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________________ बने, इसमें किसे विरोध हो सकता है ?' किसी को नहीं। यि दूसरे, मीमांसक आचार्य शबर स्वामी ने लिखा है कि वेदभूत, वर्तमान और भावी तथा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों का ज्ञान करने में समर्थ है। किन्त परुष राग देष और अज्ञान से दूषित होते हैं । अतः आत्मा में पूर्ण ज्ञान और वीतरागत्व का विकास सम्भव नहीं जिससे वह अतीन्द्रियदर्शी और प्रामाणिक बन सके । इस तरह धर्मज्ञ के अभाव से सर्वज्ञत्व का अभाव भी सिद्ध हो जाता है। तीसरे, कुमारिल भट्ट का भी कहना है कि शब्द में दोषों की उत्पत्ति वक्ता के अधीन है किन्तु शब्द में निर्दोषता दो प्रकार से आती है एक तो गुणवान् वक्ता के होने से और दूसरे वक्ता के अभाव से क्योंकि वक्ता के अभाव में आश्रय के बिना दोष असम्भव है । इस प्रकार शब्द की प्रामाणिकता का आधार निर्दोषता है और वेद में जो निर्दोषता और प्रामाणिकता है वह उसके अपौरुषेय होने से है । निर्दोषता और ज्ञान का पूर्ण विकास न मानने में कारण यह भी है कि विकास की भी एक सीमा होती है । विकास सीमित ही हो सकता है, असीमित नहीं क्योंकि कोई व्यक्ति आकाश में उछलने के अभ्यास द्वारा १०-२० हाथ ही तो उछल सकता है न कि वह उछलकर एक योजन ऊंचा चला जावेगा/ अतएव मीमांसकों ने इसतरह वेद को त्रिकालदर्शी बतलाकर सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध किया है। वेदान्ती एकमात्र ब्रह्म को सच्चिदानन्दमय, चिदात्मक, व्यापक और सर्वज्ञ मानते हैं । शांकरभाष्य में भी बतलाया गया है कि ब्रह्म नित्य, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, नित्यतृप्त, नित्यशुद्ध, नित्यबुद्ध, नित्यमुक्त स्वभावी, विज्ञान स्वरूप एवं आनन्दमय है । इसतरह ब्रह्म के ज्ञानात्मक होने से उसमें अनन्तज्ञान सदैव एवं सर्वत्र बना रहता है । अतएव यहां ब्रह्म ही सर्वज्ञ है। ह। अतएव यहा ब्रह्म हा स बौद्धदर्शन में सर्वज्ञत्व : बौद्धदर्शन में भगवान बुद्ध को ही सर्वज्ञ के रूप में स्वीकार किया गया है । मिलिन्द प्रश्न में उनके शिष्यों में उनकी सर्वज्ञता की सिद्धि करते हुए बतलाया गया है कि जैसे चक्रवर्ती राजा स्मरणमात्र से चक्र, रल आदि उपस्थित कर सकता है वैसे ही भगवान् बुद्ध जिस किसी बात अथवा तत्त्व को जानना चाहते हैं वे उसे ध्यान करते ही जान लेते हैं । धर्मकीर्ति के विचार में संसार की समस्त बातों का ज्ञान होने से अथवा कोई वस्तु कितनी पास या दूर है, इसके ज्ञानमात्र से ही सर्वज्ञ नहीं हो जाता । यदि ऐसा न होता तो दूरदर्शी गृद्धोंकी भी उपासना करनी चाहिए। परन्तु धर्म से सम्बन्धित सभी आवश्यक बातों के ज्ञान का ही (हमे) विचार करना अभीष्ट है । अतः हेयउपादेय तत्त्वों का ज्ञाता ही प्रभाव है, सब पदार्थों का ज्ञाता नहीं । प्रमाणवार्तिक के भाष्यकार प्रज्ञाकर गुप्त ने बुद्ध को सर्वज्ञ सिद्ध करते हुए कहा है कि बुद्ध की तरह अन्य योगी भी सर्वज्ञ हो सकते हैं कारण कि जब आत्मराग से रहित हो जाती है तब उसमें सब पदार्थों को जानने की सामर्थ्य आ ही जाती हैं । शान्तरक्षित ने भी सर्वज्ञत्व की सिद्धि करते हुए कहा है कि सर्वज्ञ के सद्भाव का कोई भी बाधक प्रमाण नहीं है बल्कि उसके साधक प्रमाण ही अधिक मिलते हैं । अतः सर्वज्ञत्वपर विवाद करना व्यर्थ है । इस प्रकार प्रायः सभी दर्शन किसी न किसी रूप में सर्वज्ञत्व को स्वीकार करते हैं। इस धर्मज्ञत्वनिषेधश्च केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते । तत्त्वसंग्रह श्लो. ३१२८ चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सक्ष्म यवहितं विप्रकट- मित्येवं जातीयकमर्थमवगमयितुमलम् शाबरभाष्य १/१/२ शब्दे दोषाद्भस्तावद् वक्त्रधीन इतिस्थितम । तद्भावः क्वचित्तावत् गुणवद्वक्तृतत्त्वतः ।। तद्गणैरपकृथनां शब्दे संक्रान्त्यसम्भवात् । यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषाः निराश्रयाः ।। मीमांसा श्लोकवार्तिक चोदनासूत्र ६२-६३. आचार्य (साहित्य, जैन दर्शन), साहित्यरल, काव्यतीर्थ, अभिधर्म देशना प्रकाशित । 'लघु बौद्ध पारिभाषिक शब्द कोश तथा जैन दर्शन में नयवाद : एक अध्ययन प्रकाश्य । लगभग पचास शोध निबंधोंका अभी तक प्रकाशन । दो ग्रंथों के लिए लेखनरत सम्प्रति - रीडर, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या संस्थान, कुरुक्षेत्र विश्व - विद्यालय, कुरुक्षेत्र, हरियाणा. ४ दे. ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य, सू. ५, पृ.११ जामशाहामा दे. मिलिन्द प्रश्न (हिन्दी) पृ. १३७ दूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । प्रमाणं दूरदर्शी चे तद् गृध्रानुपास्महे ।। प्रमाणवार्तिक १/३५ तस्मादनुष्ठेयगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । वही १/३३ हेयोपादेतेय तत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्ये न तु सर्वस्य वेदकः ।। वही १/३४ ततोऽस्य वीतरागत्वे सर्वार्थज्ञानसंम्भवः । समाहितस्य सकलं चकास्तीति विनिश्चितम् ।। सर्वेषांवीतरागाणामेंतत् कस्मान्न विद्यते । रागादिक्षयमात्रं हि || पुनः कालान्तरं तेषां सर्वज्ञ गुणरागिणाम् । अल्पयलेन सर्वज्ञस्य सिद्धिवारिता || प्रमाणवार्तिकालंकार, पृ. ३२१ निवृत्तावस्य भावोऽपि दृष्टेस्तेनापि संशया । तस्मात् सर्वज्ञसद्भाव बाधकं नास्ति किञ्चन ॥ ततश्च बाधकाभावे साधने सति च स्फुटे । कस्माद् विप्रतिपद्यन्ते सर्वज्ञे जड़बुद्धयः || तत्त्वसंग्रह श्लो. ३३.इ.३३०१. डा. धर्मचन्द्र जैन एम.ए., पी.एच.डी. (संस्कृत एवं पाली) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (२१) खटपट खार व खिंझना, खोटी बात खुंखार | जयन्तसेन प्रगति रहे, छोडे पांच खकार | www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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