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________________ जैन संस्कृति की विशेषताएँ। STERIES (साध्वी मंजश्रीजी एम.ए.) निकाला मानव समाज में संस्कृति और सभ्यता ये दो शब्द विशेष रूप आचार्य ह.प्र. द्विवेदी के इस से प्रचलित हैं। प्रायः प्रत्येक पढ़ा लिखा व्यक्ति और प्रत्येक धनवान कथन से कि 'संस्कृति उच्चतम चिन्तन व्यक्ति अपने को सभ्य और सुसंस्कृत मानता है। आधुनिकीकरण के का मूर्तरूप है। हमारे अभिमत की नाम पर पुरानी सही प्रथाओं को भी तिलांजलि देकर नए की अंधी पुष्टि होती है। होड़ में अपने को शामिल करते हुए व्यसन और फैशन का शिकार दो मुख्य संस्कृतियाँ बनने में गर्व महसूस करता है। इसीलिए चिन्तक लोग हमेशा से इस प्रश्न पर विचार करते रहे हैं कि सभ्यता और संस्कृति किसे कहा भारत में प्रागैतिहासिक काल से जाए? दोनों में क्या अन्तर है? ही दो संस्कृतियों का प्राधान्य रहा है-२ 'ब्रह्म' भाव का पोषण करनेवाली डॉ. राजबली पाण्डेय ने उक्त प्रश्न का समाधान करते हुए कहा साध्वी मंजुश्रीजी एम.ए. ब्राह्मण संस्कृति और सम, शम और है कि सभ्यता का अर्थ है Means of life तथा संस्कृत का अर्थ है श्रम का पोषण करने वाली श्रमण संस्कृति । दोनों ही अपनी-अपनी Values of life अर्थात हमारे भौतिक जीवन का संबंध सभ्यता से एक विशिष्ट पहचान के साथ चली आ रही संस्कृतियाँ हैं । इस लम्बी है और हमारे आध्यात्मिक जीवन का संबंध संस्कृति से है। भौतिक यात्रा में वे एक दूसरे को प्रभावित करती रही हैं। उदाहरण के रूप जीवन जीने योग्य समाज मान्य समुन्नत साधन एवं बाह्य तौर तरीके में संन्यास तथा जन्मान्तर के भवचक्र से निवृत्ति ब्राह्मण संस्कृति के 'सभ्यता' कहलाते हैं और आत्मिक सौन्दर्य के आधारभूत पारम्परिक लिए जैन संस्कृति की देन है और जैन संस्कृति के लिए देवी-देवताओं जीवन-मूल्यों को संस्कृति' कहा जा सकता है। की उपासना। आध्यात्मिक जीवन को संस्कारित करने में विचार और आचार का गहरा संबंध है। स्व-पर-हित साधन की भावना से जो विचार 'संस्कृति' शब्द का व्युत्पत्यर्थ और तदनुरूप आचार की निष्पत्ति होती है, संस्कृति उसी का दूसरा डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी के अनुसार 'संस्कृति' शब्द के तीन घटक नाम है । दूसरे शब्दों में, लोकमंगलकारी प्रयत्नों के मूल में निहित हैं- सम् + स् + कृति + । सम् का अर्थ है - सम्यक्, स का जीवन मूल्यों की समष्टि को 'संस्कृति' कहते हैं। अर्थ है- शोभादायक तथा कृति का अर्थ है- प्रयत्न, इच्छापूर्वक एक सभ्य कहलाने वाला डॉक्टर यदि अपनी पत्नी से नाखुश किया गया व्यापार । इस प्रकार संस्कृति का सम्पिण्डित रूप में होकर उसे नींद की गोलियाँ खिलाकर सला देता है, तो वह संस्कारवान शब्दार्थ हुआ शोभादायक विवेक सम्मत प्रयल।" नहीं कहला सकता। इसी प्रकार क्रोधावेश में यदि एक प्राध्यापक प्राणिमात्र में अनादिकाल से कर्म की विभावजन्य स्थितियों के दूसरे प्राध्यापक की उंगलियाँ चबा डालता है, तो वह भी असभ्य और कारण विकृति आई हुई है। आत्मा अपनी प्रकृति (स्वभाव) को भूलकर जंगलीपन का शिकार माना जाएगा। संस्कृति इस असभ्यता को दूर विकृतिग्रस्त बनी हुई है। उसे पुन: प्रकृतिस्थ करने के लिए जिस कर मानव मन को सबके हित की भावना से भर कर संस्कारवान विचार और आचार की जरूरत है, बस उसे ही 'संस्कृति' कहते हैं। बनाती है। अर्थात् मनुष्य के भीतर मनुष्यत्व का संचार करने का काम सभी प्राणियों में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो संस्कृति करती है। संस्कृति और सभ्यता ने मानव को संस्कारवान संस्कार-संपन्न बनने के लिये विशेष प्रयत्ल कर सकता है। वह समाज बनाने में अपना-अपना अमूल्य योगदान दिया है। इसीलिए मुनि बना कर रह सकता है, वह धर्म और दर्शन पर तात्विक चर्चाएँ कर विद्यानंदजी ने ठीक ही कहा है कि 'संस्कृति आत्मिक सौंदर्य की जननी सकता है, यहाँ तक कि वह अपने आत्मस्वरूप को संस्कारित कर है। इसी के अनुशासन में सुसंस्कार सम्पन्न मानवजाति का निर्माण परमात्मा भी बन सकता है। अत: आज संस्कृति के संबंध में जितनी होता है। भी चर्चा हुई है, वह सब मनुष्य संस्कृति से ही अधिकांशत: संबंधित प्रो. इन्द्रचन्द्र शास्त्री का अभिमत है कि विचारों की बहती हुई। धारा का नाम संस्कृति है। श्रमण, अंक २, वर्ष १, सन १९४९ पृ. ७ यहाँ हमारे अभिमत से विचारों की बहती हुई शुद्ध धारा को रक, श्री. के. म. सु. अ. पं. खंड ६ पृ. १४४ संस्कृति कहना चाहिए। विचार धारा यदि अशुद्ध हो गई तो वह क. श्री. के. म. सु, अभि. गं. खंड ६, पृ. १४४ समाज में संस्कृति के स्थान पर विकृति फैलाने वाली बन जाएगी। ४ क. श्री के म.सु. अभि. पं. खंड ६-१४४ श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना ५७ For Private & Personal Use Only पांच तत्त्व का पुतला, माया मय जंजाल । जयन्तसेन अहं रखे, होवत नहीं निहाल ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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