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________________ पुनः इसके ही मास लघु, मास गुरु, चातुर्मास लघु, चातुर्मास गुरु, क्या तात्पर्य है यह न तो मूलग्रन्थ से और न उसकी टीका से ही षण्मास लघु, षण्मास गुरु आदि भेद किये गये हैं मास - चातुर्मास स्पष्ट होता है । यह अन्तिम प्रायश्चित्त है, अतः कठोरतम होना आदि का अर्थ शाब्दिक दृष्टि से स्पष्ट नहीं है । इनके तात्पर्य को चाहिए इसका अर्थ यह माना जा सकता है कि ऐसे अपराधी लेकर हमने आगे स्वतंत्र रूप से चर्चा की है। व्यक्ति जो श्रद्धा से रहित मानकर संघ से पूर्णतया बहिष्कृत कर स्थानांग सूत्र में प्रायश्चित्त के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख दिया जाय किन्तु टीकाकार वसुनन्दी ने श्रद्धान का अर्थ तत्त्वरुचि हुआ है, उसके तृतीय स्थान में ज्ञान प्रायश्चित्त, दर्शन प्रायश्चित्त एवं क्रोधादि त्याग किया है । इन प्रायश्चित्तों में जो क्रम है वह और चारित्र प्रायश्चित्त ऐसे तीन प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ है । सहजता से कठोरता की ओर है अतःअन्त में श्रद्धा नामक सहज इसी तृतीय स्थान में अन्यत्र आलोचना, प्रतिक्रमण और तदुभय ऐसे प्रायश्चित्त को रखने का कोई औचित्य नहीं है । वस्तुतः जिनप्रायश्चित्त तीन रूपों का भी उल्लेख हुआ है । इसी आगम ग्रन्थ प्रवचन के प्रति श्रद्धा का समाप्त हो जाना ही वह अपराध है, में अन्यत्र छः, आठ, और नौ प्रायश्चित्तों का भी उल्लेख हुआ है, जिसका दण्ड मात्र बहिष्कार है अतः ऐसे श्रमण की श्रद्धा जब तक इनमें सभी प्रायश्चित्तों का विवरण दिया गया है जिनमें ये समाहित सम्यक् नहीं है तब तक उसे संघ से बहिष्कृत रखना ही इस हो जाते हैं। अतः हम उनकी स्वतंत्र रूप से चर्चा न करके उसमें प्रायश्चित्त कातालय उपलब्ध दशविध प्रायश्चित्त की चर्चा करेंगे - ममा प्रायश्चित्त का सर्वप्रथम रूप वह है जहाँ साधक को स्वयं ही स्थानांग, जीतकल्प और धवला में प्रायश्चित्त के निम्न दस अपने मन में अपराधबोध के परिणाम स्वरूप आत्मग्लानि का भाव प्रकार माने गये हैं - उत्पन्न हो । वस्तुतः आलोचना का अर्थ है अपराध को अपराध के रूप में स्वीकार कर लेना | आलोचन शब्द का अर्थ देखना, (१) आलोचना (२) प्रतिक्रमण (३) उभय (४) विवेक (५) अपराध को अपराध के रूप में देख लेना ही आलोचना है । व्युत्सर्ग (६) तप (७) छेद (८) मूल (९) अनवस्थाप्य और (१०) सामान्यतया वे अपराध जो हमारे दैनंदिन व्यवहार में असावधानी पारांचिक ।' यदि हम इन दस नामों की तुलना यापनीय ग्रन्थ (प्रमाद) या बाध्यतावश घटित होते हैं, आलोचना नामक प्रायश्चित्त मलाचार और तत्त्वार्थसूत्र से करते है तो मूलाचार में प्रथम आठ के विषय माने गये हैं। अपने द्वारा हए अपराध या नियम भंग को नाम तो जीतकल्प के समान ही है किन्तु जीतकल्प के अनवस्थाप्य आचार्य या गीतार्थमनि के समक्ष निवेदित करके उनसे उसके के स्थान पर परिहार और पाराचिक के स्थान पर श्रद्धान का प्रायश्चित्त की याचना करना ही आलोचना है। सामान्यतया उल्लेख हआ है । मलाचार श्वेताम्बर परम्परा से भिन्न होकर तप आलोचना करते समय यह विचार आवश्यक