SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उल्लंघन होने लगा और अपराध निवारण में उनकी नीति प्रभावहीन दी । उस नगरी का दूसरा नाम अयोध्या भी कहा जाता है। सिद्ध हुई, तब युगलिक लोग घबराकर ऋषभदेव के पास आए और बाया . उन्हें वस्तुस्थिति का परिचय कराते हुए सहयोग की प्रार्थना की। राज्याभिषेक के उपरांत श्री ऋषभदेव ने राज्य की सुव्यवस्था ऋषभदेव ने कहा - "जनता में अपराधी मनोवृत्ति नहीं फैले .. के लिए आरक्षक दल की स्थापना की, जिसमें अधिकारी 'उग्र' और मर्यादा का यथोचित पालन हो इसके लिए दण्ड व्यवस्था होती। कहलाए । 'भोग' नाम के अधिकारियों का मंत्री-मंडल बनाया । है, जिसका संचालन 'राजा' किया करता है और वही समय समय राजा के परामर्शदाता 'राजन्य' के नाम से विख्यात हुए तथा राज्य पर दण्डनीति में सुधार करता रहता है । राजा का राज्य पद पर कर्मचारी 'क्षत्रिय' के नाम से जाने जाने लगे ।' अभिषेक किया जाता है। यह सुनकर युगलियों ने कहा - "महाराज! आप ही हमारे राजा बन जाइये।" दुष्ट लोगों के दमन के लिए तथा प्रजा और राज्य के संरक्षण के लिए उन्होंने चार प्रकार की सेना व सेनापतियों की भी व्यवस्था इसपर ऋषभदेव ने नाभि के सम्मानार्थ कहा - "जाओ इसके की । उनके चतुर्विध सैन्य संगठन में गज, अश्व, रथ एवं पैदल लिए तुम सब महाराज नाभि से निवेदन करो ।" सैनिक सम्मिलित किए गए । अपराध-निरोध तथा अपराधियों की युगलियों ने नाभि के पास जाकर निवेदन किया। समय के खोज के लिए साम, दाम, दण्ड और भेद की नीति का भी प्रचलन जानकार नाभि ने युगलियों की नम्र प्रार्थना सुनकर कहा - "मैं तो किया । वृद्ध हूँ, अतः तुम सब ऋषभदेव को राज्यपद देकर उन्हें राजा दण्डनीति :- शासन की सुव्यवस्था के लिए दण्ड परम आवश्यक बनालो।" है । दण्डनीति सर्व अनीति रूपी सो को वश में करने के लिए नाभि की आज्ञा पाकर युगलिकजन पद्मसरोवर पर गए और विषविद्यावत् है । अपराधी को उचित दण्ड न दिया जाय तो कमल के पत्तों में पानी लेकर आए । उसी समय आसन चलायमान अपराधों की संख्या निरन्तर बढ़ती जायगी एवं बुराइयों से राष्ट्र की होने से देवेन्द्र भी वहां आगए । उन्होंने सविधि सम्मानपूर्वक रक्षा नहीं हो सकेगी । अतः श्री ऋषभदेव ने अपने समय में चार देवगण के साथ ऋषभदेव का राज्याभिषेक किया और उन्हें राजा- प्रकार की दण्डनीति अपनाई । (१) परिभाष (२) मण्डलबंध योग्य अलंकारों से विभूषित कर दिया । (३) चारक और (४) बिच्छेद । युगलियों ने सोचा कि अलंकार विभूषित ऋषभ के शरीर पर परिभाष :- कुछ समय के लिए अपराधी व्यक्ति को आक्रोश पूर्ण पानी कैसे डाला जाय ? ऐसा विचारकर उन्होंने ऋषभदेव के चरणों शब्दों में नजरबंद रहने का दण्ड ।। पर पानी डालकर अभिषेक किया और उन्हें अपना राजा स्वीकार मण्डल बंध :- सीमित क्षेत्र में रहने का दण्ड देना ।। किया । चारक :- बन्दीगृह में रहने का दण्ड देना। इस प्रकार ऋषभदेव उस समय के प्रथम राजा घोषित हुए । इन्होंने पहले से चली आ रही कुलकर व्यवस्था समाप्तकर नवीन छविच्छेद :- करादि अंगोपांगों के छेदन का दण्ड देना । राज्यव्यवस्था का निर्माण किया ।। ये चार नीतियां कब चलीं, इसमें विद्वानों के मत अलग-अलग युगलियों के इस विनीत स्वभाव को देखकर शक्रेन्दने उस हैं । कुछ विज्ञों का मंतव्य है कि प्रथम दो नीतियां श्री ऋषभदेव के स्थान पर विनीता नगरी के नाम से उनकी वसति स्थापित कर' समय चली और दो भरत के समय । आचार्य अभयदेव के मंतव्यानुसार ये चारों नीतियां भरत के समय चली । आचार्य जैनधर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग. पृ. १९-२० भद्रबाहु और आचार्य मलयगिरि के अभिमतानुसार बन्ध (बेड़ी का प्रयोग) और घात (दण्डे का प्रयोग) ऋषभनाथ के समय आरम्भ हो एक संस्कृति पर सात गए थे और मृत्यु दण्ड का आरम्भ भरत के समय हुआ । जिनपुस्तकों का प्रकाशन । कई सेनाचार्य के अनुसार वध-बन्धनादि शारीरिक दण्ड भरत के समय पत्रिकाओं के अतिरिक्त महावीर चले । उस समय तीन प्रकार के दण्ड प्रचलित थे जो अपराध के स्मारिका, पांच स्मृति या अभिनंदन | अनुसार दिये जाते थेग्रंथों, जैनविद्या पर लिखित (१) अर्थहरण दण्ड (२) शारीरिक क्लेशरूप दण्ड (३) प्राणउपन्यासों एवं जीवन-चरित्र पर | हरण रूप दण्ड ।' ग्रंथों का सम्पादन । शोध प्रबंध का विषय - प्राचीन तथा उपर्युक्त विवरण कुलकरों तथा मध्यकालीन मालवा में जैन धर्म | प्रथम राजा ऋषभदेव के समय की : एक अध्ययन त्रिषष्टि १/२/९७४-९७६, आव. निर्यु. सम्प्रति - व्याख्याता, डॉ. तेजसिंह गौड़ गा. १९८ शासकीय उच्चतर माध्यमिक वही १/२/९२५-९३२ विद्यालय, उन्हेल. (जि. उज्जैन, त्रिषष्टि १/२/९५६ म.प्र.) ऋषभदेवः एक परीशीलन, पृ. १४५-४६ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (८४) निद्रा भोजन अल्प हो मर्यादित हो बात । जयन्तसेन सुमार्ग से, होता भव का घात ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy