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________________ ३- विशिष्ट विश्वदया। , शुद्ध सम्यक्त्व - सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म इन तीन पर श्रद्धा एवं इनको इष्ट, परमइष्ट मानकर इसका उपार्जन किया जाता है। सुदेव पर इतना उत्कृष्ट अनुराग होता है कि साधक के रोम-रोम में अरिहन्त.... अरिहंत .... का गुंजार होता है । चलते, फिरते, उठते, बैठते निरंतर सतत स्मरण होना चाहिए। बीस स्थानक और उनकी आराधना : तीर्थंकर नाम कर्म के बीस कारणों के निर्देशन हेतु निम्नलिखित गाथाएं उपलब्ध हैं अरिहंत सिद्ध पवयण गुरु थेरे बहुस्सुए तवस्सीसुं वच्छलया एएसि अभिक्खनाणोवओगे ज्ज ॥ दंसण विणय आवस्मए य सीलवए निरइयारे । खणत्वव तव च्चियाए वेयावच्चे समाहीए ॥ अप्पुवनाण जहणे सुयभत्ति पवयणयभावणया ॥ एएहिं कारणेहिं तित्थस्तं लहइ जीवों ॥ अर्थात् अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत और तपस्वी इन सात का वात्सल्य तथा इन चार सम्बन्धी ज्ञानोपयोगी तथा सम्यक्त्व, विनय, आवश्यक (अनुष्ठान) तथा शील और व्रत इन चार का निरतिचार (अतिचार रहित) पालन क्षणलव तपश्चर्या, त्याग, वैयावृत्य, समाधि, अपूर्वज्ञानग्रहण, श्रुत-भक्ति और प्रभावना युक्त प्रवचन इन बीस कारणों से जीवन तीर्थंकरत्व प्राप्त करता है। तीर्थंकर नाम कर्म का निकाचित बंध (निकाचन) करने के लिए इन बीस कारणों में से एक या अधिक की आराधना आवश्यक हैअनिवार्य है। इस चौबीसी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान ने और श्रमण भगवान महावीर ने बीसों स्थानकों का सेवन किया है तथा शेष २२ तीर्थंकरों ने १, २, ३ तथा २० का आराधन भी किया है। कहा भी है “पढ़मेण पच्छिमेण य एए सव्वेवि फासिया । मज्झिमयएहि जिणेहिं एग दो तिण्णि सव्वेवा ॥ अभयदेवसूरि - कृत टीका के अनुसार मल्लिनाथ ने बीसों स्थानकों का आराधन किया था। विशिष्ट विश्वदया:- “सर्व जीव करूं शासन रसी" की भावना स्वान्त: में सतत ध्यान निष्ठ होती है। जगत के जीवों को कैसे सुखी करूं ऐसी नहीं, परंतु प्राणिमात्र को मैं कैसे दुःख मुक्त करूं इसकी उत्कृष्ट भावना अन्त:करण में सदा उदीयमान रहती है। कर्म के बंधन से युक्त आत्मा की सांसारिक दशा का निरीक्षण करते हए करुणा के अतल सागर में निमग्न होकर तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करते हैं। “अद्भुत कला के अधिकारी" अरिहन्त बनने की इस “अद्भुत कला के अधिकारी” के लिये निश्चित की हुई तीन स्थितियां हैं:१. सम्यक्त्वी २. श्रावक एवं श्राविकाएं ३. साधु एवं साध्वी भगवान ऋषभदेव और श्री पार्श्वनाथ स्वामी ने पूर्व से तीसरे भव में चक्रवर्तीत्व की समृद्धि एवं सुखशीलता को त्याग कर, अविचल आराधना, अटल साधना एवं निश्चल उपासना कर तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया था। भगवान महावीर ने राजनी वैभव का त्याग कर इस नामकर्म का उपार्जन किया था। राजा श्रेणिक ने सम्यक्त्व में स्थिर होकर और सुलसा, रेवती, अंबड सन्यासी आदि ने श्रावक धर्म को पालते हुए तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन एवं निकाचन किया था, तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन तो कई बार होता है परंतु निकाचन होने के बाद इसका उदय निश्चित से तीसरे भव में होता है। यह है अरिहंत बनने की अद्भुत कला जिसे अपना कर प्रत्येक अरिहन्त, अरिहन्त बने हैं और विश्व को उन्होंने इसे दर्शा कर ऐसे पद प्राप्ति की योग्यता का दिग्दर्शन करवाया है। यद्यपि तीर्थकर कर्म बन्धन का उपदेश नहीं करते हैं, फिर भी तीर्थंकर नामकर्म बांधने का उपदेश तो वे स्वयं करते हैं। मधुकर मौक्तिक - ज्ञान तो सीधा सिखाया गया, पर हम उसे सीधी तरह नहीं सीख सके । जो अर्थ सीखना चाहिए, वह तो हम नहीं सीखे, पर कुछ और ही अर्थ सीख गये। शुरू से ही सारी बातें समझा दी गयी हैं, पर हमने केवल ऊपरी अर्थ ही लिया, अर्थ की गहराइयों तक हम नहीं पहुँच सके । शब्द के अर्थ के भीतर हमने प्रवेश नहीं किया। एकड़े एक, बगड़े दो... इस प्रकार शब्द क्यों जोड़े गये? किसी अन्य तरह से क्यों नहीं जोड़े गये? यदि इस पर विचार करें, तो विदित होगा कि आत्मा को ज्ञान का प्रकाश मिले, इसीलिए इस प्रकार से शब्दों की योजना बनायी गयी है। ये सब आत्मा को समाझाने के लिए है। हम ज्ञानीजनों के शब्दों पर ध्यान नहीं देते, अज्ञानियों के शब्दों पर ही ध्यान देते हैं। उनके शब्दों को पकड़ कर उलझन में पड़ जाते हैं, पर ज्ञानियों के शब्दों को पकड़ कर उलझन से बाहर निकलने का प्रयल नहीं करते। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्राम जयतसनसूरिभिनंदनाथ/वाचना ५६ माया ममता में रहा, तज समता का हाथ । जयन्तसेन जग से वह, जाता खाली हाथ ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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