના નિક્ષેપ કારણ કે રાજા ત્યાં સ્થાપના. રૂપે છે. ૬. સમભિરૂઢ નય - આ નય શબ્દના ભેદથી અર્થ ભેદ માને જે ભૂતકાળમાં રાજા હતો અથવા ભવિષ્યમાં રાજા થનાર છે તેને છે. તેમાં રાજા, નૃપ ભૂપતિ વગેરે કાર્યવાચી શબ્દોનો પણ જુદો પણ રાજા કહેવાય છે; એટલે પાત્રની દ્રષ્ટિએ રાજા કહેવાથી દ્રવ્ય જાદો અર્થ કરવામાં આવે છે. દા. ત. રાજ ચિહ્નોથી શોભે તે નિક્ષેપ થાય છે. જેનામાં ખરેખરું રાજાપણું હોય. અથતિ રાજગાદી રાજા, માણસોનું રક્ષણ કરે તે નૃપ, પૃથ્વીનું પાલન કરે તે ભૂપતિ. ઉપર હોય અને શાસન ચલાવતો હોય ત્યારે તે ભાવરાજા. કહેવાય. આમ પ્રત્યેક શબ્દના મૂળ અર્થને આ નય પકડે છે. રાજકુંવર કે જે ભાવિમાં રાજા થનાર છે તે દ્રવ્ય રાજા કહેવાય અને ૭. એવંભુત નય - આ નય પ્રમાણે જો શબ્દાર્થ વર્તમાનમાં રાજગાદી છોડી દીધેલ હોય તે પણ દ્રવ્ય રાજા કહેવાય રાજા ઘટતો હોય તો જ તે વસ્તુને વસ્તુ તરીકે સંબોધી શકાય. દા. ત. શબ્દના અર્થ ભાવે નિક્ષેપ કહેવાય છે. જૈન દર્શનના ભક્તિ માર્ગમાં ખરેખર રાજચિહનોથી શોભતો હોય ત્યારે જ “ રાજા' કહેવાય. નામ સ્થાપના અને દ્રવ્ય નિક્ષેપની સહાયથી ભાવ નિક્ષેપ સુધી. સેવક ખરેખર સેવામાં લાગેલો હોય ત્યારે જ તે સેવક કહેવાય. પહોંચવાની સાધના થાય છે. કર્તવ્ય – અકિર્તવ્ય વિવેક અનુયોગ શ્રી આચારાંગ સૂત્રના ચોથા અધ્યયનના બીજા ઉદ્દેશમાં પ્રારંભમાં અનેક વિષયોની વ્યાખ્યા પ્રમાણે જૈન શાસ્ત્રોના ચાર ભાગ એક સૂત્ર છે. પડે છે. તે ચાર અનુયોગ કહેવાય છે. - | જે આસવા તે પરિસ્સવા, જે પરિસ્સવા તે આસવા, તેનો ૧. દ્રવ્યાનુયોગ- જેમાં જીવ, અજીવ-પુદ્ગલ વગેરે પદાર્થોનું નિરૂપણ. અર્થ એ થાય છે કે જે કર્મ બંધનાં સ્થાન છે તે કર્મ નિર્જરાનાં છે. તે દ્રવ્યાનુયોગ છે, દા. ત. કમ વિષયક શાસ્ત્રો, સન્મતિ તર્ક સ્થાન બને છે, અને જે કર્મ નિર્જરાનાં સ્થાન છે, તે કર્મ બંધનાં આદિ દર્શન શાસ્ત્ર સૂત્ર કૃતાંગ સ્થાનાંગ સૂત્ર, તત્ત્વાર્થ સૂત્ર વગેરે સ્થાન બને છે. આ સૂત્રમાં વિવેકની શક્તિ અને અનેકાન્ત દ્રષ્ટિ દ્રવ્યાનુયોગના ગ્રંથો કહેવાય છે. પર પ્રકાશ પડે છે. જે કાર્ય વડે અજ્ઞાની કમબંધન કરે છે તે જ ૨. ગણિતાનુયોગ – જેમાં પદાર્થની ગણતરી માપ વગેરેનું વર્ણન કાર્ય વડે જ્ઞાની. કર્મનાશ કરે છે. અજ્ઞાનીની પ્રવૃત્તિમાં સાંસારિક હોય તેને ગણિતાનુયોગ કહે છે. દા. ત. સૂર્ય પ્રજ્ઞપ્તિ, ચંદ્રપ્રજ્ઞપ્તિ, આસક્તિ અને સાંસારિક ફળની કામના હોય છે. જ્ઞાનીની પ્રવૃત્તિમાં સંગ્રહણી ક્ષેત્ર સમાસ વગેરે ગ્રંથો. જ્ઞાનદ્રષ્ટિ અને મુક્તિની આકાંક્ષા હોય છે. અજ્ઞાની એક કાર્ય આસક્તિ પૂર્વક કરે છે, તેથી તે તેના કર્મથી બંધાય છે, જ્ઞાની તે જ ૩. ચરણ-કરણાનુયોગ- જેમાં ચારિત્ર અને આચારનું વર્ણન આવે કાર્યું અનાસક્ત પણ કરે છે તેથી તેમાંથી ઉપજતા કર્મથી તે છે, તેને ચરણકેરણાનુયોગ કહે છે. દા. ત. શ્રી આચારાંગ, શ્રી બંધાતો નથી. જ્ઞાની દેશ, કાળ વિગેરે જોઈને કર્તવ્ય - અકર્તવ્યનો નિશીથ, ધર્મબિંદુ, શ્રાધ્ધ વિધિ વગેરે ગ્રંથો વિવેક કરીને પ્રવૃતિ કરે છે... ૪. ધર્મકથાનુયોગ- ધર્મ પ્રેરક દ્રષ્ટાંતો તથા કથાઓનું વર્ણન તે એક ઉત્સર્ગ અપવાદની વિચારણાનો પણ સાવાદ દ્રષ્ટિમાં ધર્મકથાનુયોગ છે. દા. ત. જ્ઞાતા ધર્મકથાગ આગમ, ત્રિષષ્ઠી. સમાવેશ થાય છે. સામાન્ય સ્થિતિ સંજોગોમાં જે નિયમો પાળવાના શલાકા પુરુષ ચરિત્ર વગેરે. હોય છે તે ઉત્સર્ગ માર્ગ કહેવાય છે અને બદલાયેલ સ્થિતિ સ્યાદવાદ પ્રરૂપક સાહિત્ય સંજોગોમાં જે માર્ગ ગ્રહણ કરાય છે તે અપવાદ માર્ગ કહેવાય છે. | પ્રાચીન આગમોમાં ‘‘સિય અત્યિ, સિયણત્યિ, દ્રવ્ય, ગુણ, ક્યો. માર્ગ ગ્રહણ કરવો ? તે દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની પર્યાય, નય આદિ સ્યાદ્વાદ સૂચક શબ્દો અનેક સ્થળો પર જોવા વિચારણા પછી નક્કી કરવું જોઈએ. એક પક્ષે અમુક રીતે વર્તવાનું મળે છે. ઈ. સ. પૂર્વે ચોથી સદીમાં શ્રી ભદ્રબાહુ સ્વામીજીની દશ. ઠરાવ્યું હોય તે બધી જ પરિસ્થિતિમાં લાગુ પાડી શકાય નહિ. નિયક્તિઓમાં આ વિષય વધુ સ્પષ્ટ રીતે ચચયેિલો જોવા મળે છે. થી જયરા શેનારિ અદિન ગ્રંથ,રાજરાતી વિભાગ ૬૦ विषय वासना दिल बसी, काम भोग की दोड । जयन्तसेन पतंगवत, आखिर जीवन छोड । lain Education International Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઈ. સ. ની પ્રથમ શતાબ્દીમાં આચાર્ય શ્રી ઉમાસ્વાતીજીએ શ્રી દશવિલા છે. જર્મનીના પ્રખ્યાત તત્ત્વવેત્તા હેગલનું કથન છે કે, તત્ત્વાધિગમ સૂત્ર અને શ્રી તત્ત્વાર્થ ભાષ્યમાં અનેકાન્તવાદની પરસ્પર વિરોધી ધર્મોનું હોવાપણું જ સંસારનું મૂળ છે. કોઈ વસ્તુનું વિસ્તૃત ચર્ચા કરી છે. ઈ. સ. ની ચોથી શતાબ્દીમાં શ્રી સિદ્ધસેન યોગ્ય રીતે વર્ણન કરવા માટે એ વસ્તુ સંબંધી સંપૂર્ણ સત્ય દિવાકરસૂરિજી અને શ્રી સંમતભદ્રજીએ સ્યાદ્વાદ પર વધુ પ્રકાશ કહેવાની સાથે એ વસ્તુના વિરૂદ્ધ ધર્મોનો સમન્વય કેવી રીતે થઈ પાડ્યો છે. ઈ. સ. ની પાંચમી શતાબ્દીમાં શ્રી મલવાદીજી અને શ્રી શકે છે. એનું નિરૂપણ કરવું જોઈએ. (થીલ્લી, હિસ્ટરી ઓર જિનભદ્ર ગણિ ક્ષમાશ્રમણજી નામના શ્વેતામ્બર જૈનાચાર્યોએ આ ફિલોસોફી પૃ-૪૬૭) ન્યૂ આઈડિયાલિઝમના સમર્થક બ્રેડલેના મત. વિષય પર અનેક ગ્રંથો લખેલા છે. ત્યાર બાદ ઈ. સ. ની આઠમી પ્રમાણે દરેક વસ્તુ આવશ્યક અને અનાવશ્યક એમ બંને બીજી - નવમી શતાબ્દીમાં શ્રી અકલંકજી અને આચાર્ય શ્રી હરિભદ્રસૂરિજીનાં વસ્તુઓ સાથે તુલના કરીને સિદ્ધ થઈ શકે છે. સંસારનો કોઈ નામો આ પ્રકારના સાહત્યિમાં વિખ્યાત છે. ઈ. સ. ની નવમી પદાર્થ નકામો અથવા નિરર્થક છે એમ ન કહી શકાય. તેથી દરેક શતાબ્દીમાં શ્રી વિદ્યાનંદજી અને શ્રી માણિક્યનંદિજી નામના વિખ્યાત તુચ્છમાં તુચ્છ વિચારમાં અને નાનામાં નાની બાબતમાં સત્યતા. દિગંબર આચાર્યો થયા. તેમણે સાદ્વાદની પ્રરૂપણા કરતાં ગ્રંથો રહેલી છે. (એપીયરન્સ એન્ડ રીયાલીટી પૃ - ૪૮૭) આધુનિક લખ્યા છે. ઈ. સ. ની દસમી અગિયારમી સદીમાં શ્રી પ્રભાચંદ્રજી દાર્શનિક જોએચિત્રનું કથન છે કે કોઈ પણ વિચાર પોતે જ બીજા. અને શ્રી અભયદેવસૂરિજી નામના તાર્કિકો થયા. તેમની પછી ઈ. વિચારથી સર્વથા અળગો પડી જઈને માત્ર પોતાની જ દ્રષ્ટિથી સત્ય સ. ની બારમી સદીમાં શ્રી વાદિદેવસૂરિજી અને કલિકાલ સર્વજ્ઞ શ્રી કહી શકાય નહિ. (નેચર ઓફ ટુથ એ - ૩, પૃ-૯૨-૩) માનસ હેમચંદ્રાચાર્યના નામો ઉલ્લેખનીય છે શ્રી વાદિદેવસૂરિજીએ ‘પ્રમાણ શાસ્ત્રી પ્રો- વિલિયમ્સ જેમ્સ લખ્યું છે કે, આપણાં અનેક વિશ્વો છે. નય તત્ત્વાલો કાલંકાર' ‘સ્યાદ્વાદ રત્નાકર' વગેરે ગ્રંથો રચ્યા છે. શ્રી. સાધારણ મનષ્ય આ બધાં વિશ્વોને એકબીજાથી છૂટાં અને સ્વતંત્ર હેમચંદ્રાચાર્યે અન્યયોગ વ્યવચ્છેદિકા, અયોગ વ્યવચ્છેદિકા, રૂપે જાણે છે. પૂર્ણ તત્ત્વજ્ઞાની તે જ છે કે જે પૂરા વિશ્વો ને એક પ્રમાણમીમાંસા વગેરે ગ્રંથો રચીને સ્યાદ્વાદનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. બીજા સાથે સંકળાયેલા અને સંબંધિત જાણે છે. ( ધ પ્રિન્સીપલ્સ ઉપાધ્યાયશ્રી યશોવિજયજી અસાધારણ પ્રતિભાશાળી વિદ્વાન હતા. ઓફ સાયકોલોજી વોલ્યુમ - ૧ એ ૨૦ પૃ - ૨૯૧) તેઓ ઈ. સ. ની સત્તરમી અઢારમી શતાબ્દીમાં થયા. તેમણે યોગ, જૈન દર્શનમાં દર્શન સમન્વય સાહિત્ય, પ્રાચીન ન્યાય વગેરે વિષયોનું પાંડિત્ય પ્રાપ્ત કર્યું હતું. તેમણે શાસ્ત્રવાત સમુચ્ચયની સ્યાદ્વાદ કલ્પલતા ટીક, નયોપદેશ, આચાર્ય શ્રી સિદ્ધસેન દિવાકરસૂરિજી એ લખ્યું છે કે, નય રહસ્ય, નય પ્રદીપ, ન્યાય ખંડખાદ્ય, ન્યાયાલોક, અષ્ટસહસ્ત્રી उद धाविव सर्व सिन्धव : ટીકા આદિ અનેક ગ્રંથોની રચના કરેલી છે. પંડિત વિમલદાસ ન સમુવીurf તમય સર્વદ્રષ્ટય : | તેમના સમકાલીન દિગંબર વિદ્વાન હતા. તેમણે સપ્તભંગી તરંગિણી न च तासु भवानुदीक्ष्यते । નામનો ગ્રંથ રચ્યો છે. છેલ્લે છેલ્લે ઉપાધ્યાયજી શ્રી યશોવિજયશ્રીએ આ વિમવેત્તાનું સરિવિવોfથ : ||9 દા રચેલા ઘણા ખરા નયના ગ્રંથો પર શ્રી સિદ્ધસેનદિવાકર સૂરિજીએ. રચેલા ન્યાય ગ્રંથો પર સાહિત્ય સમ્રાટ વ્યાકરણ વાચસ્પતિ આચાર્યશ્રી | હે ભગવાન, આપનામાં સંસારના સમગ્ર દશનો આવીને સમાય છે. વિજયલાવણ્યસૂરીશ્વરજી મ.શ્રીએ લાખો શ્લોક પ્રમાણ ટીકાઓ રચી એટલે કે સમગ્ર દર્શનો આપના દર્શનમાં સમાવિષ્ટ છે, પરંતુ જેમ સમુદ્રમાં મળનારી જુદી જુદી નદીઓમાં સમુદ્રનું દર્શન થઈ શકતું નથી, તેમ વિભિન્ન દર્શનોમાં આપ દેખાતા નથી. અન્ય દર્શનનો સાદ્વાદ શ્રી સિદ્ધસેન દિવાકરસૂરિજી સન્મતિતર્કની ૬૯ મી ગાથામાં સ્યાદ્વાદને મળતી પદ્ધતિ જૈન સિવાય અન્ય દર્શનોમાં પણ ' કહે છે. જોવામાં આવે છે. ઋગ્વદમાં કહેવામાં આવ્યું છે કે “ એ સમયે भदं मिच्छादसंणसमूहमइिअस्स अभयसारस्स સતું પણ ન હતું અને અસતુ પણ ન હતું. " (ઋગ્વદ ૧૦ - ૧૨૯ - ૧) ઈશાવાસ્ય કઠ, પ્રશ્ન, શ્વેતાશ્વતર વગેરે પ્રાચીન ઉપનિષદોમાં નિવાસ મJવો સવાલુહાણ THસ || પણ તે હલે છે અને હલતું પણ નથી, તે અણુથી નાનું છે અને આ ગાથામાં જિન વચનને મિથ્યાદર્શનોના સમુહરૂપ જણાવવામાં મહાનું થી મહાનું છે, તે સતુ પણ છે અને અસતું પણ છે. વગેરે આવ્યું છે. મિથ્યાદર્શનોનો સમૂહ છતાં જૈન દર્શન સમ્યગદર્શન કેવી. કથનોમાં બહાનું વર્ણન પરસ્પર વિરોધી ગુણોની અપેક્ષાએ જોવા રીતે ? જાદા જાદા મતો જ્યારે પોતાનું મંતવ્ય વ્યક્ત કરે છે ત્યારે મળે છે. વેદાન્તનો અનિર્વચનીય વાદ, કુમારિનો સાપેક્ષવાદ, તેમની દ્રષ્ટિ એક માત્ર પોતાના મંતવ્ય પ્રતિ જ હોય છે. તે બૌદ્ધધર્મનો મધ્યમ માર્ગ સ્યાદ્વાદને અનુસરતી. શૈલી દર્શાવનારા અન્યમતોનો વિરોધ કરે છે. એ રીતે પોતાના મતને નિરપેક્ષ સત્ય છે. ગ્રીક દર્શનમાં પણ એમ્પીડાક્લીઝ, એટોમસ્ટ્રેિસ અને માને છે. અન્ય મતો પ્રત્યે તે નિરપેક્ષ હોવાથી જ મિથ્યા કરે છે. અનૈકસાગોરસ નામના દાર્શનિકોએ ઈલિએટિસના નિત્યવાદ અને જૈન દર્શનમાં બધા મતો યથાસ્થાને ગોઠવાય છે. તેથી તે સાપેક્ષ. હરક્લિટસના ક્ષણિકવાદનો સમન્વય કરીને. પદાર્થોમાં નિત્યદશામાં દેશનું બને છે અને તેથી સમ્યગદર્શન બને છે. ભિન્ન ભિન્ન નયોની પણ આપેક્ષિક રીતે પરિવર્તન હોય છે, તેવા સ્વીકાર કર્યો છે. અપેક્ષાએ જૈનદર્શન રૂપી મહાસાગરમાં અન્યા દર્શન રૂપી નદીઓ પશ્ચિમના આધુનિક દાર્શનિકોએ પણ સ્યાદવાદની પદ્ધતિએ વિચારો ભળી જાય છે. એથી સાદ દર્શનના ઉદાર પેટાળમાં સર્વનો કોએ ઈલિએટિસનોમસિ અને માને છે | તારા સિવાય તમારા ૬૧ माया ममता ना तजे, रखता चित्त कषाय । जयन्तसेन आत्म वही, जन्म जन्म दुःख पाय ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સમય થાય છે. આચાર્ય શ્રી જિનભદ્રગણિ ક્ષમાશ્રમણે બધા ભર્યો સંબંધ, કજોડામાં મને કમને જિંદગી ભર નિભાવાતો પતિપત્નિનો. વિરોધી નયો એકત્ર થઈને સમ્યક કેવી રીતે બને છે તે આ રીતે ક્લેશયુક્ત સંસાર, પક્ષાપક્ષીનું રાજકારણ વગેરે પરિસ્થિતિઓમાં સમજાવ્યું છે. એક રાજાના સેવકો પરસ્પર લડે છે. પરંતુ રાજાની સ્વાઈયુક્ત અને કદાગ્રહી. માનસ જ વધુ કામ કરે છે. સ્યાદ્વાદ સમક્ષ તેઓ એકત્ર બની જાય છે. રાજાનું કાર્ય પણ તેઓ કરે છે ઉદાર દ્રષ્ટિ ખિલવે છે. પોતાને મળતી સુખ સગવડોની વહેંચણી. અને પોતાનો સ્વાર્થ પણ સિદ્ધ કરે છે, તેવી જ રીતે જૈન દર્શનમાં અભાવગ્રસ્ત દુઃખી જીવન જીવતા લોકોને પણ મારે કરવી જોઈએ, પણ વિરોધી નયો ભેગા મળીને જિનને માન્ય વસ્તુ સિદ્ધ કરે છે એવી ભાવનાનો ઉદય આવી ઉદાર દ્રષ્ટિમાં જ સંભવિત છે. અને પોતાનો સ્વાર્થ સિદ્ધ કરે છે. વર્ગઘર્ષણ નિવારવાની અને લોકોને સમાન તકો પૂરી પાડવાની પરમયોગી શ્રી આનંદધનજીએ ષડ્રદર્શનોને જીિનેન્દ્રનાં અંગ લોકશાહીના નમ સિદ્ધ કરવાની મહત્વપૂર્ણ ભૂમિકા સ્યાદ્વાદયુક્ત તરીકે વર્ણવીને સાપેક્ષ દ્રષ્ટિઓનો સમુચિત સમન્વય દર્શાવ્યો છે. વિચારધારા પૂરી પાડે છે. ષડૂ દરિસણ જિન અંગ ભણી. જે આ સમસ્ત લોક વ્યવહાર અનેકાન્ત દ્રષ્ટિથી જ ચાલે છે તેવું પ્રતિપાદન શ્રી સિદ્ધસેનદિવાકરસૂરિજીએ. આ પંક્તિઓમાં કર્યું છે. | ન્યાસ ષડ અંગ જો સાધે “ જેણ વિણા લોગસ્સ વિ વવહારો નમિ જિનવરના ચરણ ઉપાસક સવ્વહા ન નિવ્રુડઈ . ષડુ દરિસણ આરાધે રે. તસ્સ ભુવણેક્ટ ગુરુણો ણમો સાચી જીવન દ્રષ્ટિ અણેકંત વાયસ્સ " મારુ એ જ સાચું એમ માનનારો તો શ્રી જિન શાસનથી. આપોઆપ જ બહિષ્કૃત થયેલો છે. સાચાને પોતાનું માની, ખોટાના -જેના વિના જગતનો કોઈ વ્યવહાર જરા પણ ચાલી શકે તેમ નથી, સ્પર્શથી પણ દૂર રહેવા ઈચ્છનારો શ્રી જૈન શાસનના અપેક્ષા મય - તે ત્રિભુવન ગુરુ સ્યાદ્વાદને અમે નમસ્કાર કરીએ છીએ.. તે ત્રિભુવન કરે ત્યાંદુવાદને અમે સ્યાદ્વાદનો સાચો ઉપાસક બની શકે છે. " in અને એ સાદ્વાદમય જિનમતની ઉપાધ્યયશ્રી યશોવિજયજી | (આચાર્ય શ્રી વિજય રામચંદ્રસુરિજી) ૫. શ્રી. એ ઓ પ્રમાણે સ્તુતિ કરી છે. સ્યાદ્વાદ સાચી જીવનદ્રષ્ટિ વિકસાવે છે, સુખશાંતિ અને ઉતર્ણવ્યવહાર નિશ્ચયવથા, - સમાધાન સ્થાપવાની કલા શીખવે છે. મહાત્મા બુદ્ધ અને તેમના વર્તનારું કોહિછાત્ શિષ્ય પૂર્ણ વચ્ચેનો પ્રખ્યાત સંવાદ સાવાદ શૈલીની વિચારણાનો त्रस्यदुर्नयवादिकच्छपकुल સુંદર નમૂનો છે. ગમે તેવી વિપરિત પરિસ્થિતિને પણ અનુકૂળ भ्रश्यत्कुपक्षाचलम् ।। તરીકે સ્વીકારી લેવાની દ્રષ્ટિ આ સ્યાદ્વાદ શૈલી આપે છે. બૂર उद्यधुक्रिनदी प्रवशसुभगं કરનારને ભલો માનવો, ઘોર નિરાશામાં પણ શુભ સંકેત જોવો, એ स्याद्वाद मर्यादया જ્ઞાન આ શૈલીથી પ્રાપ્ત થાય છે નિરાશા, ક્રોધ, અભિમાન, ઈષ્ય युक्तं श्री जिनशासनं जलनिधिं, વગેરે ચિત્તને અશાંત કરનારા દુર્ગુણોના ઉપદ્રવો શમી જાય છે. સ્યાદ્વાદ પરમત સહિષ્ણુતા શીખવે છે. ધર્મ ધર્મ વચ્ચે, સંપ્રદાય मुक्ता परं नाश्रये ॥ સંપ્રદાય વચ્ચેના કલહો સ્યાદ્વાદ યુક્ત દ્રષ્ટિ વડે જ શમાવી શકાય (અધ્યાત્મસાર :) છે. સ્યાદ્વાદનો આરાધક મતાભિનિવેશ કે કદાગ્રહથી મુક્ત હોય નિશ્ચય અને વ્યવહારની કથાના ઉછળતા. કલ્લોલોના કોલાહલથી. છે સત્યનો પૂજારી બને છે. કાચબાઓના કુળવાળા તૂટી પડતા. કુપારૂપી પર્વતોવાળા, સચોટ સ્યાદ્વાદ યુક્ત વિચારણા જીવનમાં ડગલે ને પગલે લાભકારક યુક્તિ નદીના પ્રવેશથી સૌભાગ્યશાળી અને સાદ્વાદની મર્યાદાથી. છે. પ્રસિદ્ધ વાતકાર શ્રી ધૂમકેતુ લિખિત ' પોસ્ટ ઑફિસ ' વાતમાં યુક્ત એવા શ્રી જિન શાસન રૂપી સમુદ્રને મૂકીને, બીજા કોઈનો ય કૉચમેન અલી ડોસાના જીવનની કરુણતાનું મર્મસ્પર્શી આલેખન છે. હું આશ્રય કરતો નથી. આ વાતમાં અલી જેવી જ પરિસ્થિતિમાં જ્યારે પોસ્ટમાસ્તર મુકાય સાદ્વાદનો વિષય મહાસાગર જેવો છે. અનેક યુક્તિઓ, છે ત્યારે, તેના પ્રત્યે તેને સહાનુભૂતિ જન્મે છે. તે સુંદર રીતે તર્કો અને વિચારણાઓનો એમાં સમાવેશ થાય છે. જેમ એક દશાવવામાં આવ્યું છે. લેખકે એક સુંદર વાક્ય પણ વાતમાં મૂક્યુ બાળક પોતે જોયેલા સમુદ્રનું વર્ણન બે હાથ પહોળા કરીને કરે કે છે. “મનુષ્ય પોતાની દ્રષ્ટિ છોડી બીજાની દ્રષ્ટિએ વિચારે તો અર્ધ સમુદ્ર આટલો મોટો હતો. તેમ મેં આ નિબંધમાં બાલચેષ્ટાથી જ જગત શાંત થઈ જાય.” વિશ્વમાં જે કલહો, કોલાહલો, સ્પર્ધાઓ.. સ્યાદ્વાદનું દર્શન કરાવ્યું છે. વસ્તુત : સ્યાદવાદનો વિષય વિશાળ, ઘર્ષણો અરાજકતા, હિંસા, શોષણખોરી, સત્તા ભૂખ વગેરે જોવા અગાધ ગહન અને ગંભીર છે. સ્યાદ્વાદ વિશ્વના સમસ્ત વાદોનો. મળે છે તેમાંથી બચવાનો માર્ગ સ્યાદ્વાદ બતાવે છે. સમ્રાટ છે એ વાત નિર્વિવાદ સિદ્ધ થાય છે. “ ચાઉસમ્રાટ બે પેઢીઓ વચ્ચેનું અંતર સંગા સંબંધીઓનાં સંબંધોમાં વિનયતેતરામુ ''. વૈમનસ્ય - અણબનાવ, પેઢીના માલિક અને નોકર વચ્ચેનો તંગદિલી થીમ જારદા કિનારે વાણિયા - ૨ ईच्छा पूरी कब हुई, इच्छा करो निरोध । जयन्तसेन कहाँ गया, कर्मों का अवरोध ॥ ain Education International Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bow Bibe સર્વ જીવોની ઈં સુખ મેળવવાની હોય છે. પોતાની વર્તમાન પરિસ્થિતિ કરતાં વિશેષ સારી સ્થિતિ પ્રાપ્ત કરવાનું ધ્યેય દરેકને હોય છે, તે સુખ પ્રાપ્ત કરવાં તેના જે જે સાધનો હોય તે દરેક સાધનો એકઠા કરવા પ્રયત્ન કરે છે. જૈનધર્મમાં યોગદષ્ટિ (પરેશકુમાર ડી. શાહ, ભીનમાલ) Jeg આત્મા ! જ્યારે ઔધ નામની દૃષ્ટિ છોડી દે છે ત્યારે જ ઉન્નતિના ક્રમમાં આગળ વધે છે. ઔધ દૃષ્ટિ એટલેઃ આવી સાધ્ય દશા પ્રાપ્ત કરવાની ઈચ્છાવાળા જીવાત્માઓના બે વિભાગ પાડી શકાય. એક બહિરાત્મા અને બીજો અંતરાત્મા. બહિરાત્મ દશામાં વિહરનારા જીવો પોતાના શરીરને આત્મા સમજે છે. શરીરને જે સુખની અનુભૂતિ થાય, યા દુઃખની અનુભૂતિ થાય તે પોતાને થઈ એમ સમજે છે, પુત્ર-સ્ત્રી કુટુમ્બાદિ પરિવાર તે પોતાનો સમજે છે, તેઓથી જે અન્ય છે તેવા આત્માઓને પરાયા – પારકા સમજે છે. પોતાના તાબામાં રહેલા, ધન, વેરાન - દાગીના, મકાન - વૈભવ, આદિ પદાર્થો પર સ્વબુદ્ધિ ઉત્પન્ન કરે છે. અર્થાત્ આ બધુ મેં પ્રાપ્ત કર્યું આ બધુ મારું પોતાનું છે. આવા પ્રકારની મતિ - બુદ્ધિના પરિણામે સંસાર વૃદ્ધિના બીજ નિરંતર વાવ્યા કરે છે. અને તેને સંસારના ફ્ળોને નિરંતર સહન કર્યા ક૨વા પડે છે. જ્યારે અંતરાત્મદશામાં વિહરનારા વોનું ચેતનાનું સાધ્ય સ્થાન પરામાત્મદશા છે. આવા પ્રકારની બુદ્ધિ તે આત્મ બુદ્ધિ છે જેથી બાહ્ય પદાર્થોના - રૂપ-રંગ-વૈભવ- તેમજ આનંદ વિલાસના સાધનોમાં રાચતાં નથી, સતત આત્મસંવેદન સ્થિતિને મેળવે છે. જેથી તેના પૂર્વેની ક્રિયામાં કેટલો ભ્રમ હતો, કેટલી સત્યતા હતી, તે તેના ધ્યાનમાં આવ્યા વગર રહેતી નથી. તેમજ આત્માની અર્ચિત્ય શક્તિ જે આત્મામાં અનંત-અનંત ગુણો રહેલા છે, તેનો તેને ખ્યાલ આવે છે અને તેનામાં - એવા પ્રકારની શાંતિ પ્રાપ્ત થાય છે કે જેનું વર્ણન કરવું પણ મુશ્કેલ થઈ પડે. અંતરાત્મદશામાં વર્તતા જીવો પોતાના વિકાસક્રમમાં ઘણા આગળવધતાં હોય છે. જો આ પ્રકારે પ્રાણીઓના વર્તનનું બરાબર અવલોકન કરવામાં આવે તો તે આત્મા વિકાસક્રમમાં કર્યાં પગથીયા ૫૨ છે તે સ્વયં સમજી શકે છે. વિકાસક્રમમાં આગળ વધતાં તેઓની માનિસક તથા આત્મીય પ્રગતિ કેટલી થાય છે, તે આપો યોગષ્ટિથી જોઈએ. વિચારપૂર્વક શ્રદ્ધા કરવી. - શાખવી, નિર્ણય કરવી, અન્ય સ્વરુપનું જ્ઞાન કરવું આવા પ્રકારની અવસ્થાને જ્ઞાની - ભગવંતો દૃષ્ટિ કહીને સંબોધે છે. ચિત્રા - તારા - બલા - દીપ્રા - સ્થિરા - કાંતા - પ્રભા - અને પરા - આ આઠ દૃષ્ટિના નામો છે. અનાદિકાળથી મિથ્યાત્વભાવમાં ખેંચાતો એવી આ ચૈતન કાનંદ જયસેની આ જાતી વિભાગ NÉT THA thin વિચાર કર્યા વિના ગતાનુગતિક ન્યાયે વડીલોના ધર્મને અનુસરવું. બહુજન સંમત થા પૂજ્ય ધર્મના અનુયાયી થયું. પોતાની વિચાર શક્તિનો ઉપયોગ ન કરવો આનું નામ “ઓધ દૃષ્ટિ" અનેતા પુદ્ગલ પરાવર્ષે કરીને આ ચેતન ચૌરાશી લાખ જીવોનીમાં રખડવા કરે છે. એ પ્રમાણે રખડતાં - રખડતાં જ્યારે તેને છેલ્લું પુદ્ગલ પરાવર્ત પ્રાપ્ત થાય છે ત્યારે તે આવા પ્રકારની યોગ દૃષ્ટિઓની પ્રાપ્તી કરીને ઉર્શિત ક્રમમાં આગળ વધે છે. તેમાં પણ પ્રથમની ચાર દૃષ્ટિ આવીને પાછી ચાલી જતી હોય છે. જ્યારે છેલ્લી ચાર દૃષ્ટિ આવ્યા પાછી ચાલી જતી નથી તેટલું જ નહી પણ પ્રથમની ચાર દૃષ્ટિ જીવને ક્યારેક દુતમાં લઈ જાય છે જ્યારે છેલ્લી ચાર દુર્ગીતને આપતી નથી. (૧) ચિત્રા દૃષ્ટિ :- આ દૃષ્ટિમાં રહેલા અને યોગનાં આઠ અંગ પૈકી પ્રથમ અંગ, “યમ” પ્રાપ્ત થાય છે. યમ પણ પાંચ JBSA પ્રકારના છે. અહિંસા સત્ય અસ્તેય - મૈથુન વિરમણઅને અપરિગ્રહતા તેમાં પણ પ્રથમના બે યમને અમલમાં મુકે • બાકીના ત્રણ અમલમાં મુકવાની ઈચ્છા હોય છે. પણ અમલીનીકરણ કરી શકતો નથી. તત્ત્વબોધઃ- તૃણની અગ્નિ જેવો મંદ બોધ થાય છે. જે બોધ થયા પછી પાછો જતાં વાર નથી લાગતી. ગુણ - અદ્વેષ ગુણ હોય છે. આ દૃષ્ટિમાં જીવને શુભ કાર્ય કરતાં. જરા પણ કંટાળો આવતો નથી. સારાં કાર્યો કરતાં તે કદી પણ થાકી જતો નથી ઉન્નતિના ક્રમમાં અદ્વેષની હદ સુધી વધે છે. દોષ :- ખેદ નામનો દોષ ચાલ્યો જાય. The સત્પુરુષો નો યોગ તે યોગાવંચક સત્પુરુષોને નમસ્કારાદિ કરવા તે વિંચક સત્પુરુષોથી ધર્મ સિધ્ધિ કરવી તે ળાવક, આ ત્રણે અવંચક ભાવ આ દ્રષ્ટિમાં વર્તમાં પ્રાપ્ત થાય છે. તે કારણથી જીવને સર્વ શુભ સંયોગી મળતા જાય છે. ભસ્થિતિ બહુ અલ્પ રહે અને સંસારનો છેડો નજીક આવે ત્યારે જ આ યોગદૃષ્ટિમાં અવાય છે. (૨) તારા દૃષ્ટિ :- આ દૃષ્ટિમાં યોગનું દ્વિતીય અંગ ‘નિયમ’ પ્રાપ્ત થાય છે. નિયમ પાંચ છે. (૧) મનની શ× તે શૌચ (૨) દેશ પ્રકારના દ્રવ્ય પ્રાણોને નિભાવનારા પદાર્થો સિવાય અન્ય પદાર્થોની અસ્પૃહા તે સંતોષ (૩) અનેક પ્રકારના તપ કરવા તેમ જ સુધા ૬૩ सोता जो खोता सदा, जागे वह कुछ पाय । जयन्तसेन प्रमाद तज, जीवन ज्योत जगाय ॥ WJulietary.org Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પિપાસાદિ પરિષહો સહવા તે પરિષહ (૪) સૂત્ર, અર્થાદનું અધ્યયન તે સ્વાધ્યાય. (૫) દેવ-ગુરુને નમસ્કાર કરવા તેમજ આત્મતત્ત્વનું ચિંતન કરવું તે પ્રણિધાન. પ્રથમ દૃષ્ટિમાં તેવા પ્રકારના ક્ષયોપશમનો અભાવ હોવાથી આ નિયમો હોતા નથી. તેમજ આત્મતત્વનું સાંસારિ તત્ત્વબોધઃ- છાણાના અગ્નિના કણ જેવી જે લાંબી વર્ણ સુધી ટકી ના શકે ખરો સમય આવે ત્યારે જ તે બોધ ચાલ્યો જાય. ગુણઃ- ‘જિજ્ઞાસા' ગુણ પ્રાપ્ત થાય છે. પારલૌકિક આત્મકલ્યાણ માટે દાનાદિક શુભ ક્રિયા કરવામાં કંટાળો આવતી નથી. જે જે કાર્ય ઉપાડ્યાં હોય તે તે કાર્ય સિદ્ધ કરવાં માટે Raye - અનેક પ્રકારના બીજા નિયમોનો સ્વીકાર કરે. દોષઃ ઉદ્વેગ નામનો બીજો દોષ ચાલ્યો જાય છે. If y (૩) બલાદૃષ્ટિઃ- આ દૃષ્ટિમાં યોગનું અંગ, “આસન” પ્રાપ્ત હોય છે. તત્ત્વબોધઃ- લાકડાનાં અગ્નિના કણ જેવો હોય છે પહેલા બે દૃષ્ટિ કરતાં વધારે બોધ હોય છે. ગુણઃ- ‘શુશ્રુષા’ ગુણ પ્રાપ્ત થાય છે, તત્ત્વશ્રવણની ઈચ્છા આદિ સુંદર ઉત્પન્ન થાય છે. સ્મૃતિ વધે છે. આત્મસાધના તરફ કાંઈક વધારે પ્રયત્ન કરતી હોય છે. 309 દોષ :- ચાલુ વિષયને છોડી બીજી બાબતમાં પ્રવૃત્તિ કરવા રૂપ "ક્ષેપ" નામની ર્દોષ આ દૃષ્ટિમાં હોતો નથી. એક આસને અમુક વખત સુધી ધ્યાનમાં શાંતિથી બેસી શકે છે. (૪) દીપ્રા દૃષ્ટિઃ- આ દૃષ્ટિમાં યોગનું ચોથું અંગ “પ્રાણાયામ”નો લાભ પ્રાપ્ત થાય છે. બાહ્યભાવો ઓછા થતા જાય આંતરિક ભાવોનો વધારો થતો જાય. સ્થિરના ભાવો કુંભક ક્રિયાની જેમ સ્થિત થાય છે. ૪ તત્ત્વબોધ- "દીપપ્રભા" જેવી થાય અનુ પહેલા કરતાં ઘો વધારે બોધ થાય. Un fonnt fuseur doct ગુણ ઃ- શ્રવણ ગુણ પ્રાપ્ત થાય છે. અત્યાર સુધી સાંભળવાની ઈચ્છા થતી હતી. તે હવે શ્રવણ કરે. સાંભળ્યા બાદ તેનો પ્રયોગ કરે તે વખતે સ્મૃતિ પણ સારી હોય. તે કારણથી મિથ્યાત્ત્વ ગુણસ્થાનકની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પ્રાપ્ત થાય આ દૃષ્ટિમાં વર્તતા પ્રાણીને ધર્મ પર ઘણી ભક્તિ હોય છે તેમજ વ્યવહારનાં કાર્યોમાં બહુ જ અરુચી પેદા થાય છે કે તે ધર્મને માટે પ્રાણનો ત્યાગ કરી દે પણ ધર્મનો ત્યાગ કરવા તૈયાર ન થાય. દોષઃ- ચિત્તની અશાંતિ ચંચલતા અસ્થિરતા રૂપ ઉત્થાન નામનો દોષ દૂર થઈ જાય છે. આ દ્રષ્ટિમાં અવૈધ સંઘ પદ હોય છે બાકીની ચાર દૃષ્ટિમાં વેદ્ય સંવેદ્ય પદ હોય છે. અવેધ સંવેદ્ય પદમાં મિથ્યાત્વ હોય છે. તત્ત્વ પ્રત્યેનો બોધ ઉપરથી થાય છે. પણ અંતરને સ્પર્શ કરતો નથી. અંતરમાં સંસાર શ્રીમદ્ જોરિ અનિદન ગ્રંથ ગુજરાતી વિભાગ or HD પ્રત્યે રુચિ હોય છે. પાપના કાર્યોમાં પણ અનાસક્તિભાવ હોય છે. સાંસારિક સુખો પ્રત્યેનો આદર ભાવ હોય છે. પ્રથમની ચાર દૃષ્ટિમાં વર્તનારા પ્રાણી કૃષ્ણયાંચનાશીલ - દીન મત્સરી ભયભીત - માયાવી મૂર્ખ હોય છે તેમજ એવા પ્રકારના કાર્યો કરતાં હોય છે કે જેનું વાસ્તવિક ફળ પ્રાપ્ત કરી શકતાં નથી. આવા પ્રકારનાં અવેધ સંવેદ્ય ને સત્સંગ તથા આગમના યોગથી જીતવું રહ્યું તે સીવાય કોઈપણ પ્રકારે જીતી શકાય તેમ નથી. સાંસારિક સુખની પ્રાપ્તી કરવાને માટે જે દૈવોની વિચિત્ર ભક્તિ ક૨વામાં આવે છે તે માર્ગને મુક્તિને શમ પ્રધાન એવા સર્વજ્ઞ દેવોની ભક્તિ તેમજ તેમણે બતાવેલ માર્ગમાં પ્રવૃત્તશીલ થવાથી અતિન્દ્રિય વિષયનું સુક્ષ્મજ્ઞાન થાય છે. તેમ થવાથી વેઘ સંવેદ્ય પદની પ્રાપ્તી થાય છે. વૈધ સંવેઘ પદની પ્રાપ્તિ થાય તે પહેલાં થયાપ્રવૃત્ત અપૂર્વકરણ અને ગ્રંથીભેદ રૂપ અનિવૃત્તિકરણ કરીને જીવ સમ્યક્ત્ત્વની પ્રાપ્તિ કરે છે. આ સમ્યક્ત્વ પ્રાપ્ત થતાં તે આત્માની સંસાર મર્યાદિત થઈ જાય છે. (પ) સ્થિરા દૃષ્ટિઃ- આ દૃષ્ટિમાં વિષય વિકારમાં ઇન્દ્રિયને ન જોડવારૂપ પ્રત્યાહાર નામના યોગનું અંગ પ્રાપ્ત થાય છે. પ્રશાંત બુદ્ધિવાળો આત્મા પોતાની ઇન્દ્રિયો અને મનને વિષયોમાંથી ખેંચી પોતાની ઈચ્છા હોય ત્યાં સ્થાપન કરે તેનું નામ જ પ્રત્યાહાર, પાંચ ઇન્દ્રિયોના ત્રેવીસ વિષયો તેમાં ઇન્દ્રિયોને ન જોડતાં સ્વ ચિત્ત સ્વરૂપાનુસારી તેને બનાવી દેવી તેનુ નામ “પ્રત્યાહાર”. તત્ત્વબોધ - રત્નપ્રભા તુલ્ય, ચીરસ્થાઈ પરિણામે અપ્રતિપાતી M બીજાને પરિતાપ કરનાર નહિ. ગુણ :- “સુક્ષ્મ બોધ” ગુણ પ્રાપ્ત થાય છે. Day દોષ - આ દૃષ્ટિમાંથી “ભ્રાંત ભ્રમ" નામનો દોષ ચાલ્યો જાય છે. એટલે આ જીવને અત્યાર સુધી તવજ્ઞાનમાં સર્વજ્ઞની શિષ્ટતા વિગેરેમાં કાંઈક શંકા થયા કરતી હતી. તે હવે વિરામ પામી ગઈ હોય છે. પુદ્ગલ લોલુપતા ઘટી જાય છે. ધર્મનિત ભોગની પણ તે ઈચ્છા કરતો નથી કે રાખતો નથી. ધાર્મિક કાર્ય કરે છે તેમાં પણ બીલકુલ ફળની ઈચ્છા રાખતો નથી હોતો. અનંતાનુંબંધ કષાય ચાલ્યો ગયો હોવાથી સમ્પષ્ટિ ગુજા પ્રગટ થાય છે પરંતુ અપ્રત્યાખ્યાની કષાયનના ઉદયે કરીને વ્રતપચ્ચક્ખાણ લેવાની તીવ્ર ઈચ્છા પ્રગટે છે પણ ગ્રહણ કરી શકતો નથી. પૌદગુલિક સુખોનો ત્યાગ કરવાની બુદ્ધિ થાય છે પણ ત્યાગી શકતો નથી. આત્માનું સ્વરૂપ સમજાય છે. (૬) કાન્તા દૃષ્ટિ :- આ દૃષ્ટિમાં ધારણા નામના યોગનું અંગ પ્રાપ્ત થાય છે જે ધ્યેય નક્કી કર્યો છે તે ધ્યેયને મનમાં સ્થાપન કરે સ્થિર કરે છે અને તેને દૂર કરવું નહી, તેનું નામ ધારણા છે. સ ચેતનાના મનની ચંચળતા ચપળતા ઓછી થાય અને મન ૬૪ पांच तत्व का पुतला, माया मय जंजाल । जयन्तसेन अहं रखे, होवत नहीं निहाल || Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્થિર થાય જેથી મનને જ્યાં-ત્યાં રખડવાની કુટેવ હોય છે તે દૂર થઈ જાય ધીરે ધીરે એકાગ્ર થવા માંડે છે અને ધર્મની માંત્તર પ્રવૃત્તિ કરતી હોય છે. તત્ત્વબોધઃ- તારાની પ્રભા જેવો હોય છે. સ્વભાવથી 19151 આ દૃષ્ટિમાં વર્તનારા જીવો સ્વભાવથી જ નિરતિચાર ચારિત્રવંત હોય છે તેઓનું અનુષ્ઠાન શુદ્ધ હોય છે . પ્રમાદ રહિત વર્તન હોય છે છે આત્માનો શુભ વસ્તુમાં વિનિયોગ હોય છે. આશય-ઉદાર અને ગંભીર હોય છે. ગુણ :- મીમાંસા ગુણ પ્રાપ્ત થાય છે. સદ્વિચાર શ્રેણીને બહુ જે સારી રીતે પ્રાપ્ત કરે છે. આત્મીય બાબતની જ ચિંતવના થયા કરે છે. શ્રુતધર્મ પર એને તન્મય વિશેષ રાગ હોય છે. દેશિવરતિ તથા સર્વવિરતિપણાની પ્રાપ્તિ થાય છે. પૌદગલિક સુખો પ્રત્યેની ઘણી બધી લાગણી ચાલી ગઈ હોય છે. તેમજ નિરતિચાર ચારિત્રનું પાલન કરતો હોય છે. દોષઃ- આ દૃષ્ટિથી અન્યમુદ્ નામનો છઠ્ઠો દોષ દૂર થઈ જાય છે. દેશવિરતિ યા "પ્રમત્ત, સંપત” ગુણસ્થાનક પ્રાપ્ત થાય છે. અપ્રત્યાખ્યાન કષાયની ઉપાદિ થવાથી દેશવિરતિ વાને શ્રાવકની દશા પ્રાપ્ત કરવાનું સામર્થ્ય પ્રગટે છે. પણ સાથે સાથે પ્રત્યાખ્યાની કષાયનો ઉદય છતાં સાધુના પાંચ મહાવ્રત ગ્રહણ કરવાની મહા ઈચ્છા પ્રગટી શકે છે તે ભાવનાના યોગથી પાંચ મહાવ્રત ગ્રહણ કરવાનું સામર્થ્ય પ્રગટે છે અને તે કારણથી પ્રત્યાખ્યાની કષાયના ક્ષયોપશમથી સાધુ જીવન રૂપ પાંચ મહાવ્રત ગ્રહણ પણ કરી શકાય છે. સાધુના વેશ માત્રથી છ ગુણસ્થાનક પ્રાપ્ત થતું નથી. પરંતુ સર્વ આરંભોથી નિવૃત થવાના આત્મ પરિણામ પ્રકટ થાય તો જ આ ગુણ સ્થાનક પ્રાપ્ત થઈ શકે છે. મઘ-વિષય-કષાય-વિકથા અને નિદ્રા આ પાંચ પ્રમાદ છે તેમાંથી કોઈપણ એક પ્રમાદ આ સ્થાને પર્વતનો હોય પરંતુ તે અંતમૂતિથી ઓછા ટાઈમ સુધી. જો તે અંતમુહર્તથી વધારે વાર રહ્યો તો આ છઠ્ઠ ગુણસ્થાનકથી નીચે ઉતરી જાય. બીજું આ સ્થાનમાં સવલન કષાયોની ઉદય પ્રવર્તતો હોવાથી પ્રાયઃ મુનિયાથી નીચે જતા નથી. અર્થના નિપણું જતું નથી. (૭) પ્રભા દૃષ્ટિઃ- આ દૃષ્ટિમાં ધ્યાન નામનું સાતમા યોગનું અંગ પ્રાપ્ત થાય છે. તત્ત્વબોધ :- સૂર્યની પ્રભા જેવો બોધ થાય છે. ગુણ :- “પ્રતિપત્તિ” સ્થાન પ્રાપ્ત થાય છે. દોષ : આ દૃષ્ટિ થી રજા નામનો દોષ ચાલ્યો જાય છે. ધ્યેય વસ્તુમાં પદાર્થમાં એકાકાર બની જવું તેનું નામ ધ્યાન કહેવાય છે. કોઈ એક વસ્તુમાં ચિત્તને સ્થિર કરવું તેનું નામ "ધારણા" ત્યાર બાદ તે વસ્તુમાં ચિત્તની એકાકાર વૃત્તિ થતી આનું નામ ધ્યાન” તે પછી તે વસ્તુનું ધ્યાન કરતાં તંદુરૂપ બની જવું શ્રીમદ જયસેનસૂરિ અસ્તિત્વને ગ્રંથગુજરાતી વિભાગ In ord ૫ તેનું નામ “સમાધિ” ધાર ધારણામાં વૃત્તિનું એક દેશમાં ભાગમાં સ્થાપન કરી ધ્યેય વસ્તુનું સ્વરુપ રચવામાં આવે છે, અને તે સિદ્ધ થવાથી તે વસ્તુમાં જે વૃત્તિનો એકાકાર પ્રવાહ ચાલે તે ‘ધ્યાન’ આ ધ્યાનમાં જે પ્રવાહ ચાર્લે છે તે સતત ધારારૂપ હોતો નથી પણ મધ્યે ટો પડી જાય છે. વિચ્છેદવાળો હોય છે તે જો વિચ્છેદ પણું દૂર થઈ જાય એટલે અવિચ્છિન્ન પ્રવાહ સતત રૂપે ચાલ્યા કરે ત્યારે સમાધિ કહેવાય છે. ધારારૂપ હોતો નથ છઠ્ઠી દૃષ્ટિમાં તત્ત્વની વિચારણા થઈ, જ્યારે આ દૃષ્ટિમાં આદરણીય રૂપે થાય છે. યોગમાં વૃદ્ધિ થાય છે. બાહ્ય અત્યંતર આધિ, વ્યાધિ કે ઉપાધિ થતી નથી. ચિત્તની સ્થિરતા અપૂર્વ હોય છે. ધ્યાનને પરિણામે સમભાવ ઉદ્ભવે છે, સામર્થ્ય યોગનો પ્રથમભેદ ધર્મ સંન્યાસ પ્રાપ્ત થાય છે. છત્રે અને સાતમે ગુણસ્થાનકે રહે છે. અર્થાત પ્રમત્તમાંથી અસંખ્યાતવાર અપ્રમતમાં અને મનમાંથી પ્રમનમાં આવ-જાવ કરે છે. અપ્રમત્ત અવસ્થામાં લગીરે પ્રમાદનો ઉદય નથી હોતો ધર્મધ્યાન ઉત્કૃષ્ટ પરિણામી ધ્યેય છે. શુકલ ધ્યાનની ઝાંખીનો અહૃદય પ્રગટે છે. આ ગુણસ્થાનકે જો આતમને ઊંચામાં ઊંચી શુદ્ધોપયોગની લગન લાગે તો ત્યાંથી આગળ વધે છે. એટલે આઠમે ગુણ સ્થાનો જાય છે. ત્યાંથી શુક્લ ધ્યાનમાં અપાકશ્રેણી શરુ કરે છે અને વધતાં વધતાં છેક તેરમો સયોગી કેવલી ગુણસ્થાનકે પહોંચી જાય છે ત્યારે ચાર ઘાતિ કર્મોને ખપાવે છે અગર ન જાય ત્યાં તો, દશમા સુધી જઈને સંજ્વલનના લોભને બંધમાંથી દૂર કરે છે. ત્યાંથી અગ્યારમે ગુણસ્થાનકે જઈ થોડા ટાઈમ રહી ત્યાંથી પાછો નીચે પડે છે. આખા ભવચક્રમાં ક્ષપકશ્રેણીની પ્રાપ્તી એકવાર થાય છે અને ઉપશમ શ્રેણી પાંચ વાર પ્રાપ્ત થાય છે હાલમાં સાતમા અપ્રમત્તથી આગળ વધી શકાતું નથી. ત્યાં પણ સરાગ સંયમ ચારિત્ર છે. વળી ઘેષોને દૂર કરવાની બુદ્ધિવાળા અને ઉત્સાહ પુરુષાર્થવાન પરિણામી હોવાથી આરાધક છે. (૮) પરા દૃષ્ટિઃ- આ દૃષ્ટિમાં સમાધિ નામના યોગનું આઠમું અંગ પ્રાપ્ત થાય છે. તત્ત્વબોધઃ- ચન્દ્રાની ચન્દ્રિકા જેવો સુક્ષ્મમાં સુક્ષ્મ બોધ થાય છે અને તે બોધ સતત પ્રવૃત્તિ-શિલ હોય છે. ગુ :- "પ્રવૃત્તિ" ગુણ પ્રાપ્ત થાય છે તેથી આત્મા ગુણમાં સંપૂર્ણ પણે પ્રવર્તત કરે છે, દોષ- આસંગ નામનો આઠમો દોષ ચાલ્યો જાય છે. જે આગળની દૃષ્ટિમાં આઇસ્ત્રીય તત્ત્વબોધ હતો તે અત્રે પ્રવૃત્તિમાં પરિપૂર્ણતાને પામે છે. તે કારણથી એ પ્રાણીની ક્રિયા દુષણ રહિતની હોય છે. આ દૃષ્ટિમાં વિહરતો આત્મા તેના વચનનો વિલાસ (અનુસંધાન પાના ક્ર. ૪૯ ઉ૫૨) भोगी मत बन मनुज तू, मत कर जीवन नाश । जयन्तसेन समझ बिना, मानवता की लाश ॥ www.jairnelibrary.org Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બાવીસ પરિષદ (ભગવાન મહાવીરના જીવનનો પ્રેરક પ્રસંગ આત્મકથન રૂપે) (શ્રી રસીકભાઈ સોમાભાઈ વકીલ, મુંબઈ) મ્યુચ્છોની ભૂમિ પર, અનાર્ય દેશમાં મેં ફરીથી એકવાર નથી. એને જીતવા માટે સંયમશીલતા અને તપસ્વીપણું જરૂરનું છે. ભ્રમણ કરીને ખાસ અનુભવ પ્રાપ્ત કરવાનો પ્રયત્ન કર્યો. અને આ પરિષહોને અને બાધાઓને જીતવામાં શારીરિક અસમર્થતાનો. એથી શઠ વજભૂમિ, અશુદ્ધ ભૂમિ, અને લાટ દેશમાં જઈને ખૂબ જ એટલો બધો વિચાર નથી કરવાનો, જેટલો માનસિક અસમર્થતા. ફર્યો, અને અસંયમતાનો કરવાનો છે. અહીં મારી ખાત્રી થઈ કે, ધર્મ પ્રચાર માટે આ ભૂમિ તો ભૂખ, તરસ, ઠંડી અને ગરમી, આ ચાર પરિષહો તો સ્પષ્ટ બિલકુલ અયોગ્ય છે. અહીંના લોકો તો તદ્દન હિંસક જાનવર જેવા છે. મેં આ ચાર ઉપર તો સંપૂર્ણ વિજય પ્રાપ્ત કર્યો છે. ઉપવાસ છે, કાંઈ પણ કારણ વિના દ્વેષ કરે છે. અને સ્વભાવે અતિ નિર્દય કરવાનો તો મને પૂરો અભ્યાસ થયો છે. અને તેથી મારા છે, છતાંયે મેં મારો નવમો ચાતુમસ અહીં વિતાવ્યો. કે જેથી મારી આત્મગૌરવના સંયમની પૂરી રક્ષા થઈ છે. કેટલીયે વખતે એવા. તપસ્યાનો પ્રભાવ એમના ઉપર પડે. પરંતુ કાંઈજ પ્રભાવ ન પડ્યો. સંજોગો આવ્યા હતા કે હું ભિક્ષા લઉં તો ઘણું અપમાન સહેવું પડે. કારણ કે એ લોકોમાં જડતા ઘણી છે. અને તેથી શ્રમણો વિષે લોકોના મનમાં હીન ભાવના ઉત્પન્ન થઈ અહીંના લોકોએ તો મને ફાડી ખાવા માટે મારા ઉપર શિકારી જાય, પણ એવા અવસરો વેળા મેં ઉપવાસો કર્યા. તેથી દીનતા, કુતરાઓ છોડી મુક્યા. કેટલીયે વાર મને પત્થરો માર્યો. અને અને લાચારી જેવી સ્થિતિથી બચાવ થયો. અને તેથી શ્રમણોનું ગાળોનો વરસાદ તો લોકોના મોંમાંથી ચાલુ જ હતો. ગોશાળો તો ગૌરવ વધ્યું. ને ભવિષ્યમાં સત્ય પ્રચારમાં સહાયક થયું છે. બીકથી ગભરાઈને ચિંતાતુર થઈને ફરતો ને અકળાઈ જતો, ને - ભૂખ પર વિજય પ્રાપ્ત કરવા ફક્ત ઉપવાસ પૂરતો નથી. પણ અહીંથી જતો રહેવાનો વિચાર કરતો. પરંતુ તેને લwા આવી કે એક જીભના સ્વાદના વિજયની પણ જરૂર છે. ભિક્ષામાં જેવું ભોજન વખત તો ભાગી જવા પછી પાછા આવવું પડેલું. એટલે બીજી મળ્યું અને જેટલા પ્રમાણમાં મળ્યું એટલાથી જ પેટનું ભાડું આપવું વખત એની જવાની હિંમત ચાલી નહિ. જરૂરી છે. અને એટલામાં જ સંતોષથી ચલાવી લેવું જરૂરી છે.* | આ સ્થળે ચાતુર્માસિ ગાળવાની મારી એક ખાસ ગણત્રી હતી 1 એમ કરવાથી મનુષ્ય દરેક પરિસ્થિતિમાં સ્વ અને પર કે જ્યારે હું મારા સંઘમાં સાધુ સંસ્થા સ્થાપે. ત્યારે એ સાધુઓએ કલ્યાણના કાર્યોમાં લાગી રહે છે. અને અધિક ભૂખ્યા રહેવાથી કેટલી કેટલી. અડચણો અને બાધાઓને જીતવી પડશે. એનો મને પિત્ત પ્રકૃતિ થવાનો ભય લાગે તો થોડું પણ ખાઈને સ્વાદહીન વસ્તુ ખ્યાલ આવે. ઘણી અડચણો ને બાધાઓ તો મારી જીવનયાત્રામાં લઈને મનુષ્ય ભૂખ પર વિજય પ્રાપ્ત કરી શકે છે. દરેક સાધુને આવી છે, જે મેં બધીય જીતી લીધી છે. તે બધાનો વિચાર કરી આનો અભ્યાસ તથા મનોબળ જોઈએ જ, એવી રીતે ઠંડી અને સાધુ ધર્મની અંદર વ્યવસ્થિત રીતે વણી લેવી પડશે, કારણ કે ગરમીની બાબતમાં પણ અભ્યાસ કરવાથી ઘણી સહનશીલતાની, સાધુઓને તો આવી અડચણોને નડતરો તો આવવાની જ છે. આજ આદત પડી જાય છે, શરીરને તો જે આદત પાડો તેમ શરીર તમારૂં કાલ મનુષ્ય એને જીતવાની શક્તિ નહિ રાખે તો જનસેવાના કહેવું કરશે, માર્ગમાં આગળ વધવામાં અને પૂરેપૂરી રીતે સાધુ માર્ગનું પાલન | એક વાત છે કે શરીર સ્વસ્થ રાખવું જરૂરી છે એ તો કરવાનું તેને અતિ કઠણ પડશે. એવું પણ બને કે આવાં કષ્ટોને ધ્યાનમાં રાખવું જ જોઈએ. પરંતુ ઘણીવાર એવું બને છે કે શરીર જીતવાનો અવસર દરેક સાધુને ન પણ મળે. છતાંયે જો એવો તો સહન કરવાને તૈયાર હોય છે, પરંતુ મન સહન કરવાને તૈયાર અવસર આવે તો એને જીતવાની દરેક સાધુની શક્તિ હોવી | નથી હોતું. આ નિર્બળતા છે. તેને તો કાઢવી જ પડશે. જોઈએ. ખરી રીતે તો એને જીતવામાં | ડાંસ, મચ્છર, માંકડ, આદિનું કષ્ટ પણ એક પરિષહ જ છે, શારીરિક શક્તિની એટલી બધી જેને જીતવું પડે જ, સાધુઓએ તો પ્રાયઃ એકાન્ત સ્થળેજ રહેવું પડે આવશ્યકતા નથી. માનસિક શક્તિની છે. એવાં એકાન્ત સ્થળોમાં તો ડાંસ, મચ્છર, કીડા, મંકોડા, જરૂર છે. માંકડનું જ રાજ્ય હોય છે. અત્રેના મ્લેચ્છ અને અનાર્ય દેશોમાં તો. મન જો બળવાન હોય તો આ બધી મારે પ્રત્યેક દિવસે એવાં કષ્ટોનો સામનો કરવાનું ચાલુ જ હોય છે. બાધાઓને અને અંતરાયોને સાહજિક અને જો એવા ઉપદ્રવોનો સામનો કર્યો ન હોત તો, તો હું એક રીતે જીતી શકાય છે. અને મન જો દિવસ. પણ અહીં રહી શક્યો ન હોત, એ કારણથી સ્વ પર બળવાન ન હોય તો શરીરમાં કલ્યાણની દ્રષ્ટિએ દેશમક પરિષહને જીતવો અતિ આવશ્યક છે. સહનશક્તિ વધારે હોવા છતાંયે આ પરિષહોને, આ બાધાઓને જીતી શકાતી * સાધુ માટે ભિક્ષાનું ગૌરવ જાળવીને વહોરવું જોઈએ. તેને માટે અભ્યાસ અને મનોબળની જરૂર છે. ના થરા ၄၄ जयन्तसेन आज्ञा धर, चलना नित्य उमंग ।। आज्ञा है संजीवनी, भाव रोग हरनार । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સાધુઓએ વિહાર તો કરવો જ પડે છે. એ વિહારમાં ખુલ્લા લાંબો કાંટો ખેંચી ગયો. એટલે તેતો બહુ જ અસ્વસ્થ થઈ ગયો. મેં પગે ચાલવાનું હોવાથી પગમાં શ્રમ સહન કરવાની શક્તિ હોવી જ તેને ઘણી જ ધીરજ આપી ત્યારે તેણે કહયું / પ્રભુ, હું બિમારીથી જોઈએ. કોઈ પણ રથ ગાડી કે વાહનનો પરિગ્રહ વધે છે, એથી નથી ડરતો, હાંસ, મચ્છર, માંકડથી નથી ડરતો પણ આ મોટો એનો ઉપયોગ સાધુ માટે ઉચિત જ નથી. કારણકે પરાધીનતા પેદા લાંબો કાંટો તો કાંટો જ છે || મેં એને નીચે બેસાડ્યો ને શાંતિથી. થાય છે, નદી કે સમુદ્ર પાર કરવા માટે નૌકાનો ઉપયોગ કરવો પડે કાંટો કાઢ્યો ને એને ધીરજ આપી, પણ પછી મને લાગ્યું કે કાંકરા, તો તે વાત જાદી છે. સાધારણ રીતે પગથી ચાલીને વિહાર કરવો પત્થર, કાંટા, ઘાસ, એ પણ સાધુને તો પરિષહ જ છે. અને તે એજ વ્યવહારિક છે. ઉત્તમ માર્ગ છે, અને પગે ચાલીને વિહાર શરીર સાથે સંબંધ રાખે છે. ને જેમાં ધીરજ રાખવી અતિ જરૂરની કરવાથી થાક લાગશે એમ વિચારી સાધુએ ગભરાવું ન જ જોઈએ. છે. આથી શરીરને લગતા અગિયાર પરિષહો મેં નિશ્ચિત કર્યો કે | એ જ રીતે શૈયા પરિષહ ઉપર જીત મેળવવી જોઈએ. શરીર - પ્રધાન આ અગિઆર પરિષહો સાધુએ જીતવા જ જોઈએ. સાધુઓએ રૂની શૈયાની આશા ન રાખવી. માટીનું બનેલું આ શરીર કેટલાક પરિષહો તો મન પ્રધાન છે, જ્યારે હું મ્લેચ્છ દેશોમાં છે. એને માટી ઉપર સુવાડવાની આદત જ પાડવી જોઈએ સાધુઓએ ગયો, ત્યાં મને બિલકુલ નગ્ન જોઈને બધા ચિડવતા હતા. મારી જગતને આનંદમાં રાખવા આનંદનો સંદેશ આપવા, જગતના બધા સામે હસીને મને ચિડવતા હતા. એ છોકરાઓ મને આમ ચિઢવે ત્રાસ આનંદથી ભોગવવા જોઈએ. તેથી મને શરીરનો ક્લેશ તો થતો નહિ. પરંતુ મનને કષ્ટ થતું હતું. આસન પણ એક પરિષહ છે. દિનચયમાં જ્યારે થાક લાગે છતાં મેં તો ઉપેક્ષા ભાવથી એ બધું સહન કર્યું ને કરતો હતો. છે ત્યારે આસન ઉપર પણ થાક અથવા વ્યાકુળતા લાગતી જ હોય | નગ્નતા એ તો એક અપલક્ષણ છે. કોઈ પણ સમાજ તદ્દન છે. મનુષ્ય એક જગ્યા ઉપર બેસી બેસીને ઉંઘી જાય છે, હાથ પગ નગ્ન ફરનારની ઉપેક્ષા જ કરે છે. અરે એક લંગોટીભર ફરનારાની. હલાવવા ઝુલાવવા માંગે છે. પણ હાંસી ઉડાવે છે. મેલાં ઘેલાં કપડાં કે ફાટ્યાં તૂટ્યા કપડા | એ સમયે એને વશમાં રાખવા આવશ્યક છે. સભા વગેરે પહેયાં હોય તોય લોકો મશ્કરી કરે છે. કારણકે લંગોટીભેર જાહેર સ્થળોમાં તો એની આવશ્યકતા છે જ, અને બીજાં ઘણાં ફરનારને પણ સમાજ તો નાગો જ કહે છે. પણ આ બધી. સ્થાનો પર એનો ઉપયોગ થાય છે. ઉપેક્ષાઓથી સાધુએ જરાયે ડરવું ન જ જોઈએ કારણકે આજે - તે દિવસે યક્ષ મંદિરમાં ગોશાળો જ્યારે યુવાનોના હાથે ખૂબ દેશમાં ગરીબીને કારણે ઘણા બધા લોકો નગ્ન અવસ્થા કે નાગા માર ખાઈ ઢીલો થઈ ગયો, ત્યારે હું નિશ્ચયથી આસન પરિષહ પર જેવી સ્થિતિમાં ફરે જ છે. તો એમના જેવી સ્થિતિમાં હું કેમ વિજય મેળવીને સુરક્ષિત બન્યો હતો. તેથી જ શ્રમણનું માન રહયું એમનો ભાગીદાર ન થાઉં ? આમ વિચારવું જોઈએ જેથી આપણને હતું. નગ્નતા ખટકશે નહિ. આજે દેશમાં અન્ન પુષ્કળ છે. ને વસ્ત્ર દુર્લભ | મુદ્દાની વાત એ છે કે સાધુએ ચાહે ચાલવું પડે કે એક છે. અતિ દુર્લભ છે. એથી ઉપવાસની ઉપેક્ષાએ નગ્નતામાં (ઓછાં આસન પર બેસવું પડે, કે જમીન ઉપર સૂવું પડે તો એવી વસ્ત્રો માં) રહેવું વધુ જરૂરી છે. અને નગ્નતામાં કોઈ શારીરિક કષ્ટ પરિસ્થિતિ ઉપર તેનામાં વિજય મેળવવાની શક્તિ હોવી જ જોઈએ. તો પડવાનું જ નથી. ને તેથી એની સમસ્યા જ નથી. ફક્ત મનને અને એણે એવી દરેક શક્તિનો ઉપયોગ કરવો જોઈએ. જીતવાની જ સમસ્યા છે. છતાં પણ કોઈ એવો પણ યુગ આવશે. મારપીટ અથવા વધ આદિ સ્થિતિ સહન કરવાની શક્તિ પણ જ્યારે અન્ન કરતાં વસ્ત્રો દેશમાં વધારે હશે ત્યારે દેશ કાળ ભાવ સાધુમાં હોવી જોઈએ. સાધુએ તો જનતાના આચાર વિચારમાં વગેરે ઉપર પરિસ્થિતિ જોઈને વિચાર કરવો પડે, પણ આજે તો. ક્રાંતિ કરવાની છે અને જનતાનાં ચિત્તમાં અને માનસમાં પોતાના નગ્નતા પરિષહ ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કરવાની આવશ્યકતા છે. હિતેષિતાની છાપ પાડવાની છે, સાધુને પોતાનો સ્વાર્થ નથી કે જેને સ્ત્રી પરિષહ પણ એક માનસિક પરિષહ છે. મેં જ્યારે દિક્ષા લીધે એને કોઈ સાથે પણ સંઘર્ષ કરવો પડે; એને જે કાંઈ કરવાનું ગ્રહણ કરીને જ્યારે ભિક્ષા લેવા જતો હતો ત્યારે ઘણી બધી છે, તે જનતા માટે જ કરવાનું છે, માટે તેણે વધુ પરિષહ ને પણ સુંદરીઓ ને નવયૌવનાઓએ મને ઘેરી લીધો હતો. એ વેળાએ જીતવો જરૂરી છે. એમના ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કરવા માટે મારે માથાના કેશ ઉખાડી. શારીરિક રોગ પણ એક પરિષહ છે. રોગની શરીર ઉપર જે નાંખીને (લોચ કરીને) ફેંકી દેવા પડ્યા હતા. ખરી રીતે આ અસર પડે છે, એનો તો શો ઉપાય ? પણ રોગ આવે તો ધીરજ પરિષહ અતિ કઠીન છે. એથી. એને કામ પરિષહ અગર મદન રાખવી, એજ રોગ ઉપરનો વિજય છે. જે વ્યક્તિ શરીર અને પરિષહ કહેવો જોઈએ. કારણ કે પુરુષોની જેમ સ્ત્રીઓએ પણ આવા આત્માને ભિન્ન સમજે છે એણે શરીરની વિકૃતિથી આત્માને વિકૃત પરિષહનો થોડો વત્તો સામનો તો કરવો જ પડે તેમ છે. છતાં પણ. ન કરવો જોઈએ. હું એને સ્ત્રી પરિષહ કહું છું. કારણ કે સ્ત્રી પુરુષના શરીરમાં - આ દસ પરિષહ એવા છે કે જેને તમે શારીરિક પરિષહ કહી અંતરની દ્રષ્ટિએ સ્ત્રી પુરુષની મનોવૃત્તિમાં જ અંતર છે, કોઈ સ્ત્રી. શકો. કેમકે તેના ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કરવા માટે શરીરને અભ્યાસ એમાં પોતાનું અપમાન સમજશે, જાણે તેનું સ્વમાન ઘવાયું છે. કરાવવો પડે છે. અથવા શરીરમાં સહિષ્ણુતાની જરૂર હોય છે. પરંતુ કોઈ સ્ત્રી કોઈ પુરુષ પાસે કામ વાસના કરે તો એનું અપમાન આવા પરિષહોને જીતવામાં ખરો ભાગ તો મનને જ ભજવવો પડે તો નહિજ સમજે. આવી અવસ્થામાં સ્ત્રી પરિષહ જીતવામાં કઠણાઈ છે. એ કારણે મુખ્યતાની દ્રષ્ટિએ મેં એનું નામ સ્ત્રી પરિષહ આપ્યું. | મને લાગતું હતું કે આ દસ પરિષહ શરીરના છે, તે પૂર્ણ છે. સાધક જીવનમાં એક જાતની શુષ્કતા માલુમ પડે છે, ઘણા પરંતુ આજે વિહારમાં ચાલતાં ચાલતાં ગોશાળાના પગમાં એક લોકો એથી પૂજા પ્રતિષ્ઠામાં સ્વાદિષ્ટ ભોજનની તથા કેટલીક બીજા પણ છે દારીના ૬૭. जयन्तसेन जड़ी यही, देती जीवन सार । आज्ञो भंजक मानवी, तजे नहीं अभिमान । Jain Education international ww.jainelibrary.org Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકારની આશાઓ આપે છે. ગૌશાળાનો સ્વભાવ એવો છે કે થોડું સંકટ આવે તો તરત નાસી જવાનું જ મન કરે. આવા લોકો કોઈ સાધના કરી શકતા નથી. સ્વપર કલ્યાણ નહિ કરે. એથી સાધનામાં અનુરાગ જોઈએ. નિ જોઈએ. અરતિભાવ પર વિજયની જરૂર છે. એનું તાત્પર્ય એ છે કે સંઘમ સાધનામાં લોકોને આ સાધનામાં આનંદનો અનુભવ હોવો જોઈએ. જેવી રીતે એક મા પોતાના સંતાનની સેવામાં જે પ્રકારના આનંદનો અનુભવ કરે છે, એજ રીતે એક સાધકને સ્વ અને પર સાધનામાં આનંદ મળવો જોઈએ. સાધના આનંદમય હોવી જોઈએ. ઉલ્લાસમય હોવી જોઈએ એમાં દુઃખ કે દીનતાનો ભાવ જરાય ન આવવો જોઈએ. અહીં ોચ્છ દેશોમાં પુષ્કળ ગાળો ખાવી પડી ને અપમાનો થયાં એથી શરીરને તો કાંઈ પીડા થઈ નહિ. કારણ કે ભાષાના ચાર વ્યંજનોથી ગાળો યે બને છે ને પ્રશંસાના શબ્દો પણ બને છે. એથી કાનમાં કે શરીરમાંના બીજા ભાગમાં એની પીડા થતી નથી. ફક્ત મનની જ પીડા છે. પણ સાધુને આવી માનસિક પીડા થવી ના જોઈએ. અને ગાળો દેનારે પણ જો અમારી કાંઈ ભૂલ બનાવી હોય તો અમારે એ ભૂલ સ્વીકારીને સુધારી લેવી જોઈએ. ગાળ દેનારાએ તો ચિકિત્સા કરનાર વૈધની જેમ મને લાભ કરાવ્યો છે. અને કદાચ એણે કાંઈ ખોટું કરીને અપમાન કરવા માટે જ અપમાન કર્યું હોય તો તેના અજ્ઞાન ઉપર દયા ખાવી જોઈએ. અને જરા સ્મિત સહિત વાત ટાળી દેવી જોઈએ. એથી “આક્રોશ પરિષહ” ૫૨ વિજય થાય છે. જે સાધુ સાચો છે તે સમાજ પાસેથી ઓછામાં ઓછું લે છે, ને સમાજને વધારેમાં વધારે આપે છે, એવા સાધુ પાસે યાચના કરવાની દીનતા, કંગાલિયત કદી હોય નહિ. પરંતુ જે દંભી છે તે બહારથી. કેટલી બધી નિરપેક્ષતા દેખાડે, પણ તેના મનમાં તો દીનતા જ છે તે દિલનો કંગાળ હશે, અને લોકો એને માટે મનમાં વૃક્ષા કરતા હશે. અને એને ગરીબ કંગાલ દિલનો સમજી “યાચના પરિષહ” વિજયની સાચી પધ્ધતિ અથવા યોગ્ય માર્ગ એ જ છે કે મનુષ્યની સાચી સાધુતાનો પરિચય આપે. એવું પણ બને છે કે યાચના વ્યર્થ જાય, ખાવાનું પીવાનું ન મળે, રહેવાની જગ્યા પણ ન મળે. જેવું મારે મ્લેચ્છ દેશોમાં સતત ચાર માસ સુધી થયું. એવી પરસ્થિતિમાં જરાય ન ગભરાવું. પણ આ લાભ પર જ વિજય પ્રાપ્ત કરવો જોઈએ. નહિ તો સાધુના કે સાધુપણું રહી શકશે નિહ. ગોશાળાની એક આદત છે કે જ્યાં કાંઈ મળમૂત્ર એ ત્યાં નાકનું ટેરવું ચઢાવી ત્યાંથી ભાગવાની ચેષ્ટા કરે. પણ એમ ભાગવાથી કાંઈ સફાઈ કે સ્વચ્છતા ઓછી થાય ? ને એ સફાઈ કોણ કરે ? આપણને સ્વચ્છતા પસંદ હોય તો આપણેજ એ “મલ . પરિષદ્ધ" ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કરવો પડશે. તો જ સ્વચ્છતા કરી શકીશું. એમને સ્વચ્છ રાખીશું. મલિનતા જોઈને ગભરાઈશું કે અકળાઈશું તો આપણાથી અન્યોનો તિરસ્કાર થઈ જશે, ને એમનું અપમાન કરી બેસીશું. પણ ત્યાં સ્વચ્છતા તો નહિ જ કરી શકીએ કે સેવા પણ નહિ કરી શકીએ. તો સાધુતા કેમ ટકશે. “મળ પરિષત" નવો જરૂરી છે, આજે એક વિશેષ પરિષહ તરફ ધ્યાન દોરાયું. સાધુ થાય એ બધા પરિષહ ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કરી શકે, પણ સત્કાર પુરસ્કારને શ્રીચંદ જયોનિના એજરાતી વિભાગ ims for fon and fo ૬૮ જીતી નથી શકતો. પણ એ ‘સત્કાર પરિષહ' જીતવો જરૂરી છે.સત્કાર પુરસ્કાર એ એક ઊંચી શ્રેણીનો ભોગ છે. મોટે ભાગે તો લોકો સત્કાર પુરસ્કાર માટે તો ખાવાનું પીવાનું યે છોડી દે છે. અથવા લુખ્ખું સૂ પણ ખાઈને ચલાવી લે છે. અને અનેક તરેહનાં કષ્ટ પણ ભોગવે છે. તે ફક્ત એક જ કારણે કે એ જ્યાં જાય ત્યાં એનો આદર સત્કાર થાય. અને ચાર માણસોમાં એને મોભાનું સ્થાન મળે. જેણે સેવાઓ કરી હોય, અને તેની યોગ્યતા હોય તો આગળ સ્થાન મળે છે ખરૂં. પણ સત્કાર પુરસ્કારની તીવ્ર લાલસા હોવી એ તો સાધુતાનું ભયંકર પતન લાવે છે. જેટલા સત્કાર પુરસ્કારને યોગ્ય આપણે નથી તેટલો સત્કાર પુરસ્કાર લેવો એ તો અઘટિત કહેવાય-દંભ કાહેવાય. એથી દંભી તો જરૂર બની શકાય, પણ સાધુતાથી જરૂર ભ્રષ્ટ થવાય છે. એજ કારણથી શ્વેતામ્બી નગરીમાં જ્યારે મારો મોટો ભય આદર સત્કારને પુરસ્કાર થયો એટલે હું તરત જ ત્યાંથી બહાર નીકળી આવ્યો હતો. એમ ન કર્યું હોત તો મારી સાધનામાં મોટા અંતરાયો પડ્યા હોત. સત્કાર પુરસ્કારથી સાધના ક્ષીણ થાય છે. અને છેવટે સાચો સત્કાર પુરસ્કાર પણ નષ્ટ થાય છે. આ કારણે સત્કાર પુરસ્કાર ઉપર વિજય મેળવવો આવશ્યક છે. આજે વહેલી પ્રભાતે ધ્યાન લીધું પછી ધ્યાનમાંથી ઉઠ્યા પછી વિચારતાં વિચારતાં ત્રણ પરિષહો નજર સામે આવ્યા. વિચાર કરતાં આ ત્રણ પરિષહોના નામ “પ્રજ્ઞા” “અજ્ઞાન” ને “અદર્શન” જો વિદ્વતાનો ધર્મડ દીવો એને પ્રજ્ઞા પરિષદ્ધ" કહું છું એના ઉપર વિજય મેળવવો આવશ્યક છે. કારણ કે વિદ્વતાનો ઘમંડ માણસનો વિકાસ રોકે છે. એ સાથે એના જ્ઞાનનો લાભ જગતને મળતો નથી. એના જ્ઞાનનો લાભ લેવા પહેલાં જ એના મદ હની આધાત મનુષ્યને પાયલ કરી દે છે. ત્યારે તેની પાસેના જ્ઞાન લાભની પાત્રતા જ નષ્ટ થઈ જાય છે, એથી પ્રજ્ઞાને નમ્રતાથી પચાવી લેવી આવશ્યક છે. એજ “પ્રજ્ઞા પરિષહ” નો વિજય છે. પ્રજ્ઞાથી ઉલટો પરિષહ “અજ્ઞાન” પરિષહ છે. વિદ્યા ને બુધ્ધિ ઓછી હોય તો એ મનુષ્યમાં એક જાતની દીનતા આવી જાય છે. અને એ નબળાઈથી પણ મનુષ્યનો વિકાસ રૂંધાઈ જાય છે. અથવા ગુરુજનોના શબ્દોથી પીડિત થઈને એમનામાં ઘૃણા પેદા થાય છે. એ માનસિક નિર્બળતા દૂર કરવી જરૂરી છે. શ્રમ અને મનોયોગથી “અજ્ઞાન પરિષહ” ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કરી શકાય છે, બધાથી વધુ મહત્વપૂર્ણ એ “અદર્શન પરિષહ” છે. સંયમ તપ ત્યાગ આદિનું ફલ આત્મશાંતિ છે. પણ આ ફળનું દર્શન દરેક જણને થતું નથી. અલ્પજ્ઞાનીઓને સંતોષ આપવા માટે ઐહિક અથવા "પાર લૌકિક” ભૌતિક ફળોનો ઉલ્લેખ થતો હોય છે. એ ફળો દેખી શકાતાં નથી આ પ્રકારના અદર્શનથી. લોકો સન્માર્ગ છોડી દે છે. તેમને ધર્મનો મર્મ સમજાવવામાં આવે તો અદર્શન અથવા અવિશ્વાસ ને લીધે જે પતન થવાનું હોય તે રોકાઈ જાય. “અદર્શન પરિષહ” ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કર્યા વિના મનુષ્ય નું નો જન સેવાનાં માર્ગમાં ટકી શકે છે, ન તો મૌક માર્ગનું સુખ પ્રાપ્ત કરી શકે છે. પરિષતો (બાધાઓ) તો ઘણા છે. પરંતુ આ પ્રમાણે જણાવેલા બાવીસ પરિષદોનો નિર્ણય કરવાથી આ વિષયનું આવશ્યક જ્ઞાન જરૂર મળે છે. जयन्तसेन दुःखी रहे, जीवन निष्फल जान ॥ आज्ञा निधि धारक मनुज, पाता अनुपम ठाम । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભગવાન મહાવીરની વાણી (ડૉ. નાનક કામદાર, ભાવનગર) હિંદુ ધર્મ અને તેની માન્યતાઓના નવસંસ્કરણ તરીકે જૈનધર્મને હોય. પોતાના અંતરના શત્રુઓને જ શત્રુ લેખો. અને તેને જીતવાની ઓળખાવતાં જેકોબી લખે છે. જ વીરતા બતાવો.” તેઓ કહે છે કે, “જો એ બાબતમાં એક "Buddhism and Jainism must be regarded as નિમિષમાત્રનો પ્રમાદ થશે તો જીવનનો મહામૂલો સદ્ અંશ નકામો religions developed out of Brahmanism not by a sudden જ જશે. અને પછી કદી નહીં લાધ." reformation but, prepared by a religious movement going હિંસામાં અસત્ય ચોરી વગેરે બધા દોષો અને બધી on for a long time." બુરાઈઓનો સમાવેશ થઈ જાય છે. હિંસા, જુઠ, ચોરી, લુચ્ચાઈ જૈનધર્મના પ્રવર્તક, ચોવીસમા તીર્થંકર ભગવાન મહાવીરનો વગેરે જેવા દોષો પરિગ્રહના આવેશમાંથી જન્મે છે, જે સમાજમાં. સંદેશ આજના મંગલ પર્વને દિવસે આપણા જીવનમાં ઉતારવાનો વિષમતા. ઉત્પન્ન કરી વર્ગ વિગ્રહો જરા.વી માનવી માનવી. વચ્ચે પ્રયાસ કરી કામના કરીએ - વિસંવાદ જન્માવે છે. સ્વચ્છતા તેમજ વિલાસના મૂળરૂપ પરિગ્રહ અમને સઘળી દિશાઓમાંથી સુંદર વિચારો પ્રાપ્ત થાઓ. માટે ભગવાન મહાવીરે પરિગ્રહ-પરિમાણ ઉપર ભાર મુકી સમાજમાં ભગવાન મહાવીરના જીવનને ત્રણ તબક્કાઓમાં વહેંચવામાં સુખ-શાન્તિ સ્થાપવાનો પ્રયાસ કર્યો છે. સામ્યવાદ અને મૂડીવાદનું આવ્યું છે. જન્મથી અઠ્યાવીસ વર્ષ સુધી તેમણે એક રાજકુમાર આંદોલન જ્યારે અણુ યુધ્ધના નગારા વગાડી રહયું છે. ત્યારે તરીકે જીવન પસાર કર્યું. તેમના માતાપિતાનું અવસાન થતાં બે વર્ષ તેમાંથી મુક્ત થવાનો એક માત્ર માર્ગ પરિગ્રહ પરિમાણ અને લોક ભાવયતિ તરીકે વિતાવી, સાડાબાર વર્ષ સુધી ઉગ્ર. તપસ્યા કરી. મૈત્રીનો વિશાળ નાદ સર્વ પ્રથમ શ્રેષ્ઠ રીતે મહાવીરે પ્રબોધ્યો છે. મહાવીર, તીર્થંકર, જિનપ્રભુ તરીકે તેઓ ઓળખાયા. જીવનના અંતિમ તબક્કામાં ત્રીશ વર્ષ સુધી જુદી જુદી જગ્યાએ વિહાર કરી, જેવી. ગીતાની ઉક્તિ માફક ભગવાન મહાવીરનો જીવનદૃષ્ટિ પણ. હસ્તિપાળની સભામાં સોળ પ્રહર દેશના આપી, પાવાપુરીમાં આસો આપણને સર્વભૂતાત્મ ઐક્ય જોવા મળે છે. આચારાંગમાં પ્રભુ વદ અમાસના દિવસે નિવણિ પામ્યા. તેઓએ જીવદયાનો ધ્વજ દલીલ પૂર્વક સમસ્ત વિશ્વમાં પોતાના જેવું જ ચેતન તત્ત્વ ઉભરાતું ફરકાવી તત્ત્વજ્ઞાનના ક્ષેત્રે સ્યાદ્વાદનો અમૂલ્ય સિધ્ધાંત જગતને ઉલસતું. દેશવિ છે. આ ચેતનતત્ત્વને ધારણ કરનાર શરીરો અને આપ્યો છે. ઈન્દ્રિયોના આકાર પ્રકારોમાં ગમે તેટલું અંતર હોવા છતાં તાત્કાલિક | પ્રાચીનમાં પ્રાચીન કહી શકાય તેવા આચારાંગ. ભગવતી રૂપે સંવર્મા ચેતનતત્ત્વ એક જ પ્રકારનું વિલસી રહયું છે. ભગવાનની વગેરે ગ્રંથોમાં તેમના ઉદ્દગોરો અને વિશ્વસનીય સંવાદો મળી આવે આ દૃષ્ટિને, "આત્મીપમ્પની દૃષ્ટિ” કહેવામાં આવે છે. છે. જે બધા પરથી જોઈ શકાય છે કે, છેક નાની ઉંમરથી જ ભગવાનની જીવન દૃષ્ટિમાં જીવન શુધ્ધિનો પ્રશ્ન પણ સમાયેલો નિગ્રન્થ-પરંપરાથી અહિંસાવૃત્તિ તેમનામાં વિશેષ રૂપે આવિભવિ પામી છે. ચેતનાનો પ્રકાશ ગમે તેટલો આવૃત્ત હોય છતાં તેની શક્તિ તો હતી. આ વૃત્તિને તેમણે એટલે સુધી વિકસાવી હતી કે પોતાના પૂર્ણ શુધ્ધિની જ છે. જો જીવ તત્ત્વમાં પૂર્ણ શુધ્ધ થવાની શક્યતા નિમિત્તે કોઈ સુક્ષ્મ જંતુ સુધ્ધાનાં દુઃખમાં ઉમેરો ન થાય એ રીતે ન હોય તો આધ્યાત્મિક સાધનાનો કોઈ અર્થ જ રહેતો નથી. અહીં જીવન જીવવા તેઓ મથામણ કરતા, એ મંથને તેમને એવું અપરિગ્રહ વેદાંતી શુદ્ધાદ્વૈતવાદ અને કૈવલા દૈતવાદના દૃષ્ટિ બિંદુઓમાં રજુ વ્રત કરાવ્યું કે તેમાં કપડાં અગર ઘરનો આશ્રય સુધ્ધાં વર્ય થયેલી. વાતે જોવા મળે છે. જે અનુસાર આત્મા મૂળમાં શુધ્ધ છે. ગણાયો. મહાવીર કહે છે, “દુનિયા માત્ર દુઃખી છે. પોતાની સુખ વાસના કે કર્મોની છાયા પડવાથી ઉત્પન્ન થતો જીવભાવ તે તેનું સગવડ માટે બીજાનું દુઃખ વધારો નહીં. બીજાના સુખમાં ભાગીદાર મૂળ સ્વરૂપ નથી. ન બનો, પણ બીજાનું દુઃખ હળવું કરવા કે નિવારવા સતત - જો તાત્ત્વિક રૂપે જીવનનું સ્વરૂપ શુધ્ધ જ છે તો પછી. આપણે. પ્રયત્નશીલ રહો.” એકની એક જ વાત અનેક રૂપે પોતાના સંપર્કમાં એ સ્વરૂપ કેળવવા શી સાધના કરવી ? ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના આવનાર દરેકને સંભળાવતા ભગવાન કહે છે કે, “મન, વાણી અને પચીશમાં અધ્યાયમાં ભગવાન કહે છે. સમતાથી. શ્રમણ થવાય છે. દેહની એકતા સાધો. ત્રણેનું સંવાદી પેદા કરો. જે વિચારો તેજ વ્યવહારૂ ભાષામાં બધી સાધનાનો અર્થ એટલો જ કે તદ્દન સરળ, બોલો. અને તે પ્રમાણે વર્તો. અને જે વિચારો તે પણ એવું કે તેમાં સાદું અને નિષ્કપટ જીવન જીવવું. વ્યવહારૂ જીવન એ આત્મૌપમ્પની. ક્ષુદ્રતા કે પામરતા ન હોય. પોતાના અંતરના શત્રુઓને જ શત્રુ દૃષ્ટિ કેળવવા અને આત્માની શુધ્ધિ સાધવાનું એક સાધન છે. લેખો. અને જે વિચારો તે પણ એવું કે તેમાં ક્ષુદ્રતા કે પામરતા ન માણસ જ્યાં બેસે છે. ત્યાંજ પ્રભુના ચરણો છે. જો એ સમજે તો. દીમદ પથારીની મિહાન ગ્રંથ, રામ મારા क्रोध अग्नि को दूर कर, बनो सदा तुम धीर । जयन्तसेन सुखद जीवन, पूर्ण तया गंभीर ।। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ એનું પ્રત્યેક આચરણ પ્રભુના ચરણની સેવા છે. જો એ આચરણો કૃષ્ણમૂર્તિ વાત કરે છે એવી શિસ્ત-સમરૂપતા (Conformity) પાછળ નિષ્કામ પ્રેમ, વિશુધ્ધ ત્યાગ અને વિશ્વ કલ્યાણની ભાવના આપણામાં ઊભી થાય તો કદાચ આપણે મહાવીર જેવા માર્ગદર્શક હોય તો. વગર ચલાવી શકીએ. પણ સ્વસ્થતાનો આપણામાં અભાવ હોય | સત્યનું ચિંતન જ માત્ર નહિં, સત્ય ધર્મ દ્વારા જીવનમાં ત્યારે કૃષ્ણમૂર્તિ કહે છે એ અર્થમાં ક્રિયાશીલ થવું શક્ય નથી અને ઉતરવું જોઈએ. સત્ય આત્મા છે, ધર્મ એ આત્માને આવિભૂત થવા તેવી કે બીજી કોઈપણ પરિસ્થિતીમાં પોતાના પુરુષાર્થને તો નકારી માટેનું શરીર છે. જે ધર્મમાં સત્ય નથી. તે પ્રાણ વગરના શરીર જ ન શકાય. આથી દરેક પરિસ્થિતીમાં ગતિશીલ અભિગમ જેવો છે. ધર્મ રૂપ ધારણ કરીને જીવન સાથે જડાઈ ન જાય એ અપનાવવો એ ઉપાય છે, તેવો ભગવાનનો સરળ સંદેશ છે. સત્ય કેવળ એક બુધ્ધિ વિલાસ જ છે. સત્યની સંમતિ વગરનો ધર્મ સત્ના સ્વરૂપ વિષે ભિન્ન ભિન્ન દર્શનોમાં ભિન્ન ભિન્ન ન હોઈ શકે. ધર્મરૂપે જીવનમાં અવતરે નહિં એ સત્ય, વાણી અને મંતવ્યો છે. વેદાન્ત દર્શન પૂર્ણ સતુરૂપ બ્રહ્મને કેવળનિત્ય જ માને વિચારનો નર્યો દંભ બની રહે. સત્ય અને ધર્મ એકબીજાની કસોટી છે. પરંતુ જૈનદર્શનનું મંતવ્ય એવું છે કે, ચેતન કે જડ, મૂર્ત કે છે. ‘સત્ય' તરીકે જે પ્રતીત થયું તે જીવનમાં નિત્યના આચાર રૂપે | અમૂર્ત, સ્થૂલ કે સૂક્ષ્મ, બધી સત્ કહેવાતી વસ્તુઓ ઉત્પાદક, નાશ. ઉતરવું જોઈએ. ધર્મ લેખે કોઈ ક્રિયા કે કર્મનું આચરણ કરતા અને સ્થિર એવી ત્રયાત્મક છે. વસ્તુનું અનેક દૃષ્ટિઓથી– ભિન્ન પહેલા એ ક્રિયા કે કર્મ સત્યથી વિરૂધ્ધ તો નથી ને તેનો વિચાર ભિન્ન અપેક્ષાથી અવલોકન કે કથન કરવાના આ દૃષ્ટિબિંદુને કરવો જોઈએ. આચારાંગમાં આથી જ તો ભગવાન કહે છે, જ્ઞાનમિમાંસાકીય રીતે અનેકાન્તવાદ કે સ્વાવાદ તરીકે ઓળખવામાં ‘પુરિસ સવમેવ સમfમંગાણા - મનુષ્યો ! સત્યને સમજો ! આવે છે. પરંતુ, આધ્યાત્મિક દૃષ્ટિ બિંદુથી અનેકાન્તવાદ એ. સત્યના સહારે મેઘાવી. મૃત્યુને તરી જાય છે.” સમન્વયવાદ પણ છે. અને તેમાંથી જ સમભાવનું કલ્યાણમય ફળ આ બધી વાતો સાચી હોય તો પણ એ તો વિચારવાનું રહે નિપજી વ્યાપક મૈત્રી ભાવના દ્વારા મનુષ્યભૂમિ કલ્યાણભૂમિ બની. જ છે કે આ બધું કેવી રીતે બને ? જે સમાજ. જે વિશ્વ, જે જઈ શકે છે. લોકપ્રવાહમાં આપણે રહીએ છીએ તેમાં તો આવુ કશું જોવા મળતું આપણે જોઈ શકીએ છીએ કે એરિક ફ્રોમના દૃષ્ટિબિંદુ જેવું નથી. શું ઈશ્વર કે એવી કોઈ દૈવી શક્તિ નથી જે આપણો હાથ જ કંઈક જૈનધર્મમાં પણ જોવા મળે છે. જૈનધર્મ પ્રવર્તક ભગવાન પકડી. પ્રવાહની ઉલટી દિશામાં લઈ જાય, ઊંચે ચઢાવે ? આનો મહાવીર, માણસને તારણહાર તરીકે જોવાની ઈશ્વરીય ભ્રમણામાંથી ઉત્તર મહાવીર સ્વાનુભવથી. આપ્યો છે. તે એ કે આ માટે પુરુષાર્થ બહાર લાવવાનો પ્રયાસ કરી, માણસના. સ્વના અહંકારની મર્યાદાઓનું જ આવશ્યક છે. જ્યાં લગી કોઈ પણ સાધક સ્વયં પુરુષાર્થ ન કરે, નિવારણ કરી, પ્રેમ, નિરપેક્ષતા અને નમ્રતા પ્રાપ્ત કરી; જીવનનો વાસનાઓના દબાણ સામે ન થાય - સંકા શàળ દ્રઢન છિન્વા આદર કરીને જીવવું એ જ જીવનનું ધ્યેય બની રહે અને માનવીને –એના આઘાત પ્રત્યાઘાતોથી ક્ષોભ ન પામતાં. અડગપણે એની સ્વ સ્વરૂપ પામવામાં મદદરૂપ થાય તેવા આચારનો બોધ આપે છે. સામે ઝૂઝવાનું પરાક્રમ ન દાખવે ત્યાં લગી એક પણ બાબત કદી | બધી ચર્ચાઈના સારમાં શ્રી યશોવિજયજીનાં ઉદગારો ઉલ્લેખનીય સિધ્ધ ન થાય. તેથી જ તો ભગવાન મહાવીર કહે છે, “સનકિમ છે, “વિ વર્મા ફુદ હું કોણ વિMિન્તિા ત૮ તહ વીરીયમ્અથતુિ. સંયમ, ચારિત્ર્ય, સાદી રહેણી-કરણી. એ બધા ફિલ્વે સા સા નિશિવાઈ || વધુ શું કહેવું ? જે જે રીતે માટે પરાક્રમ કરવું. ખરી રીતે મહાવીર એ નામ નથી, વિશેષણ છે. રાગ દ્વેષ નાશ પામે છે તે રીતે પ્રયત્ન કરવા એજ જિનેન્દ્ર દેવની જે આવું મહાન વીર્ય - પરાક્રમ દાખવે તે સહુ મહાવીર આમાં આજ્ઞા છે. સિધ્ધાર્થનંદન તો આવી જ જાય છે અને વધારામાં બીજા બધા એવા અધ્યાત્મ પરાક્રમીઓ પણ આવી જાય છે. શ્રીમદ્ ભાગવત સંદર્ભ ગ્રંથો :કહે છે કે તેમ પૃહીતુ પ્રવ્રનત: આપણી ભૌતિક અને નૈતિક, - ૧ પંડિત સુખલાલજી ‘દર્શન અને ચિંતન " ખંડ ૨. વૈચારિક અને આધ્યાત્મિક સંકુચિતતાઓની દીવાલોમાંથી બહાર 2 "The Sacred Book of the East "Vol. XXII. આવી. તપ અને સમાધિ દ્વારા અશક્યને શક્ય બનાવવાનું છે. જૈન દર્શન” આવૃત્તિ - ૯. લે. મુનિશ્રી ન્યાયવિજયજી પુરુષાર્થને બૌધ્ધમંગળસૂત્રમાં તું મંઝિમુત્તમ – એક ઉત્તમ મંગળ ૪ “ધર્મતત્ત્વચિંતન” લે. હિરાલાલ ઠક્કર., યુનિવર્સિટી ગ્રંથ તરીકે ઓળખાવેલ છે. જૈનસૂત્રમાંના “ચત્તારિ મંગલમ્” પાઠમાં જે નિર્માણ બોર્ડ, અમદાવાદ. ચોથુ મંગળ કહેવામાં આવ્યુ છે. તે આજ બાબત છે. 4 "Indian Philosophy" by Dr. Radhakrishnan. | મધુકર-મૌક્તિક જે બાજુ જીવનનું ત્રાજવું નમી જાય છે તે તરફની તેવી અનુભૂતિ સહજમાં જ થઈ શકે છે. વિપરીત દિશામાં નમે તો શ્રવણ, અનુસરણ અને અનુભવ પણ વિપરીત જ થાય છે. એ નિઃસંદેહ છે. સીધી દિશામાં નમવાથી અનુકુળ અનુભવ થાય છે. આમ ભવ, ભાવ અને સ્વભાવની વિવલીમાં ઉત્તરોત્તર વધતાં જતાં અપૂર્વ એવા દિવ્યપ્રકાશની પ્રાપ્તિ થતી દેખાય છે. i – જૈનાચાર્ય શ્રીમદ્ જયન્તસેનસૂરિ “મધુકર” બીમાર્જીના વિવાદનો પરિચાલી વિમારા 90 जयन्तसेन गायक वह, मानवता का ज्ञान ।। आज्ञाराधन से सदा, आत्म शक्ति अभिराम । www jainelibrary.org Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન દર્શન અને મહાત્મા મોલીનસ (શ્રી નેમચંદ એમ. ગાલા - એડવોકેટ હાઈકોટ) - કલિકાલસર્વજ્ઞ હેમચંદ્રાચાર્યને વંદન કરી, એમણે યોગશાસ્ત્રની ચિંતનથી ભારતનું ચિંતન પ્રભાવિત રહયું જ છે પણ પૌવત્યિ રચના કરતાં મંગલાચરણમાં વીતરાગ સર્વજ્ઞ અરિહંત યોગનાથ ચિંતને રોમ-ઈટાલી, ગ્રીસ વિગેરેને પણ પ્રભાવિત કયાં છે અને પૂરો. મહાવીરને સ્તુતિરૂપે નમસ્કાર કરતાં રચેલી પંક્તિઓથી આ લેખનો સંભવ છે કે મહાત્મા મોલીનસ જૈન અનુગમથી આકર્ષાયા અને પ્રારંભ કરૂં છું. એમના ચિંતનમાં જૈન દર્શન પ્રગટ થયું. પોતાની આગવી શૈલીમાં ‘નમો દુર્વારા ફિ વૈરિવાર નિવારણે I એનું નિરૂપણ થયું છે. આપણા માટે આ હર્ષની વાત છે. જીવનનાં अर्हते योगीनाथाय महावीराय तायिने ।। શાશ્વત મૂલ્યોનું પ્રક્ષેપણ એજ માનવ જીવનની ગરિમાનો વિષય છે. લગભગ ત્રણસો વર્ષ પહેલો ઈટાલીમાં મોલીનસ નામે ચિંતક 1 ખ્રિસ્તી સંપ્રદાયના પ્રભાવ છતાં મહાત્મા મોલીનસ સૃષ્ટિકત થઈ ગયા. એમના અભ્યાસીઓએ મોલીનસને ‘મહાત્મા’ કહી તરીકે કોઈ એક ઈશ્વરને માનતા નથી. એમણે ભગવાન શબ્દ નવાજ્યા છે. એમનાં જીવન વિષે કોઈ અધિકૃત માહિતી ઉપલબ્ધ પરમતત્વના કે સત્યના અર્થમાં વાપર્યો છે. એમણે લખ્યું છે ‘જ્યારે નથી. એમના ચિંતન વિષે મૂળ ઈટાલીયન ભાષામાં લખાયેલું પુસ્તક જીવ સત્ય તરફ દ્રષ્ટિ સ્થિર કરે છે, શાંતિથી, અને મૌનથી જગત પણ લઘુ કદનું છે. પાછળથી અન્ય ભાષાઓમાં થયેલ અવતરણો જૂએ છે, વિચાર કરતો નથી, બુધ્ધિથી તર્ક કરતો નથી, પોતાની પણ ઉપલબ્ધ નથી. ખાત્રી માટે બીજી સાબિતી માગતો નથી, જ્યારે તે સત્યને જ ચાહે પૂર્વની, ભારતની સંસ્કૃતિ અને વિચારધારાઓનો વ્યાપક છે, તેના ઉપર શ્રદ્ધા રાખે છે, તેનામાં આનંદ લે છે, ત્યારે જે દશા. પ્રભાવ પશ્ચિમના ચિંતકો. દાર્શનિકો પર પડ્યો જ છે. આ ઉત્પન્ન થાય છે, તે શ્રધ્ધાની પ્રાર્થના, ‘અન્ય સ્થળે એમણે કહયું છે | ચિંતક અને ગણીતા પાયથાગોરસ ભારત આવ્યા હતા. વિચાર ગમે તેટલા દૈવી લાગે છતાં વિચાર તે ઈશ્વર નથી. ઈશ્વરને અહિં પાર્શ્વ પરંપરાના શ્રમણોના સંપર્કમાં રહયા હતા. જૈન શ્રમણો. | નામ અને રૂપ હોતા નથી. પાસેથી. તેમણે આત્મા, પુનર્જન્મ, કર્મ વિગરે જૈન સિધ્ધાંતોનો | જૈન દર્શન એ મોક્ષના અખંડ ઉપદેશ કરતું અને વાસ્તવિક અભ્યાસ કર્યો હતો. તેઓ ભગવાન બુદ્ધના સંપર્કમાં પણ હતા. તત્વમાં જ જેની શ્રધ્ધા છે એવું દર્શન છે. છતાં નાસ્તિકના એવું મનાય છે. તેમણે માંસાહાર ત્યજી શાકાહાર અપનાવ્યો અને ઉપનામથી એનું આગળ ખંડન કરી ગયા છે, તે યથાર્થ થયું નથી. ગ્રીસ - યુનાનમાં શાકાહારનો પ્રચાર કર્યો અને શાકાહારી સંસ્થાની Castie sesj 89. Every soul is Divine. The mission સ્થાપના કરી. of Religious is the manifestation of Divinity in the soul આંગ્લ કવિ લોર્ડ આફ્રેડ પેનીસને જૈન અનુગમની દર્શન, વિવેકાનંદે ઘણા વર્ષના ચિંતન પછી તારવ્યું- નિષ્કર્ષ પર જ્ઞાન, ચારિત્ર્યની જ વાત કરતાં કહયું કે - ‘આત્મવિશ્વાસ, આત્મ પહોંચ્યા કે સૃષ્ટિકતાં કોઈ એક ઈશ્વર નથી. જૈન અનુગમની વાત જ્ઞાન અને આત્મ સંયમ આ ત્રણ વસ્તુઓ જ જીવનને પરમ શક્તિ પર વિવેકાનંદ પહોંચી આવ્યા. પરંતુ એમના અનુયાયીઓ - ભક્તો સંપન્ન બનાવે છે. તેનીસન આત્મસાક્ષાત્કાર કે આત્મજ્ઞાન પામેલા આ વાત કહેતા નથી અથવા જાણતા નથી. પુરુષ હતા. પરંતુ અંગ્રેજો કે પશ્ચિમના લોકોએ કોઈ કદર કરી ગાંધીજી પણ ‘સત્ય એ જ ઈશ્વર છે' એજ નિર્ણય પર છેલ્લે નહિં. મહાત્મા સ્વીડનબોર્ગે તમામ જૈન સિધ્ધાંતોને પ્રતિપાદિત સ્થિર થયા. કર્યા. પણ કોઈએ દાદ આપી નહિ ! સતું, સત્ય, ગમે તે નામથી જાણીએ, કહીએ એ કોઈ કાળે દરેક ચિંતનધારાઓના પ્રવાહ એકમેક સત્ સિવાયના બીજા કોઈ સાધનથી ઉત્પન્ન હોઈ શકે નહિ. પર તેમજ સંસ્કૃતિ પર આગવી અસર સત્ય સ્વયં ધર્મ છે. એટલે સત્યનો. કોઈ ધર્મ નથી, ન હોઈ પાડે છે. ક્યારેક સમરસ થઈ જાય છે, શકે. સત્યનો કોઈ સંપ્રદાય નથી. ક્યારેક સ્થાયી છાપ મૂકી જાય છે. અંધારાના ગમે તેટલા પ્રકાર કહીએ પણ તેમાં કોઈ એવો ઈશુની સદીથી અગાઉના સમયથી પ્રકાર નહિં હોય જે અજવાળારૂપ હોય. આવરણ- તિમિર જેને છે. ભારતનો વેપાર-વાણિજ્યનો સંબધ માત્ર એવા પ્રાણીની કલ્પનામાં રાત જણાતી નથી. અને સત્ નજીક દક્ષિણત્તમ એશિયાઈ દેશો જ નહિં સંભવતી નથી. પરંતુ ગ્રીસ અને રોમ સાથે નિકટતમ મહાત્મા મોલીનસ કહે છે “ વિચારથી જે કલ્પનાઓ આવે જે રહયો. દક્ષિણ ભારતમાં ગ્રીસ અને ખ્યાલ બંધાય, પછી તે ગમે તેવો સૂક્ષ્મ હોય તો પણ તે અપૂર્ણ છે. શ્રી નેમચંદ એમ. ગાલો રોમના થાણા. પણ હતા. ગ્રીક ફિલસૂફી- તેનાથી સંતોષ માનવો નહિ. - ગાંધીજી | દાનધરોનાર અિનિન્દન , જરા વિભાગ 9૧ धर्म बड़ा संसार में, दया क्षमा अरूदान । जयन्तसेन यही धरो, स्वपर होत कल्याण || www.jainelibrary org Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમદ્ કહેતા સતુ તે ભ્રાંતિ નથી. ભ્રાંતિથી કેવળ જુદું હોય એવા સુખ ને સુખ જ કેમ કહી શકાય ? કલ્પનાથી પર છે. સતુ એ કાંઈ દૂર નથી પણ દૂર લાગે છે. અને મોલીનસ કહે છે ‘આવું સુખ તે ભગવાનનો અલૌકિક ગુણ એ જ જીવનનો મોહ છે. જે કાંઈ છે તે સતું છે. સરલ અને સુગમ પણ છે. છે. તેની પ્રાપ્તિ સર્વત્ર છે. અને તે પ્રાપ્તિનો ઉપાય છે. કાળની તેને આત્મા શુદ્ધ ચૈતન્ય સ્વરૂપ અને આનંદ સ્વરૂપ છે. સુખ અને બાધા નથી. તે સર્વનું અધિષ્ઠાન છે. ગમે તે સંપ્રદાયના-દર્શનના દુઃખના ઢંદથી પર એવી. સહજ આનંદની અવસ્થા એ પરમાત્મા મહાત્માઓનું લક્ષ્ય એક સતુ છે. વાણીથી અચ્યું હોવાથી મૂંગાની અને આત્માના ગુણો છે. અવસ્થા છે. જે માનવીની અંદર જ છે શ્રેણીએ સમજાવ્યું છે. જેથી કથનમાં કંઇક ભેદ લાગે છે, વાસ્તવિક અને પામી શકાય છે. રીતે ભેદ નથી સમ્યજ્ઞાન જૈન સુત્રો કહે છે કોઈ પણ માર્ગથી આધ્યાત્મિક જ્ઞાન મહાત્મા મોલીનસ કહે છે સંપાદન કરવું એ જ્ઞાનીઓનો ઉપદેશ છે. દિવ્ય જ્ઞાન - ભગવાનની પરિપૂર્ણતાનું અને વસ્તુઓનું સત્ય પ્રત્યે જ પ્રીતિ. સત્ય પ્રત્યે જ શ્રધ્ધા અને પરમતત્વમાં અંદરથી મળતું નિત્યાજ્ઞાન જે કલ્પના ન કહેવાય પણ સાક્ષાત્કાર શ્રધ્ધાની વાત મોલીનસે કહી છે. રૂપ કહેવાય” શાશ્વત સુખ | આને જ આપણે સમ્યકજ્ઞાન અને સમ્યક્દર્શન અથવા સમક્તિ મહાત્મા મોલીનસે પાયાની વાત અધૂત કહી છે. આ કહીએ છીએ. યથાર્થ જ્ઞાનને જ જ્ઞાન કહીએ છીએ. મિથ્યાજ્ઞાનને કાયમનું સુખ ત્યારે મળે, જ્યારે સુખ માટે કાયમ રહે એવી અજ્ઞાન કહીએ છીએ. વસ્તુ માણસને મળે. તે ભગવાનનો અલૌકિક ગુણ પણ છે.” જે ઉપાયથી સમયજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય, તે ઉપાયની ચિંતા | ઉત્તરાધ્યયનમાં કહેવું છે “રાગ અને દ્વેષનો સર્વથા ક્ષય કરવી, તેનું નામ બોધિદુર્લભ ભાવના. કેમકે તેવું જ્ઞાન પામવું કરવાથી આત્મા એકાન્ત સુખમય મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. મુકેલ છે.. વળી કહયું છે “રાગ અને દ્વેષ બેઉ કમબીજ છે” મોક્ષ એ આત્મા શુદ્ધ, બુદ્ધ, ચૈતન્ય સ્વરૂપ અને જ્ઞાન સ્વરૂપ છે. આત્માની સહજ અવસ્થા છે” સમ્યક્દર્શન દશવૈકાલિક સૂત્રમાં કહ્યું છેઃ મહાત્મા મોલીનસે પ્રાર્થના શબ્દ મૌનભાવના અર્થમાં પ્રયોજ્યો ષનું છેદન કરો અને રાગને દૂર હઠાવો. આમ કરવાથી છે. મૌન ભાવમાં ભક્તિ અને ધ્યાનનો સમાવેશ કર્યો છે. તેમજ સંસારમાં સુખી થઈ જશો” શ્રદ્ધા અને ઈન્દ્રિય નિગ્રહનું પરિશીલન કર્યું છે. આચાર્ય વીરસેનસ્વામીએ સુંદર રીતે કહયું છેઃ “ઉચ્ચ મોલીનસ કહે છે, “મૌન ત્રણ પ્રકારનું છે. એક શબ્દનું, બીજા આત્મદશાની પ્રાપ્તિ સંયમ વિના થતી નથી. જે સુખ માનવીમાં છે, ઈચ્છાનું. અને ત્રીજા વિચારનું. પહેલું પૂર્ણ છે. પહેલામાં જીવ તે સુખ આત્મજ્ઞાન અને સંયમ વડે પ્રગટ કરવાનો પુરુષાર્થ દરેક નીતિમાન થાય છે. બીજામાં તે ઈચ્છા છોડી શાન્ત થાય છે. માણસનું પરમ ધર્મ - કર્તવ્ય છે. આ જ શાશ્વત સુખ છે.” ત્રીજામાં તેની વૃત્તિ અંતર્મુખ થાય છે. ન બોલવાથી, ઈચ્છા ન | ભારતીય જીવન-મિમાંસકોએ ઉપભોગ કરતાં ત્યાગ અને કરવાથી, વિચાર ન કરવાથી સત્ય અને પૂર્ણ એટલે ચમત્કારી મૌન સંયમ પર વધારે ભાર મૂક્યો છે. સંયમમાં ઉલ્લાસ છે. ભોગમાં પ્રાપ્ત થાય છે. ત્રણે સાથે મળી ‘આત્માનું મૌન બને છે, કે જેમાં સરવાળે ખેદ જ નીપજે છે. ભગવાન જીવ સાથે વાત કરે છે. અને પોતે જીવમાં પ્રવેશ કરે છે ઈન્દ્રિયાર્થ પદાર્થ દ્વારા મળતું સુખ સ્થળ અને ક્ષણિક છે. તેમજ તેની અંદરના ઊંડાણમાં તેને પૂર્ણ જ્ઞાન શીખવે છે. બલ્ક સુખાભાસ છે. એવી પ્રતીતિ થાય છે. ત્યાગ અને સંયમમાં - જ્ઞાન અને ભક્તિ વિશે સમજણ આપતાં મહાત્મા મોલીનસ રહેલાં સુખ-શાન્તિ વધુ ચડિયાતાં છે, એવો જેને અનુભવ થયો કહે છે હોય, તે જ સંયમનું સાચું મૂલ્ય સમજી શકે. સંયમ એટલે સમ્યકુ “કેટલાક જ્ઞાન માર્ગે જાય છે અને કેટલાક ભક્તિનો માર્ગ યમ અથતિ રસ અને રુચિપૂર્વક સાચી શ્રધ્ધાથી ઉચ્ચત્તર ધ્યેય પસંદ કરે છે. જ્ઞાનમાર્ગવાળાને શરણભાવ ગમતો નથી કારણ કે માટે સ્વેચ્છાએ સ્વીકારેલું નિયંત્રણ સંયમ એટલે સમ્યક્ યમનું તેમને શરણભાવમાં જુદાપણું લાગે છે. તેઓ જગતના વિષયો પાલન અથવા યમનું સમ્યક્ પ્રકારે પાલન કરવું. - પોતાનામાં દાખલ ન થાય તેની સંભાળ રાખે છે. પણ મનની સુખ પ્રાપ્તિ માટેના ઉપકરણો, અવલંબનો જો અલ્પજીવી, સંભાળ રાખવામાં તેમનું હૃદય એવું બંધ થઈ જાય છે કે ભગવાનનો ઝડપથી ઓગળી જનાર એવા હોય, તો એના આધારે ઊભું કરેલું અલૌકિક ભાવ તેમના હૃદયમાં દાખલ થઈ શકતો નથી. જીવની સુખનું માળખું પલકવારમાં ધરાશયી થતાં સમય નથી લાગતો. પૂર્ણતા, ભગવાન વિષે બહુ બોલવામાં કે ઘણાં વિચાર કરવામાં કાયમ રહે એવી વસ્તુઓ માણસ પ્રાપ્ત કરે તો કાયમનું સુખ નથી, પરંતુ તેના પર અત્યંત પ્રેમ કરવામાં છે. પૂર્ણ પ્રેમ બહાર પામે. દશવિવામાં નથી. આ પ્રેમ પૂર્ણ શરણભાવથી અને અંદરના મૌનથી. શ્રીમદ્ સુંદર શબ્દોમાં કહયું છેઃ “પશ્ચાત દુઃખે તે સુખ નહિં” પ્રાપ્ત થાય છે. જે સુખની પાછળ દુઃખ એજીનને લાગેલ ડબ્બાની જેમ આવતું જ્યારે ગુપ્ત રીતે સાધકના હૃદયમાં એકલા તેની સાથે જ પાણી વગરના મારી ૭૨ धर्म बिन्दु को छोडकर, चला तनिक जो दूर । जयन्तसेन रहे सदा, भाव भक्ति तस क्रूर ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બોલવાની. ભગવાનની ઈચ્છા થાય છે ત્યારે ભગવાન તેને અંદરનું ઈચ્છા રાખે છે, ભગવાનની ઈચ્છા રાખતા નથી. તેઓ સત્ય એકાન્ત આપે છે અને ઉપર કહેલ ચમત્કારી મૌન ઉત્પન્ન કરે છે. દૃષ્ટિથી ભગવાનને શોધતા નથી તેથી તેઓને ભગવાન મળતા. તારે જો ભગવાનનો મધુર શબ્દ સાંભળવો હોય તો આ રસ્તે જા. નથી. અને આધ્યાત્મિક આનંદ પણ મળતો નથી. | આચારાંગમાં મૌનનો, અલ્યવાણીનો ખૂબ મહિમાં બતાવ્યો ભગવાન મહાવીરે સ્પષ્ટ કહયું છે “સાધક ચાહે જ્ઞાનની સાધના કરે, ધ્યાનની કરે, તપની કરે પણ કશી કામના વિના કરે. ભગવાન મહાવીરે કહયું છે “જેની શ્રદ્ધા. શાસ્ત્રપૂર્વકની નથી ને આ લોકના સુખની કામનાથી ન પરલોકના સુખની કામનાથી, ન • તેને સંયમાચારણ સંભવી શકતું નથી. જે સંયમી નથી. તે મુમુક્ષુ યશકીર્તિ પામવાની કામનાથી પ્રેરિત થઈ સાધના કરે.. સાધના નથી. શ્રદ્ધા વિનાના માત્ર શાસ્ત્રજ્ઞાનથી મુક્તિ સંભવતી નથી. તે જ એકાન્ત નિર્જરા અર્થે કરે. પ્રમાણે આચરણ વિનાની માત્ર શ્રદ્ધાથી પણ કાંઈ વળતું નથી.” અપરિગ્રહ | સદગુરુ સતશાસ્ત્ર અને સધર્મ ઉપરની શ્રદ્ધાએ રત્નત્રયી 1 અપરિગ્રહની વાત કરતાં અત્યંત સંક્ષેપમાં મોલીનસે મૂળ જેટલાં જ મહત્વનાં છે. વાત કરી છે. | મોલીનસ કહે છે “નમ્ર થઈ ભક્તિ કરવાથી તારા દોષ “જે માણસ પોતાને ખોવાનું શોધતો નથી. તે પૂરેપૂરો કોરો વખતે, તારી અપૂર્ણતા વખતે પણ તારી શ્રદ્ધા ચાલુ રહેશે. બન્યો નથી. આધ્યાત્મિક રસ્તે જનારે બહારની વસ્તુઓનો ડહાપણ ‘ભગવાન સાથે વિનમ્રતા ભરેલી વાતચીત તેનું નામ પ્રાર્થના. અને વિવેકપૂર્વક ઉપયોગ કરવો જોઈએ. આવો જીવ સાદી જગ્યા તે બે પ્રકારની છે. એક ધ્યાનયુક્ત, બીજી શ્રદ્ધાયુક્ત, સત્યને જ શોધે છે. સાદાં કપડાં અને સાદી વસ્તુઓ વાપરે છે. તેની પણ ચાહવું, તેના પર શ્રદ્ધા રાખવી. આનંદ લેવો જે શ્રદ્ધાની પ્રાર્થના. અસર એને થતી નથી. તે એમ જ માને છે કે હલકામાં હલકું પણ | મોલીસનસે જ્ઞાન - ભક્તિ - શ્રદ્ધાની વાત અનોખી રીતે કહી પોતે લાયક છે તેના કરતાં વધારે છે. અને તેને પણ પોતે લાયક નથી. આ રસ્તે જીવનો ભાવ જાય છે. જે જીવને પૂર્ણ થવું હોય | “વાંચવાથી મોઢાને ખોરાક મળે છે. ધ્યાન તે ખોરાક ભાંગે તેણે વાસના છોડવી, પછી પોતાને છોડવો પછી ભગવાનની મદદથી છે. પ્રાર્થનાથી તેની સુગંધ નીકળે છે. અને શ્રદ્ધાથી તેની ખરી - શૂન્ય થઈ જવું.” મધુરતા મળે છે. તે મધુરતા. હૃદયને તાજું કરી નવો આનંદ આપે મોલીનસે સ્થળ અને સૂક્ષ્મ બન્ને પરિગ્રહની વાત કહી.. છે.'' પરિગ્રહ માનવીને બાહય વસ્તુઓનો ગુલામ બનાવે છે. જૈન અનુગમમાં સાધનાના બે પ્રકાર છે : એમને કહયું “વસ્તુઓ માનવીની પીઠ પર સવાર થઈને બેસી “(૧) પરમાત્મ ભક્તિ અને (૨) ત્યાગ. ગઈ છે.” ધર્મની પ્રાપ્તિ ભાવ વિના થતી નથી. ભક્તિ પરંપરાએ | માત્ર વસ્તુ સંગ્રહ નહિં પણ કોઈ પણ વસ્તુ માટેની મૂછ જ્ઞાનનો અને જ્ઞાન પરંપરાએ મોક્ષનો હેતુ બને છે. અને આસક્તિ એ પણ પરિગ્રહ છે. પરમાત્મા અને આત્માનું એકરૂપ થવું એ પરાભક્તિની છેવટની પરિગ્રહને મૂછ કહી છે. આંતર પરિગ્રહમાંથી જ બાહય હંદ છે. પરિગ્રહ જન્મે છે. | શાસ્ત્રોમાં માર્ગ કહયો છે, મર્મ નથી કહયો. મમ ભક્તિથી સૂત્રકૃતાંગના પ્રથમ અધ્યાયમાં સૂત્ર છે. “પરિગ્રહને કારણે જ નિર્મળ થયેલ હૈયામાં સહજપણે ઉઘડે છે. પાપ થાય છે, હિંસા થાય છે, ભય અને અસત્યનો આશરો લેવાય ઉત્તમ માં ઉત્તમ સુખ છે.” મોલીનસ બીજી એક મુખ્ય વાત આગવી શૈલીમાં કહેતાઃ પ્રત્યેક પદાર્થનો અત્યંત વિવેક કરી. આ જીવને તેમાંથી. “મારે જુઠું સુખ નથી જોઈતું, પણ જે ઉત્તમમાં ઉત્તમ હોય તે વ્યાવૃત કરવો એમ નિગ્રંથ કહે છે. જ જોઈએ છે. એ માટે હું બધું દુઃખ ખમવા તૈયાર છું.” અંતર્મુખ દૃષ્ટિ | રાગ-દ્વેષ વિ. કષાયોનો ક્ષય, કર્મોનો ક્ષય, એજ મુક્તિ એજ મોલીનસ કહે છે “ જીવે બહિવૃતિઓ છોડી જીવનમાં સ્થિરતા મોક્ષ. સહજ સ્વરૂપ જીવની સ્થિતિ થવી તેને વીતરાગ મોક્ષ કહે આણવી જોઈએ. અંતર્મુખ વૃત્તિની ટેવ પાડવી. તેમાં અનેક ગણું છે. આ જ છે મોલીનસનું ઉત્તમ સુખ; જેને માટે ભગવાન મહાવીરે સામર્થ્ય છે. અંતર્મુખ વૃત્તિથી. જે સાધના થાય તેમાં શરણભાવ ઘોર દુઃખ પરિષહ અને ઉપસર્ગ સહયાં.. બધાં દુઃખ ખમ્યાં. સારો રહે છે. શ્રધ્ધાથી મૌનવૃતિથી તે વધે છે. અને ચાલુ રહે છે. આ સાધના પથમાં લાલબત્તી ધરતાં મોલીનસ કહે છે પરમાત્માનો અનુગ્રહ આવા આત્મામાં જણાય છે. આવો જીવ શ્રદ્ધા. આજકાલ ઘણા સાધક દુઃખી રહે છે. કારણ કે તેઓ અને ભક્તિભાવથી રોજ થોડા કલાક અંતર્મુખ રહે તો હંમેશાં પોતાના સ્વભાવની ટેવને સંતોષ આપવા માટે જ અભ્યાસ કરે છે. ભગવાનની નજીક રહે છે. બધા ધર્મના સારા ધર્મગુરુઓએ આ જ ઘણા માણસ ભગવાનને શોધે છે. પણ તેને મેળવી શકતા નથી. મત પ્રતિપાદન કર્યો છે. ખરી. પ્રાર્થના એટલે આત્માની આત્માકાર કારણ કે સરળ, શુદ્ધ અને સત્ય હેતુને બદલે માત્ર પોતાની વૃત્તિ થવી. ઉત્તમમાં ઉત્તમ આધ્યાત્મિક અને ખરો. રસ્તો જે જીવ જિજ્ઞાસા પૂરી કરવા તે રસ્તે જાય છે. તેઓ આધ્યાત્મિક સુખની અંદરના માર્ગે ગયા હોય તેને મળે છે. આ Inward Journey છે. ના નામના રાકીના લોભામાં ૭૩ धर्म सिखाता है यहाँ, मैत्री करूणा भाव । जयन्तसेन विमुक्ति पथ, मिलता धर्म प्रभाव ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છે પણ મહાત્માઓના સ્વરૂપમાં દાખલ થવાની ઈચ્છા રાખતા હોય તેઓએ છે. આવા તપનું વધારે ખરાબ પરિણામ એ છે કે તેથી સાધકનું માત્ર શ્રદ્ધાના જોરથી મહાત્માનું મનુષ્ય શરીર જોવું. તેમનું જીવન હૃદય પડોશી પ્રત્યે, અને પોતાના પ્રત્યે દુર થતું જાય છે. તે જોવું. તેમના પર પ્રેમ કરવો, તેમના પર વિચાર કરવો, જે લોક આત્માનો ખરો સ્વભાવ નથી. સ્વભાવ કડક થાય છે. પડોશીઓના કલ્યાણ માટે જન્મ લે છે, જે દુઃખ ભોગવે છે, તે મહાત્માઓ પણ દોષ કાઢે છે. તેઓની ખામી જુએ છે. તેઓ આવું દુઃખ મોક્ષનો માર્ગ બતાવે છે " ખમતા નથી તેથી પોતાને મોટો માને છે. બીજા કરતાં પોતાને મોટો. in જૈન અનુગમમાં તિર્થંકર ભગવાનની આપણે ગુણપૂજા અને સમજવાથી. તપનું અભિમાન આવે છે અને સાધક વધારે પડે છે. સ્તુતિ કરીએ છીએ અને એવા ગુણ. આપણામાં પણ વિકસે એવી બીજા જેઓ ઓછું તપ કરતાં હોય અને જેના પર ભગવાનનો. ભાવના ભાવીએ છીએ. બાહય વૃત્તિઓ સંકોચી આત્મા તરફ વાળી. અનુગ્રહ થયો હોય, તેની અદેખાઈ કરે છે. બહારનું તપ દેખાડી આત્માનું ચિંતન કરવું, આતમ ભાવના ભાવવી. એનું ખૂબ મહત્વ - ઉભરા અને વિચારના તરંગ પાછળ દોડે છે, એમ માનીને કે આવી વિધિ માર્ગ જૈન સૂત્રોમાં દેશવિવામાં આવેલ છે. ક્રિયાથી જ ભગવાન તેની અંદર રહે છે. આ બહારનો રસ્તો છે, જીવ સમસ્ત વિશ્વનું પરિભ્રમણ કરી આવે, પણ જો અંતરની સારો છે, પણ શરૂઆતવાળો છે. તે રસ્તે પૂર્ણતા મળતી નથી. જડ - અંદરની યાત્રા તરફ ડગ ન માંડ્યા, તો તમામ પર્યટન વ્યર્થ છે. : ક્રિયાઓ આધ્યાત્મિક ઈચ્છાની શુદ્ધિ ને વિપ્ન પહોંચાડે છે.” સાધનાની. શરૂઆતમાં સાધકને કેટલાક દુઃખ દે છે. પણ શ્રીમદ્દે સ્પષ્ટ ગાયું છે. આ જ્યારે ઉત્તમ જ્ઞાનમાં પ્રવેશ કરે છે ત્યારે બીજા માણસ. તેને દુઃખ “કોઈ ક્રિયા જડ થઈ રહયો, શુષ્ક જ્ઞાનમાં કોઈ, માને માર્ગ આપે છે ત્યારે પણ પોતાનો ઉત્તમ ભાવ છોડવો ન જોઈએ, બીજા મોક્ષનો, કરૂણા ઉપજે જોઈ.” મોલીનસે ધ્યાન પર પણ મર્યાદિત દુઃખ આપે તેમાં સંતોષ માનવો જોઈએ” મોલીનસે કહયું. ભાર મુક્યો છે. મોલીનસે વળી. કહયું “કેટલીક વખત અમુક તમામ દુઃખ પરિષહ સમતા. ભાવે - ઉત્તમ ભાવ છોડ્યા સંયોગોમાં અમુક વ્યક્તિ માટે અમુક વૃત્તિઓ દાબવા માટે બાહય. વગર વેઠવાની વાત જૈન અનુગમે કરી છે. એનાથી કર્મ ઓછા તપની જરૂર પડે ત્યારે તેમાં વિવેક હોવો જોઈએ” ‘બાહય તપ થાય છે, એ સંતોષ પણ હોય છે. દેખાવ માટે ન કરવો જોઈએ’ શ્રીમદ્દે કહયું છે. “ઉપવાસ આત્મા આત્મા અર્થે કરવાનો છે ઉપવાસ કરી તેની વાત પણ બહાર ન કરો.” આત્મા વિષે મહાત્મા મોલીનસે કહ્યુ છે ‘આત્મા બધા શ્રીમદ્દે તપના ભયસ્થાનનો સંકેત પણ આપી દીધો છે.. કર્મથી અલગ છે. અસંગ છે. પણ તેનાથી કોઈ કર્મ અલગ નથી. દોષ આવા બે પ્રકારનો સ્વભાવ એક આત્મામાં હોવાથી આત્મસાક્ષાત્કારમાં | મહાત્મા કહે છેઃ “જ્યારે તારાથી કંઈ ભૂલ થાય, ત્યારે તે મુશ્કેલી નડે છે. આત્માના અસંગપણાની જ્ઞાનથી ખબર પડે છે. ગમે તેવી હોય, તે વિષે મનમાં વિક્ષેપ કરવો નહિં. તે નબળા પણ તેનો સવત્મિભાવ ભગવાનના અનુગ્રહથી મળે છે. અનુભવને સ્વભાવનું જ પરિણામ છે. દોષ થાય અને ક્રોધ આવે તો સમજવું અંતે માત્ર એક સવત્મિભાવ રહે છે. અને સવત્મિભાવ અસંગત્ય અંદર હજી અભિમાન છે. એવો પુરુષાર્થ કરવો કે દોષ ઓછા વિના આવતો નથી. જે સ્વરૂપ સર્વથી. અસંગ છે, તે જ સ્વરૂપ છે''. થાય. જેમ જેમ ભૂલ થાય અને બીક લાગે તેમ વધારે હિંમત જૈન અનુગમનાં દ્રવ્યાનુયોગની. આત્મા વિષેની વાત ટૂંકમાં પકડવી જોઈએ દુઃખનો વિચાર ન કરવો જોઈએ. જે માણસ મોલીનસે રજુ કરી. રસ્તામાં પડી જાય છે, અને પોતાના પડવાનો જ વિચાર કર્યા કરે. કર્મ તે શું મુર્ખ નથી ? શાણો માણસ વખત ગુમાવતો નથી. તે ફરીથી. મહાત્મા મોલીનસે કર્મ કરવાના સ્વતંત્રપણાની વાત કહી લડે છે. તરત ઊભો થાય છે. અને જાણે કે પડ્યો જ નથી. એમ અને ગીતાના સૂત્ર પ્રમાણે કહયું કે કર્મ કરતી વખતે ફળનો વિચાર આગળ વધે છે.” મહાત્માએ ભૂલ થાય ત્યારે પણ શ્રદ્ધા અને ન રાખવો જોઈએ. એનાથી આગળ એક ડગલું વધીને મહાત્માએ નમ્રતા રાખી. શાન્તિ મેળવવાનો અનુરોધ કરતાં. છેલ્લે કહયું છે કહયું કે “કર્મ કરવાનો પોતાનો અધિકાર છે, એ વિચાર પણ જવો “આપણે ગુણથી સુધરીએ છીએ એટલું જ નહિં પણ દોષથી પણ. જોઈએ. અધિકારના વિચારમાં પણ અહંકાર રહેલો છે.” સુધરીએ. દોષને ગુણદ્રષ્ટિથી જોવા” મહાત્માએ આત્મનિરીક્ષણ અને ગુણગ્રાહી દૃષ્ટિ કેળવવાને તેમજ પુરુષાર્થને સમર્થન આપ્યું છે. મહાત્માએ નમ્રતા, વિનય, પશ્ચાતાપ, સ્વાધ્યાય, જ્ઞાન, ધ્યાન જૈન સૂત્રો અનુસાર દોષ ઓળખી દોષ ટાળવો અને એવાં અને તપની. પણ વાત કહી. છે. દોષ ફરી ન થાય તેનો સંકલ્પ કરવો એ જ પ્રાયશ્ચિત. આપણે જાણીએ છીએ કે બાહય તપ કે બાહય ક્રિયાઓ અપ્રમાદ આત્યંતર તપની પુષ્ટિ માટે જ હોય છે. મહાત્મા મોલીનસે કહયુ. “ભગવાન માટે વખત ન રાખવો તે | મહાત્મા મોલીનસે કહયુ છે “જે તપ અંતર્મુખ વૃત્તિથી જ માત્ર પ્રમાદ છે. આલસ્ય છેભગવાન માટે વખત રાખવો એ પ્રેરાએલ ન હોય, તેનાથી અહંકાર આવે છે,” વળી એક લાલબત્તી કામ બધા કામ કરતાં વધારેમાં વધારે જરૂરી છે. તે તરફ લક્ષ. ધરતાં મહાત્મા કહે છે માત્ર બાહથે - ક્રિયાના તપથી, એટલે કે રાખતાંવખત નકામો જાય. એ. મોટામાં મોટો ઉદ્યોગ છે."_ ખોટા તપથી સાધક માત્ર અહંકાર વધારી. વાવેલું પણ ઉખેડી નાખે - હરીસિયન ગાયા सच्ची रख आराधना, सच्च मानव धर्म। जयन्तसेन सरल सुखद, करते रहो सुकर्म ॥ Jain Education Intemational Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન સૂત્રો અનુસાર ‘મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય અને તે તેના સુખ માટે છે.” યોગ (મન વચન અને કાયાની ક્રિયા) એ કર્મબંધનનાં પાંચ જન્મ-પુનર્જન્મ કારણોમાં એક કારણ છે પ્રમાદ. આજ તંતુ આગળ વધારતાં મહાત્મા કહે છે. “ કાળનો અનેકાનેક વાર ભગવાન મહાવીરે ગૌતમને અનેક સંદર્ભમાં આધાર માણસની વૃત્તિ પર છે. માણસ પોતાનો કાળ ફેરવી શકે કહયું કે ‘હે ગૌતમ ક્ષણ માત્રનો પ્રમાદ ન કર.' એમણે સ્પષ્ટ કહયું છે. માનસિક સેવાથી ભગવાનનો અનુગ્રહ મળે, તો એક ક્ષણમાં કે જે શ્રમણત્વ સાધના માટે ઉસ્થિત થયો છે. એને તો ફરી પ્રમાદ ભગવાનના નિત્યધામમાં જઈ શકે છે ! ત્યાં કાળ ન હોવાથી એટલે કરવો જ ન જોઈએ. કે તેની અસર ન લાગવાથી તે જીવને જન્મ-મરણ નથી. મનનાં. સૂત્રકૃતાંગમાં કહયું છે “ પ્રમાદ કર્મબંધનું કારણ છે. અને સંકલ્પ - વિકલ્પની ઉત્પત્તિ અને લય તે જીવના જન્મ-મરણ છે. અપ્રમાદ કર્મથી મુક્ત થવાનું તથા કર્મબંધ ન થવા દેવાનું કારણ સંકલ્પ બંધ થાય એટલે સૂક્ષ્મ જન્મ બંધ થાય, અને તેની સાથે સ્થૂળ જન્મ બંધ થાય. તેને માટે અંદર ભગવદ્ભાવ ઉત્પન્ન કરવો તથાગત બુદ્ધ પણ કહયું ‘‘પ્રમાદિ મૃત્યુનો માર્ગ છે. અને જોઈએ. મહાત્મા મોલીનસે મોક્ષ-મુક્તિની ધ્યેયની વાત કહી દીધી. અપ્રમાદ અમૃત - અમરત્વનો માર્ગ છે. - સંત મોલીનસે આત્માની. અસંગતા, કર્મસિદ્ધાંત, તપ, ધ્યાન, ઉત્તરાધ્યયનમાં લખ્યું છે " પ્રવાર્જિત થઈ જે કોઈ યથેચ્છ જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર્ય, જન્મ-પુનર્જન્મ, અનેકાંત દૃષ્ટિ, પુરુષાર્થ, ખાઈ પીને બસ આરામથી સૂઈ જાય છે. તે પાપશ્રમણ કહેવાય ભક્તિ અને જ્ઞાન વિષે જૈન દર્શનના જ સિદ્ધાંતો પોતાની આગવી. છે.' શૈલીમાં રજુ કર્યા છે. આચારાંગમાં કહયું છે કે “ જે પ્રમાદી છે, તે હિંસક છે. જ્યાં પ્રાર્થના પ્રમાદ છે, ત્યાં નિત્ય હિંસા હોય છે. સદ્વર્તન સગ્રંથ અને મોલીનસે કહે છે કે “પ્રાર્થના કરવાથી મન ઊંચું ચઢીને સત્સમાગમમાં પ્રમાદ કર્તવ્ય નથી.... પ્રમાદમાં ભય પણ રહેલો ભગવાન પાસે પહોંચે છે. ભગવાન જ બધી રચેલી વસ્તુઓથી પર છે, ઉપર છે. અને જો જીવ બધાથી ઊંચો ન થાય, તો તેને જોઈ સમાધિ શકે નહિં, તેમજ તેની સાથે વાત કરી શકે નહિં. આવી. નમ્ર મહાત્માએ સમાધિ અવસ્થાની પણ વાત કહી છે. જ્યારે વાતચીત તે પ્રાર્થનાઃ જેમાં ધ્યાનયુક્ત પ્રાર્થના એટલે જીવ જ્યારે આત્મપરિણામની સ્વસ્થતાને જ તીર્થકર સમાધિ કહે છે. પોતાની લાગણીઓથી. અને એકાગ્રતાથી ભગવાનના ચમત્કારનો અનેકાન્ત દ્રષ્ટિ વિચાર કરે છે, તેનું સત્ય અને તેની વિગતવાર રચના સમજવાની મહાત્મા મોલીનસ કહે છે " અને સંજોગો માપવાની મહેનત કરે છે, ત્યારે તે ધ્યાનયુક્ત પ્રાર્થના જગતમાં અજ્ઞાન, દુઃખ વિગેરે અનુભવમાં આવે છે. તેનું કહેવાય છે.” કારણ જગતનો સ્વભાવ નથી પણ જોનારની સંપૂર્ણ સ્થિતિ એટલે જૈન દશને નવતત્ત્વનું જગતની. રચનાના સ્વરૂપનું જ્ઞાન આવશ્યક જોનારના અહંકારથી ઉત્પન્ન થતી. ખોટી દ્રષ્ટિ છે. જે જે માણસનું ગણ્યું છે આચાર્ય ઉમાસ્વાતિએ તત્ત્વાર્થસૂત્રની અદ્ભુત રચના કરી. જેવું દૃષ્ટિબિંદુ તેવા લોકમાં તે રહે છે. પુરાણો અને જૈન તત્વ જ છે. મહાત્મા કહે છે “ધ્યાનમાં શ્રદ્ધા કરતાં વધારે મહેનત છે. દર્શનમાં પણ લોકાલોક પ્રદેશોનો ઉલ્લેખ છે જ. ‘લુક’ એટલે જોવું. ધ્યાન વાવે છે. શ્રદ્ધા લણે છે. ધ્યાન શોધે છે, શ્રદ્ધા મેળવે છે, દેખાવું અંગ્રેજી અને સંસ્કૃતમાં ‘લુક’ નો એ જ અર્થ થાય છે. અને ધ્યાન ખોરાક તૈયાર કરે છે, શ્રદ્ધા ખાય છે.” એ જ અર્થમાં 'લોક' એટલે દ્રષ્ટિબિંદુ સમજવાનું છે પ્રા. આઈન્સ્ટાઈને | વળી. મહાત્મા કહે છે. “જે જીવ પોતાના જીવનમાં પહેલેથી આને સમર્થન આપ્યું છે. તે મત પ્રમાણે જગતને અમુક પ્રમાણે છેલ્લે સુધી ધ્યાનમાં કે તર્કમાં જ મંડ્યા રહે છે. તેની સ્થિતિ દેખાવાનો નિયત સ્વભાવ નથી.... જેવો જોનાર માણસનો સ્વભાવ. દયાજનક છે. ક્રિયાઓ વધારવી નહિં. તેમજ વારંવાર પોતાની તે પ્રમાણે જગત તેની દૃષ્ટિએ દેખાય છે. જોનાર માણસ દેશ અને બુદ્ધિથી આશાઓ બાંધવી નહિં. કારણકે તે આધ્યાત્મિક ઈચ્છાની કાળમાં બંધાઈને જાએ છે. તેથી જગત તેને દેશ અને કાળથી શુદ્ધિને વિબ કહે છે. જ્યાં સુધી અંદરનો સૂર્ય ઉગે નહિં, અને બંધાયેલો લાગે છે, પણ દેશ અને કાળ નિયત નથી. જોનાર ભગવાન તેનો પોતાનો આનંદ આપે નહિં ત્યાં સુધી તિતિક્ષા પોતાનો દેશ કાળ ફેરવી શકે છે. સમાધિ અવસ્થામાં જીવ મોટા રાખવી.” પ્રદેશમાં રહેતો હોય, અથવા પોતે મોટો હોય, તેવો અનુભવ લઈ મહાત્મા કહે છે “ આધ્યાત્મિક માણસ બે પ્રકારના હોય છે. શકે છે. અને સમાધિનો કાળ માણસના કાળ જેવો રહેતો નથી.” એકને સિદ્ધપુરુષોનાં આત્માકાર ગમે છે. તેનું ધ્યાન કરે છે. બીજા એક દાખલો આપતાં. મહાત્મા કહે છેઃ “જ્યારે કોઈ કુમારીના એમ કહે છે કે ખરી પ્રાર્થના એટલે આત્માની. આત્માકાર વૃત્તિ થવી. વિવાહ થાય છે, ત્યારે વિવાહ સમારંભમાં ભેગાં થયેલા બધાં અને તે વૃત્તિથી શાંત રહેવું, પણ ચમત્કારને ઉત્તેજન દેવું નહિં.” માણસોને તે ઓળખતી નથી. બધાને ઓળખવાની જરૂર પણ નથી. એક સરળ દાખલો આપતાં મહાત્મા મોલીનસ કહે છે : છતાં તે એટલું જાણે છે કે આ બધા મારે માટે તૈયારી કરે છે. તેવી જ રીતે જગતના સંજોગો અને અંદરની પ્રેરણા જીવ ન સમજે. પણ (અનુસંધાન પાના ક્ર. ૭૭ ઉપર) સેરા બનાવાયા ઉપ धर्म अहिंसापर सदा, धर्म सत्य का धाम । जयन्तसेन अनादि से, चलता आया नाम ।। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન ધર્મ અને પ્રતિક્રમણ (અધ્યાપક શ્રી પ્રવિણચંદ્ર ભોગીલાલ શેઠ) શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિ જ્ઞાન મંદિર, રતનપોળ, અમદાવાદ કહેશે કે આજે કરતાં ચાલતાં જૈન ધર્મમાં પ્રતિક્રમણનું ઘણું જ મહત્ત્વ છે. મહત્ત્વ એ એક વચ્ચેના ૧૨ કલાકનાં ગાળાની. પાપમય પ્રવૃત્તિની માફી માંગી. એવી બાબત છે કે મહત્ત્વ જળવાય તો મહત્ત્વની કિંમત નહિ તો તેનાથી પાછા વળવા માટે કરવામાં આવે છે. મહત્વનો અર્થ કંઈ રહેતો નથી. * હવે સવાલ એ છે કે આપણે પ્રતિક્રમણ કરી ૧૨ કલાક પ્રતિક્રમણનો સામાન્ય અર્થ થાય છે પાપથી પાછા હઠવું. દરમ્યાન કરેલા પાપની ક્ષમા માંગીએ છીએ પરંતુ તે પ્રતિક્રમણ સંસારી જીવો. સંસારની દૈનિક પળોજણમાં જો જયણા. ન રખાય તો કર્યા પછી ફરી એવાં જ પાપ ન થાય - ન કરાય કે ન કરીએ એવું સંસારની દૈનિક પ્રવૃત્તિઓમાં અનેક પ્રકારનાં નાનાં મોટા પાપ જાણે. બને છે ખરું ? અજાણે મનથી. વચનથી કે કાયાથી થઈ જાય છે. જયણાને ધર્મની કોઈપણ એક વ્યક્તિ આપણી પાસેથી ઉધાર રકમ લઈ જાય માતા કહેવાય છે. ખરેખર તો જયણાનો સામાન્ય આપણી ભાષામાં અને તેની મુદત થતાં તે પાછી ન વાળે અને માફી માંગે કે ભાઈ અર્થ કરીએ તો ‘સાવચેતી થાય છે. તેનો મતલબ છે કે હાલતાં તમારા પૈસા આપી શકતો નથી, તો માફ કરશો અને પછી તે ચાલતાં, ઉઠતાં-બેસતા, ખાતાં-પીતા, ધંધો રાજગાર કરતાં સાવચેતી વ્યક્તિ ફરી પૈસા માંગી. કહે કે હવે તો પહેલાંના અને આજે આપો. રાખવી એનું નામ ધાર્મિક રીતે જયણા છે. આજે મોટર કે સ્કૂટરઃ તે પૈસા એક મહિનામાં આપી દઈશ તેની ખાત્રી રાખશો, તો ફરી ચલાવનાર પુત્રને પિતા જરૂર કહેશે કે ભાઈ વાહન ચલાવતાં તમો એને પૈસા આપશો ખરા ? અને કદાચ આપી પણ દો અને સાવચેતી રાખજે. આ સાવચેતી ફક્ત આ નશ્વર શરીરને કોઈ પણ ફરી એ મુદત પૂરી થતાં ૨કમ ન પાછી આપે અને માફી માંગી પ્રકારના એક્સીડેન્ટ દ્વારા હાની ન પહોંચે એ માટેની છે. પરંતુ જે ફરી ઉધાર માંગે તો તમો શું કરશો ? જવાબ તમારે આપવાનો છે. આત્મા. શાશ્વત છે તે આત્માને કોઈપણ કાર્ય કરતાં પાપનો પાસ ન છતાં હું આપુ છું તમો આ વ્યક્તિને હવે ઊભી રહેવા નહિ દો. તો લાગે. તેની સાવચેતી રાખવા કોઈ પણ પિતા પોતાના પુત્રને કહે છે પછી, તમો પોતે દરરોજ સાંજે અને પરોઢે પ્રતિક્રમણ કરી પાપની. ખરો? અને એટલે જ જયણા. વગરની અનેક પ્રકારની દૈનિક પ્રવૃત્તિ માફી માંગી ફરી બીજે દિવસે ગઈકાલનાં જે કરેલાં પાપનું પુનરાવર્તન કરતાં આપણા જેવા સંસારના પામર પ્રાણીને અનેક પ્રકારનાં નાનાં કરો તો તમોને પાપની માફી કોણ આપશે ? પાપથી તમો મુક્ત મોટા પાપનો રંગ અડી જાય છે જેમ કે પોતાના સ્વાર્થ ખાતર જુઠું કઈ રીતે થઈ શકશો ? બોલી. કોઈના આત્માને દુભવવાથી મૃષાવાદ વિરમણ વ્રતનો ભંગ તેમજ પ્રાણાતિપાત વિરમણ વ્રતનો ભંગ થાય છે. અને એ રીતે કહેવું છે કે :થતાં પાપોની માફી માંગવા માટે પાપથી પાછા હઠવા માટે આપણે જન્મી અરે આ જગતમાં બોલો તમે શું શું કર્યું ? સાંજનું દેવસિક-પ્રતિક્રમણ કરવું જોઈએ અને કરીએ છીએ અને પાપ કે પુણ્યનું કહો કેટલું ભાતું ભર્યું ? એજ રીતે રાત્રિ દરમ્યાન પ્રવૃત્તિમય જીવન ન હોવા છતાં પણ શારીરિક રીતે નહિ તો માનસિક રીતે અનેક પ્રકારનાં અશુભ હિસાબ પડશે આપવો તે કાંટાની માફક ખૂંચશે સંકલ્પો નિર્ણયો કલ્પનાઓ કરી આપણે પાપની પ્રવૃત્તિ કરીએ છીએ. પણ યાદ રાખો પ્રભુ તમોને એજ પ્રશ્નો પૂછશે. અને મનથી પાપ કરીએ છીએ. આણે મારું આમ કર્યું હું એને - પ્રભુ એટલે આત્મા. આપણો આત્મા જ આપણો હિસાબ બતાવી દઈશ. આને તો છોડીશ જ નહિ - પાડી દઈશ. આવા લેશે. કરેલાં પાપકર્મને ભોગવ્યા વિના છૂટકો નથી અને પાપકર્મોનો કલ્પનાના ઘોડા દોડાવી આપણે માનસિક રીતે દુઃખી થઈએ છીએ. ઉદય અનેક જન્મોનું કારણ બને છે અને પ્રત્યેક જન્મ પાપકર્મોનાં અને આપણે કલ્પેલા વિચારો અમલમાં પણ મૂકી શકતાં નથી. છતાં ઉદયથી અનેક પ્રકારની વિંટબણાઓથી ભરેલો જ હશે તે સમયે તેનાથી પાપકર્મનું બંધન થાય છે અને આત્માએ જે ખોળીયું કર્યું હશે તે શરીરને અનેક પ્રકારનાં કષ્ટ ઊંઘમાં - નિદ્રામાં કે તંદ્રામાં કે પછી પડશે. અને એ કષ્ટમય જીવન આત્માને વધુને વધુ પાપ માર્ગે સ્વપ્નમાં કોઈનું ખરાબ ચિંતવન થઈ ધકેલતું જશે. અને મોક્ષ સુખનો અભિલાષી આત્મા ચોરાશી લાખ જાય છે. તેવા પાપથી તેમજ આપણે જીવાયોની ભટકતો ભટકતો પોતે પોતાનો જ હિસાબ લેશે અને જૈન હોવા છંતા રાત્રિ-ભોજન- કહેશે અભક્ષ્યસેવન આદિ ઈરાદા-પૂર્વક કરીએ. 1 ક્યાં ભવનાં આ આડાં આવ્યાં ? છીએ. તેનાથી થતાં પાપકર્મથી પાછા કેવી નરફમય જીંદગી જીવવી પડે છે. વળવા માટે હેલા પરોઢિયે રાઈ આનાથી તો મોત સારું પ્રતિક્રમણ આપણે કરીએ છીએ. આ ભગવાન હવે તો લઈ લેતો સારું બન્ને સમયનાં પ્રતિક્રમણ બન્ને પ્રતિક્રમણ શ્રી પ્રવીણચંદ્ર શેઠ થી પાણીના મિગજનાથ જરા વિભાગ ૧૬ क्रोध भयंकर आग है, समझो जयन्तसेन । हिंसा ताण्डव यह करे, तन मन सब बैचेन ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આત્માના આવા ઉદગારો એટલે જ પાપ પુણ્યના હિસાબની. - નાચે છે. અને ખરેખર એક નાનું બાળક પણ સંગીતના તાલમાં માંગણી. દૈનિક દેવસી-રાઈ બે પ્રતિક્રમણ કરતાં આપણે મહિનામાં | તાલ પુરાવે એટલું તલ્લીન થઈ જાય છે જ્યારે આપણે પ્રતિક્રમણ. બે દિવસ સુદ અને વદ ૧૪ ના દિવસે પકુખી પ્રતિક્રમણ કરીએ કરતી વખતે કાઉસગ્ગ આવે ત્યારે મોટા અવાજે અને બે વખત છીએ જેનાથી દરરોજ થતાં પ્રતિક્રમણમાં કોઈ પણ પાપથી પાછા બોલવું પડે છે. અને છતાં પણ પ્રતિક્રમણ કરનારાઓમાંથી કોઈ વળવાનું રહી ગયું હોય તો તે પંદર દિવસના અંતરે આવતાં આ કોઈ તો જરૂર પૂછશે ભાઈ કેટલા નવકારનો કાઉસગ્ગ. પ્રતિક્રમણની. પ્રતિક્રમણમાં તેની માફી માંગી લેવાય છે. અને દર પંદર દિવસે મહત્તા આપણે ક્યાં લઈ ગયા છીએ એ આજના આપણા આવા થતાં પ્રતિક્રમણમાં કોઈ પણ પ્રકારની માફી માંગવાનું રહી ગયું પ્રસંગો તેની પારાશીશી જેવા છે અને આમ હોય તો પછી અનેક હોય તો દર ચાર માસે આવતા ચોમાસી પ્રતિક્રમણમાં મારી પ્રતિક્રમણ કર્યા છતાં આપણે પાપથી છુટકારો ન પામીએ એમાં . માંગવામાં આવે છે અને તેમાં પણ ચૂક થઈ જાય તો વરસમાં એક | નવાઈ શું ? વાર થતાં સાંવત્સરિક પ્રતિક્રમણમાં આખા વરસ દરમ્યાન કરેલાં | ખરેખર એક જૈન તરીકે પ્રતિક્રમણ કરતી વખતે તેમાં બોલાતા. પાપ કર્મની માફી માંગવામાં આવે છે અને પાપ વ્યાપારથી. સુત્રોનો ભાવાર્થ સમજવો જોઈએ અને દરેક સુત્રો વખતે તેમાં પાપકર્મથી પાછા વળવાનો નિર્ણય કરવામાં આવે છે આપણા જૈન તલ્લીન થઈ તે સુત્રના ભાવાર્થ મુજબ આપણા મનના તાર ઝણધર્મમાં પાપથી. પાછા ફરવા માટે કેટલી સરસ જોગવાઈ કરવામાં ઝણી ઉઠવા જાઈએ. અને એમ થાય તે પ્રતિક્રમણ કયની. આવી છે. સાર્થકતા છે બાકી આજે તો સાંવત્સરિક પ્રતિક્રમણ કરીને જેના પરંતુ આપણે ‘મેહળીયા પથ્થર' જેવા છીએ મેહળીયો પથ્થર મનને કોઈ દિવસ દુભાવ્યું નહિ હોય તેની સાથે મિચ્છામી દુક્કડમૂની. એવો છે કે તેને ગમે એટલી વાર પાણીથી ધુઓ એને પાણી અડશે લેવડ-દેવડ કરાશે. પરંતુ વરસોથી અબોલા લીધેલા બે સગા. જ નહિ. સુકો ને સુકો જ રહેશે. એ રીતે આપણે ગમે એટલાં ભાઈઓ એક બીજાને મિચ્છામી દુક્કડમ્ તો નહિ આપે પરંતુ દિન પ્રતિક્રમણ કરીએ પરંતુ પાપ કરવાથી લેશ પણ પાછા હટતા નથી. પ્રતિદિન એક બીજા પ્રત્યે કટુતા વધતી જોવામાં આવશે. ખરેખર હટવાના નથી. કારણકે પ્રતિક્રમણનાં. સુત્રોના ભાવ-ભાવાર્થ આપણે | તો આપણે કોઈનાં પણ મનને જરા પણ દુઃખ પહોંચાડ્યુ હોય તેવી જાણતા નથી એટલે યંત્રવત પ્રતિક્રમણ ભણાવનાર બોલે જાય અને વ્યક્તિને તે દુઃખની યાદ અપાવી માફી માંગવી. અને તે પણ આપણે. કાઉસગ્ગ કરે જઈએ કે મુહપતિ પડીલેહન કરે જઈએ એ ચતુર્વિધ સંઘ સમક્ષ માંગવી. તે પ્રતિક્રમણની યથાર્થતા છે. અને તો. સિવાય આપણા આત્મામાં પ્રતિક્રમણનો લેશ પણ સ્પર્શ થતો નથી. જ પ્રતિક્રમણનું મહત્વ જળવાઈ રહેશે અને આત્મા. ધીરે ધીરે. ટી.વી કે રેડીયો પર કોઈ ગાયન આવે તો નાનું છોકરું પણ પાપના બોજાથી હળવો થઈ શકશે. નાચવા લાગે છે. અને તેનાં મા-બાપ એની વાહ-વાહ કરે છે કેવું (અનુસંધાન પાના ૪, ૭પ ઉપરથી). જે સ્ત્રીએ પોતાના પતિને પહેલી વખત વફાદાર રહેવાનું વચન આપ્યું છે, તેણે પોતાની વફાદારી માટે ફરીથી કંઈ દેખાવ કરવાની જરૂર રહેતી નથી. તેવી રીતે ભગવાનને પોતાની વફાદારી બતાવવા કોઈ વિશેષ ક્રિયાની જરૂર નથી.” મહાત્મા કહે છે “ જે સાધક સિધ્ધીઓ અને ચમત્કાર બતાવી શકે છે, જે મુડદાને પણ જીવતાં કરી શકે છે, તેનાં કરતાં જે સાધક પોતાની અંદર શરણભાવથી રહે છે, તે ભગવાનને વધારે માન્ય છે.” મહાત્મા અનેક પ્રકારના ધ્યાન - યોગ અને ક્રિયાઓથી થતાં સહજ આવતા ચમત્કારોમાં નું અટકવાનો અનુરોધ કર્યો છે. શ્રીમદે લખ્યું છે. ચમત્કારથી જે યોગ સિદ્ધ કરે, તે યોગી નહિ” લોકેષણા વિષે ચેતવણી આપતાં મહાત્મા કહે છે. “જે માણસને વખાણ ગમતાં નથી. જે વખાણને શોધતો નથી, જે વખાણથી દૂર રહે છે, છતાં વખાણ જ્યારે મળે ત્યારે જે આનંદ માને છે તે પૂરી દીનતા પામ્યો નથી. પોતે બધા પ્રસંગોમાં શાંત અને અચળ રહેતો હોય તો પોતાના વખાણ એને દુઃખ રૂપ લાગે છે.” વિજ્ઞાન અને અધ્યાત્મ : મહાત્મા કહે છે “ વિજ્ઞાન સાયન્સનું જ્ઞાન એ પ્રકૃતિનું જ્ઞાન છે. દિવ્યજ્ઞાન ભગવાનનાં મહિમાનું જ્ઞાન છે. ભગવાનનું જ્ઞાન અંદરથી મળે છે. પહેલા પ્રકારનું જ્ઞાન એવું હોય છે કે જે મુશ્કેલીઓ અને પ્રયત્ન વગર મળતું નથી. બીજા પ્રકારના જ્ઞાનમાં જો કે પોતે બધું જાણે છે, તો પણ જણાવાની ઈચ્છા કરતા નથી. એક શબ્દમાં કહીએ તો સાયન્સવાળા માણસો જગતની વસ્તુઓના જ્ઞાન માટે પ્રયત્ન કરે છે અને ડાહયા માણસો ભગવાનમાં જ લય પામી જીવે છે. ડાહડ્યા માણસમાં આત્માની સરળ ઉચ્ચતા આવે છે કે જેનાથી પોતાથી નીચે રહેલી તમામ વસ્તુઓને સ્પષ્ટ રૂપે જુએ છે". નિગ્રંથ પ્રવચનમાં કહયું છે “જેણે આત્મા જાણ્યો તેણે સર્વ જાણ્યું. એક ને જાણ્યો તેણે સર્વેને જાણ્યો." છેલ્લે મહાત્મા મોલીનસ કહે છે “ જે જીવને પૂર્ણ થવું હોય તેણે પોતાની વાસના છોડવી, પછી પોતાને છોડવો, પછી ભગવાનની મદદથી. શૂન્ય થઈ જવું. શૂન્યને રસ્તે ભગવાનમાં તને ખો. તને ખોઈ શકે તો સુખી થઈશ. તેમાં પાછો જીવતો થઈશ. શૂન્યના કારખાનામાં સાદાઈ ઉત્પન્ન થશે. અંતભવિ જાગૃત થશે. શાન્તિ મળશે. હૃદય પવિત્ર થશે, અપૂર્ણતા જતી. રહેશે." - પ્રારંભમાં મહાત્મા મોલીનસ કહે છે “ બધા માણસને રાજી રાખવા, તેના કરતાં વધારે મુશ્કેલ કોઈ કામ નથી. અને પૃથ્વી ઉપર જેટલા પુસ્તક છપાય છે, તેની નિંદા કરવા જેવું બીજું કોઈ સહેલું કામ નથી. જેટલાં પુસ્તક પ્રસિદ્ધ થાય છે, તે બધાને આ અગવડ નડે છે; ત્યારે ન્હાના પુસ્તકનું શું થશે ? તેની વસ્તુ ચમત્કારી છે, પણ સ્વાદ વગરની અને સામાન્ય માણસની નિંદા પાત્ર થાય એવી છે. તને તે સમજાય નહિં, તેની હરકત નહિં, પણ તેની નિંદા કરીશ નહિં " ' ભગવાન પ્રત્યે અપ્રતિમ અનુગ્રહ, શરણભાવ, શૂન્યભાવ- થી સભર મહાત્મા મોલીનસના પુસ્તકના રૂપાંતરકારે એનું નામ ‘સેવાકુંજ' આપ્યું છે. ના વૃંદાવનમાં એક સ્થાન એવું છે જ્યાં ભગવાને ભક્તની સેવા કરી હતી. તે સ્થાનને ‘સેવાકુંજ' કહે છે. - ભગવાન શ્રીકૃષ્ણ સારથિ બનીને ભક્ત અર્જુનની સેવા કરી એટલું જ નહિં પણ યુદ્ધ વખતે દર સાંજે શ્રી કૃષ્ણ અર્જુનની સેવા કરતા. અર્જુનનાં વાળમાંથી પણ રૂકમણી ને કણ કણનો ધ્વનિ જ સંભળાયો હતો ! ભક્તિનો મહિમા અપરંપાર છે. विषय विलासी जीव को, नहीं धर्म का राग । जयन्तसेन पतंग को, दीपक से अनुराग ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પર્યાવરણ અને પરિગ્રહ પરિમાણ (શ્રી ગુલાબ દેઢિયા, મુંબઈ) આ વસંત ઋતુમાં કુદરતમાં ભારે કામકાજ ચાલે છે. વૃક્ષો છે. તે ઉદાર છે. જે ઓછું વાપરે છે, કરકસર કરે છે તે લોભી છે. પર નવાં પર્ણો, ફૂલો અને ફળો આવે છે. કામ ઘણું પણ ધમાલ, કરકસર અને લોભ, ઉદારતા અને ઉડાઉપણું, એના વચ્ચેની ભેદરેખા ઘોંઘાટ કે પ્રદુષણનું કોઈ ચિહ્ન નથી. ભુંસાતી જાય છે. સંયમને લોભ માની લેવામાં આવે છે અને ચૂપચાપ પોતાનું કામ કર્યું જવું એ કુદરતનો ક્રમ છે. ખબર પરિગ્રહ ને સમૃદ્ધિ માની લેવામાં આવે છે. વાપરો અને ફેંકી દો એ ન પડે તેમ, જેને સૂકી માની બેઠેલા એવી ગુલમ્હોરની ડાળીઓ પર આજનું ફૅશનસૂત્ર છે. લાલચટાક ફૂલો ખીલે છે. ઍરીક ફ્રોમ જેવા વિચારકે ટુ વ્હેવ’ અને ‘ટુ બી' ની વિચારવા | ધર્મનું પણ એવું જ છે. એ ચૂપ રહીને સત્યની પ્રતીતિ આપે જેવી વાત કરી છે. માણસને મેળવવામાં, ભેગું કરવામાં વધુ રસ છે. ધર્મ ગાઈ વગાડીને નથી કહેતો કે, હું સત્ય છું. ધર્મની વાતો છે. પોતાને બનવામાં, હોવામાં ઓછો રસ છે. ખરેખર તો હોવું એ દિવસે દિવસે વધુ ને વધુ સાચી સાબિત થતી જાય છે. જેમ વધુ જ મોટી વાત છે. વિકાસ થશે તેમ સમજાશે કે, ધર્મ ગઈકાલ કરતાં આજે વધુ ધર્મની સંયમની વાતો નરી પોકળ નથી. માર્કસે કહયું છે કે, રિલેવન્ટ છે. જેટલો સંગ્રહ ઓછો એટલા તમે વધુ સંપન્ન, અપરિગ્રહીને બીજા. ધર્મે પહેલેથી કહેવું છે કે, અપરિગ્રહી બનો, સંગ્રહ ઓછો પર ઓછો આધાર રાખવો પડે છે. કરો. બગાડ ઓછો કરો. સમસ્ત જીવ સૃષ્ટિ પ્રત્યે આદર ભાવ - યતનાપૂર્વક ખાવું, પીવું, ફરવું, બેસવું, સૂવું, બોલવું એ સંયમી રાખો. એજ વાત આજે પર્યાવરણના નિષ્ણાતો કહી રહ્યા છે. પુરુષનું લક્ષણ છે. પર્યાવરણ માટે પણ આ જ વાત લાગુ પડે છે. - બધું ભેગુ કરવાની લ્હાયમાં, પોતાનું કરી લેવાની પેરવીમાં માનવીનું જીવન જેટલું વિવેકી અને જાગૃતિમય હોય એટલો પડેલો માણસ કુદરતને લૂંટવા લાગ્યો. મમતીલો માનવી એમ માની એ પોતે અપરિગ્રહી બની શકે છે. ખપ પૂરતો જ વપરાશ કુદરતી બેઠો કે, પાણી, જમીન, વૃક્ષો, હવા, શક્તિનાં સાધનો વગેરે પોતાને તત્ત્વોના બગાડમાંથી ઉગારી શકે છે. માટે જ નિમયિા છે. અને બધાંનો ભોગવટો કરવાનો પોતાને ‘સૌ પ્રથમ તો બધા જ જીવો વિશેનું જ્ઞાન હોય તો જ દયા અબાધિત અધિકાર મળ્યો છે. અહિંસાનું પાલન થઈ શકે છે. અજ્ઞાનીને ક્યાં ખબર છે કે હિંસા | સમયસારમાં કહયું છે, ઈચ્છા (મમત્વ) નો ત્યાગ જ અપરિગ્રહ શાથી થાય છે અને અહિંસા શું છે ?' દેશવૈકાલિક સૂત્રના આ છે. આજે ઈચ્છાઓ વધતી જ જાય છે. ઈચ્છા અને જરૂરિયાત શબ્દો કેવા માર્મિક છે ! આજે ઘડીએ ઘડીએ અને જીવનભર વચ્ચેની ભેદરેખા ભૂંસાતી જાય છે. - આપણે કેટલી હિંસા કરી રહયા છીએ તેનાથી જ અજ્ઞાન છીએ. ધર્મમાં જેને વાયુકાય, પાણીના જીવ, ધરતીના જીવ કહેલ છે જૈન છીએ તેથી મોટા જીવો- પંચેન્દ્રિય, ચૌન્દ્રિય કે રેંદ્રિય જીવો અને તેમની જીવરક્ષા કરવાનું કહેવું છે, પવિરણના નિષ્ણાતો પણ નથી મારતા પણ હવા, પાણી, જમીન, વનસ્પતિ વગેરે એકન્દ્રીય એ જ વાત કહી રહયા છે. વિના કારણે પાણીનો બગાડ ન કરો. જીવોનો કેટલો મોટો ઘાત કરી રહયા છીએ. કરાવી રહયા છીએ. વૃક્ષો ન કાપો. કોઈ પણ કુદરતી સંપત્તિનો બગાડ ન કરો. આ આ એકેન્દ્રીય - બેન્દ્રિય જીવોની વધુમાં વધુ જીવરક્ષા કરીશું બધી વાતોમાં અન્યના સુખનો વિચાર છે. સાથોસાથ જાત સંયમની ત્યારે પ્રાકૃતિક સંતુલનમાં મોટામાં મોટી મદદ કરી કહેવાશે. ભાવના છે. જૈન સાધુ-સાધ્વી ભગવંતો પાસે જે રજોહરણ અને મુહપતિ | તને દુઃખ પ્રિય નથી તેમ અન્યને પણ દુઃખ પ્રિય નથી. હોય છે તે અહિંસાનું પ્રતીક છે. પ્રતિપળ જીવરક્ષા માટેની તૈયારી બધાય જીવો જીવવા ઈચ્છે છે, કોઈ જીવ મરવા ઈચ્છતો નથી. અને પ્રતિપળ બીજા જીવને બચાવવાની વૃત્તિનાં એ પ્રતીક છે. આવું જાણી બધા જીવો પ્રત્યે આત્મભાવ રાખ. શાસ્ત્રોની પાયાની મુહપતિ, વસ્ત્રો, ઉપકરણો વગેરેનું પલવણ એ માત્ર વિધિ કે ક્રિયા આ વાત પર્યાવરણના પણ પાયાની વાત જેવી છે. નથી. સૂક્ષ્મ જીવોને બચાવવાની એ ઉત્તમ રસમ છે. જેની પાસે અહિંસા, પરિગ્રહપરિમાણ અને પ્રકૃતિની સમતુલાનો વિચાર પરિગ્રહ ઓછો હોય તે જ સારી રીતે પલેવણ કરી શકે. એ એક રીતે સર્વોદયની વ્યાપક ભાવનાનાં પોષક છે. અન્યની અપરિગ્રહ અને અહિંસાને આ રીતે નિકટનો સંબંધ છે. એક ભલાઈનો વિચાર એ જ સંસ્કૃતિનું અંકૂર છે. તો આડધેડ પરિગ્રહ વધારવા જતાં ચોક્કસ હિંસા કરવી પડે. બીજું આજે ભૌતિકવાદી, ઉપભોગવાદી માનસને લીધે એવી ભ્રામક. અતિ પરિગ્રહ અસમાનતા સર્જે છે. તેથી આસપાસના લોકોમાં છાપ ઊભી થઈ છે કે, જે વધુ ભેગું કરે છે, જે વધુ વાપરે છે, નવું ઈષ્યનો ભાવ જાગે છે. પરિગ્રહ વધારનારને અહમૂનો ભાવ જાગે નવું લેતો જાય છે અને જૂનું છોડતો જાય છે. તે વખાણવા લાયક છે. અહમુમાંથી લાલસા અને વાસના જાગે છે. એમાંથી જ બધું રીમ કથનોનરિ અભિનદન રાંધણજરાતી વિભાગ ૭૮ धर्म जगति है नहीं, आपस में विखवाद । जयन्तसेन करे सदा, जीवन को आबाद ।। