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________________ जैन - दर्शन में अरिहन्त का स्थान । (साध्वी डॉ. दिव्यप्रभाजी एम.ए., पीएच.डी.) इस वाक्य का सर्जन हुआ। भले ही वीतराग की इच्छा का अभाव हो जाने से देने दिलाने का कोई प्रयल न भी हो, फिर भी उनमें ऐसी शक्ति है जिसके निमित्त से बिना इच्छा के ही उस फल की प्राप्ति स्वत: हो जाती है। इसीलिये उनको पंचसूत्र शक्रस्तव आदि में “अचिंत्तसत्तिजुत्तहिं” “अचिंतचिंतामणि" कहते हैं। साध्य की शक्ति विशेष के प्रभाव से साधक को सिद्धि सहज मिल जाती है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। “ऐसी शक्ति अन्य में असम्भव है" क्योंकि इस शक्ति में उनकी साधना का अटल रहस्य है; जो दो कारणों से परिणमित है१. तीर्थंकर नाम कर्म का उदय एवं २. धन २. घनघाती कर्मों का क्षय। ललित विस्तार में कहा है कि तीर्थंकर नाम कर्म की यह विशेषता है कि इसके उदयकाल में अरिहन्त का ऐसा अचिन्त्य प्रभाव होता जैन-दर्शन में “अरिहंत" राग-द्वेष, काम, भय, हास्य, शोकादि दोष से रहित होने से वीतराग तथा अनन्तज्ञान एवं दर्शन से युक्त होने से सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, अष्ट महाप्रतिहार्य समवसरण सुवर्णकमल आदि द्वारा देवों से पूजनीय होने से “अरिहन्त” राग-द्वेष पर विजय पाने से जिन, अज्ञानसागर से तैरने के कारण तीर्ण, केवलज्ञान प्राप्त करने से बुद्ध तथा घातीकर्म से रहित होने से मुक्त माने गये हैं। अरिहन्त को जैन-दर्शन में भगवान भी कहते हैं क्योंकि १. समग्र ऐश्वर्य, २-रूप, ३-यश, ४-श्री, ५- धर्म एवं ६-प्रयल ये छ: अर्थ जो “भग” के हैं, इनमें पाये जाते हैं। ललित विस्तार के अनुसार “अयमेवंभूतो भगोविद्यते येषां ते भगवन्तः ॥” अर्थात् छ: प्रकारों का “भग" जिन्हें प्राप्त हैं वैसे अरिहन्त देव भगवान् कहलाते हैं। अरिहन्त को तीर्थ रचने के स्वभाव वाले होने से तीर्थंकर कहते हैं तथा राग-द्वेष विषय कषायादि मल से रहित होने से परमात्मा भी कहते हैं। इस प्रकार जैन-दर्शन में “अरिहन्त” का विशिष्ट स्थान है। पंचपरमेष्ठि पद में “नमो अरिहन्ताणं" पद के अधिष्ठाता ये ही अरिहन्त भगवन्त हैं। जैन-दर्शन की महती विशिष्टता यही है कि जैन-दर्शन में लाक्षणिकता से ही व्यक्ति परमात्मा होता है। सामान्य से सामान्य स्थिति में जीवन व्यतीत करने वाली आत्मा भी प्रयल के पश्चात् परमात्मा बनने में समर्थ हो सकती है। _ जैन दर्शन के अनुसार अनन्तानंत परमाणुओं के बने हुए भिन्न-भिन्न प्रकार के सजातीय स्कन्ध हैं। उनका समुदाय, विविध वर्गणाएं हैं। उनमें कार्मण-वर्गणा के नाम से पहचानी जाने वाली वर्गणा को संसारी जीव कषाय और योग द्वारा ग्रहण कर आत्मसात् करता है तब वह वर्गणा कर्मरूप से पहचानी जाती है। उसके मुख्य आठ प्रकार हैं: उनमें एक का नाम “नामकर्म" है। उसमें भी कुछ शुभ हैं और कछ अशुभ है । शुभ "नामकर्म" में विशुद्धता की दृष्टि से जो सर्वश्रेष्ठ है उसे “तीर्थंकर नाम कर्म" कहते हैं। यह “तीर्थकर नाम कर्म" आहारक नाम कर्म की तरह उदय के समय प्रमत्त नहीं होता, किन्तु आराधना प्रत्यनिक होता है। "अरिहन्त की शक्ति का अचिन्त्य प्रभाव वीतराग में रागमात्र का अभाव होने से किसी को कुछ देने दिलाने की इच्छादिक नहीं होती तब वह स्वर्ग मोक्षादि का दाता कैसे कहा जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में ही “शक्तिस्तस्य हि तादृशी" तीर्थंकर नाम कर्म (जिन नाम कर्म) नामक महापुण्य के कर्मविपाक-उदय से ऐसी शक्ति होती है जो उन्हीं में पाई जाती है, जिसमें तीर्थंकर नाम कर्म का उदय हो। दूसरा कारण है कर्म कलंक के विनाश द्वारा स्व-दोषों की शान्ति हो जाने से आत्मा में शान्ति की पूर्ण प्रतिष्ठा हो जाती है वह बिना इच्छा तथा किसी प्रयत्न के ही शरणागत की शान्ति का विधाता होता है। समन्त – भद्राचार्य ने स्वयंभूस्तोत्र में कहा है “स्वदोष शान्त्या विहितात्मशान्ति: शान्तेर्विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद् भव: क्लेश - भयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्यः । अर्हत्परमात्मा ने घाती कर्मों का क्षय किया है और अपने भवनों का किया उनका या कलेवाला या उनके ध्यान से स्वयं के भवबन्धनों के छेदन करने में समर्थ हो सकता है। प इस तीर्थंकर नाम-कर्म के पुण्य-कर्म का निकाचन पूर्व के तीसरे भव में होता है, किन्तु उपार्जन कई जन्म से होता है। इसे उपार्जित करने की मुख्य तीन साधनाएँ हैं१- शुद्ध सम्यक्त्व २- बीस स्थानकों में से एक अथवा अनेक स्थानक की उपासना एवं आराधना श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदनाथावाचना माया ममता से भरा, सारा यह संसार । जयन्तसेन केवट बिन, कैसे उतरे पार ॥ www.jainelibrary.org. Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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