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________________ भी है । पर ऐसा वाक्य व्याघात नियम के अनुसार असिद्ध है। 'षड्दर्शन समुच्यय') अर्थात् दृष्टि भेद से घट भी है और नहीं भी कर्मफल के साथ भी हम यह तर्क लागू कर सकते हैं । 'षड्दर्शन है । एक दूसरा उदाहरण यहाँ अंधगजीयता अंधों का हाथीवाली समुच्चय' की टीका (रचयिता हरिभद्र सूरि तथा टीकाकार मणिभद्र कहावत से दिया जा सकता है | एक ही हाथी एक अंधे के लिए सूरि) में एकांत सत्ता अथवा नित्यता का खंडन करते हुए कहा ढूँढ जैसे गाजरनुमा या दूसरे के लिए दुम जैसा छडीनुमा और गया है - 'कोई वस्तु एकांत नित्य नहीं हो सकती ।' क्योंकि वस्तु तीसरे के लिए कान जैसा पापड़नुमा । सच पूछा जाए तो हाथी का लक्षण है : 'अर्थक्रियाकारित्व' और 'क्रियाकारित्व' का अर्थ ही गाजरनुमा, छडीनुमा और पापडनुमा है भी और नहीं भी है । है गतिशीलता और क्रमिकता पर जो नित्य है वह शाश्वत अक्रम विश्लेषणात्मक दृष्टि से तो है, पर संश्लेषणात्मक दृष्टि से नहीं है। और एक रूप है । अतः यदि वस्तु नित्य है तो उसमें क्रमिकता - वास्तव में, ऐसा करके जैन दार्शनिक, शंकराचार्य के मतावलम्बी नहीं, और क्रमिकता नहीं तो अर्थकारित्व नहीं, और अर्थकारित्व वेदांतियों के 'सत्य' और बौद्धों के शून्यः दोनों को 'अंधो का नहीं तो वह वस्तु ही नहीं । तात्पर्य यह कि जो नित्य है वह वस्तु हाथी' मानते हैं । आवश्यकता है व्यापक और उदार दृष्टि की नहीं है, और जो वस्तु है वह नित्य नहीं है । (तथापि अनेकांतवादकी - जिसमें एक नहीं, अनेक दृष्टिकोणों का समावेश वस्तुतस्तावदर्थक्रिया- कारित्वं लक्षणम् । तच्च नित्यैकान्ते न घटते । हो । स्वयं आचार्य शंकर सत्ता के तीन रूपों की कल्पना करते हैं - - अप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैके रूपो हि नित्ये :- 'षड्दर्शन सम्मुच्चय ।') पारमार्थिक व्यावहारिक तथा प्रातिमासिक । इनका समय जैन धर्म इस प्रकार सामान्य और विशेष में भी व्याघात है । भला कोई भी के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर से लगभग डेढ़ हजार वर्ष बाद का गौरव विरहित उसे व्यक्ति अथवा उसे व्यक्ति विच्छिन्न गौरव का है। क्या हम महावीर के ऋण को आचार्य शंकर के द्वारा सत्ता के उपपादन कर सकता है? कदापि नहीं । हर एक विशिष्ट गाय तीन रूपों की कल्पना में स्वीकार नहीं कर सकते ? (दृष्टव्यः अपनी गौरव जाति की प्रतिनिधि है, और हर गौरव जाति की विहारोद्भूत जैन दर्शन का समन्वयवाद, प्रो. धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी कल्पना विशिष्ट गौ से अनिवार्य रूप से संतुष्ट है । अतः एकमात्र शास्त्री, पृ. ७६-७७) स्याद्वाद का अनिवार्य परिणाम अज्ञानवाद सामान्य या एकमात्र विशेष की भावना 'अंधगजियता' है । (नहिं (Scepticism) में माना जाता है । अज्ञान, न कि ज्ञान, मोक्ष का क्वचित्, कदाचित्, केनचित्) किञ्चित्, सामान्य विशेष-विनाकृत- आवागमन के चक्र से मुक्ति का साधन समझा गया और इस मनुभूयते विशेषो वा तद्विनाकृतः । ... केवलं दुर्णयवत प्रभावित अज्ञानवाद के सप्तभंगी न्याय और नव तत्वों (जीवाजीवौ तथा प्रबलमतिव्यामोहादेकमपलप्यात्तद् व्यवस्थापयन्ति कुमतयः । सोऽयं पुण्यपापमास्त्रवसंवरौ । बन्धश्च निर्जरा मोक्षौ नवतत्वानि तन्मते मन्धगजन्यायः ! ... निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खर - विषाणवत् । अर्थात् जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा एवं सामान्यरहित्वेन विशेषास्तद्वद् हि । - ('षड्दर्शन समुच्यय' एवं मोक्ष - 'षड्दर्शन समुच्चय') के सहारे ६७ अपवाद माने गये । इस 'टीका' । मतलब यह कि जैन दर्शन में प्रत्येक वस्तु को 'है' और संख्या की व्याख्या इस प्रकार की जाती है- सप्तभंगी न्याय की 'नहीं' दोनों रूपों से रखा जाता है इससे समस्या का सुलझाव होता दृष्टि से नव तत्त्वों में से प्रत्येक के हिसाब से सात भेद । उदाहरण है । एकांत 'हां' या एकांत 'नहीं' न मानकर, प्रत्येक वस्तु को के लिए, जीव के हिसाब से - अनेकांत रूप से 'हां' या 'नहीं' मानना चाहिए । नयका जीव का कुमार स्याद्वाद की दृष्टि वास्तव में अनेकांतवादी दृष्टि है । 'यह घट है पर घट नहीं हैं' ('सर्वमास्तें स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च' - सत्व असत्व सदसत्व अवाच्यत्व सद्वाच्यत्व असद्वाच्यत्व सदसद्वाच्यत्व साहित्यालंकार, राष्ट्रीय | गीतकार, साहित्य मनीषी, विद्यासागर (डी.लिट्.) साहित्य श्री, विद्यालंकार, लघुकथाचार्य आदि उपाधियों से सन्मानित । लगभग २५ पुस्तकों का प्रकाशन | कई ग्रंथों का सम्पादन तथा अनुवाद । कई पत्र पत्रिकाओ में सम्पादक या उपसम्पादक के रूप में कार्यरत । आकाशवाणी से भी रचनाओं का डॉ. स्वर्णकिरण प्रकाशन | निबंध लेखन, कविता एम.ए., पी.एच.डी. लेखन, अभिभाषण आदि में पुरस्कृत । जैन समाज आरा द्वारा पुरस्कार प्रदान । अनेक भाषा विद्, परम्परा में प्रयोग, प्रयोग में परम्परा के हामी, मानवमूल्य के पदाक्षर एक उल्लेख हस्ताक्षर । इस क्रम से प्रकारतः नव तत्वों के हिसाब से ९ x ७ = ६३ उपभेद हुए । पर सत्व, असत्व, सद्सत्व और - अवाच्यत्व - इन चार दृष्टियों से नव तत्वों की उत्पत्ति का विचार करते हुए चार और उपभेद हुए । इस प्रकार अज्ञानवाद के ६३ + ४ = ६७ उपभेद हुए । अज्ञानवाद के ये भेद वस्तुतः जैन लोगों के समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचायक है। स्याद्वाद समन्वयवादी सिद्धान्त है - ऐसा स्वीकार करने में किसी तरह की हिचक का अनुभव नहीं होता । कर्मवाद को यहाँ महत्व दिया जाता है पर कर्मवाद से बढ़कर चरित्र निर्माण को समझा जाता है । जैन लोग यह मानते हैं कि जीव निसर्गतः अनंत-दर्शन अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य का भागी है । कर्म के परमाणु, जीव के श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१०८) काल चक्र चलता सदा, अमर रहा नहीं कोय । जयन्तसेन करो वही, सुख शान्ति नित्य होय ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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