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________________ श्रीमद्उत्तराध्ययन - सूत्र में कथा-शिल्प . (श्रमणसंघीय साध्वी डॉ. सुशीलाजी जैन “शशि) (शिष्या श्री ज्ञानवतीजी म.), भाषा-शास्त्रियों के मतानुसार “जिन-सूत्रों" में सर्वाधिक प्राचीन-भाषा के तीन सूत्र माने गए हैं। प्रथम - आचारांग द्वितीय सूत्रकृतांग एवं तृतीय-उत्तराध्ययन सूत्र । अन्य आगम सूत्रों में किसी विशिष्ट विषय का प्रतिपादन हुआ है, किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र मे विविध विषयों का समावेश है। (इसमें धर्मकथा, उपदेश, तत्त्वचर्चा का सुन्दर समीक्षण है।) इस पद्य-ग्रंथ के ३६ अध्याय हैं, जिनमें मुख्यत: यम-नियमों का सुन्दर निरूपण है, साथ ही आत्म-गुणों की ओर प्रेरित करने वाले प्रेरणाशील भावपूर्ण कथानकों का समावेश भी हुआ है। उत्तराध्ययन सूत्र का कथा-शिल्प स्वर्णजड़ित हीरकमणि की भाँति आलोकित है। इस सूत्र के ३६ अध्ययनों में चौदह अध्याय धर्म कथात्मक हैं। अत: इसे धर्मकथानुयोग में लिया गया है। इस सूत्र में वर्णित कथा-शिल्प को उभारने में मैने विस्तृत शैली न अपनाकर अति संक्षिप्त शैली अपनाई है; जो लघु-शोध-निबंध के लिए उपयोगी है। उत्तराध्ययन सूत्र के आठवें अध्ययन “काविलीयं” में लोभ की अभिवृद्धि का सजीव चित्रण हुआ है। द्रौपदी के चीर की भाँति वृद्धि पाने वाला यह लोभ सद्गणों का नाशक सिद्ध हुआ है, और कपिल केवली का कथानक इसी भूमिका पर उतरा है किन्तु लोभ से लिप्त कपिल के अन्तर्मानस में कुछ इस प्रकार परिवर्तन हुआ कि उसका मन विरक्त हो गया। विरक्त-मन गृहस्थ में निग्रंथ बन गया। इसी अध्ययन में कपिल केवली के द्वारा साधुओं के प्रति एक विशिष्ट उद्बोधन है। पूर्वजन्म के वृत्तान्त के साथ सूक्ष्म अहिंसा का भी सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। नवमाँ अध्ययन 'नमि राजर्षि' से सम्बन्धित है, जो कि रागी से वैरागी बन जाते हैं। संयम-साधना के पथ पर बढ़ते उन क्षणों में परीक्षा हेतु ब्राह्मणवेश में इन्द्र देव प्रस्तुत होते हैं। उनके मध्य होने वाले पारस्परिक संवाद यथार्थ के धरातल पर उतर आए हैं। इस अध्याय से 'नमिराजर्षि' के साथ तात्त्विक प्रश्नोत्तर और उनका सुंदर समाधान हुआ है। बारहवें अध्याय में 'हरिकेशबलऋषि' का कथानक है। उनका जन्म चाण्डाल कुल में हुआ था, किन्तु तप के दिव्य प्रभाव से वे सर्व वन्दनीय बन गए। इस अध्ययन से जातिवाद का खण्डन परिलक्षित होता है। तेरहवाँ अध्याय 'चित्त सम्भति' को लेकर चलता है। यह अध्याय त्याग-वैराग्य की प्रवाहित विमल-धारा के साथ पनर्जन्म को सिद्ध करता है। चौदहवें अध्याय में 'इक्षुकार नृप' की कथा है। इसके अन्तर्गत जीवन की नश्वरता, संसार की असारता, मृत्यु की अविकलता, काम-भोगों की मोहकता एवं मूलत: आत्मा की नित्यता का विश्लेषण हुआ है। अठारहवें अध्याय में 'राजा संयति' का वर्णन है, जो हिंसक से साध्वी डॉ. सुशीलाजी जैन अहिंसक बन गए, जिनका शिकारी रूप 'शशि' शिरोमणि में परिवर्तित हो गया। साथ ही इसमें चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर की अनुपम विभूति के धारक अनेक महापुरुषों का आत्मसिद्धि के लिये त्याग मार्ग पर अनुसरण का वृत्तांत एवं उनकी नामावली भी पाई जाती है। उन्नीसवाँ अध्याय 'मृगापुत्र' के कथानक से जुड़ा हुआ है। इसमें माता और पुत्र के संवाद में तात्त्विक चर्चा के साथ जीवन की कठोरता उभरी है । साथ ही पुत्र का कर्त्तव्य, माता-पिता का वात्सल्य, नरक-वेदना का वर्णन एवं आदर्श त्याग की समुज्ज्वलता प्रकट हुई है। बीसवें अध्याय में 'महानिर्ग्रन्थ अनाथी मुनि' का कथा वर्णन है। इसमें अनाथ और सनाथ की व्याख्या करते हुए चिन्तन गहन हो गया है। अशरण-भावना के साथ “कर्म का कर्ता और भोक्ता आत्मा ही है।” यह भी सुस्पष्ट होता है। इक्कीसवें अध्याय में समुद्रपाल का वर्णन है। तप-त्याग एवं विरक्ति की त्रिवेणी के साथ इस अध्याय में समुद्रयात्रा का विशेष वर्णन हुआ है। बावीसवाँ अध्याय नारी-शक्ति का ज्वलंत उदाहरण है। अंधक कुलगोत्रीय समुद्रविजय के पुत्र रथनेमि, प्रभु अरिष्टनेमि के लघु भ्राता थे। वे अपने भ्राता की होने वाली पत्नी राजमती के रूप लावण्य पर आसक्त होकर काम-याचना करते हैं, किन्तु साध्वी राजमती, मुनि रथनेमि को अनासक्ति का मार्ग समझाकर पुन: धर्म पर दृढ़ करती है। इस अध्याय की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह रही है कि 'पथ भ्रष्ट परुष को नारी ने सत्पथ दिखलाया है। इस अध्ययन में नारी का नारायणी रूप उजागर हुआ है। नारी मात्र वासना की दासी नहीं, उपासना की देवी भी है। वह प्रेयसी ही नहीं, पुरुष के लिए पवित्र प्रेरणा भी है। नमिनाथ की कथा प्रथम बार इस सूत्र में वर्णित हई है। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथावाचना माया दुःखदा है सदा, माया करे विकार । जयन्तसेन संयम रख, फानी यह संसार ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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