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભોગવી લેવાની વૃત્તિ પ્રબળ થાય છે. ભોગવટા માટે આંધળી દોટ મૂકે છે.. મુકાતી હોય છે. એમાં વિવેક ચૂકી જવાય છે. | ફટાકડા ન ફોડવાના પ્રચારને સારો પ્રતિસાદ મળ્યો છે. સાચો જૈન ઈકૉલોજીનો માત્ર જાણકાર જ નથી હોતો પરંતુ અને જૈનોમાં ફટાકડા ફોડવાની ટેવ ઘટી રહી છે. જે આવકારદાયક જીવનમાં આચરનાર પણ હોય છે. અહિંસા અને પરિગ્રહપરિમાણમાં છે. બેંડવાજા અને લાઉડ સ્પીકરોના અવાજને પણ વિવેકપૂર્વક પવિરણનું રક્ષણ થાય છે. જે આજના સમયની મોટી સમસ્યા છે. મર્યાદિત કરવાની જરૂર છે. આમ કરશું તો ધર્મ અને પર્યાવરણ આજે માનવીએ ધરતી પર જીવવા જેવું રાખ્યું નથી. ત્યારે પરિગ્રહ બન્નેનાં હિતમાં છે. પરિમાણ એ આપણા ભલા માટે, અન્ય જીવોના ભલા માટે અને જૈન ધર્મી ચામડાની વસ્તુઓનો ઉપયોગ પણ ખૂબ વિવેકપૂર્વક આવનારી પેઢીઓના ભલા માટે જરૂરી છે. અહીં એ વાત પણ કરે છે. ચામડું કમાવવાની- સાફ કરવાની જે પ્રક્રિયા છે તેનાથી સ્પષ્ટ થાય છે કે, ધર્મ એ આત્મા માટે તો છે જ પણ મનુષ્ય ખૂબ પ્રદુષણ થાય છે. એ પ્રદુષણ ઘટાડવાનો પણ કોઈ સરળ પોતાની ભલાઈનો વિચાર કરતાં કરતાં અન્યની ભલાઈનો વિચાર ઉપાય નથી. શુદ્ધ ચામડાને બદલે સિન્થટીક વસ્તુઓનો ઉપયોગ પણ એમાં આપોઆપ આવી જાય છે. આત્મધર્મ એ સંકુચિત વાત ધાર્મિક પવિરણની દ્રષ્ટિએ લાભદાયક છે. નથી. એમાં પરહિત આવી જ જાય છે. કતલખાના પર્યાવરણની દ્રષ્ટિએ પણ અયોગ્ય છે. ત્યાં ખૂબ આજે પયાવરણના રક્ષણમાં વૃક્ષોનું રક્ષણ કરવાની વાત જ પાણી અશુદ્ધ બને છે. જૈન ધર્મ તો અહિંસાના આદર્શને કારણે મહત્ત્વની છે. જંગલો કપાતાં જાય છે. જૈન ધર્મ તો માને છે કે માંસાહારને જ અયોગ્ય ગણે છે.. વૃક્ષમાં પણ જીવ છે. આપણાં મોજશોખ, વૈભવ અને ઠઠારા માટે જૈન ધર્મ કહે છે પરિગ્રહ ઓછો, વપરાશ ઓછો તેમ પાપ વૃક્ષ સંહારમાં જે રીતે ભાગીદાર થઈએ છીએ, તેમાંથી વિરમવા ઓછું. પર્યાવરણ-શાસ્ત્રીઓ કહે છે મયદિત વપરાશથી કુદરતી જેવું છે. સંપત્તિ જળવાઈ રહેશે. લાંબો સમય ચાલશે અને પ્રાકૃતિક સંતુલન પથવિરણ શાસ્ત્રીઓ પ્રત્યેક માણસ માટે રોજના સો લીટર જળવાઈ રહેશે. સુધીના પાણીના વપરાશને યોગ્ય પ્રમાણસર ગણે છે. જ્યારે જૈન કુદરતી સંપત્તિ જળવાશે તેથી આજની પેઢીને વસ્તુઓની ધર્મી દરરોજ લગભગ પચાસ લીટર જેટલું પાણી વાપરે છે. તંગી તથા પ્રદુષણના ત્રાસમાંથી રાહત મળશે અને આવનારી પેઢીને | રાંધેલું વધારાનું અનાજ, એંઠવાડ વગેરે પાણીમાં ફેંકી દેવામાં કુદરતી વસ્તુઓ સહેલાઈથી મળતી રહેશે. ધર્મ અને વિજ્ઞાન સાથે આવે, ત્યાં પાણી અશુદ્ધ બને છે. ભોજન એઠું ન મૂકવું અને જમ્યા સાથે ચાલે છે. બન્ને વસ્તુઓના સમ્યક્ ઉપયોગનું મહત્ત્વ સમજે પછી થાળી. ધોઈને પી જવી એ ધાર્મિક બાબત તો છે જ ઉપરાંત છે. આ પર્યાવરણની દ્રષ્ટિએ પણ ઉત્તમ છે. જમ્યા પછીનો એંઠવાડ પાણીમાં માણસ પોતાની જરૂરિયાતો નક્કી કરે, ઓછી કરે, મયદા ન ભળે અને પાણી ન બગડે તેને પર્યાવરણના નિષ્ણાતો ઝીરો બાંધે તે પરિગ્રહપરિમાણ છે. માત્ર વર્તમાનપત્ર, ટી. વી. માં ડીસ્ચાર્જ કહે છે. પરદેશનાં શહેરોમાં તો ભીનો અને સૂકો કચરો | આવતી જાહેરખબરોથી વસ્તુઓ ખરીદવા દોડી જવું એ અતૃપ્તિની પણ અલગ અલગ કોથળીમાં ભરીને ઘર બહાર મૂકે છે. પ્રદૂષણ. નિશાની છે. ઓછી વસ્તુઓવાળો નહિ પણ અતૃપ્ત ઈચ્છાઓવાળો થતું અટકાવવા આવી સાવચેતી જરૂરી છે. આ ગરીબ છે. અવાજનું પ્રદૂષણ એટલેકે ઘોંઘાટનો પ્રશ્ન આજે મોટા શહેરોમાં - આજે જે વસ્તુઓને આપણે વિકાસ અને પ્રગતિ કહી. રહયા વિકટ બન્યો છે. મુંબઈ, કલકત્તા, દિલ્હી, અમદાવાદ જેવાં ઘોંઘાટિયા છીએ એણે થોડું આપીને ઘણું ઝૂંટવી લીધું છે. શહેરોમાં દિવસ દરમ્યાન ૯૦ ડેસિબલ જેટલો અસહય ઘોંઘાટ હોય જે પરિગ્રહને મર્યાદિત કરે છે તે જ દાન દઈ શકે છે. મોટા છે. જ્યારે જૈન ઉપાશ્રયો ધર્મના ધામ તો છે જ સાથોસાથ શાંતિનાં પરિગ્રહવાળો તો અસત્ય, ચિંતા, ભય, ક્રોધ, અનિદ્રા, અભિમાન ધામ પણ છે. ઉપાશ્રયમાં સમાન્ય રીતે ૫૦ ડેસિબલની આસપાસ વગેરેનો ભોગ બને છે. આજે સરખામણી અને હરીફાઈએ આપણા અવાજનું પ્રમાણ હોય છે. જેને પીસફુલ લેવલ કહે છે. બિલો મનની શાંતિને વિચલિત કરી દીધી છે. એ સમજવું જોઈએ કે, કોઈ નોઈસ લેવલ કહે છે. પણ વસ્તુને વાપરી નાખતા, બગાડી નાખતા, ફેંકી દેતાં ઓછો ઘોંઘાટ એ માનવીનો શત્રુ છે. ઘોંઘાટથી માણસ અનિદ્રાનો સમય લાગે છે, પરંતુ એના નિમણિ-સર્જનમાં તો ઘણો જ સમય ભોગ બને છે. થોડું કામ કરતાં જ થાકી જાય છે. ઘોંઘાટથી લાગે છે. માનવીનો સ્વભાવ ચિડીઓ થઈ જાય છે. જોવાની શક્તિમાં ઘટાડો - પરિગ્રહ નાથવા માટે સંતોષવૃત્તિની જરૂરત છે. જૈન આચારદર્શન થાય છે. આવી અનેક અસરોમાંથી ઉપાશ્રયની શાંતિ મુક્તિ અપાવે અનુસાર સમવિભાગ અને સમવિતરણ થવાં જોઈએ. એવું ન છે. ઉપાશ્રયમાં માનસિક શાંતિની સાથે શારીરિક લાભ પણ છે જ. કરનાર માટે મુક્તિ નથી. એ પાપી છે એમ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં જૈન પરંપરા કેટલી અદ્દભુત રીતે વૈજ્ઞાનિક છે ! જૈનો પણ ઘણી કહયું છે. કે વાર વધુ ઉત્સાહમાં આવી જઈ વાયુકાયના જીવોની રક્ષા કરવાનું બૌદ્ધ ધર્મો પણ આસક્તિને બધા દુઃખ અને બંધનોના મૂળમાં ભૂલી જઈ બેફામ ફટાકડા ફોડે છે. બેંડવાજા અને લાઉડ સ્પીકરોનો માનેલ છે. બૌદ્ધ દર્શને ભવતૃષ્ણા, વિભવતૃષ્ણા. અને કામતૃષ્ણા. ઘોંઘાટે આધ્યાત્મિક ઉત્સવો અને શોભાયાત્રાઓને મહત્ત્વહીન બનાવી એવા ભાગ પાડ્યા છે. ભવતૃષ્ણા. એટલે ટકી રહેવાની વાસના, હોમ પાસેના દિનાથ, રાીિ મારી ૭૯ दान शील तप भावना, करे आत्म को शुद्ध । जयन्तसेन धर्म यही, जो धारत वह बुद्ध । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વિભવતૃષ્ણા એટલે ઝુંટવાઈ જવાનો ભય અને કામતૃષ્ણા એટલે કરતાં વધુ રાખતા નથી, કુદરતી સંપત્તિનો બગાડ કરતા નથી, ભોગવવાની ઈચ્છા. જે તૃષ્ણાથી મુક્ત છે તેને ભય નથી, કોઈ શોક પ્રદુષણ સર્જતા નથી, હવા, પાણી, જમીન, વૃક્ષો, પર્વતો, આકાશ, નથી. અગ્નિમાં ઘી નાખીએ તો અગ્નિ શાંત ન થાય તેમ તૃષ્ણા સમુદ્ર, તળાવ, નદી, જીવસૃષ્ટિ બધાને સંતાપનાર મનુષ્ય જ છે. સંતોષવા વધુ ભેગું કરીએ તો કદી ન શમે પણ વધુ પ્રબળ થાય. વિના કારણ મોટર દોડાવનાર પોતાનું પેટ્રોલ તો બગાડે જ છે જૈન ધર્મે અંદરથી અનાસક્તિ અને બહારથી અપરિગ્રહ વૃતિ સાથોસાથ કુદરતી સંપત્તિમાં એટલો ઘટાડો કરે છે. હવાને ધુમાડાના બન્ને સાથે માગ્યું છે. પ્રદુષણની ભેટ આપે છે અને અન્ય લોકોને જે મળવું જોઈએ | હિંસા વિના જીવન શક્ય નથી. પરંતુ ઓછામાં ઓછી હિંસા તેમાંથી થોડો ભાગ છીનવી લે છે. વાત નાનકડી લાગે પણ થાય એ રીતે જીવવું તે ધર્મમય જીવન છે. પરિગ્રહપરિમાણ અને પર્યાવરણની દ્રષ્ટિ એ મહત્ત્વની હોય છે. જૈન ધર્મના પાંચ મહાવ્રત અહિંસા, સત્ય, અસ્તેય, બ્રહ્મચર્ય પ્રમાદને કારણે પણ ક્યારેક વસ્તુઓને બગડવા દઈએ છીએ. અને અપરિગ્રહ એકમેક સાથે સંકળાયેલા છે. એક વ્રતનું પાલન તેથી જીવહિંસાનું કારણ બને છે. પાણી. નળમાંથી વહી રહ્યું હોય કરવા બીજાનું પાલન પણ કરવું જ પડે છે. બીજાનું પાલન કરવા અને ઊભા થવાની આળસને કારણે નળ બંધ ન કરીએ તો જતાં અન્યનું પાલન આપોઆપ થઈ જાય છે. અહિંસા અને પર્યાવરણ રક્ષાના નિયમનો પણ ભંગ કરી રહયા સંસારીજનો મહાવ્રતોનું સંપૂર્ણત : પાલન તો ન કરી શકે પણ છીએ. કરી પાંચ અણુવ્રતોનું પાલન કરે અને સાથોસાથ ત્રણ ગુણ વ્રતોનું આપણે ટકી રહેવું હશે તો પર્યાવરણની સમતુલા જાળવવી. પાલન કરે તો જીવન ધર્મમય બને છે. આ ગુણ વ્રતોમાં દિફ પડશે. જરૂરિયાતો ઘટાડી પરિગ્રહને મર્યાદિત કરવાની માગ ધર્મ પરિમાણ, ભોગોપભોગ પરિમાણ અને અનર્થદડ વિરમણની ચર્ચા અને વિજ્ઞાન બન્નેની છે. કરવામાં આવી છે. જૈન ધર્મનો પરિગ્રહપરિમાણનો નિયમ પયાવરણ સમતુલાનો. આ ત્રણ ગુણ વ્રતોનું પાલન કરનાર પોતાની આવશ્યકતા આદર્શ નમૂનો છે. પ્રમાણે વસ્તુઓની મર્યાદા બાંધે છે. વર્ષ દરમ્યાન કે જીવનભર ભમરો જેમ ફૂલોનો રસ ચૂસે છે પણ એ ફૂલોનો વિનાશ પોતે વધુમાં વધુ કેટલી મુસાફરી કરશે, કેટલી જમીન રાખશે, કેટલાં નથી કરતો. પોતાની જાત પણ ટકાવે છે અને ફૂલોને ફળવામાં મકાન, દરદાગીના, વસો, અનાજ, ધન સંપત્તિ રાખશે, એની પણ મદદરૂપ થાય છે. તેમ સાચવી સાચવીને અન્યનું અહિત કર્યા વગર મયદિા નક્કી કરે છે. આ બધુ સંયમ પાલન પાટે પૂરક છે. વર્તવું જોઈએ. મનુષ્ય સિવાય અન્ય કોઈ પણ જીવો સંગ્રહ કરતા નથી. ખપ (અનુસંધાન પાના ૪, ૮૬ ઉપરથી) | લેડી ડાયેના એમના બીજા પુત્રને શાકાહારી ખોરાકથી તૈયાર કરી રહયા છે. એમનાં આગ્રહથી પ્રિન્સ ચાર્લ્સ શિકાર પણ છોડી દીધો છે. ‘યંગ ઈન્ડિયન વેજીટેરીયન્સ’ ના યુવાનોના પ્રયત્નો થકી દસ લાખ માણસો મોટા ભાગના અંગ્રેજો શાકાહાર તરફ વળ્યા છે. બીજા દસ લાખે માંસાહાર ઓછો કરી નાખ્યો છે. મૃત પ્રાણીઓનું માંસ સ્વાથ્ય માટે અનેક જોખમો ઉભા કરે છે. ૧૯૭૭માં બ્રિટનમાં સાલ્મો નામના વિષાક્તિ કરણથી દસ હજાર માણસો બિમાર પડ્યા. ૧૯૮૩માં આ સંખ્યા સત્તર હજારની થઈ. ડૉક્ટરોએ પણ કહયું કે શાકાહારી ભોજનમાં પૂરતાં પોષક તત્ત્વો છે અને શરીરને પૂરેપૂરું સ્વસ્થ રાખે છે. બ્રિટનની વેજીટેરીઅન સોસાયટીએ ભારે સાહસ કરી એક ફિલ્મ બનાવી. આ ફિલ્મમાં રિબાતા, રહેuતા. પ્રાણીઓનું ચિત્રણ થયું. આવી ફિલ્મો વ્યાપકપણે બનાવવામાં આવે, તો માંસાહાર ઓછો થઈ જાય..... કુરતા કોઈને ગમતી નથી ટપકતું લોહી કોઈ જોઈ શકતું નથી ! માંસાહાર ફિનીસ્ટ પ્રોડક્ટના રૂપમાં જમવાના ટેબલ પર આવતું હોઈ ખાનારને એની ગંભીરતાનો ખ્યાલ જ આવતો નથી. પરંતુ જો માંસાહારી કતલ ખાનામાં એક વખત પ્રાણીઓની વેદના જોઈ આવે તો સંભવ છે કે તે માંસાહાર છોડી દે, આ પ્રાણીઓની હત્યાથી કુદરતના નિયમબદ્ધ સંતુલનને આપણે ખોરવી નાખીએ છીએ, ઈકોલોજીકલ બેલેન્સમાં ખલેલ પહેંચાડવાનો આપણને કોઈ અધિકાર નથી. અમુક પ્રકારના જીવજંતુના નાશથી. દુકાળ પણ પડે છે. માછલીઓ નહીં મારીએ તો સમુદ્ર માછલીઓથી જ ભરાઈ જશે એવી. દહેશત માણસે રાખવાની જરૂર નથી કુદરત પોતાની જવાબદારી સારી રીતે સંભાળે છે. | માનવ શરીરને આવશ્યક તત્ત્વો વનસ્પતિ આહારમાંથી મળી. જ રહે છે માંસાહાર અનિવાર્ય નથી. કુદરતની વિરૂદ્ધ જવાની કોઈ જરૂર નથી. ગાંધીજીના પુત્રને બિમારીમાં ડૉક્ટરે માંસનો સેરવો. આપવાનો ઘણો આગ્રહ કર્યો. જીવનું જોખમ હતું છતાં ગાંધીજીએ. નમતું નહિં જોખ્યું.... પુત્ર બચી જ ગયો. કુદરતને સાથ આપવાથી જ કુદરતનો સહયોગ આપણને મળી રહે છે. થીમ જર્સનામિમિનન્દના રાહી વિકાસ धर्मात्मा की देशना, होती नित फलवान | जयन्तसेन फलित करे, जीवन का उद्यान ।। Jain Education Interational Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | બદલો બૂરા ભલાનો અહીંનો અહીં મળે છે ! | Tags , (શ્રી પુનમચંદ નાગરલાલ દોશી) | j ન (જૈન દર્શન કર્મવાદની ઝાંખી) 'બદલો બૂરા ભલાનો અહીંનો અહીં મળે છે.” કોઈ કવિએ ચૌદ રાજલોક – વિશ્વમાં ઠાંસી ઠાસીને રજકણો ભરી પડી. આ પંક્તિને ગાઈને પ્રાણી માત્રને અશુભ કાર્ય કરતાં અટકવાની છે. તે ૨જકણોની ૨૬ જાત છે તે પૈકી ૮ કર્નરજ ગણાય છે એનો આલબેલ પોકારી છે. જ્યારે શુભ કાર્ય સત્વરે કરવા માટેની પડઘમ ઉપયોગ જડ- ને ચેતન બંનેમાં થાય છે. પણ સાથોસાથ વગાડી. છે. જ આ કમરજ નિગોદના જીવોની સાથે જ છે જયારે એક આત્મા આથી એમ તો નક્કી થાય છે કે, માણસને સારાં ખોટાં કાર્યો મુક્તિ પદને મેળવે છે ત્યારે એક જીવ નિગોદમાંથી ભવ ભ્રમણ કરવાનો આવો સારો ખોટો બદલો આપનાર કોઈ ન્યાયાધીશ માટે નીકળે છે. એ જીવને એ કમ્રજ લાગવાથી તેને ભવો કરવા. અદ્રશ્ય શક્તિથી કામ કરી રહેલ છે. એ ન્યાયાધીશ એટલે પડે છે તો ભગવાન, પ્રભુ, પરમાત્મા, ગૉડ, ઈશ્વર જે કહો તે., પણ ભગવાન આમ તો જીવ અભુત તેજસ્વી છે પણ કમરજથી ખરડાવાથી. કોઈનું કદાપિ ભૂંડું તો કરે જ નહિ. આમ ઉલટી વાત થઈ ત્યારે મૂળ રૂપ ઢંકાઈ જાય છે. અને તેમ કર્મ રાજાની આજ્ઞા મુજબ વર્તન એક અદ્રશ્ય શક્તિ પ્રાણી માત્રનો જે દોરી સંચાર કરી રહેલ છે. કરવું પડે છે. એમ તો માનવું જ પડશે. | કર્મના સમૂહમાંથી એક નંબરનો સમૂહ કંઈ ઉપયોગમાં - જૈન ધર્મનાં શાસ્ત્રો ફરમાવે છે કે પ્રાણી માત્રને તેના ભલા આવતો નથી. બેકી નંબરનો સમૂહ ઉપયોગમાં આવે છે તેના આઠ બૂરા કાર્યનું ફળ આપનાર એક મહાન શક્તિ જરૂર છે. તે શક્તિનું પ્રકાર પડે છે તે જડ ને ચેતને બધા પદાર્થો પર અસર કરે છે. નામ છે કર્મસત્તા. આત્મા પર લાગતાં આઠે પ્રકારનાં રજ સમૂહ જાદા જાદાં કાર્યો કરે સારાં કર્તવ્યો કરનાર માનવને એ કર્મસત્તા ઉત્તમ પ્રકારના સુખ-વૈભવ અર્પણ કરે છે. જ્યારે પાપકર્મ જેવાં કનિષ્ઠ કર્મો કરનાર પહેલો ઔદારિક જો તિર્યંચ અને માનવ પ્રાણીનાં શરીર આત્માને દુઃખના દરિયામાં ધકેલી દેતાં પણ એ શરમાતી નથી. . બનાવે છે રહેવાના મકાન અને વસ્તુઓ બનાવે છે. કર્મસત્તાની સામે જ વિરોધ પક્ષમાં ધર્મસત્તા પણ બેઠી. છે. બીજો વૈક્રિય જથ્થો દેવ અને નારકીનાં શરીર, વિમાનો ધર્મસત્તાનું મુખ્ય કાર્ય તો પ્રાણીમાત્રને ચોરાશી લાખ યોનિમાંથી ભવનો આદિ બનાવે છે. રખડતા રખડતા માત્ર શુભ માર્ગે વાળીને મુક્તિનગરને પંથે લઈ ત્રીજો આહારક જથ્થો પ્રાણીનો ખોરાક બનાવે છે. નાનાં મોટાં જવાનું છે. દરમિયાન તેને ઓછા વત્તા પ્રમાણમાં શુભ ફળ સ્વરૂપે શરીર બનાવવાનું કામ કરે છે. સ્વગાદિ સુખ વૈભવો ધનસંપતિ આદિ સગવડો આપવાનું કાર્ય પણ ચોથો તેજશ જથ્થો શરીરમાં ખોરાક પચાવવા ગરમી ઉપન કરે છે. એ સુખ વૈભવો કે ધનસંપત્તિમાં સપડાયા પછી પ્રાણી કરવાનું કાર્ય કરે છે. ધર્મસત્તાને વિસરી જાય અને કર્મસત્તાના સુભટ મોહરાજાના સકંજામાં પાંચમો ભા.સાવર્ગણાથી પ્રાણીથી બોલાતા શબ્દો ઉત્પન્ન સપડાઈ જાય તો પછી જોઈ લો એ ભાયડાના સપાટા, આત્માને થાય છે. ઠેરઠેરથી નિમ્ન સ્તર સુધી ફેંકી દેતાં તેને જરાય દયા આવતી નથી. છઠ્ઠો શ્વાસોશ્વાસ વગણાનો પ્રાણી.ઓ શ્વાસોશ્વાસમાં ધર્મસત્તા ને કર્મસત્તા. બંને પોતપોતાના કર્તવ્ય બજાવતાં પ્રાણી ઉપયોગ કરે. માત્રનો ન્યાય તોલવામાં સિવિલ જજ તરીકેની ફરજ બજાવે છે. આ જ સાતમો મનોવગણા - પ્રાણીઓના મનમાં વિચાર મનન કર્મસત્તા શું છે ? અને કેવી રીતે આત્માને હેરાન કરે છે તે વિષે ચિંતન કરવામાં કામ લાગે થોડીક વિચારણા અહીં કરવામાં આવી છે. આ છેલ્લો આઠમો કાર્મણી વગણા, એટલે જ કેમની રજ પ્રાણી. આત્મા એ પરમાત્માનું મહા તેજસ્વી અને અદૂભૂત સ્વરૂપ માત્રને સુખ દુઃખના અનભવ કરાવનાર એ કમસત્તા છે. પણ આત્મા પર અનેક દુષ્કૃત્યોના ઉકરડાના થર થર જામી. | એ કર્મસત્તાની રજકણના પણ આઠ પ્રકાર પાડેલા છે. ગયા છે. એ જામેલા થર દૂર કરવામાં આવે તોજ મૂળ સ્વરૂપને તે ( જ્ઞાનને ઢાંકનાર જ્ઞાનાવરણીય કર્મ, દર્શન શાસ્ત્રને ઢાંકનાર પામી શકે. એ કમથરને તોડવાના ઉપાયો પણ શાસ્ત્રોમાં સુંદર રીતે દર્શનાવરણીય કર્મ. જે તે દેખીને મોહે રાગમાં ફસાવે તે મોહનીય બતાવ્યા છે. કર્મ, અનંતા બળને અટકાવનાર તે અંતરાયકર્મ એ ચાર ઘાતી કર્મ | એ કમ ૮૧ શ્રીમદ્દ જવાશેનસૂરિ અભિનન્દન ગાંધ/ગુજરાતી વિભાગ जयन्तसेन हृदय धरो, पवो नित आश्रम || विनयवान पालक सदा, गुरूजन का आदेश । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રહે. કહેવાય. શુભાશુભ પ્રવૃત્તિઓનો યોગ. હંમેશા શુભ પ્રવૃત્તિમાં આત્માને અનંતા સુખ ને અટકાવનાર વેદનીય કર્મ, જીવની અક્ષય જોડવો પણ અશુભ પ્રવૃત્તિઓથી દૂર રહેવું જોઈએ. સ્થિતિ ઓછી કરનાર આયુષ્ય કર્મ, જીવ અરૂપી હોવા છતાં તે ક્રિયા ધર્મની હોય તો ધર્મ કર્મ બંધાય. અને પાપ ક્રિયા હોય અટકાવનાર ગોત્ર કર્મ, અને જીવની અગુરુ લઘુતા અટકાવનાર તો પાપ કર્મ બંધાય. નામ કર્મ છે એ ચાર અઘાતી કહેવાય છે. 2 આ કર્મો ખેરવવાના ઉપાય પણ છે. | આ કર્મોના પણ પ્રકાર પાડેલા છે. જ્ઞાનાવરણીય ઉદયમાં હિંસાનુ રૂપ શારીરિક નબળાઈ આવે. રોગાદિ થાય આવે ત્યારે અજ્ઞાનતા છવાઈ જાય ભણતર ચઢે જ નહીં યાદ ના અહિંસાનુ રૂપ સશક્ત શરીર બની શકે. પ્રભુ પ્રાર્થના એક ચિત્તે કરી સાચો પશ્ચાતાપ કરનાર સ્પષ્ટ દર્શનાવરણીયના ઉદય વખતે આંધળા બહેરાં લુલા લંગડા કર્મ ખરી જાય, પાપ ન જ કરવું. અજાણતાં કે સંજોગવશાત્ કરવું બનાવે પાંચ ઈન્દ્રિયોનો બંધન કરાવે. પાંચ પ્રકારની નિદ્રા લાવે. પડે તો પણ ડરતાં ડરતાં કરવું. મોહનીય કમ લોભ મોહ માન ને માયા રાગ ને દ્વેષ ઉત્પન્ન પાપ કરતાં ચલાવી લે. જરાય પસ્તાવો ન કરે. અને થયા. કરી તે દ્વારા મિથ્યાત્વ અવિરતિ કષાયો બનાવે, સત્ય ધર્મથી ત્યારે મોડેથી સમજાય કે મેં પાપ કર્યું છે. આ કર્મબંધ દૂર કરવા. અટકાવે ગુરુ પાસે પ્રાયશ્ચિત લેવું જોઈએ. હસતાં હસતાં પાપ પ્રવૃત્તિ કરી. I અંતરાયકર્મથી માનવ ભિખારી કૃપણ રોગીષ્ટ બને. વેદનીય આનંદ મેળવે તો નિધત્ત કર્મ બંધ થાય તે મટાડવા તપ સાધના કર્મ બે પ્રકારે ઉદયમાં આવે. શાતા વેદનીય શાંતિથી દુઃખને સાથે પશ્ચાતાપ કરવો જોઈએ. ભોગવાવે, અશાતા વેદનીય કર્મ હાયવોય કરતા દુઃખને ભોગવાવે છેલ્લું કમ નીકાચીત, ભોગવ્યા વિના છૂટકો ન થાય. લાખો. | આયુષ્ય કર્મ જુદી જુદી ગતિમાં જન્મ અપાવે ને મરણ થાય વર્ષ સુધી માસક્ષમણને પારણે માસક્ષમણ કરે તો પણ ન છૂટે. ત્યારે બીજી ગતિ મળે અતિ ઉગ્ર આનંદથી એ પાપ કરે. પાપ કર્યા પછી તેની પ્રશંસા કરે, ગોત્ર કર્મ - ઉચ્ચ નીચ ગોત્રમાં જન્મ આપે આ પાપકર્મ ભવોભવ સુધી સાથે જ આવે. નામ કર્મ શરીરના અવયવો નબળા સારા આપવાનું કાર્ય કરે કર્મ બંધન સ્થિતિ, કાળ, રસ ને બળ એ ચાર પ્રકારનાં આ રજ લાગવાના ચાર પ્રકારો છે તેને કર્મ બંધ કહેવાય. શુભાશુભ ફળ આપે છે. ૧ ફક્ત ધક્કો લાગતાં જ ખરી જાય એ સૃષ્ટ - કમરજને બળવાન કે બળ વિનાની કરવી એ આપણા હાથની. બાંધેલ દોરો છૂટે તો જ છૂટા થાય તેવી બધી વાત છે. સન્ડ ચોંટાડેલી હોય તે છોડવા મહેનત કરવી પડે તે કોઈ નિમિત્તો ઊભાં થાય ત્યારે કર્મનો ઉદય થઈ ફળ નિધત. આપવા લાગે છે. માટે અશુભ નિમિત્તોથી દૂર રહેવું. ૪ કોઈ પણ ઉપાયે છૂટી જ ન પડે તે નિકાચીત. - કમરજને લાગતી અટકાવવી તેનું નામ સંવર. ચોટેલી રજ દૂર એ ચાર પૈકી ત્રણ પ્રકારની રજ તો પુરુષાર્થ કરવાથી હટાવી, કરવાનો પ્રયત્ન કરવો તેનું નામ નિર્જરા. દૂર કરી શકાય જ્યારે ચોથા પ્રકારના નિકાચીત કર્મ તો પ્રાણી આંખથી સૌદર્ય નીરખનારા આંખ વિનાના કીડા માંકડ બને માત્રને ભોગવવા જ પડે છે. કાનથી અશ્લીલ સાંભળનારા કાન વિનાના મંકોડા બને પાણી મેળવવા નળના કનેક્શન હોય છે તે પ્રમાણે કર્મ રજના આ રૂપ પાછળ ઘેલા બનનાર ઊંટ જેવા અઢારે વાંકા અંગવાળા સંબંધમાં પણ છે. થાય. મોટો નળ એટલે મિથ્યાત્વ, મોટું બાકોરૂ તેથી વધુ કર્મની રજ અભિમાનથી અક્કડ ફરનારા તાડના ઝાડ બને આવીને ચોટે. આમ માણસ જેવું કર્મ કરે તેવા ફળ તેને કર્મરાજા આપે છે. તેથી, નાનો નળ એટલે અવિરતિ, બીજુ બાકોરૂ. પહેલાથી આયુષ્ય બંધ જીવનના ૨/૩ ભાગે થાય છે ન થાય તો પછી ઓછા પ્રમાણે કર્મજ આવી શકે. પછીના ૨/૩ ભાગ પડતાં છેલ્લી પળે પણ બંધાય છે. માટે જ મૃત્યુ તેથી નાનો નળ એટલે કષાયો ક્રોધ માન માયાદિ ત્રીજું સમયે ભગવાનનું નામ સંભળાવવાનો રિવાજ છે. બાકોરૂ. વારેવારે કષાયો થઈ જાય ત્યારે આ બાકોરાથી આત્મા | દેવ નાટકનું આયુષ્ય નિરૂપક્રમ છે તે ભોગવવું જ પડે. ઢંકાઈ જાય. તિર્યંચ માનવનું આયુષ્ય સોળક્રમ છે તે આકસ્મિક તુટી પણ નાની નળી. એટલે યોગ. ચોથું બાકોરૂં મન વચન થી થતી જાય. એક સામટું ભોગવાઈ પણ જાય. અસ્તુ. ૨ A Divisitivities / Oિ VISણાવા OVOMOMOVOVOMOVONOVOM RERIK VONOVOVOVOVOVOMOMO ૮૨ जयन्तसेन समथे वह, जीवन का सन्देश ।। गुरू आज्ञा में रह किया, निग्रह मन वच काय । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વ કે માનવી : એક શાકાહારી પ્રાણી (ડૉ. શિલ્પા નમચંદ ગાલા, મુંબઈ) 00 મહાભારત ની વાત છે. વેરની અગ્નિમાં બળતા બ્રાહ્મણ પુત્ર અશ્વત્થામાને વિચાર આવે છે, રાતે ઊંઘતા પાંડવોની હત્યા કરી નાખવી..... કૃપાચાર્ય, કૃતવર્મા અને અશ્વત્થામા રાત્રે ઝાડ નીચે સૂતા છે. અશ્વત્થામા રાતે પાંડવોની કતલ કરવાના મનસુબા સેવે છે, પરંતુ કૃપાચાર્ય તેને સમજાવે છે કે ઊંઘમાં સૂતેલાઓની હત્યા કરવામાં અધર્મ રહેલો છે. એના કરતાં સવારમાં સામી છાતીએ લડવું જોઈએ, કૃપાચાર્ય એને સમજાવી શાંત પાડે છે. પણ તેજ વખતે અશ્વત્થામા જૂએ છે કે અંધારામાં ઘુવડ ઝાડ પર ઊંઘમાં સૂતેલા કાગડાનાં બચ્ચાંને ચૂંથી મારી નાખે છે. । બસ ! અશ્વત્થામાને ગુરુ ચાવી મળી જાય છે. ઘુવડ જેવા ગુરુ ભેટી જાય છે અને તે કૃપાચાર્યને જગાડી આ ગુરુ જ્ઞાનના આધારે સૂતાઓની હત્યા કરવા નીકળી પડે છે...... માનવી જ્યારે પશુ-પંખીઓના આચાર નિયમોના આધારે પોતાના ધર્મની વ્યાખ્યા બાંધે છે, ત્યારે માણસ જેવો માણસ વિકૃત ધર્મના પંથે ચઢે છે ભગવાન પાસે મહાભારતમાં વિકૃત કોટી મૂકી છે. ડાર્વિન ના 'Survival of the firtist ‘યોગ્યનું જ અસ્તિત્ત્વ' વાળા કાયદાનું આવું અર્થઘટન તે પછી છેક નાઝી જમાના સુધી થતું રહ્યું. પ્રાણી સૃષ્ટિમાં પ્રવર્તમાન આ નૈસર્ગિક અને વૈજ્ઞાનિક કાયાને માણસે પોતાના ધર્મ માટેનું પ્રમાણ માન્યું અને તેમાંથી નિત્શવાદ, નાઝીવાદ અને ફાસીવાદનો જન્મ થયો. મહર્ષી વ્યાસે આ તથ્યનું થથાર્થ નિરૂપણ કર્યું છે. સંસ્કૃત માનવી પશુઓને અનુસરી કેટલો વિકૃત થાય છે, થઈ શકે છે અને થશે, તેનો સંકેત પણ આર્જવ દ્રષ્ટા વ્યાસે આ ઘટના દ્વારા આપી દીધો છે જીવો જીવસ્ય જીવનમ્ ” એ પ્રાણી સૃષ્ટિનો કુદરતી નિયમ છે, માનવ સૃષ્ટિનો નહિં. માનવીમાં રહેલી પશુતાએ આ નિયમ પોતા માટે અપનાવી લીધો છે. માનવી એમજ માની બેસે છે કે હું તો કુદરતનું સર્વ શ્રેષ્ઠ સર્જન, આ ધરતી. એનું પેટાળ, પ્રાણી, વૃક્ષો, પ્રાણીઓ, પશુઓ, તમામ જીવસૃષ્ટિ, તમામ ડૉ. શિલ્પા નેમચંદ બાળા સાધનો, પોતાનાં સુખસગવડ માટે જ શ્રીમદ્ જયન્તીનસૂરિ અભિનદન ગુજરાતી વિભાગ F This Day of w Je nice ple 35 THN RES 07/03/2 15 અસ્તિત્વ ધરાવે છે. એનો ગમે તેવો દુરૂપયોગ કરવાનો પાતાને અબાધિત અધિકાર છે. સ્વાદ માટે પ્રાણીને મારીને ખાવાનો પણ અધિકાર છે. બુદ્ધિમાન માનવીએ મનગમતા સિદ્ધાંતો ઉપજાવી કાયા. * જીવો વસ્ય જીવનમ્ · એ નિયમ પ્રાણીસૃષ્ટિનો છે, માનવ એ સૃષ્ટિનો નહિ. એક પશુને માણસ ખેતીના કામમાં જોતરી શકે છે. તેનો ઉપયોગ કરી શકે છે, પરતું કોઈ પશુ પોતાની મેળે ખેતી કરી શકતો નથી. અનાજ ઉગાડી શકતો નથી. રાંધી પણ શકતો નથી. એટલે જીવન સાચવી રાખવા પણ કેટલાક પશુઓ જીવો વસ્ય જીવનમ્નું અનુસરણ કરે છે. Rake પરંતુ પ્રાણી સૃષ્ટિનો આ કાયદો ભક્ષક અને ભક્ષ્યનો સિદ્ધાંત Total નથી. બીજો પણ એક મહત્વ પૂર્ણ નિયમ આ સૃષ્ટિમાં પ્રવર્તે છે. ઉત્ક્રાંતિની પ્રક્રિયામાં જેને સીમ બાયોસીસ કહેવાય છે, પરસ્પર શાંતિમય સહ અસ્તિત્વ એજ પ્રતિપાદન કરતાં શાસ્ત્રોએ કહ્યું પરસ્પર ઉપગ્રહો જીવાનામ્ · – ઉત્ક્રાંતિવાદનાં પ્રતિપાદન પ્રમાણે મનુષ્ય એ ઝા જંગલ નિવાસી કૃષિ સમાજનું વંશજ છે. હક્ક પ્રીડેટર્સ નામની વાનર જાતિ શાકાહારી છે અને માનવી તેની સૌથી નજીક છે. કુલ આહાર વગેરેની વ્યવસ્થા પછી તે જંગલ છોડતાં ગુફાવાસી થયો અને શિકારનો આદી થયો. નારી વર્ગ પણ આ કાર્યમાં સામેલ રહેતો. ગુહ્નવાસમાં સ્થિરતા પછી ધીમે ધીમે સ્ત્રી વર્ગે ફળફૂલ ઉછેર અને ખેતીની પેદાશ શોધી કાઢી અને એમાં કુશળતા પ્રાપ્ત કરી. ૮૩ છે ખેતી પ્રધાન વ્યવસ્થામાં ફળદ્રુપતા આશદ રૂપ રહેતી. અને આદિ માનવ સાવ જ કુદરતના કલ્યાણકારી સ્વરૂપોના દેવીદેવતાઓમાં માનતો થયો. દેવદેવીઓને વિવા અનેક પ્રકારના પૂજાપાઠ, ક્રિયાકાંડ, મંત્ર-તંત્રનો આશરો લેવાનો. આથી તંત્રમાં સ્ત્રી શક્તિનું પ્રાધાન્ય છે સાંખ્ય દર્શનમાં પણ સ્ત્રી શક્તિનું મહત્વ જણાવાયું છે તંત્રનો પ્રચાર બિહાર, બંગ દેશ, આસામ આદિ ઉત્તર પૂર્વ પ્રદેશોમાં થયો. જેના અવશેષ રૂપે હજી કાર્લી-દૂર્ગા પૂજા એ વિભાગોમાં આજે પણ પ્રચલિત છે કૃષિ વિષયક કૌશલ્યનાં કારણે માતૃસમાજ વિકસ્યા અને માતૃર્વેશ ગાંધાર કામરૂપ (આસામ) વગેરે પ્રદેશોમાં અસ્તિત્વમાં આવ્યા. આજે પણ બ્રહ્મદેશ, કેરળ વિ. સ્થળોએ માતૃ સમાજ વ્યવસ્થાનાં અંશ જોવા મળે છે. આમ તંત્ર અને વેદ કાળમાં અગમ્ય શક્તિની પૂજા, તેને રીઝવવા મંત્ર ઉપાસના ભોગ-બલિ વિ. માગેર્ગ અપનાવવામાં આવતા. ટોળીનો સભ્ય જે આવી ધાર્મિક વિધિઓ કરાવતો તે પૂજારી કહેવાનો તેને શિકારે જવાની ફરજ પાડવામાં આવતી નહીં. અને વિધિની સેવા क्रोध विजयी बनो सदा, सुनो शान्ति उपदेश । जयन्तसेन धर्म बडा, नहीं तनिक हो क्लेश | www.janelibrary.org Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બદલ રોજી મળી રહેતી. ક્રમે ક્રમે આ પૂજારીના વંશજો સમાજમાં માટીનાં વાસણો પર રંગબેરંગી ચિત્રો. ઘેરા પાકા રંગથી વર્ચસ્વ ધરાવતા થઈ ગયાં. એ વર્ચસ્વ ટકી રહે તે માટે આ વર્ગે દોરતા આ ચિત્રો લગભગ ૭૦૦૦ વર્ષ સુધી અકબંધ મળી. લોકોના મનમાં અનેક પ્રકારના વહેમોની જડ ઊંડે સુધી રોપી આવેલ છે. દીધી. ખેતી પ્રધાન સમાજમાં પણ આ પૂજારીઓ જન્મ, મૃત્યુ જેવા નાઈલ નદીનાં વિસ્તારમાંથી મળી આવેલ પ્રાચીન ગામડાંઓનાં અનેક પ્રસંગોએ ક્રિયા કાંડો અનુષ્ઠાન કરાવતા અને પોતાનો કર મંપિગ પરથી નિર્દેશ મળે છે કે આ ગામડાઓમાં કટેલ પ્રથા ઉઘરાવતા. યજ્ઞ, હોમ-બલિદાન-હિંસા જ્યારે અતિ ક્રમી ગઈ ત્યારે પ્રચલિત હતી. નાના કુટુંબો રહી શકે તેવી અનેક ઝૂંપડીઓ મળી જૈન બુદ્ધ મતમાં એનો સૂક્ષ્મ પ્રતિકાર થયો. આવે છે. e પ્રાચીન ઐતિહાસિક કાળના, પત્થર યુગ, બ્રોંઝ (કાંસા) યુગ | જર્મનીના ‘ કોલોન ' શહેરની બાજુમાં આવેલ ‘લીડેંથાલ' અને લોહ યુગ. લોહ યુગ અને પત્થર યુગના ત્રણ વિભાગ ગામનું ખોદકામ કરતાં પ્રાચીન ગામ અકબંધ હાથ લાગ્યું છે. પાડવામાં આવ્યા છે જૂનો, મધ્યમ અને નવો. જોકે દુનિયાભરમાં ૧૦૦ ફૂટ લાંબા અને ૨૦ ફૂટ પહોળા ૨૧ ઘરો મળી આવ્યા. આ આ યુગોનો પ્રારંભ અને અંત એક જ સમયે નથી થયો. ઘરોમાં ગામનાં ગામો કે ટોળી. રહેતી હોવી જોઈએ એમ સૂચિત | નવા પત્થર યુગનાં માનવીએ ખેતીની કળાને શોધી વિકસાવી, થાય છે. તો નવા પત્થર યુગનો માનવી ફળદ્રુપ જમીનમાંથી હળ અને બળદથી. પૂરાતત્વવિદોના સંશોધનો નિર્દેશ કરે છે કે ઈ. સ. ૪000 ખેતી કરી અનાજ ઉગાડી શકતો. આ ખાદ્ય પદાર્થોનો પૂરવઠો. પૂર્વે યુરોપ એશિયા અને આફ્રિકાના માનવીઓ ખેતી-પશુપાલન એટલો વિપુલ રહેતો. કે પટેલો, પૂજારીઓ, સામંતો, સરદારો, અને કરતા, ઘર બાંધતા, વસ્ત્રો વણતા, ઓજારો અને ખેતીના સાધનોનો કારીગરો પોતાનો વ્યવસાય સ્વતંત્રપણે કરી શકતા અને સમાજ ઉપયોગ કરતા મકાઈ ઉગાડતા.. જમીનને ફળદ્રુપ બનાવવા માનવ તેમને નભાવી શકતો. આમ શસ્ત્રો બનાવનાર લુહાર, ઘર બાંધનાર અને ઢોર ઢાંખરના મળમૂત્રનો ઉપયોગ કરતા.. કડિયા, શિલ્પકાર, ચિત્રકાર, સુતાર વિ. હુન્નર વિકસ્યા અને કારીગર વર્ગ અસ્તિત્વમાં આવ્યો. આ વર્ગો ઉચ્ચાલન અને ગરગડી I જગતની ઘણી બધી સંસ્કૃતિઓનાં, મંગળાચરણ અને વિકાસ સંચાલિત યંત્રોની શોધ કરી. આ યંત્રોથી ભારી વસ્તુ સહેલાઈથી નદીના તટે થયાં છે. ખેતી માટે અત્યંત ફળદ્રુપ જમીન સિંધુ અને ઊંચકી શકાતી. ગંગા નદીના વચ્ચેના પટ પર હતી. તેવીજ રીતે ઈજીિપ્તની નાઈલ. નદીનો પટ એટલેજ સંસ્કૃતિના વિકાસમાં સભ્યતાના ઉદયમાં મિસર અમુક પ્રદેશોમાં ત્રણ-ચાર વર્ષમાં ધરતીની ફળદ્રુપતામાં નોંધપાત્ર | (ઇજિપ્ત) મેસોપોટેમીઆ-ઈરાક, ભારત અને ચીન મોખરે રહયો. ઓટ આવતી એટલે ધરતી મેળવવાની ચિંતામાં માનવી જંગલોને મોહેન્જોડેરો અને હરાપ્પા તેમજ લોથલમાં મળી આવેલા અવશેષો કાપી ધરતી મેળવવાના પ્રયત્નો કરતો. આ રીત યુરોપના દરેક આની સાક્ષી પૂરે છે. ભાગમાં પણ આચરવામાં આવતી આજે પણ આસામ અને નાગ પ્રદેશોમાં આ રીત અખત્યાર કરવામાં આવે છે. ખેતીના પ્રારંભ સાથે માનવી સ્થિર બની રહેવા લાગ્યો સમુહમાં રહેવા લાગ્યો. માનવ સમાજ અસ્તિત્વમાં આવ્યો. સમાજમાં ઈ. સ. ૧૯૫૦ માં જોર્ડનની ખીણમાં જેરિકોગામનાં પ્રાચીન રહીને જ માનવીએ સંસ્કૃતિના ચરમ શિખરો સર કર્યા છે. પ્રથમ ખંડિયરો અને અવશેષો પરથી તારણ મળ્યું કે- જી તીર્થંકર ઋષભદેવે માનવજાતને અસિ, મણિ, કૃષિની વિદ્યાઓ ૧) આ ખંડિયેરો. ઈ. સ. પૂર્વે ૭000 એટલે લગભગ 6000 શીખવી અને સામાજિક માળખાનું નિમણિ કર્યું. વર્ષ પૂરાણા - આજે પણ ખેડુત જ સમાજની ધરીરૂપ છે. ૨) આ સ્થળે આઠ એકર વિસ્તારમાં ખેડૂતોની વસાહત હતી. ન આ પરથી ફલિત થાય છે કે માનવ જાતિ એ નવહજાર વર્ષ ૩) આ વસાહતીઓ ખેતી કરતાં. ઢોર ચરાવતા શિકાર કરતા પૂર્વે ખેતીની શોધ કરી સ્થિર સમૂહ બનીને રહેવા લાગી અને અને ફળ, શાકભાજી જેવી ખાદ્ય વસ્તુઓનો સંગ્રહ કરતા. નદીનાં તટો પર સંસ્કૃતિ અને સભ્યતાનો પ્રથમ આર્વિભાવ થયો ૪) તેમણે માટીનાં વાસણ બનાવવાની કળા હસ્તગત કરી હતી. અને વિકાસ થયો. ૫) આ ગામ જેરિકો - ૧ કોઈ કાળે નષ્ટ પામ્યું અને એજ સ્થાને ન જેમ જૈન દર્શનની પ્રકૃતિ અહિંસા છે તેમ માનવી પણ. એક હજાર વર્ષ પછી વધુ ઊંચાઈએ જેરિકો - ૨ ગામ વસ્યું. નૈસર્ગિક રીતે પ્રકૃતિથી અહિંસક છે. અને માંસભક્ષ, માનવ શરીરની રચના માનવીય વૃત્તિઓ અને માનવીય સભ્યતા. સાથે ૬) ઈ. સ. પૂર્વે ૪૭૫૦ ની આસપાસ કુડિસ્તાનના ‘જેરમો’ ગામ. કોઈ રીતે સુસંગત નથી. જ્યાં સુધી ખેતીની શરૂઆત ન્હોતી થઈ પાસે ' પ્રાચીન જેરમો ' વસ્યું હતું જેના રહેવાસીઓ ઘઉં ત્યાં સુધી શિકાર કરી. માનવી પોતાનો નિવહિ કરતો અને તે સમયે જવની ખેતી કરતા. ગાય ભેંસ-ઘેંટા બકરાં ચરાવતા, ત્યાં એ અનિવાર્ય પણ કહી શકાય. પરંતુ માનવી. જ્યારે વિપુલ જથ્થામાં બારે માસ પાણી મળે તેવું ઝરણું વહેતું. નાના ખેતરોને નહેર અનાજ ઉગાડતો થયો અને આહારની કોઈ સમસ્યા ન રહી, છતાં વાટે પાણી આપવાની વ્યવસ્થા હતી. તેઓ કપડાં વણતા, પણ બલિદાનનાં પ્રસાદ રૂપે કે અન્ય બહાના હેઠળ માંસાહારીની. જે શ્રીમદ્દ થાણા રોબિલિદદન પણ પાર વિભાગ क्रोध मानसिक रोग का, उदित करे विज्ञान | जयन्तसेन रहे नहीं, मर्यादा का मान |org Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રવૃત્તિ માનવી આજ સુધી. કરતો આવ્યો છે એ માત્ર વિકૃતિ છે. એનાં ઉદાહરણ રૂપે છે. અને તે અંગેનાં કોઈ પણ બહાના અને કારણ વજૂદ વગરનાં માંસ ભક્ષણથી કૃમિનો પણ રોગ થાય છે ઘેટાં-બકરાંનાં સગવડિયાં અને ઉપજાવી કાઢેલાં છે. લીવર અને ફેફસામાં પાણી જેવો એક પદાર્થ (cysts) હોય છે, જે જૈન દર્શન માને છે કે તમામ જીવો સરખાં છે, જીવસત્તા એ પ્રાણીઓને કષ્ટ આપ્યા કરે છે. આ પદાર્થવાળું માંસ ખાવામાં સમાન છે, માત્ર ઈન્દ્રિયોનાં વિકાસની દૃષ્ટિએ એમાં ભેદ છે. જૈન આવી જાય તો તે મનુષ્યના શરીરનાં અવયવો માટે ખૂબ નુકશાનકારક દર્શનની. અહિંસા. તમામ જીવ સૃષ્ટિને આવરી લે છે. નાનામાં નાના પુરવાર થાય છે. કોઈ પણ જીવની હિંસા તો ન કરવી પણ દરેક જીવને હિંસામાંથી થોડાંક વર્ષો પહેલાં લંડનની એક ઈસ્યુરન્સ કંપનીએ ઉગારવો કારણ બધા જીવો સુખ ચાહે છે, દુઃખ કોઈને ગમતું નથી. શાકાહારીઓના વીમા માટે છ ટકા. વળતર માટે પ્રસ્તાવ મૂક્યો તમામ જીવો પ્રત્યે આદર એ મૂળ- ભૂત સૂત્ર છે. એવી દલીલો હતો, કારણ કે તેમનું માનવું હતું કે માંસાહારી કરતાં શાકાહારીઓ. કરવામાં આવે છે કે પશુનાં બલિદાનિથી દેવો. રીઝે વરસાદ પડે, સ્વસ્થ અને દીઘયુિ હોય છે. માંસ ભક્ષણથી કોઈ સંતોષ નથી. દેવોનાં આશીર્વાદ મળે, એ. પશુનાં માંસનો પ્રસાદ ખાવાથી પુણ્ય મળતો, પણ દર્દ, પરેશાની અને ક્યારેક મૃત્યુ મળે છે. મળે અને વળી. બલિદાન અપાયેલ પશુને સદ્ગતિ મળે. માનવીની નજીક એવા કેટલાંક વાનરોની જાતિ પણ શાકાહારી. અમુક સંપ્રદાયો તો માને છે કે પશુઓમાં આત્મા નથી અને છે. માણસની જેમ એના શરીરની પણ રચના શાકાહાર માટે યોગ્ય કતલ કરવામાં આવે તો એમને કંઈ પીડા થતી નથી. અમુક છે. માંસ ભક્ષણ માટે નહીં. માણસ અને આ વાંદરાઓમાં પણ કોઈ સ્થાપિત હિતો વાળા વર્ગે પોતાની દુકાન ચલાવવા માટે આ બધું હોરવાળા પંજા નથી કે તીક્ષ્ણ દાંત નથી, ચાર્લ્સ ડાર્વિન અને ઉપજાવી કાઢેલું છે. વળી માણસને માંસભક્ષણ કરવું પણ હોય તો જુલિયન હકરૂં જેવા વૈજ્ઞાનિકો એ પણ આને સમર્થન આપ્યું છે. પણ તેઓ મૃત્યુ પામેલાં પશુનું માંસ નથી ખાતાં. પણ માંસ મેળવવા માટે પશુની હત્યા કરે છે સરવાળે તો શબનું જ માંસ ખાય છે. સૃષ્ટિનાં મહાકાય અને શક્તિશાળી. પ્રાણીઓ પણ શાકાહારી. પરંતુ જીવતા પ્રાણીને શબ બનાવ્યા પછી જ ખાય છે.. છે, હાથી, ઊંટ, જીરાફ, ગેંડો, હિપોપોટેમસ, ગાય, બળદ, ભેંસ વગેરે બધા શાકાહારી છે. શાકાહારી પ્રાણીઓનું મોંઢું ગોળ હોય, - પશુઓને જ્યારે કતલખાને લઈ જવાય છે. ત્યારે એને ઘણોજ જ્યારે માંસભક્ષીઓનું લંબગોળ આકારનું હોય. માંસભક્ષી પ્રાણીઓનાં ભય અને વેદના થાય છે કારણકે મૃત્યુ નજર સામે ઉભેલું હોય આંતરડાની લંબાઈ ટુંકી હોય છે જે માંસ ભક્ષણને અનુરૂપ છે, છે, જેને કારણે કેટલાંક જાનવરી તો ક્રોધી અથવા પાગલ બની જાય જ્યારે શાકાહારીમાં તે લાંબા હોય છે. અને શાકાહારને તે અનુરૂપ છે, અત્યંત ભય પામી ભાગવા માંડે છે. એમની આંખમાંથી છે. માંસભક્ષી. જાનવરનું લીવર, યુરીક એસીડ અને અન્ય ઝેરી આંસુની ધાર ચાલી જાય છે. જાનવરોની હત્યા વખતનું દ્રશ્ય પદાર્થો જે માંસાહારથી ઉત્પન્ન થાય છે, તે નાના આંતરડા વડે ભયાનક હોય છે ભયંકર વેદનાથી તેઓ ચીસો પાડે છે, તરફડે છે, જલ્દીથી બહાર ફેંકી શકે છે, જ્યારે મનુષ્યના લાંબા આંતરડામાં જેમ જેમ લોહી વહેતું જાય છે તેમ તેમ રીબાય છે. જીવતા જીવની. ભોજન સામગ્રી ઘણા સમય સુધી રહે છે. જેથી માંસ ખાનાર, ચામડી અને માંસ નિર્દયતાથી અલગ કરી દેવામાં આવે છે, કતલ માણસના પેટમાં ઉત્પન્ન થયેલાં પદાર્થો અધિક સમય સુધી રહે છે પહેલાંની વેદના અને આક્રોશ થકી Toxin જેવા ઝેર ઉત્પન્ન થાય છે | Toxins વિ- લિવર ઉપર બોજા રૂપ બને છે. આવા ઝેરો અંદરને કે જેનું માંસ પણ ઝેરમય બની જાય અને આવું માંસ ખાવાથી અંદર શોષાય જાય છે અને કોઈને કોઈ રોગને જન્મ આપે છે. મનુષ્યમાં તાણ અને સન્નિપાત જેવા રોગ થાય છે. - ફળભક્ષી પ્રાણીનાં આગળનાં દાંત વિકસિત હોય છે અને એક માન્યતા એવી છે કે માંસ ખાવામાં પ્રોટીન મળે છે અને પાછળનાં દાંત પીસવા અને ચાવવા માટે યોગ્ય હોય છે જ્યારે તંદુરસ્તી વધે છે. આ માન્યતા ભૂલ ભરેલી છે. કારણ એટલાંજ માંસભક્ષી પ્રાણીમાં આગલાં દાંત નાના હોય છે અને પાછળનાં પ્રોટીન શાકાહારી વગેરે પદાર્થોમાં પણ મળી રહે છે. જ્યારે વિજ્ઞાને લાંબા અને તીક્ષ્ણ હોય છે; ફળભક્ષી પ્રાણીનું જડબું ખોરાક ને સાબિત કર્યું છે કે વધારે પડતાં પ્રોટીન યુક્ત આહારથી અનેક પીસવા, ચાવવા માટે યોગ્ય હોય છે, જ્યારે માંસભક્ષી પ્રાણીનું રોગો પેદા થાય છે અને માનવીની પ્રજા ઉત્પત્તિની. ક્ષમતા ઉપર જડબું ઉપર નીચે બન્ને બાજુ કામ કરે છે અને ચીરફાડની ક્ષમતા હાનિકારક અસર પડે છે. | ધરાવે છે. ફળભક્ષી પ્રાણીની લાળ પૂર્ણ વિકસિત પ્રક્રિયા છે તે | માંસ ભક્ષણથી એક બાજુ મનુષ્યની. પાશવતા વધતી જાય ખારાશ યુક્ત હોય છે અને મીઠાશ તેમજ સ્ટાર્ચને પચાવવામાં છે, તેમ બીજી બાજુ બુદ્ધિથી તે હિન થતો જાય છે. માંસ ભક્ષણ સહાયક હોય છે. માંસભક્ષી પ્રાણીની. લાળ એસિડયુક્ત હોય છે. ઉત્તેજના વધારે છે નૈતિકતા અને મનોબળને ક્ષીણ કરી નાંખે છે. અને માંસમાં રહેલા પ્રોટીન ને પચાવવા સહાય રૂપ થાય છે. વળી. માંસભક્ષકનું મસ્તક વિચારવામાં ક્ષીણ બનતું જાય છે. હમણાં સ્ટાર્ચને પચાવવા માટેના રસ - ટીયાલીન એમાં બિલકુલ હોતો. હમણા. જાનવરોમાં બીમારીઓ ઘણી વધતી જાય છે. જાનવરોને નથી. ફળભક્ષી પ્રાણીઓનું પેટ લાંબુ અને ચોરસ જેવું હોય છે અને જુદા જુદા પ્રકારની બસ્સો બીમારી થાય છે. તેમાંથી સો જેટલી તો એની રચના અટપટી હોય છે, ત્યારે માંસભક્ષી પ્રાણીનું પેટ સીધું, તેનું માંસ ખાનારને પણ થાય છે, કેન્સર, ટ્યુમર જેવી બીમારી ગોળાઈવાળું અને થેલી જેવું હોય છે જે શાકાહારીઓ કરતાં દસ ૮૫ क्रोध आग में जो गया, उस के सद्गुण नाश । ગાલેન દૂર રહો, હો II &તા વિવો /y.org/ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગણું, હાઈડ્રોક્લોરિક એસિડ છોડે છે. ફળભક્ષી પ્રાણીઓનાં આંતરડા અનેક વિવિધ પ્રકારની વાનગી અને અનેક પ્રકારના સ્વાદ શક્ય એનાં ધડથી બાર ગણી લંબાઈના હોય છે, જ્યારે માંસભક્ષી. હોય છે જે માંસાહારમાં શક્ય નથી. પ્રાણીનાં આંતરડાનો આકાર ગુંચળાવાળો હોય છે, અને ભોજન બીજી અગત્યની વાત એ છે કે માંસાહારીઓ શાકાહારી પચાવવાનું કામ કરે છે જ્યારે માંસભક્ષી પ્રાણીના આંતરડા, નાનાં પ્રાણીઓની કતલ કરીને માંસાહાર કરે છે - માંસભક્ષી પ્રાણીઓની અને સીધા હોય છે અને એનું કામ ભોજન પચાવવાનું નહિં પણ. નહિં, જે સરવાળે સાબિત કરે છે કે શાકાહાર એ શ્રેષ્ઠ આહાર છે. મળત્યાગ કરવાનું હોય છે. ફળભક્ષી પ્રાણીઓનું લીવર યુરિક અપવાદ રૂપ કેટલીક જાતિઓ સાપ-ઉંદર કે મગર પણ ખાય છે. એસિડ યા પેશાબને બહાર ફેંકવાનું કામ કરે છે જ્યારે માંસભક્ષીનું લીવર વધારે સક્રિય હોય છે અને ૧૦-૧૫ ગણું વધારે યુરિક પશ્ચિમ જેવા દેશો પણ માત્ર ધાર્મિક ભાવનાથી પ્રેરાઈને નહિં એસિડ બહાર ફેંકી શકે છે. ફળભક્ષી પ્રાણીઓનાં હાથ અને પણ વૈજ્ઞાનિક સંશોધનને પરિણામે શાકાહાર તરફ વળ્યા છે. આંગળીની બનાવટ ફળ તોડી શકે એવી હોય છે, જ્યારે માંસભક્ષીનો અનેક સંસ્થાઓ આ દિશામાં કાર્ય કરી રહી છે. માંસાહારથી. પંજો શિકાર કરવા માટે તથા ચીરફાડ માટે યોગ્ય હોય છે. હૃદયરોગ, કેન્સર, જેવા બીજા કેટલાક રોગો થાય છે એની યાદી ફળભક્ષી પ્રાણીઓની ચામડી અંદરના વધારાનાં પાણીને પસી.ના લાંબી થતી જાય છે. રૂપે બહાર લાવીને શરીરના ઉષ્ણતામાનનું નિયંત્રણ કરે છે, જ્યારે ખ્રિસ્તીઓનાં સેવન્થ ડે એડવેન્ટિસ્ટ ચર્ચે હવે પોતાની એકસો માંસભક્ષી પ્રાણીઓની ચામડીમાંથી કોઈ પસીનો આવતો નથી. નેવું શાખાઓ દ્વારા માંસ ભક્ષણ અને જાનવરોની હત્યાઓના વધારાનું પાણી. મૂત્રાશય દ્વારા બહાર નીકળે છે. અને શરીરનું વિરોધમાં આખી દુનિયામાં પોતાની વાત બુલંદ રીતે રજૂ કરી છે તાપમાન ઝડપી શ્વાસ લઈ નિયંત્રીત કરી શકે છે. ફળભક્ષી આ ચર્ચનાં આશ્રયે ૪૬૫૦ શિક્ષણ સંસ્થાઓ અને ૪૨૫ આરોગ્ય પ્રાણીઓના પેશાબમાં ખારાશ હોય છે અને કોઈ દુર્ગધ નથી હોતી. ધામો, હોસ્પિટલો અને સ્વાસ્થ સેવા-કેન્દ્રો છે. પોતાની આ સંસ્થાઓ જ્યારે માંસભક્ષીનો પેશાબ એસિડયુક્ત અને દુર્ગંધવાળો હોય છે. દ્વારા આ દેવળે ખૂબ સફળતાપૂર્વક માંસભક્ષણથી થનાર નુકશાનની | હાર્વડ વિશ્વવિદ્યાલયના ડૉ. મરે માંસાહારનાં પરિક્ષણના પ્રયોગો જ વાત લોકો સુધી પહોંચાડી છે એનાં પ્રચાર - પ્રસારમાં પણ બાદ તારવ્યું કે માંસાહાર બાદ હૃદયના ધબકારાં ૨૫ - ૫૦ % અમૂલ્ય યોગદાન આપ્યું છે. વધી જાય છે અને આ સ્થિતિ ૧૫-૦૨૦ કલાક સુધી રહે છે. . બ્રિટનમાં છેલ્લા સો વર્ષથી વેજીટેરીયન સોસાયટી ચાલે છે એન આર્બર વિશ્વવિદ્યાલયનાં ડૉ. લ્યુબર્ગે જનાવર પર અને શાકાહારની પ્રચાર ઝુંબેશ ચાલે છે. માંસાહારનો પ્રયોગ કર્યો. એક ગ્રુપના પ્રાણીઓને માત્ર માંસાહાર બ્રિટનની “ધ યંગ ઈન્ડિયન વેજીટેરીયન્સ' સંસ્થાના યુવાન કરાવ્યો અને બીજા ગ્રુપના પ્રાણીઓને શાકાહાર પર રાખ્યા. ભારતીય કાર્યકરોએ પોતાના ખર્ચે માંસાહારની વિરૂધ્ધ જેહાદ માંસાહારી પ્રાણીઓ ખૂબ લાંબા, ચોડા તંદુરસ્ત દેખાવા લાગ્યા ઉપાડી છે. આ યુવાનોએ ૧૯૭૫ માં ‘શાકાહાર દિવસ’ ઉજવ્યો. પરંતુ થોડા સમયમાં કિડનીના રોગથી મૃત્યુ પામ્યા. જ્યારે શાકાહારી પ્રવચનો આપ્યા, પ્રશ્નોત્તરી થઈ. ગુજરાતી ભોજન દ્વારા વિદેશીઓને પ્રાણીઓ વધુ સ્વસ્થ રહયાં અને વધારે જીવ્યા. માંસાહાર નિષેધ તરફ વાળ્યા અને ઘણાં વિદેશીઓએ માંસાહાર ન આ બધા સંશોધનો જોતાં નિશ્ચિત થાય છે કે માણસની કરવાની પ્રતિજ્ઞા પત્રો પર સહી કરી. ધીરે ધીરે ‘શાકાહારી દિવસ' પ્રકૃતિથી, શરીર રચનાથી. અને નૈસર્ગિક વૃત્તિથી શાકાહાર જ એના મોટા પાયા પર ઉજવાવા લાગ્યો. લંડન, વેમ્બલી, માંચેસ્ટર, બર્મિંગહામ માટે યોગ્ય છે. માંસાહારની પ્રવૃત્તિ એ માનવીની વિકૃતિ છે. અને વગેરે સ્થળોએ ઉજવાયો. શાકાહારી ભોજનના વર્ગો શરૂ કરાવ્યા. માણસમાં રહેલી. દયાની ભાવનાને દબાવ્યા વગર માંસાહાર કરવો લંડન શહેરમાં ‘ગાંધી રેસ્ટોરન્ટ’ નામની હોટલમાં માંસાહાર પીરસાતો, અશક્ય છે. માંસાહારથી માનવીય ગૌરવ હણાય છે. માનવીની આ સંસ્થાના યુવાનોએ એ વિરૂદ્ધ સફળ ઝુંબેશ ઉપાડી અખબારોમાં તામસી પ્રકૃતિ વધુ ક્રિયાશીલ થાય છે. એ હિંસક બને છે; ક્રૂર બને લખ્યું અને છેવટે હોટલ માલિકે હોટલનું નામ બદલવું પડ્યું. ? ઈન્ગલેન્ડના સમાજવાદી પાર્લામેન્ટરીઅન ટોની લેનની દિકરીએ લિયો ટોલ્સટોય એક વખત કતલખાનું જોવા ગયા. તેનું પિતાને કહયું “ તમે સમાજવાદી છો સમાજના કલ્યાણમાં માનો . એમણે વર્ણન લખ્યું છે જે એટલું કમકમાટી ભર્યું છે, આપણે પૂરું છો. સમાજમાં માનવી ઉપરાંત પ્રાણીઓ પણ છે તો તેમના વાંચી પણ ન શકીએ. ટોલસ્ટોયે લખ્યું છે, કે જે કર રીતે હત્યા કલ્યાણનો વિચાર કેમ કરતા નથી ? કરવામાં આવતી હતી અને પ્રાણીને જે વેદના સહેવી પડતી હતી. ટોની લેનનું હૃદય પરિવર્તન થયું અને એણે માંસાહાર છોડી. એનાં આઘાત કરતાં મને વધારે આઘાત એ વાતનો લાગ્યો કે દીધો અને એનો જાહેરમાં એકરાર પણ કર્યો ! માનવી પોતાની પ્રકૃતિગત કરુણાને દબાવી આવી ક્રૂરતા આચરે પાલમિન્ટના સ્પીકર બનીટ વિગેરીલ ચૂસ્ત શાકાહારી છે. શાકાહારના સંમેલનોમાં પણ સક્રિય ભાગ લે છે. | માનવી જો તદુરસ્તી માટે માંસાહાર કરતો હોય, તો માંસાહાર વધારે નુકશાનકારક છે. સ્વાદ માટે કરતો હોય તો શાકાહારમાં (અનુસંધાન પાના. કે. ૮૦ ઉપર) દરેક ધારી कर्तव्य अकर्तव्य का, जिसको होता बोध । जयन्तसेन समझे यदि, कभी न आता क्रोध Irg Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કલિકાલ સર્વજ્ઞ હેમચંદ્રાચાર્યની સાહિત્યનિધિ (પ્રા. ડૉ. અમૃત ઉપાધ્યાય, એમ.એ., પીએચ.ડી., અમદાવાદ) સાંસ્કૃતિક ક્ષેત્રે ગુજરાત સિદ્ધરાજ જયસિંહ અને કુમારપાળના રાજ્યકાળમાં સિદ્ધિના શિખરે હતું. અને એ બન્ને રાજાઓ સાથે શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય ગાઢ સંપર્કમાં આવ્યા હતા. ગુજરાતના શાસકો તથા “શબ્દોરૂપી રત્નો પ્રગટ કરવામાં, પુરાણ પ્રસિદ્ધ તામ્રપર્ણી વ્યાપાર કુશલ આગેવાનોની સંસ્કૃતિ રસિકતાના ફળ રૂપે અણહિલવાડ, નદીને ટપી જતી. શ્રી હેમચંદ્રસૂરિની સરસ્વતીને આપણે હૃદયમાં પાટણ, મોઢેરા, સિદ્ધપુર, સોમનાથ, અર્બુદાચલ અને બીજાં અનેક ધારણ કરીએ” સ્થળે એક એકથી ચઢિયતાં સ્થાપત્યો રચાવ્યા હતાં. શ્રી. ગુર્જરેશ્વર પુરોહિત મહાકવિ સોમેશ્વર ભટ્ટે પોતાના પ્રસિદ્ધ હેમચંદ્રાચાર્યના જ વિદ્વાન શિષ્ય રામચંદ્રના કુમાર વિહારના વર્ણન ‘કીતિકિૌમુદી’ મહાકાવ્યમાં જેમની અખંડ અને અપ્રતિમ સરસ્વતી દ્વારા આપણને એ કાળનાં શિલ્પ, ચિત્રકળા, સંગીત, નૃત્ય અને સાધનાને ઉપરના શબ્દોમાં ભાવાંજલી અર્પી છે તે કલિકાલસર્વજ્ઞના. નાટ્ય કળાનો પરિચય થાય છે. આ સર્વ સાંસ્કૃતિક વૈભવની. સાર્થક ઉપનામથી વિશ્વવંદ્ય બનેલા શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય માત્ર જૈન પાછળ ગુજરાતના સાગરખેડુ શ્રેષ્ઠિવર્ગની સંપત્તિનો સુવ્યય દેખાય લેખકોમાં જ નહીં પરંતુ સમગ્ર ભારતીય સારસ્વતમાં અગ્ર સ્થાને છે. આ યુગની ધાર્મિક દૃષ્ટિ સર્વ રીતે આદર પાત્ર સહિષ્ણુતાની. બિરાજે છે. પ્રાચીન ભારતીય સાહિત્યના વિશ્વવભરના અભ્યાસીઓને હતી. - પછી ભલે એ વિવિધ ધર્મગુરુઓની. સ્પધથિી સજીવ થતી. શ્રી. હેમચંદ્રાચાર્યનો પરિચય આપવાની જરૂર રહેતી નથી કેમકે, રહેતી હોય. ગુજરાતના બે કીર્તિવંત રાજવીઓ, સિદ્ધરાજ જયસિંહ પ્રોફેસર શિવપ્રસાદ ભટ્ટાચાર્ય કહે છે તેમ, “સંસ્કૃતિ પ્રાકૃત અને અને કુમારપાલ સાથેનો શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યનો નિકટનો પરિચય અને અપભ્રંશ સાહિત્યના વિદ્વાનો તેમને એક એવા ગ્રંથકાર તરીકે ગાઢ મૈત્રી એ જેટલું ગુજરાતના ઈતિહાસનું યશોજ્વલ પ્રકરણ છે ઓળખે છે જેમણે આગામી પેઢીઓના હિતાર્થે, જુદા જુદા વિષયોનાં તેટલું જ સંસ્કૃત સાહિત્યના ઈતિહાસનું ય ગૌરવાન્વિત પ્રકરણ છે. ક્ષેત્રોમાં પોતાની. વિસ્તૃત તેમજ વૈવિધ્યમય વિદ્વતાનો ઉપયોગ | શ્રી. હેમચંદ્રાચાર્ય આ બન્ને રાજવીઓના ગાઢ પરિચયમાં કેવી રીતે, કરીને, જે કંઈ લેખનબદ્ધ કરીને સાચવી રાખવા જેવું હતું તે, કેમ અને ક્યારે આવ્યા. તે વાત બહુ જણીતી હોઈ, આપણે એ ગાઢ પોતાના અનેક ગ્રંથો રૂપે પ્રસ્તુત કર્યું છે.” પરિચયના પરિણામે જે સાહિત્યનિધિ નીપજ્યો તે વાત પર ધ્યાન | શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યનું અનેક વિષયોનું પાંડિત્ય અને સર્વ સંગ્રહ કેન્દ્રિત કરીએ. જેવું જ્ઞાન, સંસ્કૃત અને પ્રાકૃત વિદ્યાઓનાં અનેક ક્ષેત્રોને આવરી જ સૌથી પહેલાં એ વાત ધ્યાન ખેંચે છે કે સિદ્ધરાજ જયસિંહના લેતું હતું અને તેથી, સદ્ગત મહા મહોપાધ્યાય ડૉ. પી.વી. કાણે આગ્રહથી જ શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યે તેમનો મહાન ગ્રંથ “સિદ્ધ હેમ’ ર. કહે છે તેમાં “જૈન લેખકોના નક્ષત્રમંડળમાં તો તેઓ એક સૌથી હતો. આચાર્યશ્રીની પ્રસિદ્ધ ‘અનુશાસન ત્રયી’ કે ત્રણ અનુશાસનોમાં તેજસ્વી. તારક હતા; કેમકે જ્ઞાનની. અનેકાનેક શાખાઓ. વિપુલ આ સર્વ પ્રથમ શાસ્ત્રીય ગ્રંથ હતો. આ ગ્રંથને ‘શબ્દાનુશાસન’ એવું પ્રમાણમાં ખેડનાર તેઓ સર્વ શ્રેષ્ઠ જૈન લેખક હતા”. આમ, શ્રી. સાર્થક નામ અપાયું હતું કેમકે એનું ‘સિદ્ધહેમચંદ્ર' એ શીર્ષક તો હેમચંદ્રાચાર્યના વિશાળ સાહિત્યનિધિમાં વ્યાકરણશાસ્ત્ર, કોશશાસ્ત્ર, સિદ્ધરાજ જેવા સાહિત્યરસિક રાજા પ્રત્યેની હેમચંદ્રાચાર્યની માન છંદશાસ્ત્ર તથા નાટ્યશાસ્ત્રથી માંડીને તત્ત્વજ્ઞાન, ન્યાયશાસ્ત્ર, તથા પ્રેમની લાગણીને અમર કરવા માટે અપાયું હતું. માળવાની. ચરિત્રસાહિત્યિ, યોગશાસ્ત્ર ઉપરાંત કાવ્યાત્મક, - વર્ણનાત્મક ગ્રંથોનો માફક ગુજરાતમાં પણ મહાન જ્ઞાનગ્રંથ રચાય એવી ઈચ્છાથી સમાવેશ થાય છે. સિદ્ધરાજે કહે છે કે શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યને નવા વ્યાકરણ ગ્રંથની રચના. સંસ્કૃત સાહિત્ય તથા ભારતીય વિદ્યાના ક્ષેત્રે અપૂર્વ યોગદાન કરવાનું એટલા માટે સોંપ્યું હતું કેમકે આચાર્યશ્રીને સંસ્કૃત સાહિત્ય આપનાર શ્રી હેમચંદ્રસૂરિ પોતાના યુગના ગુજરાતના સામાજિક પ્રાચીન શાનનિધિનું સંપૂર્ણ હતું અને તેથી તેઓ "ગુજરાત નો ભોજ તથા રાજકીય ઈતિહાસની અગ્રગણ્ય વિભૂતિ હતા અને જૈન ધર્મના બનવાને યોગ્ય હતા.” અજોડ આચાર્ય પણ હતા. દરેક મહાપુરુષની જેમ શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યે આ અજોડ વ્યાકરણ ગ્રંથને મળેલી અપૂર્વ સફળતાથી પ્રેરાઈને, જેમ પોતાના યુગ પર અનોખો પ્રભાવ પાડ્યો હતો. તેમ પોતાના પ્રોફેસર બૂલર કહે છે તેમ, શ્રી હેમચંદ્રસૂરિને પોતાના લેખનકાર્યનો. યુગથી. તેઓ પ્રભાવિત પણ થયા હતા. શ્રી. હેમચંદ્રાચાર્ય જે કાળે થઈ ગયા. તે કાળે જીવનનાં તમામ ક્ષેત્રે આર્થિક ક્ષેત્રે અને (અનુસંધાન પાના ક્ર. ૯૩ ઉપર) , થી કણજારોનબિમિકા થર જરા વિભાગ ૮૭ देह कांपती क्रोध से, होय क्षुधा का नाश । जयन्तसेन कुपित हृदय, करता जीवन हास ।। