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________________ TIS है ि "जैनधर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड व्यवस्था" (डा. श्री सागरमल जैन) प्रायश्चित्त और दण्ड जैन आचार्यों ने न केवल आचार के विधिनिषेधों का प्रतिपादन किया अपितु उनके भंग होने पर प्राश्चित्त एवं दण्ड की व्यवस्था भी की। सामान्यतया जैन आगम ग्रन्थों में नियम भंग या अपराध के लिए प्रायश्चित्त का ही विधान किया गया और दण्ड शब्द का प्रयोग सामान्यतया 'हिंसा' के अर्थ में हुआ है । अतः जिसे हम दण्ड व्यवस्था के रूप में जानते हैं, वह जैन परम्परा में प्रायश्चित्त व्यवस्था के रूप में ही मान्य है। सामान्यतया दण्ड और प्रायश्चित्त पर्यायवाची माने जाते हैं, किन्तु दोनों में सिद्धान्ततः अन्तर है। प्रायश्चित्त में अपराध-बोध की भावना से व्यक्ति में, स्वतः ही उसके परिमार्जन की अन्तः प्रेरणा उत्पन्न होती है । प्रायश्चित्त अन्तः प्रेरणा से स्वयं ही किया जाता है, जबकि दण्ड अन्य व्यक्ति के द्वारा दिया जाता है। जैन परम्परा अपनी आध्यात्मिक प्रकृति के कारण साधनात्मक जीवन में प्रायश्चित्त का ही विधान करती है । यद्यपि जब साधक अन्तःप्रेरित होकर आत्मशुद्धि के हेतु स्वयं प्रायश्चित की याचना नहीं करता है तो संघ व्यवस्था के लिए उसे दण्ड देना होता है। यद्यपि हमें यह स्मरण रखना होगा कि दण्ड देने से साधक की आत्मशुद्धि नहीं होती । चाहे सामाजिक या संघ व्यवस्था के लिए दण्ड आवश्यक हो किन्तु जबतक उसे अन्तःप्रेरणा से स्वीकृत नहीं किया जाता तब तक वह आत्मविशुद्धि करने में सहायक नहीं होता। जैन प्रायश्वित्त व्यवस्था में परिहार, छेद, मूल, पारंभिक आदि बाहयतः तो दण्डरूप है, किन्तु उनकी आत्मविशुद्धि की क्षमता को लक्ष्य में रखकर ही उन्हें दण्ड के स्थान पर प्रायश्चित्त ही कहा गया है। प्रायश्चित्त शब्द का अर्थ - प्रायश्चित्त शब्द की आगमिक व्याख्या साहित्य में विभिन्न परिभाषाएं प्रस्तुत की गई हैं। जीतकल्पभाष्य के अनुसार जो पाप को छेदन करता है, वह प्रायश्चित्त है ।' यहाँ 'प्रायः' शब्द को पाप के रूप में तथा 'चित्त' शब्द को शोधक के रूप में परिभाषित किया गया है । हरिभद्र ने पञ्चाशक में प्रायश्चित्त के दोनों ही अर्थ मान्य किये हैं। वे मूलतः 'पायच्छित' शब्द की व्याख्या उसके प्राकृत रूप के आधार पर ही करते हैं, वे लिखते हैं कि जिसके द्वारा पाप का छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त है । इसके साथ ही वे दूसरे अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जिसके द्वारा पाप से चित्त का शोधन होता है, वह प्रायश्चित है । प्रायश्चित शब्द के संस्कृत रूप के आधार पर 'प्रायः' शब्द के प्रकर्ष के अर्थ में लेते हुए यह भी कहा गया है कि जिसके द्वारा चित्त प्रकर्षता अर्थात् जितकल्प भाष्य ५ पंचासक (हरिभद्र) १६ / ३ ( प्रायश्चितपञ्चाशक) वही Y अभिधान राजेन्द्र कोश श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education International उच्चता को प्राप्त होता है वह प्रायश्चित्त है । दिगम्बर टीकाकारों ने 'प्राय' शब्द का अर्थ अपराध और चित्त शब्द का अर्थ शोधन करके यह माना है कि जिस क्रिया के करने से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित है ।" एक अन्य व्याख्या में 'प्रायः' शब्द का अर्थ लोक भी किया गया है । इस दृष्टि से यह माना गया है कि जिस कर्म से साधुजनों का चित्त प्रसन्न होता है वह प्रायश्चित्त है ।" मूलाचार में कहा गया है कि प्रायश्चित्त वह तप है जिसके द्वारा पूर्वकृत पापों की विशुद्धि की जाती है। इसी ग्रन्थ में प्रायश्चित्त के पर्यायवाची कर्मों का क्षपण, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धावन, पुन्छण अर्थात् निराकरण, उत्क्षेपण एवं छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त है ।" प्रायश्चित्त के प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में विविध प्रायश्चितों का उल्लेख स्थानांग, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, जितकल्प आदि ग्रन्थों में मिलता है । किन्तु जहाँ समवायांग में प्रायश्चित्तों के प्रकारों का मात्र नामोल्लेख है वहाँ निशीथ आदि ग्रन्थों में प्रायश्चित्त योग्य अपराधों का भी विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। यद्यपि प्रायश्चित्त सम्बन्धी विविध सिद्धान्तों और समस्याओं का स्पष्टतापूर्वक विवेचन बृहत्कल्पभाष्य, निशीथभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णी, जीतकल्पभाष्य एवं जीतकल्पचूर्णी में उपलब्ध होता है । जहाँ तक प्रायश्चित्त के प्रकारों का प्रश्न है, इन प्रकारों का उल्लेख श्वेताम्बर आगम स्थानांग, बृहत्कल्प, निशीय और जीतकल्प में, यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में दिगम्बर ग्रन्थ जयधवला में तथा तत्वार्थसूत्र एवं उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं में मिलता है । बृहत्कल्प में प्रायश्चित्त योग्य अपराधों को दो भागों में बाँटा गया है उद्घातिक और अनुद्घातिक । जो प्रतिसेवना या आचरण लघुप्रायश्चित्त से सरलतापूर्वक शुद्ध की जा सकती है उसे उद्घातिक कहते हैं। इसके विपरीत जो प्रतिसेवना या आचार गुरुप्रायश्चित्त से कठिनता पूर्वक शुद्ध किया जा सके उसे अनुद्धातिक कहते है । उदाहरणस्वरूप हस्तमैथुन, समलिंगी मैथुन अथवा स्त्री मैथुन का सेवन आदि ऐसे अपराध हैं जो अनुद्घातिक अपराधों की श्रेणी में आते हैं। ६ ८ निशीथ में प्रायश्चित्त का वर्गीकरण लघु और गुरु रूप में किया गया है ।" उसमें लघु से तात्पर्य मृदु और गुरु से तात्पर्य कठोर प्रायश्चित्त माना गया है। ९ - SIP EYE तत्त्वार्थवार्तिक ९ / २२/१ पृ. ६२० वही ५ मूलाचार ५/१६४ वही ५/१६६ कप्पत्तं (मुनि कन्हैयालालजी) पृ. ९६ निशीथ (४६) For Private & Personal Use Only For yasin 版 重師 400 अपने मुंह अपनी कभी, करो नहीं तारीफ । जयन्तसेन असभ्य नर, खोले अपनी जीभ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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