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प्रजातंत्र तभी सफल हो सकेगा जब स्याद्वादी दृष्टिकोण को सहयोग आवश्यक है। हितमित पर-पक्ष को सुनो, उसकी बात में भी स्वीकार किया जाएगा। विरोधी पक्ष की बात इसलिए अग्राह्य नहीं सत्य समाया हुआ है। जीवन सबके लिए समान रूप से इष्ट है। मानी जानी चाहिए कि वह अल्पमत में है। विरोधी पक्ष को उतनाही यदि इसको न माना जाएगा, तो विश्व में निर्बलों को जीने का अधिकार मान देना चाहिए जितना अपने पक्ष को सम्माननीय माना जाता है। ही नहीं रहेगा। इसलिए जीवन-विकास के लिए इन तीनों में ही विपक्ष विरोधी ही नहीं है, किन्तु उसकी धारणाओं में भी किसी रूप स्याद्वाद की जीवनस्पर्शी व्याख्या समाई हुई है। स्याद्वाद सिर्फ से सत्य का अंश है। इससे अपने दोषों के निराकरण का अवसर विचार नहीं है, किन्तु आचार-व्यवहार भी है, जो अहिंसा और अपरिग्रह मिलता है। यह तभी संभव है जब वैचारिक सहिष्णुता और समन्वय के रूप में विकसित हुआ है। के द्वारा ही प्रजातंत्र का भविष्य उज्ज्वल बन सकता है। उनके लिए विश्व मंगलकारी स्याटवाट तात स्याद्वाद-अनेकांतवाद के सिवाय अन्य कोई आधार नहीं हो सकता
जा भगवान महावीर ने स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा यही सूत्र दिया है।
कि एक पक्ष की सत्ता स्वीकार करते हुए दूसरे पक्ष को भी उसका व्यक्तिगत जीवन में स्याद्वाद
सत्य कहने दो और सत्य को स्वीकार करो। स्याद्वाद दर्शन और चिंतन के क्षेत्र तक सीमित नहीं है अपितु पर स्याद्वाद संकुचित एवं अनुदार दृष्टि को विशाल बनाता है। आचरण व प्रयोग का भी माध्यम है। व्यक्ति और समष्टि सभी के यह विशालता, उदारता ही पारस्परिक सौहार्द, सहयोग, सद्भावना लिए उपादेय है। शिष्ट और सामान्य नागरिक आचरण के तीन सूत्र एवं समन्वयका मूल प्राण है। उदारता, और सहयोग की भावना तभी हैं - सम्मान, सुरक्षा और संयम।
बलवती बनेगी जब हमारा चिन्तन, कथन अनेकांतवादी होगा। विश्व स्याद्वाद द्वारा यही संकेत किया जाता है, आचार के लिए को अपने विकास के लिए स्याद्वाद का सरल मार्ग स्वीकार करना और विचार के लिए कि सद्विचार, सहिष्णुता एवं सत्प्रवृत्ति का पड़ेगा यही विश्व मंगल की आद्य इकाई है।
है।
(पृष्ठ १८ का शेष भाग)
उपलब्धि तक पहुंचनेतक नहीं देती। इससे विपरीत वह मानव का मन उसके आत्मिक विकास का उपकरण बन सकता है। आध्यात्मिक मूल्यों का उपहास कर रहा है। भौतिक विकास के उपहार अतएव मानव के लिए पहली आवश्यकता यह है कि वह ने मानव को उपहास की ओर धकेल दिया है। मानव की यह चेतना अपने बारे में चिन्तन करना प्रारंभ करे, परचिन्तन को अनुत्साहित करे। शून्यता उसे अनन्त शक्तिवान आत्मा के प्रति अनास्था से ग्रस्त किए प्रात:काल उठकर स्वस्थ मस्तिष्क से विचार करे एवं निरंतर गुत्थी है। मानव, भौतिक सुखों में इतना लिप्त होता जा रहा है कि आत्मिक सुलझाने की कोशिश करे कि - 'मैं कौन हूँ?' 'मैं शरीर नहीं, सुखों के प्रयल के लिए उसे सोचने की फुर्सत ही नहीं है। पहली इन्द्रियां नहीं, भौतिक सुखों की ओर भटकनेवाला शरीर नहीं, मैं जरूरत यह है कि व्यक्ति का विवेक उसे जीवन की सही दिशा पर अनन्त शक्तिवाला आत्मा हूं। आत्मा का मूलस्थान दु:खों से भरा अग्रसर होने के लिए अन्तरित करे। मानव के हृदय के धरातल पर हुआ यह संसार नहीं बल्कि अनंत ज्ञान-दर्शन-सुखों आदि से युक्त अन्तप्रेरणा के बीज अकुंरित होने चाहिए। वैसी अन्तर्रेरणा की जाग्रति शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वरूप की प्राप्ति है। “मैं क्षणिक नहीं, अक्षय हूं।" जो शालीभद्र को असीम समृद्धि के मध्य 'मेरे नाथ' सुनकर हुई, जो "मैं भेड़ों की रेवड़का सदस्य नहीं अनंत शक्तियों से गर्जना करने इलाचीपुत्र को नट की तरह नृत्य करते हुए एवं भरत चक्रवर्ती को वाला सिंह हूं। मैं आत्मा हूं, मैं आत्मा हूं, मैं आत्मा हूं।" आरिसा भवन में दर्पण के सन्मुख अपने शरीर की ओर निहारते हुई।
मधुकर मौक्तिक
मोक्ष का द्वार बन्द नहीं है, बल्कि हमारे मन के द्वार बन्द हैं। मोक्ष पाने के लिए मन के द्वार खोलकर पंच परमेष्ठी भगवंतों को उसमें प्रवेश कराना है। यदि आप कहीं जाना चाहते हैं, तो वहाँ के रास्ते बन्द नहीं है; हाँ इतना अवश्य है कि आप सीधे वहाँ न पहुँच सकेंगे। आपको अपने गन्तव्य तक जाने के लिए कुछ 'जंक्शनों पर गाड़ियाँ बदलनी पड़ेंगी; तभी आप वहाँ तक पहुँच जाएँगे। हमारा लक्ष्य घर जाने का होना चाहिये। मोक्ष हमारा घर है। वहाँ जाने के लिए हम परमेष्ठी भगवंतों का अवलंबन लें और तदनुरूप साधना करते जाएँ। इस जन्म में न सही, किसी अन्य जन्म में; भरत क्षेत्र से न सही; महाविदेही क्षेत्र से; मोक्ष अवश्य प्राप्त हो सकता है। साधना/धर्माराधना कभी निष्फल नहीं होती। वह कभी-न-कभी तो हमें अपने मूल स्वरूप को प्रकट करने का अपूर्व अवसर प्रदान करती है।
- जैनाचार्य श्रीमद् जयन्तसेनसूरि 'मधुकर'
श्रीमद्जयतसनसूरिभिनदनमथावाचनामा
कषाय, बुरी बला समझ, इससे इज्जत हान । जयन्तसेन निर्मल मति, सद्गति का पंथान ॥
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