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આગમ સાહિત્યનું અનુશીલન (શ્રી રસીકલાલ સી. શેઠ, વડોદરા) મંગલાચરણ - હોય છે, તેવું અર્થ ગંભીર આ આગમ જ્ઞાન છે; તથા જેમ સમુદ્રનો | (મન્દાક્રાન્તા) સામો કિનારો બહુજ દૂરવર્તી અથતું બે ભુજાના બળ વડે પાર પામી શકાય તેવો નથી, નાવિકનો સહારો લઈને જ તેનો પાર પામી | "બોધા ગાધે સુપદ - પદવી નીર - પૂરાભિરામ; શકાય છે, તેમ આગમનો પણ પાર પામવો અથતુ જિનવાણીનો જીવાહિંસા - વિરલ - લહરી - સંગમા ગાહ દેહં ! મર્મ અને સંપૂર્ણ ભાવ સમજવો અતિ દુષ્કર છે, માત્ર જ્ઞાની ગુરુના ચૂલા - વેલે ગુરુગમ : મણી - સંકુલે દૂરપારે; શરણે જઈ વિનયપૂર્વક સેવાભક્તિ કરવાથી જ આગમના ભાવ યથાર્થ સમજી શકાય છે; અને સંસારના સર્વ સારભૂત પદાર્થોનાં સારે વીરાગમ - જલનિધિ” - સાદરે સાધુ સેવે આગમરૂપી. જિન-વચન જ એક માત્ર સારભૂત અથાત્ જીવને અર્થ:- ચરમ તીર્થંકર શાસનપતિ પ્રભુ મહાવીર સ્વામીએ પ્રરૂપેલ કલ્યાણકારી છે, એવા આગમની હું આદર અને વિધિપૂર્વક સેવાભક્તિ આ આગમ-સમુદ્ર અગાધ બોધજ્ઞાન વડે ગંભીર છે. સુંદર પદ કરું છું. રચના રૂપ જળના સમૂહ વડે મનોહર છે, જીવ-દયા અહિંસાના. સિધ્ધાંતોની નિરંતર ઉછળતી લહરીઓના સંગમ વડે અતિ ગહન મંગલાચરણ રૂપે આગમની સ્તુતિ કરીને હવે તેની વ્યુતપત્તિ છે. ચૂલિકા રૂપ વેલ અથતુિ ભરતીવાળો છે. ઉત્તમ આલાપકરૂપી અને વ્યાખ્યા સમજીએ.. રત્નોથી ભરપૂર છે, જેનો સંપૂર્ણ પાર પામવો અથતુિ જ્ઞાન મેળવવું વ્યુતપત્તિ :- પૂવચાર્યો એ જાદી જાદી રીતે વ્યુતપત્તિ કરી છેઃબહુ મુશ્કેલ છે, અને જે આગમ વાણી ભવ્યજીવોને સારરૂપ છે સ્યાદ્વાદ મંજરી શ્લોક ૩૮માં કહ્યું છે :અથતુિ એકમાત્ર કલ્યાણકારી છે, તેવા શ્રી મહાવીર પ્રભુના પરમ "આપ્તવચનાદાવિભૂતપથસંવેદન માગમઃ | હીતકારી આગમરૂપી સમુદ્રને હું આદરપૂર્વક રૂડી રીતે સેવું છું.” આપ્તવચનાતું આવિભૂતમ્ અર્થસંવેદનમ્ આગમઃ પરમાર્થ :- જેમ મહાસાગર અગાધ જળથી ભરપૂર હોવાથી અત્યંત ગંભીર હોય છે, તેમ તીર્થંકર ભગવંતોએ પ્રરૂપેલા જિનાગમ પણ અર્થ:- આપ્ત પુરુષના વચનથી ઉત્પન્ન અર્થ (પદાર્થ-જીવાદિ વસ્તુ અપરિમિત જ્ઞાનયુક્ત હોવાના કારણે અગાધ અને ગંભીર છે. ) નું યથાર્થ રીનિ થાય તે "આગમ” છે વિશાળ જળરાશીથી ભરપૂર રહેવાને લીધે સમુદ્ર જેમ સોહામણો જેઓ રાગ-દ્વેષને સંપૂર્ણ જીતી લઈ સર્વજ્ઞ - સર્વદર્શી વીતરાગ દેખાય છે, તેમ લાખો પદોની લલિત રચનાના કારણે આગમ પણ કેવળી. ભગવાન બન્યા છે તેવા તીર્થકર ભગવંતો. “આપ્ત પુરુષ” અભિરામ અથતુિ મનોહર લાગે છે. સતત ઉછળતા મોજાની કહેવાય છે. તેમણે પ્રરૂપેલા શાસ્ત્રો આગમ છે. “આગમ” શબ્દ લહરીઓના સંગમના લીધે સમુદ્રમાં ઊંડે સુધી પ્રવેશ કરવો જેમ “આ” ઉપસર્ગ અને "ગમ્” ધાતુનો બનેલો છે. તેથી તેની વ્યુતપત્તિ કઠીન છે, તેમ જ અહિંસા - છએ કાયના જીવોની દયા પાળવા આ રીતે પણ પૂવચાર્યું કરી છે :વિષયક સૂક્ષ્મ બોધથી પરિપૂર્ણ હોવાના કારણે આગમમાં પ્રવેશ | "આ- ગમ્મતે વસ્તુ તત્ત્વમનને ત્યા ગમ : | કરવો પણ અતિ કઠણ છે. જેમ સમુદ્રને મોટા મોટા કિનારા હોય છે, તેમ આગમને મોટી મોટી ચુલિકાઓ (પરિશિષ્ટ) હોય છે. જેવી અથતુિ “આ” = સમન્તાતુ = ચારે બાજાથી, ગમ્મતે = ગતિ રીતે સમુદ્રમાં સાચા મોતી, મણી, રત્નાદિ પ્રાપ્તિ છે, “વસ્તુ તત્ત્વમ” અવૃત્િ જીવાજીવાદિ પદાર્થો તત્ત્વોનું, કિંમતી વસ્તુઓ હોય છે, તેવી રીતે યથાર્થ જ્ઞાન, અનેનવડે ઈતિ આગમઃ || એટલે કે જેના વડે વસ્તુ આગમ રૂપી સમુદ્રમાં પણ બહુ ઉત્તમ | તત્ત્વોનું અર્થાત્ જીવાજીવાદિ નવ તત્ત્વોનું પરિપૂર્ણ યથાર્થ જ્ઞાન થાય પરમાર્થવાળા ગમા, આલાવા (આલાપક), તે “આગમ” છે. પયયાદિ હોય છે. તીર્થકર ભગવંતો શ્રી સિધ્ધસેન ગણીએ ભાષ્યાનુસારિણી ટીકામાં કહયું છેઃ- સર્વજ્ઞ અને સર્વદર્શી હોય છે, તેથી - “આગચ્છત્યાચાર્ય-પરમ્પરયા વાચનાદ્વારેણે ત્યા ગમ : || તેમના વચન રૂપી અર્થબોધને અંતરમાં - આગચ્છતિ આચાર્ય પરમ્પરયા વાચના દ્વારેણ ઈતિ ધારણ કરી ગણધર ભગવંતો આદિ આગમઃ | જ્ઞાની મહાત્માઓ એકેક વચનના અનંત શ્રી રસીકલાલ સી. શેઠ ગણા અને પયિ વડે તેના ભાવ કહેતા અથતિ (તીર્થકર ભગવંતોએ પ્રરૂપેલું) જે જ્ઞાન આચાર્ય પરંપરાથી ८८ क्रोध करो मत मानवी, क्रोध करो अवरोध।। जयन्तसेन सदा यही, दो स्वयं को बोध ।।। Jain Education Intemational Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આચાર કેવા ઉપયોગપૂર્વક પાળવા તેનું કથન છે, જેથી દયામય અહિંસાધર્મ ઉત્તમ રીતે પળાય. હવે તેવો આચાર ધર્મ જે પોતે પાળે અને બીજા મુનિઓ પાસે પળાવે તેને ગણિ કહેતાં આચાર્ય કહયા છે અને તેમના આચાર પાળવાના નિયમો જેમાં રહેલા છે તેવી પેટીરૂપ દ્વાદશાંગીને ગણીને તેને ગણિપિટક કહયું છે, એટલેકે આચાર્યની આચાર પાળવાની ને પળાવવાની પેટી. - બારે અંગસૂત્રોના ભાવ અર્થ ગંભીર હોય છે. તેથી તેના ભાવ સ્પષ્ટ કરવા માટે દરેક અંગના ઉપાંગની રચના કરવામાં આવે છે. તેથી ઉપાંગ સૂત્રો પણ બાર છે, જેના ટુંક ભાવ નીચે છેઃબાર અંગ સૂત્રો :૧. આચારાંગ સૂત્રઃ- મુનિવરોના આચાર ધર્મનું નિરૂપણ. છે. ૨ સૂયગડાંગ સૂત્રઃ- એકાંતવાદી અન્યમતોનું યુક્તિપૂર્વક નિરસન કરીને જિનમતના અનેકાંતવાદની સ્થાપના કરી છે, તદુપરાંત જીવાજીવાદિ પદાર્થોનું તથા સંયમધર્મનું રૂડું નિરૂપણ કરેલ છે. ૩ ઠાણાંગ સૂત્રઃ- જીવાજીવાદિ પદાર્થો તથા નદી, સરોવર, પર્વતાદિનું એક થી દશ બોલમાં દશ અધ્યયનમાં સંકલન કર્યું વાચના દ્વારા ( શિષ્યોને) આપવામાં આવે છે તે ‘આગમ” છે. ટુંકમાં “આગમ” એટલે :- આ આખ પુરુષોએ કહેલી, ગ = ગણધર ભગવંતોએ ગુંથેલી, મ = મહર્ષિઓએ - મુનિવરો એ પ્રમાણેલી, એવી જે અનુપમ આત્મહિતકારી. વાણી. તે “આગમ” એમ શ્રી આવશ્યક નિયુક્તિ ગાથા-૧૯૨, તથા ધવલા ભાગ-૧ એ ૬૪ માં પૂર્વાચાર્યોએ નીચેની ગાથાથી કહયું છે : અત્યં ભાસઈ અરહા, સુરં ગન્જનિ ગણહરા નિર્ણિા સાણસ્સ હિયટ્ટાએ, તઓ સૂત્ત પવત્તઈ . અર્થ તીર્થકર ભગવંતો માત્ર અર્થ રૂપ વચન કહે છે અને તે સાંભળીને ગણધર ભગવંતો તેની સૂત્ર રૂપે ગુંથણી કરે છે, ત્યારબાદ મુનિવરો જિનશાસનના હિતાર્થે તે સૂત્રસિધ્ધાંત ને તીર્થંકર ભગવંતના શાસન દરમ્યાન પ્રવતવિ છે. તેથી જ જૈન આગમને સર્વજ્ઞ તીર્થંકર પ્રણીત કહયા છે. “તીર્થંકર પ્રણીત” નો મહિમા બતાવતાં શાસ્ત્રકાર કહે છે :- “તીર્થંકર ભગવંતને જન્મથી જ “મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન, અને અવધિજ્ઞાન” એ ત્રણ જ્ઞાન હોય છે, ત્યાર બાદ અવસરે સિધ્ધ પરમાત્માને વંદન નમસ્કાર કરી સ્વયં ભાગવતી દીક્ષા લઈ નિગ્રંથ મુનિ બને છે, ત્યારે ચોથું મનપર્યવ જ્ઞાન પ્રગટે છે. તેમ છતાં તેઓશ્રી ધર્મોપદેશ નથી કરતાં પણ સંયમ લઈને સર્વ પ્રથમ કાઉસગ્ન-ધ્યાનાદિ તપની સાધના કરીને મોહનીયાદિ ચારે ઘાતી કર્મોને ખપાવે છે અથતુ તે કર્મોનો નાશ કરીને “કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન” પ્રગટાવે છે, એટલે કે સર્વજ્ઞ અને સર્વદર્શી બને છે. ત્યાર પછી જ અર્થ પૂર્ણ વચનો ત્રિપદિ રૂપે - ઉત્પન્ન ઈ વા, વિગમે ઈ વા, ધુવે ઈ વા" અર્થાત્ ઉપજે છે, નાશ પામે છે, (છતાં) ત્રિકાળ ધ્રુવ અથાત્ ત્રણે કાળમાં ટકી રહેવાના સ્વભાવવાળા શાશ્વતા છે. ગણધર ભગવંતોને પોતાના શ્રીમુખે કહે છે. આવા અનન્ય અર્થ ગંભીર વચનો સાંભળતાં જ ગણધરો અંતરમાં અનુપમ અધ્યાત્મ શાઓની - જૈનાગમની અદ્દભૂત ગુંથણી કરે છે એટલે કે બાર અંગસૂત્રોની દરેક ગણધર રચના કરે છે. તીર્થકર ભગવંતના. શ્રીમુખે આ ત્રિપદિનું શ્રવણ કરીને અંગ સૂત્રોની રચના કરી હોવાથી. આને શ્રુતજ્ઞાન - સાંભળેલું જ્ઞાન કહેવાય છે. શ્રી સમવાયાંગ સૂત્રમાં દ્વાદશાંગીને નીચે પ્રમાણે શાશ્વતી કહી છે :- દ્વાદશાંગી.રૂપ ગણિપિટક ક્યારેય ન હતું એમ નથી, વર્તમાનમાં નથી એમ પણ નથી, ક્યારેય નહિ હોય એમ પણ નથી. તે પૂર્વે ભૂતકાળમાં હતું. વર્તમાનમાં છે, ને ભવિષ્યમાં હશે. તે ધ્રુવ છે, નિયત છે, શાશ્વત છે, અક્ષય છે, અવ્યય છે, અવસ્થિત છે અને નિત્ય છે." ઉપરોકત સૂત્રમાં દ્વાદશાંગીને “ગણિપિટક" કહયું છે, તેનું કારણ એ છે કે દ્વાદશાંગીમાં મુખ્યત્વે મુનિઓના અહિંસા, સંયમ અને તારૂપી દયામય ધર્મના આચાર કેવા હોય અને તે સર્વ ૪ સમવાયાંગ સૂત્રઃ- ઠાણાંગ સૂત્રની જેમ એક થી માંડીને કરોડ ઉપરાંતના પદાર્થોનું સંકલન કરેલ છે. પ ભગવતીજી સૂત્રઃ- ગૌતમ સ્વામીએ પૂછેલ અને શ્રમણ ભગવંત મહાવીર સ્વામીએ જવાબ આપેલ એવા ૩૬ હજાર પ્રશ્નોત્તર રૂપ અને દ્રવ્યાદિ ચારે અનુયોગમય છે. ૬ જ્ઞાતાધર્મકથાગ સૂત્રઃ- આમાં ધર્મકથારૂપે દ્રષ્ટાંતો આપીને સાધુના શ્રમણધર્મ, ચરણસત્તરી, કરણપીંડ વિશુધ્ધિ આદિની પ્રરૂપણા કરીને જિનાજ્ઞાનો આરાધક મોક્ષ સન્મુખ થાય છે. અને વિરોધક સંસાર ચક્રમાં ભમે છે તે બતાવ્યું છે. ૭ ઉપાસકદશાંગ સૂત્રઃ- ઉપાસક એટલે ધર્મની ઉપાસના કરનારા તે શ્રાવક. તેવી રૂડી ઉપાસના કરનાર આનંદા દશ. શ્રાવકોનું ચરિત્ર કથન કરી, શ્રાવકધર્મના બાર વ્રત, તેના અતિચાર, ૧૧ પડિમા, પોષધ, પ્રત્યાખ્યાન, સંલેખના સંથારાદિ તપધમ વગેરે ભાવ પ્રરૂપ્યા છે. ૮ અંતગડ દશાંગ સૂત્રઃ- અણગાર ધર્મ સ્વીકારી જે ભવ્ય જીવો આયુષ્યના અંત સમયે કેવળજ્ઞાન ને કેવળદર્શન પ્રગટાવી. ધર્મોપદેશ આપ્યા વગર નિવણ પામી. સિધ્ધ બુધ્ધ અને મુક્ત બને છે, તેવા શ્રી ગજસુકુમાર, અજનમાળી વગેરેના અધ્યયનો છે, ને વિવિધ તપનું વર્ણન છે. અનુત્તરોવવાઈ સૂત્રઃ- આયુષ્ય ઓછું હોવાથી જે મહાત્માઓ તદ્ભવે મોક્ષ નથી પામી શકતા, કે પુણ્યની અત્યંત વૃધ્ધિ થવાથી એકાવતારીપણું પામી અનુત્તર વિમાનોમાં દેવપણે ઉપજી, ત્યાંથી ચ્યવી નિયમાં મનુષ્યભવ પામી, સંયમ લઈ થી નાના અભિનદન સંથારાની ૮૯ કોઇ પરસ્પર મેં રે, પ્રીતિ પવિત્ત શ્રા નાશ | जयन्तसेन छोडे यदि, सद्गुण देत प्रकाश || www.jainelibrary org Jain Education Interational Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ files મોક્ષે જશે તેવા શ્રી ઘન્ના અણગાર આદિના અધિકારો છે. ૧૦ પ્રશ્નવ્યાકરણ સૂત્રઃ- પાંચ આશ્રવ ને પાંચ સંવરના દ્વારોનું રૂડું નિરૂપણ છે. હિંસા, મુકાવાઇ, અદત્તાદાન. અહિન પરિગ્રહ એ પાંચ આશ્રવ છે. તેના સેવનથી દુર્ગંત મળે છે, અને તેના પ્રતિપક્ષી, અહિંસા, સત્ય, દત્તાદાન, બહ્મચર્ય ને અપરિગ્રહનું પાલન કરવાથી જીવાત્મા કર્મ મળથી સર્વથા વિમુક્ત થઈ અવસરે સિધ્ધગતિ પામે છે તેમ કહ્યું છે. ૧૧ વિપાક સૂત્રઃ- અશુભ કરણીથી દુઃખ અને શુભ કરણી - સત્કાર્યોથી જીવ સુખ પામે છે તેના દ્રષ્ટાંતો સાથેનું કર્મવિપાકનું રૂડું નિરૂપણ છે. ૧૨ દૃષ્ટિવાદઃ- તેમાં ચૌદ પૂર્વાદનું અપૂર્વ જ્ઞાન હતું. હાલ વિચ્છેદ છે. Kinjenic બાર ઉપાંગઃ ઉવવાઈ સૂત્ર :- કોણિક રાજાની ઋધ્ધિ ને ભક્તિનું, મહાવીરપ્રભુના સમવસરણનું દેવ અને નારકીના ઉત્પાત જન્મનું અને કેવળી સમુદ્ધાતનું આમાં કથન છે. રાજપસેણીય સૂત્રઃ- અધર્મી પરદેશી રાજા કેમ ધર્મી બન્યો, અને રાણીએ ઝેર આપવા છતાં છતી શક્તિએ સમતા રાખી તો સૂભદેવ બની, દેવના સુખ ભોગવી પરંપરાએ મોક્ષે જો તેનો અધિકાર છે. ૧. ૨ ૩ ૪ ૫ ८ ૯ જીવાભિગમ સૂત્રઃ- ૧ થી ૧૦ પ્રકારે જીવના ભેદ કહ્યા છે, અજીવના ભેદ કહ્યા છે અને સંસારી ને સિધ્ધના જીવોનું નિરૂપણ છે. પત્રવણા સૂત્રઃ- જીવના ભેદાનુભેદ, અલ્પબહુત્ત્વ, ગતિ લેશ્યા, વેદ, કષાય, દૃષ્ટિ, ઉપયોગ, જ્ઞાન, કર્મયોગ, આહાર, સંજ્ઞા, ભાષા, પર્યાતિ, ક્રિયા આદિનું ૩ પદોમાં કથન છે. જંબુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિઃ- જંબુ દ્વીપના ભરતાદિ ક્ષેત્રનું, કાળચક્ર ને છ આરાનું, ઋષભદેવ ભગવાન ને ભરતચક્રવર્તીના ચરિત્ર વગેરેનું વર્ણન છે. સૂર્ય પ્રાપ્તિઃ- સૂર્ય આદિ જ્યોતિષ ચક્રની ગતિનું હૃદય અને અસ્તનું દિવસ અને મુહૂર્તના માનનું સંસ્થાનનું ગ્રોનું તાપ ક્ષેત્રાદિનું કથન છે. ચંદ્ર પ્રજ્ઞપ્તિઃ- ચંદ્રના જ્યોતિષ ચક્રનું, ગતિ આદિનું, સૂર્યની જેમ કથન છે, ઉપરોકત ત્રણે પ્રજ્ઞપ્તિમાં જૈન ગણિતાનુયોગનું કથન છે. નિરયાવલિકા સૂત્રઃ- લોભ-તૃષ્ણાદિને વશ પડેલા જીવો ને નીંદ દુર્ગાતમાં જવું પડે છે તે કાલ આદિ ૧૦ કુમારીના દ્રષ્ટાંત આપી કહ્યું છે. વડીયા સૂત્રઃ- શ્રેણિક રાજાના કાલ આદિ ૧૦ કુમારો જે કાયને વશ થયા તો નરકમાં ઉપન્યા તેમ નિરિયાલિકા શ્રીમદ્ બનસેનસૂરિ અભિનદન ચંગુજરાતી વિભાગ wifi ser ૧૦ પુષિા સૂત્રઃ- ચંદ્ર, સૂર્ય, શુક્ર, બૃહપુત્રિક આદિ દસ દેવી પ્રભુ મહાવીરના દર્શને આવી નૃત્યાદિ કરતાં ગૌતમ સ્વામીના પ્રશ્નના - જવાબમાં પ્રભુ તેમના પૂર્વભવ કહી કર્મીસધ્ધાંત અને પુનર્જન્મનું નિરૂપણ કરી, સ્વસમય અને પરસમયના રૂડા ભાવો સમજાવે છે. ૧૧ પુરૂલિયા સૂત્ર શ્રી, શ્રી, ધૃતિ આદિ દશે દેવીએ પૂર્વભવમાં પાનનાથ પ્રભુ પાસે દીક્ષા લઈ શરીરની સુશ્રુષા કે જે કલ્પે નિશે તે કરી તો. મોક્ષને બદલે દેવગતી પામી તેમ કહી પ્રભુ મહાવીરે નિરતિચાર સંયમ પાળવાનો, અને આલોચના કરવાનો પરમાર્થથી અત્રે બોધ આપ્યો છે. સૂત્રમાં કહ્યું, તો તેમના જ દસે પુત્રો સંયમ લઈ દેવલોકમાં ઉપજ્યા તેમ કહી પરમાર્થથી જીવાત્માના પતન, ઉત્થાન, દુર્ગાત ને સુગતિનું કારણ તેના પોતાના જ કરેલા શુભાશુભ કર્મો કે ભાવો પર આધારિત છે તેવું જિનવચન અત્રે સિધ્ધ કર્યું છે. 60 ૧૨ વર્ષિણ દશા સૂત્રઃ- નિષકુમાર આદિ બળભદ્રજીના બારે પુત્રીએ નેમનાથ પાસે સંયમ લઈ નિરતિચાર પાળ્યો તો બંધા એવતારીપણે સર્વાર્થ સિધ્ધ વિમાનમાં ઉપજ્યા છે. તે ત્યાંથી આવી, મહાવિદેશ ક્ષેત્રમાં માનવભવ પામી સેંથમ લઈ, શુધ્ધ ભાવે પાળી સિધ્ધ, બુધ્ધ, અને મુક્ત થશે. ઉપરોકત અંગ અને ઉપાંગ સૂત્રોને દિગંબર સિવાય સર્વ જૈનો માને છે, તદુપરાંત ૪ મૂળ, ૬ છેદ, ૨ ચૂલિકા અને ૧૦ પયત્રા સૂત્રો મળી કુલે ૪૫ આગમને શ્વેતાંબર મૂર્તિપૂજક સંપ્રદાય માને છે. જે નીચે છે. 6 ૧. Siva ચાર મૂળ સૂત્ર આવશ્યક સૂત્રઃ- સામાયિકાદિ છ આવશ્યક જે સાધુ-સાધ્વીજીએ ઉભય કાળ અવશ્ય કરવાનું ફરમાવ્યું છે તેનું કથન છે. ૨ દશ વૈકાલિક સૂત્રઃ- સાધુના આચાર ધર્મનું રૂડું નિરૂપણ છે. ૩ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રઃ- પ્રભુ મહાવીર સ્વામીએ છેલ્લા સોળ પ્રહર કી આપેલ ૩૬ અધ્યયન રૂપ વિનયાદિ અંતિમ દેશનાનું કથન છે. ૧ ૨ પિંડ નિયુક્તિ સૂત્ર- ૪૨ દોષરહિત આહારાદિ ક્રમ મહણ કરવા, ઈત્યાદિનું આત્મકલ્યાણકારી કથન છે. છ છેદ સૂત્રઃ દશાશ્રુતસ્કંધ સૂત્રઃ- ૨૦ અસમાધિના દોષ, ૨૧ સબળ દોષ, ૩૩ આશાતના, આચાર્યની ૮ સંપદા, ચિત્ત સમાધિના ૧૦ સ્થાન શ્રાવકની ૧૧ ડિમા, સાધુના ૧૨ પડિમ, મહાવીર સ્વામીના પ કલ્યાણક, મહામોહનિયના ૩૦ સ્થાનક, અને નિયાણુ કરવાથી મળતી દુર્ગાત એમ ૧૦ દશાનું કથન છે. બૃહત્કલ્પસૂત્રઃ- સાધુને કલ્પ્ય અને અકલ્પ્ય વસ્તુનું કથન છે. ૯૦ अधर्म हिंसा क्रोध है, आने मत दो पास । जयन्तसेन अडिग रही, फैले दिव्य प्रकाश ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩ વ્યવહાર સૂત્ર:-વ્યવહાર ધર્મના પાંચ ભેદ (૧) આગમ વ્યવહાર, ૩. મહાપચ્ચકખાણ:- ચારિત્રર્વત મુનિવરો શુધ્ધ અણસણ (સંથારો) (૨) શ્રત વ્યવહાર, (૩) આશા, (૪) ધારણા અને (૫) જીત આરાધી શિવપદ પામ્યા તેનું કથન છે. વ્યવહાર કહી ઉત્સર્ગ અને અપવાદ માગનું કથન છે. ૪. ભત પયાઃ- કામભોગ, સ્નેહ ને દૃષ્ટિરાગ તજી જિનાજ્ઞા. પ્રાયશ્ચિતના ભાંગા છે. પાળી જે મુનિવરો મોક્ષ પામ્યા તેમનું વર્ણન છે. જીતકલ્પ સૂત્રઃ- આલોયણા-પ્રાયશ્ચિતનું નિરૂપણ છે. તંદુલ વેયાલિયઃ- જન્મ-મરણ અને ગર્ભના દુઃખોનું અને ૫ નિશીથ સૂત્રઃ- ચાર ભેદે પ્રાયશ્ચિત (૧) ગુરુ માસિક, વૈરાગ્ય પોષક વિચારનું વિસ્તત વર્ણન છે. (૨) લઘુ માસિક, (૩) ગુરુ ચૌમાસિક અને (૪) લઘુ ૬. ગણિ વિજજાઃ- તિથિ, વાર, અને શુભ મુહૂર્તે શુધ્ધ ધર્મ ચૌમાસિક કોને લાગે અને તેની વિધિ બતાવી ઉત્તમ આચારધર્મ આરાધી, જે મુનિવરો શિવપદ પામ્યા તેમનું વર્ણન છે. પાળવાનું કથન છે. ૭. ચંદા વિજઝયઃ- સંસારમાં સમાધિ મેળવવી અતિ દુર્લભ છે મહાનિશીથ સૂત્રઃ- શ્રાવકના ઉપધાનાદિ આચારનું અને સાધુના તેનું રૂડું નિરૂપણ છે, તે આચારધર્મનું વિસ્તૃત કથન છે. નમસ્કાર મહામંત્રને મહાશ્રુતસ્કંધ આ સૂત્રમાં કહેડ્યો છે. ૮. દેવેન્દ્ર સ્તવનઃ- ઈન્દ્રાદિ દેવોએ મેરૂ પર્વત પર પ્રભુની સ્તવના. કરી તેનું વર્ણન છે. બે ચૂલિકા સૂત્રો : ૯. મરણ સમાધિઃ- અંતકાળે જે મુનિવરો સમાધિ સાધી શિવપદ નંદિ સૂત્રઃ- પાંચ જ્ઞાન (૧) મતિ, (૨) શ્રત (૩) અવધિ, પામ્યા તેનું વર્ણન છે. (૪) મન:પર્યવ, અને (૫) કેવળ જ્ઞાનનું વિસ્તૃત કથન છે. જ્ઞાન ગ્રહણ કરવાની વિધિ કહી છે. સ્થવીરાવલી કહી છે. ૧૦. સાંથારગઃ- વૃક્ષની જેમ સ્થિર રહી પાદોપગમન સંથારો દ્વાદશાંગીને શાશ્વતી કહી તેના નામ આ પ્રમાણે કડ્યા છે : (અણસણ) આદરી જિનેશ્વરો તથા મુનિવરો સિધ્ધપદ પામ્યા (૧) પંચાચાર પ્રતિપાદક “આચારાંગ', (૨) સ્વ-સમય – 0 તેનું વર્ણન છે. પરસમય પ્રતિપાદક “સુયગડાંગ", (૩) એક આદિ દશ - ઉપરોકત ૪૫ આગમમાંથી સ્થાનકવાસી તથા તેરાપંથી સંપ્રદાયો. સ્થાનક પ્રતિપાદક “ઠાણાંગ', (૪) એક આદિ કોટાકોટી ૧૧ અંગ - દ્રષ્ટિવાદ વિચ્છેદ ગયું છે તેથી, ૧૨ ઉપાંગ, ૪ મૂળ તે બોલી પ્રતિપાદક સમવાયાંગ (૫) વિવાહ પ્રજ્ઞપ્તિ અથતુ શ્રી ઉત્તરાધ્યયન, દશવૈકાલિક, નંદિસૂત્ર ને અનુયોગદ્વાર સૂત્ર, અને ભગવતી સૂત્ર, (૬) દ્રષ્ટાંતોથી ન્યાયનું સ્થાપક શાતા ધર્મકથા, ૪ છેદ સૂત્રો તે, (૧) નિશીથ, (૨) વ્યવહાર (૩) બૃહકલ્પ અને (૭) શ્રાવક કરણી દર્શક “ઉપાસક દશાંગ", (૮) અંત સમયે (૪) દશાશ્રુત સ્કંધ અને ૩૨ મું આવશ્યક સૂત્ર માત્ર ૩૨ આગમને સર્વ કર્મ ક્ષય કરી કેવળ પ્રગટાવી સિધ્ધ થનારના ચરિત્રો તે માને છે. અંતગડ દશાંગ, (૯) અનુત્તર વિમાનોમાં ઉપજવાવાળાના સમાપન અથતુિ આગમસાર :ચરિત્રો તે “અનુત્તરોવવાઈ દશાંગ, (૧૦) આશ્રય- સંવરનું પ્રશ્નોત્તર દશક “પ્રશ્નવ્યાકરણ', (૧૧) સુખદુઃખ રૂ૫ કર્મ આ સર્વ આગમનો સાર અનંતા તીર્થંકર ભગવંતોએ શ્રી આચારાંગ સૂત્રમાં જે ફરમાવ્યો છે કે “ કોઈ પણ જીવની હિંસા ન કરો, તેને વિપાકનું સ્વરૂપ બતાવનાર “વિપાક સૂત્ર” અને (૧૨) જ્ઞાનનો પીડા પણ ન ઉપજાવો, મનથી પણ તેને દુભવો નહિ. સંપૂર્ણ મહાસાગર તે “દૃષ્ટિવાદ” આ દ્વાદશાંગીને આચાર્ય ભગવંતની દયામય અહિંસા ધર્મ પાળો તેને તો જૈન માત્ર માને છે.” ગુણરત્નની “પેટી” કહી છે. મહર્ષિ વેદવ્યાસે હજારો શ્લોક પ્રમાણ મહાભારત રચ્યું, ત્યારે અનયોગદ્વાર સૂત્રઃ- તીર્થંકરના અર્થરૂપ વચનોની વિસ્તૃત કોઈ સામાન્ય માનવીએ કહ્યું આટલું બધું ક્યારે વંચાય ને કેમ વ્યાખ્યા કરવી તે “ અનુયોગ ” આમાં શ્રુતજ્ઞાન, આવશ્યક, સમજાય, ટુંકમાં સાર કહો તો સારૂ-ત્યારે મહર્ષિએ માત્ર અધ જ ઉપક્રમ, દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ-ભાવાનુપૂર્વી, ઉપશમાદિ છ ભાવ, ૭ શ્લોકમાં સાર કહયો કે “પરોપકાર પુણ્યાય, પાપાય પરપીડનમ્ // સ્વસ ૮ વિભક્તિ, ૯ રસ, ૧૦ નામ, પ્રમાણ, નય, નિક્ષેપ, પરોપકાર કરવાથી પુણ્ય બંધાય છે, પરને પીડા દેવાથી પાપ બંધાય સંખ્યા, પલ્યોપમ, સાગરોપમ, અનંતના ભેદાનભેદ બતાવ્યા છે. દ્રવ્યને ભાવ સામાયિકનું સ્વરૂપ કહયું છે. છે.” તેજ પ્રમાણે જિનેશ્વરના આગમ તો મહાસાગર પ્રમાણ છે, પણ વીરપ્રભુ એ તેનો સાર માત્ર અધ ગાથામાં કહી દીધો છે :દશ પયા ધમ્મો મંત્રલ મુશ્ચિઠે અહિંસા સંજમો તવો દશ વૈકાલિક સુત્ર ૧. ચઉસરણ:- છ આવશ્યકના હેતુ સમજી મુનિવરોએ અરિહંતાદિ દયામય, અહિંસા, સંયમ, અને તારૂપી ધર્મ તેજ ઉત્કૃષ્ટ મંગલ ધર્મ ચાર શરણ સ્વીકાર્યા તેનું કથન છે. છે. કારણ કે તેનું શુધ્ધ ભાવે પાલન કરવાથી અનંતા જીવો મુક્તિને આઉરપચ્ચકખાણઃ- જ્ઞાનાચારાદિ પાંચ આચાર અને બારા પામ્યા છે. હાલ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં પામે છે, અને ભાવિમાં પામશે.” વ્રતના અતિચાર તજી શ્રાવકોએ શુભ ભાવના ભાવવી તેનું તેવા ઉત્કૃષ્ટ દયામય ધર્મનું આપણે પાલન કરીએ એજ પ્રાર્થના. નિરૂપણ છે. N वैर भाव मन में बसा, उदित हुआ जब क्रोध । जयन्तसेन मूर्ख बना, लेता वह प्रतिशोध |Mry.org Jain Education Intemational Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાચીન જૈન લેખનકળા અને ચિત્રકળામાં મંત્રી વાચ્છાકનું ક્રાંતિકારક પ્રદાન (શ્રી રાજેન્દ્ર સારાભાઈ નવાબ, અમદાવાદ) પ્રાચીન ભારતની લેખનકળા અને ચિત્રકળાના સંરક્ષણ અને હસ્તપ્રત, વર્તમાનકાળમાં વિશ્વપ્રસિદ્ધ થયેલ છે. હજારો જૈન વિકાસમાં જૈન શ્રેષ્ઠિઓ અને સાધુવર્ગનો ઘણો જ મોટો ફાળો છે. લહિયાઓમાં, માત્ર મંત્રી વાચ્છાકને જ આટલું સન્માન મળ્યું છે. વર્તમાનકાળમાં ઉપલબ્ધ, ઈલોરા કે સિત્તનવર્સીલના ગુફો ચિત્રોથી આ દરેક હસ્તપ્રત, સુંદર અક્ષરોથી લખાયેલ છે જ, વિશેષમાં આ શરૂ કરી, અસંખ્ય, તાડપત્રની કે કાગળની સચિત્ર હસ્તપ્રતોનો હસ્તપ્રતના દરેક પાનાઓની ચારે બાજુ સુશોભનો દોરવામાં આવેલ. તુલનાત્મક અભ્યાસ કરવામાં આવે, તો મંત્રી વાચ્છાક દ્વારા છે. આ સુશોભનોમાં પશુ-પક્ષીઓ, વનસ્પતિ, તે સમયના મહેલોની. સર્જાયેલ કાગળની હસ્તપ્રતો અલગ તરી આવે છે. ડીઝાઈનો અને વિશેષમાં અતિવિકસિત પશિયન ડીઝાઈનોનો સમાવેશ પ્રાચીન ભારતમાં સચિત્ર કે અચિત્ર હસ્ત પ્રતોના કરવામાં આવેલ છે. સર્જનકાર્યમાં, “લહિયો” મુખ્ય સુત્રધાર તરીકેનો ભાગ ભજવતો - પ્રાચીન ભારતમાં, તાડપત્રની હસ્તપ્રતો સુશોભીત કરવાની. હતો. લહિયાના કાર્યને, આધુનિક યુગના આર્કટિક એન્જિનિયર પ્રથા શરૂ થયેલ હતી. કાગળનો વપરાશ શરૂ થતા, જગ્યાની. સાથે સરખાવી શકાય. આધુનિક યુગમાં મકાન બંધાવનાર આર્કીટેકને મોકળાશને કારણે સુશોભનોની. વિષય યાદી વિસ્તૃત બની. પરંતુ તેને આર્થિક મર્યાદા અને તેની મકાનની. સ્ટાઈલની અપેક્ષાઓથી દરેક સુશોભનો, તાડપત્રયુગની પરંપરાને અનુસરનારા અને મર્યાદિત પરિચિત કરે છે. આર્કટિક તે અનુસાર મકાનનો પ્લાન, વાપરવા વૈવિધ્યવાળા હતા. આ પરંપરાના ચુસ્ત માળખાનો અતિક્રમ કરીને, માટેના માલસમાનનું પ્રમાણ નક્કી કરે છે. નિષ્ણાત કડિયા - મંત્રી વાચ્છા કે કુદરતના પ્રત્યેક પરિબળને તથા બિનભારતીય મજુરોએ માત્ર એને અનુસરવાનું જ હોય છે. કળાના ઉત્કૃષ્ટ અંશોને અપનાવ્યા. ત્યારબાદ આ નવી પ્રસ્થાપિત | તેવી જ રીતે પ્રાચીન ભારતમાં જૈન શ્રેષ્ઠીઓ હસ્તપ્રતનું કરાયેલ વૈવિધ્યની પ્રણાલિકાનો વ્યાપકપણે અમલ કરાયો હતો. સર્જનકાર્ય “લહિયા” ને સોંપતા. લહિયો નાણાં ખરચનારની અપેક્ષાઓ મંત્રી વાચ્છાક, પંદરમા સૈકામાં, પાટણ શહેરમાં થઈ ગયા. અને મયદાઓ અનુસાર, હસ્તપ્રતનું સ્વરૂપ નક્કી કરતો. આ મંત્રી વાચ્છા કે પાટણમાં લખેલ ઘણી હસ્તપ્રતો અને ચિત્રો સુશોભનો. લહિયાઓ, તેમના હાથ નીચે કામ કરનાર લહિયાને લેખનકાર્ય માટે ગુજરાત બહારના વિકસિત કલા કેન્દ્રમાં મોકલાયેલ જોવા મળે સોંપતા, અથવા મોટે ભાગે સ્વયં તેઓજ વ્યપારિક ધોરણે હસ્તપ્રત છે. પરંતુ મુખ્ય આયોજન મંત્રી વાચ્છા કે જ કરેલ જોવા મળે છે. લખતા. લેખનકાર્ય દરમ્યાન તેના કૌશલ્ય અને કળાસુઝ પ્રમાણે, મંત્રી વાચ્છાક દ્વારા સર્જાયેલ દસ હસ્તપ્રતો, મારા ધ્યાનમાં આવેલ. ચિત્રો દોરવા માટેનો ચોક્કસ ભાગ, ગ્રંથિસ્થાને સુશોભનો દોરવાનો છે. ભાગ, કે હસ્તપ્રતના દરેક પાનાઓને નયનરમ્ય બનાવવા, દરેક (૧) વિ. સ. ૧૫૦૯ માં સર્જાયેલ કાલકકથાની હસ્તપ્રત ૨૮ પાનામાં હાંસિયાઓમાં કે પાનાની ચારે બાજુ સુશોભનાત્મક ડીઝાઈનો. પાના, ૧૧ ચિત્રો છે. સંવત ૧૬૦૬ #ાર્તિવા કુરે ૭, ધીમે | દોરવા ચોક્કસ ભાગ છોડી. દેતા. ચિત્રકારના માર્ગદર્શન માટે ચિત્રો ૬. વાછાન ®િવિતમૂ || શ્રી || Gરત સ. ઘના મના સી. માટેની જગ્યાની બાજુમાં હાંસિયામાં, વિષયનો ઉલ્લેખ કરાતો. भोजा मागळदे श्राद्धैलेखयितेयंक था । લેખનકાર્ય પૂર્ણ થયા બાદ, હસ્તપ્રત ચિત્રકારને સોંપવામાં આવતી. सासपुरवास्तव्य सा, माल्हळदे तयो : सुतज-वना सा. भूचराभ्यां ચિત્રકાર, નિષ્ણાત કડીયાની જેમ, ચોક્કસ મર્યાદામાં છોડાયેલ સિદ્ધાન્ત મત્યાં મહાલેપેT - - - - ભાગમાં, સુચવ્યા પ્રમાણે તેના કૌશલ્ય | (૨) સંવત ૧૫૦૯ માં સર્જાયેલ કાલક કથાની, હસ્તપ્રત. ૩૫ પાના, પ્રમાણે ચિત્રો દોરતો અને સુશોભનો ૧૬ ચિત્રો છે. કરતો. હસ્તપ્રતમાં ચિત્રકારનું નામ संवत १५०९ वर्षे वैशाख सुदि चर्तुदशी खौ मं. वाछाकेन લખવાની પ્રથા ન હતી. ત્રિવિતં || મંત્રી. વાચ્છાકિ, વ્યવસાયે લહિયા હતા. સંગ્રહ :- શેઠ આણંદજી કલ્યાણજીની પેઢી, પાલીતાણા. મંત્રી તેમની અટક હતી. મંત્રી વાચ્છાકિની. (૩) સંવત ૧૫૧૩ માં સર્જાયેલ કલ્પસૂત્ર અને કાલકકથાની. જેટલી પણ સચિત્ર હસ્તપ્રતો મળી. છે, હસ્તપ્રત ૧.૧૨ પાના, ૩૮ ચિત્રો છે. કાળી શાહીથી લખાયેલ. તે બધી. અજોડ અને એકબીજાથી ભિન્ન હસ્તપ્રતોમાં, પ્રત્યેક પાનામાં સુશોભનો દોય, હોય તેવી આ સૌ. પ્રકારની મળી છે. તેમના સર્જનની દરેક પ્રથમ હસ્તપ્રત છે. આમ માત્ર સુવણક્ષિરી કે રૌઢાક્ષરી હસ્તપ્રતો. શ્રી રાજેન્દ્ર સારાભાઈ નવાબ થી જાગે અભિનંદન થવાની માગણી जयन्तसेन सहज समझ, सत्य धर्म का मर्म ॥ આજ્ઞા પાછ% શો નિર્ટ, ગૂઢ તત્વ જ્ઞાનnly.org Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ સુશોભીત કરવાની પરંપરાનો મંત્રી વાચ્છાકે અતિક્રમ કર્યો છે सु. श्रा. सं. मांडणे न भार्या लीलादे पुत्र सा. षीमकरण संवंत १५१३ वर्षे वैशाख सुदि सप्तमी गुरुवारे लिखितं मं. जावडादि सकलकुटुंबपरिवारवृत्तेन श्री उत्तराध्ययन सूत्र लिखितं વાછાશન || છ || શ્રી ઋTTUTમતુ || માં Tી || શ્રી || : || | || છ || શ્રી કૃતનનિવાસી || મર્દ વાછાવેન લિi || || (૪) સંવત ૧૫૧૬ માં સર્જાયેલ કલ્પસૂત્ર અને કાલકકથાની. श्री शुभंभवतु || સુવણક્ષિરી હસ્તપ્રત ૧૨૮ પાના, ૪૪ ચિત્રો છે. વિશ્વમાં આ આ હસ્તપ્રતમાં મહત્ત્વનું પાસું એ છે કે, હસ્તપ્રતના સર્જનમાં હસ્તપ્રત અજોડ છે. આ હસ્તપ્રતમાં પશુપક્ષી, ભૌમિતિક નાણા ખર્ચનાર, શ્રેષ્ઠી સંઘવી માંડણ પોતે ઉચ્ચકોટીના ચિત્રકાર આકૃતિઓ અને વનસ્પતિ સિવાય વિશેષમાં તીર્થકરોના પૂર્વભવો હતા. છતાં પણ હસ્તપ્રત પાટણ ખાતે મંત્રી વાચ્છાક પાસે અને તેમના જીવનના મહત્વના પ્રસંગો, હાંસિયાઓમાં અને લખાવડાવી હતી. માંડવગઢ તે વખતે કળાનું વિકસિત કેન્દ્ર પાનાની મધ્યમાં દોરવામાં આવેલ છે. વિશ્વમાં આ પ્રકારની હતું. છતાં લેખન આયોજન પાટણ ખાતે મંત્રી વાચ્છાકે કર્યું આ એક જ હસ્તપ્રત છે. આ અદ્વિતીય આયોજનનું શ્રેય મંત્રી વાચ્છાકને મળે છે. (૭) સંવત ૧૫૨૯ માં સર્જાયેલ કલ્પસૂત્રની હસ્તપ્રત ૬૬ પાનાં, संवत् १५१६ वर्षे श्रावण सूदि ५ सोमे । मं. वाच्छाकेन शुभं ૩૮ ચિત્રો છે. સંગ્રહ:- શ્રી મોહનલાલજી જૈન સેન્ટ્રલ લાયબ્રેરી, મૂવાતુ | સંગ્રહ:- શ્રી. બ્રાતૃચંદ્રસૂરિ સંગ્રહ, પાર્જચંદ્ર ગચ્છ જૈન મુંબઈ. ઉપાશ્રય શામળાની પોળ, અમદાવાદ, संवत १५२९ वर्षे वैशाख सुदि एकादशी शुक्रे लिखितं मं. (૫) સંવત ૧૫૧૯ માં સર્જાયેલ કલ્પસૂત્રની સુવર્ણાક્ષરી હસ્તપ્રત. વાછાન | 8 || સંગ્રહ થાહપૂરજાહનો ભંડાર, જેસલમેર. (૮) સંવત ૧૫૩૪ માં સર્જાયેલ કાલકકથાની. હસ્તપ્રત - વર્તમાનમાં संवत् १५१९ वर्षे आखा (षा)ढ सुदि ३ खौ लिखितम् मंत्रि અપૂર્ણ છે. ૯ પાના ૫ ચિત્રો છે. वाछाकेन || शुभं भवतु ।। સંગ્રહ :- સાગરનો ઉપાય ભંડાર, પાટણ. (૬) સંવત ૧૫૨૯ માં સર્જાયેલ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રની સુવણક્ષિરી | (૯) સંવત ૧૫૩૫ માં સર્જાયેલ કલ્પસૂત્રની હસ્તપ્રત ૩૪ પાનાં, હસ્તપ્રત ૧૨૦ પાના, ૩૭ ચિત્રો છે. આ હસ્તપ્રતનાં ચિત્રો ૧૧ ચિત્રો છે. સંગ્રહ :- જયસિંહસૂરીશ્વરજી બોસ્ટન મ્યુઝિયમે છાપીને, આ હસ્તપ્રતની કદર કરેલ છે. संवत १५३५ वर्षे वैशाख वदि ८ शनिवारे लिखित मं. संवत १५२९ वर्षे माघ वदि १ शुक्रे श्री मंडपदुर्गे વાહીન || છ ||. શ્રી ઉતર છે શ્રી નિનમદ્રસૂરિ પટ્ટપૂર્વાવટાઢુંવારપf (૧૦) સંવત ૧૫૪૯ માં સર્જાયેલ કલ્પસૂત્રની હસ્તપ્રત ૧૩૨ પાના, तरुणतरतरणि साद्रं श्री जिनचंद्रसूरिविजयमाना नामादेशेन ૩૪ ચિત્રો છે. સંગ્રહ :- લાલભાઈ દલપતભાઈ ઈન્સ્ટિટયુટ, श्रीमालज्ञातिय ठाकुरगोत्रे सं. देल्हा पुत्र सं.जयता भा. हीमी અમદાવાદ, सुतेन श्री जिन प्रासाद प्रतिमा आचार्यदिपदप्रतिष्ठा संवत १५४९ वर्षे जयेष्ट सुदि १२ रविवारे लिखितं मंत्रि तिर्थयात्रामाराध्य गत्यपुज्य पवित्री क्रियमाण स्वजन्मा વાકાન ||. निजभुजार्चित शुक्लद्रव्यवयेन लिखितं सकल श्री सिध्धांतसेन श्री पत्तनिवास्तव्य ।। छ ।। श्री शुभं भवतु ।। छ । (અનુસંધાન પાના ૪, ૮૭ ઉપરથી) અભિધાન ચિંતામણિ’ દેશીનામમાલા’ તેમજ અન્ય કોશગ્રંથો; વિસ્તાર કરવાની ઈચ્છા થઈ અને તેમણે પોતાના શિષ્યોને તથા ૭. 'ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષ ચરિત’ કાવ્ય ગુજરાતના અભ્યાસીઓને સંસ્કૃત ભાષા તથા રચનામાં સંપૂર્ણ ૮. વિતરાગ સ્તુતિઓ, કૌશલ પ્રાપ્ત થાય તે માટે વિવિધ કોશગ્રંથો તથા કાવ્યાનુશાસન ( ૯. ‘દ્વાત્રિશિકા' ઓ, અને અને છંદાનુશાસન ગ્રંથો તેમજ ‘દ્વયાશ્રય’ મહાકાવ્ય રચ્યાં. શ્રી. ૧૦ ‘પ્રમાણમીમાંસા' ગ્રંથ. હેમચંદ્રાચાર્યનો. સાહિત્ય નિધિ એટલો વિપુલ, વિસ્તૃત અને વૈવિધ્યમય બધા ગ્રંથોમાં આચાર્યશ્રીના ત્રણ, અનુશાસન ગ્રંથો, જે છે કે પરંપરાગત રીતે એમને અગણિત ગ્રંથોના સર્જક તરીકે ‘અનુશાસન ત્રયી તરીકે પ્રસિદ્ધ છે. તે ગ્રંથોમાં આંતર - સંબંધ બિરદાવવામાં આવ્યા છે. પણ પોતાના પ્રસિદ્ધ ધાર્મિક ચરિત્ર - શાસ્ત્રીય દૃષ્ટિ નોંધપાત્ર છે કેમકે એ ત્રણેય ગ્રંથોમાં કડીબદ્ધ રીતે મહાકાવ્યમાં એમણે પોતાનાં મુખ્ય સર્જનોની યાદી ગણાવી છે. એ સંપૂર્ણ સાહિત્ય વિશ્વની છણાવટ સમાવિષ્ટ કરવામાં આવી છે. આ યાદીમાં આપેલી માહિતી અનુસાર, શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યજીનાં મુખ્ય ઉપરાંત, પ્રોફેસર જેકોબી નોંધે છે તેમ, ભારતીય જ્ઞાનની અનેકાનેક ગ્રંથો આ પ્રમાણે છે. શાખાઓનું ચોક્કસ અને વિસ્તરિત જ્ઞાન દર્શાવતા અને અનેરી. ૧. સ્વોપજ્ઞ વ્યાખ્યા તથા પરિશિષ્ટથી વિભૂષિતે ‘શબ્દાનુશાસન' ભાષાપટુતા, સાહિત્યિકતા અને અપૂર્વ રચના શૈલી. દાખવતા. અનેક | કે સિદ્ધહેમ; ગ્રંથો રચીને શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યે ભારતીય જ્ઞાન નિધિને છલકાવી દીધો. ૨ ત્યાશ્રય મહા કાવ્ય, છે. આની સાથે આચાર્યશ્રી એ અનેરાં સર્જનાત્મક લલિત કાવ્યો. કાવ્યાનુશાસન સ્વોપલ્સ વ્યાખ્યા સહિત; પણ રચ્યાં છે. જેમાં તેમનાં બે યાશ્રય કાવ્યો તથા ‘રાયણાવલી’ યોગશાસ્ત્ર; અને છંદાનુશાસનનાં પધો ઉપરાંત 'ત્રિષષ્ઠિ શલાકા' કાવ્ય અને ૫. છંદાનુશાસન, ભક્તિભાવ પૂર્ણ સ્તોત્રોનો સમાવેશ થાય છે. આ કારણથી જ એમને ‘કલિકાલ સર્વજ્ઞ’ નું સાર્થક બિરુદ મળ્યું છે. પી જવાસેનસૂરિ અભિનન્દ થજરાતી વિભાગ जयन्तसेन अनुभव यह, शाश्वत सत्य निदान || મારા પાર્ટન મુશ્વત છે, કુલ ૭૪7TH RTulary org Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EF – ભારતીય સાહિત્યમાં જૈન વાડ્મયનું સ્થાન RA ||"); '' = M+); ભારતીય સાહિત્યને શણગારવામાં જૈન મહર્ષિઓએ આપેલો ફાળો અસાધારણ મહત્ત્વનો છે. જૈનાચાર્યોએ નહિ ખેડ્યો હોય તેવી એક પણ સાહિત્ય પ્રદેશ આપણને મળનાર નથી. અપૂર્વ પ્રતિભા, મહાન સર્જન શક્તિ અને આદર્શ વ્યાપી જીવનના ત્રિવેણી સંગમ રૂપ સાગરમાંથી એમણે વહાવેલી સાહિત્ય ભાગીરથી સાચે જ લોકહિતકર, પવિત્ર અને સ્વાદ છે.' મુનિ વિક્રમવિજયજીનાં આ વિધાન સર્વથા યોગ્ય છે. જૈન સાહિત્ય સર્જકોએ સંસ્કૃતમાં રચેલું સાહિત્ય ભારતીય સાહિત્યમાં નિઃસંદેહપણે ગણનાપાત્ર સ્થાન ધરાવે છે. સંસ્કૃત મહાકાવ્યોમાં જૈન પુરાણ કથા અને ઈતિહાસને કાવ્ય દેશ આપવામાં આવ્યો છે. કર્ણાટકનાં જૈન પતિ જાસિઁહ નન્દી (ઈ. ૭ મી સદી) 'વરાંગચરત' માં વરાંગની જનશ્રુતિ ૩૧ સર્ગમાં આપે છે. દ્રાવિડ દેશનાં કનકસેન વાદિરાજ (ઈં. ૫) નું ધોધર ચિરત' ૪ સર્ગમાં છે. આ જ વિષય ધરાવતું આ નામનું બીજું મહાકાવ્ય માણિક્યસૂરિ ( ઈ. ૧૧ મી સદી) નું છે. કવિ હરિશ્ચન્દ્રના (ઈ. ૧૧ મી સદી) ‘ધર્મશાંભ્યુદય' મહાકાવ્યમાં ૨૧ સર્ગમાં તીર્થંકર ધર્મનાથનું ચરિત્ર છે. કાવ્ય હિન્દુ ધર્મશાસ્ત્રો અને પુરાણોમાંથી શ્રદ્ધા પૂર્વકના ઉલ્લેખો આપે છે. ગુજરાતના સિદ્ધરાજ જયસિંહના સમાવિ વાગભટ મિ નિર્વાણ (ઉ.૧૧૪૦) માં ૧૫ સમાં તીર્થંકર નેમિનાથનું ચરિત્ર આપે છે. પુરાણની પરિપાટી અને મધ્યકાળનું શાસ્ત્રીય સ્વરૂપ - બંને આમાં જળવાયા છે. આચાર્ય હેમચંન્દ્ર ‘હ્રયાશ્રમ’ (ઈ.૧૧૪૩) માં ૨૦ સર્ગમાં ચૌલુક્ય ઈતિહાસનાં જે પઘો આપે છે; તે વૈયાકરણસૂત્રોનાં ઉદાહરણો છે. ડૉ. ભગવત શરણ ઉપાધ્યાયનો અભિપ્રાય સાચો છે કે શાસ્ત્રકાવ્યની પરંપરામાં આ કાવ્યનું સ્થાન અપૂર્વ છે. નીર નન્દીનાં ચન્દ્રપ્રભચરત” (ઉ.૧૩મી સદી) માં ૧૮ સમી તીર્થંકર ચદ્રપ્રભુનું ચરિત્ર છે. આમાં ઈન્દ્રનું જિન તરીકેનું અવતરણ છે. અભયદેવસૂરિ જયન્તવિજય' (ઈ.૧૨૨૧) માં રાજા જયનની જનનિ ૧૯ સર્ગમાં આપે છે. પાટણનાં મંત્રી વસ્તુપાળના (ઈ. (ઈ. ૧૨૨૧-૪૨) ‘નરનારાયણાનન્દ’ માં ૧૬ સર્ગમાં વિષય કૃષ્ણ અને અર્જુનની મિત્રતાનો છે. આ લેખકની પશ્ચિમ ભારતીય તીર્થયાત્રાનું વર્ણન ઉદયપ્રભસૂરિના ‘ધર્માભ્યુદય” (ઈ. ૧૨૪) માં છે. આ મંત્રીવર્ષનું ચરિત્ર બાલચન્દ્ર સૂરિ (ઇ. ૧૨૪૪) ના ૧૪ સર્ગ ધરાવતા વસંત વિલાસ' માં છે. દેવપ્રભસૂરિ મહધારીના (ઈ. ૧૩ મી મધ્ય ૧૮ સના પ્રા. ડૉ. આર. પી. મહેતા સદીનો (પ્રા. ડૉ. આર. પી. મહેતા) விஜ શ્રી જોનાર અભિનેત્ર જરાતી વિભાગ F પ્રધાન ADI 2015 Vie VARS FR THEY પ હાલના ‘પાંડવચરત’માં પાંડવોની કથા છે. ધર્મકુમારના ‘શાલિભદ્ર ચરિત’ (ઈ. ૧૨૭૭) માં ૭ સર્ગ છે. ખંભાતનાં જયશેખરસૂરિના · જૈન કુમાર સંભવ ' (ઈ. ૧૩૦૪)ના ૧૧ સર્ગમાં કાલિદાસ કાવ્યનું અનુકરણ છે. વિષય ઋષભદેવના પુત્ર ભરતજીના જન્મનો છે. સંપાદક વિક્રમવિજયજીનો અભિપ્રાય છે કે આ કાવ્ય વિદ્વાનોને અપૂર્વ આનંદ આપે તેવું છે. ચરિત્રસુંદર ગણના ' મહિપાલચરિત્ર (ઈ. ૧૫મી સદીની મધ્યમાં ૧૪ સર્ગ છે. મેવિજય ગિરના ‘ દેવનન્દાભ્યુદય (ઈ. ૧૬૭૧) માં ૭ સર્ગમાં વિજયદેવસૂરિનું જીવન છે. ૯૪ . જૈન સ્તોત્રકારોએ પ્રાચીન કાળથી જ પોતાનાં સ્તોત્ર દ્વારા અન્ય સંપ્રદાયોના કવિઓની સ્પર્ધામાં ઊભા રહેવા પ્રયત્ન કર્યો છે. આચાર્ય સમાભરનાં (ઈ. ૨ જી સદી) · સ્વયંભૂસ્તોત્ર ' અને ‘ જિનસ્તુતિશતક ' માં મર્મસ્પર્શી પદરચના દ્વારા કવિએ કુશળતા દર્શાવી છે. વિદ્યાનન્દ પાત્ર કેશરી (ઈ. ૬ઠ્ઠી સદી)ના પ૦ શ્લોકના * પાત્રકેશરી સ્તોત્ર ’ માં ભગવાન મહાવીરની સ્તુતિ છે. સિદ્ધસેન દિવાકરનું ૪૪ પૃષ્ઠ ધરાવતું * કલ્યાણમંદિર સ્તોત્ર " (ઈ.૬૭૬) સર્વાધિક લોકપ્રિય પ્રાચીન જૈન સ્તોત્ર છે. આ સ્તોત્રને કારણે શિવપ્રતિમા તીર્થંકર પ્રતિમામાં રૂપાન્તરિત થઈ હતી, તેવી જન શ્રુતિ છે. આચાર્ય માનતુંગ (ઉં. ૭ મી સદી)નું ' ભક્તામર સ્તોત્ર · છે. તેના વિષે શ્રી જીવણ સાંકળચંદ ઝવેરીનો અભિપ્રાય છે કે બંને સંપ્રદાયોને અતિમાન્ય હોવાથી આના ઉપર અનેક ટીકાઓ ઉપલબ્ધ છે. પંચાલના ક્ષત્રિય બપ્પભટ્ટ (ઈ. ૭૪૪ - ૮૩૪ ) નું ચતુર્વિશતિકા ૯૬ પઘનું યમકથી અલંકૃત કાવ્ય છે. શ્રી શોભન મુનિ (ઈ. ૧૦૪૫ - ૧૧૪૪) ના · સ્તુતિકચતુર્વિશતિકા ' નો ડૉ. યાકોબીએ જર્મનમાં અનુવાદ કર્યો છે. આચાર્ય હેમચન્દ્રના વીતરાગ સ્તોત્ર * અને * દ્વાત્રિંશિકા ” ઓ વિષે શ્રી આનન્દશંકર ધ્રુવ નો અભિપ્રાય છે કે આમાં ભક્તિ અને ચિંતનના સુભગ સમન્વયને એવી પ્રસન્નમધુર શૈલીમાં અભિવ્યક્તિ છે કે રચના માત્ર આધ્યાત્મિક જ નહિ, એક ઉત્તમ સાહિત્યકૃતિ પણ બની રહે, સિદ્ધરાજના અંધ સભાકવિ શ્રીપાલ (ઈ.૧૧૨૫)ના ૨૯ શ્લોકમાં “ચર્દેશિતજન સ્મૃતિ " કે, પં. શ્રી મેવિજય ગતિ (ઈ. ૧૭ મી સદીનો પૂર્વાર્ધ) એ પણ ' ચતુર્વિંશતિ જિનાનન્દ સ્તુતિ ' ની રચના કરી છે. S . . મેઘદૂત" ની જેવાં સાતેક જૈન સંદેશ કાવ્યો રચાયાં છે. કાઠિયાવાડ - ગુજરાતના સાંગણ પુત્ર વિક્રમે 'નૈમિન' (ઈ. ૧૨૭૦) ની રચના કરી છે. ડૉ. રામ કુમાર આચાર્યની નોંધ છે કે બીજ સંદેશ કાવ્ય કરતાં આમાં સૌથી વધુ પ્રસાદ ગુણ છે. અને એ સર્જક ની સહદયતાનું પરિચાયક છે. जयन्तसेन धर्म यही करता जीवन पोष । "ગ" સે મર્યાવા હી, "જ્ઞા' સે જો જ્ઞાન org Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ચૂકાળી જૈન પુરાશ પર આશ્રિત છે. સોમદેવસૂરિ એ “યક્તિલકચંપૂ” (ઈ. ૫૯ ) ની રચના કરી છે. આઠ આભાસોમાં રાજા યશોધરની કથા ધરાવતું આ કાવ્ય સંસ્કૃત ચંપૂકાવ્યો માં સર્વાધિક પ્રસિદ્ધ છે ; તેવો શ્રી એન. કે. દેવરાજનો અભિપ્રાય છે. હરિચન્દ્રે ‘જીવન્ધર ચંપૂ' (ઈ. ૧૧ મી સદી) માં ૧૧ લંભમાં રાજકુમાર વન્ચરનું ચરિત્ર આપ્યું છે. ધાર્મિક ભાવનાઓની આમાં કવિત્વપૂર્ણ અભિવ્યક્તિ છે. સુત્ર આપ્યું છે. ધાર્મિક ભાવનાઓની આ ગા જૈન પ્રબંધોની બે વિશિષ્ટતા શ્રી સુશીલકુમાર દે ગણાવે છે : રસપ્રદ વસ્તુ વિષય અને વાંચવી ગમે તેવી શૈલી આ પ્રબંધોમાં બે મુખ્ય છે. મનુંગનું " પ્રબંધચિન્તામતિ ' (ઈ ૧૦૫) અને રાજશેખર સૂરિનું * પ્રબન્ધ કૌશ * (ઈ. ૧૩૪૮). પહેલા વિષે શ્રી દુર્ગાશંકર શાસ્ત્રીનો અને પછીના વિષે શ્રી હરસિદ્ધભાઈ દિવેટિયાનો અભિપ્રાય છે કે ગુજરાતના ઇતિહાસની સાધન સામગ્રીની દ્રષ્ટિએ આનું મૂલ્ય છે. સંસ્કૃત નાટકના વિકાસમાં જૈન સર્જકોનો ફાળો છે. યશશ્ચન્દ્ર (ઈ. ૧૦૯૪ - ૧૧૪૨) નું · મુદ્રિત કુમુદચન્દ્ર પ્રકરણ ' સિદ્ધરાજની શિષ્ય સભામાંની ઘટના સાથે સંકળાયેલું છે. આચાર્ય હેમચન્દ્રના મા દેવચન્દ્ર નું ' ચન્દ્રલેખાવિજય * (ઈ. ૧૯૫૬) કુમારપાળના વિવાહ સાથે સંકળાયેલું છે. એમના બીજા શિષ્ય રામચન્દ્રનું (ઈ. ૧૨ મી સદીનો ઉત્તરાધ) નાટક ' સત્ય ચિન્દ્ર " છે. છ અંકના આ છ નાટકમાં પ્રસંગો પરિસ્થિતિનું સુરેખ આલેખન અને ઝડપી કાર્યવેગ છે. થરાદના રાજ્યપાલ પશપાત્રનું મોહ રાજ્યપરાજ્ય કુમારપાળની જૈન દીક્ષા અને સુધારાનો છે. શ્રી અંબાલાલ શાહની નોંધ ધંધાર્થ છે કે ગુજરાતના ૧૨ મી સદીના સામાજિક જીવનની ઐતિહાસિક બાબતો માટે આનું મહત્ત્વ છે. જાલોરનાં ઓને મહાદીના રામભદ્ર મુનિએ પ્રબુદ્ધૌહિણેય' (ઈ. ૧૧૮૪) ની રચના કરી છે. મહાવીરના પ્રભાવ નીચે ડાકુ રૌહિણેયના હૃદય પરિવર્તનની કથા ધરાવતું છ અંકનું આ નાટક જૈનત્વની ઉત્તમતાને કાત્મક રીતે પ્રાક્ટ કરે છે. ખંભાતના થસિંહસૂરિએ પંચાકી નાટક હમ્મીરમદ મર્દન' (ઉ. ૧૨૩૦૦ની રચના કરી છે. સમકાર્ડીન વસ્તુ વિષય અને ઐતિહાસિક નિરૂપણના ઉપક્રમને કારણે નાટક વિશેષ મહત્ત્વનું છે ; તેવો શ્યામ શર્માનો મત છે, તે સ્વીકાર્ય છે. સંદેશકાવ્ય, ચંપૂકાવ્ય, પ્રબંધ અને નાટ્ય બંધ .. સંસ્કૃત સાહિત્યની વિવિધ સ્વરૂપો - મહાકાવ્ય. રસ્તોત્રકાળ, - માં જૈન સર્જકોએ પોતાની રચનાઓ આપી છે. આ પ્રદાન એટલું મૂલ્યવાન છે કે એનાથી જૈન વાડ્મયને ભારતીય સાહિત્યમાં વિશિષ્ટ, ગૌરવાસ્પદ તેમ જ માનનીય સ્થાન પ્રાપ્ત થયું છે. શ્રી જીનત અભિનદન મુજરાતી વિભાગ , the help સંદર્ભ ન્ય प्रबन्धकोश कापडिया (प्रा.) हीरालाल रसिकदास परीख रसिकलाल सी. - બાનુશાસન, ૨ मुनि विक्रमविजयजी जैन कुमार संभव महाकाव्यम् शास्त्री दुर्गाशंकर केवलराम - प्रबंन्ध चिन्तामणि Dr. S. K. A history of Sanskrit Literature vol. 1, Keith A Berridale - A history of Sanskrit Literature Krishnaamachariar M. - History of Classical SEIN LE ع الرمز आचार्य (डा.) रामकुमार उपाध्याय (आचार्य) बलदेव त्रिपाठी (डा.) छविनाथ BWIS પ્રેમચન્દ્રશાસ્ત્રી મુખ્ય સાઇ Sanskrit Literature 03) महामहोपाध्याय विनय सागर मुसलगाँवकर (डा.) केशव राव મુસ્તહબ ( ગ્રા.) વિ. મા. शर्मा (डा.) श्याम चन्द्र - ૯૫ संस्कृतके संन्देशकाव्य संस्कृत साहित्य का इतिहास चम्पू काव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन नेमिदूतम् संस्कृत महाकाव्य की परंपरा आचार्य हेमचन्द्र संस्कृत के ऐतिहासिक नाटक उपासकाध्ययन यशस्तिल्कचम्पू, उत्तरखण्ड કાપડિયા ( પ્રા.) હીરાલાલ સિદાસ - કાવ્યસં .. ચતુર્વિંશતિકા ચતુર્વિશતિજિનાનન્દ અતિ સ્તુતિચતુર્વિશનિકા - નાન્દી ( ડૉ.) તપસ્વી – સંસ્કૃત નાટકોનો પરિચય પરિખ રસિકલાલ છો. - ગુજરાતનો રાજકીય અને સાંસ્કૃતિક ઇતિહાસ, સોલંકી કાલ પ્રજાપતિ ( પ્રો. ડૉ.) મણિભાઈ ઈ. – સંસ્કૃત સ્તોત્ર કાવ્ય સંઘવી ( ) સુખલાલ - સન્મતિપ્રકરણ મધુકર-મૌક્તિક કોઈ પા બને કષ્ટ ન ઉપજો દરેક સુખપૂર્વક વનને પસાર કરી, સમૃદ્ધ રહી. અશુદ્ધ અને અશુભ વિચાર, વચન અને વ્યવહારજન્ય પ્રવૃત્તિઓથી નિવૃત્તિ લઈ સમળી વિમળ અને વિમા નિર્મળ બનો. સાધકના પોતાના શબ્દોમાં જ્યાં ભવ છે ત્યાં સમળ અર્થાત્ અશુદ્ધિ. વિમળનું સહજત્વ ભાવપ્રવૃદ્ધિ કરે અને નિર્મળને કહેવાય સ્વભાવ. જેની પાછળ નથી નીચનો ભેદ, અથવા નથી ઈંચનું આધિપત્ય ! સર્વત્ર સ્વતંત્રના છે, જૈનાચાર્ય શ્રીમદ્ ર્સનસૂરિ મધુકર" जयन्तसेन सुखी सदा, रहता आज्ञावान ॥ બાજ્ઞાપાન ઘર્મ હૈ, આજ્ઞ in artÉary.org. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગ્ના ભાવ ન. પ્રગટે દયના આંગણે ગુજ, શકિતશત દીપાવલી . તમ સાવરણને ભેદનારી દિવ્ય જયોતિડકાવલી, સહુ દુખઓના દુઃખ કર્યું, એહ વીમુ જ સાવના. મુકત થઈ સહુ સખ્ય પામે, એવી ર૮ નિત કામના. ૪ સંત પશે જો કોઈ મુજને શાંતિ તેને આપવા, સંતોષ પૂર્વક ૬ સકું તે, આ ત્મગુણ વિકસાવવા . જે વૈર વૃત્તિ રાખશે ડું, તેહથી કરી મિત્રતા નહિં દિલ દુભાવું કોઈનું રાખી હૃદય પામ તા : ના ઈષ્ટ મરવું કોઈને છે, જિંદગી પ્યારી સદ, આપી શકું ના જિ. તો, લ ઈ શકે નહુ હું કદ, બસ એ જ ઝરણું સર્વદા મમ ઉર વિષે વ્હેતું રહે. ક8 ગાણ હું સહુ જીવનું સહુ મૃત્યુ જીવન લહે. ૩ જૂરૂં ન થાઓ કોઈનું ઘાઓ સહુનું હિતસ દ('. જંગમ અને સ્થાવત્ સ દૂએ, શાંતિ પામો સર્વ૬૮. તન મન અને ફેશની વીહા સદા કરતી. દુ:ખ ભાગે સ્નેહ ના એ જ ઈચ્છે ભાર ની . જો આ લોકને પરલોકમાં પણ ભાવના એવી રદે. જૈન શાસન કલ્પ તરૂ તેવી સહુ શિવ સુખ લહે. નન શકિત થી રાત્રી કરૂં હું સર્વને શાસન પ્રનિ. રાજેન્દ્ર ' શક્તિ જયન્ત 'અપડી જંખના મારી અગ્નિ .Y આ રીમદ્ જયન્તસેનસૂરિ અભિનન્દન ગંગાજરાતી વિભાગ क्रोध हनन करता सदा, विजय कीर्ति सन्मान।। जयन्तसेन इसे तजो, हित अहित पहचान | Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VISION ॥श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ। Jain Education Interational Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (VISION - a a Shri M.L. Punmia Shri B.C. Jain Shri. R.P. Pandey Shri Pradeep Jain Dr. Jagdishchandra Jain Socio. Religious contributions of Shri Jayantsen Surishwarji to Jainism A Magnetic personality An Ideal High-souled H.H. Shri Jayantsen Surishwarji Scope of Research in Jain Studies Comparative Study of the samjnás of siddhāhaima sabdānusasnam with the paniniam school of grammer Jainism An Antiquity of Jainism and Tirthankara Mahavir Jainism and Global peace The Concept of Samata and its relevance in the modern world Meditation Discover Happiness from within Dr. Jain Jaydev A. Baroda Shri K.L. Banthia N000 F 0 Dr. Jain Bhaskar Dr. Dhaval Nemchand Galla shri H.S. Chandall a Sadhwi shri Akshaysriji Aakha Dr. A.L. Gandhi Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOCIO-RELIGIOUS CONTRIBUTIONS OF SHRI JAYANTSEN SURISHWARJI TO JAINISM (Shri M. L. Punmia, B.A, Dy. Director Postal) Jainism is one of the most ancient religion in the world, incepted at the time when man used to inhabit in darked caves and his main object was to satisfy the pangs of appetite. The life was nude, hard, savage and wants were confined to clothing shelter and safety besides diet. Lord Rikhabdeo enshrined civilisation by founding towns and inventing the art and science and thus, the story of civilisation started galloping. With the advent of various means of livelihood bread and shelter, the main contribution towards Socio, economic, political and religious activities. The various greaters and doers contributed to a good extent in propounding various socio, economic Political and religious theories. For the purpose of penance and worship, super-structural religious moments were erected, various religious books were written and various socio economic political byelaws were produced in black and white. The contribution of Jainism towards India's development was not only for most but also vast touching all the aspects of man's activities. The Jainism was formed into an informidable shape by the contribution of great Saints who guided and enlightened the lacks of devotees. The impact of Jainism is clearly transparent on all walks of life. In the present centuary. Acharya Bhagwant Rajendra Suriji Maharaj brought radical changes in our religious thinking emphasing more on purity of life and limiting our wants which are the main cause of our miseries. In the sixth series of hirarchy, Acharya Bhagwant. Jayantsen Surishwarji became the head of Tristutik Sangh at Bhandwaji Thirth on 15.2.84 Born in a village Pepral in Tharad Tehsil of Banaskantha Dist., his earthly name was Punamchand. He was very much influenced by the teachings of Acharya Bhagwant Yatindra Surishwarji, and he became saint at the early age of 17 years and started spritual life under his blessings. He surrendered his life in the footsteps of his religious father and devoted his time in memorising the books of Jain religion, Philosophy and other alied subjects and mastered them all. He travelled almost the whole India and achieved the first hand knowledge of all the religious places of Jainism, met various types of people devoted to Jainism and their walks of life. Thus, he got first hand knowledge about the backwardness in the field of education, Jain literature, arts, thinking, socio-Political field and he took a vow to bring redical change in Jain Society specially in Tristutik Sangh. He edited the great literary works of his Guru Acharya Bhagwant Yatindra Suriji and number of such books is 15. He himself wrote 50 books touching all walks of life and thus, his contribution towards literature is appreciable which influenced the thinkings of lacks of people of the literary world. He wrote Bhakti Sangam in Gujarati in a very beautiful poetic style starting with the verses (gatha) in praise of Dada Guru Acharya Bhagwant Rajendra Suriji followed by lines of devotion towards his guru Yatindra Suriji. His Bhajans are beautiful pieces of literature sounding superb sangit which hyptonises the lacks of devotees forgetting the very surrounding. 