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________________ कलाकेंद्र (२) मालवा क्षेत्र के जैन कला केंद्र (३) मध्यक्षेत्र के मंदिर में मिलता है, परन्तु यहां का जैनशिल्प भी कला के विकासजैनकला केंद्र व (४) छत्तीसगढ़ क्षेत्र के जैन कला केंद्र | क्रम को सूचित करता है । यहां के तीन प्रसिद्ध जैनमंदिर हैं - प्रथम क्षेत्र के अंतरगत ग्वालियर प्रमुख है । प्राचीनकाल में (१) पार्श्वनाथ मंदिर (२) आदिनाथ मंदिर (३) घंटाई मंदिर । यह नगर गोपाद्रिपुर के नाम से जाना जाता था । ग्वाल्हेर. प्रथम मंदिर विशाल तथा मूर्तिशिल्प से समृद्ध है । ब्राह्मण मंदिरों ग्वालियर के रूप में धीरे धीरे जाना जाता रहा है । जैन-ग्रन्थों में की भांति इसमें भी गर्भगृह की बाहय दीवारोंपर अग्नि, ईशान, इसे गोपगिरि, गोपाचलगढ़ और गोवागिरि कहा गया है। यहां पर नैऋत्य, बृहस्पति, यम, कुबेर, आदि देवता प्रदर्शित हैं । बीच-बीच जैन कला के अवशेष ९०० ई. के बाद के काल के मिलते हैं। में सुरसुन्दरिकाएँ, मृदंगवादक, वेणुवादक, अंकित हैं। मंदिर का प्रबंधकोष एवं प्रभावक चरित के अनुसार गोपाचलगढ़ पर जैन निर्माण १० वीं शताब्दी का माना जाता है। मूर्ति एवं स्थापत्य का निर्माण किया गया था। कनिंघम को १८४४ मंदिर क्रमांक २ आदिनाथ का मंदिर है, इसका स्थापत्य एवं ई. में महत्त्वपूर्ण जैन मंदिर के ध्वंसावशेष मिले थे। इस मंदिर का आयोजना वामन मंदिर के समान है। डॉ. कृष्णदेव ने अपने लेख निर्माण ११०८ ई. में हुआ था यहां से पद्मासन और खड्गासन “दि टेम्पल्स ऑफ खजुराहो इन सेन्ट्रल इंडिया" (एशन्ट इंडिया, मुद्रा में अनेक तीर्थंकर प्रतिमाएँ मिली हैं । ग्वालियर किले के अंक १५ पृ. ५५) में इसका निर्माण काल ग्यारहवीं शती का संग्रहालय में यहां से प्राप्त अम्बिका यक्षी और गोमेद यक्ष प्रदर्शित उत्तरार्द्ध माना है । घंटाई मंदिर में भी जैनमूर्ति अवशेष सुरक्षित हैं जिनका निर्माणकाल आठवीं शताब्दी निर्धारित किया गया है। हैं । एक पार्श्वनाथ की भव्य पद्मासना प्रतिमा खजुराहो संग्रहालय इसी काल की तीन स्वतंत्र जैन प्रतिमाएँ क्रमशः आदिनाथ, में सुरक्षित कर प्रदर्शन हेतु रखी गई है। यहां पर दसवीं से १२ पार्श्वनाथ व महावीर की मिली हैं। यहां एक चौवीस तीर्थंकर वीं शती के मध्य निर्मित लगभग २५० प्रतिमाएँ कलादीर्घा में अंकित किये हुए पद भी अवस्थित हैं । नंदीश्वर द्वीप सहित प्रदर्शित हैं। आदिनाथ तीर्थंकर की एक महत्त्वपूर्ण कलात्मक प्रतिमा भी यहां उज्जैन की प्रतिष्ठा प्राचीन सप्तपुरियों में की गई है । यह प्रदर्शित है जो गोपाद्रिकर की जैनकला का वैभवकाल प्रदर्शित एक प्रसिद्ध सांस्कृतिक केंद्र था और जैन धर्म की दृष्टि से भी यह करती है। एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ के रूप में स्थापित था । यहां के जैन शिल्प सिंहौनिया (मुरैना जिले में स्थित) भी जैन संस्कृति का एक की पर्याप्त चर्चा पुस्तकों में प्रकाशित है। यह स्थान जैनतीर्थ के प्रमुख केंद्र रहा है यहां भगवान् शांतिनाथ का जिनालय है इसमें रूप में प्रसिद्ध था । उज्जयिनी की चर्चा जैनग्रन्थों में भगवान् शांतिनाथ की बलुए पत्थर से निर्मित १६ फिट ऊंची प्रतिमा