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________________ स्याद्वाद की दृष्टि (डॉ. श्री स्वर्णकिरण) स्याद्वाद का अर्थ हैं वह दर्शन - सिद्धान्त जिसमें सर्व- हीनता के संबंध में एक साथ ही बोध होता है | घड़ा जब अच्छी देशीयता एवं सर्व प्रासंगिकता पर ध्यान दिया गया हो, जिसमें तरह से नहीं पकता है तो कुछ काला रह जाता है । जब पूरा पक एकांतवाद (Fallacy of Exclusive Particularity) से बचाव जाता है तो लाल हो जाता है । यदि पूछा जाए कि घड़े का रंग हो । इधर अमरीका के नव वस्तुवादियों (Neo-realists) द्वारा सभी समय में तथा सभी अवस्थाओं में क्या है तो इसका एक मात्र एकांतवाद का घोर विरोध एवं स्याद्वाद का मौन समर्थन किया सही उत्तर यही हो सकता है कि इस दृष्टि से घड़े के रंग के संबंध गया है, यह इस बात का द्योतक है कि स्याद्वाद् का सिद्धान्त में कुछ कहा ही नहीं जा सकता है 'स्यात् अवक्तव्यम्' का साधारण उपयोगी एवं कालिक चेतना के अनुकूल है। यहाँ हम किसी वस्तु, अर्थ यही है । 'स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम् च' का अर्थ हुआ कि किसी व्यक्ति, किसी घटना, किसी दृश्य पर 'सप्तभंगी न्याय' लागू किसी विशेष दृष्टि से हम घड़े को लाल कह सकते हैं | किन्तु जब करते हैं, सप्तभंगी तर्क से विचार कर निष्कर्ष निकालते हैं और दृष्टि का स्पष्ट उल्लेख नहीं हो, निर्देश नहीं हो तो घडे के रंग का भावी मनोमालिन्य या झगड़े को मिटा देते हैं, हटा देते हैं। वर्णन असंभव हो जाता है। अतः व्यापक दृष्टि से घड़ा लाल है 'सप्तभंगी न्याय' के अनुसार जो हमारा विचार होता है वह वस्तुतः । और अवक्तव्य भी है। पहले विचार में यहाँ चौथे विचार को मिला इस प्रकार है: दिया गया है । 'स्यात् नास्ति च अवक्तव्यम् च' अर्थात् स्यात् नहीं (१) स्यात् अस्ति अर्थात् स्यात् है। Emaibitgaoe), है और अवक्तव्य है दूसरे और चौथे विचार को क्रमिक रूप से मोड़ दिया गया है । इसी प्रकार तीसरे, चौथे विचारों को एक (२) स्यात् नास्ति अर्थात् स्यात् नहीं है। स्थान पर रख देनेपर सातवाँ विचार हो जाता है 'स्यात् अस्ति च - (३) स्यात् अस्ति च नास्ति च अर्थात् स्यात् है और नहीं भी है। नास्ति च अवक्तव्यम् च' अर्थात् स्यात् है नहीं है और अवक्तव्य भी (४) स्यात् अवक्तव्यम् अर्थात् स्यात् अवक्तव्य है । है। शुद्ध दर्शन की दृष्टि से 'सप्त भंगी न्याय' का चौथा विचार बहुत महत्वपूर्ण है । कारण सबसे पहले इससे यह बोध होता है कि (५) स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम् च अर्थात् स्यात् है और अवक्तव्य भिन्न-भिन्न अवस्थाओं या दृष्टियों के अनुसार ही किसी वस्तु का भी है। चाहे अलग-अलग या क्रमिक वर्णन हो सकता है । इस प्रकार (६) स्यात् नास्ति च अवक्तव्यम् च अर्थात् स्यात् नहीं है और अलग-अलग या क्रमिक वर्णन नहीं करके यदि परस्पर विरोधी धर्मों अवक्तव्य भी है। के द्वारा किसी वस्तु का हम युगपत् वर्णन करना चाहें तो सफल (७) स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् च अर्थात् स्यात् है, प्रयत्न नहीं होता और हमें लाचार होकर कहना पडता है कि वस्तु नहीं है, अवक्तव्य भी है। इस दृष्टि से अवक्तव्य है । दूसरी बात यह है कि सब समय किसी प्रश्न का सीधा अस्तिसूचक या नास्तिसूचक उत्तर दे देने में स्यात् का अर्थ है शायद । जैन दर्शनविद् विचार के पहले बुद्धिमत्ता नहीं है । बुद्धिमान लोगों के लिए यह समझना आवश्यक 'स्यात्' शब्द जोड़कर वस्तुतः यह बतलाते है कि कोई भी विचार है कि ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर नहीं दिया जा सकता । एकांत या निरपेक्ष सत्य नहीं है बल्कि सापेक्ष है, आपेक्षिक सत्य तीसरी बात यह है कि जैनतर्कविद् जैनतर्कशास्त्री तार्किक विरोध है | घड़े के संबंध में सप्तभंगी न्याय लागू करके हम ठोस उदाहरण को एक दोष मानते हैं अर्थात वे यह समझते हैं कि परस्पर विरोधी प्रस्तत कर सकते है । 'स्यात घटः अस्ति' में 'स्यात्' के घड़े के धर्म एक साथ किसी वस्त के लिए प्रयक्त नहीं हो सकते । स्थान, काल, रंग आदि का संकेत होता है । स्यात् घडा लाल है का पाश्चात्य तर्क-विज्ञान या तर्क-शास्त्र में अस्तिवाचक तथा नास्तिवाचक मतलब हुआ - घड़ा सब समय के लिए लाल नहीं है | बल्कि किसी विशेषण जोडकर विचार के दो रूप किये जाते हैं, पर यहाँ विशेष समय में या विशेष परिस्थिति में लाल है । यह भी बोध 'स्याद्वाद' में विचार के सात रूप रखे जाते हैं और सभी संभव है कि घड़े का लाल रंग एक विशेष प्रकार का है । घड़े के संभावनाओं को आत्मसात् किया जाता है । संबंध में नास्तिबोधक विचार इस प्रकार का होगा - स्यात् घड़ा उस कोठरी के अंदर कोई भी घडा नहीं है या कोई भी घडा नहीं रह उत्पाद और व्यय के ध्रुवक्रम सकता । 'स्यात्' शब्द इस बात का द्योतक है कि जिस घड़े के का नाम सत्ता है । कोई भी पदार्थ संबंध में विचार हुआ है वह घड़ा कोठरी के अंदर नहीं है । अर्थात् एकांत सत्य (Absolute truth) एक विशेष रंग-रूप का घड़ा विशेष समय में कोठरी के अंदर नहीं नहीं है । उसमें वृद्धि अथवा हास है । 'स्यात्' शब्द प्रयोग नहीं किया जाए तो किसी भी घड़े का की संभावना है । हमारे कर्म उर्ध्व बोध हो सकता है । घड़ा लाल है और नहीं भी है - इसका सामान्य मुखी तथा अधोमुखी होते रहते हैं । रूप स्यात् 'अस्ति च नास्ति च' अर्थात् 'स्यात् है तथा नहीं भी है, - हमारा शरीर (तत्वतः) है (आभासतः) होगा । घड़े या किसी वस्तु के अस्तित्व तथा अनस्तित्व, अस्तित्व नहीं है अतः यह शरीर है भी, नहीं श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१०७) गया समय आता नहीं, कभी लौट कर पास । जयन्तसेन विवेक रख, पाओ शीघ्र प्रकाश www.jainelibrary.org: Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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