'Gunganga' is other small but very beautiful literary piece in praise of Navkar Mantra which is one of most powerful and spiritual mantra for achieving spiritual objects. "Re Pravasi" is another Philosophical work describing the earthly world as castle on sand emphasing more on religious and social life by leaving 18 evils indicated in " 18 Papsthnak". In the field of Art, he devoted his time in the repairs and renovations of old pilgrimage centres like Bhandwaji. Naroli and others. He also performed pratishtha of about 28 Jain temples and Guru temples. Many of them are superb pieces of architect. He leaded 13 pilgrimage trips. In his first speech after becoming the head of Tristutik Sangh, he declared that he is intended to start a fund in the name of "Guru Rajendra foundation" with the object of carrying out repairs, construction, renovation work of any temple, Dadawadi & Jain Upashrayas. He asked his devotees to contribute liberally towards this fund so that the old monuments of Indian civilisation can be saved from dilapidation. He also showed his intention for creating another fund to finance the literary works and their publications. Many of our Jain religious books are lying in primitive stage written on Tamra Patras and they are required to be edited and published so that the greatness of Jainism can be brought into lime-light and the whole civilisation may be benefitted. Another fund is intended to be raised aiming finacing the poor students for their advanced studies and also for financing the poor and financially backward desciples. If these funds are developed and financially sounded by his devotees, then, difinitely there would be improvement not only in art, literature, architecture and education but also in bringing economic improvement of his followers. He is young Acharya having a great zeal and faith, combined with rare qualities of leadership and it is hoped, with the advancement of time, his followers will achieve a more educated, civilised, prosperous and spiritually oriented life. SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION सब से दुःख दायी कहा, तन, धन ज्ञान अजीर्ण । Tec 4,447 sorbitof II. ainelibrary.org Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A MAGNETIC PERSONALITY (Shri B.C. Jain [kanwar] Lecturer) His sincere and earnest devotion in moral, religious and literary field is admirable. Respected Acharya Jayant Sen Surishwarji is an outstanding personality among the world of saints specially in Jains. He is a man of profound knowledge of Jainism, Indian culture, literature and philosophy. His speeches are very attractive and effective and very easy, meaningful to understand for common folk. He is successful artist of life. He is not only Jain Acharya but also a very kind and whole hearted saint, a brother and friend of those who are sufferers in the world. It is doubtless to say that one who comes in his contact gets relief and comforts and new courage to lead life successfully in future. He is like a light house and point of inspiration to all the pilgrims. His inspiration, direction and guidelines have given new lives to people. He did a lot for the betterment and proper development of Shri Bhandapur Tirth, Shri Swarngiri Jalore, Shri Laxmani Tirth, Shri Talampur and Shri kortaji. His honour has also given new breathing among youths to participate actively in Jain shivirs for meditation and concentration to bring regularity in life. He is very skilled personality in the sense of very sweet, piercing speach rather to say heartiest touching one. His speach is controlled one, through very simple and in ordinary words yet full of essence of life and affection. Learned and able disciples of Acharya Deo Shri Jayant Sen Suriji named Dr. Priya Darshanashri and Dr. Sudershnashri have devoted whole heartedly in constructing and erecting a paradise named Kirti Mandir at Bharatpur in Rajasthan. As a matter of fact such saints are meant for such pious and construtive work to give comfort and inner plesure to all the people. Though he is a man of letters, yet very simple like an ordinary person, always in smiling face, in jolly mood even in serious talks and walks of life. He has got every solution for dejected and rejected life. He is a man of very soft and wide hearted, sympathetic outlook and helping attitude for all. He always thinks and prays to God for uplifting and welfare of others. He knows well and tells all the secrets of life, now it is up to us how we manage to get it practical in our life. Without any hesitation would like to say that Acharya Shri is dynamic personality, devoted one, Dharmyogi and a pole star on horizen of soul which gives light, point out the right path to curious. Maha Mahim Acharya Shri has established a new power of light through devotion and meditation of "Maha Navkar Mantra" which is Siddha in itself. He has reorganised the society specially youths in the name of all India Shri Rajendra Jain Navyuwak parishad. In the real sense and true words he is successful architect of life. He is very creative personality. He is not only famous and noted writer but also a poet of heart touching, inspiring and soothing poems. He has written a lot of books and contributed in the field of literature. As he has written a 'Satsai' having more than seven hundred heroic couplets which has also been published, hence he has followed and taken a place in its tradition. Its a matter of pride and pleasure to mention here that his honour has written more than fifty books so early. The very famous encyclopedia named Rajendra Kosh has been republished under his proper guidance. I feel myself the most fortunate to get an apportunity of his pious Darshan, to listen his remark able and contributory words having content of life, moral, religion and philosophical literature. We pay regards and respect to a real judge of life and specialist of our culture and significant and revolutionary signature of the time. SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION व्यसन कभी सुखदा नहीं, व्यसन करे बेकार । जयन्तसेन तजे वही, पाता सुख संसार || Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN IDEAL HIGH-SOULED (Shri R.P. Pandey) Among the great Jain Acharyas of the last few years Shri Jayant Sen Surishwarji Maharaj enjoys a very prominent and distinguished place, especially in Tristutik Sangh. He is favourite with both the old and the young of the Jainas. Over last fifteen years I have been very close to the Jain saints teaching them many subjects. Luckily I have come in contact with various Acharyas in this regard. But I am much impressed to see that this holy saint is leading the ideal life of a Jain Sadhu carrying out all the injunctions prescribed by the scriptures. He is carrying on a crusade in his inimitable way for the educational and social uplift of this Jain Samgh. He is going on foot village to village, town to town, city to city through out India keeping the mission for social welfare with the consecration of image of Lord Tirthankras and late respected Gurudevas in the temples. This praiseworthy enthusiasm unusual for multifarious social activities for an ordinary Jain Sadhu, he has inharited from his great Gurudev Yateendra Suriji Maharaj. I see Acharya Shri seems to believe that it is no use merely preaching religion to a Samgh, that is socially and psychologically not prepared to receive it. An understanding and a happy mind can alone absorb and live upto the great tenets of Jain philosphy and he is dedicated to creating that. This Jainacharya's heart is pure, clean and full of Pity for all creatures. I have seen him very nearly and feel that his thoughts, ideas and perceptions are quite natural broad and lofty. He is very simple, wearing Khadi. But he is fearless and outspoken in his views. Despite this disciplined and objective outlook, he is tender and soft to the distressed and unhappy. During his chaturmas he always urges the generous persons to contribute large sums for the welfare and betterment of the aggrived. His bold and impressive voice attracts everybody when he preaches earnestly-"A man may become a SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION scholar, a scientist, an artist or a politician but he can't be famous and reverent for all unless he is polite. Self control is not possible without endurence, relinquishment is not possible without self control and self confidence is impossible without relinqishment. Friendship and brotherhood are the boons of the life. If we can not make anyone happy and healthy how can we have the right to make him unhappy or to give him offence. I can not shower curses instead of blessings". I feel amply honoured by getting a chance to teach his disciples, and I always find him firmly seated talking obout the real path of the life to the people around him. The people are not only from Jainism but from different casts and religions. Everybody touches his feet with great reverence and faith. There are lot of persons who swear before Acharya Shri, not to drink, not to smoke, not to eat non-vegetable foods, even not to attend the feasts wherein such things are to be served. Such is the magic and power of his holy person. Acharya Shriji has inspiring and creative ideas. His thoughts are a light to the misguided and wavering youth and new coming generation. He attempts his task with full courage and keeping trust in holy Gurudevas and gets the goal. His glorious life will be a myth for coming era. In present time this learned, ideal, benevolent, vigilant and most respected saint is guiding up the train of Tristutik Sangh by his magnificence on the path of truth, non-voilence and purity. All my well wishes and prayers are for his better health and long life on the occasion of the completion of 50th bright mile of his life. It is truly said by Akhil Bhartiya Rajendra Jain Navyuwak Parishad that they are performing only their duty to publish an Abhinandan granth on this silver Jubilee function. 3 R.P. Pandey Mahaveer Balvidyalaya RANI (Raj.) पुण्य पाप युत कर्म से, सुख दुख आते जान । जयन्तसेन मर्म समझ, कभी ना खींचातान Manelibrary.org Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H. H. SHRI JAYANTSEN SURISHWARJI (Shree Pradeep Jain, Bombay) Firstly I would like to give my compliments to all right knowledge, due to delusion few bad habits too had those who are engaged in publishing of this marvellous entered into him. But staying there for 11 days with this sketch. This look will certainly throw light on the miracles great person, listening to the magical and powerful words that are associated with the name of this great and flowing through his month, it converted his delusion into Illustrious saint. He is the light which has been shining right attitude, Each sentence uttered opened his eyes and also inspiring many those who have come into his for what is right and wrong, reversed all his false contact. thoughts, made him feel sorry for his past behaviour every sentence put him into deep thoughts for the Born in the year Vikram Samvat 1993 on the 13th astonishing truths of Jainism, and he decided to live a day of the month of Kartika, as the son of Parvatidevi changed life, a life of camp's achievement. And today and Shri Swaroopchandji. he was named as whenever we meet I see in him politeness, humbleness. Poonamchand. The qualities he contained in himself courtesy etc. instead of those passions I used to see in were parallel to his name and from childhood itself he him in the past. Another example connected to the was religious minded and had too much faith in same point is that during his 'Khimel Chaturmas' listening "NAMASKAR MAHAMANTRA' at the teen age of 17, to his magical words some drunkards had taken life realising this world as a ocean of suffering, sorrow, grief long pledge to remain away from intoxicating drinks. So and unhappiness he left all his wordly belongings and where ever he goes the main thing he propogates to the started on the immortal path of self realisation. He was people is to discard their disqualities and for the benefit granted 'diksha' in a large procession, among thousands of both, body and soul live pure and simple life, to line of people by Shri Yatindra Surishwarji. Due to his poetic the way preached by Mahavir. nature along with the Mini name 'Shri Jayantvijayaji' he was also pennamed as 'Madhukar'. In my whole life uptill now I have met him only thrice, but it appears as if I know him since long time. Really. He is a man in thousands, unparalled, and First chance of meeting him was on 3rd June 1989 at having distinguishing qualities with everlasting impressive Pansar. where a camp was organised under his personality. Also, he is a man of parts containing every quidance. It was on the part of my good fortune that fine qualities, who is practising five great vous strictly was able to take part in this camp and stayed for 14 and completely, along with self control and tolerance, days with this saint. Before that I had only heard from has got rid of all his passions and has suceeded over all my father about him, his personality, his distinguishing his senses. And because of these qualities in the yearcharacteristics etc. But when I met him, it was even V.S. 2040 he was crowned as the chief as head of the more than what I had heard. The most impressing part seet. of his personality I liked was his sense of memory. I remember it was second time His mode of speech is so much when I had went to khimel, I had met him. effective and impressive that it easily moves When I reached there I found him rounded ones heart. One of the best examples which up huge crowd. In the midst of that large I myself have witnessed recently was during crowd I was waiting for my turn to seek his Pansar's camp. From Bombay including my blessings, but before that he noticed me and other friends, a non Jain friend had also never took even a second to recognise me joined us, uptill we had reached there, this and asked me Pradeep ? When did you boy was living completely detached even come ? This was the most joyous moment with his own religion and also due to lack of Shree Pradeep Jain for me and surprising too. As we had met SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION A आत्मा तो दृष्टा बना, सुख दुख तेरे कर्म । 746 997 9, 45 S h elbrary.org Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ before only once and after 4-5 months this man who meets thousands of people every day, never took even a second to take my name. My head went bowing into his feet on this part of his personality. Jayantsen says always leave those who are unheaded and untoed. Third time it was again Pansar, where I met this great person. I can't forget the lessons he preached there during 11 days camp. The topic he under took was about self-control. For lay-men it was to be practised partially while far saints fully. (Deshvirati and Sarvavirti). He taught us that as a lay man (Shravak) we should follow the path of partial self control for which 12 small vows are laid. By doing or practising these small vows can progress towards the path of full self control and achieve liberation. He also taught us to be prudent in practice, polite in behaviour and humble to every living being, and one gaining these 3 invaluable gems, he will go on progressing, gaining and achieving every goal throughout his life. Another book 'Re Chir Pravsi' too contains same type of message. Here poet instead of adressing himself, he has appealed to everyone who is passenger in this world and that's why in the beginning of his poem he adresses them as 'Oh dear passenger..... रे चिर प्रवासी ! यम नियम से जिंदगी होती सफल दुर्लभ मनुज की जिंदगी, इनके बिना होती विफल यह दृष्टि को निर्मल करे, वर सृष्टि में सुखदा सदा कायम नियम धारण कर चलो, कल्याण मारग सर्वदा "Oh Dear passenger ! Rarely possible human life succeeds by taking some type of vows, otherwise it goes unsucceeded. It makes our viewing aspect clear and simple by which we will always experience happiness in this world. Also by taking vows we will always find ourself on the path of benefits." Besides this some of the remarkable achievements carrying his name include : I have also read some of the books written by him of which 'Namo Man Se, Namo Tan Se' was the most liked, the heading itself has a wide meaning, the sentences in it have un measureable deepness. The most surprising part of this book is that the subject on which it is written consists of only 9 lines. One can guess the intelligence and knowledge of the author. Other books containing holy songs composed by him, books discussing the vastness of Shri Abidhan Rajendra Kosh', some books containing spiritual teachings with short and interesting preaching stories. Some books of short poems are also the highlights of his pen. 1) 2) 3) Granting Diksha to number of his disciples. Giving great deal of help in republishing of Jain encyclopedia "ABIDHAN RAJENDRA KOSH" Giving guidance in smooth working of All India Sri Rajendra Jain Navyuvak parishad Performing 'Pratista' ceremonies of many temples, Travelling about more than 80,000 Kms., etc. 4) 5) A book containing 700 couplets 'Jayantsen Satsai' in size they may be short but in meaning they are wide, vast and deep. For eg. these poems of this book are written underneath वाद-विवाद में जो फंसा, गया सत्य से दूर जयंतसेन विवाद तज, शांति पा भरपूर । One falling prey to useless discussions goes for away from truth Jayantsen says leave false discussions and hence gain enough peace सत्य सदा सिर पैर का, झूठ को पाव न हाथ जयंत सेन बेसिर पैर का, करो कभी न साथ Much has been done, more is being done and much more is expected from him. A man containing 36 types of qualities, containing humbleness, politeness, courtesy, sympathy for others who has discarded all his passions, practising great vows of Mahavira completely and strictly. Regarded as temple of love and wisdom practising selfcontrol and tolerence, has conquered all his senses, in undoubtedly a great man, ineffable i.e. impossible to be described in words and an miracle to be followed. Truth is always with head and toe, while untruth is without leg and hand SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 5 कौन कहाँ कुछ ले गया, जन्मान्तर में साथ । जयन्तसेन वही गया, कृत सकृत निज हाथ ।। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : SCOPE OF RESEARCH IN JAIN STUDIES (Dr. Jagdishchandra Jain) A man by nature has been a seeker, an inquirer, designed to turn around an axle passed through the an investigator, an examiner and a scrutiniser. This is centre. Its turning around produces force that provides the background of research, inquiry, investigation, energy, movement or direction. We have a spinning inquest, exploration, trial and analysis. The Vedic Aryans wheel, a water wheel and so on. It takes us to a potter's were mystified to see the natural phenomena around wheel, a device composed of a revolving, treadleoperated them and started their query : What are these stars horizontal disk upon which potter's clay is modelled for and planets in the sky ? How this earth and sky are making pottery. This was a very useful substantial joined togther ? How these variegated cows by eating research in the life of a primitive man for which he had green grass supply us white milk? How this vast to apply his brain. Take another instance; we come! universe came into being? From existence? Or from across electric machines, an atom bomb, a furnace and non-existence ? It was a period of original research. so on. We try to think deeper and reach the root of In European countries much emphasis is laid on such performances. We find that the fire-cult played an research. In universities and Research Institutes important role in the life, of the ancient Indians. As the numerous scientists and research scholars are occupied fix was a necessity for life, they used to generate it with in carrying out their research work. In Germany, for the primitive manner of fire-drill. It consists of two frictioninstance, full six years or twelve semesters are assigned sticks (arani) of which the one is a small board the for Fundamental Research. In carrying out a research others a pointed stick which is turned round in the small project, first of all, we have to speculate and ponder board until a flame comes out. This fire-producing over the problem, i.e. what is the problem we are going implement is still popular among the tribal people. When to handle. This stage of speculation has nothing to do the fire was generated the ancient Indians used to shout much with the proper subject of research. Further, we with joy while reciting hymns in praise of the fire. This have to pass through various stage in course of our was anohter useful research in the life of a human being. research work. First, there is observation, we contemplate A researcher has to be pitilessly just to truth and and take cognizance of the subject. It is called darsana not consider anything of value except truth. He develops or perception in Indian philosophy. Then comes the an objective attitude in place of the subjective one, study of the problem, i.e. what is our problem which we pertaining to an individual element in one's own are going to study and what are the main issues which experience. He has to accept hard and straight thinking we are going to discuss and the puzzling questions which and avoid soft or emotional or sensational thinking. A need a solution. After going deep into the problem true research must prove logically derived conclusions comes the stage of intellectual thinking. This is a long and not defend at all costs pious wishes and pleasing process of research which continues from beginning till imaginings He should try to announce what is true, end. This process is essential for the constant never mind whether it pleases or irritates. Haribhadrasuri, development of the research is not difficult, nor a prominent Jain scholar has stated: "The reasoning of complicated but very easy, simple and at the same time a man of obstinate inclination follows his intellect, pracical. We go to buy vegetables in the whereas the intellect of the one who does market. We visit certain shops, inquire not side with partiality follows his reasoning." about the price, examine the stuff and आग्रहीबत निनीषति युक्तिं, तत्र, यत्र मतिरस्ष्य ultimately pay the price and purchase it. It निविष्टा । पक्षपातरहितस्पतु युक्ति, यत्रि, तत्र मतिरेति was a part of our research but the whole ACT | Foreign scholars, particularly the process was so quick that we could not Germany, have made a substantial differentiate the various stage we have contribution towards Jainism and Prakrit passed through. We come across studies. The readers might be aware that aeroplanes, motor-cars, bullock-carts and about a century ago from now. F.M. other moving vehicles. Here we observe a Maxmuller (1823-1900), a professor of wheel a solid rigid circular ring connected Dr. Jagdishchandra Comparative Religion in the Oxford by spokes to a centre part of a wheel. It is Jain University, was a General Editor of the SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 6 सभी स्वयं का भुगतते, उदित शुभा शुभ कर्म । जयन्तसेन टले नहीं, बिन भुगते दुष्कर्म ।। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sacred Books of the East Series (S.B.E.), comprising 40 volumes, out of which 31 contained the translation of important Indian texts. Maxmueller was invited to deliver a series of cambridge lactures in England to young English men who were recruited for the Indian Civil Service and had to work in India in the British administrative service. These young men, ignorant of Indian culture, did not like Indians and called them natives as an indication of disrespect. Native is a man who is considered as not amenable to the recognised principles of self-respect, uprightness and veracity Professor Maxmueller, in order to emphasise the richness of Indian culture, delivered these lectures, which later were published under the Title" India What It can Teach Us." He exhorted these young men saying: "If I were to search the world to find out the country most richly endowed with all the wealth, power and beauty that nature can betsow-in some parts a very paradise on the earth should point out to India." Soon the interest developed in Germany about the study of Indian studies and as a result the chairs of Indology were established in Bonn, Tuebingen, Gottingen, Muenschen and Hambrug. Hermann Jocobi (1850-1973), a pupil of A. Weber (1825-1901), was a distinguished German scholar and a pioneer in the field of Jain and Prakrit studies, who for the first time established that Jainism was not only an independent of Buddhism but even older. He was only 23 when he made a trip to India in search of Jain manuscripts. Subsequently he translated some of the important Jain Sutras under XXII and XLV volumes in the Sacred Books of the East Series. His another monumental work was "Ausgewaehlte Erzaehlungen in Maharashtri" (Selected Stories in Maharashtri) which was published in 1886. The important work on Prakrit studies was dedicated by him to his revered, guru Weber. Jacobi was conferred an honorary title of 'Jain Darshan Divakar (The Sun of Jain Learning) in a Jain Conference held at Ahmedabad. In order to satisfy his queries about his studies he had a correspondence with Muni Shri VijayaDharmasuri. Jacobi gained so much popularity in his own country that his Bronze Placket, designed by an Italian artist, was hung with pride in the houses of scholars of Indology. This memorable Placket is still preserved in the Department of Indology of the University of Kiel where he had worked as a professor Richard Pischel (1849-1908) had specialised in Prakrit Studies. He wrote his monumental work "Grammatik der Prakrit-Sprachen" (Grammar of Prakrit Languages) in 1874. As much of the Prakrit literature was not available in print, Pischel had to work hard in reading the hand written manuscripts. This work has been translated into English and Hindi. Pischel also wroked in the university of Kiel for a number of years. He was invited to deliver a series of lectures on Prakrit grammar and literature in the calcutta University. He had already reached Madras but unfortunately he developed ear trouble and died. Among other Jain scholars of genius, mention may be made of E. Leumann (1859-1931), W. Schubring. Johannes Hertel, Helmuth von Glasenapp, L. Alsdorf, K. Bruhn et al. Some of them could not get an opportunity to visit India, the land of their dream, still they devoted themselves to the study of Indology and left their mark in the world of scholars. During the tenure in the University of Kiel in 197074, as a research scholar and a teacher, the present author got an opportunity to meet some of them and observe their methodology of research. Generally they carry their research work independently without any team as such. They are provided with all kinds of research facilities and an upto date library; most of them have their own library too. Alsdorf, who recently died, was a distinguised scholar of Jainism. After the death of his guru Schubring. he occupied the Chair of Indology in the university of Hamburg. He visited India several times when he made an extensive tour of important places, including Jaisalmer, Patan, Ahmedabad, Kolhapur, Belur et al. He came into contact with Muni Shri Punyavijaya Maharaj, a renowened scholar of Jain Agamas. He presented Alsdorf a copy of the Vasudevahindi by Sanghadasagani Vacaka, published in 1930-31. Alsdorf was so much fascinated by this work that he read a scholarly paper entitled "Eine neue Version der Verlorenen Brhatkatha des Gunadhya' (A New Version of the Lost Brhatkatha of Gunadhya) in the International Oriental Congress held in Rome in 1938. Later on the present author wrote his work titled "The Vasudevahindi--An Authentic Jain Version of the Brhatkatha' during his tenure in the university of Kiel, which has been published by the L. D. Institute of Indology, Ahmedabad in 1977. There is a vast scope of research in Jain Studies and Prakrit. We have to work hard to point out under what conditions and situations the universal principle of Ahimsa was made a grit of the teachings of Mahavira and how can this principle successfully be implemented to maintain peace and harmony in this world heading towards confrontation. SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 7 रंक राय के भेद को, कर्म करत संसार । 074- t h an, was er dainelibrary.org Jain Education Interational Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .................... ....................... .. COMPARATIVE STUDY OF THE SAMJNĀS OF SIDDHĀHAIMA - ŠABDĀNUSAŚNAM WITH THE PĀNINIAM SCHOOL OF GRAMMAR BAS (Dr. Jani Jaydev A. Baroda) Sri Hemachandrāchārya is rightly called Kalikālasarvajñā, as his contribution to the various fields of Sanskrit language and literature bespeaks his allround scholarship and praiseworthy command over the language. The present paper confines only to the section of the Samjñās (technical terms) introduced and/or used in Siddha-haima-sabdānuśasanam or Siddha-haimavyākaranam', which consists of eight chapters like the Astādhyāyi of Panini. However there is a slight change of the topic in the eighth chapter, here, which deals with Six languages, other than Sanskrit such as Prakrita, Sauraseni, Māgadhi, Paisāchi, Cūlikāpaiśāchi and Apabhramsa, unlike Panini's Astadhyāyi which deals with the Sanskrit grammar only. The glaring difference between the two schools of grammar is that Panini touches the grammar of Vedic Sanskrit also, but Sri Hemachandrācharya totally ignores it. Even then there is an undercurrent of similarity between them. The following points need consideration. (1) Many of the aphorisms of the Siddha-haima Sabdānuśāsanam are adopted Verbatim from the Astādhyāyi of Pāṇini (2) Some of the aphorisms show a minor change in the structure by way of (a) changing the words or technical terms, (b) curtailing the list with the word ādi, (c) amalgamating Värttikass of Päninian grammer into the body of the Siddha-haimaŚabdānuśāsanam as forming part of the aphorisms, and (d) introducing easier technical terms known to the students and scholars, as some of them have come down from the Prātiśākhyas. The following is a list of some of the technical terms worth attention. (A) The technical terms (Samjnās) that are common in the Siddha-haima-Sabdanusasanam and the Aștādhyāyī. No. Samjñā Panini sri Hemachandracharya III iii 1 Li.1 1.1.2 I. ii. 27 III iii 2 11.5 Vrddhi guna hrasva, dirgha & pluta Pada Si (jaśśasoh) avyaya Satr Parasmaipada ātmanepada u (of 8th Conj.) Yari I. iv. 14 VII I. 20 1. i. 37 III ii. 124 I. iv. 99 liv. 100 1. i. 20 1. 1. 28 I. i. 30 III iii. 19 III iii. 19 III iji. 20 III iii. 83 Ill iv. 9, 14 Ill iv. 51 III i. 22 Ti. 5 Kit SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION कर्म रेख बलवान है, अज्ञ न जाने बात | 09-09 5 , 46 for Tagalbrary.org Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Snu Sna Sa III i. 73 III i. 81 III i. 77 Ill iv. 75 III iv. 79 III iv. 81 (B) The terms replaced by Sri Hemachandrachārya. No. Samjna Sami Panini ik Changed as Sri Hemachandracha i, u,,!, 1. ii. 21 I. iii. 18 navā I. iii. 31 idutau 1. iv. 21, 26 VI i. 77 VIII. iii 29, 30 1. i. 4 1. iv. 7 dhut vibhāsā ghi 828 ес hal jhal khar VI. i 77 VI. i. 104 VI. i. 101 VI. I. 78 VIII iii. 22 VIII iv. 24 VIII iii. 15 VI. I. 104 VI I. 77 svara nāmi Samāna Sandhyaksara Vyanjana dhut aghosa ghoșa antahstha 1. 1.4 I. 1.6 1.1.7 I. .8 I. i. 10 1. i. 2 1.1.13 I. i. 14 I. i. 15 has yan (III) Savarna 11.9 Sva 1. i. 17 I. ii. 1 1. i. 27 1.1.28 Prātipadika Sarvanāma-sthāna (as Samāna) nāma ghut 1. ii. 45 L.i.42 1.1.2, VI. i. 1.25 asandhi 1. ii. 31 pragshya (prakrtibhāva) tāp ap nip IV i. 4 IV 1.5 I. i. 27 liv. 17, II iv 15 Il iv 1 I. iv. 7 Sarvanāma Sarvādi (IV) vartamānā paroksā śvasthani bhavisyanti III iii. 6 III iii. 12 III iii. 13 III iii. 15 III ii. 123 III ii. 115 III iii. 15 III iii. 13 III. iv. 7 III. iii. 162 III ii. 3 III iii. 161 III. iv. 116 Ill ii. 110 Ill iii. 139 III i. 68 III i. 69 lin (asih) luri Im sap syam panchami hyastani Saptami asin adyatani kriyātipatti sav sya III iii. 8 III iii. 9 III iii. 7. III iii. 13 III. iii. 11 III iii. 16 III iv. 71 III iv. 72 SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION कोई नहीं है जन्म से, नीच उँच संसार | v74-77 Barh , flat B elbrary.org Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49. 50. śnam nic III i. 78 III. i. 25, 26 The above groups (A) and (B) show the clear picture of the Saminas. The group (A) enlists the Samiñas that are common in both the schools of Sanskrit grammar. No doubt the Samiñas, such as, hrasva, dirgha, pluta, pada, avyaya, parasmaipada and atmanepada are traditional, as they are as old as the Pratiśākhyas. But other samiñas accepted by Śrī Hemachandracharya bespeak their popularity among the scholars and the students of Sanskrit grammar. The group (B) enumerates the samiñas replaced by Sri Hemachandracharya. The section-1 of the group (B) has four Saminas of Panini which are taken by Śrī Hemachandracharya in their meaning i.e. ik as i, u, r, I, dhut as t, vibhāṣā as nava and ghi as words ending with i und u.? The section-II of the group (B) enlists of saminas called pratyahāras i.e. abbreviated terms in Panini constructed with the help of the fourteen Mäheśvarasutras, otherwise known as Pratyāhārasūtras. ś Hemachandracharya doesn't adopt the technique of the pratyahāras and instead he accepts the old pattern of the alphabet and its welknown classification i.e. ghosa, aghosa etc. accepted by the school of Sarasvata grammar, too. The section-III of the same group puts forth the saminas derived by Panini. But Sri Hemachandracharya introduces the samjñās adopted by the then popular school of Sarasvata grammar viz. Samana, nāma, sarvadi and apa, while sva, ghut, asandhi and others are newly introduced by him. The change of lakaras of Panini, though, simplifies the whole verbal operation, shows some impact of the Katantra, Sakatayana and Sarasvata Schools of grammar. It should be noted, here, that Sri Hemachandracharya enumerates the verbal affixes of all the tenses and the moods in the respective aphorisms 10 for which Panini gives only one common list and introduces necessary changes wherever and whenever required". The nic and nig introduced separately seems to suggest the difference of the conjugational sign of curadi and the causal affix, though Panini takes only nic in both the cases. The conjugational signs introduced by śri Hemachandracharya lack the clarification why the anubandhas are changed. In sav for sap (1st Conj.), SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION śna nic nig sya for syan (4th Conj.) and Sna for śnam (7th Conj.), P is replaced by V and n as well as m are dropped. (Even in verbal suffixes tip-tas-anti and tup-tam-antu, the anubandha p is replaced by v as tiv-tas-anti, and tuvtam-antu, as they are vikaraka suffixes). But there is no specific mention in the aphorisms as such, on the contrary a separate leaflet called anubandhaphalam is written. Ill iv. 82 Ill iv. 17 III. iv. 20 In 4685 total aphorisms of Siddha-haima-sabdanuśasanam, he gives 3566 aphorisms for sanskrit grammar in first seven chapters and 1119 for the Prakrit grammar in the last eighth chapter. Though he has not touched the portion of vedic grammar, he has tried his best to include the Varttikas12 in the body of the treatise and this proves his genius as a compiler. Moreover it can be seen that though the impact of the Paninian and Sarasvata Schools of Sanskrit grammar is hastamalakavat, because Sri Hemachandracharya himself points out the necessity of the assistance of other schools of Sanskrit grammar in the aphorism lokāt - I i. 3; Śrī Hemachandracharya's originality in the treatment of the topics of the text is worth considering. The Siddha-haima-sabdānausāsanam, thus, turns out to be a higher introductory text or a lantern to illuminate the highly technical and scientifically composed aphorisms of the Paninian School of Sanskrit grammar. The further research in this subject will inspire the scholars to work out a plan for the analytical arrangement of the aphorisms of the Sanskrit grammar and to prepare a new handbook to learn and study Sanskrit grammar in an easy way which is the dire need of the modern times. 1. FOOTNOTES सिद्धराजेन कारितत्वात् सिद्धम्, हेमचन्द्रेण कृतत्वाद् हैमम् । Belvelkar S.K.; Systems of Sanskrit Grammar, p. 75 For this paper "Sri-Siddha-HemachandraVyakaranam, edi. by Muni Himamsuvijaya, Pub. Sheth Anandji Kalyanji, Ahmedabad, VS. 1991 (A.D. 1937). 2. To point out some of them.: (i) चादयोऽसत्त्वे (Pa. I. iv. 57) 1.1.31. (2) तिरोऽन्तर्धी (Pa. I.v. 79) III. 1. 9 (3) मध्ये पदे- निवचने-मनस्युरस्यनत्याधाने (Pa. l.iv. 76, 75) III i. 11 (4) 3 (Pa. I. iv. 73) III. i. 12 (5) लक्षणेनाभिप्रत्याभिमुख्ये (Pa. II. 1. 14) III. 1. 33, (6) 10 कर्म बडा संसार में, धर्म तिरावे नाव । जयन्तसेन सुकर्म ही, दूर करे सब दाव ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतरकतमौ जातिपरिप्रश्ने (Pa. II. 1. 63) III. 1. 109, (7) किंक्षेपे (Pa. II. I. 64) III. I. 110, (8) स्त्रीपुंवच्च (Pa. I. II. 66) III. 1. 125, (9) समर्थ पदविधिः (Pa. II. I. 1) VII. iv. 122 and so on. ★ (Pal. iv 75 is अनत्याधान उरसिमनसी । ● In Pa. II. I. 14, it is without sandhi. 3. As e. g. (1) तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् । (Pā I. 1. 9) (2) अकः सवर्णे दीर्घः (PS. VI. 101 ) (3) इको यणचि (Pā. VI. 1. 77) (4) पुरोऽव्ययम् अस्तंच । (Pā. I. iv. 67, 68) (5) वृद्धिरेचि (Pā. VII. 88) (6) कडारा कर्मधारये । (P. II. 1. 38) 4. As e. g. (1) द्वितीया श्रितातीत पन्नैः I (Pā. II. 1. 24) (2) चतुर्थी तदर्थार्थ.... हितैः (Pā. II. 1. 36) (3) पञ्चमी भयेन । अपेतापोठ.... रल्पशः (II. 1. 37, 38) 5. As e. g. (1) ओत्वोष्ठयोः समासे वा । (2) प्रादूहोढोठ्येषैष्येषु । (3) आक्षादूहिन्यामुपसंस्थानम् । स्वादीरेरिणोः । (4) हे मपरे वा । (Pā. VIII. iii. 26) चवलपरे यवला वेति वक्तव्यम् । (5) नपदान्तोट्टोरनाम् । (Pā. VIII. iv. 42) अनाम्नवतिनगरीणामिति वाच्यम् । (6) तीयस्य ङित्सूपसंख्यानम् । (7) भक्षेरहिंसार्थस्य न । (B) अभिवादिद्दशोरात्मनेपदे वेति वाच्यम् । (9) अशिष्टव्यवहारे दाणः प्रयोगे चतुर्थ्यर्थे तृतीया । (10) उत्पातेन ज्ञापिते च । 6 the aphorisms of the group (A) : No. Pānini (1) वृद्धिरादैच् (1.1.1.) (2) अदेङ् गुणः (I. 1. 2) (3) ऊकालोऽज्झस्वदीर्घप्लुतः । (Iii. 27) (4) सुप्तिङन्तं पदम् । (I. iv. 14) (5) जश्शसोः शिः । (VII. 1. 20) (6) स्वरादिनिपातमव्ययम् । (I. 1. 37) (7) लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे । (III. I. 124) (8) लः परस्मैपदम् । (I. iv. 99) (9) तङानामात्मनेपदम् (I. iv. 100) SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 11 तुल्यस्थानास्यप्रयत्नः स्वः । ( I. 1. 17) समानानां तेन दीर्घः | (1 ॥. 1) इवादिरस्व स्वरे यवरलम् । (Iii. 21) पुरोऽस्तमव्ययम् । (III. 1. 7) ऐदौत् सन्ध्यक्षरैः । (Iii. 12) कडाराध्यः कर्मधारये । ( III. 1. 158) श्रितादिभिः । (III. 62) हितादिभिः (III. 71) पञ्चमी भयाद्यैः । (III. 73) बोष्ठोली समासे । (1..17) प्रस्यैषैष्योढोढ्यूहे स्वरेण । (I. ii. 24) स्वैरस्यैर्यक्षौहिण्याम् (I. 1. 25) मनयवलपरे हे (1.175) पदान्तानुयर्गादनाम्नगरीनवतेः 11.63) तीर्थ ङित्कार्ये वा (I. iv. 14) भहिंसायाम् | (II. 1. 6) द्दश्यभिवदोरात्मने । (II. ii. 9) दामः संप्रदानेऽधर्म्ये आत्मने । (11..52) उत्पातेन ज्ञाप्ये। (II. 1. 50) Sri Hemachandracharya वृद्धिरैदौत् । (III. iii. 1.) गुणोरेदोत् । (III. iii. 2) एकद्वित्रिमात्रा ह्रस्वदीर्घप्लुताः । ( I. 1. 5) स्त्यादिर्विभक्तिः । तदन्तंपदम् । (I.1.19, 20) शिघुट् । (I. 1. 28) स्वरादयोऽव्ययम् । (1.1.30) नवाऽऽधानि शतृ-क्वस् च परस्मैपदम् | (III. II. 19) पराणि कानानशी चाऽऽत्मनेपदम् । (III. II. 20) न्याय युक्त सत्कर्म हो, दूर भगे अन्याय । जयन्तसेन मिले मधुर, मानवता मन भाय ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the aphorisms of the group (B) : (10) इको यणचि । (VI. 1. 77) (11) ङः सि धुट् । नश्व । (VIII. iii. 29, 30 ) (12) नवेति विभाषा । (I. 1. 44) (13) शेषो घ्यसखि । (Iiv. 7) (14) इको यणचि । (VI. 1. 77) (15) नादिचि । (VI. 1. 104) (16) अकः सपर्णे दीर्घः । (VI. 1. 101) (17) एचोऽयवायावः । (VI. 1. 78) (18) हलि सर्वेषाम् । (VIII. iii. 22) (19) नश्वापदान्तस्य झलि । (VIII. iii. 24) (20) खरवसानयोर्विसर्जनीयः (VIII. 15) (21) हशि च । (VI. 1. 114) (22) gat quifer I (VI. i. 77) (23) तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् । (I. 1. 9) (24) अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् । (Iii. 45) (25) शि सर्वनामस्थानम् (I. 1. 42) (26) प्लुतप्रगृहया अचि नित्यम् (I. 11. VI. I. 125 ) (27) अजाघितष्टापू । (IV. 1. 4) (28) ऋनेभ्यो ङीप् | (IVI. 5) (29) सर्वादीनि सर्वनामानि । (I. 1. 27 ) I (30) वर्तमाने लट् | (III. ii.123) (31) परोक्षे लिट् (III. I. 115) (32) अनद्यतने लुट् | (III. iii. 15) (33) लृट् शेषे च । (III. iii. 13) (34) लिडर्चे लेट् । (III. iv. 7) (35) लोट् च | (III. iiii. 162) (36) अनद्यतने लड् | (III. 1. 111 ) (37) विधिनिमन्त्रणां ... लिड् | (III. . 161) I (38) लिङाशिषि । (III. iv. 116) (39) लुङ् | (III. II. 110 ) ( भूतार्थवृत्ते धातोः) (40) लिङिनमित्ते लृङ् क्रियातिपत्तौ । (III. iii. 139) (41) कर्तरि शपू । (III. I. 68) I (42) दिपादिभ्यः श्यन् (III. 69) (43) रुधादिभ्यः श्नम् । (III. 1. 78) (44) सत्यापपाशरुपचीणातूल श्लोक .... 12. Cp. in. 5 SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION इवणदिरस्वे स्वरे यवरलम् । (Iii. 21) इ॒नः सः त्सोऽश्व । (Iiii. 18) इणोः कटावन्ती शिटिनवा (1..17) इदुतोऽस्त्रेरीदूत् । केवलसखिपतेरौ । (I. iv. 21, 26) अदन्ताः स्वराः । (L.L4) अनवर्णा नामी (1.16) समानानां तेन दीर्घः । ( I. 1. 7) एऐओऔ सन्ध्यक्षरम् । ( I. 1. 8) कादिर्व्यञ्जनम् । (I. 1. 10) अपञ्चमान्तस्थो धुट् । (I. 1. 11.) ^ आद्यद्वितीयशषसा अघोषाः । (I. 1. 13) अन्यो घोषवान् । (I. 1. 14) यरलवा अन्तःस्थाः । ( I. 1. 15) 12 तुल्यस्थानास्यप्रयत्नः स्वः । (I. 1. 17) अधातुविभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम । ( I. 1. 27 ) शिर्धुट् । (I. 1. 28) वात्यसन्धिः (I. ii. 31 ) ताभ्यां वाप् ङित् । अजादेः । (II. iv. 15, 16) स्त्रियां नृतोऽस्वनादेड: 1 (II. 1) सर्वादिः स्मैस्माती | (I. IV. 7) वर्तमाना तिव्-तस्-अन्ति वहे-महे | (III. iii. 6) परोक्षा णव- अतुस- उस्... वहे-महे । (III iii. 12) श्वस्तनी ता-तारौ तास्महे | (III. iii. 14) भविष्यन्ती स्यति स्यतस् . स्यामहो । ( III. iii. 15) .... पञ्चमी तुव-ताम् ... आमहैव् । (III. iii. 8) यस्तनी दिव्-ताम् वहि-महि (III. iii. 9) सप्तमी यात्-याताम् ईमहि | (III. 7) आशीः क्यात्-व्यास्ताम्... सीमहि । (III. iii. 13) अद्यतनी दि-ताम्-अन् बहि-महि । (III. I. 11) क्रियातिपत्तिः स्यत् स्याताम् स्यामहि । (III. 16) कर्तर्यनद्भययः शब् (III. I. 72) सेना चुरादिभ्यो णिच् । (III. 1. 25) हेतुश्य (III. 1. 26) तत्प्रयोजको हेतुश्च । (I. v. 54) 7. 8. इवणदिरस्वेस्वरे यवरलम् । (I. 1. 21), ड्नः सः त्सोऽश्व । (Iiii. 18), इदुतोऽस्त्रेरीदूत् । (Iiv. 21). नवा (cp. fn. 6/12). अ इ उ ऋ छ समानाः (सारस्वतसूत्रम्-1), अविभक्ति नाम । (122), सर्वादिः स्मट् । (148). अजादेवश्वाप् (362). तुल्यस्थानास्यप्रयत्नः स्वः । (1.1.17), शिघुट् । (I. 1. 28). वात्यसन्धिः । (I. ii. 31), हदिर्हस्वरस्यानु नवा । (I. iii. 31) 9. 10. Vide fn. 6/30-40. 