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________________ उसकी में आकर्षित किया था रजत जयंति उत्सव पर आयों का चूलगिरि के नाम से भावपुरा, केथली बम उसे डॉ. हीरालाल जैन एंव डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने वर्तमान बडोह पठारी में गडरमल का मंदिर भव्य है । मंदिर के बदनावर से पहचान की है । यहां पर कई जैन मंदिर थे जिनके सिरदल (ललाटबिम्ब) में चतुर्भुजी जैन यक्षिणी की भव्य कलात्मक ध्वंसावशेष सिरनी के बाड़े में पड़े हैं । यहां की एक अच्छुम्मादेवी प्रतिमा अंकित है जिसे पाश्चात्य कलाविदों ने खूब सराहा है। (घोड पर सवार) का अभिलेखयुक्त प्रतिमा जयसिहपुरा-जैन-मूर्तिया ग्यारसपुर के मालादेवी मंदिर में भगवान् शांतिनाथ की संग्रहालय में प्रदर्शित है। खड्गासना प्रतिमा बड़े मनोहारी रूप में अंकित है । यह प्रतिहारगंधावल जिसकी पहचान गंधर्वपुरी से की गई है, वह भी कालीन मूर्तिकला का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करती है । इसी प्रकार एक महत्त्वपूर्ण जैन मूर्तियों का स्थान है। प्राचीन काल में यह कलचुरि काल की प्रतिमाएँ त्रिपुरी में स्थित है। यहां अम्बिका यक्षी जैनों का प्रसिद्ध तीर्थ रहा होगा । यहां का जैन शिल्प परमारकालीन व पद्मावती की महत्त्वपूर्ण कलाकृतियाँ हैं जिनके अभ्यास से है । यहां पर महत्त्वपूर्ण प्रतिमा ऋषभदेव की है जो पद्मासना है, भारतीय जैनमूर्ति शिल्प का उदात्त स्वरूप ज्ञात हो सकता है । सौम्य चेहरे पर दिव्य अलौकिक भाव है । स्कंध स्पर्श करती तीन बाहुरीबंध से शांतिनाथ भगवान् की दिव्य प्रतिमा मिली है। यहां अलकावली सुशोभित है । यहां की चक्रेश्वरी यक्षिणी के कलात्मक अम्बिका व पद्मावती यक्षिणी की प्रतिमा भी कलात्मक पक्ष को पक्ष की ओर पंक्तियों के लेखक ने भारतीय कला समीक्षकों का उजागर करती है। ध्यान केंद्रीय संग्रहालय इंदौर के रजत जयंति उत्सव पर आयोजित लखनादीप, बारहा, बीना. कण्डलपर. कारीतलाई कोनोजी, संगोष्ठी में आकर्षित किया था । मूलतः प्रतिमा २० भुजाधारी थी ऐसे स्थान हैं जहां से १० वी ११ वीं शताब्दी का कलचुरिकालीन जिसके अधिकांश हाथ खंडित हो चुके हैं। शेष हाथों में फल, स्थापत्य एवं मूर्तिशिल्प प्राप्त होता है । यहां के नंदीश्वर द्वीप व वज्र, पाश व चक्र आयुध बचे हैं । देवी के शीर्ष भाग में पांच सहस्त्रकूट जिनालय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कलात्मक अंकन हैं। कोष्ठकों में पांच तीर्थंकर मूर्तियाँ स्थापित हैं । देवी के एक ओर छत्तीसगढ़ क्षेत्र में आरग, राजिम, सिरपुर, ऐसे स्थान हैं जहां वाहन गरुड़ प्रदर्शित है। देवी की शरीर यष्टि समभंग में प्रदर्शित है। यहां एक महावीर भगवान की प्रतिमा अपने अष्ट प्रतिहार्यों से पर जैनशिल्प अपनी चरम पराकाष्ठा पर पहुंचा विदित होता है। युक्त निर्मित की गई मिलती है । एक महत्त्वपूर्ण चतुर्विशंति पट्ट का अंत में यक्ष मूर्तियों की चर्चा करना आवश्यक है । ये भी स्थित है। महत्त्वपूर्ण यक्ष हैं - गोमुख, गोमेध, पार्श्व एवं मातंग | खजुराहो से १०-११वीं शती की गोमुख की द्विभुजी और चतुर्भुजी मूर्तियाँ बड़वानी की “बावनगजा" प्रतिमा अपने विशाल परन्तु मिलती हैं। इनका वाहन वृषभ स्पष्ट है । हाथों में पद्म, गदा व संतुलित शरीर निर्मिति के कारण विश्वभर में विख्यात है। यह मुद्रा या सिक्कों का थैला रहता है । गोमेध यक्ष की