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________________ जैन-कला की भारतीय-संस्कृति को अद्भुत देन (डॉ. सुरेन्द्रकुमार आर्य) भारतीय - संस्कृति में समन्वय का तत्त्व प्रमुख रहा है । इसमें वैदिक, बौद्ध, जैन, शाक्त, और गाणपत्य व शाक्त-मत का अभूतपूर्व समन्वय रहा है । इन विभिन्न धर्मों में सैद्धान्तिक भेद होते हुए भी सभी का लक्ष्य समान था । यह लक्ष्य भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र था कि धर्म और नीति समानरूप से एक दूसरे से जीवन्तता प्राप्त करें । नैतिक आदर्शों की स्थापना में मैत्री, बंधुत्व, अहिंसा, सत्याचरण सभी धर्मों ने स्वीकार किये । जैनकला में भी जीवन की तालबद्ध जीवंतता के दर्शन होते हैं । स्थापत्य मर्ति और चित्रकला के क्षेत्र में जैनधर्म ने भी सौंदर्यप्रधान दृष्टि को स्थापित किया । तीर्थंकर मंदिरों के निर्माण में जहाँ एक ओर जैनदर्शन का गूढ़अर्थ सामान्य-जन को स्पष्ट हुआ कि सामाजिक कल्मष से ऊंचे उठकर दिव्य भाव से अनुप्राणित होकर मन-वचन और कर्म की शुद्धता को अहिंसा भाव से मंडितकर क्रमशः ऊपर उठकर प्रवेश द्वार, मंडप, गर्भगृह और शिखर तक पहुंचना है तो मूर्तिशिल्प में अपने आराध्य का अलौकिक स्वरूप जानकर उसमें अपने को समाहित कर मोक्ष की प्राप्तिकर, चिर-सौन्दर्य का प्रत्यक्षीकरण करना है । भगवान् महावीर ने एक ऐसे व्यापक दर्शन का निर्माण किया जो समस्त जीवों के लिये मंगलप्रद था । आनंद कुमारस्वामी के लेखों व मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से भारतीय कलाविदों का ध्यान जैनकला की ओर १७८४ ई. से गया और आज तक सपूण भारत म६४० स आधक स्थाना पर जन स्थापत्य, मूति एव चित्र की प्राप्ति होकर ऊपर बीसों पुस्तकें हिन्दी व अंग्रेजी में लिखी गई हैं । प्रस्तुत लेख में मध्यप्रदेश में जैन कला के खोजे गये नये स्थान व अवशेषों का दिग्दर्शन कराया गया है साथ ही साथ जो पूर्व में शोधकार्य हुए हैं उनका भी आकलन कर यह स्वरूप देने का प्रयास किया गया है कि समग्र प्राचीन भारतीय कला में जैनकला व उसमें भी मध्यप्रदेश का शैलीगत क्या योगदान है ? मध्यप्रदेश में जैनकला का जन्म व विकास का सर्वेक्षण प्रस्तुत किया है । मध्यप्रदेश में जैनकला का इतिहास गौरवमय रहा है। इस क्षेत्र में चौथी से लेकर पंद्रहवीं शताब्दी तक जैन संस्कृति अनेक रूपों में पल्लवित-पुष्पित हुई । भारत के अन्य धर्मों की अपेक्षा जैन धर्म में समता, अहिंसा एवं सम्यग् संकल्प को विशेष बल दिया गया । इस धर्म में नैतिकता, वैचारिकता का उन्नयन तथा आत्म-संयम का अनोखा संगम है । जैनधर्म में महावीर के एवं अन्य तीर्थंकरों के तपो-निष्ठ व्यक्तित्व को आदर्श माना गया है । यही कारण है कि जैनधर्म के शाश्वत सिद्धान्त में आजतक कोई अंतर नहीं आया है। मध्यप्रदेश में जैनकला के प्रमुख केन्द्र :- दशपुर के लिए जैन ग्रन्थों में वर्णन मिलता है कि यहां प्रद्योत के समय काष्ठ निर्मित महावीर प्रतिमा की स्थापना व उस पर उत्सव मनाया गया था । इस प्रतिमा को “जीवन्त स्वामी" की प्रतिमा कहा गया है अर्थात् महावीर के जीवन काल में ही इस प्रतिमा के प्रति जनता में पर्याप्त आदर भाव था । परन्तु विद्वान् इस कथन से सहमत नहीं है क्योंकि जैन संदर्भ बहुत बाद के हैं । इस आधार पर मध्यप्रदेश में कोई भी जैन- प्रतिमा गुप्तकाल से प्राचीन नहीं मिलती है । गुप्तों के बाद मध्यप्रदेश में प्रतिहार, कलचुरि, चंदेल, परमार नरेशों ने राज्य किया और इन राजाओं के संरक्षण में जैनकला का विकास तीव्रता से हुआ । मध्यप्रदेश में जैन धर्म के केद्रों के रूप में सिद्धक्षेत्र, अतिशय क्षेत्र तथा कलाक्षेत्र हैं । जो अपनी जैन मूर्ति एवं स्थापत्यकला की दृष्टि से प्रसिद्ध हैं | जैन परंपरा में सिद्धक्षेत्र उन स्थानों को कहते हैं, जहां पर निर्ग्रन्थ मुनियों में आत्म साधना द्वारा तप करके केवल-ज्ञान प्राप्त किया । ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उन्होंने जीवों को कल्याण के उपदेश दिये फिर वहां से मुक्त हो गये - ये स्थान हैं - पावागिरि, चूलगिरि, द्रोणगिरि, सोनागिरि, देशान्दिगिरि व सिद्धवरकूट | अतिशय क्षेत्र - अतिशय क्षेत्र उन क्षेत्रों को कहा गया है जहां जैन मुनियों के साथ कुछ अतिशय (चमत्कारिक घटना) हुआ । मध्यप्रदेश में अतिशय क्षेत्रों की संख्या इस प्रकार परिगणित की जा सकती है - चंदेरी, थूबोन, बाहुरिबंद, सिंहोनिया, पनागर, पटनागंज, बंधा. आहार, गोलाकोट पचराई, पपौरा, कण्डलपर कोनी, तालनपर. मक्सी पार्श्वनाथ बनैड़िया, बीना-बारहा, बूढ़ी चंदेरी, खन्दार, हस्तादौन इनमें से अनेक स्थानों पर जैन पुरातन संपदा बिखरी पड़ी है । प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक ने जैनतीर्थ मगसी पार्श्वनाथ के अवशेषों का विस्तृत अभ्यास कर मक्सीतीर्थ की पुरातात्विक मूर्तियों एवं उनका 'कलागत पक्ष' विषय पर पुस्तिका प्रकाशित की है जो प्रत्येक दर्शनार्थी को मक्सीतीर्थ पर निःशुल्क वितरित की जाती है। बनेडिया जी में जैन तीर्थंकर प्रतिमाएँ सुरक्षित हैं जो ९ वीं से १३ वीं शताब्दी के काल में निर्मित हुई थी। सभी प्रतिमाएँ कला के उन्नत स्वरूप को व्यक्त करती हैं। कलाक्षेत्र - मध्यप्रदेश में अनेक ऐसे स्थान भी हैं जहां ब्राह्मण शिल्प के साथ जैन शिल्प भी निर्मित हुआ - ऐसे स्थानों पर जैन मूर्ति- कला का विकास एवं उनका चरमोत्कर्ष भी देखा जा सकता है | ग्वालियर, अजयगढ़, त्रिपुरी, उदयपुर, बड़ोद, पठारी, विदिशा, मंदसौर, उज्जैन, खजुराहो, गुना, ईसागढ़, अंदार, गंधावल, बड़वानी, पचोर, सुंदरली, आष्टा, शाजापुर, शुजालपुर, वाण्याखेड़ी व सांवेर जिसे क्षमणेर नगरे कहा गया है आदि स्थानों पर जैन मूर्तियाँ, मंदिर व चित्र मिलते हैं। इन स्थानों पर प्राप्त जैन मूर्तिशिल्प के आधार पर एक विभाजन कालक्रमानुसार भी किया जा सकता है जो इस प्रकार होगा - (१) गुप्तकालीन शिल्प (२) मध्यकालीन (६००-९०० ई.) एवं (३) उत्तरकालीन (९०० ते १५०० ई.) शिल्प | मध्यप्रदेश के प्रमुख कलाकेंद्रों को भी क्षेत्र के आधार पर,विभाजित किया जा सकता है - (१) गोपादि-विध्यक्षेत्र के जैन श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७७) विद्यार्थी को चाहिए, कम निद्रा आहार । जयन्तसेन मानस शुचि, रक्खो विनय विचार ।। www.jainelibrary.org, Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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