11. लस्य । (III. iv. 77), तिप्तस्झिसिप्थस्थमिब्वस्मस्तातां झ्रथासाथांध्वमिङ्वहि महिङ् I (III. IV. 78), झोडन्तः (VII. I. 3), झेर्जुस | (III. iv. 108) and so on.. ..... ***** .... दिवादेः श्यः | (III. iv. 72) उधां स्वरात् श्नो नलुक्च । (III. iv. 82) चुरादिभ्यो णिच् । (III. iv. 17) प्रयोक्तृव्यामारे णिग् | (III iv. 20) अशुभ कर्म जब उदित हो, धन वैभव सब जाय । जयन्तसेन विकल मुनज, तडफ तडफ मर जाय ॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINISM (Shri K. L. Banthia, M.A.) Jainism is more than a mere religion or philosophy. It is a way of life, supreme science of leading a happy life; life's beacon light. The problem of existence of God (creator) World (creation) and Soul (jivatma) has been the subject of searching enquiry with different answers by various religion and philosophies prevailing in the East and West. Let us begin with a natural, undisputed, undeniable and real phenomenon, the world, or universe at large, which we all see and experience. What we also see all around is matter or Dravya or Padarth. All matter is endowed with character quality and mode. It is observed that there is origin (Utpad) decay (Vyay) and permanence (Dhrauvya). Thus the matter or substance or PADARTH is undevided whole having infinite qualities and it's characteristic qualities are Jiva and Ajiva (animate and inanimate objects) or soul and non-soul. The universe is made of these two elements. Without going into the extreme views propounded by different religious thinkers, philosophers, logicians and theorists to know and understand God (Creator) Creation (Universe) and Soul (Jiva) Jainism advocates beginninglessness or eternity and infinity of the creation without any Creator and of the elements of which it is made. We observe that all living beings (animate objects) are bound with pudgal or Sarir or body inanimate objects), Jain religion has classified all beings broadly into two categories, Immobile (Sthawar) and Mobile (Tras). Bodies having one sense organ (Ekendriya) are Earth, Water, Fire, Air and Flora bodies are STH AWAR, Bodies having two, three, four and five sense organs include insects, birds, beasts, infernal beings (Narkas), humans (Manvas), and gods (Devas) are (Tras). Birth and death of all beings is a natural pheomena. Embodied souls are subjected to cycles of life and death till their liberation from the matter. No sooner the Jiva or Chetana or Consciousness departs from the body of any being what remains is a dead matter or corpse. Birth and death are proved by direct experience. The Jivatma animating the body though imperceptible is transmigrating from body to body as a result of actions and reactions taking place on account of it's activities conditioned by it's contact with various bodies. Thus the Soul though not apart mor perceptible by senses is different from body. When the soul or Jivatma in the course of it's journey through various bodies from dormitory stage to human being attain the status of manhood it's consciousness or chetana is highly developed. It has choice and power for good activities and bad activities. Results of good activities and bad activities are so very obvious and perceptible to mankind that every human being desires only happniess (Sukha) and no misery (Dukha). Obviously there is need for a way of life which prevents men from wrong doing or evil acts. Central theme of Jainism is the principle of AHIMSA or nonvoilence. Nonvoilence presupposes other moral acts e.g. Truthfulness (Satya), Non-stealing (Achaurya), Celibacy (Brahmacharya) and Nonpossession (Aparigrah) Ahimsa means abstinance from voilent activities through mind speech or body. Voilent activities are generated by Kashayas i.e. pride, anger, lust and greed, PRAMAD, KAM, KRODH, LOBHA etc. All such acts are degrading the soul causing endless bondage with matter to born and die times without number. Jain Tirthankaras born as human beings proved beyond doubt that the soul defiled and polluted through it's contact with various bodies is capable of deliverence, salvation or Moksha. Liberation of Soul or Jivatma from matter is possible through Right Seeing. Right Knowledge, and Right Conduct. The process of purification and perfection of soul is long and ardous but if followed as prescribed by Jain Ethics it can regain it's true attributes i.e. infinite knowledge, infinite power infinite happiness and infinite potency. These are the natural characteristics of the soul and come to full manifestation in the state of salvation. The process of self realisation prescribed by Jainism is useful not only for salvation but also for a man who wishes to live a happy life by rising above inner conflicts and complexes. Modern world with it's discoveries and knowledge of potentiality of material sceince is standing on the precipice of total annihilation. Therefore in this war oriented world there is crucial need to spread and inculcate Gospel of Non-voilence for creating good world order free from hatred lust and voilence. Jainism teaches a way of life with sense of moral need good conduct or behaviour or charitra to live and let live all things for orderly growth and development of human moral and spiritual culture. It is a sad reflection on the followers of Jainism why it's philosophy could not be spread throughout the world for the benefit of the entire human гасе. It is my earnest prayer to our prodigious present Acharya Shrimad Jayantsen Suriji Maharaj through these lines on the eve of the publication of a commomerative volume of his multifarious activities and achievements to spread the gospel of Jainism throughout the world. Present time is the most opportune period in the history of the world to do so when all the latest various communication medias are available. SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 149 करे बुरे जो कर्मको, दोष अन्य पर डाल | जयन्तसेन मनुज वही, पाता दण्ड विशाल ।। wwwnelibrary.org Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN ANTIQUITY OF JAINISM AND TIRTHANKARA MAHAVIRA (Dr. Bhagchandra Jain Bhaskar, D. LITT.) INTRODUCTION Jainism is a religion which came into existence through an approach of non-violence and humanitarianism towards all creatures. It originated and developed on our beloved Indian soil with a judicious understanding of social requirements and philosophical necessities of the time. The Tirthankaras, Kulakaras and their loyal followers and believers have been contributing a lot since beginning to the growth of Indian culture. The history reveals the fact that Jainism has been all the time struggling with anti-social elements and powermongering groups to strengthen the national unity and unification of religious systems. TYPES OF INDIAN CULTURAL SYSTEM Brahmanic System Two types of cultural systems are found in India, viz. Brahmanic or Vedic system and Sramanic or NonVedic system. The early Brahmanic system is the civilization of those who conquered the self, the Jina and not the materialistic empire. The Kṣatriya class developed this system of Sramanology in early days, if no: prior to vedic times. During the Upanisadic period even the well-versed Brahmanic sages went to Kṣatriyas to acquire the spiritual knowledge. Upto the time of Mahavira and the Buddha, the concept of sacrifice was changed to a certain extent. The Sramanic tradition undoubtedly adopted the Brahmanic worshipping method and some sort of sociological exercises but with somewhat different connotations in the light of their own principles of Non-violence and humanity. The Jaina and Buddhist literature have recorded innumberable such references which explain the fundamental theoretical basis of Sramanology. Thus both the traditions exchanged and borrowed the philosophical views, keeping their own identities intact. Mrs. Sinclair Stevension is of view that Jainism is a school of reformers which stood against Brahmanic supremacy over birth and sacrifices and stressed on Karmas. Jainism is therefore in her opinion is none the less a daughter of Brahmanism. She also holds the view that Mahavira was the founder of Jainism'. In the light of modern research, her view became out of context. We, therefore, need not refute it. It is a well-knwon fact that SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION JETO Jain Education Intemational As we hers Jainism is an independent religion of every days and Mahavira was the last Tirthankara in its tradition. Brahmanic ritualism was represented by the priests who were the custodians of prayers, assumed a very high degree of spiritual supremacy in the Vedic society and were considered to be the very progeny of Prajapati, the Creator God. For the sole purpose of preserving spiritual leadership the Brahmanas evolved a system of very elaborate carnivorous sacrifices. Their rites were performed both to gain wordly enjoyment and to injure one's enemies. The social outlook and the goal of life of the Vedic system were based on the caste system. The so-called 'Südras, the lower community, were considered ineligible to perform spiritual rites.2 SRAMANIC SYSTEM Contrary to this, there was another cultural system prevelant at the same time in the society and that is Sramana. The Sramana tradition was based on equality and equanimity and self-efforts leading to salvation. According to it a being is himself responsible for his own deeds. Salvation, therefore, can be attained by anybody. Ritual in its opinion is not a means of emancipation. The only means of escaping from misery of Samsara is the path of moral, mental and spiritual development based on complete non-violence and truth. The Sramana cultural system was led by the Ksatrayas who were spiritually more developed in practically all the spheres. Since both these classes were leaders in the societies, the clashes between them were ought to have taken place. Hence, considering the contravention, divergence and antypathy, some of the scholars are of view that the Sramana cultural system is a sequel to protest the so called Brähmanic philosophy. But this conclusion cannot be accepted, since the vedic literature itself contains several references to the Sramanas under the names of Vratyas, Arhatas, Asuras etc. It is, therefore, incorrect to say that Sramanism is an offshoot of Brahmanism. As a matter of fact, its existence can be proved even earlier. But if it is not accepted due to certain reasons, one cannot reject the view that the two are parallel systems which have existed side by side without the one being an off-shoot of the other. Both the systems are continued parallelly since the time 14 कर्म पूरोने तोडना, पकडडो विमुक्ति पंथ । जयन्तसेन अनादि से, कहते आये संत ॥ ww.jamelibrary.org Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ immemorial The Samhitas, Brahmanas and Aranyakas admit the sacrifices and rituals which involved huge expenditure without spiritualism and mental purification. But the Upanisadas considered the soul as the base of religious thinking and meditation as the way of salvation. The change of this attitude towards the materialism needs our attention to investigate the cause of reality. Most of the Upanisadas belong to post Buddhist period. By this time the religion of Tirthankara Pārsvanath, became very popular. Then Sramana leaders and philosophers like Mahavira and Buddha expressed their dissastisfaction on Vedic theology and preached the human beings the pathway of purification by dint of right vision, right knowledge and right conduct. The Upanişadic seers thought over the vexed questions and changed the Vedic philosophy accordingly. The adoption of a new attitude must have been a result of the influence of Sramaņa ideology. For instance, the Vratas of Jainism and Silas of Buddhism are not found in the Vedas, Brāhmaṇas and Aranyakas. The Upanişadas, Puranas and Smritis where they are mentioned belong to post-period of Parsvanatha, Mahavira and the Buddha. Mahavira and Buddha, as a matter of fact, developed the Vrātas of Pārsvanātha in terms of Panca Mahāvratas and Astangika mārgas respectively. Likewise, asceticism (Sanyāsa) has been a prominent element of both Jainism and Buddhism. There were only two ways in the vedic religion, i.e. Brahmacarya and Grihastha Asrama. Sanyāsa is included therein afterwards. The Taittiriyāranyaka (1.62), Chandogyopanişada (2.23.1), Vrihadāranyaka (4.4.22) Jābālopanisada (4), Baudhāyana Dharmasūtra (2.6.30) etc. have, of course, mentioned it : but these texts are not so ancient ones. In the Sramana tradition there are only two ways prescribed, i.e. Grihastha and Sramana (asceticism) A Grihastha becomes Sramana and "Sramnya (ascetism) is much better than Grihasthäsrama (Uttaradhyayana, 2.29). The conception of soul, karma, Nirvana etc. were also taught by the Sramanas and Ksatriyas to Brāhmanas and Upanişadic Risis, as said by King Prabāhana to Aruni - Yatheyam vidyetah pūrvam na kašmiscana Brāhmana uvāsa tām tvaham tubhyam vaksyāmi, Brhadāraṇyakopanişada, (6.2.8). In this context let us understand the derivation and meaning of the word 'Sramana which will assist in comprehending the nature of 'Sramana cultural units, Jainism and Buddhism. Dr. V. S. Pathak tried to reveal the fact that Shramanas were originally wanderers or Parivrajakas. According to him the word Sramana may be derived from IE Klem kram = 'Sram. He supported his view by quoting the Satapatha Brahmana where the verbal forms of the root 'Sram occur in collocation of Cara to move e.g. Sramayantasceruh (1.2.5.7; 1.6.2.3: 1.5.3.3) and Srāmyan = cacāra (1.8.1.7; 1.8.1.10; 25.1.3., 3.9.14; 11.1.67 etc.). A verse from the Aitareya Brāh. (VLL. 15) may also be produced, i.e. Asya sarve pāpmanah sramena prapathe hatā (all his sins are slain on the road by Srama i.e. wandering). It may be noted that the word Sramana in the sense of Priest is used by Finno-Ugrians who might have contact with the Indo-Aryans at the early stage of the Rigvedic period. The priesthood is the fundamental characteristic of Srāmanism which is based on the Carana or movement. The connotation of Caranas was developed into establishing the temporary colonies devoted to various gods with sacrifices. The Indo-European languages have also possessed the same meaning of the word Sramana; For instance Sogdian "smn" or srmn," the Khotanese "ssmana" or "Sarmanoi, Tocharian "Saman" or "Samana", Iranian, Parthian "Cam to run and Persian chanidan to stride boldly. Frinno-Ugrian "Shaman", the Latin root Colore (Skt. Char), the Greek "Telos" and so on. These words represent the Pre-Vedic philosophy of Sramanas. The practice of Srama is closely associated with tapas or austerities as found in the Atharvaveda (IV 35.2; VI 133.3; X 7.36 etc.). It is also associated with old Slav "Tep" to strike, and with "Pehlvi Tapah Kartan" to destroy" which may be supported by Greek askētikos, Latin asceticus or askēsos as a religious practice of physical mortification. It may be noted here that the Rigveda does not mention the physical mortification. However, the Atharvaveda recognized it as a path of spiritual realization. Thus the Sramaņa tradition goes back to the IndoIranian period and definitely belongs to the pre-Vedic period. The words Arihant, Tirthankara, Vrātya, Muni etc. which are popular in the Srāmanic tradition are also referred to in the Vedas as the Sramanic practices karmas and attainment of Nirvana with the view "Mitti me sabbabhuesu", iii, Srma to exert, labour, effort or to perform austerity himself with the view "No niheija viriyam), iv) Non-violence (Ahimsā) - Ayatule payasu, v) to limit the desires (iccha-parimana) - Vittena tānam na labhe pamatte; vi) to accept completely pure and vegetarian meals and to be emancipated from intoxications (Ahāra-visúddi and Vyasana - mukti) amajjamaṁsāsi; vii) Anekānta (non-absolutism) - Appaņa saccamesejjā; viii) Samatā (equanimity) samayādhammaudāhare muni; ix) affection on religious SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 15 तेरा मेरा कुछ नहीं, है सब कर्माधीन । para ele, a fer udalelibrary.org Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8) persons (sādhārmika Vātsalya) - Uvavüha thirikarane. These characteristics of the Sramana system clarify the differences between the Vedic and Sramanika outlook in three respects, viz. i) attitude to society, ii) goal of life, and iii) outlook towards living creatures. These differences may be understood as follows:1) Preponderence of detachment in the Sramanas which is not found in the Brāhmanas. 2) Knowledge is accompanied with right conduct in the Sramanas. 3) Sramana monk will have to be houseless and observe celibacy. 4) A Sramana monk cannot own the property of any kind. 5) Greater importance in Sramana system is given to renunciation and not on the house-holder's stage. 6) There is no place for the sacrifice (yajna) and priesthood in the Sramanic system which saved the division of the society-into casts. 7) Total observation of non-violence in 'Sramana system. Cessation of activity and not the ritualism is the main cause to attain the Nirvana in Sramana system. 9) Srāmanic system is based on the individual and not the society. 10) One is himself responsible for his deeds. God or Deity is nothing to with. 11) 'Sramaņas do not accept the authority of the Veda. These differences between the Vedic and Sramaņa cultural systems are sufficient to prove that they have their own independent origin. The emergence of Sramana system is not the result of a protest against the orthodox Vedic system made by the Ksatriyas or some other reasons as observed by some scholars. As a matter of fact, the Sramana philosophy represents the mental attitude of a particular group of religious people and therefore it bears a in independent identity in itself. This fact can be revealed right from Indus Civilization and the Vedic literature. The Indus civilization and its counter cultural sides Harappa, Baluchistan, Rajasthan etc. have been placed through the radio-carbon method under the period about 3000 B.C. The authorship of the civilization is not yet decided, but normally the scholars like Allchins are of view that it was authoured improbably by the people of Indo-European or Indo-Iranian family or that it is the creation of the Dravidians. Of these, it may be authered by the Dravidians. As we know, Drawid is the name of one of the sons of Risabhadeva, the first Tirthankara of Jainas, who happened to be a leader of Vidyadharas, the ancestors of Dravidas. The Vidyadharas were the spiritual leaders and worshippers of Sramana culture headed by the Jainas. Indus civilization is related with pre-Aryan pre-Vedic culture. It may be of earlier than that of Egypt and Sumerian cultures belonging to Chalcolothic period. The people of the Indus civilization were polytheustic. They used to worship the both male and female gods found in the excavation of Mohenjodaro and Harappa. Most of them are in yogic postures, either in Padmasana or Kūrmāsana or Khadgāsana. The nude figures excavated in Indus Valley and Lohanipur may be identified as the Jaina statues of Tirthankaras, most possibly of Risabhadeva. The Jaina literature discribes the Kāyotsarga posture of Rişabhadeva in connection with his penance. Some scholars such as G. C. Pande, R. N. Dandekar, and Marshal are of view that it is the figure of a god who was a proto-type of later Siva. But this view cannot be accepted as prototype of Shiva is nowhere found in a nude form, which is main characteristic of Jaina image. The Yogic postures are also intimately associated with Nāgas, Ašvas, elephants and other animals which are accepted as the symbols of Jaina Tirthankaras. CULTURAL ASPECTS IN VEDIC LITERATURE After the decline and collapse of the Indus Valley Civilization, the Vedic civilization emerges on Indian soil and becomes very prominent through the ages. Aryans were the leaders of Vedic culture and Anäryans were connected with Sramana culture. The Rigveda is undoubtedly the most ancient document of the Aryans which may be placed near about 2000 B.C. We are not here to prove the dates of Vedic and post - Vedic Sanskrit literature; but this much can, of course, be said that the antiquity of Sramana culture can easily be traced in the Vedic literature. The Indus civilization is known to the image worship which was not prevelent in the Vedic age. The Vedic sages are there seen in offering prayers and sacrifices with expectation of worldly rewards from gods. The Vedic religion is the religion of priests and upper classes. Those who had opposed their nonhumanistic and violent approach in connection with the attainment of worldly pleasures were treated as opponents. The clashes were occurred among these two groups. The supremacy of Vedic groups in classes may be observed when the opponants were given the nomenclature such as Dasa, dasyu, vrátya, muni, arhat SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 16 जैसा तेरा कर्म है, वैसा फल तू भोग। जयन्तसेन कुकर्मस, आते नाना रोग ।। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ and so on. They might have come to an agreement afterwards. As a result, the Vedic sages have devoted some hymns in the praise of Risabhadeva, and changed their attitude towards the society and beings. The Atharvaveda reflects such ideas and refers to the common religious ideals of the Aryans and non-Aryans with an admixtural point. NON-VEDIC GROUPS IN VEDIC LITERATURE The opponent group to the Brāhmaṇical religion is mentioned in the Rigveda (11.12.5) as the people who believed neither in the existence of Indra and nor in heaven. They are called Yatudhānas (who causes Yatana) in the Rigveda. The non-Rigvedic Aryans are also named as Raksasas in some verses who opposed the rituals of Indra. As a matter of fact, the Vrätyas, Munis, Rākşasas, Yatis, and others were like-minded groups of Srāmanic ideology. The term Vrātya is derived from Vrata - vow. The Vrātyakānda of the Atharvaveda describes the characteristics of Vrātyas, the Non-Vedic Aryans who used to practise austerities. Achārya Sāyana has appreciated the Vrätyas by calling them Vidvattama, Mahādhikāra. Punya'sila, Visvasammānya, and Brāhmanavišişta in the Sātyanabhāşya (AV. 15.1.11). Dr. Sampurnananda in his Atharvaveda Vrātyakānda (P. 1) signifies the Vrātyas a Parmātman which is not correct. The Vrätyakända itself signifies the Vrātya, a human being. The subject matter of the Vrātyakända may be compared with the life of Risabhadeva who have been honoured by the Vedic Risis in several verses. The Vrātyas were definitely against the Vedic ideology (AV. xv. 12.1.4). According to the Panchavimsa Brāhaman, they were divided into two classes, i.e. the Arhatas and Yaudhas. As we know, the Arhathood is very popular in Sramana culture in the sense of Vitaragatva. The Buddhist monks were also called Arhat. The word Arhat is used in the Rigveda (2.4.33.10) in the sense of a leader of Sramaņas :Arhan bibharşi sayakani dhanvārhanniskam yajatam višvarūpam Arhannidam dayase višvamabhvam na vā ojiyo rudra tvadasti. The Muni Group of the Vedic literature represents the Srämanic ideology of Jainism and Buddhism. Its ascetic tendency does not reflect the Nivritti dharma of the Vedic religious ideas, as observed by some scholars like G. C. Pande; but it is really a part of Jainism, the Sramanology. Dr. G. C. Pande himself admits that the Vedic religion was "in the beginning essentially Pravritti dharma but later on partly through inner evolution and more through the influence of the Muni Sramanas it developed Nivritti dharma as a tendency within its fold." (Studies in origin of Buddhism, P. 261). The Munis of the Rigveda were the followers of Tirthankara Risabhadeva. The famous Kesisukta (Rv. X. 136) describes a Muni who bears long hair, clads in dirty, tawn-coloured garments, walks in the air or flies. He is delirious with the state of being a muni. He enjoys friendship with Vāyu and drank poison with Rudra. He follows the moving wind and attained the status of God. Mortal men could only see his body and no more. He treads the path of sylvan beasts, Gandharvas and Apsaras : Munayo vātarasanah pisangāḥ vasate malā. Vātasyānudhrājim yanti yaddevāso abiksata. (RV. 10.11.136.2) Unmaditä mauneyana vātān ā tasthimā vayam. Sariredasmakam yuyam martaso abhi paśyatha. (Ry. 10.11.136.3) Corresponding to these references, the references to Vātarasana Sramana Risis and their leader Risabhadeva occured in the Bhāgavata Purana (Ba-hirsi tasminneva bisnudatta bhagavān paramarsibhih prasādito nābheh priyachikirsayā tadavarodhayane merudevyām dharmān darsayitukāmā vātarašanānam 'srāmananam risinam urdhvamanthinam suklaya tanvavatatāra (5.3.20) may be compared and said that Risabhadeva, the first Tirthankara of Jainas is wellrecognised by the Vedic sages. He was accepted as the incarnation of God (Sivapurana 7.2.9) even earlier to the incarnations of Rāma and Krişna. These Sramana Munis and Risis were the followers of Muni tradition of the Rigveda and Atharvaveda (VII. 74.1). Taittiriya Aranyaka also mentions the mysterious powers attained by the Sramanic ascetics who led a celibate life and taught the Brāhmaṇas the way how to be abstained from sins (2.7.1). Like Munis, the Yatis were also prevalent in the Vedic period. They were meditators belonged to NonAryan Group called Asuras according to the Sayanabhasya. Asuras were killed by Indra (Aitareya Brāhmanas, 7.8). The war between Devas and Danavas was the war held between Vedic Aryas and pre-Vedic Aryas (Sramanas) - (Matsya Purāna, 24.37). Asuras were not defeated atonce. The Vedic Aryas could conquer them only after the moment they became slack in following the right conduct as revealed by the dialogue held between Lakshmi and Indra (Mahabharata, 228. 49-50). Then the leadership went to the hands of Indira SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 17 सक्रिय बने शुभ कर्म में, पाकर शुभ संयोग । - F , 46 39 Iainelibrary oja Join Education International Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ who ruled over the Northern India and the Asurasor Continuance of involution, 3) Vivatta-kappa or aeon centered in Southern India (Mahabharata, 225.37). The of evolution, and 4) Vivatta-tthāyi or continuance or Sāntiparva of the Mahabharata speaks of the spritualism evolution. The material world consists of an infinity of of the Asuras who were the followers of Sramanaworld-systems (chakkavālas). During Asamkheyyaideology (227.13). kappas, the world-system has been completely disturbed and then resolved. The Brahmas are reborn on the earth. The Asuras, Vratyas, Yatis and Munis were also called Brahmacharis who used to control over sexual The earth became separated in due course from water, passions and followed Sramanology Atharvaveda, X1.5). bodies became grass and solid and gradually the evolution of world came into existance. Each They were also worshiper of nude figures which were Asamkheyaya kappa is sub-divided into twenty not recognised by the Vedic Risis. Rigvedi Risis very clearly prayed "Let not Sisnadevah enter our sacrificial Antarakappas, and each antarakappa is sub-divided into Pandala (RV. 7.21.5). eight yugas or ages. These references compel us to be of view that the The God in Jainism and Buddhism is neither a Sramana system was prevelent during the Vedic period. creater and destructer nor a meditator from bestowing The Vedic Aryas were their opponent and therefore their our result of past actions. A personal God has no place antiquity goes definitely back to Indus civilization and in both these traditions. They deny the principles of even earlier to that it was in existence. The cult of Rudra reward, judgement, incarnation and forgiveness. The creation of universe depends on the nature and our or Shiva may be closely associated with the Sramana efforts (Nimitta and Upadana.) One will have to bear the culture led by Jainas. This fact can be understood through peeping into the history of Jainism and Buddhism and result of his own deeds. They cannot be extinguished their traditions in connection with creation of universe simply by the mercy of God or the socalled God. Jainism of course believes in Godhood, the parmatman stage of and conception of soul and god. soul and in innumerable Gods. Karma stands to CREATION OF UNIVERSE reincarnate the soul as cause to effect. It can be purged An antiquity of Jainism is co-related with the creation through following the Trinity, Right Faith, Right of universe and its tradition. According to Vedic Knowledge, and Right Conduct. Thus the universe in mythology, Brahma, Visnu and Mahesa are responsible 'Sramana cultural system is said to be an eternal for Creation, Preservation and Destruction of the Universe beginningless, endless and infinite. respectively. The universe is divided into four great Jainism is said to be a primitive religion which epoches respectively called Satyuga, Tretāyuga, believes that all the particles of earth, water, fire, wind Dvāparayuga and Kaliyuga. It is collectively called and plants are possessed of life. The universe is eternal Mahāyuga which is equal to 4,320,00 years. A Kalpa is and indestructible, not created by Brahma or the socalled equal to 1000 Mahāyugas or 4,320,000,000 years 14 God. The theory of atoms, six Dravyas and the Manus in each Kalpakāla are born in intervals of 71 worshipping of nudity form compel us to recognise its! Mahāyugas. The Purānas say that the Brahma creats traditional views which indicate the Pre-historic period the universe at the beginning of a day and the universe and the cultural evolution of the creation. is submerged into water during the night. The disappearance of the universe is thus called Naimittika AGES OF UNIVERSE Pralaya. According to Jain tradition, the universe and its The Old Testament also supports the view that the creation are eternal and infinite. It can be divided into whole world was submerged under water. When the two parts (Kalpas), viz. Avasarpini or descending era subdivided into six ages, viz. Susamā-suşamā, ii) susama flood subsided, all the surviving creatures spread themselves all over the world and multiplied. Thus the ill) susama-duşama, iv) duşamā-susama, v) dusamā and new creation started again. This happens 15 times during vi) duşamā-duşamā. 2) Utsarpini or ascending era subdivided into six having the same names in reverse one Kalpa, where-as according to Jain tradition it is only once at the end of the 4th epoch and that too partially. order. In the Avasarpiņi era people attain all the pleasure and happiness at the starting point which reduce According to Buddhism, the beginning of universe gradually upto the last era. The Utsarpini era commenses is incalculable or imperceptible (Samyuttanikāya, ii. 178). with utmost sorrowful condition and ends with most The whole world system is grasped through the Kalpas. pleasant age. The first three of the Avasarpini era and Each Kalpa is subdivided into four periods, 1) the last three of the Utsarpini era are collectively called Samvattakappa or aeon of involution, 2) Samvatta-tthayi the Bhogbhūmi (happy and contented) where the people SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 18 फल की इच्छा छोडकर, काम करो निष्काम | 074- Heu , 4 brary.org Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ achieve and fulfil their requirements from Kalpavriksas (wishing trees). They used to inhabitate in forest and lead their lives on fruits and roots. Art and industries were also not known to them. From historic viewpoint this may be called the early and later stone age. KARMABHUMI (AGE OF ACTION) The remaining ages are called Karmabhumi (age of action) where the people learn to work, toil, write, trade, educate and art etc. The inventors of this age are called Kulakaras (legislators and founders of civilisation) who are said to be appeared in the first of these last three ages or in the fourth age of the era, the transitional period of the age. During the Bhogabhūmi period people used to live with a cooperative, calm and quite atmosphere under lesser necessities accomplished by the Kalpavrakşa. This natural gift weakened gradually, population enhanced, delinquencies increased, ethnic clashes advanced. The result of this phenomenal change compelled the Kulakaras to creat the revolutionary Karmabhumi period for welfare of the society. The kulas were formed by the Great sages called Kulakaras. The number of Kulakaras are varied in ancient Jain literature. The Thanänga in the Svaramandaladhikara refers to seven Kulakaras, viz. Vimalavahana, 2. Chaksusmāna, 3. Yasasvi, 4. Abhichandra, 5. Prasenajita, Marudeva, and 7. Nabhi. The Mahāpurāna’of Jinasena enumerates fourteen Kulakaras, viz. 1. Pratiksva, 2. Sanmati, 3. kşemankara, 4. Kşemandhara, 5. Simankara, 6. Simandhara. 7. Vimalavähana. 8. Chaksusmāna. 9. Yasasvi, 10. Abhichandra, 11. Chandrabha, 12. Prasenajita, 13Marudeva, and 14. Nābhi. The Jambudvipapranjnapti" adds the name of Risabhadeva to the list as the fifteentha Kulkaras. These Kulakaras changed the old order and invented a number of new methods for evolving the civilization and educating the people in various ways. In those days the life was very easy and simple. It changed gradually and as result, the Kulakaras are said to have formed three types of Dandaniti (punishment), viz. Hakara (admonition), Makara (warning) and Dhikkāra (reprimand). The first five Kulakaras found it enough to rebuke the wrong-doer with "Ha" (exclaming). The next five had the need of "Ma" to reinforce the effect of disapproval. "Ha" expressed the exclamation towards the misdoing while "Ma" signified regret, as if to say "I regret that You should have done such a thing as this 1". This was enough to curse the offences to right the way for the future. The remaining Kulakaras added "Dhik" to the existing code of penalties to express their abhorrence of the evil deed. The regular laws were laid down by Tirthankara Rishabhadeva and his son Bharat. COMMENCEMENT OF HUMAN CIVILIZATION The human civilization has been divided into three parts, viz. paleolithic, mesolithic and Neolithic. Human beings got real entry into civilization in the third Neolithic age which may be named Kulakara Yuga/or Utsarpini period in the light of Jain tradition. The Kulakara is, as a matter of fact, a social institution which performs the prohibitive, regulative and welfare functions for the society. The formation of state, Corporation etc. is the developed form of the Kulakara institution. The Kulkaras are also called Manu in the Adipurana. The 14 Manvantaras in Vedic tradition also carry out the same activities. The Visnupurāna? describes the main functions of the Manvantaras. As soon as the Karmabhumi started, the Kalpavraksas disappeared from the land and acute problem of food and other material began. Eventually. people went to Nabhirai, the fourteenth Kulakara, who sent them to Risabhadeva, the First Tirthankara. He realised the situation and instructed the people in the arts of agriculture, housing, art, architecture, reading, writing etc. He became the first teacher of mankind. Dr. H. D. Sankalia rightly pointed out that "if modern archaeology were to describe these stages of man's culture, it would call the era, which Nabhi or his son Risabha initiated, as the era of Agriculture: the one preceded would be the Stone Age period. SALAKAPURUSAS After Kulakaras, the sixty three Great Personalities or men of mark (Salaka Purusas) are said to have been appeared on earth, viz. 1) 24 Tirthankaras :- 1. Risabha or Adinatha, 2) Ajita. 3) Sambhava, 4) Abhinandana, 5) Sumati, 6) Padmaprabha, 7) Supārsva, 8) Chandraprabha, 9) Puspadanta, or Suvidhi 10) Sitala, 11) Sreyansa, 12) Vasupujya, 13) Vimala, 14) Ananta, 15) Dharma, 16) Santi, 17) Kunthu, 18) Araha, 19) Malii, 20) Munisuvrata, 21) Nami, 22) Nemi, 23) Parsva, and 24) Mahāvira or Varshamana. 2) 12 Chakravartis - 25. Bharata, 26) Sagara, 27) Maghavā, 28) Sanatkumāra, 29) Sänti, 30) Kunthu, 31) Araha, 32) Subhauma, 33) Padma, 34) Harisena, 35) Jaisena, and 36) Brahmadatta. 3) Balabhadras - 37) Achala, 38) Vijaya, 39) Bhadra, 40) Suprabha, 41) Sudarsana, 42) Ananda, 43) Nandana, 44) Padma, and 45) Rama. 4) 9 Vasudeva or Narayanas - 46) Triprastha, 47) Dviprastha, 48) Svayambhū, 49) Puruşottama, 50) Purusa Sangha, 51) Purusa Pundarika 52) Datta, SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 19 कर्म निजरा के लिये, कर लो तुम सत्कर्म । 014 1644, af linelibrary.org Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53) Narāyana, 54) Krusna. 5) 9 Prativasudevas or Pratinarayanas : 55) Ašvakagriva, 56) Taraka, 57) Meraka, 58) Madhu, 59) Nisumbha, 60) Bāli, 61) Prahalada, 62) Ravana, and 63) Jarasandha. The Bhavas of these Salakamahāpuruşas have also been described in Jaina literautre at great length which can be correlated with known facts of world history. For instance, Mārici and Nayasāra Bhavas of Tirthankara Risabhadeva and Mahavira respectively (Avasyaka Nirvukti, 347-49) can be understood and corelated with Neolithic age. It may also be mentioned here, as pointed out by Dr. Jacobi, 27 Salākāpurusas are related to Krisna and Aristanemi or Nemi legends who played an important role at all times in the system. PROBLEM OF ARYANS The problem of Aryans was a very controvertial one in our ancient literature. Taking into consideration of all the views it may be said, as Ramchandra opined, that the Aryans began their historic migrations Circa 2500 B.C. from their original habitat in the South of the Circumpolar region and to the North of the Caspian and Aral Seas covering the Northern parts of the mountaneous Eurasian Steppes and the southern part of the thick Siberian forests extending upto the eastern sea-coast. This reign was known to the Post-Aryan ancients as Uttarakuru. They reached West Asia circa 2000 B.C. Greece circa 1500 B.C. and Bharat circa 1200 B.C. The Aryan hegemony in this region was firmly established by circa 1000 B.C. and in Egypt by circa 500 B.C. It has generally been held by the original scholars that the culture and civilization the Aryans annihilated, was definitely far superior both materially and spiritually than their own. Dr. Jyoti Prasad Jain is of opinion that there were three types of human groups in India, viz. i) Northern group which was spiritual, non-violent and idol-worshiper called "Aryas", ii) Southern group well-versed in arts and industries called Dravidas or Vidyadharas, and iii) Northern-western group spread over Asia, Europe, Eran etc. called "Indo-Aryan", Dr. Jain has tried to establish the theory that the Aryan and Dravidian cultures originally belong to the Jainas. He appears to be right in his stand. Dravidas were definitely other than the Vedic Aryans. They are, therefore, called Anāryans. Dāsas, Dasyus, Asuras etc. are referred to in Vedic literature as opponents of Vedas. Since the Jaina culture has been refuting the Apauruseyatva of Vedas since inception, the reference must be connected with the Jainas. The references of Risabhadeva, the First Tirthankara of Jainas also occurred therein. TIRTHANKARA RISABHADEVA Rişabhadeva was the son of Manu Nabhi and Marudevi. He taught the arts of agriculture, writing etc. to the human race and therefore he is worshipped as "The God of Agriculture" or "Sun-God". He was called Reshef by Phoenecians and Apollo by the Greeks etc. The Rigveda' refers to him clearly. Vatarasana Munis occurred in the Vedas must be related with Risabhadeva and Digambar Munis and their Sadhanas.13 The Bhagavat Purana, refers to his life and penance in detail which is followed by Visnu, Siva, Agni, Kurma, Markandeya, Väyu and other Purānas. According to it Risabhadeva was fifth Manu who enthroned his son Bharat, renounced the world through penance and attained kaivalya. It is also said that he was an incarnation of Visnu who took the birth for promotion of the teachings of Vātarasana Sramanas. The Rigveda praises the Kesi highly prior to the Vätarašanās which indicates that the Kesi was the leader of them. The Sivapurana'refers to him as one of the twenty eight Avatāras, the protector of a certain form, even prior to Rāma, Krishna. The reason of his incarnation as mentioned earlier is said to preach the religion of Vātarasanā Sramana sages. 16 The another reason was to instruct the people and spread the Kevalainana!7. On the basis of comparative study of the Rigveda and the Bhagavat Purana one can easily come to the conclusion that the Siva and the Risabha are one and the same. This fact can be supported by another hyme of the Rigveda itself where Kesi and Risabha have simultaneously been mentioned : Kakardave Vrsabho yukt āsi, avavacita sārathirasya keşi Dudher yuktasya dravatah sahānasa, rcchantisma nispado mudgalanim.18 The historicity of Rşabhadeva can also be proved by archaeological evidence. Most of the scholars are of view that the people of Indus valley were most civilized and cultured. Marshallo ascribed it to Dravidians who may be followers of Jainism particularly Rsabhadeva whose images in Kāyotsarga position are found in Harappa and Mohenzodaro. T. N. Ramchandran is right to say that we are perhaps recognising in Harappa statutte a fullfledged Jain Tirthankara in the characteristic pose of physical abandon (Kayotsarga). The statutte under description is, therefore, a splendid representative specimen of this thought of Jainism at perhaps its very inception.20 This torso most probably represents Tirthankara Risabhadeva. Similarly the figures on the Mohenjodaro cells, too, depict the Yoga pose in nude form of the Jinas. SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 20 अपने मन मस्तिकष्क से, चिन्तन कर के मित्र । जयन्तसेन सुकर्म कर, निर्मल होत चरित्र ।। