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________________ करने का कार्य करता था ।' सामान्यतः उपज का दसवां भाग कर दण्डविधान :- उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजीशास्त्री ने विपाकसूत्र, रूप में लिया जाता था किंतु विशिष्ट कारणों से इसमें अंतर भी आ प्रश्नव्याकरण, अंगुतर निकाय और जैन आगम साहित्य में भारतीय जाता था । व्यापारिक वस्तुओं पर भी कर लगाया जाता था । समाज के आधार पर लिखा है कि चोरी करने पर भयंकर दण्ड व्यापारी उन दिनों भी कर चोरी किया करते थे, वे अपना माल दिया जाता था । उस समय दण्ड-व्यवस्था कठोर थी । राजा चोरों छिपा देते थे । जो व्यापारी अच्छी किस्म का माल छिपा लेता था, को लोहे के कुंभ में बन्द कर देते थे, उनके हाथ कटवा देते थे। पता चलने पर राजा उस व्यापारी का सम्पूर्ण माल जब्त कर लेता सूली पर चढ़ा देते थे। कभी अपराधी की कोड़ों से पूजा करते । था । शुल्क वसूल करने में कठोरता बरती जाती थी। इससे जनता चोरों को वस्त्रयुगल पहनाकर, गले में कनेर के फूलों की माला त्रस्त रहती थी । पुत्र जन्म, राज्याभिषेक जैसे अवसरों पर जनता डालते और उनके शरीर को तेल से सिक्त कर भस्म लगाते और को कर मुक्त भी किया जाता था । चौराहों पर घुमाते व लातों, घूसों, डंडों और कोड़ों से पीटते । अपराध :- उस समय अपराधों में चौर्य-कर्म प्रमुख था । चोरों के ओंठ, नाक और कान को काट देते, रक्त से मुँह को लिप्त कर के अनेक वर्ग इधर उधर कार्यरत रहते थे । लोगों को चोरों का फूटा ढोल बजाते हुए अपराधों की उद्घोषणा करते । आतंक हमेशा बना रहता था । चोरों मे अनेक प्रकार थे । यथा - तस्करों की तरह परदारगमन करने वालों को भी सिर मुंडना, (१) आमोष - धनमाल को लूटन वाले । तर्जन, ताड़न, लिंगच्छेदन, निर्वासन और मृत्युदण्ड दिये जाते थे । पुरुषों की भांति स्त्रियां भी दण्ड की भागी होती थी, किन्तु गर्भवती (२) लोभहार - धन के साथ ही प्राणों को लूटने वाले । स्त्रियों को क्षमा कर दिया जाता था । हत्या करने वाले को (३) ग्रन्थि भेदक - ग्रंथि भेद करने वाले । अर्थदण्ड और मृत्युदण्ड दोनों दिये जाते थे। (४) तस्कर - प्रतिदिन चोरी करने वाले । न्याय व्यवस्था :- अपराधियों को दण्डित करने के लिये योग्य और (५) कण्णुहा - कन्याओं का अपहरण करने वाले। ईमानदार न्यायाधीश होते थे जो रिश्वत न लेकर निष्पक्ष न्यायप्रदान लोभहार अत्यंत क्रूर होते थे । वे अपने आपको बचाने के करने का कार्य करते थे । साधारण अपराध के लिये भी कठोर लिये मानवों की हत्या कर देते थे । ग्रंथि भेदक के पास विशेष दण्ड व्यवस्था का प्रावधान था। प्रकार की कैचियां होती थी जो गाठों को काटकर धन का श्रावकों को झठी गवाही न देने और झठे दस्तावेज प्रस्तत न अपहरण करते थे । निशीथ भाष्य में आक्रान्त, प्राकृतिक, ग्रामस्तेन, करने का नियम दिलाया जाता था । इससे ऐसा आभास होता है देशस्तेन, अनारस्तेन, अध्वानस्तेन और खेतों में खनकर चोरी करने । कि उन दिनों झूठी गवाही भी दी जाती थी। अपराधी को राजकुल वाले चोरों का उल्लेख है। में उपस्थित किया जाता था । ऐसा उल्लेख मनुस्मृति में पाया जाता ए कितने ही चोर धन की तरह स्त्री, पुरुषों को भी चुरा ले है। जाते थे । कितने ही चोर इतने निष्ठुर होते थे कि वे चुराया हुआ उन दिनों राजा सर्वेसर्वा होता था । अर्थात् वह स्वेच्छाचारी अपना माल छिपाने को अपने कुटुम्बी जनों को भी मार देते थे। होता था । एक ओर वह प्रजाकी रक्षा करता था तो दसरी ओर एक चोर अपना सम्पूर्ण धन कुए में रखता था । एक दिन उसकी जनता को कष्ट भी देता था। राजा की आज्ञा का उल्लंघन करने पलीने उसे देख लिया, भेद खुलने के भय से उसने अपनी पली वाला महान् अपराधी माना जाता था । इसके लिये भी दण्ड को ही मार दिया । उसका पुत्र चिल्लाया और लोगों ने उसे पकड़ व्यवस्था थी । विस्तारभय से यहां अब अधिक न लिखकर केवल लिया । संकेत मात्र किया जा रहा है। चोरी करने के लिए छः प्रकार से सेंघ लगाने का उल्लेख जैन साहित्य में कारागृहों का भी विवरण मिलता है । मिलता है (१) कपिशीर्षाकार (२) कलशावृत्ति (३) नन्दावर्त कारागृहों में कैदियों को किस प्रकार रखा जाता था, उनके साथ संस्थान (४) पद्माकृति (५) पुरुषाकृति और (६) श्री वत्ससंस्थान। कैसा व्यवहार किया जाता था, आदि उल्लेख भी है । उन दिनों कम चोर अपने साथियों के साथ चोरपल्लियों में रहा करते थे। प्रत्येक राज्य की अपनी गुप्तचर व्यवस्था थी । गुप्तचर होने की चोरपल्लियाँ विषम पर्वत और गहन अटवी में हुआ करती थी। आशंका में साधुओं को भी पकड़ लिया जाता था। जहाँपर किसी का पहुँचना संभव नहीं था । जब चोर चोरी करने युद्ध, एवं चतुरंगिणी सेना, युद्धनीति और अस्त्र-शस्त्र आदि के लिये जाते थे तब अपने साथ पानी की मशाल और तालोद्घाटिनी का भी विस्तार से वर्णन मिलता है | यदि इन सबका व्यवस्थित विद्या आदि उपकरण लेजाया करते थे । रूप से अध्ययन कर प्रस्तुत किया जाये तो एक अच्छी पुस्तक तैयार उत्तराध्ययन हो सकती है । और यह स्पष्ट हो वहीं, ३१ पृ.६४ भगवान महावीर : एक अनु. पृ.८१ सकता है कि जैन साहित्य में केवल वही, पृ. ८२ धर्म और दर्शन विषयक ही नहीं, भगवान महावीर : एक अनु. पृ. ८२ अन्य विषयोंसे सम्बन्धित विवरण उत्तराध्ययन बृहवृत्ति पृ. २१५ भी पर्याप्तरूप से उपलब्ध होता है। भगवान महावीर : एक अनु. पृ. ८३ जैन विद्या के मनीषियों को इस ज्ञाताधर्म कला १८/१ २१० ओर भी ध्यान देना चाहिए। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (८६) पंचेन्द्रिय के विषय का, जो करता परिहार । जयन्तसेन मानस वह, स्वपर करत उद्धार । www.jainelibrary.org Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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