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________________ व्यवस्था प्रतिपादित करता है । समय के प्रवाह के साथ व्यवस्था में वाराणसी, श्रावस्ती, साकेत, कांपिल्य, कौशाबी मिथिला, हस्तिनापुर भी परिवर्तन हुआ और उसका विकास भी हुआ । जैन- साहित्य में , और राजगृह उस समय इन दस नगरियों को अभिषेक राजधानी आगे शासन व्यवस्था विषयक जो विवरण मिलता है, उसका कहा है। संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। युवराज की योग्यता :- युवराज पांच विशिष्ट पुरुषों में से एक राजा का पद एवं उत्तराधिकार :- प्रजा-पालन के लिये राजा का होता था । राजा के पश्चात् युवराज का क्रम था फिर अमात्य, होना अत्यन्त आवश्यक माना गया | राजा का सर्वगण सम्पन्न और श्रेष्ठ और पुरोहित होते थे। राजा की मृत्यु के पश्चात. यवराज व्यसन तथा विकार रहित होना आवश्यक था ।' राजा का ही राजा बनता था। उसकी योग्यता के सम्बन्ध में बताया गया हैराजनीति में निपुण और धर्म के प्रति श्रद्धावान होना भी जरूरी (१) युवराज अणिमा, महिमा आदि आठ प्रकार के ऐश्वर्य से था । उसके दोनों कुल पवित्र होना चाहिए । राजा का पद वंश युक्त होता था । परम्परागत होता था । राजा के एक पुत्र होने की स्थिति में वही (२) वह बहत्तर कलाओं, अठारह देशी भाषाओं, गीत, नृत्य, तथा उत्तराधिकारी होता था । एक से अधिक पुत्र होने पर, उनकी हस्तियद्ध, अश्वयुद्ध, मुष्टियुद्ध, बाहयुद्ध, लतायुद्ध, रथयुद्ध, धनुर्वेद परीक्षा आयोजित की जाती थी और जो परीक्षा में सफल होता आदि में भी निपण होता था ८ उसके कर्तव्यों की ओर संकेत वही युवराज बनता था । राजा के स्वर्गवास के पश्चात जिस करते हुए बताया गया है कि आवश्यक कार्यों से निपटकर वह राजकुमार को सिंहासन का अधिकार मिलता यदि वह दीक्षा ले सभा मण्डल में पहुंचकर राजकाज का अवलोकन करता था । लेता तो उससे छोटा राजकुमार राजा बन जाता । यदि राजा और पड़ोसी राजा द्वारा उपद्रव करने की स्थिति में उसे शांत करने का युवराज दोनों ही राज्य त्यागकर दीक्षा ले लेते तो बहन के पुत्र को कर्तव्य भी यवराज का था।" राज्य का भार सौंप दिया जाता । एक परम्परा यह भी थी कि अमात्य का पद बड़ा महत्त्वपूर्ण होता था । युवराज के यदि राजा का कोई भी उत्तराधिकारी नहीं होता तो हाथी या घोड़ा पश्चात् सबसे बड़ा पद भी यही था । जैन साहित्य में अमात्य/मंत्री छोड़ दिया जाता था । वह जिसका भी अभिषेक करता उसी को के पद विषयक अनेक महत्त्वपूर्ण दृष्टांत भी मिलते हैं। विस्तारभय राजा बना दिया जाता। से यहां विशेष विवरण न देकर यह कहना ही पर्याप्त है कि राज्य प्राप्ति के लिए षड्यंत्र :- राजकुमारों में राज्य प्राप्तकरने की अमात्य साम, दाम, दण्ड और भेद में कुशल, नीतिशासन में तीव्र उत्कंठा रहती थी इसलिए राजा उनसे शंकित और भयभीत चतुरका, अर्थशासन में पारंगत, औत्पात्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी रहता था । और उनपर कठोर नियंत्रण रखता था । तथापि कितने और पारिणामिकी इन चार प्रभावी बुद्धियों में निष्णात होता था । ही महत्त्वाकांक्षी राजकुमार मौका मिलने पर अपने कुचक्रों में सफल राजा स्वयं उससे महत्त्वपूर्ण विषयों में परामर्श लिया करता था । हो जाते थे । वे राजा का वध कर स्वयं राजा बन जाते थे । राजा वह विलक्षण प्रतिभा का धनी होता था | सारे गुप्त रहस्यों का श्रेणिक को कूणिक ने अपने सौतेले भाई की सहायता से पकड़ ज्ञाता होने के साथ शत्रु को पराजित कर राज्य की रक्षा करता कर जेल में डाल दिया और स्वयं राजसिंहासन पर बैठ गया । था ।