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________________ कांतवाद के आग्रह पूर्व वादी रूप में मात्रा का स्वयं नियमन करना सीखें, उनके प्रति अपने ममत्व को होते हैं । सत्य का सम्पूर्ण साक्षात्कार सामान्य व्यक्ति द्वारा एकदम कम करना सीखें। सम्भव नहीं हो पाता । अपनी सीमित दृष्टि से देखने पर हमें वस्तु समाज में इच्छाओं को संयमित करने की भावना का विकास के एकांगी गुण-धर्म का ज्ञान होता है । विभिन्न कोनों से देखने पर आवश्यक है । इसके बिना मनुष्य को शान्ति प्राप्त नहीं हो एक ही वस्तु हमें भिन्न प्रकार की लग सकती है तथा एक स्थान से सकती । 'परकल्याण' की चेतना व्यक्ति की इच्छाओं पर लगाम मायादेखने पर भी विभिन्न दृष्टियों की प्रतीतियां भिन्न हो सकती हैं। लगाती है तथा उसमें त्याग करने की प्रवृत्ति एवं अपरिग्रही भावना 'स्याद्वाद' अनेकांतवाद का समर्थक उपादान है; तत्वों को का विकास करती है। व्यक्त करसकने की प्रणाली है; सत्य कथन की वैज्ञानिक पद्धति परिग्रह की वृत्ति मनुष्य को अनुदार बनाती है उसकी ह। मानवीयता को नष्ट करती है । उसकी लालसा बढ़ती जाती है। पर मिथ्या ज्ञान के बन्धनों को दूर करके स्याद्वाद ने ऐतिहासिक धन लिप्सा एवं अर्थ लोलुपता ही उसका जीवन-लक्ष्य हो जाता है। भूमिका का निर्वाह किया, एकांतिक चिन्तन की सीमा बतलायी । उसकी जिन्दगी पाशविक शोषणता के रास्ते पर बढ़ना आरम्भ कर आग्रहों के दायरे में सिमटे हुए मानव की अन्धेरी कोठरी को देती है । इसके दुष्परिणामों को भगवान महावीर ने पहचाना था। अनेकांतवाद के अनन्त लक्षण सम्पन्न सत्य-प्रकाश से आलोकित इसी कारण उन्होंने कहा कि जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा करता किया जा सकता है । आग्रह एवं असहिष्णुता के बंद दरवाजों को है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है स्याद्वाद के द्वारा खोलकर अहिंसावादी रूप में विविध दृष्टियों एवं और अत्यधिक मूर्छा करता है । परिग्रह को घटाने से ही हिंसा, सन्दर्भो से उन्मुक्त विचार करने की प्रेरणा प्रदान की जा सकती असत्य, अस्तेय एवं कुशील इन चारों पर रोक लगती है। परिग्रह के परिमाण के लिए 'संयम' की साधना आवश्यक यदि हम प्रजातंत्रात्मक युग में वैज्ञानिक पद्धति से सत्य का है । 'संयम' पारलौकिक आनन्द के लिए ही नहीं, इस लोक के साक्षात्कार करना चाहते हैं तो अनेकांत से दृष्टि लेकर स्याद्वादी जीवन को सुखी बनाने के लिए भी आवश्यक है । आधुनिक युग प्रणाली द्वारा कर सकते हैं; विचार के धरातल पर उन्मुक्त चिन्तन में पाश्चात्य जगत ने व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के अतिरेक से उत्पन्न तथा अनाग्रह, प्रेम एवं सहिष्णुता की भावना का विकास कर स्वच्छंद यौनाचार एवं निर्बाध इच्छाओं को परितृप्त करने में सकते हैं । मानवीय जीवन की सार्थकता तलाशने के व्यामोह के कारण पिछले पर इस प्रकार विश्व-धर्म के रूप में जैन धर्म एवं दर्शन की दशका में जा सयमहान आचरण किया उसका परिणाम क्या आधनिक यग में प्रासंगिकता को आज व्याख्यायित करने की निकला है? निर्बाध भागों में निरत लक्ष्यहीन, सिद्धान्तहीन, आवश्यकता है । यह मनुष्य एवं समाज दोनों की समस्याओं का मूल्यहीन समाज की स्थिति क्या है ? ऐसे समाज के सदस्यों के अहिंसात्मक समाधान है । यह दर्शन आज की प्रजातंत्रात्मक पास पसा हो सकता है. धन दौलत हो सकती है मगर क्या उनके शासन-व्यवस्था एवं वैतानिक सापेक्षवादी चिन्तन के भी अनरूप जीवन में सुख, शान्ति, विश्वास, तृप्ति भी है? यदि जीवन में है । आदमी के भीतर की अशांति, उद्वेग एवं मानसिक तनावों को परस्पर प्रेम, विश्वास, सद्भाव नहीं है तो क्या इस प्रकार का यदि दूर करना है तथा अन्ततः मानव के अस्तित्व को बनाये रखना जीवन अनुकरणीय माना जा सकता है ? संत्रास, अतृप्ति, वितृष्णा है तो जैन दर्शन एवं धर्म की मानव में प्रतिष्ठा, प्रत्येक आत्मा की एवं कुंठाओं से भरा जीवन क्या किसी को स्वीकार्य होगा ? स्वतंत्रता तथा प्रत्येक जीव में आत्म शक्ति की स्थापना को विश्व वैचारिक अहिंसा : अनेकान्तवाद : के सामने रखना होगा । 'जैन धर्म एवं दर्शन मानव-मात्र के लिये अहिंसक व्यक्ति आग्रही नहीं होता । उसका प्रयत्न होता है समान मानवीय मूल्यों की स्थापना करता है । सापेक्षवादी सामाजिक कि व. दूसरों की भावनाओं को ठेस न पहुंचावे | वह सत्य की तो संरचनात्मक व्यवस्था का चिन्तन प्रस्तुत करता है, पूर्वाग्रह रहित खोज करता है, किन्तु उसकी कथन शैली में अनाग्रह एवं प्रेम होता उदार दृष्टि से एक दूसरे को समझने-समझाने और स्वयं को है। अनेकांतवाद व्यक्ति के अहंकार को झकझोरता है । उसकी तलाशने - जानने के लिये अनेकान्तवादी जीवन-दृष्टि प्रदान करता आत्यन्तिक दृष्टि के सामने प्रश्नवाचक चिह्न लगाता है । अनेकान्तवाद है, समाज के प्रत्येक सदस्य को समान अधिकार एवं अपने ही यह स्थापना करता है कि प्रत्येक पदार्थ में विविध गुण एवं धर्म प्रयत्नों से उच्चतम विकास कर सकने का आस्थावादी मार्ग प्रशस्त करता है। मधुकर-मौक्तिक खेत में से भूसा भी निकलता है और धान भी । किसान जो मेहनत करता है, वह धान के लिए करता है, भूसे के लिए नहीं। हम भी दुनिया भर की बातें सुनते हैं। वे सार्थक भी होती है और निरर्थक भी हमें सार्थक बातों को ग्रहण करना चाहिये और निरर्थक बातों को छोड़ देना चाहिये। दिमाग में से भूसा निकाल देना चाहिये । हमें सूप के समान बन जाना चाहिये । कहा भी है। मन तो ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय । सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय ।। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण जपत मंत्र नवकार को, अन्तर होत उजास । जयन्तसेन शान्ति मिले, रखो हृदय विश्वास ।। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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