प्रतिमा एक सिद्ध क्षेत्र है जिसका उल्लेख जैन ग्रन्थों में चूलगिरि के नाम से भावपुरा, कैथुली व मालादेवी मंदिर में प्राप्त हुई हैं । यह तीर्थकर हुआ है । भगवान् आदिनाथ की प्रतिमा भव्य एवं दृष्टव्य है। नेमिनाथ का यक्ष है । और नेमिनाथ का वाहन गज रहता है। निर्माणकाल १२ वीं शताब्दी का है । यह मूर्ति शिल्प विधान की ललित मुद्रा में मालादेवी मंदिर में अंकित गोमेधयक्ष भव्य है। दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वकी है । मूर्ति देखकर ही धर्म श्रद्धालु उसके भव्य रूप को हृदयंगम एवं आत्मसात करते हैं । पहाड़ की तलहटी । खजुराहो में भी ऐसे रूप की श्रेष्ठ कलात्मक प्रतिमाएँ में १९ मंदिर हैं जिनमें मुनि सुव्रत नाथ की विक्रमसंवत् ११३१ अवस्थित हैं। की प्रतिमा अत्यन्त कलात्मक है। पार्श्वयक्ष २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का है | इसे सर्पफण के ऊन एक अन्य महत्त्वपर्ण जैनतीर्थ है जो मापदेश के छत्र से चतुर्भुजी बताया गया है इसका वाहन कर्म है। स्वतंत्र यक्ष पश्चिमी निमाड़ जिले में स्थित है। राजा बल्लालदेव ने इन मंदिरों की प्रतिमा भी मालादेवी मंदिर में मिलती हैं । मातंग यक्ष २४ वें को बनाया उनका अभिप्रेत शतक मंदिर का था परन्तु वे ९९ तीर्थंकर महावीर का है । खजुराहों में इसकी भव्यप्रतिमा विद्यमान मंदिर ही बना पाये और एक मंदिर की कमी के कारण ही वह 'ऊन' नाम से विख्यात हुआ | प्रसिद्ध विद्वान् प्रोफेसर के. डी. वाजपेयी के शब्दों में पुरातत्ववेत्ता राखालदास बेनर्जी के अनुसार मध्यभारत में "मध्यप्रदेश के अधिकांश जैन मंदिरों का निर्माण नागर शैली पर खजुराहो के पश्चात् ऊन ही एकमात्र ऐसा स्थान है जहां इतने हुआ । मूर्तियों में प्रतिमा लक्षणों की ओर विशेष ध्यान दिया गया मूत प्राचीन देवालय विद्यमान हैं | चौबाराडेरा, एवं ग्वालेविर मंदिर जैन है और इनके अभ्यास से संपूर्ण जैनकला के स्वरूप का आकलन स्थापत्य शिल्प की उत्कृष्टता का प्रकाशन करते हैं । विदिशा नगर हो सकता है।" की परिगणना प्राचीन नगरों में की जाती है । जैनधर्म की म मेरे विदेशी मित्र न्यूमायर इरविन (आस्ट्रिया-युरोप) ने जैनमूर्तियों महत्त्वपूर्ण प्रतिमाएँ यहां बेसनगर से मिली हैं । प्राचीन विदिशा को देखकर कहा था कि मध्यप्रदेश के जैनशिल्प में जहां जैनधर्म व नगर की सीमा में स्थित दुर्जनपुर नामक स्थान से तीन तीर्थंकर दर्शन जीवंत हुआ है वहीं श्रेष्ठ प्रतिमाएँ प्राप्त हुई है जिनपर महाराजाधिराज रामगुप्त के समय का कला का उदात्त स्वरूप भी प्रकट अभिलेख है । ये मध्यप्रदेश में अबतक प्राप्त तीर्थंकर प्रतिमाओं में हुआ है । ऐसे जैनशिल्प से मंडित सबसे प्राचीन एवं अत्यन्त कलात्मक हैं। ये प्रतिमाएँ तीर्थकर मध्यप्रदेश में जैनधर्म एक समय चंद्रप्रभ, पुष्पदंत की हैं । अन्य महत्त्वपूर्ण प्रतिमाएँ पार्श्वनाथ, प्रमुख धर्म था । शांतिनाथ, नेमिनाथ, ऋषभदेव की हैं तथा पद्मावती यक्षी तथा धरणेन्द्र यक्ष की प्रतिमाएँ श्रेष्ठ जैनकला का उदाहरण प्रस्तुत करती 'अनेकांत' 'मध्यप्रदेशकी प्राचीन जैन कला' लेख पृ. ११९ प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७९) मित्रता यहाँ कर सको, करो नीर सह दूध । जयन्तसेन यथा समय, ले वह अपनी सुध ।। • www.jainelibrary.org Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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