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________________ पुनः सर्वेषां मङ्गलानां - मङ्गलकारकवस्तूनां हमारा सदा मंगल करें । अष्ट कर्मों के नाशक, अशरीरी, परम दधिदूर्वाऽक्षतचन्दननारिकेल पूर्णकलश स्वस्तिकदर्पण भद्रासनवर्धमान - निर्विकार सिद्ध परमेष्ठी हमारा सदा मंगल करें । जिन शासन की मत्स्ययुगल श्रीवत्स नन्द्यावर्तादीनां मध्ये प्रथमं मुख्य मंगलं मङ्गल सर्वतोमुखी उन्नति जिनके द्वारा होती है और जो स्वयं शास्त्रीय कारको भवति । यतोऽस्मिन् पठिते जप्ते स्मृते च सर्वाण्यपि मर्यादा के अनुसार चरित्र पालन करते हैं। ऐसे आचार्य परमेष्ठी मङ्गलानि भवन्तीत्यर्थः । तथा समस्त शास्त्रों के ज्ञाता और श्रेष्ठतम प्राध्यापक परम गुरु कि अर्थात् - यह पंच नमस्कार मन्त्र सभी प्रकार के पापों को उपाध्याय परमेष्ठी हम सब का सदा मंगल करें | समस्त मुनि संघ नष्ट करता है । अधमतम व्यक्ति भी इस मन्त्र के स्मरण मात्र से के ये सर्वोच्च अध्यापक होते हैं। रलत्रय (सम्यक् दर्शन - ज्ञानपवित्र हो जाता है । यह मन्त्र दधि, दुर्वा, अक्षत, चन्दन, नारियल, चारित्र्य) की निरन्तर आराधना में लीन परम अपरिग्रही साधु पूर्णकलश, स्वस्तिक, दर्पण, भद्रासन, वर्धमान, मस्त्ययुगल, श्रीवत्स, परमेष्ठी हम सब का मंगल करें। नन्द्यावर्त आदि मंगल वस्तुओं में सर्वोत्तम है । इसके स्मरण और किसी भी व्यक्ति या वस्तु की महानता उसमें निहित गुणों के जप से अनेक सिद्धियां प्राप्त होती हैं। कारण ही मानी जाती है । फिर ये गुण जब स्व से भी अधिक पर स्पष्ट है कि इस परम मंगलमय महामन्त्र में अद्भुत लोकोत्तर कल्याणकारी अधिक होते हैं तभी उनकी प्रतिष्ठा होती है । इस शक्ति है । यह विद्युत तरंग की भांति भक्तों के शारीरिक, एवं कसौटी पर पंच परमेष्ठी बिल्कुल खरे उतरते हैं । जन्म, मरण, आध्यात्मिक संकटों को तुरन्त नष्ट करता है और अपार विश्वास रोग, बुढ़ापा, भय, पराभव, दारिद्र्य एवं निर्बलता आदि इस और आत्मबल का अविरल संचार करता है । वास्तव में इस महामन्त्र के स्मरण एवं जाप से क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं । महामन्त्र के स्मरण, उच्चारण या जप से भक्त की अपनी णमोकार मन्त्र के माहास्य वर्णन को समझ लेने पर फिर और अपराजेय चैतन्य शक्ति जग जाती है। यह कंडलिनी (तेजस अधिक समझने की आवश्यकता नहीं रह जाती है - शरीर) के माध्यम से हमारी आत्मा के अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान अपवित्रः पवित्रो वा, सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा । और अनन्त वीर्य को शाणित एवं सक्रिय करता है । अर्थात् आत्म- ध्यायेत पंच नमस्कार, सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १॥ साक्षात्कार इससे होता है। अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा । पंच परमेष्ठियों की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए उनसे यःस्मरेत् परमात्मानं स बाह्याम्यन्तरः शुचिः ।। २ ।। जन-कल्याण की प्रार्थना इस प्रसिद्ध शार्दूल विक्रीडित छन्द में की अपराजित मन्त्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः । गयी है"अर्हन्तो भगवन्त इन्द्र महिताः सिद्धाश्च सिद्धिस्थिताः । मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ।। ३ ।। आचार्याजिनशासनोन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः ॥ विघ्नौधाः प्रलयं यान्ति शाकिनीभूतपन्नगाः | विषो निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ।। ४ ।। श्री सिद्धान्त सुपाठका मुनिवरा रत्लत्रयाराधकाः मंत्र संसार सारं त्रिजगदनुपमं सर्वपापारि मन्त्रं, पंचैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मङ्गलम्" जिनशासन में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, संसारोच्छेद मन्त्रं विषम विषहरं कर्म निर्मूल मन्त्रम् । इन पाँचों की परमेष्ठी संज्ञा है । ये परम पद में स्थित हैं अतः मन्त्र सिद्धि प्रदानं शिव सुख जननं केवलं ज्ञान मन्त्रम् । परमेष्ठी कहे जाते हैं | चार घातिया कर्मों का क्षय कर चकनेवाले मन्त्रं श्रीजैन मन्त्र जप जप जपितं जन्म निर्वाण मन्त्रम् ॥ ५ ॥ इन्द्रादि द्वारा पूज्य, केवल ज्ञानी, शरीरधारी होकर भी जो विदेहावस्था आकृष्टिं सुर - सम्पदां विदधते मुक्तिश्रियो वश्यतां, में रहते हैं, तीर्थङ्कर पद जिनके उदय में हैं, ऐसे अरिहन्त परमेष्ठी उच्चाटं विपदां चतुर्गतिभुवां विद्वेषमात्मैनसाम् । स्तम्भं दुर्गमनंप्रति प्रयततो मोहस्य सम्मोहनम्, आठ विभिन्न विधाओं की पुस्तकों का प्रकाशन | लगभग पायात् पंचनमक्रियाक्षरमयी साराधना देवता ।। ६ ।। दो सौ शोध व साहित्यिक कृतियों अर्हमित्यक्षरं ब्रह्मम् वाचकं परमेष्ठिनः का विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सिद्ध चक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् ।। ७ ।। प्रकाशन । अभी तक बारह अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । पुस्तकों की रचना । पच्चीस तस्मात् कारुण्य भावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ।। ८॥ शोधार्थियों का पी.एच.डी. हेतु ★★★ मार्गदर्शन । बत्तीस वर्ष तक वंदों पांचों परम गुरु सुर गुरु वन्दन अध्यापन कार्य। जास। सम्प्रति - मद्रास विघ्न हरन मंगल करन, पूरन परम विश्वविद्यालय की हिन्दी संकाय डॉ. रवींद्र कुमार जैन में य.जी.सी.की ओर से प्रिन्सीपल प्रकाश ॥ ९ ॥ एम.ए., पी.एच.डी., इन्वेस्टीगेटर। उक्त पद्यों का मथितार्थ यह है - शास्त्री, साहित्य रल, संपर्क : १३, शक्तिनगर, पंच नमस्कार महामन्त्र का काव्यतीर्थ, डी.लिट् स्मरण अथवा पाठ करनेवाला श्रद्धाल पल्लवरम, मद्रास-४३. भक्त पवित्र हो, अपवित्र हो, सोता श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (८१) जीना सबको प्रिय लगा, जीवन करो प्रदान । जयन्तसेन कुशल सदा, ऐसा राष्ट्र विधान ।। www.jainelibrary.org Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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