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________________ तेइसवाँ अध्याय 'केशि-गौतम' की तात्त्विक-चर्चा पर आधारित है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के मुनि केशिश्रमण एवं भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम स्वामी के ऐतिहासिक आध्यात्मिक संवाद है । प्रस्तुत अध्ययन में आत्म-विजय और मन पर अनुशासन के जो उपाय प्रदर्शित किए हैं, वे आधुनिक तनाव के युग में परम उपयोगी हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णित चतुर्दश कथानक की प्रत्येक कथावस्तु 1 आसक्ति से अनासक्ति की ओर वृद्धिगत हुई है। मानव जीवन की श्रेष्ठता, श्रामण्य-जीवन की महत्ता, संसार की नश्वरता-अस्थिरता एवं आत्मस्वरूप के दृष्टिकोण पर ही समस्त कथावस्तु आधारित हुई है। जैसे: खणमेत्त सोक्खा, बहुकाल दुक्खा, पगाम दुक्खा, अणिगाम सोक्खा । संसार मोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ काम भोगा॥' (अ. १४ गा. १३) उत्तराध्ययन सूत्र की समस्त कथाएँ कथानक की दृष्टि से सुगठित एवं प्रभु महावीर के शिष्यों का संवाद-प्रसंग आकर्षक एवं महत्त्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ : २३ वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य महामुनि के श्रीश्रमण, २४ वें तीर्थंकर भगवान महावीर के प्रथम शिष्य प्रज्ञामुनि इन्द्रभूति गौतम से कहते हैं: अणेगाणं सहस्साणं, मज्झ चिट्ठसि गोयमा। ते य ते अहि गच्छन्ति, कहं ते निज्जिया तुमे? ५ (उ.सू.अ. २३ गा. ३५) गौतम ! अनेक सहस्र शत्रुओं के मध्य आप खड़े हैं। वे आपको जीतने के लिए तत्पर हैं, फिर आपने उनको कैसे जीत लिया?" प्रत्युत्तर में गौतम स्वामी कहते हैंएगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस। दसहा उ जिणिताणं, सव्व सत्रू जिणा महं ।। (उ.सू.अ. २३ गा. ३६) न “महामुने ! जो एक को जीतता है, वह पाँच को जीत लेता है, और जो पाँच को जीतता है, वह दस को जीत लेता है। दसों को जीतकर मैंने सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्ति की है।" - उत्तराध्ययन सूत्र की भाषा-शैली पद्यात्मक है एवं अर्धमागधी भाषा के धरातल पर अवतरित हुई है। देशकाल से इसे अंग-सूत्र का उत्तरावर्ती माना है। बिना उद्देश्य के कथानक का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है। इस दृष्टि से उत्तराध्ययन सूत्र में प्रस्तुत सभी कथानकों की मूल संवेदना भौतिकता के परिवेश में होती है, जिसका पर्यवसान अनासक्त भाव में होता है । समस्त कथाओं का केन्द्रीय विचार है- 'मनुष्य-जीवन दु:ख से ओत-प्रोत है। आत्मा राग-द्वेष, विषय-कषाय से लिप्त है।" इन सबसे मुक्त होने के लिये अपने जीवन एवं चरित्र को शद्ध तथा पवित्र बनाना ही एकमात्र चरम लक्ष्य है। हैं। प्राय: कथाओं के पात्रों का केन्द्र-बिन्द संसार की अनित्यता है। 'चारित्र का सौन्दर्य इसी अनित्यता पर जा टिका है। आत्मा ही सुखदु:ख का कर्ता एवं विकर्ता है। आत्मा ही अपना मित्र और शत्रु है। इन भावों को व्यक्त करते हुए मुनि अनाथी, नृप श्रेणिक को सम्बोधित करते हुए कहते हैं। अप्पा कत्ता विकत्ताय, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय-सुपट्ठिओ ॥ एकान्त के क्षणों में रथनेमिने राजमती के सौन्दर्य पर विमुग्ध होकर जब अपनी काम भावना को प्रस्तुत किया, तब ऐसे क्षणों में राजमती सम्भ्रान्त न होकर जाति, कुल एवं शील का रक्षण करते हए रथनेमि को, संयम में स्थिर रहने का सन्देश देती है: अहंच भोयरायस्स, तं च सि अन्धग वन्हिणो । मा कुले गन्धणा होमो, संजमं निहओ चरं ॥३ (उसूअ. २२, गा. ४४) राजमती के चरित्र का यह उज्ज्वलतम रूप है, इतना ही नहीं उसके उद्बोधन से रथनेमि का चरित्र भी विकास प्राप्त करता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कथानकों के साथ-२ संवादों की एक सुंदर श्रृंखला भी पाई जाती है। कथाओं के ये कथोपकथन सुन्दर एवं सात्त्विक भी हैं । नमिनाथ एवं राजमती का संवाद बुद्ध-ग्रंथ सूत्र-निपात की 'प्रत्येक बुद्ध' कथा के समानान्तर है। हरिकेषि व ब्राह्मण का संवाद धार्मिक-क्रिया एवं वृत्ति की ओर संकेत करता है। भृगु पुरोहित एवं उसके पुत्रों का संवाद श्रमण जीवन की महत्ता को उद्भाषित करता है । तेइसवें अध्ययन में भगवान पार्श्वनाथ सन्दर्भ - (१) उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय १४, गाथा १३ (२) उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय २०, गाथा ३७ (३) उत्तराध्ययन सूत्र, २२, गाथा ४४ (४) उत्तराध्ययन सूत्र -हिन्दी अनुवाद-परिचय पृष्ठ ३ (५) उत्तराध्ययन सूत्र अध्याय २३, गाथा ३६ मधुकर मौक्तिक भाव वृद्धि के साथ ही भवस्थिति घटने लगती है। सूरज की प्रखर किरणों के कारण सरोवर का पानी खत्म हो जाता है और वह सूख जाता है, वैसे ही भाव सूर्य की प्रखर उष्णता से जन्म-मरण अर्थात् भवरूप तालाब सूख जाता है। जब भव का अंधेरा घटने लगता है, तब अंधकार भरा मार्ग प्रकाशमान होने लगता है। श्रीमद जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना ५४ माया देखत फंस गया, देह रूप कंकाल । जयन्तसेन जग में वह, रहा सदा कंगाल ॥ www.jainelibrary.org Jain Education Indemnational For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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