है। महावीर की उपसर्ग भूमि के रूप में की गई है । हेमचंद्राचार्य, टीकमगढ़ जिले में स्थित पपौरा में १२ वीं शताब्दी का मंदिर प्रभावकचरित, कालकाचार्य कथानक आदि ग्रंथों व अनुश्रुतियों में अवस्थित है। इस मंदिर में भगवान् शांतिनाथ की काले पत्थर की जैन तीर्थ के रूप में इस नगरी को अघिष्ठित किया गया है। प्रतिमा है जिसके पादपीठ कर संवत् १२०२ अंकित है । आहार श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार यहां एक जैन मंदिर था, जिसमें नामक स्थान पर शांतिनाथ का एक अन्य महत्त्वपूर्ण मंदिर है इसमें जीवन्त स्वामी की प्रतिमा थी । यहां पर उज्जैन परिसर से एकत्र कन्थुनाथ की १० फुट ऊंची प्रतिमा अत्यन्त कलात्मक है जिसका जैन तीर्थंकर प्रतिमाएँ एकत्रित कर जयसिंहपुरा जैन पुरातत्व उत्कीर्णन संवत् १२३७ में किया गया था। संग्रहालय में संग्रहित हैं इनमें आदिनाथ, श्रेयांसनाथ, पार्श्वनाथ, खजुराहो में चंदेल कला का उत्कृष्ट रूप कहरिया महादेव कुंथुस्वामी एवं महावीर की पादपीठ लेखयुक्त प्रतिमाएँ संग्रहित हैं। कला की दृष्टि से ये प्रतिमाएँ महत्त्वपूर्ण हैं इनमें परमारकालीन जैन कला तथा स्थापत्य (तीनखण्डों मे) नई दिल्ली, संपा. अमलानंद कला सौष्ठव दृष्टव्य है । मांसल शरीर यदि पद्मासना या खड्गासना घोष, १९७५, पृ. ३७ है परन्तु यक्ष यक्षिणी व अष्ट प्रतिहार्यों में अंकित चंवरधारिणी, देव-मंडली, नृत्यांगना, अप्सराएँ जीवन के भौतिक रूप को अधिक जैन मूर्तिकला तथा जैन मांसल स्वरूप में व्यक्त करती हैं। इसीप्रकार विक्रम विश्वविद्यालय पुरावशेषों पर विशेष कार्य । उज्जैन के पुरातत्त्व संग्रहालय में झर, हासामपुरा (जैनतीथ) एवं जैन पत्रिकाओंमें शताधिक लेखों आष्टा व मक्सी से एकत्रित तीर्थंकर प्रतिमाएँ प्रदर्शित हैं जिनका का प्रकाशन | तीर्थंकर महावीर कलात्मक पक्ष अत्यन्त प्रखर है । ये प्रायः पादपीठ लेखयुक्त हैं व २५०० वें निर्वाण वर्ष के उपलक्ष इन्हें परमार नरेश भोज, उदयादित्य, नरवर्मन के काल में निर्मित में शाजापुर जिले (म. प्र.) के माना जाता है | "समरांगण सूत्रधार' एवं 'युक्तिकल्पतरु' नामक जैन अवशेषों का सर्वेक्षण पूर्ण प्रतिमा विज्ञान एवं स्थापत्य विषयक लिखे ग्रन्थों में बताये लक्षण, किया। विश्वविद्यालयीन संगोष्ठियों | आकार, प्रमाण, वाहन आदि इन में शोध-लेखों का वाचन। कई मूर्तियों में दृष्टि गोचर होते हैं । स्थानों पर नए जैन शिल्पों की उज्जयिनी के जैनशिल्प में स्पष्टतः खोज । जैन मूर्तियों का पादपीठ राष्ट्रकूट मूर्तिशिल्प पद्धति एवं - डॉ. सुरेन्द्रकुमार आर्यवाचन एवं प्रकाशन । परमार कला का शैलीगत एवं सम्प्रति - सचिव, विशाला शोध परिषद उजैन, प्रमुख वैदिक शिल्पगत सौन्दर्य दृष्टिगोचर होता नंदी सरस्वती शोध अभियान. संमर्क : २२, भक्तनगर, दशहरा मैदान, उज्जैन. प्राचीन काल में वर्द्धमानपुर के रूप में जिस स्थान की चर्चा हुई है है। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७८) जहाँ समर्पण भाव हैं, वहाँ न संशय लेश । जयन्तसेन स्वयं सफल, कार्य करत तज द्वेष ॥ www.jainerbrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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