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________________ है जिसे जैन दर्शन में "सिद्ध शिला" कहा गया है । मुक्ति, निर्वाण, परिनिर्वाण, सिद्धावस्था आदि भी मोक्ष के ही नाम हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीव एक द्रव्य है और द्रव्य लोक में रहते हैं। जीव का ऊर्ध्वगामी स्वभाव होने के कारण वह लोक के अग्रभाव में स्वतः ही पहुँच जाता है। दीपक की लौ का स्वभाव ऊपर जाता है, वैसे ही आत्मा का स्वभाव भी ऊपर जाता है । कर्म के कारण उसमें भारीपन आ जाता है । अतः वह भव-भ्रमण करती रहती है परन्तु कर्म मुक्त होने पर स्वाभाविक रूप से ही आत्मा की मोक्ष की दिशा में ऊर्ध्वगति होती हैं । जब तक कर्म पूर्ण रूप से क्षय नहीं होते, तब तक आत्मा का शुद्ध स्वभाव छिपा रहता है जैसे बादलों में सूर्य । परन्तु बादलों के हटते ही जैसे सूर्य पुनः अपने पूर्ण प्रकाश के साथ चमकने लगता है, वैसे ही आत्मा से कर्मों का आवरण हटते ही आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव में चमकने लगती है । परन्तु सूर्य पर तो कभी कदाचित् पुनः बादल आ सकते हैं लेकिन आत्मा एक बार कर्म मुक्त होने के बाद फिर कभी कर्मों से आवृत नहीं होती है। जैन दर्शन के अनुसार "दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः " कहा गया है अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चारित्र, मोक्ष के मार्ग है । इसमें हमें तप को और जोड़ना चाहिये क्योंकि महावीर सहित अनेक तीर्थकरों एवं सिद्ध पुरुषों ने घोर तपस्या द्वारा ही अपने कर्मों की निर्जरा की है परन्तु यह दर्शन, ज्ञान और चारित्र सही होना चाहिये। जिसके लिए जैन दर्शन में 'सम्यक्' शब्द का प्रयोग किया है। ज्ञान से तत्त्वों की जानकारी होती है और दर्शन से तत्त्वों पर श्रद्धा आती है । चारित्र से आते हुए कर्मों को रोका जाता है और तप द्वारा आत्मा से बंधे हुए कर्मों की निर्जरा होती है । अतः इन चारों उपायों से कोई भी रुकावट नहीं है। जिसने भी कर्म बंधन को तोड़कर आत्मगुणों को प्रकट कर लिया, वही मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी है। जैन दर्शन में गुणों का महत्त्व है, व्यक्ति, जाति, लिंग, कुल, संप्रदाय आदि किसी अन्य का कोई महत्त्व नहीं है । इसीलिये कहा गया है कि "मनुष्य जन्म से नहीं, अपितु कर्म से महान बनता है।" श्रीमद् जयनासेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण अतः निष्कर्ष रूप में, कहा जा सकता हैं कि जहाँ परमात्मवादी विचारधारा वाले धर्मों की मान्यता है कि परमात्मा का भक्त बनने में ही आत्मा की सार्थकता है, वहाँ जैन धर्म में आत्मा को परमात्मा और भक्त को भगवान बनने का पूर्ण अधिकार है। जीवन के इस चरम लक्ष्य को साधक अपनी ही साधना द्वारा चौदह गुण स्थानों में आत्मा के क्रमिक आध्यात्मिक विकास द्वारा प्राप्त कर सकता है । जैन दर्शन के अनुसार मुक्ति किसी दूसरे के हाथ की चीज नहीं है अपितु किसी भी आत्मा की मुक्ति उसी के हाथ में है । यहीं 'अपना हाथ जगन्नाथ' वाली कहावत लागू पड़ती है । निम्न श्लोक में यह बात भली क्राँति स्पष्ट हो जाती है : Jain Education International स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते । उन्मुक्त संवाद की अमोघ दृष्टि का शेष भाग (पृष्ठ ६९ से) भारतीय जनता की संस्कृति का रूप सामासिक है। उसने धीरे-धीरे बढ़कर अपना आकार ग्रहण किया है। इस संस्कृति में समन्वयन की तथा नूतन बातों - सिद्धान्तों को पचानेकी, पचाकर आत्मसात कर लेनेकी अद्भुत योग्यता है । इसी शक्ति के कारण भारत विकसित होता रहा । इसके मूल में स्याद्वाद की दृष्टि है । स्याद्वाद जैन धर्मका अनूठा और उन्मुक्त दर्शन है। भाषा के आवरण में छिपे सत्य को अनावृत्त करने का माध्यम ही स्याद्वाद है। आचारांग सूत्र में (१/३/३) कहा गया है- सच्चस्स आणाए उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ. अर्थात् सत्य की आज्ञा में प्रस्तुत बढ़ता हुआ मेधावी साधक मृत्युको जीत लेता है। स्याद्वाद इस साधक की आरती उतारता है। (७२) अर्थात् आत्मा स्वयं अपना कर्म करती है और उसका फल भोगती है। अपने कर्म बंधनों के कारण ही वह संसार परिभ्रमण करती है तथा पुरुषार्थ द्वारा मुक्ति प्राप्त करती है । आज के युग में वैचारिक विषमताने शीत युद्ध का वातावरण तैयार कर रखा है । अनेकांत तथा स्याद्वाद द्वारा समता, एकता, सहभाव और बंधुता का वातावरण तैयार किया जा सकता है। स्यादवाद नयी मनुष्यता के लिए परम आश्वासक तत्व है स्याद् इसीकी मदद से मानवता का उपकार हो सकता है । “मोक्ष में आत्मा अनन्त सुखमय रहता है, उस सुख की न कोई उपमा है और न कोई गणना ही ।" भगवान महावीर मधुकर मौक्तिक संकेतपूर्वक साध्य की ओर प्रेरित करने वाले, साध्य की ओर गतिशील करने वाले आराध्य अरिहंत परमात्मा हमें जीवन का सही स्वरूप समझाते हैं। हमें यदि अपने सच्चे स्वरूप को समझना है, तो अरिहंत परमात्मा को आराध्य बना कर अरिहंत परमात्मा की वाणी को अपने जीवन में उतारना होगा और उनके प्रवचन का मनन-चिन्तन करना होगा; फिर हमें यह मालूम हो जाएगा कि यद्यपि सिद्ध पद साध्य है, फिर भी अरिहंत परमात्मा उस साध्य की ओर हमें ले जाते हैं, इसलिए अरिहंत पद भी आराध्य है। यदि हम आराध्य के निकट जाते हैं और उन्हें समझते हैं, तो साध्य की दिशा भी मिल जाती है और जब साध्य की दिशा की ओर आगे बढ़ते हैं, तो सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है। • जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' For Private & Personal Use Only 100 जिसने जीता स्वयं को जीत लिया संसार । जयन्तसेन अखंड है, उस की जय जयकार | www.jainelibrary.org
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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