है कि अपराध क्यों और परिहार को अलग-अलग मानता है | तत्त्वार्थसूत्र में तो इनकी हुआ? उसका प्रेरक तत्त्व क्या है ? संख्या नौ मानी गयी है । इसमें सात नाम तो जीतकल्प के समान ही हैं किन्तु मूल के स्थान पर उपस्थापन और अनवस्थाप्य के स्थान अपराध क्यों और कैसे? पर परिहार का उल्लेख हुआ है। पारांञ्चिक का उल्लेख तत्त्वार्थ में मत अपराध या व्रतभंग क्यों और किन परिस्थितियों में किया नहीं है अतः वह नौ प्रायश्चित्त ही मानता है। श्वेताम्बर आचार्यों जाता है, इसका विवेचन हमें स्थानांग सूत्र के दशम स्थान में ने तप और परिहार को एक माना है, किन्तु तत्त्वार्थ में तप और मिलता है, उसमें दस प्रकार की प्रतिसेवना का उल्लेख हुआ है। परिहार दोनों स्वतंत्र प्रायश्चित्त माने गये हैं, अतः तत्त्वार्थ में भी प्रतिसेवना का तात्पर्य है गृहित व्रत के नियमों के विरुद्ध आचरण परिहार का अर्थ अनवस्थाप्य ही हो सकता है । इस प्रकार तत्त्वार्थ करना अथवा भोजन आदि ग्रहण करना । वस्तुतः प्रतिसेवना का और मूलाचार दोनों तप और परिहार को अलग-अलग मानते हैं सामान्य अर्थ व्रत या नियम के प्रतिकूल आचरण करना ही है । और दोनों में उसका अर्थ अनवस्थाप्य के समान है । यद्यपि यह व्रतभंग क्यों कब और किन परिस्थितियों में होता है इसे स्पष्ट दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ धवलाई में स्थानांग और जीतकल्प के करने हेतु ही स्थानाङ्ग में निम्न दस प्रतिसेवनाओं का उल्लेख है - समान ही १० प्रायश्चित्तों का वर्णन है और उनके नाम भी वे ही १ - दर्प-प्रतिसेवना - आवेश अथवा अहंकार के वशीभूत है । इस प्रकार जहाँ धवला श्वेताम्बर परम्परा से संगति रखती है, होकर जो हिंसा आदि करके वतभंग किया जाता है वह दर्प वहाँ मलाचार और तत्त्वार्थ कुछ भिन्न है । सम्भवतः ऐसा प्रतीत प्रतिसेवना है। होता है कि जीतकल्प सूत्र के उल्लेखानुसार जब अनवस्थाप्य और पारांञ्चिक इन दोनों प्रायश्चित्तों को भद्रबाहु के बाद व्यवच्छिन्न २- प्रमाद प्रतिसेवना - प्रमाद एवं कषायों के वशीभूत मान लिया गया या दूसरे शब्दों में इन प्रायश्चित्तों का प्रचलन बन्द होकर जो व्रत भंग किया जाता है, वह प्रमाद प्रतिसेवना है। कर दिया गया तो इन अन्तिम दो प्रायश्चित्तों के स्वतंत्र स्वरूप को ३ - अनाभोग प्रतिसेवना - लेकर मतभेद उत्पन्न हो गया और इनके नामों में अन्तर हो गया। स्मृति या सजगता के अभाव में मूलाचार में अन्त में परिहार का जो उल्लेख है वह अनवस्थाप्य से अभक्ष्य या नियम विरुद्ध वस्तु का कोई भिन्न नहीं कहा जा सकता, किन्तु उसमें श्रद्धान प्रायश्चित्त का ग्रहण करना अनाभोग प्रतिसेवना स्थानांग ३/४७० २ वही ३/४४८, वही १०/७३ (अ) स्थानांग १०/७३ (ब) जीतकल्पसूत्र (स) धवला ९३/५, २६/६३/१ मूलाचार ५/१६५ ५ तत्त्वार्थ ९/२२ जीतकल्प भाष्य २५८६, जीतकल्प १०२ स्थानांग १०/६९ स्थानाङ्ग १०/७१ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (४७) विभल हृदय आंगन करो, छबी बने समीचीन : जयन्तसेन समान मन, साधक पंथ प्रवीण ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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