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________________ जो आत्म तत्त्व की श्रद्धा तो रखता है परन्तु व्रताचरण नहीं करता जघन्य अन्तरात्मा है । पंचम गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं और बारहवें गुणस्थान वर्ती उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं । 9. परमात्मा के दो भेद हैं (१) सकल परमात्मा (२) विकल परमात्मा । त्रयोदश एवं चतुर्दश गुणस्थान वती अरिहन्त परमेष्ठी, जिनके कि चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं - सकल परमात्मा हैं एवं जिनके ज्ञानावरणादि आठों द्रव्य कर्म, रागादिक भाव कर्म और शरीर रूप नौ कर्म नष्ट हो चुके हैं वे सिद्ध भगवान विकल परमात्मा हैं। चतुर्दश गुणस्थान तक की भूमिका संसारी जीव की है और उसके बाद मुक्त जीव- शुद्ध जीव की भूमिका है। जैन दर्शन के अनुसार मुक्त जीव लोकाग्र पर १५७५ धनुष प्रमाण तनुवातवलय के उपरितन ५२५ धनुष के क्षेत्र में रहते हैं और संसार में कभी वापस नहीं आते । - जैन दर्शन के अनुसार मुक्ति प्राप्त करने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की युगपत् पूर्णता आवश्यक रहती है । यह पूर्णता चौदहवें गुण-स्थान में ही होती है अतः वहीं मुक्ति प्राप्त होती है। शरीर आदि से भिन्न ज्ञाता द्रष्टा स्वभाववाले आत्म तत्व का श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है उसी आत्मतत्व का समीचीन ज्ञान होना सम्यक्ज्ञान है और हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म तथा परिग्रह से विरक्त हो आत्मस्वरूप में सुस्थिर होना सम्यक्चारित्र है । ऊपर कहा जा चुका है कि परलोकवादी समस्त दर्शन आत्मा को मुक्त मानते हैं। यह बात भिन्न है कि उनमें मुक्ति के स्वरूप और मुक्ति के उपायों के विषय में विभिन्न मान्यताएँ है । उन मान्यताओं को गौणकर इतना माना जा सकता है कि आत्मा का पर से संबंध छूट जाना मुक्ति है । जैसे सांख्य दर्शन में प्रकृति से संबंध छूट जाना पुरुष का मोक्ष है, माया से ब्रह्म का संबंध छूट ROTEAL लगभग पैंतालीस ग्रंथों का सम्पादन व अनुवाद | कई मौलिक रचनाओं का प्रकाशन । भारतवर्षीय दि. जैन विद्वदुपरिषद के लगातार २० वर्षों तक मंत्री तथा उपरान्त अध्यक्ष | गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत विद्यालय में साहित्याध्यापक, प्राचार्य एवं श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन गुहकुल जबलपुर में निदेशक । आपकी सृजनशीलता पर म.प्र. शासन डॉ. (पं) पन्नालाल का मित्रपुरस्कार, राष्ट्रपति - साहित्याचार्य, पी.एच.डी. पुरस्कार, श्री वीर निर्याण ग्रंथ प्रकाशन समिति, भारत वर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद्, महावीर शोध संस्थान महावीरजी, अहिंसा इंटरनेशनल सोसायटी द्वारा विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित, सागर विश्वविद्यालय द्वारा पी.एच.डी. से अलंकृत । श्रीमद् जयन्तसेनरि अभिनन्दन ग्रंथ विश्लेषण 330 Jain Education International जाना वेदांत दर्शन का मोक्ष है और समस्त कर्म प्रकृतियों से आत्मा का छूट जाना जैन दर्शन का मोक्ष है। चार्वाक दर्शन पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के संसर्ग से उत्पन्न हुई शक्ति विशेष को आत्मा मानता है, स्वतन्त्र आत्मा के अस्तित्व को स्वीकृत नहीं करता इसलिए दृष्टि में परलोक - स्वर्ग, नरक मोक्ष आदि का भेद अस्तित्व नहीं है । पर अचेतन उपादान से चेतन की उत्पत्ति संभव नहीं है। आस्तिक दर्शनों में सभी ने इस मान्यता का खंडन किया है। कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने समयसार, प्रवचनसार नियमसार, पंचास्तिकाय तथा अष्ट पाहुड आदि ग्रंथों में इस आत्म तत्त्व का मनोहारी वर्णन किया है। शरीर मेरा नहीं है, ज्ञानावरणादि कर्म मेरे नहीं है। रागादिक भाव कर्म मेरे नहीं है, ज्ञान में प्रतिफलित होनेवाला ज्ञेय का आकार मेरा नहीं है। गुणस्थान मार्गणा, जीव समास पर्याप्ति और प्राण भी मेरे नहीं है । मेरा तो एक ज्ञान दर्शन स्वभाव ही है । इस तरह पर से भिन्न और स्वकीय गुण पर्याय से भी भिन्न आत्मा का जिसे बोध हो जाता है, श्रद्धान हो जाता है और उसीमें जो अविचलित हो जाता है तभी वह प्रतिबुद्धज्ञानी कहलाता है और जबतक शरीरादि पर द्रव्यों में अहंबुद्धि रहती है। तबतक अप्रतिबुद्ध-अज्ञानी रहता है। जीव की यह अज्ञान दशा ही चतुर्गति परिभ्रमण का कारण है । सब गतियों एवं योनियों में मनुष्यगति एवं मनुष्य योनि को ही यह योग्यता प्राप्त है कि वह पुरुषार्थ करे तो आत्मा के समस्त गुणों का पूर्ण विकास कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है । जैसे नदी नाले को पार करने के लिए तीर्थ घाट की आवश्यकता होती है, उसके बिना उन्हें पार नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार संसार सागर को पार करने के लिए तीर्थ घाट की आवश्यकता है और वह घाट कर्मभूमिज मनुष्य का औदारिक शरीर ही है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य को रागपरिणति से मुड़कर स्वकीय वीतराग परिणति से तन्मय होने का पुरुषार्थ करना चाहिए। पं. दौलतरामजी की निम्न पंक्तियों का बार बार चिन्तन करने से वीतराग परिणति प्राप्त की जा सकती है यह राग आग दहै सदा तातें समामृत सेइये, चिर भजै विषय कषाय अब तो त्याग निजपद वेइये । कहा रच्यो पर पद में न तेरो पद यह क्यों दुख सहें, अब 'दौलत' होऊ सुखो स्वपद रुचि दाव मत चूको यहै ॥ (छह ढाला) अतः साम्य-भाव रूपी अमृत का सेवन करना चाहिए । विषय कषाय का सेवन तो चिर काल से करता चला आ रहा है अब तो उन्हें छोड़ निज स्वभाव का वेदन अनुभव करना चाहिए । है प्राणी । तूं पर पदार्थों में क्यों रम रहा है । उन्हें छोड़, तेरा पद-स्थान ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव तो यह है अब स्वपद- स्वकीय स्वभाव में रचकर लीन होकर सुखी हो जा। इस अवसर को मत छोड़ । मनुष्य पर्याय का मिलना सुलभ नहीं है । (१०६) For Private & Personal Use Only समय कभी नही एक सा, समय सदा पलटाय । जयन्तसेन समय सुखद, कर सुकृत मन लाय ॥ www.jainelibrary.org
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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