१० उसके बाद अपनी माता के कहने से परशु लेकर बेड़ियां काटने अन्य राज्याधिकारी :- श्रेष्ठि, नगर सेठ अठारह प्रकार की प्रजा चला, किंतु राजा ने समझा कि कूणिक उसे मारने के लिए आ रहा का रक्षक कहलाता था । वह राजा द्वारा मान्य होता था उसका है, एतदर्श कूणिक के आने से पूर्व ही विष खाकर उसने अपना मस्तक देवमुद्रा से व सुवर्णपिट्ट से सुशोभित रहता था । इनके प्राणांत कर लिया । अतिरिक्त ग्राम महत्तर, राष्ट्र महत्तर, गणनायक, दण्डनायक, राज्याभिषेक :- राज्याभिषेक के सम्बन्ध में ऊपर संकेत किया जा तलवर, कोहपाल, कौटुम्बिक, गणक, वैद्य इभ्य, ईश्वर, सेनापति चुका है । इस विषयकी जो जानकारी है उसके अनुसार राजा का सार्थवाह, संधिपाह, पीठमर्द, महामात्र, यानशालिक, विदूषक, दूत, अभिषेक समारोह अत्यंत उल्लास के क्षणों में मनाया जाता था । चेट, वार्तानिवेदक, किंकर, कर्मकर असिग्राही, धनुग्राही, कोतग्राही, जब मेघकुमार ने दीक्षा का निश्चय किया, तब माता-पिता के छत्रग्राही, चामरग्राही, वीणाग्राही, भाण्ड, अभ्यंग लगानेवाले, उबटन अत्यधिक आग्रह पर वे एकदिन के लिए राजसम्पदा का उपयोग मलनेवाले, स्नान कराने वाले, वेशभूषा से शोभित करने वाले, पैर करने के लिए प्रस्तुत हुए । अनेक गणनायक, दण्डनायक, प्रभृति को दबाने वाले, आदि अनेक अधिकारी, कर्मचारी और सेवक से परिवृत्त हो उन्हें सोने, चांदी, मणि, मुक्ता आदि से आठआठ राजा की सेवामें रहते थे।". जांचर सौ कलशों से स्नान कराया । मृत्तिका, पुष्प, गंध, माल्य, औषधि कर व्यवस्था :- राज्य की आय का प्रमुख स्रोत कर होता है । उन और सरसों आदि उनके मस्तक पर फेंकी गयी, तथा दुंदुमि बाजों और जय-जयकार का घोष सुनाई देने लगा | राज्याभिषेक हो जाने दिनों अठारह प्रकार के करों के प्रचलन का उल्लेख मिलता है ।१२ सुंकपाल नामय अधिकारी कर वसूल . के पश्चात् सभी प्रजा राजा को बधाई देती है | चम्पा, मथुरा, कर स्वने पर अपना । तथापि भयभीत कर स्वयं ग की सहाय बैठ गयाटने वह विलक्षण उससे ने से परशासन पर बैठ से पकड़ निशीशभाष्य १५/४७९९ व्यवहार भाष्य १ | पृ. १२८ व्यवहार भाष्य ४/२०९ और ४ ESS उत्तराध्ययन टीका, १० प. १५३ सिण्डिकी वही ३, पृ. ६३ भगवान महावीर : एक अनु. पृ.७८ ७ वही, पृष्ठ. ७८-७९ औपपातिक सूत्र ४० पृ. २४८ र व्यवहार भाष्य, १पृ. १३१ १० भगवान महावीर : एक अनु. पृ.८० " भगवान महावीर : एक अनुशीलन पृ.८० २ आवश्यक नियुक्तिी श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण भूल कबूल करे नहीं, व्यर्थ करे आलाप | जयन्तसेन उसे मिले, जीवन में संताप ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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