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________________ धर्म की त्रिवेणी - अहिंसा, संयम और तप 1 धर्म जीवन का मूल और प्राण वायु है धर्म इतना व्यापक विशाल और चैतन्य है कि हम इसे विश्व की एक नैतिक सुव्यवस्था मानते हैं। धर्म का आभूषण वैराग्य है वैभव नहीं। पुष्प और सुगन्ध की भाँति समाज और धर्म का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। धर्म संकुचित सम्प्रदाय नहीं है, वह केवल बाह्याचार भी नहीं, बल्कि जीवन को गति प्रदान कर लक्ष्य तक पहुंचाने में अर्थात् पुरुषार्थ प्राप्ति में धर्म सहायक बनता है। दयामय धर्म जीवन का साध्य है, धर्म की त्रिवेणी में अवगाहना करने के लिये हमें तीन सूत्रों से सम्बन्ध जोड़ना पड़ेगा। वे तीन सूत्र हैं- अहिंसा, संयम और तप । अहिंसा (जैनसाध्वी डॉ. प्रभाकुमारीजी 'कुसुम' एम.ए. पीएच.डी.) अहिंसा धर्म की आत्मा और उसका मेरुदण्ड है अहिंसा प्रेम की पराकाष्ठा है। जहाँ अहिंसा है वहाँ अपार धीरज, विनय, आत्म-त्याग, आत्मिक शांति और हेय-ज्ञेय-उपादेय का ज्ञान है जो हमें निरन्तर प्रेरित करते हुए जीवन के दिव्य पथ में आगे बढ़ाते रहते हैं । इस दुःख जगत की पीड़ा या आधि-व्याधि दूर करने का एक ही सीधा और सच्चा मार्ग है और वह है- 'अहिंसा' अहिंसा के द्वारा ही मानव सत्य से साक्षात्कार कर सकता है अहिंसा निर्बल और कायरों का हथियार नहीं, वीरों का भूषण है, वीरों का धर्म है। संसार में सत्य के बाद अहिंसा ही बड़ी से बड़ी सक्रिय शक्ति सिद्ध हो चुकी है। जो सम्पूर्ण अहिंसा के साथ अनन्तकाल तक इस पर डटा रहा, वह अवश्य ही विजयी होकर गौरवशाली बना है। अहिंसा मुनिव्रत का सर्वप्रथम एक महावत है श्रावक धर्म का भी सबसे पहला व्रत है- 'अहिंसा' एक पूर्व स्थिति है अहिंसा की समाप्ति ही मानव जाति का पतन है। आज संसार में अज्ञान के अंधकार में भटकनेवाले लोगों की संख्या में वृद्धि का मूल कारण अहिंसा का अभाव है। जैन दर्शन की नींव इसी अहिंसा पर सुदृढ़ है, जो जीवन का पर्यायवाची बन गई है अहिंसा प्रचण्ड शास्त्र है। अहिंसा परम पुरुषार्थ है । संयम | यदि हम निरन्तर कर्मशील रहकर कर्म बन्धनों का क्षय करके मोक्ष पाना चाहते हैं तो हमें संयमी बनना होगा। बिना संयम के संसार में कोई भी साधना संभव नहीं है। अमर्यादित जीवन जीनेवालों की स्थिति कर्णधार हीन नाव के समान है। जो पहली ही चट्टान से टकराकर चूर-चूर हो जाती है। अतः संयमी बनकर साध्य की साधना में लीन हो जाना ही मानव का निज-गुण है। यदि मानवशक्ति संयमी सेवाभाव से अपने अपने कर्त्तव्य की पहचान करले तो विश्व की सभी समस्याएँ आज ही समाप्त हो जाये और यह धरती स्वर्ग बन जाए। श्रम से अभिनंदनाचा volent Jain Education International संयम हमारे जीवन का स्वर्णिम सूत्र है - यह सूत्र हमें जीवन के चार पुरुषार्थ, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होता जैन साध्वी डॉ. प्रभाकुमारी 'कुसुम' है। जो व्यक्ति संयमशील है, वही सच्चे अर्थों में धनिक माना जाता है, क्योंकि संयम ही हमारे धर्म का स्तम्भ है। आत्म-संयमी बनकर सतत प्रयत्न करते हुए अपरिग्रह के सिद्धान्त का अक्षरशः • पालन करना ही सच्चा जैन धर्म है, धर्म- साधना के लिये संयम प्रथम सोपान है। तप तपस्या जीवन की सबसे बड़ी कला और महत्वपूर्ण साधना है। जिसके बिना जीवन अधूरा ही बना रहता है। तप से ही हमारी काया कंचनमय बनकर निखरती है। तप आत्मा की शुद्धि का मूल साधन है । तप के द्वारा ही मुक्ति के इच्छुक साधक आत्मसंयम और आत्मशुद्धि की ओर बढ़ते हैं और अन्त में सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। तप के द्वारा विश्व की बड़ी से बड़ी सिद्धियाँ उपलब्ध हो जाती हैं। प्राचीन काल में तप का बड़ा महत्व था, इसी तप के प्रभाव से ऋषि-मुनि तपस्वियों ने सुखी और शान्त जीवन व्यतीत करके जगत में अनेकों चमत्कार दिखाये, परन्तु आज तप के अभाव में व्यक्ति जीवन पथ और धर्म पथ से भटक गये हैं। मानव तप से अभीष्ट सिद्धि प्राप्त कर सकता है किन्तु तपस्या करने वालों को अपनी साधना और चरित्र पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए। जैन दर्शन के नव-तत्व में तीन तत्त्व जो उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य हैं, वे हैं संवर, निर्जरा मोक्ष इसमें निर्जरा तत्व तप की ओर अग्रसर करता है। कर्म बंधनों का क्षय इसी निर्जरा या तपस्या से ही संभव है। तप से आत्मा की स्वाभाविक शांति का विकास होता है। ज्यों-ज्यों कर्मों का आवरण कमजोर होता जाता है, त्यों-त्यों आत्मिक ज्योति का प्रकाश विकसित होने लगता है, तप हमें गतिशील बनाता है। जैन धर्म में जिनकी आस्था, निष्ठा एवं श्रद्धा है, जैन सिद्धान्तों तथा आदशों में जिनका विश्वास है तथा जैन आगमों में जिनकी अविचल और अटूट मान्यता है उन्हें इस त्रिवेणी में स्नान करने का अलौकिक अद्भुत और अनुपम आनन्द प्राप्त होता है अहिंसा, तप और संयममय त्रिवेणी में संयम ही धर्म का मूल है अत: कभी मूल में भूल न हो, यह ध्यान प्रत्येक के मन में, मस्तिष्क में सदा तरोताजा बना रहना चाहिए। 1 जल ही हमारा जीवन है। जल भी त्रिवेणी का हो, और त्रिवेणी भी धर्म की हो। धर्म की त्रिवेणी में अहिंसा गंगा है, संयम यमुना है, तो तप सरस्वती है जो आत्मा इस अहिंसा-तप-संयम मय त्रिवेणी में स्नान करेगी वही सच्चे शाश्वत सुखों की अधिकारी होगी। तो आइए, इस त्रिवेणी में आत्म-आनन्द हेतु अवगाहन करें। | ५२ For Private & Personal Use Only मान करे अपमान हो, मान हरे सम्मान । जयन्तसेन अहं तजे, वह नर देव समान ॥ www.jainelibrary.org
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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