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Kayotsarga pose is very popular in Jainism. It is a special freature of Jaina Tirthankara as observed by Acarya Hemacandra. This is the main reason why Dr. Kalidas Nag recognised the ancient Argiv Statues of ten thousand years old as the statue of Rṣabhadeva. Mohenjodaro excavation gives us an impression that the expanded hood of a snake marked on the heads of the statues there is a sign of Naga clan. As we know, the Naga, Yakṣa, Gandharva, Kinnara and Dravida clans were originally belonged to Sramana cult, existed prior to Vedic cult. On the basis of these references we can assume that the 'Sramana cult is even older than Brāhmaṇa cult. BHARATA AND BAHUVALI Rṣabhadeva and his sons Bharat and Bahubali are well-known personalities to literature, art and architecture. Let us know something about the status of them found at Sramaṇavelagola, the place for penance and meditation of Lord Bahubali and Candragupta Maurya, the Samrat of Magadh. The colossus of Bhagwan Bahubali is the best and the most important ancient monument in the field of Indian iconography: Lord Bahubali, as we know, was one of the beloved sons of Tirthankara Rṣabhadeva, the son of the last Kulakara Nabhiraya. He was married to Yasasvati (Sunanda) and sumangala with a newly established method which was not adopted earlier. Yasasvati gave birth to Bharat and Brahmi and Sumangala to Bahubali and Sundara. It is said that 98 more sons were born from Sumangala.21 According to Jinasena, the total number of sons were 101 adding the name Rṣabhasena.22 Tirthankara Rṣabhadeva distributed his kingdom among the princes. Out of them, Bharata, the eldest son became the sovereign of Ayodhya and Bahubali was enthroned to Podanapura. We do not find any other detailed description as to which provinces were allotted to other sons. The names of provinces have been generally mentioned in the Puranas of course. Later Bharata started all efforts to fulfil his ambition to be Cakravarti. He was finally opposed by Bahubali and consequently the war between them became essential to determine as to who was more powerful. On declaration of war, the leaders of both the sides thought that the war would cause a destruction and misery to both the parties. Hence it had to be avoided at any cost. Bharata and Bahubali were persuaded by the elders to avoid the bloodshed and restrict the conflit to both of them only. According to one concept the duel was restricted to Dristiyuddha (starting constantly at each other till one of them is exhausted), Jalayuddha (splashing of water) and mailayuddha (wrestling). At last SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION Bharata could not meet the challenge and was defeated by Bahubali. Bharata was frustrated and provoked so much that he hurled the Cakra on Bahubali. But it could not hurt him at all. The reaction of this unfortunate event on the mind of Bahubali was that he renounced worldly life and went to mount Kailasa for severe penance. He ultimately attained Kevalajana and then Nirvana. RECOGNITION OF PODANPUR Now the question is as to how the place Podanapur could be recognised. Jinasena described the cultural peculiarties of the provinces. An envoy of Bharata Cakravarti had come to visit Podanapura to convey the message of Bharata to Bahubali. Podanpura, the capital of Bahubali's kingdom, might have been in the present Andhra Pradesha. Gunabhadra made it clear that Podanpura was situated in South India. Jambu Višesşane dvipe Bharate dakṣine mahan. Suramye visayastatra vistirnam podanam puram.23 The Buddhist literature also supports the view that Podanapura (Potan, Podan, Patali) was the capital of Asmaka situated on the bank of the Godavari.24 Panini also agres with this view 25 Dr. Hemachandra Rai Chaudhari recognises Bodhana as Podana of the Mahabharata and Pottana of Buddhist literature. The Vasudevahindi also supports the view of Dr. Rai Chaudhari. The Svetambara tradition in general is of the view that Takṣašila was the capital of Bahubali. One tradition says the Podanpura town is Bodhana of Nizamabada district in Andhra Pradesa. The Bharatakavya of Pampa, the Vemulvada Piller inscription and the Parvani Copper Inscription also support the view. This town was also the capital of the Rastrakūta king Indraballabha. Tha Jaina temple therein was converted into a mosque during the Mugala period. According to the Jaina tradition, Bharata had installed the Bahubali statue at Podanapura. After a sufficient gape of period it was covered and became difficult to locate. Acarya Jinansena narrated the whole story to the mother of Camundarai who went on to find out the exact place at Padanapura.26 He visited on the way the Candragupta Vasadi of Sramanabelagola and paid homage to Lord Parsvanatha and Acarya Bhadrabahu. It is said that during the night in a dream he was instructed by Padmavatidevi that it would not be possible for him to reach Podanapura. But he could have a Darsana of Bahubali there itself, if he threw a golden arrow from Candragiri to the South direction. 21 ज्ञानी दानी सन्त जन, चौथा भूपति जान । जयन्तसेन नीति रखत, सुखी जगत इन्शान ॥" www.ainelibrary.org Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cāmundarāya shot the arrow in the Southern direction Later on the Colas invaded and occupied Gangavādi and the upper portion of the Bahubali statue became and Talakādā. This was the starting point of the fall of visible. The statue was then discovered. Then it was the Ganga dynesty. Kaliganga, the younger brother of methodised by artists. Eventually the Mastakabhiseka Rakkasaganga expelled the Colas from Mysore province was performed with the kind assistance of Gullakāyaji. and established the kingdom of Hyesala Naresa Cāmundaraya named the town as Belagola and donated Vişnuvardhana (116 A.D.). 96 thousand Varahas for its administration and welfare. Vişnuvardhana and eitht Generals, i.e. Gangarāja. This event is found described in the Bhujavalicarita Bappa, Punisa, Baladeva, Mariyana, Eca and Visnu. of Pancabāna and also in the SramanabelagolāGangarāja, the minister of Vişnuvardhan was the inscription No. 84 (250). With slight variation it is also prominent one. His mother Pecikave had constructed a available in the Bhujabalisataka, Gommateswaracarita, number of Jaina temples in Sravanabelagolā. Gangarāja Rājāvalikatha and Sthalapurana. However Cāmundarāya constructed a Nisadyā in her memory in is recognised unanimously as the one who installed the Sravanabelagolā. Two more inscriptions are available Gommatesvara statue. This is also recorded in the which show as to how Gangarāja was brave and honest Sravanabelagolā inscriptions No. 75 (179-180), 76 (175, to his master. He defeated the Colas and Cālukyas and 176, 177), 85 (234) and 105 (254). No. 75 and 76 are saved Gangavādi. Vişnuvardhan was pleased, and on engraved on the left and right of the statue. They can his demand, he donated Govindavādi and Parama be, therefore, considered the earliest ones. villages for the conduct of worship of Gommatesvara. Boppana Pandita composed a hymn in praise of Gangarāja presented these villages to his mother Bahubali entitled Sujanottamsa which is engraved on Pocaladevi and wife Lakşmidevi for conducting the worship in the Jaina temples constructed by them. He the left side of the Gommatesvara door. Camundarāya had also constructed some more Jaina temples and is also said to be a main source of installing the statue. made contribution to the development of The Gommatesavara statue became very popular. Sravanabelagola. His sons Boppa and others also did a A number of events are connected with it. It is a traditional lot towards its development. beleif that there was a shower of Namerupuspa on the statue. No bird flies upon it. All the while, fragrance and Gangarāja Marasimha and his General lustre from the below portions of the hands of the statue Cāmundaraya assisted the Rastrakūta kings Akālvarsa III, Khottiga, Indra IV etc., in saving their kingdoms from were coming out 26 people come from all walks of life to the Colas, Pāndyas, Gurjaras, Cālukyas, Kirātas etc. pay homage to Lord Bahubali's statue with the hope that they would be free from diseases and get the way Though the Rastrakutas and the Calukyas did not do! to prosperity in the material field and also would get much towards the development of Sravanabelagola spiritual satisfaction.27 directly. They protected the holy place and the monuments indirectly. The inscriptions found around This excellent and enormous statue installed by Sravanabelagola area reveal the facts in this connection. Cāmundarāya is the best and most important ancient in comparison to other dysasties the Ganga dynasty monument in the field of Indian iconography in particular. contributed much to protecting and developing the The Camundaraya Purāna (978 A.D.) does not mention Sravanabelagola complex. about the statue but Nemicandra Siddhānta Cakravarti, the teacher of Camundaraya, refers to it in the The Bahubali statue of Sravanabelagola made him Gommattasära (993 A.D.). This means that the statue very much popular in all the spheres and walks of life. was installed between 978-993 A. D. Govinda Pai, Dr. Its description was not therefore out of context. As Nemicandra Shastri, Dr. Jyoti Prasad Jain and others already pointed out, in all the three conflicts (Dristiyuddha, have come to the conclusion that the Bahubali statue Jalayuddha and mallayuddha) Bāhubali overcome Bharat was installed on Sunday, the 5th of Caitrasukla in 981 in all the Yuddhas and then renounced the world forthwith A.D. and became the monk. Bharat repenting for the unfortunate event apologised but could not succeed to Camundaraya had also built on the Candragiri the bring him back. Bāhubali performed severe penance so Jaina temple called Cāmundaraya Vasadi in about 985 much that ant-hills sprang up about him. Eventually he A. D. which was extended by his sons Ecana and attained omniscience. Jinadevan. Rakkasaganga (985 A.D.), the son of Govinda has been mentioned as Rakkasamani (Gangavajra) in Bharat was very considerate and sober-minded the inscription of Bahubalivasadi (Sravanabelagolā). The Cakravarti. He ruled over kingdom with religious Jaina Acarya Vijayadeva Nagavarma was his teacher 28 performance and then became muni and attained the SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 22 पीडित वैभव हीन का, करो सदा उपकार । Th e 57, at 1999 Irary.org Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nirvana. Our country was named Bhāratvarsa after his name ANTIQUITY OF OTHER TĪRTHANKARAS Amongst other Tirthankaras some important ones should be mentioned here in addition to Vedic literature, the Pāli and Buddhist literature too mention the names of Jain Tirthankaras. Rsabhadeva is called one of the Jain Tirthankaras in Chinese Buddhist literature. (The Dictionary of Chinese Buddhist terms, p. 184).29 The Manjusrimulakalpa (45.27 Ed. by Ganapati Shastri, Trivendram, 1920)30 refers to him as Rsabhanirgrantharupin, and the Dharmottarapradipa (p. 288) mentions him along with the name of Vardhamāna or Mahāvira. It may be noted here that the name of Buddhas, Paccekabuddhas, and Bodhisattvas in Buddhism appear to have been influenced by those of the Jain Tirthankaras. For instance, Ajita, the name of second Tirthankara has been given to the Paccekabuddha who lived ninety-one Kappas ago.32 Padma, the sixth Tirthankara, is the name of the eighth of the twenty-four Buddhas, 33 It is also the name of Paccekabuddha to whom Anupama Thera offerred some Akuli flowers.34 Canda is the name of a chief lay supporter of Shikhi Buddha. Puffavati is the name of Benaras in the Jätaka.35 It would have been named after Puspadanta. Vimala, Paccekabuddha, has been named after the thirteenth Tirthankara. Likewise, Dhamma, the name of the fifteenth Tirthankara of Jainas, has been given to a Bodhisatva.36 Munisurvratanatha was worshipped by the people who lived even before Lord Rāma. Some of his images had been unearthed at Kankāli Tilā, Mathurā. Aristanemi or Nemi the twenty-second Tirthankara, is referred to in the Dhammikasuta of the anguttaranikāya. The Majjhimanikāya (Isigilisutta) refers to Arittha as one of the twenty-four Pratyekabuddhas who inhabited the Rsigiri mountain. The Dighanikāya draws our attention to the name of Drdhanemi as a Cakkavatti. In the same work there is a reference to king Aritthanemi who is called a Yakkha.37 The Mahābhārata refers to him as Jinesvara. Lord Krisna was his real cousin. The Yajurveda also refers to him.38 Dr. Prananath is of opinion on the basis of a copper plate grant of the Babylonian king Nebuchadnazzar 1 (1140 B.C.) that the king came to Mount Revata to pay the homage to Lord Nemi. Upto the period of Tirthankara Neminatha, the historical tradition of Jainism is not being recognised unanimously by the historians and archaeologists as well inspite of sufficient corroborative literary evidences. The scholars unfortunately questioned the veracity of its statements. Mrs. Sinclair Stevension rightly observed "It is the misfortune of Jainism that so much of its life-story falls within these unexplored tracts of time, and, though, the Jainas have kept historical records of their own, it is very difficult to correlate these records with known facts in the world's history. 30 TĪRTHANKARA PĀRSVANĀTHA Tirthankara Pārsvanātha is undoubtedly a historic personage who flourished 250 years earlier than Mahāvira or Nigantha Nātaputta at Varanasi, was born to king Asvasena and queen Vāmā. He belonged to the Ksatriya clan of the Nāgas, called Ugravamsi having royal emblem of hooded cobra. He rendered his remarkable services to humanity by teaching Nonviolence and attained Nirvāṇa on the Sammeda Sikhara which is called today the Parsvanātha hill. The Anguttara mentions the names of kings of Vārānasi - Brahmadatta, Uggasena, Dhananjaya, Mahasilava, Samyama, Vissasena etc.40 Pärsvanātha belongs to the Ugravamsa which may have been named after Uggasena and Vissasena may be recognised as his father. Brahmadatta is also said to have been a Jain king who devoted his whole life for Jainism. Vappa of Manorathapuran, the Buddhas uncle was a follower of Parsvanatha tradition. In early Pali literature various doctrines of Jainism have been acknowledged. They belong to Pārsvanātha or Aristanemi, if not to earlier Tirthankaras. Pārsvanatha was known as Purisajaniya or the distinguished man according to the Anguttara Nikāya. The Dharmottarapradipa (P. 286) also refers to both Pārsvanatha and Ariştanemi. The Caturyāmasamvara, which is attributed to the Nigantha Nataputta in the Sämannaphalasutta, is in reality a teaching of Parsvanātha. Some Niganthas mentioned in Pali literature are apparently followers of Parsvanātha. For instance, Vappa,41 Uali,42 Abhaya, 43 Aggivessayana Saccaka, 44 Dighatapassi,45 Asibandhakaputta Gāmani, 46 Deva Nink, Upatikkha Sina, 49 are lay followers while Sacca, Liha, Avavadic, patacarso are lay women followers of the Pārsvanatha tradition. They had later on become the followers of the Nigantha Nataputta. Jacobi, therefore, says that Parsva was a historical person. This is now admitted by all as very probable. The archaeological evidence also supports the fact. The scenes concerning his life, belonging to 2nd century B.C. are found in sculpture in the caves of Udayagiri and Khandagiri. The inscription found in Mathura Kankälitilā in this connection indicates his popularity. some more hundreds of sculptures can be cited to prove his historicity. SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 23 जब तक तन में प्राण है, कार्य करो परमार्थ । opt a afg, feat they are linelibrary org Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TYPES OF SRAMANA SYSTEM IN THE SIXTH-FIFTH C.B.C. By the time of Tirthankara Pārsvanātha, the Sramana system was divided into several categories. During Tirthankara Mahavira and Mahātmā Buddha some more categories would have been added to the list. The Dasavaikalika Niryukti gives some synonymatic words for Sramana - Pravrajita, anagara, pasanda, caraka, tapasa, bhikṣu, parivrājaka, šramana, nirgrantha, samyata, mukta, tirna, trāyi, dravya, muni, kşānta, danta, virata, ruksa and tirastha (158-159). Of these Caraka, tapasa, parivrajaka etc. are connected with Non-Jaina Sramanik traditions. The Jaina literature describes five types of Sramaņa tradition, i.e. i) Nirgrantha (Jainas), ii) Sakya (Buddhists). Tāpasa (Jatilas), iv) Geruka (Tridandi Parivrājakas), and v) Ajivaka (followers of Gosālaka) - (Pravacanasāroddhāra, 731-33). As discussed earlier, Tirthankara Rsabhadeva is supposed to be originator of Srāmanism. Its progressive and humanistic approach made a paramount impact on Vedic and Upanisadic seers. Therefore, sometimes the compound designation "Samana-Brahmana" or "Brāhmana-Samana" to denote a religious sect that is opposed to the caste superiority of the Brāhmana community and its ritualism. T.W. Rhys Davids rightly says that Samana connotes both asceticism and inward peace. Samana-Brāhmana should therefore mean, a man of any birth who by his reputation as a religious thinker, had acquired a position of a quasi-Brahmana and was looked up to by the people with as much respect as they looked up to a Brähmana by birth. "(Dialogues of the Buddha, 11, intro. P. 165). Jain literature also gives the same connotation to this term. Sometimes the term Samana-Brahamana is also used in Pāli-Prākrit literature either for the followers of the Brahmana community or for any follower of any sect of Sramaņas. The leaders of Sramaņa system were referred to in Buddhist literature as "Heritical teachers (Tirthankaras). These contemporary teachers "were doubtless, like the Buddha himself, inspired by the wave of dissastisfaction with the system of orthodox Brahmanism." Six such teachers are mentioned in the Pali Canon :- 1) Purana Kassapa, 2) Makhali Gosāla, 3) Ajita Kesakambali, 4) Pakudha Kaccāyana, 5) Sanjaya Belatthiputta, and 9) Nigantha Nataputta. Most of them are somehow related to Sramanic Jainism as I have already discussed in detail in my earlier Thesis "Jainism in Buddhist literature (1972) TĪRTHANKARA MAHĀVĪRA AND MAHĀTMĀ BUDDHA Tirthankara Mahavira and the Mahātmā Buddha were the great spiritual leaders of India in sixth-fifth century B.C. They followed the ancient Sramana tradition from which they had been alienated by the pressures of secular society. They have found their ways through psychoanalysis, social concern, involement in the movements for peace and justice. Both the spiritual leaders created an atmosphere of trust and understanding through interreligious dialogue, the unparallel vehicle and the model for developing the distinctive spiritual journey of the time for entire human community and souls. Age of Spiritual Leaders During this period there emerged great spiritual leaders, prophets and philosophers whose teachings represent a change from muthic to self-reflective thinking and individualistic purification. For instance, Confucius and Lao-tse-tung appeared in China; Zoroaster in persia; Elijah, Isaiah and Jeremian in Isarel; Pythagoras Socrates, Plato and Aristotle, Moses in Asia Minor in Greece. Likewise in our India there were very popular scholar some Vedic and Upanisadic ages like Asila Devala, Dvaipāyana, Pārāsara, Nami, Videhi Ramagupta. Bahuka, Nārāyana etc. and Srāmanic teachers like Buddha, Makkhali Gosala, Sanjaya Velatthiputta, Pakudha Kaccäyana, and others who were imparting the spiritual teachings according to their own traditions. The Sämannaphalasutia of the Dighanikāya mentions six heritical teachers and the Brahmajalasutta refers to 62 types of Micchaditthis (Pubbantanuditthis 18 and Aparantanuditthis - 44). These Micchaditthis are related with soul, universe, rebirth etc. which are resulted in the establishment of the views like Ucchedavada, Amarāvikkhepavāda, Nevasanninäsannivada, etc. The Prakrit literature perhaps divides these views into 363 types (Kriyāvada 180, Akriyāvāda 84, Ajnänavāda 67, and Vinayavāda 32). Kriyāvada believes in existence of nine Tattvas (Jiva, Ajiva, Ashrava, Bandha, Samvara, Nirjara, Moksa, Punya and Papa) with the help of Svatan and Paratan, and Nitya and Anitya in five ways, viz. Kāla, niyati, svabhāva, isvara and atma - 9 x 2 x 2 x 5 = 180. Sankhyas, Naiyāyikas, Vaisesikas, Bauddhas and Jainas are included into the Kriyāvādi philosphy.52 In contrary to Kriyavāda, the Akriyāvada does not believe in existence of seven Tattvas with the help of svatah and paratah in six ways (kāla, yadrccha etc.) = 7x 2 x 6 x = 84.53 The Buddha is said to be both Kriyavadi and Akriāvādai, Nigantha Nātaputta as Kriyāvādi and Cārvak as Akriyāvadi in Pāli literature. The Ajnänavada is of 63 types. In its opinion the nine tattvas cannot be perceived by seven ways (Sat, asat, sadasat. avaktavya, sad Kri SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 24 चाहे जैसा काम हो, पहले सोच विचार । जयन्तसेन सफल कहा, मानव जीवन सार ।। www jainelibrary.org Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vaktavya, asadvaktavya, and sadasadvaktavya) = 9x7Humvauddha, Dantukkhaliya, Nimajjaka, Sampakkhala. = 63. Sanjaya Velatthiputta is the originator of the view Dakkhikulaga, Uttarakulaga, Sankhadhammaka, according to the Dighanikāya. 54 Silankācārya relates by Kuladhammaka, Miy aluddhaya, Ratthitavasa, mistake the Ajnanavāda, Niyativāda, and Vinayavāda Uddandaka, Disaspekkhi, Vakkaposi, Ambivasi, Bilavasi. with Makkhali Gosālaputta who is the exposer of the Belavāsi, Rukkhamulia, and Ambubhakkhi.61 The same Niyativāda, undoubtedly.55 The Vinayavāda believes that Sutra mentions some of the Pravrajita Sramanas, viz. the salvation can be attained by paying an honour to Sankhya, Joi, (jogi). Kapila, Bhrgutya, Hansa. Devas, kings, sages, clans, aged persons, lower class Paramahansa, Bahudaya, Kudiwaya, Kanhapariwayaga, people and parents through mind, words, body and views etc. The seven types of Ajivika Sramanas are also = 8 x 4 = 32. mentioned there in the Sutra, viz. Dugharantariya, Acarya Akalanka mentioned some more names as Tigharantariya, Satagharāntariya, Uppalaventiya the exposers of the views. According to his Gharasamudaniya, Vijjuantariya, and Uttiyasamanas. Tattvārthavārtika, Kautkala, Kāneviddhi, Kausika, Seven types of so called Ninhavas are also explained Harismasru, Mancapika, Romasa, Harita, Munda, there, viz. Bahuraya (Jamali). Jivapaesiya (Tisyagupta), Asvalayana etc. were the Kriyavādis. Maricikumara. Avvattiya (Aşādācārya), Samuccheiya (Asvamitra). Kapila, Uluka, Gargya, Vyāghrabhuti, Vaduli, Mathara, Dokiritiyă (Gangācārya), Terasiya (Rohigupta) and Maudgalyāyāna etc. were Akriyavādis. Sākalya, Valkala, Abaddhiya (Gostha Mahila). Out of five types of Samanas Kuthumi, Satyamugra, Narayana, Vrdhha, Madhyandina, (Niganthas, Sakyas, Tapasas, Gairikas, and Ajivikas) Mauda, Paipalāda, Vādarāyana, Ambasthi the only Nirgranthas (Jainas) and Sākyas (Bauddhas) Krdauvikāyana, Vasu, Jemini etc. were Ajnanavādis. And are remained these days. Vasiştha, Paräshara, Jatukarni, Vālmiki, Romaharsini, The people were confused by these philosophical Satyadatta, Vyāsa, Elaputra, Aupamanyava, Indradatta, views. The spiritual sphere was violated by the sacrifices, Ayasthuna etc. were Vinayavādis. The Twelve Anga rites and rituals. The humanity was divided by the caste Drastivada of Jainas which is said to have been lost system and the so called lower class people were must have dealt with all these philosophical views in deceived by a certain section on the name of religion. detail.56 Kesi said with anxiety the Gautam "The masses are Niyativada of the Ajivika sect was established by weltering in the encircling gloom, who shall them light? Makkhali Gosalaka, the Mankhaliputra of the Prakrit Gautam replied "The one who initially was the prince of literature. He was originally the disciple of Mahavira. the kingdom of Videha and who is today the great Due to some difference of opinion, he afterwards exponent of freedom from body - consciousness, the separated his sect and called it Niyativāda. Santa, verily enlightened, the propounder of the principle of Kalanda, Karnikāra, Achidra, Agnive'syāyana and perennial creation and the truely venerable Mahavira Gomāyuputra Arjuna were his main disciples who used has already risen as a sun who will lead the masses to have the meals through displaying the Citrapata in from darkness to light.62 hands. Mankhaliputta and his disciples are called as TIRTHANKARA MAHAVIRA Pāsattha, the polluted personalities from the path of Tirthankara Mahavira, the Nigantha Nātaputta of Pārsvanātha tradition.57 Pali literature, was a great realist philosopher who had Tajjivatacchariravada is one of the kinds of not, as a matter of fact, innovated a new philosophy but Ucchedavāda according to Pāli literature. The Präkrita advocated the old one followed by his predecessors literature understands it as Cārvak.se Atmasasthavāda, with new additions and interpretations without involving Atamadvaitavāda, Svabhāvavada, Aranyaka, himself in any kind of controversies. He attained Avyakratavāda, kālavāda, Yadracchāvāda. Purusavāda. enlightenment by his own constant striving and then Purusarthavada, Isvaravada, Daivavada etc. were also showed the path to all others out of his abundent popular at that time. Nāyādnammakahão mentions some compassion for suffering beings. His life is, therefore, more conceptions, viz. Caraka, Cirika, Carmakiandika, human appeal to both individual as well as social. Bhicchunda, Banduraga, Gautama, Govrati, Grhidharmi, Mahavira was born at kundanapur (Vaisāli). His Dharmacintaka, Aviruddha, Vrddha, Srāvaka, parents Siddhārtha and Trišala were the chief of Vaisali Raktapata.59 The Sutrkrtanga mentions some Asamyami and followers of Tirthankara Parsvanatha (Pasavaccijja sects. viz. Gautama, Govratika. Randadevata. ta, - Āyaränga, 2.15.16). Mahavira renounced the worldly Virabhadraka, Agnihomavadi and Jalasaucavādi.60 The life at the age of thirty and attained kevalajnāna after Aupapadikasutra refers to some of the Vanaprasthas. constant severe penance. He then preached the viz. Hottiya, Pottiya, Kottiya, Janni, Saddhai, Thalai, SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 25 Jain Education Interational दीन शरण दुःख हरण का, कर लो जग में काम | 07-7996 HT, 199 2017 nelibrary.org Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dhamma for about thirty years and aftained Nirvāna at Pava in 527 B.C. The scriptures whatever we have at present reached to us through him. He is called Nigantha in the sense that he is free from all bonds, and is called Nätaputta because Näta or Nāya was the name of his clan.63 The term Nigantha for a Jaina came to be used perhaps along with the origin of Jainism itself. The Vedic literature does not mention at all the life and contribution of Mahavira. The Pāli literature, of course, refers to his principles and later, not the early, part of his life. So far as concerned with the Jaina literature, both the Digambar and Svetämbar traditions are not unanimous on certain points. The Tiloyapannatti is perhaps the earliest book of Yativrsabha (about 5th C.A.D.) which mentions the life of Mahāvira some what rather the detail. The Tisatthimahāpurisagunālankāra of Puşpadanta (Sak Sam. 880), Uttarapurāņa of Gunabhadra. Vardhamānapuräna of Chämundaräi, and Vardhamancarita of Asanga etc. are some more works which can be mentioned in this connection. The Svetāmbara tradition is more enriched. The Ayaranga, Suyagadanga, Thānānga, Samavāyānga, Uvāsagadsänga, Vyākhaprajnapti, Kalpasūtra, Avasyaka Niryukti, Višesāvasyakabhāsya, Ayārāngacūrņi, Cauppanna Mahāpurisacariyam, Paumacariyam, Trisastišalakapurusacaritam (Hemachandra) etc. are important works for recording the life of Mahavira. The historical development for its recording is naturally traceable, like exaggerations, fictitious elements, astonishments and poetical peculiarities. This is the reason why Acharya Samantabhadra had stressed on the point of Vitaragata and not on the attainment of devas, bos gruniens, Astaprātihāryas and other amazements which could be perceived in fraudulents.64 4. IN PURSUIT OF KNOWLEDGE No substential references to his schooling are available in the literature except that a Brahmina teacher was astonished on hearing his scholarly answers to the questions asked. He remained under the householdership upto the age of 30 where he could blow ablaze in mind the flame of emancipation through cultivation of selfrealisation with perfection in non-violence, truth and celibacy. Mahāvir left the home for the best and renounced the ego, attachment, possessive instinct. During the pre-enlightenment period of twelve years Mahāvira roamed the following villages and camped in the rainy seasons, viz. Kundagrāma, Karmaragrāma (Chapara). Kollaga Sannivesa, Morak Sannivesa, Jnatakhandavana, Duijjantaka, Asthikagrāma (Varşavasa). 2. Morak Sannivesa, Daksina - Uttara Vacala. Suramipur, Svetāmbi, Rājagrah Nalanda (Varşāvāsa). 3. Kollaga. Suvarnakhil, Brahmanagrāma, Campa (Varşāvāsa). Kalapa, Panta, Kumaraka, Coraka, Prsthacampā! (Varsāvāsa). 5. Kayangala, Halliduya, Avarta. Kälankabuka Purnakalasa, Sravasti, Nangala, Lādha (läta desa). Malaya, Bhaddila, (Varsāvāsa). Kadali, Tambaya, Kubiya, Vaisali, Jambusanda, Kupiya, Grāmaka, Bhaddiya. (Varşāvāsa) - near vaisali. Magadha, Alabhiyā (Varšāvāsa). 8. Kundaka, Bahusalaga, Lohārgalā, Gobhumi, Mardana, Sālavana, Purimatāla, Unnāga, Rājagrha (Varšāvāsa). 10. Kūrmāragrāma, Siddhārthapur, Vaisāli, . Vānijyagrāma, Srāvasti (Varšāvāsa). 11. Sānulatthiya, Dradhabhumi, Mesāli, Siddhārapura, Vajragrāmya, Alamviā, Svetāmbikā, Vārānasi, Mithilā, Malaya, Kaušāmbi, Rājagraha, Vaišāli (Varsavāsa). 12. Sunsumārapura, Nandigrāma, kausāmbi, Medhiāgrāma, Sumangala, Suchettā, Pālaka, Campā (Varšavāsa). 13. Jambhiya, Medniya, Chammāni, Madhyamapāvā, Jambhiyagrāma. ATTAINMENT OF KEVALAJNANA AND PREACHING During these years of his pursuit a number of incidents occured in his life : clamities of Gopalaka, Own deeds are sole responsible for one's past, present and future life. This is the main theme of Šramana culture. According to Jainism, the soul pure in its intrinsic nature from times immemorial. Due to wrong views and illusion it relates with Karmas and makes its cycling into births. Mahāvira changed himself and turned his mind to the spiritual direction when he was line or Nayasara in previous birth. He was then eventually born under such turmoil atmosphere on the thirteenth day of moon of Chaitra, March 30, 599 B.C. at (Vaishali) Ksatriyakunda. His parents Siddhartha and Trisalā were the Ksatriya king of Videha. Trisala saw the sixteen or fourteen dreams before she gave the birth to the child. viz. elephant, bull, line, garland, moon, Lakşmi, banner, (dhvjā), metal base (kumbha), a pair of fish, lotus-pond, throne, celestial plane, plane of serpentine, demi-gods, collation of gems, flame without smoke. These dreams were interpreted to Siddhartha who got the impression about the noble son, the Vardhamāna or Mahāvira. SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 26 माता मर पली बने, पिता मरे हो पूत। v4-c 4 3 Ife , 8H1 6 454g brary Org Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sulapani, Agni, Tapta Dhuli, Lohārgala, Kataputana, Sangama, Candakausika, Karnasalakā Niskāsana meetings with Makkhali Gosālaka, Pārsvastna Sädhus, separation with Gosālaka, etc. Eventually he attained the Kevalajnana in Jambhiyagrama on Vaisakha Sukla Dasami, April 23, B.C. 557. thirteenth Varsavasa Jambhiyagrāma may be identified with modern village jamui situated on the bank of quil (Rjukülā), near Rajagriha and Kevali (where he attained the Kevalajñāna). Mahavira reached next day Madhyamā Pāwā from Jrmbhikagrāma where a Somil Brāhamana organised a large sacrificial rite. Eleven great scholars were invited to perform the Yajha. Mahāvira had to wait for sixty five days. Due to paucity of appropriate scholars preaching could not take place. Mahavir felt the necessity and appropriate time for sponsoring non-violence before the scholars and their 4400 disciples. They were somehow attracted by the verstile personality and scholarship of Tirthankara Mahavira who replied their philosophical questions and satisfied their queries. As a result, all the eleven Scholars Indrabhuti Gautam, Angibhuti, Vāyubhuti, Vyakta, Sudharma, Mandita Mauryaputra, Akampita, Acalabhrata, Metarya and Prabhāsa became his disciples. This incident might have taken place at the vipulacala (Rājagriha) about 30 miles away from Jrmbhiyagrāma. The Digambara tradition replaces Maundraya, Putra, Maitraiya and Andhavela to Vyakta, Mandita, Achalabhrata and Metarya. GAUTAMA GANADHARA AND THE ESTABLISHMENT OF SANGHA Tirthankara Mahavira selected Indrabhūti Gautama as the Head of the Sangha and the Sangha was divided into four units, monks, nuns, laymen and laywomen. Likewise he arranged the system of religious leadership into seven units, Achārya, Upādhyāya, Sthavira, Pravartka, Gani, Gandhara, and Ganavacchedaka. He then started the preaching for masses65 and roamed different places upto the last moment. After the attainment of Kevalajñana Lord Mahävira camped thirty years in the rainy seasons as follows :1. Madhyamapāwā, Rājagraha (Varšāvāsa). 2. Brāhmanakunda, Ksatriya - Kunda, Vaisali (Varšāvāsa). 3. Kaušāmbi, Srāvastī, Vānijyagrama (Varšavāsa). 4. Rājagraha (Varšāvāsa). 5. Champā, Vitibhāpa, Vanijyagrāma (Varšavāsa) Vārānasi, Alambhiyā, Rājagraha (Värsavāsa) 7. Rajagriha (Varšāvāsa) 8. Kaušāmbi, Alambhiyā, Vaisali, (Varšāvāsa) 9. Mithila, Kākandi, Pelāsapura, Vānijyagrāma, Vaisāli (Varšāvāsa) 10. Rājagraha (Varšāvāsa) 11. Kavangalā, Srāvasti, Vānijyagrāma (Varsavāsa) 12. Brāhmanakunda, Kausambi, Rājagraha (Varšāvāsa) 13. Champā (Varšāvāsa) 14. Kakandi, Mithila (Varšavāsa) 15. Srāvasti, Mithila (Varšāvāsa). 16. Hastinapur, Mekānagari, Vānijyagrāma (Varšāvāsa) 17. Rājagraha (Varšāvāsa) 18. Campā, Dasārnapur, Vānijyagrāma, (Varšāvāsa) 19. Kāmpilyapura, Vaisāli (Varšāvāsa) 20. Vaisāli (Varsāvāsa) 21. Rājagriha, Campā, Rājagraha (Varşāvāsa) 22. Rājagriha, Nālandā (varşāvāsa) 23. Vānijyagrāma, Vaisali (varşāvāsa) 24. Sāketa, Vaisali, (varšavāsa) 25. Rājgriha (Varšāvās) 26. Nālandā (varšāvāsa) 27. Mithilā (varşāvāsa) 28. Mithila (varsāvāsa) 29. Rajagraha (varşāvāsa) 30. Apāpāpuri (varşavāsa) - The Parinirvānabhumi During the period his religion spread over all the parts of India. The great kings like Prasenajita of Srāvasti, Srenika of Magadha, Dadhivāhana of Champā, Satanika of Kaušāmbi, Jitasatru of Kalinga. He might have also visited South India which is named by Hemangada in Jaina literature. Jivandhara, the son of King Satyandhara was in power at that time. Jainism was prevelent even prior to Mahāvira there in South, but advent of Mahavira would have inspired much for propagation. As we are informed by the Pali literature, Jainism was the state religion of Shrilankā before reaching there Sanghabhadra and Sanghamitra for Buddhist missionary activities. The Vratisangha of Tirthankara Mahavira was as follows : 66 1. Ganadhara 11 2. Gana 7 or 9 3. Kevali 700 4. Manahparyayajñāni 500 SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 27 चोरी करना है बुरा, मिलता दण्ड कठोर । 74494 e goffa, fed a library org Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Avadhijnani Fourteen Purvadhāris Vadis 1300 300 400 700 800 1400 36000 159000 318000 Total 531718 The ordinary Sravaka-Sravikas are excluded from this counting. 5. 6. 7. 8. 9. 10. Sadhus 11. Sadhvis Vaikriyakalabdhidharis Anuttaropapatikamunis 12. Sravakas 13. Sravikās After passing twentyninth Varşavasa at Rajagriha, Mahavira reached to Apapuri (may be Majjhima) the capital of Mallas where he spent his last Chaturmäsa. the morning of the fourth month Kartika Krisna Amavasya, he passed his last breath and entered into Salvation at the age of 72 years. At that time the king of Kasi, Licchavis of Kausala, nine Mallas and eighteen Ganarajas were present who celebrated the Nirvana Mahotsava by flaming the lamps. The Samannaphalasutta of the Dighanikaya refers to the event. Date of Mahavira's Parinirvana The date of Mahavira's Parinirvana, like the date of the Buddha, has been a subject of much controversy among the scholars. The Pali Canon has two main references which give an idea of the age and death of Mahavira. The first reference to Mahavira as one who has long been recluse, old and well-sticken in years (chirapavvajite, addhagate, vayonupatte). The another reference recorded is that when the Buddha was at the Ambavana of the Sakyas, Nigantha Nataputta had just died at Pāvā.68 Ananda is supposed to have conveyed this news to the Buddha in a very pleasent mood. 67 Jacobi is perhaps the first savant who tried to determine the date of Mahavira. On the basis of the Hemachandra's Parisistaparvan which tells us that Chandra Gupta ascended throne 155 years after the death of Mahavira, Jacobi is of opinion that the death of Mahavira must have occured in 468 B.C., as the Chandragupta's ascension took place in 313 B.C. (313 + 155 468 B.C.). Charpentier also supported this view.70 They were of the opinion that the statement of the Pali Canon was spurious. Basham, too, is inclined to accepts Jacobi's view. But he based his arguments on the Bhagawatisutra and a less favoured theory that SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 28 the date of the Buddha's parinirvana in 483 B.C. The Pali record in his opinion does not refer to the death of Mahavira at Pāvā, but to that of Gosala at Savatthi. Majumdar and Raychaudhuri are of the view that Mahavira's death should have taken place in 478 B.C. In support of this view they suggest that Mahavira died sixteen years after the accession of Ajatasatru, and according to the Ceylonese Chronicles, the Buddha died eight years after the enthronement of Ajatasatru (323 + 155 478 B.C.). Hoernle with a more comprehensive attitude suggests 484 B.C. as the date of Mahavira's death and 483 B.C. as the date of Buddha's death. He is of view that the war took place not in the year of Ajatasatru's legel, but of his de fact accession.2 The orthodox Jaina tradition which dates the death of Mahavira in 527 B.C. appears to be more reliable. It is stated that the date of Chandragupta Maurya's accession falls 215 years after the death of Mahavira. According to Hemachandra the accession took place 155 years after the death of Mahavira. Here Hemachandra appears to be wrong in calculation. He omitted by oversight the period of 60 years of king Palaka who on the same day began to rule at Ujjeni after the death of Mahavira. Afterwards Nanda's dominion is listed for 155 years. Then commences the enthronement of Chandragupta Maurya. The Chandragupta Maurya's accession took place in 322 B.C. This accession must be on Avanti which was held 10 years earlier than Pataliputra accession. Therefore the death of Mahavira must be an event of 527 B.C. (322-10 + 215 == 527 B.C.). This view can be supported if we accept the Vikrama era commenced-with Vikrama' death and Vikrama was born 470 years after the death of Mahavira (57 + 470 = 527 B.C.). According to the Titthogali Painnaya, the Saka Samvat was started 605 years after the death of Mahavira. Historically the Saka Samvata commences 78 years B.C. This fact also supports the view of 527 B.C. as the date of Mahavira's death. The Place of Mahavira's Death The place of Mahavira's death has also been a controvertial point. The traditional Pava is the place of Mahavira's death which is situated in the southern part of the Ganga river, close to Rajagriha. The another Pava is the modern Papura village twelve miles away from Kusinarä or Kasiya situated on the little Gandaka river, to the east of the District of Gorakhapur at the northern part of the Ganga. It is most probable that Pāvā was included in the territory of the Mallas since a Santhagara was built by them in Pava. It is also said that at this place the Buddha ate his last meal at the house of जिस की जैसी भावना, उस के वैसे कर्म । जयन्तसेन दृष्य बन, समझो सच्चा मर्म ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. Cunda, and as a result he had an attack of dysentery. symbol is its pre-requisite stage for the attainment of He then left the place and proceeded to Kusinara where emancipation from karmas. the ultimately attained Parinirvana.? Jainism is more known to us through Tirthankara Conclusion Mahavira, the contemporary spiritual thinker of the Buddha. His prominent spiritual followers have written a On concluding remark we can state that Jainism is vast literature in Prakrit and Sanskrit. Our analysis of one of the most ancient living ieligions and philosophies of the world. It belongs to the Sramana tradition of India Jaina religion, philosophy, psychology, spirituality, which has been propagated by spiritual victor from time discipline, practices etc. is based on their monumental immemorial. In the light of various literary accounts and works. historical and a'chaeological evidence, it appears, It may be mentioned here that both Jainism and Jainism, the religion of humanistic approach was started Buddhism arose and grew up in the same province of with the beginning of human civilization in the Indian India. The leaders of both sects were sometimes living sub-continent by Risabhadeva, the first Tirthañkara of in the same city, but they never meet perhaps personally. Jainas in the first era of the present cycle. It is neither Their followers however, used to indulge in discussions, originated in and developed within the Vedic tradition conversations and debates. This fact is dealt with in nor it is an offshoot of Buddhism. But it is, as a matter of detail in my book entitled " Jainism in Buddhist Literature" fact, pre-Vedic origin belonging to the non-Aryan culture of India and therefore Jainism may be indigenous to India. This fact can be ascertained from the Vedic NOTES literature and the archaeological excavation of 1. AN ANTIQUITY OF JAINISM Mohanjodaro and Hadappa sites where the ascetic1 The Heart of Jainism, London, 1979, Introduction, sculptures depict the cultural aspects of Sramana munis. p. 5-6. Arhatas, Vratyas and Vatarasanas of pre-Aryan religion, viz. Jainism. It is also an established fact that the Rigveda, 10.90.12 Upanisadic philosophical speculations have deep impact 3. Mahāpurāna, 1.3.229-232. of Jaina dogmas and ascetic practices. 4. Jambdvipaprajnapti, P. 132 Among the successors of Rişabhadeva, the twenty 5. Adipurāna, 3.2.45-47 second Tirthankara Neminātha is related to Lord Krisna 6. Süryasiddhanta. Calcutta. 1925, 1.18.19 and the twenty third Tirthankara Pārsvanātha and twenty fourth Tirthankara Mahāvira are well-known to the Pāli 7. Vişnupurāna, 3.2.45-47 literature of early Buddhism. Remaining spiritual leaders 8. Voice of Ahimsa, Vol. 11, p. 11 are not much known to the history of today. 9. Muni Hajarimala Smriti Grantha, Byavar, 1965, p. 12, 5th Chapter These Tirthankaras are not the founders of Jainism. They are propagator of the supreme truth and spirituality. 10. Bhāratiya Itihāsa: Eka Drsti, pp. 21-23. They had attained it through right conduct and penance. 11. Voice of Ahimsa, 1957-58 They were individual human souls and not the devine 12. Rigveda, 4.58.3; 10.161.1 personalities who revealed the path of purification and liberation from all passions and desires through right 13. Munayo vātaršanā pisangā vasate malā. vision. They threw off the yoke of bloody sacrifices and Vātasyānu dhrājum yanti yaddevāse avisat. other Brahmanic rituals and rejected the conception of Unmăditā mauneyena vatām ātasthimā vayam. the incarnation of God. They refused the idea that God Sarire dasmākam sū yam martāse abhisyatha. - as the creator and destroyer of the universe and put aside the authority of the Vedas and derecognised the Rigaveda, 10.136.2-3. caste system of the Brahmanic society. Pluralistic system 14. Kesyagni keši visam kesī vibharti rodasī. of their thought paved the way of salvation for the Kesī višvam svardrše kesidam jyotirucyate. - realization of self by each and every being. Another Rgveda, 10.136.1 important feature of Jainism is to observe non-violence in all spheres of speculation, social conditions and 15. Sivapurāna, 7.2.9. political and religious disciplines and practices. It implies 16. Barhisi tasminneva visnudatta bhagawān a passimistic and ascetic outlook towards mundane life. paramarşibhiḥ prasādite nābheh priyacik rşaya Complete detachment from sansara and observation of tadavarodhyayane merudevyām dharman nudity indicating non-indicating non-possession as its darsayitukāmo vātarsanānām Sramananām rsīnam SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 29 जितनी शक्ति स्वयं की, उतना करना काम । 1940-AS HI, 89, 90 Tallelibrary.org Jain Education Interational Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ürdhvamanthinām suklaya tanuvāvatārah.. Srimadbhāgawat, 5th Skandha. 5.3.22. 17. Ayamavatāre rajasopaplutakaivalyopašiksanārtham, ibid. 18. Rigveda, 10.102.6, Athavā asya sārathiḥ sahāyabhūtah Kesi prakrstakeso Rsabho avāvacita - Sayanācārya. 19.Mohenzodaro & Indus Civilization, p. 110. 20. Religion of Tirthankaras, p. 46. 21. Kalpasūtra Kiranāvali, 151-2 22. Adipurāna, 16.28 23. Uttarapurāna, 35.28-36; See also the Parsvanāthacarita of Vadiraja, 9.37-8,2-65. 24. Suttanipāta, 977. 25. Astadhyāyī, 1.373 26. ibid. Padya No. 14, 27. Jaina Silalekha Sangraha, Vol. 1, No. 24, 1, 2, 3, 4 etc. author's article published in Mabhiseka Smaranika, pp. 195; 116. 28. Silalekha No. 235 (158). 29. The Dictionary of Chinese Buddhist Terms, p. 184 30. Manjusrimulakalpa, 45.27 Ed. by Ganapati Shastri, Trivendram, 1920 31. Dharmottarapradipa p. 286 32. Theragātā, i. 68 33. Jataka, i. 36 34. Theragatha, i. 335 35. Jataka, vi. 133 36. Dhammajataka 37. Dighanikāya, iii. 291 38. Yajurveda, 9.25 39. The Heart of Jainism, London, 1915, introduction, p. 5-6. 40. Anguttaranikāya, i290 41. ibid. ii. 196 ff. 42. Majjhimanikāya, i. 371 ff. 43. ibid. i. 392 ff. 44. ibid. I. 232 ff.; MA. I. 450. 45. ibid. i. 371 ff 46. Samyuktanikāya, iv. 312 ff. 47. A name of Deva who utters a verse in praise of Nigantha Nataputta 48. Mahāvagga 49. Samyuttanikāya, i. 65 ff 50. Jataka, iii, 51. Majjhimanikāya, i.371 ff 52. Sūtrakrtānga, 1.12; Niryukti 121; Vritti, p. 210-211 53. ibid. 1.12; Niryukti, 121 54. Anguttaranikaya, iii. 295 55. Sämannaphalasutta, Dīghanikāya 56. Tattvārthavārtika, 1.20.12 p. 47 57. Sūtrakartanga, 3.4.9; Vrtti, p. 98; 11.113, Vitti, P. 199 etc. 58. ibid. 1.1.11; Vrtti p. 20, 2 59. Nāyādhammakahão, 15th Adhayana, Aupapatika, 38 60. Sutrakrtanga, Kusila Adhyayana 61. Aupapātikasūtra 62. SA. Papancasüdant, ii. 432 63. See the author's book "Jainism in Buddhist Literature" 64. Devāgamanabhoyānacāmarādivibhūtayah. Māyāvişvapi dršyante natastvamasi no mahan. Ādhyātamam bahirapyesa vigrahādi mahodayah. Divyah satyo divaukasassvapyasti rāgādimatsu sah. - Aptamimamsa, 1-2. 65. Panceva atthikāyā cchajjivanikāyāmahavvayā panca. Attha ya pavayanamāda saheuo bandha-mokkho ya. - Dhavalā, 9 p. 129-30; Višesāvasyakābhasya, 1540-1947. 66. Kalpasutra, 133-144; Uttarapurāna, 74.373-79; Tiloyapannatti, 4.1166-79; Harivamsapurāna, 60.432-40. 67. D. i. 57 68. Dighanikāya, ii, 119 (Pasädikasutta); Majjhima. ii. 244 (Samagamasutt); Dighanikaya, iii. 209. 69. SBE. Vol. xxii, intro. p. xxvii, 1884. 70. Indian Antiquary, 1914, pp. 118; also see the Cambridge History of India, Vol. 1, pp. 139-40. 71. See in detail, the author's book "Jainism in Buddhist Literature, pp. 26-31. SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGUSH SECTION 30 फल की तजकर कामना, कार्य करो धी मान | जयन्तसेन फले फुले, जीवन तरूवर जान ।। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINISM AND GLOBAL PEACE (Dr. Dhaval Nemchand Ghalla) The Seventeenth century has been called the age confronted with the finiteness of his individual existence of Enlightenment, the eighteenth, the age of Reason, and with the questions as to it meaning. At the same the nineteenth, the age of progress and the twentieth time traditional values and beliefs no longer seem selfthe age of anxiety. With the conquest of many physical evident, and he lacks the conforting absolutes that gave ills which have afflicted him throughout his history, man security to his forebears. Unfortunately, advances in the has become increasingly aware of the role of understanding of man have legged far behind those in psychological factors in human existence. No longer are physical sciences. We know much about the atom but Civilized men - atleast the fortunate majority - the victims not nearly enough about love or the values needed for a of famines and epidemics. The black plague has been meaningful life. With all his uncertainties and anxieties replaced by a host of subtler psychological plagues - modern man has a few moral beliefs to guide him. As a worry, value conflicts, lonliness, disillusionment and the consequence, he stumbles around among a myriad of doubt as to one can weave a successful course through religions, philosophies and social programs, seeking the complex image of freeways and blind alleys that answers that will satisfy him. make up modern existence. Most of us are grihastha's (Shravak Shravikas) in Modern man's path to happiness is not an easy Jains, or householders, pursuing the four Pururusharthas one. It is beset by seemingly endless personal and social namely Dharma, Artha, Kama and Moksha. Dharmabindu problems. Wars have disrupted personal life and left describes that Dharmas (the pursuit of spiritual their mark of mutilations, grief and social unrest. Periodic excellence.) Artha the endeavour to acquire wealth and breakdown and runways of the economic machinery as Kama the endeavour to fulfil the wordly desires) these well as automation and other technological innovations three aspects of human activity are inter-related and have taken their roll in millions of victims of inseparably integrated and united. We should carry out unemployment and dislocation. The human population these three endeavours in such a way that none of explosion is creating difficult political and social problems them is affected or neglected. If any one is affected or and tensions, Racial discrimination, with its unreasoned neglected the basic purushartha namely Moksha will be feeling of superiority, hatred and resentment, hurts both affected. As most of us in the world are householders. I individual and community. Homes broken by divorce, would emphasise on Vrata (Vows) which would be leave emotional scars upon parents and children alike. applicable to householder as individual for each indivisual Excessive competition, conflicting pressure groups, is architect of his own destiny it is correctly said that a impersonal bureaucracy, rapid social change, and the mind can make heaven of hell and hell of heaven. ever present threat of global atomic war further aggravate From Social point of view, then we may briefly. modern man's anxieties. review the ethical code of Jainism. It begins with five Cure is an age of tremendous growth of knowledge. anuvratas or little vows. More scientific and technological discoveries 1) Non violence (Ahimsa) have been made in the past fifty years than in previous recorded time and Science is 2) Truthfulness (Satya) having an increasingly profound effect on 3) Honesty (Asteya) all phases of our life. The man has set foot on the planet other than one on which he 4) Continence (Brahamcharya) was bom. Yet paradoxically his scientific 5) Stoicism (Aparigraha) advances have led to shrinking of his world The second great contribution of Jainism so that he must daily face international to human intellect is Syadvada or Anekanta. problems as well as national and local ones. And as man ventures into the vast universe, Logic of probability and Relativism. Dr. Dhaval Nemchand he is increasingly and inescapably Ghalla It is the individual irrespective of sex SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 31 स्वार्थ बुद्धि का त्याग कर, करो सदा शुभ काम । जयन्तसेन सुसिद्धि का, यही प्रतीक ललाम || Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ when in group form families, societies, countries, violence was the highest religion and concept of live continents and world. It is individual who when looks and let live the golden rule of all human conduct. And within and tries to become a better person and transforms Anekantvada strong weapon in armoury of Jainism, it himself than only will this world will be a better place to can uproot our differences on matter how ever deep set live in with harmony and prosperity all around. There they are. The view paves the way to establish the global are also other codes of conduct in Jain ethics which peace and washes away waspishness of persons and when put into practise by any householder will make nations. him and transform him into better person and bring out Talking about Ahimsa, this doctrine has attracted further knowledge, increase strength of character, greater the attention of entire globe due to its successful peace of mind, sympathy and kindness and lead to higher application in liberating India from foreign domination. levels on the way towards on everlasting, blissful, The doctrine of non-violence, therefore, is the unique ominiscient in state of life which is natural to the real and most sublime contribution of Jainism to humanity pure self and which is open to all who wish to attain it. Unless there is first inner disturbance i.e. mental violence Thus intum making universal a symbol of peace and arising in our mind, there cannot be physical violence. harmony So our hearts and mind must be kept pure and unsullied, I would enumerate them briefly that there are thirty So Ahimsa according to Mahavira means universal love. five discarding pride. Pride is a kind of fire. Everything No violent act originates in a kind or pure heart and gets burn and swallowed by the fire. Discarding of a mind. Just as anger begets anger, violence breeds place where calamities are or a place threatened by violence, passion feeds on itself. So Mahavira advised calamities. Seeking the refuge of the worthy and the his followers first to control violent thoughts and desires capable. Accepting noble men treating them with before they manifest themselves into violent deeds and respect) Building and dwelling in a house and a properacts. Lord Mahavira, the greatest apostle of non-violence place. Weaving dress and decorations according to one's has founded his rule of Non-violence on basic human wealth etc. and avoiding incongruities. Expenditure values such as love and kindness, and as such this rule according to income, not engaging in condemnable is not only eternal and universal, but realistic, though actions. Associating with noble people, Adoring mother opportunist or pleasure seeker may try to put forth some and father, avoiding actions that provoke or agitate lame excuse or other for its breach. Mahavir taught to others, Protecting dependents, Eating food in time, food live fearlessly by wanishing devilish selfish instinct and that agrees with one's constitution. Renouncing all to live in peace and harmony with the external world temptations of taste. Discarding actions in uncongenial and its objects. places and uncongenial time. Carrying out the pilgrimage Mahatma Gandhi said "Non violence is not a of life properly among the humble in accordance with cloistered virtue confined to sages and cave dwellers. It their standard. Discarding excessive familiarity with is law of human existence. So rule of non-voilence can others. Rendering service to those who have undertaken be properly developed and extended to the domain of vows and who possess intellectual majority and purity of ethics, economics, politics, administration, international character and conduct. Acting after realising one's commerce by introducing moral values as factors abilities and limitations. Wants should be proper to the underlying this Rule of Non-violence, truth, honesty, time. Listening to scriptural discourse everyday. charity, tolerance, forbearance and other human virtues Discarding prejudice and evil intentions in all matters are only the corollaries flowing naturally by extension of and in respect of all people. Partiality for all virtues. this fundamental rule of non-violence cum love to various Avoiding undesirable habits such as meat eating and walks of life." So even in this scientifically advanced wine drinking. age, this rule, if followed both in letter and spirit, would It is two doctrines namely, Mahavir who has been facilitate the establishment of peace and happiness in rightly called as greatest apostle of Ahimsa with his non- the globe on this planet earth as one unit. SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 32 छल प्रपंच को छोड कर, कार्य करो अभिराम । prea gec , offen en Library.org Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : THE CONCEPT OF SAMATA AND ITS RELEVANCE IN THE MODERN WORLD (Shri H. S. Chandalia) Assistant Professor Man turns to philosophy to have a better understanding of his life, his place in this vast universe and to understand his relationship with the society he lives in. It is the expectation that an understanding of philosophy would enhance his understanding of life in its social context. This is the very criterion on which a common man interested in philosophy evaluates any new line of thought presented before the world. Jainism emerged as a school of philosophy against the excesses of the Brahminic school. It showed a path of osterity and self control that could return the values of co-existence to a society fragmented into a number of sections. But gradually contradictions grew within its fold and inspite of the fact that Jainism as a religion followed by people has expanded, its true followers have grown less, it lost its impact as a philosophy governing the lives of people. It so happened, perhaps, due to the fact that it did not mould itself to the requirements of the rapidly changing world. The values which it upheld, the Valdes WC upheld, the puritanic life it dictated and the abstract end which demanded sacrifice even of the many necessities of life were perhaps too much for the modern man. In this context the philosophy of samata emerged as a practical concept. Scholars debate whether it is a mere theory or an entire philosophy of life. But keeping that apart if one looks at it he would undoubtedly find it a practicable way of conducting one's life and enabling the construction of society based on equity. It has been possible to incorporate issues related to practical problems of our life simply because the philosophy does not overlook the political, economic and social responsibilities of an individual in the modern society. It is not merely a product of intellectual gymnastics but is a concrete method of uplifting the life style of individuals to attain a higher social end. The seeds of this philosophy were implicit in the teachings of the Teerthankars: समियाए धम्मे । Equity is the highest religion, it is said. In a society ridden with the extreme diversity as is found all over the world today (excluding a few communist countries), this philosophy is a redeeming concept. More so because it complements the Marxian philosophy of an ideal communism. It adds the spiritual aspect lacking in the former. It is very close to the concept of a stateless society where people are self-governed by the value of self-control, co-operation and discipline. It provides for a society where people get their reward on the basis of their merit and performance : a "यह सिद्धान्त मानव - मात्र को गुण, कर्म, योग्यता एवं प्रतिभा के अनुसार समानता की व्यवस्था करता है। The philosophy of samata aims at developing equity as a thought, a point of view in the mind of man. It is not anything to be exercised by a system of administration over the masses. Equity in thought, speech, attitude and action will ultimately make a society based on it: "समता दर्शन का लक्ष्य है कि समता विचार में हो, दृष्टि और वाणी में हो तथा समता आचरण के प्रत्येक चरण में हो ।" । This concept is concretised in terms of the steps against individual or party ownership of wealth and power, provision of equal opportunities to all, establishing a code of conduct to be strictly followed by all individuals. It says: "वर्तमान विषमता के मूल में सत्ता संपत्ति पर व्यक्तिगत या पाटीगत लिप्सा की प्रबलता ही विशेष रूप से कारणभूत है और यही कारण सच्ची मानवता के विकास में बाधक | समता ही इसका। स्थाई और सर्वजनहितकारी निराकरण है। -जो समता जीवन के अवसरों की प्राप्ति में होगी सत्ता व संपत्ति के अधिकार में होगी. वह व्यवहार के समूचे दृष्टिकोण में होगी ।" The Samata Darshan (the philosophy of equity) has been divided into the theoretical aspect, philosophy of life, self realization and divine revelation. It lays down a code of conduct consisting of twenty one points. These have been prepared keeping in view its adoption by average human beings. The philosophy preaches a feeling of all for one and one for all. The greatest emphasis is on a socially desireable way of life with money and power having a lower importance than dutifulness and consciousness. It also emphasizes the independent existence of all organisms and believes in equitable distribution of all the essentials of life. The philosophy of Equity maintains that the root of inequality lies in the heart of man in the form of desire. This desire has no limits. People are engaged in a ceaseless effort to accumulate more and more of material wealth. Mad in the pursuit of property and power they do all sorts of undesirable things. [Continue on Page No. 35] SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 33 दृढ आसन अपना करो, बाद करो सब काम । 474 99, 974069 BRT nelibrary org Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MEDITATION (Sadhwijl Akshayashrijl 'Aakha' M. A.) Meditation is the salvation during life time. It is the liberation. In other words we can say meditation is the concentration of the mind. Patanjaly said that the opposition of the mentality is yoga i.e. contact and the opposition of wishes is called as the penance in Jain Philosophy. We can see that these two are having very little difference. Yoga and penance both lead us towards the same aim. The tendency of mind, speech and body is called as yoga in Jain Philosophy. Patanjaly said that the connection of soul and supreme spirit is accomplishment. Which is called as yoga in Patanjaly's words is called as penance in Jain Philosophy and same is called as Samadhi in Buddha's Philosophy. Thus we can see that in Indian Philosophy the subject of meditation is nearly same. Because the technique of meditation is different, the definations are also different Knowing these all, in short we can say that the concentration of the mind is the meditation. And this defination of the meditation fits in every philosophy. Thus concentration of mind i.e. to flow in the same stream of the concentration putting an end to all the anxieties. Contentration of mind is in good tendencies as well as in bad tendencies. In Jain Philosophy both are called as the type of meditation. One of them is auspicious and another is pordentous (ominous). The concern tradition leading the mind towards auspicity is called as the auspicious meditation and concentration leading the mind towards opposite direction is called as anxious meditation. Many people complain that their mind does not concentrate. Whenever they want to do any religious work, their mind runs towards the home or shop or picture theatre. When they go to attend religious discourses they remember the song or story of the films. When they try to meditate, their mind goes to the shop for sailing, so they confuse how can we do devotion ? How can we meditate ? How can we learn or read or hear religious things ? Our mind does not co-operate to concentrate in these things. Mahavira knew this thing thousands of years ago, so he divided meditation into four groups. Out of which two are auspicious and two are portenous. When mind concentrates on bad things the meditation is the portenous one and when mind concentrates on good (spiritual) things then it is an auspicious one. If mind goes in portenous things during doing good activities and can stay in those bad things for a long time then it meant that mind has the habit of concentration but not in good things. It is connected very perfectly with those bad things. In picture hall most of the people succeed to concentrate their mind for three hours continuously. No ? their mind has habit of concentration in the shop for a long time. It will not wonder here or there. It means, mind has the practice of concentrating for a long time, no ? Then how is it said our mind does not concentrate ? Mind has the habit of concentration very nicely it concentrates for a long time. But it is necessary for us to bring it in auspicious things from the portenous ones and later we have to bring it in to the purity, from the auspicious. And this is the art of living, necessary. For the practice of concentration it is necessary to give attention on breath while meditating. What is the reason of it ? Breath is a natural process of the body There is no need of my unnatural effort. Breath is such a natural process for which there is no need to do any physical or mental effort, nor we have to spend any money for it. What we have to do is only to watch it, continuity of breath helps to meditate continuously. It is the most useful thing in meditation for its continuity. As breath is the life itself. Continity of it is the sign of the life and when it stops is the sign of the death. Very naturally one question arises in our mind what is the use of watching breath or to take help of breath in spiritual meditation ? What is the relation between breath and spirit? The answer is this, when we watch our breath it becomes slow and steady. Because the breath becomes slow and steady our thoughts also become slow and steady. This steadyness of thoughts help to concentrate the mind for a long time and this concentration leads our mind to the spirit. Since our mind has no habit of concentrating in good spiritual thing, it starts wandering any movement. So many people ask, "How can we concentrate our mind." I will still say these people that it is not necessary to control the mind forcibly. If one tries to control mind forcibly then it will become more rude. Don't make any effort to control it, what we have to do is only to watch it. Don't give it chance to go out of our eye sight. If we will does this, it will have no chance of wandering any where. It will understand that it's master is vigilant, now it is difficult to go any where. It will understand that it must SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 34 निष्कामी बन कर सदा, कार्य करो अविराम । जयन्तसेन सुभाव से, पावन निश्चल घाम ॥ www jainelibrary.org Jain Education international Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ have to live in service of his master for ever. And then our mind will be ready to serve his master, the spirit, as a honest poor servant. Now coming to the second question we will see why is it necessary to watch the body or to meditate on the body while spiritual meditation? I will like to say that spirit and body are having very close relation between them. Body is the house of refugee for the spirit. We must know about the house of refugee when we are going to know about the refugee. Lord Mahavira also told the same thing, "जे अज्झत्यं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अज्झत्यं जाणइ ॥” That is why it is very important for us to know about the body while knowing the spirit? Till now we have seen what is meditation? Why is it necessary? Now we are going to see [Contd. from Page No. 33] For the purification of souls, which are essentially equal, it lays down the necessity of regular meditation at a fixed time. The philosophy of Equity maintains that souls are similar and whatever difference is visible, it is due to the karma, the act of man. The spiritual equality can be reestablished by purging the souls. When the individual souls turn towards equity, the atmosphere in the family, society and the world should also be made equitable. If it is promoted in the world of polity, economy and societal spheres there will be two streams of equity, one flowing from inside to outside and the other flowing from outside to inside. "Whether this change comes through socialism or communism or implementation of any other ideology but the goal should be enhancement of human qualities and more and more equality in the world order", says Shanti Muni in Samata Kranti - Ek Parichaya *. [Contd. from Page No. 36] Thus, happiness is a thing of spiritual experience. It cannot be expressed in words, nor can it be demonstrated. Becoming indifferent to all outside lures and introvert, when one feels identified with one's knowing: soul experience is bliss-experience. But as soul experience cannot be attained without spiritual experience, happiness cannot as well be had without it. Deeply thinking, we find that the soul cannot have happiness from outside sources because it is itself constituted of happiness. It is full of happiness. It is happiness itself. How will we attain what is happiness itself? In fact, happiness is not something to attain, it is something to enjoy, to experience. Then why crowing for happiness? In crowing, there is no happiness. Crowing is misery. Similarly, desire of happiness is also SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION what are the advantages of it? First of all we can see that the meditation teaches the art of self realisation. In reality meditation itself is self realisation. Before this every one has the habit of watching other's defect to neglect his own. Second advantage of meditation is that one can convert adverse situation in to a favourable one. After meditation our eye sight becomes so pure that it cannot see adversity. It looks as if every thing is favourable to US. Third advantage is the end of ego. Mind comes on eye sight after meditation and we can see its all good and bad aculiones very clearly. Thus our own defects come in the way of our vision and we can understand where we are stand and at what stage of humanity. Our ego vanishes because of meditation. This end of ego brings courtesy and humanity. Appreciating the extent of equitability achieved in socialist societies it will be proper to assert that adding a spiritual aspect to the thought of equitable distribution of the resources of production will go a long way in decreasing the discontent growing in the 'European socialist countries. Freedom to independent thought associated with a sense of dutifulness to the fellow individuals expressed in the form of Gram Dharma, Nagar Dharma and Rashtra Dharma in Samata Darshan will provide a solution to the disturbances in socialist Europe. The smooth shift from a rigid, opaque system to a moderate transparent system in major socialist countries except Rumania has proved this to a great extent. To conclude it is the Samata Darshan alone which would be able to achieve a state of stable balance in the society and will be able to control the greed of man masquerading under the garb of a high standard of living. misery. Absence of desire alone is real happiness. What is happiness? Where does happiness lie? How shall we get it? All these questions have only one answer, one solution, and that is spiritual expeerience (atmanubhuti). The preliminary way to get it is to study religious literature and practice meditation with concentration. One should keep one's desires limite, as minimum as possible and should not feel otherwise if they are not satisfied. In other words, simple living and high thinking should be our motto. Then a right use of knowledge, wealth and power should be made. It would bring progress and happiness to all. Limited wants will enable us to serve fellow beings and we shall be able to practise. Live and let Live. We should always aspire for higher valves of life and deliverance that sages have sought. 35 कार्य कर्ता रखे नहीं, मान प्रतिष्ठा भूख । जयन्तसेन चाह तजो, फलता जीवन रूख finelibrary.org. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISCOVER HAPPINESS FROM WITHIN OYO 00 (Dr. A. L. Gandhi M.A., LL.B., Ph.D.) President Mahavir International, Jodhpur. Formerly Associate Professor, University of Jodhpur. Happiness has been cherished in all ages by all human beings, young and old, rich and poor, high and low. They have, in search of happiness, tried to satisfy their worldly wants and acquire wealth. But wants always multiply and it is beyond human energy and intelligence to concentrate on their satisfaction and fulfil them. Often an object of satisfaction and admiration, therefore, turns into dissastisfaction and disgust and as such hope and aspirations yield place to suffering and misery. Thus, there is little mental peace, tranquility and appreciation of higher values of life. Again a vast amount of human energy is wasted in frivolous and avoidable controversies. Consequently discipline cannot be cultivated over our body and mind and we cannot have light and blessedness. Even if fortune smiles on us for a time, it is liable to change. It is mostly shortlived. This brings us to the basic background of human psychology and culture. Man is always attracted towards pleasure and he keeps himself away from pain. In other words, one may say that every human being desires happiness and fears misery. Hence the question arises as to what happiness is, what its contents and means are and whether it is temporary or permanent. Can material satisfaction and sensual pleasures give real happiness ? If not, what is the true character of happiness ? Ordinarily, a common man considers material objects as means of happiness and hence he devotes' his maximum time in collecting them and thereby derives sensual pleasure. In the sub-conscious mind, most of the people hold the belief that sensual pleasures and material satisfaction add to happiness and their absence is the cause of agony and misery. Hence, the society and the state emphasise on more production, more consumption and proper distribution of material products of food, cloth, housing etc. Thereby they aim at freeing man from want. The question, therefore, remains to be answered whether life will be happy after every one has been provided Roti, Kapda and Makaan. Taking it for granted, we cannot but think why the people of most of the western countries, who are at the climax of their prosperity, do not enjoy happiness and feel disturbed and perturbed, afraid and tense with worries and agonies. Hence it is desirable to ponder deeply over the questionwhat happiness is in fact and where we can attain it. Without getting clear answer to this crucial question, one cannot obtain true happiness. Sometimes one feels that happiness does not reside in sense objects but happiness and misery are there in imagination only. One, who is living in a Pucca house, feels happy when he sees others living in Kuchha houses, but when he sees rich persons living in bungalows, he feels unhappy and the desire to compete with them develops in him and run in the race of earning more, sometimes by unfair and foul means too and this vicious race never ends. Most of us today fall in this category and waste the whole life in mental tension and disturbance. - Sometimes, our happiness is temporary. Wheri our desires are fulfilled, we feel happy but after sometime, when our new desires are not fulfilled, we feel unhappy. Is it not childish to feel happiness and unhappiness in this manner? We notice that our desires are numerous, they are unlimited and go on increasing and the result is that the cycle of happiness, misery, unhappiness, agony. tension, disturbance etc. is attached to life and it becomes the cause of various diseases, physical and mental. Thus happiness is a mirage only. In fact, there is no happiness in fulfilment of desires. True happiness lies in absence of desires, rather in their fulfilment. One can evidently feel a decrease in tension parallel to the decrease in desires. Thus, we can naturally infer that a complete absence of desires will make us perfectly happy. If it is said that fulfilling of a desire works it out and thus one becomes happy, it is also wrong. Absence of desires is possible not in their fulfilment, but in their not arising at all. Pleasure felt in sensual objects never brings true happiness. It is more or less a type of misery only. Being full of tension in the absence of fulfilment of desires is nothing but misery. Happiness must mean complete absence of tension which is not possible in sensual pleasure. Hence sensual pleasure or fulfilment of material desires gives temporary happiness which is not real because it is related with bodily activities. In fact, real happiness lies within the inner soul and self-satisfaction. It is said that contentment is real happiness because, in contentment, there is the end of desires. Hence those, who desire happiness, must be soul-inclined and they will achieve real pleasure and happiness. But those, who are inclined towards external objects, can never be truely happy. [Continue on Page No. 35] SHRIMAD JAYANTSENSURI ABHINANDAN GRANTH/ENGLISH SECTION 36 दिप जलाओ ज्ञान के, दूर करो अज्ञान । जयन्तसेन आत्म सुखद, जीवन अमृत पान । www.ainelibrary.org Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद जयन्तसेन सरि अभिनन्दन ग्रं जैनाचार्य श्रीमद् जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज श्री जयंती भाई देसाई (थराद) श्रीमद् जयन्तसेन सूरि अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशन समिति (कोषाध्यक्ष) Jain Education Internationa के जीवन के पचासवें वर्ष के उपलक्ष में कुमकुम पगलिए....... • आपके अनुयायियों की संख्या लाखों में हैं, पदविहार कर जिस ओर भी अग्रसर होते है आपका भव्य स्वागत व सौमय्या होता हैं, आपके प्रवचनों में हजारों की संख्या में श्रोता होते है। आपके आह्वान पर हजारों की जनमेदिनी एकत्र हो जाती है। आपके हर वाक्य को उपदेश माना जाता है, आज्ञा के रूप में धारण किया जाता है। आपकी आज्ञा को धर्म की परिभाषा तक के रूप में स्वीकृति मिलती है। आपके कुमकुम सने पगलिए प्राप्त करने हेतु श्रद्धालु लालायित रहते हैं। जो एक बार आपके दर्शन कर संपर्क में आता है, उसकी इच्छा बार-बार आपका सान्निध्य प्राप्त कर दर्शन करने की होती है। आपके माध्यम से जिसके हृदय में एक बार ज्योती प्रज्जवलन हो जाती है, वह आपको जीवन भर प्रकाश के पुंज के रूप में अधिग्रहित किए हुए रहता है। आपके चरणों की राजधूलि प्राप्त करने के लिए राजनेता से लेकर रंक तक उपक्रम करते हैं, आपके करकमल से मंत्रित वासक्षेप अपनी शिखा पर प्रक्षेपित करवा कर अपने जीवन में उर्जा व संकल्प शक्ति की अनुभूति प्राप्त करने हेतु कतारबद्ध मानव समुदाय प्रतीक्षारत रहता है। ग्रंथ नायक को वैराग्यशील आत्माओं ने परमोपकारी गुरू भगवंत के रूप में, बुजुर्गों ने अपने आत्म उत्थान के आराध्य के रूप में, युवाओं ने अपने हृदयतंत्री की झंकार के रूप में, प्रौढ़ों ने अपने हृदय शिरोमणि के रूप में, समाज ने अपने मुकुट की रत्नमार्ग के रूप में, परिचितों ने सच्चे कल्याणमित्र के रूप मे तथा एक बड़े प्रशंसक वर्ग ने बहुमुखी प्रतिभाओं के प्रकाशमान पुंज के रूप में ग्रहण किया है। हर आयु के भक्त की लालसा आपके दर्शन तथा वंदन करने की रहती है। आपके प्रति विश्वास की भावना से हर भक्त अनुप्रणित है। उसे उसके अनुसार सही जीवन दर्शन प्राप्त होता है। (सम्पादकीय 'वागर्थ' का अंश) e Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद जयन्त ___ के जीवन के पचासवे वर्ष के उपलक्ष में। मन जैनाचार्य श्रीमद् जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज / जैन नवयुवक SALA त.श्रीरा समाज संगठन,धार्मिक शिक्षा प्रचार समाजसुधार, आर्थिक विकास. Jain Education international For private & Personal use only www.jainelibong